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________________ तिडन्तः उतोऽयुरुणुस्नुक्षुहुवः ॥२७४॥ युरुणुस्नुक्षुहुवर्जितादेकस्वरादुदन्तात्परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अहौषीत् अहौष्टां अहौषुः । अधात् अधातां अधुः । स्थादोरिरद्यतन्यामात्मने । इति इकारादेशः । स्थादोश्च ॥२७५॥ स्थादासंज्ञकयोगंणो न भवति अनिटि सिजाशिषीश्चात्मनेपदे परे । इति गुणनिषेधः । हस्वाचानिट इति सिचो लोप: । अधित अधिषातां अधिषत । अधिथा: अधिषायां अधिद्व । अधिधि अधिष्वहि अधिष्यहि । समस्थित समस्थिषातां समस्थिषत । इति जुहोत्यादिः ।। दिवु क्रीडाविजिगीषादीति । अदेवीत् अदेविष्टां अदेविषुः। स्वरतिसूतिसूयत्यूदनुबन्याच्च ।।२७६ ।। एभ्य: परपसार्वधातुकमनिड् भवति वा । धूङ प्राणिप्रसवे । असोष्ट असोषातां असोषत । असोष्ठा: आसोपाथाम् । नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षास धो ढः ।।२३९ ।।* ____नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षासु धो ढो भवति। असोवं । असोषि असोष्वहि असोष्महि । असविष्ट असविषाताम् । असविषत । दहि दिहि दुहि इत्यादिनानिट् ।। यु, रु, णु, स्नु, क्षु और णु को छोड़कर उकारांत एक स्वर वाली धातु को असार्वधातुक में इद् नहीं होता है ॥२७४ ॥ अहौषीत् अहौष्टां अहौषुः । अधात् । सूत्र २४१ से स्था और दा संज्ञक धातु को आत्मनेपद में अद्यतनी में इकार हो जाता है। अनिट् आशिष् सिच् के परे आत्मनेपद में स्था और दा संज्ञक को गुण नहीं होता है ॥२७५॥ इस सूत्र से गुण का निषेध हो गया है। 'हस्वचानिट:' सूत्र २४३ से सिच् का लोप हो गया। अधित अधिषातां अधिषत । समस्थित समस्थिपाता। इस प्रकार से अद्यतनी में जुहोत्यादि गण समाप्त हुआ है । अद्यतनी में दिवादि गण प्रारंभ होता है। दिवु-क्रीड़ा विजिगीषा आदि अर्थ में है। अदेवीत् अदेविष्टां अदेविषुः । पुञ् षूङ धातु और ऊकारानुबंध धातु से असार्वधातुक में अनिट् विकल्प से होता है ॥२७६ ॥ पूङ् प्राणि प्रसव अर्थ में है। अनिट् पक्ष में—असोष्ट-असोषातां असोषत । असो ध्वं है । नाम्यंत धातु से आशी: अद्यतनी परोक्षा में ध को 'ढ' हो जाता है ॥२३९ ॥ इससे असोवं बना । इट् पक्ष में- असत्रिष्ट असविषातां । “दहिदिहिदुहि इत्यादि" सूत्र से इट् नहीं होता है।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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