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________________ स्वरसन्धिः अं इत्यनुस्वारः ॥२१॥ अकार इहोच्चारणार्थ: । बिन्दुमात्रो वणोंऽनुस्वारसंज्ञो' भवति ॥अं । लोकोपचाराद्ग्रहणसिद्धिः ॥२२॥ लोकानामुपचारो व्यवहारः । तस्मादिहानुक्तस्यापि ग्रहणस्य शब्दस्य सिद्धिः प्रवृत्तिवेदितव्या । तत्कथं ? त्वया ग्रामो गम्यते इत्युक्तेस्त्वं ग्रामाय गच्छसीत्यर्थः । इति संज्ञासन्धिः ॥१॥ अथस्वरसन्धिरुच्यते कः सन्धिः । पूर्वोत्तरवर्णानामव्यवधानेन परस्परेण सन्धान संश्लेष: 'सन्धिः ॥ तव अभ्युदयः । कान्ता आगता । दधि इदम् । नदी ईहते । वसु उभयोः । वधू ऊढा। पितृ ऋषभ: । मातृ ऋकारेण । कृ ऋकारः ॥ कृ ऋकारेण । इति स्थिते। अनतिक्रमयन्विश्लेषयेत्॥२३॥ 'अं' यह वर्ण अनुस्वार संज्ञक है ॥२१ ।। यहाँ भी अकार मात्र उच्चारण के लिये है। मतलब बिंदु मात्र वर्ण अनुस्वार संज्ञक है ऐसा समझना चाहिये। लोकोपचार से शब्द ग्रहण की सिद्धि होती है ॥२२ ।। लोक के उपचार को व्यवहार कहते है। इसलिये यहीं नहीं कहे गये भी ग्रहण शब्दों की सिद्धि-प्रवृत्ति समझ लेना चाहिये। प्रश्न वह कैसे ? उत्तर-जैसे तुम्हारे द्वारा गाँव को जाया जाता है ऐसा वाक्य बनाने पर 'तुम गाँव को जाते हो' ऐसा अर्थ समझना चाहिये। भावार्थ-जिसका दूसरा नाम है वाक्य या वृद्ध ज्ञानी जनका व्यवहार उससे तथा प्रसिद्ध पद के संयोग से निश्चय होता है। 'सहकारे पिको विरोति', यहाँ पिक-कोयल के संयोग से सहकारआन का निश्चय होता है। संज्ञा सन्धि समाप्त हुई। अथ स्वर संधि संधि किसे कहते हैं ? पूर्व और उत्तर वर्णों का-दो पदों या अनेक पदों का व्यवधानअंतराल के बिना परस्पर में संश्लेष हो जाना संधि कहलाती है। जैसेतव+ अभ्युदय, कान्ता + आगता, दधि+ इदम्, नदी + ईहते आदि दो-दो पद हैं। . क्रम का उल्लंघन न करते हुये विश्लेषण करे ॥२३॥ १: अन्तमनुस्त्य संलीन उच्चार्यते स्वयंत इति अनुस्वारः । २. व्यवहारो नाम शब्दप्रयोगः। ३. कालकारक संख्यासाधनोपग्रह भेदाद भित्रमर्थ शयतीति शब्दः। ४. पूर्वोत्तरवर्णानामविरामणोच्चारणं सन्धानमिति च पुस्तकान्तरे॥ __ 1. उन दोनों में रूपांतर होकर जो परिवर्तन होता है उसे संधि कार्य कहते हैं।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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