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कातन्त्ररूपमाला
घुटि त्वैः ॥१८॥ सख्युरन्त: ऐर्भवति असंबुद्धौ धुटि परे । सखायौ । सखायः। संबुद्धौ मुनिशब्दवत् । हे सखे । हे सखायौ । हे सखायः । सखायम् ॥ सखायौं । शसि मुनिशब्दवत् । सखीन् । टादौ ।
न सखिष्टादावग्निः ॥१८१॥ सखिशब्दष्टादौ स्वरे परे नाग्निर्भवति । सख्या। सखिभ्याम् । सखिभिः । सख्ये । सखिभ्याम् । सखिभ्यः ॥
उसिङसोरुमः ॥१८२ ॥ सखिपतिभ्यां परयोर्डसिडसोरकारः उमापद्यते। सख्युः। सखिभ्याम् । सखिभ्यः। सख्युः । सख्योः । सखीनाम् ।।
सखिपत्योर्डिः॥१८३ ।। सखिपतिभ्यां परो डिरेव और्भवति । पुनडिग्रहणं किमर्थं । सपूर्वस्वरनिवृत्त्यर्थं । सख्यौ । सख्योः । सखिषु । एवं सुसखि अतिसखि असखि प्रभृतयः । पतिशब्दस्य तु भेदः । पति: । पती। पतयः । हे पते। हे पती । हे पतयः । पतिम् । पती । पतीन् । टादौ ।
घुट विभक्ति के आने पर सखि शब्द के इ को 'ऐ हो जाता है ॥१८० ॥
सखि के अंत इ को ऐ हो जाता है असंबुद्धि स्वर वाली घुट् विभक्ति के आने पर । तब सखै + औ 'ऐ आय' से संधि होकर सखायौ, सखायः बना । संबोधन में मुनि शब्द के समान इ को ए होकर हे सखे बना।
सखि+ शस् मुनिवत् अ को पूर्व स्वर और स् को न होकर । संधि होकर सखीन् बन गया। सखि+टा
टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर सखि शब्द को अग्नि संज्ञा नहीं होती है ॥१८१ ॥
तब "इवणों यम सवर्णे" इत्यादि सूत्र से संधि होकर 'सख्या' बना। सखि +३= सख्ये बना। सखि + ङसि सखि + डस् सखि और पति से परे उसि और डस् के अकार को उकार हो जाता है ॥१८२ ॥ तब सखि + उस् संधि होकर सख्युः बना। सखि + ङि ।
सखि और पति से परे डि को 'औ' हो जाता है ।।१८३ ॥ सूत्र में पुन: डि शब्द क्यों ग्रहण किया ?
सूत्र में पूर्व स्वर सहित डि को औ होता था। यहाँ मात्र डि को ही औ होता है इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही यहाँ पुन: 'डि' शब्द को ग्रहण किया है ।
सखि+ औ= सख्यौ बना।।
सखा सखायो सखायः । सख्ये सखिभ्याम् सखिभ्यः हे सखे ! हे सखायौ ! हे सखायः ।। सख्युः सखिभ्याम् सखिभ्यः सखायम् सखायौ सखीन् सख्युः सख्योः सखीनाम् सख्या सखियाम सखिभिः सख्यो
सखिषु पति शब्द में टा आदि विभक्ति के आने पर कुछ भेद है। पति+टा
सख्योः