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कातन्त्ररूपमाला
स्वरजौ यवकारावनादिस्थौ लोप्यौ व्यञ्जने ॥५६॥ अनादिस्थौ स्वरजी यवकारौ लोप्यौ भवतो व्यञ्जने परे । नारदः । रावणः, मारुत: । अविन्दुः । रिप्युदयः ॥ ते अत्र । पटो अत्र । इति स्थिते ।
एदोत्परः पदान्ते लोपमकारः ।।५७ ॥ एदोड्या पदान्ते वर्तमानाभ्यां परोऽकारो लापमापद्यते । तेऽत्र । पटोऽत्र । देवी गृहम् । पटु हस्तः ।। मातृ मुखम् । जले पद्मम् । रै धृतिः । गो गति: । नौ यानम्।
न व्यञ्जने स्वराः सन्धेयाः ।।५८॥ व्यञ्जने परे स्वरा: सन्धानीया न भवन्ति ॥ पितृ यम् । भ्रातृ यम् । मातृ यम् । इति स्थिते ।
र ऋतस्तद्धिते ये ॥५९॥ ऋतो रो भवति तद्धिते ये परे। पितुरिंदम् पित्र्यम् । एवं भ्रात्र्यम् । मात्र्यम् ।। गो यूति: इति स्थिते ॥
गव्यूतिरध्वमाने ६० ।।
जो स्वर से उत्पन्न हुए 'य् व्' हैं और आदि में स्थित नहीं हैं, आगे व्यंजन के आने पर उन य् व् का लोप हो जाता है ॥५६ ॥
यहाँ विकल्प नहीं है अतः
नाय+र+ अदः- य् का लोप होकर = नारदः, राय् + अण: य का लोप होकर = रावणः, माय्+र+उतः = य् का लोप = मारुत: । अव् + + इंदुः= व् का लोप = अविन्दुः रिप् + य+ उदयः = का लोप-रिप्युदयः । ये शब्द सिद्ध हो गये।
ते+ अत्र, पटो+अत्र ।। पद के अंत में ए ओ के होने पर उससे परे 'अ' का लोप हो जाता है ॥५७ ॥
यहाँ एत् ओत् में जो तकार है उससे ऐसा समझना कि मात्र 'ए ओ' का ही नियम है 'ऐ औ' नहीं लिये जा सकेंगे। कार और त् के लगा देने से मात्र उसी अक्षर का बोध होता है जैसे अकार या अत् शब्द से मात्र 'अ' ही ग्रहण किया जाता है। अत: 'अ' का लोप होकर तेत्र, पटो+ = पटोत्र बना । इस संधि में अ को समझने के लिये खंडाकार चिह्न भी दिया जाता है। जैसे तेऽत्र, पटोऽत्र । देवी + गृहम्, पटु + हस्त:, मातृ + मुखम्, जले + पाम्, रै + धृतिः गो + गतिः, नौ+यानम् ।
आगे व्यंजन के आने पर पूर्व के स्वरों की संधि नहीं होती है ॥५८ ॥
अत: उपर्युक्त पद ज्यों के त्यों रह गये तो देवीगृहम्, पदुहस्त: आदि ही रहे। पितृ + यम्, भ्रातृ + यम्, मातृ + यम्।
आगे तद्धित के यकार के आने पर 'ऋ' को र हो जाता है ॥५९ ॥ यहाँ व्यञ्जन के आने पर भी तद्धित के प्रत्यय यकार के लिये एवं 'ऋ' को र के लिये ही यह संधि हुई है। तोपित् + यम् = पित्र्यम्, भ्रात् +यम् = भ्रात्र्यम्, मात् + यम् = मात्र्यम् । गो+यूतिः ।
मार्ग के माप अर्थ में गव्यूति शब्द निपात से सिद्ध हो जाता है ॥६० ॥