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स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः संख्याया: ष्णान्ताया: कतेश्च परयोर्जस्शसोलुंग्भवति । (सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवान्) प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति प्राप्ते सति ।
लुग्लोपे न प्रत्ययकृतम्॥१७५ ।। लुगिति लोपे सति प्रत्ययलोपे परे यत्कृतं कार्य प्रकृतेस्तन्न भवति । इरेदुरोज्जसीत्येत्वं न भवति । कति । कति । कतिभिः । कतिभ्यः । कतिभ्यः । कतीनाम् । कतिषु । सखिशब्दस्य तु भेदः । सावनन्त: इति वर्तते।
सख्युश्च ॥१७६ ॥ सख्युरन्तोऽन् भवति असम्बुद्धौ सौ परे ।
घुटि चासम्बुद्धौ ॥१७७॥ नान्तस्य चोपधाया दी| भवति असम्बुद्धौ घुटि परे ।
व्यञ्जनाश्च ॥१७८॥ व्यजनाच्च पर: सिलोपमापद्यते।
लिङ्गान्तनकारस्य ॥१७९।। लिङ्गान्तनकारस्य लोपां भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । सखi ।
[सभी विधि में लोप विधि बलवान् है। यहाँ “प्रत्यय लोपे प्रत्यय लक्षाणं" इस सूत्र से कुछ कार्य जिसमें गुण शस् में दीर्घ प्राप्त था उसे बाधित करने के लिए सूत्र लगता है।
लुक् इस शब्द से प्रत्यय के लोप करने पर प्रत्यय के निमित्त से प्रकृति का जो कार्य होता था वह नहीं होगा ॥१७५ ।।
जैसे 'इसेदुरोज्जसि' सूत्र से यहाँ इ को ए प्राप्त था वह नहीं होगा क्योंकि लुक् शब्द से जस् शस् का लोप किया गया है। अत: जस् शस् का लोप होकर कति + जस् कति ही रहा।
कति । कति । कतिभिः । कतिभ्यः । कतिभ्यः । कतीनाम् । कतिषु । सखि शब्द में कुछ भेद हैं। 'सावनंत' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। सखि+सि है।
संबोधन से रहित 'सि' विभक्ति के आने पर सखि शब्द के अंत 'इ' को अन् आदेश हो जाता है ॥१७६ ॥
तब सखन्+सि हो गया। असंबुद्धि घुट सि विभक्ति के आने पर नकार की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥१७७ ॥ तब सखान् + सि
व्यंजन से परे सि विभक्ति का लोप हो जाता है ॥१७८ ॥ विराम और व्यंजन के आने पर लिंगांत नकार का लोप हो जाता है ॥१७९ ।। अत: सखा बना। सखि + औ है।