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तिङन्तः
सार्व तीर्थकराख्यानं धातोस्तत्प्रकृतेरभूत् । शास्धनेत् तत्र मुख्यं सार्वधातुकमुच्यते ॥ १ ॥ इत्याख्याते सार्वधातुकं
अथाऽसार्वधातुकमुच्यते
भूतकरणवत्यश्च ॥२२५ ॥
इति अतीतमात्रे अद्यतनी भवति अग्रभवोऽद्यतन: । तत्रातीतेऽद्यतनी भवति । भू सत्तायां । सिजद्यतन्याम् ॥ २२६ ॥
धातो: सिज्भवति अद्यतन्यां परतः ।
इडागमो सार्वधातुकस्यादिव्यञ्जनादेरयकारादेः ॥ २२७ ॥ धातोः परस्य व्यञ्जनादेरयकारादेरसार्वधातुकस्यादाविडागमो भवति ।
इणिवस्थादापिबति भूभ्यः सिचः परस्मै ॥ २२८ ॥ इमादिभ्यः परस्य सिचो लुग्भवति परस्मैपदे परे ।
भवतेः सिज्लुकि ॥ २२९ ॥
भुव इडागमो न भवति सिज्लुकि ।
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भाव और कर्म में- गुण्ड्यते । सञ्ज्यते । पाल्यते । अर्च्यते । इत्यादि । इसी प्रकार से सभी धातुओं के रूप चला लेना चाहिये ।
इस प्रकार से चुरादिगण समाप्त हुआ।
सभी का हित करने वाले तीर्थंकर भगवान् के उपदेश में धातु और प्रकृति का शास्त्र हुआ है। उसमें भी सार्वधातुक प्रकरण मुख्य कहा जाता है ॥ १ ॥
इस प्रकार से आख्यात में सार्वधातुक प्रकरण समाप्त हुआ ।
अथ असार्वधातुक प्रकरण प्रारंभ होता है । भूतकाल में अद्यतनी होती है ॥ २२५ ॥
अतीत मात्र के अर्थ में अद्यतनी होती हैं। आज का ही होने वाला भूतकाल 'अद्यतन' कहलाता है। उस अतीत काल में अद्यतनी होती है। भू— सत्ता अर्थ में है।
अद्यतनी परे धातु से सिच् प्रत्यय होता है ॥ २२६ ॥
धातु से परे यकारादि रहित व्यञ्जनादि जो असार्वधातुक उसकी आदि में 'इट्टू' का आगम होता है ॥ २२७ ॥
परस्मैपद में इण् इक् स्था दा पिब् और भू धातु से परे सिच् का 'लुक्' हो जाता है ॥२२८ ॥
सिच् का लुक् होने पर 'भू' से इट् का आगम नहीं होता है ॥ २२९ ॥
१ इण्स्था-- इत्यादि सूत्र हस्तलिखिते पुस्तके वर्तते । इक तत्र न गृहीतं ।