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तिङन्तः
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यणि वा ।।१८८॥ यणि परे जनेर्जादेशो वा भवति । जायते जन्यते । इति दिवादिः ।
अथ स्वादिगणः पुञ् अभिववे।
नुः स्वादेः ॥१८९॥ स्वादेर्गणाद्विकरणसंज्ञको नुर्भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे । सुनोति सुनुतः ।
नोर्वकारो विकरणस्य ॥१९०॥ नोविकरणस्यासंयोगपूर्वस्योकारस्य वकारो भवति स्वरादाबगुणे सार्वधातुके परे । सुन्वन्ति । सुनोषि सुनुथः सुनुथ। सुनोमि।
उकारलोपो वमोर्वा ॥९९१ ॥ असंयोगपूर्वस्य विकरणस्योकारस्य लोपो वा भवति वमोः परत: । सुन्व: सुनुव: सुन्म: सुनुम: । सुनुते सुन्वाते सुन्वते । सुनुषे सुन्वाथे सुनुध्वे । सुन्वे सुन्बहे सुनुवहे सुन्महे सुनुमहे ।
नाम्यन्तानां यणायिन्नाशीश्च्विचेक्रीयितेष दीर्घः ।।१९२॥* नाम्यन्तानां धातूनां दीर्घा भवति यण् आय् इन् आशी: चेक्रीयितेषु ये चौ च परे। सूयते सूर्यते । अशूङ् व्याप्तौ । अश्नुते ।
यण के आने पर जन् को 'जा' विकल्प से होता है ।।२८८ ॥ भाव में—यण के आने पर जायते । जन्यते दोनों रूप बन गये ।
इस प्रकार से दिवादि गण समाप्त हुआ।
अथ स्वरादिगण प्रारंभ होता है। घुञ् धातु का अर्थ-स्नपन, पीडन, स्नान और सुरा बनाने अर्थ में है। कर्ता में सार्वधातुक के आने पर 'सु आदि गण से 'नु' विकरण होता है ॥१८९ ।।
धात्वादे: ष; स: सूत्र ५४ से स होता है पुन: 'नाम्यंतयोर्धातुविकरणयोर्गुणः' ३२वें सूत्र से गुण होकर 'सुनोति, सुनुत:' बना। 'धात्वादे: ष: सः' सूत्र ५४ से 'सुनु अन्ति' है।
नविकरण के उकार को 'वकार' होता है ॥१९० ॥ पूर्व में संयोग अक्षर के न होने से स्वरादि अगुणी सार्वधातुक के आने पर 'नु' के 'उ' को 'व' हो जाता है। सुन्वन्ति ।
व, म, विभक्ति के आने पर असंयोग पूर्व के विकरण के उकार का लोप विकल्प से होता है ॥१९१ ॥
सुन्व; सुनुवः । सुन्म: सुनुम: बना । आत्मनेपद में—सुनुते सुन्वाते सुन्वते 'आत्मने चानकारात्' सूत्र से अन्ते के नकार का लोप हो गया। सुनुषे । सुन्वे, सुन्बहे, सुनुवहे । सुन्महे, सुनुमहे । भावकर्म में—सु य ते है
यण आय् इन्, आशी, चेक्रीयित, य और च्चि प्रत्यय के आने पर नाम्यंत धातु को दीर्घ हो जाता है ॥१९२ ॥