________________
कातत्ररूपमाला
आ सौ सिलोपश्च ॥१९४ ॥ ऋदन्तस्य लिङ्गस्य आ भवति सौ परे सिलोपश्च । पिता।
घुटि च ॥१९५ ॥ ऋदन्तस्य अर् भवति घुटि परे । पितरौ। पितरः । सम्बुद्धौ च ।
आ च न सम्बुद्धौ ।।१९६॥ दन्तस्य आर् आ च न भवति सम्बुद्धौ परत: । अपि तु घुटि चेत्यति । हे पित: । हे पितरौ । हे पितरः । पितरम् । पितरौ ।
अग्निवच्छसि ॥१९७ ।। ऋदन्तस्य अग्निवत्कार्यं भवति शसि परे। पितॄन्। पित्रा। पितृभ्याम् । पितृभिः । पित्रे । पितृभ्याम् । पितृभ्यः । इसिङसोः ।
ऋदन्तात्सपूर्वः ॥१९८ ॥ इस प्रकार से ऊकारांत शब्द पूर्ण हुए। अब ऋकारांत शब्द चलेंगे। पितृ + सिसि के आने पर लिंगात ऋकार को 'आ' होकर 'सि' का लोप हो जाता हैं ॥१९४ । ।
अत: पिता बना। पितृ + औ
घट स्वर के आने पर ऋकार को अर हो जाता है ।।१९५ ॥ पित् अर् + औ = पितरौ, पितर: संबोधन में पितृ + सिसंबोधन में सि के आने पर ऋकार को आर एवं आ नहीं होता है ॥१९६ ॥
अपि च 'घुटि च' इस १९५वें सूत्र से अर् हो जाता है तो पितर् + स् ए 'व्यंजनाच्च' सूत्र से -- व्यंजन से परे सि का लोप होकर रेफसोर्विसर्जनीयः” से रकार को विसर्ग हो गया । तो हे पित: ! बना । द्विवचन, बहुवचन पूर्ववत् हैं। पितृ + शस्
शस् के आने पर ऋदंत को अग्निवत् कार्य हो जाता है ॥१९७ ॥ अर्थात् अग्नि संज्ञा होकर 'शसोऽकार: सञ्चनोऽस्त्रियाम्' १६६वें सूत्र से अकार को पूर्व स्वर रूप एवं स् को न हो गया तो।
पितृ + ऋन् संधि होकर पितृन बन गया।
पितृ +टा 'रमृवर्ण:' ४६वें सूत्र से ऋ को र होकर पित्रा बना । व्यंजन वाली विभक्ति में कुछ भी नहीं होगा तो पितृ + भ्याम् = पितृभ्याम् ।
पितृ + ङसि, पितृ + ङस् । ऋकार से परे ङसि डस् को अकार पूर्व स्वर क्र के साथ 'उ' हो जाता है ॥१९८ ॥