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कातन्त्ररूपमाला
सर्वापहारिलोपः । कृतद्धितसमासाश्चेति लिङ्गसंज्ञा । यत्र गत्यर्थस्तत्र अनुषङ्गश्चाक्रुश्चेत् इत्यनुषङ्गलोप: । यत्र पूजार्थस्तव नाचेः पूजायामिति अधुट्स्वरे व्यञ्जने अनुषगलोपो न भवति । अदद्र्यशब्दस्य तु भेदः । अछ अदस्पूर्व:-अमुमञ्चतीति स्विप् चेति क्विप् प्रत्ययः । क्विपि सति
विष्वग्देवयोश्चान्त्यस्वरादेरद्रयचतौ क्वौ ।।२६६ ॥ विष्वग्देवयोः सर्वनाम्नश्चान्त्यस्वरादेरवयवश्चाश्चतौ क्विबन्ते परेऽद्रिरादेशो भवति । इति सकारसहितस्य अकारस्य अदिरादेश: । इवों थत्वं । अदव्यञ्च इति स्थिते सति
अदव्यञ्चो दस्य बहलं ॥२६७॥ अपश्चो दकारस्य बहुलं मकारो भवति, मात् परस्य रस्य उत्वं च। अदमुयङ्। अदमुयश्चौ । अदमुयश्चः । एवं सम्बुद्धौं । अदमुयनं । अदमुयञ्चौ ।
" उपसर्गपूर्वक अश्वति है. क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर प्राश्च बना। जब इस प्राञ्चका गति अर्थ लेंगे तब शसादि विभक्ति के आने पर 'अनुषंगश्चाक्रुशेत्' सूत्र से अघुट् स्वर और व्यञ्जनादि विभक्तियों के आने पर अनुषंग का लोप होगा। अत: उपर्युक्त प्रकार से दो तरह से रूप चलते हैं।
अदयश्च शब्द में कुछ भेद हैंयहाँ भी अञ्च धातु गति और पूजन अर्थ में है।
अदस् शब्दपूर्वक अक्षु धातु से अनुम् असि इ . से 'किस' इ ६५६वे सूत्र से विवप् प्रत्यय हुआ एवं क्विप् प्रत्यय के होने पर आगे का सूत्र लगता है।
अञ्च् धातु से क्विप् प्रत्यय के आने पर विष्वक्, देव और सर्वनाम के अन्त्य स्वर की आदि के अवयव को 'अद्रि' आदेश हो जाता है ॥२६६ ॥ ___ यहाँ पर अदस् शब्द सर्वनाम है अत: इसके अवयव--सकार सहित दकार के अकार को 'अद्रि' आदेश हो गया तब अदद्रि + अञ्च् । ___ इ वर्ण को य् होकर 'अदधू' बन गया। अदञ्च् के दकार को बहुलता से मकार हो जाता है ॥२६७ ॥
और मकार से परे रकार को उकार हो जाता है तब अदमु इकार को य् होकर अञ्च मिलकर अदमुय बना । अर्थात् अद द्रि+ अङ्ग् है । द्रि में तीन अक्षर हैं। द् को 'म्' र को 'उ' और इ को 'य' आदेश हो गया।
अदमुय् + अञ्- अदमुय बना । इसी विषय में आगे के श्लोक का अर्थ देखिये ।
श्लोकार्थ-कोई आचार्य पर के दकार को मकार एवं कोई आवार्य पूर्व के दकार को मकार करते हैं एवं कोई आचार्य दोनों ही दकार को मकार स्वीकार करते हैं तथा कोई आचार्य दोनों ही दकारों को मकार नहीं मानते हैं अत: इस अदस् शब्द से अञ्च् धातु के आने पर चार प्रकार के रूप बन जाते हैं।
प्रथम पर के दकार को मकार करने पर अदमुयञ्च् द्वितीय-पूर्व के दकार को मकार करने पर अमुञ्च।
तृतीय में दोनों ही दकारों को मकार करने पर 'अमुमुयञ्च' चतुर्थ में दोनों ही दकारों को मकार न करने पर 'अदन्' ऐसे चार रूप बने हैं अब 'कृत्तद्धित समासाश्च' से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आकर क्रम से एक-एक के रूप चलेंगे।