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________________ २१८ कातन्त्ररूपमाला अस्तेरादेः ॥१७॥ अस्तेरादेलोंपो भवति अगुणे सार्वधातुके परे । स्तः सन्ति । अस्तेः सौ ।।९८॥ अस्तेरन्त्यस्य लोपो भवति सौ परे असि स्थ: स्थ । अस्मि स्व: स्मः । स्यात् स्यातां । स्युः । स्याः स्यातं स्यात । स्याम् स्याव स्याम । अस्तु स्तात् स्तां सन्तु । एकदेशविकृतमनन्यवत् । दास्त्योरेभ्यासलोपश्च ।।९९॥ दासंज्ञकस्य अस्तेरन्त्यस्य ए भवति अभ्यासलोपश्च हो परे। अस्तेः ॥१०॥ अस्तेः परस्य हेर्धिर्भवति। स्थानिवदादेशः ।।१०१॥ यस्य स्थाने यो विधीगने शादी इतर आदेशः । एधि स्तात् स्तं स्त। असानि असाव असाम। अस्तेर्दिस्योः ॥१०२॥ अगुणी सार्वधातुक विभक्ति के आने पर अस के आदि का लोप होता है ॥९७ ।। 'स्त:' बना। अस् अ अन्ति है विकरण का लोप, अस् के अकार का लोप होकर 'सन्ति' बना । अस् सि है। सि के आने पर अस् के अन्त सकार का लोप हो जाता है ॥९८ ॥ असि स्थ: स्थ । सप्तमी में अगुणी होने से अस् के आदि का ९७ सूत्र से लोप हो गया है । अत: 'स्यात्' बन गया। अस्ति स्त: सन्ति । असि स्थ: स्थ । अस्मि स्व: स्मः । स्यात् स्यातां स्यु: । स्या: स्यातं स्यात । स्याम् स्याव स्याम ! अस् हि है। 'हि' के आने पर दा संज्ञक और अस्ति अस् के अंत को 'ए' हो जाता है एवं अभ्यास का लोप हो जाता है ॥२९॥ यहाँ अस् के अकार का लोप होने से अस् कहाँ है ? एकदेश विकृत होने पर भी वह उसी नाम वाला रहता है। अत: स् को ए हो गया । तब 'ए हि' है। अस्ति के परे हि को 'धि' हो जाता है ॥१०० ॥ "एधि' बन गया। स्थानिवत् आदेश होता है ॥१०१॥ जिसके स्थान में जो किया जाता है वह स्थान इतर आंदेश हो जाता है अर्थात् आदेश प्रथम को हटाकर आप आ जाता है। अस् आनि आव आम हैं । पञ्चमी का उत्तम पुरुष गुणी विभक्ति कहलाता है। अत: 'अस्तेरादे:' सूत्र ९७ से अकार का लोप नहीं हुआ। तब असानि असाव असाम बन गया । अस्तु स्तात् स्तां सन्तु । एधि, स्तात् स्तं स्त। असानि असाव असाम। अस् धातु से परे दि, सि को आदि में ईत् हो जाता है ॥१०२ ॥
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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