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कातन्त्ररूपमाला
समीक्षते। ग्रामो युष्मभ्यं दीयमान: समीक्षते । ग्रामोऽस्मभ्यं दीयमान: समीक्षते। ग्रामस्त्वां मनसा विलोकयति । वाञ्छतीत्यर्थ: । मनसेति किं ? ग्रामो वः पश्यति । ग्रामो नः पश्यति । चक्षुषेत्यर्थ: ।
इत्यलिंगाः
अथाव्ययान्युच्यन्ते अव्ययमसंख्यं । तानि कानि ? स्वर प्रातर पुनर अन्तर् बहिर् च, का, ह, अह, एव, प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव्, निर्, दुर, वि, आ न, अति, अपि, आंध, सु, डा, आंभ, प्रांत, परि, उप, इत्यादि प्रादयो विंशतिः । विना, नाना, अन्तर् नो, अथ, अथो, अहो, पृथक्, यावत्, तावत्, मनाक्, वषद, ईषत, हिं, यदि, खलु, ननु, तिर्यक, मिथ्या, किल, हन्त, वै, तु।।
अव्ययाच्च ॥३६७॥ अव्ययाच परासां विभक्तीनां लुग्भवति ।
(सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु । __ वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥१॥
इत्यव्ययानि।
यहाँ गाँव चक्षु से नहीं देख रहा है अत: त्वा' आदेश नहीं हुआ। ऐसे ही सभी पदों के उदाहरण समझ लेना। यहाँ 'ग्रामस्त्वां समीक्षते' और 'ग्रामो युष्मभ्यं दीयमान: समीक्षते' वाक्यों का यह अर्थ है कि “यह गाँव तुमको मन से देख रहा है। और यह गाँव तुम्हारे लिये वाच्छा कर रहा है।"प्रश्न--मन से देखता है ऐसा क्यों कहा ? उत्तर--"ग्रामो वः पश्यति' यहाँ व: आदेश हुआ है अत: ग्राम तुमको चक्षु से देखता है । ऐसा अर्थ लेना चाहिये । अर्थात् गाँव के निवासी तुम्हें चक्षु से देख रहे हैं ऐसा अभिप्राय है।
यहाँ ये युष्मद् अस्मद् शब्द तीनों लिंगों में समान रूप से चलते हैं इनमें लिंग भेद नहीं है अतएव इन्हें 'अलिंग' कहा है।
इस प्रकार से अलिंग प्रकरण पूर्ण हुआ ।
अथ अव्यय प्रकरण कहा जाता है। अव्यय किसे कहते हैं ? जिनके रूप न चले अर्थात् जिनका किसी भी विभक्ति के आने पर व्यय... परिवर्तन--विनाश न होवे उसे अव्यय कहते हैं । वे अव्यय कितने हैं ? ये अव्यय असंख्य हैं । वे कौन-कौन हैं ? सो बताते हैं। स्वर, प्रातर, पनर, अंतर, बहिर च, वा, है, अह, एव इत्यादि । इसी प्रकार से 'प्र' आदि बीस उपमर्ग माने गये हैं वे भी अव्यय है जैसे—प्र पस, अप, सम, अनु, अव, निर्, दुर्, वि, आङ, नि, अति, अपि, अधि, सु. उत, अभि, प्रति, परि, उप ये बीस उपसर्ग हैं। आगे और भी अव्यय हैं—विना, नाना, अन्तर, नो, अथ, अथो, अहो, पृथक्, यावत्, तावत्, मनाक्, वषट्, ईषत्, हि, यदि, खलु, ननु, तिर्यक्, मिथ्या, किल, हंत, वै, तु । अब-स्वर+सि है
अव्यय से परे विभक्तियों का लुक हो जाता है ॥३६७ ॥ इस सूत्र से सि विभक्ति का लोप हुआ पुन: र् का विसर्ग होकर 'स्व:' बना । स्वर् + औ । उपर्युक्त सूत्र से विभक्ति का लोप होकर स्व: बना । इत्यादि।
श्लोकार्थ—जो शब्द तीनों लिंगों में, सातों विभक्तियों में एवं एक, द्वि. बहुवचनों में समान ही रहे जिसमें कोई परिवर्तन न हो वह अव्यय कहलाता है । व्यय की प्राप्त न होवें वह अव्यय कहलाता है ।।१।।
इस प्रकार से अव्यय प्रकरण समाप्त हुआ।