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________________ दो शब्द जैनाचार्य ज्ञान-विज्ञान के चलते-फिरते कोश रहे हैं। उनकी सतत स्वाध्याय की प्रवृत्ति ने नये-नये प्रन्थों को जन्म दिया। यही कारण है कि भारतीय साहित्य की प्रत्येक विधा पर उनके पचासों ग्रन्थ मिलते हैं। यद्यपि कुछ ग्रन्थ तो हमारी लापरवाही एवं उपेक्षावृत्ति से लुप्तप्राय हो गये लेकिन जो अवशिष्ट हैं. वह भी इतना महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है किसी भी भारतीय को उस पर गर्व हो सकता है। हमारे आचार्यों एवं विद्वानों की कृतियों का यदि दर्शन करना चाहते हैं तो आप किसी भी जैन शास्त्र भण्डार चले जाइये वहाँ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषा के विविध विषयों पर निबद्ध ग्रन्थों के सहज ही दर्शन हो सकते हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में व्याकरण का प्रमुख स्थान है। व्याकरण से भाषा सुसंस्कारित होती है और उसका अंग भंग नहीं किया जा सकता। व्याकरण शास्त्र भाषा के लिए लगाम का काम करता है । व्याकरण की उत्पत्ति का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना भाषा विशेष का । भगवान् ऋषभदेव द्वारा अक्षर एवं अक विद्या का आविर्भाव अपनी पुत्री बाह्मी एवं सुन्दरी को पढ़ाने के लिए हुआ। व्याकरण साहित्य के क्षेत्र में जैनाचार्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा है । आचार्य पूज्यपाद प्रथम वैयाकरण माने जाते है जिन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण जैसी महान् कृत्ति प्रदान की। इसके सूत्रों के दो पाठ मिलते हैं। प्रथम पाठ में ३००० सूत्र एवं दूसरे पाट में ३७०० सूत्र मिलते हैं। प्रथम पाठ पर दो महावृत्तियों मिलती हैं। प्रथम अभयनन्दि की महावृत्ति एवं दूसरी श्रुतकीर्ति की पंचवस्तु उल्लेखनीय है। इसी तरह दूसरे पाठ पर भी सोमदेव (११वी शताब्दी) द्वारा शब्दार्णवचन्द्रिका एवं गुणनन्दि द्वारा प्रक्रिया लिखी गयी । पं० नाथूराम प्रेमी के अनुसार पूज्यपाद की वही जैनेन्द्र व्याकरण है जिस पर अभयनन्दि ने वृत्ति लिखी थी। शाकटायन दूसरे जैन वैयाकरण हैं जिन्होंने स्वोपज्ञ अमोधवृत्ति सहित शाकटायन शब्दानुशासन की रचना करने का श्रेय प्राप्त किया। ये ९वीं शताब्दी के माने जाते हैं। शाकटायन, पाणिनि एवं जैनेन्द्र व्याकरण की शैली पर लिखा हुआ व्याकरण है । इसमे ३२०० सूत्र हैं। श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्ध हेमशब्दानुशासन लिखकर व्याकरण जगत् को एक और कृति भेंट की। स्वयं हेमचंद्राचार्य ने अपने शब्दानुशासन पर लधुवृत्ति एवं बृहबृत्ति नाम से दो टीकायें लिखी । इसी व्याकरण पर और भी कितनी ही टीकायें मिलती हैं। लेकिन वर्तमान में कातन्त्र व्याकरण सबसे सरल एवं सुबोध मानी जाती है। इस व्याकरण के रचयिता हैं शर्ववर्मन्" जो जैन विद्वान थे। ये गुणाढ्य के समकालीन थे और इन्होंने प्रस्तुत व्याकरण सातवाहन राजा को पढ़ाने के लिए लिखी थी। इसका प्रथम मूत्र "सिद्धोवर्णसमाम्नाय' है। जो प्राचीन • तदा स्वायंभुव नाम पदशास्वमभून महत् । यत्तत्परशताध्यायैरतिगंभीरमधिवत् ॥११२॥ आदिए. पर्व १६ । उस समय स्वायंभुव नाम का अथवा स्वयंभू भागवान वृषभदेव का बनाया एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था इसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था। १. देवदेवं प्रमणम्यादौ सर्वनं सर्वदर्शितं । कातन्त्रस्य भवक्ष्यामि व्याख्यानं शर्ववमिकं ॥१॥
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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