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कातन्त्ररूपमाला
अनभूतं द्विवचनं स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठति ॥
मणीवादीनां वा ॥ ६३ ॥
मणीवादीनां वा सन्धिर्भवति । मणी इत्र मणीव जम्पती इव जम्पतीव अमुके अत्र तिष्ठतः । इति
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स्थिते ।
ईषत् अर्थ में क्रिया योग में मर्यादा अर्थ में अभिविधि अर्थ में
व्याप्त है
द्विवचनमन ॥६२॥
न साकोऽदसः || ६४ ॥
साक: अदसः परमनौभूतं द्विवचनं स्वरे परे प्रकृत्या न तिष्ठति । अमुकेऽत्र तिष्ठतः ॥ अमी अश्वाः || अमी एडकाः । अमी उष्ट्राः । अमी आदित्यरश्मयः । इति स्थिते ।
बहुवचनममी ॥६५ ॥
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आ + उष्णं ओष्णं किंचित् गरम |
=
आ + इहि = एहि आओ।
आ
+ उदकांतात् = ओदकांतात् = ओदकांत् — जल के पहले तक । आ + आर्येभ्यः = आर्येभ्यः - सभी आर्य पुरुषों तक श्री स्वामी का यश
आ + एवं
आ एवं आ: तुम इस प्रकार से मानते हो ।
वाक्य अर्थ में स्मरण अर्थ में आ एवं - हाँ ! इसी प्रकार से वह हैं। सूत्र में 'ओदंता' पद में जो अन्त शब्द ग्रहण किया गया है वह ओ, अ आदि सभी को एक-एक को ही सूचित करता है।
कवी + एतौ, माले + इमे
औ को छोड़कर यदि अन्य स्वर वाले द्विवचन' पूर्व में हैं और आगे स्वर है तो संधि नहीं होती है ॥ ६२ ॥
अर्थात् औकार को छोड़कर जो अन्य रूप को प्राप्त हो गये हैं ऐसे द्विवचन स्वर से परे संधि नहीं होती है। कवी- एतों, माले-इमे ही रह गया। मणी + इव, जंपती + इव ।
मणि आदि शब्दों के द्विवचन से परे इव शब्द के आने पर विकल्प से प्रकृतिभाव होता है ॥६३॥
मणी + इव संधि होकर मणीव, अन्यथा मणी इव, जम्पतीव, जम्पती इव दोनों बन गये । अमुके + अत्र ।
अदस् शब्द में यदि 'अक' का आगम हुआ है तो द्विवचन में औ न होते हुए भी संधि हो जाती है ॥६४॥
अमुके + अत्र = अमुकेऽत्र बना ।
अमी + अश्वाः, अमी + एडका अभी + उष्ट्रा; अमी + आदित्यरश्मयः ।
बहुवचन के अमी शब्द से परे स्वर के आने पर संधि नहीं होती है ॥६५॥
१. औकार रूपं परित्यज्य रूपान्तरं प्राप्तमित्यर्थः । २. द्विवचनांत ।