SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः क्विप् सर्वापहारिलोपः। कृतद्धितसमासाश्चेति लिङ्गसंज्ञा। प्रथमैकवचन सि । व्यञ्जनाच्चेति सेलोपः । मनोरनुस्वारे धुटि इति नकारस्यानुस्वारे प्राप्ते सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवानिति न्यायात् संयोगान्तस्य जोप इति रिलमालोग । मकन । स्वरें परे मनोरनुस्वारो धुटि इति अनुस्वारः । महत्साहचर्याद्धातादीघों न स्यात् । सुकंसौ । सुकंस: । सुकंसं । सुकंसौ । सुकंस: । सुकंसा। सुकन्भ्यां : सुकन्भिः । इत्यादि। सम्बोधनेऽपि तद्वत् । नाञ्चः पूजायां ॥२६५ ।। पूजार्थे वर्तमानस्य अञ्चेरनुषङ्गस्य लोपो न भवति अघुट्स्वरे व्यञ्जने च परे । प्राङ् । प्राञ्चौं । प्राश्च: । हे प्राङ् । हे प्राञ्चौ । हे प्राश्नः । प्राझं । प्राञ्चौ। प्राञ्चः । प्राचा। प्राङ्भ्याम् । प्राभिः । इत्यादि । सुषि विशेषः । डात्परस्य सस्य षो भवति। प्रार्छ । अञ्च गतिपूजनयोः। प्रपूर्वक: प्राचतीति क्विप् २६२वें सूत्र में कहा कि इकार अनुबंध जिसमें हुआ है ऐसे शब्दों के अनुषंग का लोप नहीं होगा सो ऐसा क्यों कहा ? सुकन्स् शब्द है यह कैसे बना सो देखिये ! 'कसि धातु गमन और शासन अर्थ में है इसमें इकार का अनुबंध लोप हआ है अत: इकार अनुबंध धात में कृदन्त में न का आगम होता है सु उपसर्गपूर्वक अर्थात् अच्छी तरह से गमन या शासन करता है इस अर्थ में क्विप् प्रत्यय हुआ तो सु क नु स= सुकन्स् बना क्योंकि विवप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोए हो जाता है। पुन: 'कृत्तद्धितसमासाश्च' इस ४२३वें सूत्र से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आ गईं। सुकन्स्+सि 'व्यंजनाच्च' इस सूत्र से सि का लोप'मनोरनुस्वारोधुटि' इस २५८वें सूत्र से नकार को अनुस्वार प्राप्त था किन्तु सर्वविधि से लोप विधि बलवान होती है इस नियम से 'संयोगांतस्य लोप:' इस १६३वें सूत्र से संयुक्त के अन्त सकार का लोप होकर 'सुकन्' बना । सुकन्स् + औ 'मनोरनुस्वारो धुटि' से न को अनुस्वार होकर 'सुकंसौ' बना । यहाँ महत् के साहचर्य से धातु को दीर्घ नहीं हुआ। सुकन्स्+भ्याम् ‘संयोगांतस्य लोपः' से स् का लोप होकर सुकन्भ्याम् बना । सुकन् सुकन्सौ सुकंसः । सुकंसे सुकन्भ्याम् सुकन्भ्यः हे सुकन् हे सुकन्सौ हे सुकंसः | सुकंस: सुकन्भ्याम् सुकन्यः सुकंसम् सुकन्सों सुकंसः सुकंसोः सुकंसाम सुकंसा सुकन्भ्याम् सुकन्भिः । सुकंसि सुकसोः सुकन्सु प्राञ्च+सि पूजा अर्थ में वर्तमान अञ्च् के अनुषंग का लोप नहीं होता है ॥२६५ ॥ अघट स्वर और व्यंजन वाली विभक्तियों के आने पर अञ के नकार का लोप नहीं होता है पजा अर्थ में विद्यमान रहने पर । अत: प्राञ्च+ शस् = प्राश्नः । प्राञ्च् + भ्याम् च को ग् ञ् को अनुस्वार होकर डकार हुआ। संयुक्त के अंत का लोप होकर प्राभ्याम् । प्राञ्च+सु= प्राङ्सु 'झत्' २६४वें सूत्र से स् को प् होकर प्राषु बन गया। प्राङ् प्राञ्चौ प्राशः प्राचे प्राभ्याम् प्राभ्यः हे प्राङ् ! हे प्राञ्चौ ! हे प्राञ्चः ! | प्राभ्याम् प्राभ्यः प्राश्वम् प्रायः प्राचः प्राश्चोः प्राश्चाम् प्राचा प्राभ्याम प्राभिः । प्राचि प्राञ्चोः प्राइषु प्राङ्क्ष अञ्जु धातु गति और पूजा अर्थ में है। सुकंसः प्राञ्चौ
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy