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प्रकृतिभावसामः अध्वमाने गव्यूतिरिति निपात्यते । गवां यूति: गव्यूति: ।।
इति स्वरसन्धिः ।।
अथ प्रकृतिभावसन्धिः अथ तेषां स्वराणामेव सन्धिकाय्ये प्राप्ते क्वचित्पूर्ववत् प्रकृतिभाव उच्यते । अहो आश्चर्यम् । नो एहि । अ अपेहि । इ इन्द्रं पश्य । उ उत्तिष्ठ । आ एवम् । इति स्थिते ।।
ओदन्ता अइउआ निपाताः स्वरे प्रकृत्या ॥६१ ।। ओदन्ता निपाता अ इ उ आश्च केवला निपाता: स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठन्ति । यल्लक्षणेनानुत्पत्रं तत्सर्वं निपातनासिद्धं ।
ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः ।
आडअनुबन्धो विज्ञेयो वाक्यस्मरणयोर्न तु॥१॥ ईषदर्थे --आ उग्णं-ओष्णं। क्रियायोगे-आ इहि एहि । मर्यादायां—आ उदकान्तात् । ओदकान्तात् । अभिविधौ-आ आर्येभ्यः । आर्येभ्यो यशो गतमकलंकस्वामिनः । वाक्ये-आ एवं किल मन्यसे। स्मरणे—आ एवं किल तत् ।अन्तग्रहणमकारादीनां केवलार्थम् ।। कवी ऐतौ। माले इमे। इति स्थिते।
गवां + यूति:-ग् अव् + यूति: = गव्यूति: बन गया। जिसमें सूत्र का नियम लगकर संधि आदि कार्य न होवें उसे 'निपात' कहते हैं।
इस प्रकार से स्वर संधि समाप्त हुई ।
अथ प्रकृतिभाव सन्धि प्रकृतिभाव संधि किसे कहते हैं ?
इन्हीं स्वरों में संधि कार्य के प्राप्त होने पर किन्हीं-किन्हीं में सन्धि नहीं होती है—पूर्ववत् ही पद रह जाते हैं उसे प्रकृतिभाव संधि कहते हैं प्रकृति का अर्थ है जैसा का वैसा बना रहना या स्वाभाविक रहना।
अहो + आश्चर्यम्, नो+एहि, अ+ अपेहि, इ+इन्द्रं, उ+ उत्तिष्ठ, आ + एवम्।
ओ जिसके अन्त में है ऐसे शब्द और अ, इ, उ, आ इन निपात शब्दों से परे यदि स्वर आते हैं तो संधि नहीं होती है ॥६१ ॥
जो व्याकरण के किसी नियम से नहीं बनते हैं वे सभी निपात से सिद्ध हुए कहे जाते हैं । अत: ये उपर्युक्त शब्द ज्यों के त्यों ही रह गये जैसे अहो आश्चर्यम् इत्यादि।
किन्हीं-किन्हीं में संधि हो भी जाती है उसी को श्लोक द्वारा स्पष्ट करते हैं
श्लोकार्थ-किंचित् के अर्थ में, क्रिया के योग में, मर्यादा के अर्थ में एवं अभिविधि-व्याप्ति के अर्थ में 'आ' अव्यय को आङ् रूप समझना चाहिये इसमें ड्का अनुबन्ध लोप हो जाता है; अत: इनमें 'आ' शब्द के साथ संधि हो जाती है तथा वाक्य और स्मरण अर्थ में 'आ' शब्द मात्र है उसमें संधि नहीं होती है।
१. अही आहो उताहो च भोहोहेहो अथो इमे। ५ नोयुक्ताश ओदन्ता निपाता अष्टधा स्मृताः॥ २. लोकप्रसिद्धशब्दमादाय स्वरूपेण कथनं निपाताः निश्चयेन पतन्त्येनकेष्वर्थेष्विति निपाताः ॥ ३. पूर्वापरीभूता साध्यमान रूपा प्रवृत्तिः क्रिया।