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कृदन्तः
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अनुपसर्गे आङ्गि चरेर्यो भवति अगुरौ । आचर्यो देश: । अनुपसर्ग इति किं ? अभिचार्य । अगुराविति किं ? आचार्यो गुरुः ।
पण्याद्यवर्या विक्रेयगहर्यानिरोधेषु ॥ ५१७ ।।
एतेष्वर्थेषु एते निपात्यन्ते यथासंख्यं । पण्यमिति निपात्यते विक्रेयार्थे । अवद्यमिति निपात्यते गह्यार्थे । वर्यमिति निपात्यते अनिरोधार्थे । पण व्यवहारे स्तुतौ च । वद व्यक्तायां वाचि । वृज वरणे । पण्यं । अवद्यं । वर्यं ।
वह्यं करणे ।।५१८ ॥ वह्ममिति निपात्यते करणेऽर्थे। वहां शकटं वाह्यमन्यत् । अर्यः स्वामिवैश्ये ॥५१९ ।।
अर्यमिति निपात्यते स्वामिनि वैश्ये चार्थे । अर्यते इति अर्यः स्वामी अर्यो वैश्यः । उपसर्या काल्याप्रजने ॥ ५२० ॥
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प्रजने प्राप्तकाले चेत् उपसर्या इति निपात्यते । सृ गतौं । उपसर्या ऋतुमतीत्यर्थः । अज संगते ॥ ५२१ ॥
अजर्यमिति निपात्यते संगतेऽर्थे न जीर्यत इत्यचर्य आर्यसंगतं ।
नाम्नि वदः क्यप् च ॥५२२ ।।
आचर्य: देश: । अनुपसर्ग ऐसा क्यों कहा ? घ्यणु प्रत्यय में अभि उपसर्ग से परे अभिचार्य । गुरु अर्थ न हो ऐसा क्यों कहा ? आचार्यः गुरुः ।
विक्रेय मर्त्य और अविरोध अर्थ में पण्य अवद्य और वर्य निपात से सिद्ध होते हैं ॥५१७ ॥
क्रम से पण् व्यवहार और स्तुति अर्थ में है, विक्रेय अर्थ में 'पण्यं' निपात से सिद्ध हुआ । वद- स्पष्ट बोलना गर्ल्स अर्थ में न वद्यं = 'अवद्यं' निपात से बना । वृञ् वरण करना । अनिरोध अर्थ में वर्य निपात से बन गया है।
करण अर्थ में 'वा' निपात से सिद्ध होता है ॥५१८ ॥
वह धातु से बह्यं शकटं । अन्य अर्थ में वाह्य बना ।
स्वामी और वैश्य अर्थ में 'अर्थ' शब्द निपात से सिद्ध होता है ॥५१९ ॥
ऋ धातु से अर्यते इति अर्य: स्वामी और वैश्य ।
यदि प्रजनकाल प्राप्त है तो 'उपसर्या' यह शब्द निपात से सिद्ध होता है ॥५२० ॥
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— गमन करन । उपसर्या - गर्भ धारण करने के योग्य ऋतुमती यह अर्थ है ।
संगत अर्थ में 'अजय' यह शब्द निपात से सिद्ध होता है ॥५२१ ॥ न जीर्यते, ज- -अजयें। इसका अर्थ है आर्यसंगति जीर्ण नहीं होती है।
नाम उपपद से परे वद धातु से क्यप् और य प्रत्यय होता है ॥५२२ ॥