SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ कातन्त्ररूपमाला त्यदादीनामविभक्तौ ।।१७२।। त्यदादीनामन्त: अकारो भवति विभक्तौ परतः । सन्धिः । द्वौ । द्वौ । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः ॥ त्रिशब्दस्य तु भेदः । तस्य बह्वर्थवाचित्वात् बहुवचनमेव भवति । त्रयः । हे त्रयः । बीन् । त्रिभिः । त्रिभ्यः । त्रिभ्यः । आमि। त्रेतयश्च ॥१७३॥ त्रिशब्दस्य त्रयादेशो भवति नुरागमञ्चामि परे । त्रयाणाम् । त्रिषु । कतिशब्दस्य तु भेदः । तस्यापि बहुवचनमेव भवति। कतेश्च जस्शसोलुंक् ॥१७४ ॥ मुनिः मुनिभ्यः मुनी मुनयः । मुनये मुनिभ्याम् मुनिभ्यः हे मुने । हे मुनी ! हे मुनयः । | मुनेः मुनिभ्याम् मुनिम् मनी मनीन । मुनेः मुन्योः मुनीनाम् मनिना मुनिध्याम मुनिभिः । मनौ मुन्योः मुनिषु इसी प्रकार से अग्नि, गिरि, रवि आदि उपर्युक्त शेवधिपर्यन्त इकारांत शब्द मुनिवत् ही चलते हैं। द्विशब्द में कुछ भेद हैं और वह द्विवचन में ही चलता है। अत:द्वि+ औं है। त्यद् आदि शब्दों के अन्त व्यंजन या स्वर को अकार हो जाता है, विभक्ति के आने पर ॥१७२ ॥ तब द्वि को द्व होकर दू+औ संधि होकर = द्वौ बन गया। द्वि+भ्याम् है। सर्वत्र द्वि को दू किया जाता है । पुन: “अकारो दीर्घ घोषवति" सूत्र से दीर्घ होकर द्वाभ्याम् ३ बन गया । द्वि+ ओस् में भी द्व+ ओस् 'ओसि च' सूत्र से ए होकर संधि होकर द्वयोः २ बन गया। तोद्वौ। द्वौ। द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः । त्रिशब्द में भी कुछ भेद हैं तीन संख्या बहु अर्थवाची ही है अत: विभक्ति भी बहुवचन की ही आती है तो त्रि+ जस् हैं—सूत्र से अग्नि संज्ञा होकर "इरेदुरोज्जसि'-सूत्र से ए होकर संधि होकर त्रय: बना। त्रि+शस् है मुनिवत् सब सूत्र लगकर त्रीन् बना। त्रिभिः इत्यादि। त्रि+ आम्। आमि च नुः से नु का आगम होकर नु और आम् विभक्ति से परे 'त्रि' को त्रय आदेश हो जाता है ॥१७३ ॥ त्रय+नाम् दीर्धमामिसनौ से दीर्घ होकर न् को ण् होकर त्रयाणाम् बन जाता है। वि + सु स् को होकर त्रिषु बन गया। त्रय: । त्रीन् । त्रिभिः । त्रिभ्य: । त्रिभ्य: । त्रयाणाम् । त्रिषु । कति शब्द में भेद है यह कति शब्द भी बहुवचन में ही चलता है। कति अर्थात् कितने। कति+ जस् संख्यावाची शब्द से परे षकारांत नकारांत से परे और कति शब्द से परे जस् शस् विभक्ति को लुक् हो जाता है ॥१७४ ॥
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy