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कातन्त्ररूपमाला
भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा। कृतायां रूपमालायामाख्यात: परिपूर्यते ॥१ ।।
अथ कुदन्ताः केचित्प्रदपर्यन्ते
सिद्धिरिज्वळ्णानुबन्धे ।।४९१ ।। ज्णानुबन्धे कृत्प्रत्यये परे इचि कृतं कार्यमतिदिश्यते यथासंभवं ।
धातोः॥४९२॥ अविशेषेण धातोरित्यथिकारो वेदितव्यः ।
कृत् ।।४९३ ॥ वक्ष्यमाणा: प्रत्ययाः कृत्संज्ञका वेदितव्याः ।
कर्तरि कृ॥४९४ ॥ कृत्प्रत्ययान्ताः कर्तृकारके भवन्ति।
वर्त्तमाने शन्तृङानशावप्रथमैकाधिकरणामन्त्रितयोः ।।४९५ ॥ अप्रथमैकाधिकरणामत्रितयोः परयो: वर्तमानकाले धातोः शन्तृडानशौ भवतः ।।
सार्वधातुकवत् ।।४९६ ॥ शानुबन्धे कृति परि सार्वधातुकवत्कार्यं भवति । कृदन्ताः प्रायो वाच्यलिङ्गाः। शन्तुङन्तं क्विवन्तं धातुत्वं न जहाति । भवन् पुमान् । भवन्ती स्त्री । भवत्कुलं । लोकोपचारादानशानावात्मनेपदे।।
अर्थ वादीरूपी पर्वतों के लिये वन के सदृश ऐसे वादिपर्वत वज्री श्री भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने इस रूपमाला टीका में आख्यात प्रकरण पूर्ण किया है ॥१॥
इस प्रकार से यहाँ तक तिङत प्रकरण समाप्त हुआ है।
अथ कृदन्त प्रकरण प्रारंभ होता है। बानुबंध, णानुबंध कृत् प्रत्यय के आने पर यथासंभव इच् में कहा गया कार्य हो जाता है ॥४९१ ॥
सामान्यतया 'धातोः' इस सूत्र से धातु का अधिकार समझना चाहिये ॥४९२ ।। आगे धातु से कहे जाने वाले सभी प्रत्यय 'कृत्संज्ञक' समझना चाहिये ॥४९३ ॥
कृत् प्रत्यय वाले शब्द कर्तृकारक में होते हैं ॥४९४ ॥ अप्रथमैकाधिकरण और आमंत्रित से परे वर्तमानकाल में धातु से शतृङ् और आनश् प्रत्यय होते हैं ॥४९५ ॥
शानुबंध कृत् प्रत्यय के आने पर सार्वधातुकवत् कार्य होता है ||४९६ ॥
कृत् प्रत्यय वाले शब्द प्राय: वाच्यलिंग होते हैं। अर्थात् विशेष्य के अनुकूल होते हैं। शतृङ् प्रत्यय वाले और क्विा प्रत्यय वाले शब्द धातुपने को नहीं छोड़ते हैं । भू शतृङ् । श् ऋ और ङ् अनुबंध हैं अत: 'भू अन्त्' रहा 'अन् विकरणः कतरि' सूत्र से अन् विकरण होकर अनि च विकरणे' सूत्र से गुण