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________________ कातन्त्ररूपमाला इकारान्तमुकारान्तञ्च लिङ्गं अग्निसंज्ञं भवति । तपरकरणम सन्देहार्थं । औकारः पूर्व ।। १६२ ॥ अग्निसंज्ञकात्पर औकारः पूर्वस्वररूपमापद्यते । सन्धिः । मुनी । जसि । हरेद्रोज्जसि ।। १६३ !! अग्निसंज्ञकस्य इः एद्भवति उः ओद्भवति जसि परे । मुनयः । सम्बुद्धौ च ।। १६४ ।। अग्निसंज्ञकस्य इः एद्भवति उ: ओद्भवति सम्बुद्धौ परतः । प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति न्यायात् । हे मुने हे मुनी हे मुनयः । ४४ $ अग्नेरमोकारः ।।१६५ ।। अग्निसंज्ञकात्परस्य अमोऽकारो लोपमापद्यते । मुनिम् । मुनी । शसादौं । शसोऽकारः सच नोऽस्त्रियाम् ॥ १६६ ॥ अग्निसंज्ञकात्परस्य सोऽकारः पूर्वस्वररूपमापद्यते सर्वत्र सस्य च नो भवत्यस्त्रियाम् । मुनीन् । सूत्र में इत् उत् में तू का प्रयोग क्यों किया है ? इस तकार का प्रयोग संदेह को दूर करने के लिए किया गया है। इ और उ से इवर्ण उवर्ण भी लिये जाते हैं और तकार से केवल ह्रस्व इकार और उकार ही लिए जाते हैं। अतः हस्व इकारांत उकारांत ही अग्नि संज्ञक अग्निसंज्ञक से परे औ विभक्ति पूर्व स्वर रूप हो जाती है ॥१६२ ॥ I मुनि + इ संधि होकर मुनी बन गया। मुनि + जस् । जस् के आने पर अग्नि संज्ञक इ को ए और उ को 'ओ' हो जाता है ॥१६३ ॥ मुन् ए + अस् । 'ए अय्' से संधि होकर मुनयः बन गया । संबोधन में मुनि + सि' ह्रस्व नदी' इत्यादि सूत्र से सि का लोप हो गया। संबुद्धि संज्ञक सि से परे इ को ए और उ को ओ हो जाता है ॥ १६४ ॥ हे मुने ! बना । मुनि + अम् अग्नि संज्ञक से परे अम् के अकार का लोप हो जाता है ॥ १६५ ॥ मुनिम् मुनौ । मुनि + शस् शस् के अकार को पूर्व स्वर रूप और अस्त्रीलिंग में स् को न् हो जाता है ॥ १६६ ॥ अग्नि संज्ञक से परे शस् का 'अ' पूर्व स्वर रूप हो जाता है और स्त्रीलिंग को छोड़कर पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में श् को न् हो जाता है। तो मुनि + इन्= मुनीन् बन गया। मुनि + टा
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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