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________________ व्यञ्जना ता नपुंसकलिङ्गाः अथ व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गा उच्यन्ते कवर्गान्ता अप्रसिद्धा: । चकारान्तो नपुंसकलिङ्गः प्राञ्शब्दः । विरामे व्यञ्जनादायुक्तं नपुंसकात्स्यमोलोपेऽपि ॥३४१ ।। विरामे व्यञ्जनादौ च यदुक्तं नपुंसकलिङ्गात्परयोः स्यमोलोपेपि तद्भवति । इति मत्वं अनुषङ्गश्चाक्रुश्चेत्सर्वत्र । प्राकु, प्राग् । प्राची। प्राची। पुनरप्येवं। प्राचा। प्रारभ्यां । प्राग्भिः । प्राक्षु । अन्यत्र पुल्लिङ्गवत्। एवं प्रत्यञ्च् सम्यञ्च् उदञ्च तिर्य प्रभृतयः। छजझबटवर्गान्ता अप्रसिद्धाः। तकारान्तो नपुंसकलिङ्गः सकृत् शब्दः । सकृत, सकृद् । सकृती । सकृन्ति । पुनरपि । इत्यादि । ददन्त् शब्दस्य तु भेदः । ददत्, ददद् । ददती । व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग प्रकरण अब व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग प्रकरण कहा जाता है। यहाँ नपुंसकलिंग में कवर्गान्त अप्रसिद्ध है चकारांत नपुंसक लिंग प्राञ्च् शब्द है। प्रान्+सि विराम और व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर जो कार्य कहा गया है वह कार्यनपुंसकलिंग से परे 'सि अम्' के लोप होने पर भी हो जाता है ॥३४१ ॥ - इस नियम से 'सि अम्' को लोप होकर "अनुषंगशाक्रुश्चेत्” २६२वें सूत्र से अनुषंग संज्ञक अकार का लोप होकर 'चवर्गदगादीनां च सूत्र से 'च' को 'ग्' होकर विकल्प से प्रथम अक्षर होकर 'प्राक्, प्राग्' बना । ऐसे सर्वत्र अनुषंग का लोप करके व्यंजनादि में च को ग करके रूप बनेंगे । एवं नपुंसकलिंग के सारे नियम लगेंगे। यथा-प्रा+औं '' का लोप, 'औरीम्' से 'औ' का 'ई' होकर 'प्राची' बना। ऐसे ही प्राच्+जस् है। "जश्शसो: शिः" २३९वें सूत्र से 'जस् शस्' को शि आदेश होकर "धुस्वराधुटि नुः" २४०वें सूत्र से "नु' का आगम “धुटि चासंबुद्धी" सूत्र से दीर्घ होकर 'प्राञ्चि' बना । आगे रूप सरल हैं। प्राक्, प्राग् प्राची प्राश्चि । प्राचे प्राम्भ्याम् प्राध्यः हे प्राक, प्राग् हे प्राची हे प्राचि प्राचः प्राभ्याम् प्रारभ्यः प्राक्, प्राण प्राची प्राञ्चि प्राचः प्राचोः प्राचाम प्राचा प्रारभ्याम् प्राभिः प्राचि प्राचीः इसी प्रकार से प्रत्यञ्च सम्य, उदश्च तिर्य आदि के रूप चलेंगे। सम्यक, सम्यग् समीची सम्यञ्चि सम्याभ्याम् सम्यग्भ्यः हे सम्यक्, सम्यग् हे समीची हे सम्यश्चि समीचः सम्यग्भ्याम् सम्यग्भ्यः सम्यक्, सम्यग् समीची सम्यञ्चि समीच: समीचोः समीचाम समीचा सम्याभ्याम् सम्यग्भिः । समौचि समीचोः सम्यक्षु छ, ज, झ, ब और टवर्ग नपुंसकलिंग में अप्रसिद्ध हैं। अब तकारांत नपुंसकलिंग 'सकृत्' शब्द है। सकृत् + सि ‘वा विरामे' सूत्र से 'सकृद्' बनकर रूप चलेगा। सकृत, सकृद् सकृती सन्ति । सकृते सकृद्भ्याम् सकृद्भ्यः हे सकृत, सकृद हे सकृती हे सकृन्ति । सकृतः सकृद्भ्याम् सकृद्भ्यः सकृत, सकृद सकृती सकृन्ति सकृतः संकृतोः सकृताम् सकृता सकृभ्याम् सन्दिः । सकृति सकृतोः सकृत्सु प्राक्षु समीचे
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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