________________
तिङन्त:
दृशेः वश्यः ।।६९ ।।
दृशेर्धातोः पश्यादेशो भवत्यनि परे । पश्यति । दृश्यते । ऋ प्रापणे। ऋ सृ गतौ I अर्तेः ऋच्छः ||७० ॥
अर्तेः ऋच्छादेशो भवत्यनि परे । ऋच्छति ।
गुणोर्तिसंयोगाद्योः ॥ ७९ ॥
अर्तेः संयोगादेश्च धातोर्गुणो भवति । यकारादौ प्रत्यये परे । अर्द्धते । सर्घावः ॥ ७२ ॥
सर्तेर्धावादेशो भवत्यनि परे । धावति । यणाशिषोर्य इति इकारागमः स्त्रियते । ननु धावुगतावित्ययमपि धातुरस्ति जवाभिधाने यथा स्यात् । तेन प्रियामनुसरति । शल शातने । शदेः शीयः ॥ ७३ ॥
शदेः शीयादेशो भवत्यनि परे ।
शदेरनि ॥७४॥१
शदेरनि परे आत्मनेपदं भवति । यदि धातुः रुचादिर्भवत्यनि परे । शीयते शीयेते शीयन्ते । कर्मणि-शद्यते । पक्षे कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते शादयति । षद् विशरणगत्यवसादनेषु । सदेः सीदः ॥७५ ॥
अन् के आने पर दृश् को पश्य होता है ॥ ६९ ॥
पश्यति । कर्म में दृश्यते । ऋ धातु प्राप्त कराने अर्थ में है। ऋ सृ गति अर्थ में है । अन् के परे ऋ धातु को ऋच्छ हो जाता है ॥ ७० ॥
ऋच्छति । ऋय ते इस स्थिति में
२१३
यकारादि प्रत्यय के आने पर ऋ और संयोगादि धातु को गुण हो जाता है ॥ ७१ ॥ । ऋ को गुण होकर अर्-अर्थते य् को द्वित्व होकर अर्थ्यते । सृ अति ।
अन् के आने पर सृ को धाव् हो जाता है ॥ ७२ ॥
धावति । कर्म में सु य ते। "यणाशिषोर्य" नियम से इकार का आगम हो गया। खियते बना ।
I
धावु गति अर्थ में है यह भी एक धातु हैं पुनः सृ को धावु आदेश क्यों किया ? यदि दौड़ने अर्थ में है तब तो धावु स्वतंत्र धातु है अन्यथा चलने अर्थ में सृ को धाव् आदेश होता है। सृ का रूप भी चलता है प्रियामनुसरति — प्रिया का अनुसरण करता है ।
शद्लृ धातु शातन अर्थ में है ।
अन् के आने पर शद् को शीय् आदेश होता है ॥ ७३ ॥
अन् के आने पर शद् को आत्मने पद हो जाता है ॥ ७४ ॥
के आने पर शद् धातु रूचादि गण में हो जाती है। शीयते शीयेते । कर्म में शयते । पक्ष
अन् में— शीयते तं कोऽपि प्रेरयति कोई अन्य उसको प्रेरित करता है। 'शादयति' बना ।
षद्लृ धातु विशरण, गति ओर अवसादन अर्थ में है।
अन् के आने पर सद् को सीद् होता है ॥ ७५ ॥