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________________ तिङन्तः २११ रओरिनि मृगरमणार्थे वा ।। ५८॥ मृगरमणार्थे रझेरनुषङ्गलोपो वा भवति इनि परे । रजति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते । धातोश हेतौ इति इन् भवति । रजयति । पक्षे रञ्जयति । प्लिवु शिवु निरसने । क्लमु ग्लानौ । चमु छमु जमु जिमु अदने। ष्टिवक्तमान्दामापन्दि।। ५. ! - ष्टिवु क्लम आचम् इत्येतेषामुपधाया दोघों भवति । परस्मैपदेऽनि परे। क्रियायोग प्रादय उपसर्गसंज्ञा भवन्ति । निष्ठीवति निाटीवत: निष्टीवन्ति । क्लामति । भावे—क्लम्यते । आचामति । आचम्यते । आङ्गिति किं ? चमति । विन्नमति । क्रम पादविशेपे । क्रमः परस्मै ।। ६० ॥ क्रमा दीपो भवति परस्मैपदे अनि परे । कामति । परस्मै इसि कि ? प्रोपाभ्यामारम्भे॥६१।। लक्षणसूत्रे लक्षणं व्यभिचरन्त्याचार्याः। प्रोपाभ्यां परः क्रम आरम्भेऽथे आत्मनेपदी भवति । प्रक्रमते । उपक्रमते । प्रक्रम्यते उपक्रम्यते । सुद्रुकच्छगम्तृसृप गतौ । इषु इच्छायां । यमु उपरमे । मृग को रमण कराने अर्थ में प्रेरणार्थक इन् के आने पर रङ्ग का विकल्प से अनुषंग लोप होता है ॥५८ ॥ ___मृगं रजति कश्चित् तम् अन्यः प्रयुक्ते कोई मृग के साथ रमण करता है और उसको कोई प्रेरणा से वमण क्रीडा कराता है । "धातोश्च हेतौ इन्” इस सूत्र से इन् प्रत्यय होता है रजि बना पुन: अन् विकरण और गुण होकर 'रजयति' बना। पक्षे—अनुषंग लोप न होने पर रञ्जयति बना। ___ "ष्ठिवु क्षिवु' धातु थूकने अर्थ में हैं। क्रमु धातु ग्लानि अर्थ में है। चमु छमु जमु जिमु धातु भोजन करने अर्थ में हैं। परस्मैपद अन् के आने पर ष्ठिबु क्लम् आचम् धातु की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥५९ ॥ क्रिया के योग में प्रादि उपसर्ग संज्ञक हो जाते हैं । ष्टी वति नि पूर्वव, निष्ठीवति' बना । क्लम् से क्लामति आङ् उपसर्ग पूर्वक चम् आचामति बना । कर्मप्रयोग मे—क्लम्यते, आचम्यते । आङ उपसर्ग पूर्वक चम् हो ऐसा क्यों कहा ? चमति विचमति में दीर्घ नहीं हुआ। क्रमु धातु पाद विक्षेपण करने अर्थ में है। क्रम् अ ति । परस्मैपद अन् के आने पर क्रम को दीर्घ हो जाता है ॥६० ॥ क्रामति । परस्मैपद में ऐसा क्या कहा ? प्र, उप से परे क्रम् धातु आरंभ अर्थ में आत्मनेपदी हो जाता है ॥६१ ॥ आचार्य, लक्षण सूत्र में लक्षण को व्यभिचरित कर देते हैं। अत: प्र. उप से परे क्रम धातु आरंभ अर्थ में आत्मनेपदी हो जाता है। प्रक्रमते, उपक्रमते । कर्म में प्रक्रम्यते उपक्रम्यते । षु जु द्रुघु ऋच्छ, गम्ल, सृ पृ धातु गति अर्थ में हैं। इधु धातु इच्छा अर्थ में है। यमु धातु उपरम अर्थ में है।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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