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कातन्त्ररूपमाला
खचात्मने ॥६८० ॥ कर्मण्युपपदे आत्मार्थे मन्यतेणिनिर्भवति खश्च प्रत्यय: पुंवच्च । विदुषीमिव आत्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी । पटुमिवात्मानं मन्यते पटुमन्यः।
करणेऽतीते यजः ॥६८१॥ करणे उपपदे यजेणिन् भवति अतीतेऽर्थे । अग्निष्टोमेन इष्टवान् अग्निष्टोमयाजी । वाजपेययाजी।
कर्मणि हनः कुत्सायाम्॥६८२ ।। कर्मण्युपपद हन्तेणिनिर्भवति अतीते काले वर्तमानात् कुत्सायां । पितृघाती । मातुलघाती ।
स्विप ब्रह्मभ्रणवृत्रेषु ।।६८३ ॥ ब्रह्मादिषूपपदेष्वतीते हन्तेः क्विप् भवति । ब्रह्माणं हन्तिस्म ब्रह्महा। भ्रूणहा । वृत्रहा ।
कृञः सुपुण्यपापकर्ममन्त्रपदेषु ॥६८४ ।। एतेषूपपदेषु कृय: विवप् भवति अतीते । सुष्टु करोतिस्म सुकृत् । पुण्यकृत् । पापकृत् । कर्मकृत् । मन्त्रकृत् । पदकृत् ।
सोमे सुजः ॥६८५ ।। सोमे उपपदे सुजः स्विप भवति अतीते । सोमं सुनोतिस्म सोमसुत् ।
कर्म उपपद में होने पर आला अय में मनु कानुले पित्यय होता है और 'ख' प्रत्यय होता है पुंवद् भी होता है ॥६८० ।।
विदुषीमिव आत्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी पटुमन्यः । करण उपपद में होने पर अतीत अर्थ में यज् से णिन् प्रत्यय होता है ॥६८१ ॥ अग्निष्टोमेन इष्टवान्-अग्निष्टोमयाजी, वाजपेययाजी ।
कर्म उपपद में होने पर अतीत काल में वर्तमान कुत्सा अर्थ में हन् धातु से णिन् प्रत्यय होता है ।।६८२ ।। ___पितरम् हन्ति इति—पितृ धाती, "हस्य हंतेधिरिणिचो:" ३६७ सूत्र से ह को ध होकर 'हन्तेस्त:' सूत्र ५६० से नकार को तकार हुआ है। ऐसे मातुलघाती गुरुघाती आदि बनते हैं। ब्रह्म भ्रूण और वृत्र उपपद में होने पर अतीत काल में हन से क्विप होता है ६८३ ॥ __ब्रह्माणं हंतिस्म ब्रह्महन् बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में ब्रह्महा बनेमा। ऐसे ही भ्रूणहा, वृतहा।
सु, पुण्य, पाप, कर्म, मंत्र और पद उपपद में रहने पर अतीत काल में कृ धातु से क्विप होता है ॥६८४ ।।
सुष्टु करोतिस्म सुकृत् “धातोस्तोऽन्तः पानुबंधे" सूत्र ५२९ से पानुबंध कृदन्त प्रत्यय के आने पर ह्रस्वान्त धातु के अंत में तकार का आगम हो जाता है। अत: क से तकार का आगम होकर 'कृत्' बन जाता है। ऐसे ही पुण्यकृत् पापकृत् आदि।
सोम उपपद में अतीत अर्थ में 'कृ' से क्विप होता है ॥६८५ ॥ सोमं सुनोतिस्म-सोमसुत् । तकार का आगम हुआ है।