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कातन्त्ररूपमाला
विध्यादिषु सप्तमी च ॥ ३९।। विध्यादिषु वर्तमानाद्धातो; सप्तमी पञ्चमी च भवति । के विध्यादयः ? विधिनिमन्त्रणामवणाध्येषणसम्प्रश्नको विधि: 1 विधिः कर्त्तव्योपदेशः। अथवा अज्ञातज्ञापको विधि: । देवान् यजेत । यजतु । यजतां । होम जुहुयात् । जुहोतु । यत्र क्रियमाणे प्रत्यवायोऽस्ति तत्रिमन्त्रणं । इह श्राद्धे न भुञ्जीत । न भुक्तां भवान् । यत्र क्रियमाणे प्रत्यवायो नास्ति तदामन्त्रणं । इहासीत । आस्तां भवान् । सत्कारपूर्वको व्यापारोऽध्येषणं । यूयं माणवकमध्यापयेध्वम् । कर्त्तव्यालोचना सम्प्रश्नः । अहो कि व्याकरणमधियीय उत वेदमधियीय । अहो कि नाटकमध्ययै आहोस्विदलझरमध्ययै। याच्या प्रार्थना । भिक्षा में दध्याः । क्षेत्र मे दधीथा: । कन्यां मे देहि । मम सुवर्ण दत्स्व । आदिशब्दाठोषणविज्ञापनाज्ञापनादय: । क्षीणं प्रति कर्मप्रतिपादनं प्रेषणं। गृहीतवेतनस्त्वं । कर्माणि कुर्याः । कुर्वीथाः। कुरु । कुरुष्व । अधिकं प्रति स्वकार्यसूचनं विज्ञापनं । अहो देव इदं कार्यमवधारयः । अवधारय । सर्वेषां स्वस्वकार्यनियमप्रतिपादनमाज्ञापनं । विप्रा एवं प्रवतेरन् प्रवर्तन्ताम् । यतय एवं चरेयुः ।
याशब्दस्य च सप्तम्याः॥४०॥
विधि आदि में सप्तमी और पञ्चमी होती है ॥३९॥ विभि अति में बर्तमान भानु के कप्तमी' और 'पञ्चमी' विभक्तियाँ होती हैं। विधि आदि कौन-कौन हैं ? विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अध्येषण और संप्रश्नक ये विधि शब्द से कहे जाते हैं। विधि-कर्तव्य का उपदेश देना अथवा अज्ञात को बतलाना । जैसे—देवान् यजेत, यजतु, यजतां देवों की पूजा करना चाहिये । होमं जुहुयात्, जुहोतु-होम करना चाहिये।
जिसके करने में प्रत्यवाय (बाधा) है वह निमन्त्रण है।
जैसे-इह श्राद्धे न भुंजीत, न भुक्तां भवान-इस श्राद्ध में आपको भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन नहीं करिये। जिसके करने में प्रत्यवाय नहीं है वह आमन्त्रण है।
जैसे-इह आसीत्, आस्तां भवान्–यहाँ आप बैठिये, ठहरिये। सत्कार पूर्वक व्यापार 'अध्येषण' कहलाता है।
जैसे—यूयं माणवकं अध्यापयेध्वं-आप लोग बालक को पढ़ाइये। कर्तव्य की आलोचना—विचार करना संप्रश्न कहलाता है। अहो कि व्याकरणमधियीय उत वेदमधियीय—मैं व्याकरण पढूँ अथवा वेद पर्दै? अहो कि नाटकमध्ययै अहोस्विदलंकारमध्ययै--अहो मैं नाटक का अध्ययन करूं या अलंकार का अध्ययन करूं ? याचा— प्रार्थना-भिक्षा मे दद्या:-मुझे भिक्षा देवो। क्षेत्र मे दधीथा:-मुझे क्षेत्र देवो । कन्यां मे देहि---मुझे कन्या देवो ।
मम सुवर्ण दत्स्व-मुझे सुवर्ण देवो।
आदि शब्द से प्रेषण, विज्ञापन, ज्ञापन, आज्ञापन आदि अर्थ लेना चाहिये । क्षीणं प्रति कर्मप्रतिपादनं प्रेक्षणं-क्षीण के प्रति कर्म का प्रतिपादन करना प्रेषण कहलाता है। जैसे—गृहीतवेतनस्त्वं--तू वेतन ले चुका है। कर्माणि कुर्या:, कुवींथा: कुरु, कुरुष्व—काम करो।
अधिकं प्रति स्वकार्य सूचनं विज्ञापनं-अधिक के प्रति अपने कार्य को सचित करना विज्ञापन है । अहो देव ! इदं कार्यमवधारये: अवधारय–अहो देव ! इस कार्य को अवधारण करो। सभी को अपने अपने कार्य के नियम का प्रतिपादन करना 'आज्ञापन' कहलाता है। विप्रजन इस प्रकार प्रवृत्ति करें। यतिगण इस प्रकार की चर्या करें।
इस विधि आदि अर्थ में पहले सप्तमी आती है । भू यात् है अन् विकरण हो गया। गुण होकर 'भव अ यात्' रहा।
अकार से परे सप्तमी के 'या' शब्द को 'इकार होता है ॥४० ॥