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तिङन्तः
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धुटि हन्तेः सार्वधातुके ॥११२ ।। हमारतस्य को लि. धुशदाडगुयो सार्वधातुके परे । हतः।
__ गमहनजनखनघसामुपधायाः स्वरादावनन्यगुणे॥११३ ।। गमादीनामुपधाया लोपो भवत्यनण्वर्जिते स्वरादावगुणे परे।
लुप्तोपघस्य च ॥११४ ।। लुप्तोपधस्य च हन्तेर्हस्य धिर्भवति । मन्ति । हंसि हथ: हथ । हन्मि हन्व: हन्म: । हन्यात् हन्यातां हन्युः । हन्तु हतात् हतां घ्नन्तु । पूर्वोक्तपरोक्तयोः परोक्तो विधिर्बलवान् इति न्यायात्
हन्तेजों हो ॥११५॥ हन्तेर्जकारादेशो भवति हौ परे । जहि हतात् हतं हत । हनानि हनाव हनाम।
व्यञ्जनादिस्योः ॥११६॥ व्यञ्जनात्परयोर्दिस्योलोंपो भवति । अहम् अहतां अनन् । अहन् अहतं अहत । अहनं अहन्व अहन्म । चक्षङ् व्यक्तायां वाचि ।
स्कोः संयोगाधोरन्ते च ॥११७।। संयोगाद्यो: सकारककारयोलोपो भवति धुट्यन्ते च।
हन् ति है 'अन् विकरण; कर्तरि' से अन् होकर 'अदादेलुग्विकरणस्य' सूत्र ७६ से अन् का लुक् होकर 'हन्ति' बना । हन् तस् है।
अगुण धुटादि सार्वधातुक के आने पर हन् के अंत नकार का लोप हो जाता है ॥११२ ।। अत: 'हतः' बना । हन् अन्ति है।
अन् अण् वर्जित स्वरादि अगुणी विभक्ति के आने पर गम् हन् जन खन घस की उपधा का लोप हो जाता है ॥११३ ॥ अत: हन् की उपधा का लोप होकर 'हन्' रहा। अर्थात् ह के अ का लोप हुआ।
लुप्त उपधा वाले हन् के हकार को 'घ' हो जाता है ॥११४ ॥ अत: + अन्ति= ध्वन्ति बना । हन् सि है 'मनोरनुस्वारो धुटि सूत्र से न' को अनुस्वार होकर हसि बना हथ: हथ । हन्तु । हन् हि है 'पूर्वोक्त और परोक्त नियम में परोक्त विधि बलवान होती है' इस न्याय से
__'हि' के आने पर हन् को जकार हो जाता है ॥११५ ।। और ज आदेश होने पर हि का लोप नहीं होता अत: जहि बना हतात्, हतं हत । हन् दि । हन् सि ।
व्यंजन से परे दि और सि का लोप हो जाता है ॥११६ ॥ 'अहन्' अहतां । हन् अन् है 'गमहन् इत्यादि सूत्र ११३ से हन् की उपधा का लोप होकर ११४३ सूत्र से ह को घ होकर धातु के पूर्व अट् का आगम होकर 'अनन्' बना । चक्षट् धातु स्पष्ट बोलने अर्थ
__ संयोग की आदि में यदि सकार या ककार है और धुाटे अंत में है तो उन सकार या ककार का लोप हो जाता है ॥११७ ॥
आ चहं ते आचम् ते रहा।