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________________ ११० कातन्त्ररूपमाला श्रसिध्वसोलिङ्गयोरन्तस्य दो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । उखाश्रत, उखाश्रद् । घुट्स्व रे नुः ॥३२२ ॥ श्रसिध्वसोर्लिङ्गयोर्नुरागमो भवति घुस्वरे परे । उखाअंसौ। उखानंसः। संबोधनेऽपि तद्वत् । उखादंसं । उखाश्रंसौ। उखाश्रस: । उखाश्रसा। उखाश्रद्भ्याम् । उखाश्रद्भिः । उखाश्रत्सु । एवं पर्णध्वस् शब्दः । अदस् शब्दस्य तु भेदः । तदाद्यत्वम् । सौ सः ॥३२३ ।। त्यदादीनां दकारस्य सकारो भवति सौ परे । सावौ सिलोपश्च ॥३२४ ॥ अदसोऽन्तस्य और्भवति स्वरे परे सिलोपश्च । असौ । द्वित्वे अदस: पदे मः ॥३२५ ।। एवं 'सि' का लोप होकर उखावत, उखाश्रद् बन गया। उखाश्रस् + औं घट् स्वर वाली विभक्ति के आने पर अस्, ध्वस् शब्द को 'नु' का आगम हो जाता पुन: नकार का अनुस्वार होकर 'उखादंसौ' बना। संबोधन में भी वैसे ही रूप रहेंगे। उखाश्रस् + भ्याम् उपर्युक्त ३२१वें सूत्र से 'स्' को 'द्' होकर 'उखाश्रद्भ्याम्' बना। उखाश्रत, उखाश्रद उखाश्रेसौ उखाश्रंसः हे उखाश्रत, उखाश्रद हे उखासौ हे उखाश्रंसः उखाभंसम् उखाअंसौ उखानसः उखाश्रसा उखाश्रभ्याम् उखादिमः उखाश्रसे उखाश्रभ्याम् उखाश्रयः उखाश्रसः उखाश्रद्भ्याम् उखाश्रयः उखाश्रस: उखाश्रसोः उखानसाम् उखाश्रसि उखाश्रसोः उखाश्रत्सु इसी प्रकार से पर्णध्वस् शब्द के रूप चलते हैं। अदस् शब्द में कुछ भेद हैं। अदस् + सि "त्यदादीनाम् विभक्तौ" इस १७२वें सूत्र से अदस् को अकारांत 'अद' हुआ। सि विभक्ति के आने पर त्यदादि के दकार को सकार हो जाता है ॥३२३ ॥ अत; अस + सि रहा। अदस् के अंत को 'औ' हो जाता है। एवं 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है ।।३२४ ॥ अत: अस+ औ= असौं बना। अन्न सुप विभक्ति तक अदस् को 'अद' आदेश कर लेना चाहिये । अद+ औ अदस् को पद करने पर 'द' को 'म' हो जाता है ॥३२५ ॥
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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