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कातन्त्ररूपमाला
सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति बहुलम्॥४२९ ।। कृदन्ते परे सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति समासे बहुलमलुग्भवति । गेहेनदी । गेहेक्ष्वेडा । प्रवाहेमूत्रितं । भस्मनिहुतं । क्वचिद्विकल्प: । खेचरः, खचरः। वनेचरः, वनचर: । पङ्केरुह, पङ्करुहं । सरसिज, सरोजं । इत्यादि ॥ विदुषां गमनं । दिवं गतः । इत्यादौ समासे कृते
व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः ।।४३०॥ लुप्तासु विभक्तिषु व्यञ्जनान्तस्य सुभोर्यदुक्तं तद्भवति । विद्वद्गमनं । धुगत: । इत्यादि । नीलं च तदुत्पलं च । रक्तं च तदुत्पलं च । च शब्दः समुच्चयद्योतनार्थः । तच्छब्द एकाधिकरणद्योतनार्थः ।
__ निष्कौशाम्बि + सि=निष्कौशाम्बि, निर्मयूर: । दीर्घश्चारायणः, व्यास: पाराशर्य:, रामो जामदग्न्य: क्षेमकर, शुभंकर: एकाधिकरणद्योतनार्थः ।
(पदे तुल्याधिकरणे विज्ञेयः कर्मधारयः ॥४३१ ।। यस्मिन् समासे द्वे पदे तुल्याधिकरणे भवत: स कर्मधारयो भवति । भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयो: शब्दयोरेकाधिकरणे समावेशस्तुल्याधिकरणं। उक्तार्थानामप्रयोग इति तत्-च-शब्दनिवृत्तिः ।
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सप्तमी से तत्पुरुष समास में कृदन्त से समास करने पर बहुधा करके लुक् नहीं होता है ॥४२९॥
तब गेहे, नदी, गेहेनर्दी प्रवाहे मूत्रितं-भस्मनि हुतं । इत्यादि । कहीं पर विकल्प हो जाता है । खेचर: खचर:, वनेचर: वनचर; पंकेरुहं पंकरुई, सरसिज सरोजं आदि ।
विदुषां गमन, दिवं गतः इत्यादि में समास के करने पर विद्वन्स्+आम, गमन+सि। दिव् + अम्, गत + सि है। विभक्ति का लोप होकर सूत्र लगा
विभक्तियों के लोप हो जाने पर व्यञ्जनान्त सुभ्याम् विभक्तियों में जो कार्य कहा है वही हो जाता है ॥४३० ॥
न का लोप एवं स् का 'द' होकर 'विद्वद्गमन' सि विभक्ति आकर 'विद्वद्गमन' बना । उसी प्रकार "अघुट्स्वरादों" आदि ३१९वें सूत्र से व् को 'उ' होकर धुगत विभक्ति आकर 'धुगतः' बना । इत्यादि
अब कर्मधारय समास को कहते हैं। नीलं च तदुत्पलं च, रक्तं च तदुत्पलं च । यहाँ चकार शब्द समुच्चय को प्रकट करने के लिये दिया जाता है। और 'तद्' शब्द एकाधिकरण को प्रकट करने के लिये है अर्थात् नील शब्द भी नपुंसकलिंग है अत: तद् शब्द भी नपुंसकलिंग का एकवचन है । इसी तरह कर्मधारय समास में स्त्रीलिंग में सा अथवा असौं, पुल्लिंग में असौं शब्द का प्रयोग होता है एवं एकवचन में एकवचन द्विवचन के साथ 'तो' बहुवचन के साथ 'ते' शब्द का प्रयोग होता है क्योंकि विशेष्य विशेषण का समास है अत: लिंगों में, वचनों में समानता का नियम है। उसी को आगे स्पष्ट करेंगे।
जिस समास में दो पद तुल्य अधिकरण वाले होवें वह समास 'कर्मधारय' संज्ञक है ॥४३१ ॥
तुल्याधिकरण किसे कहते हैं ? भिन्न प्रवृत्ति में निमित्तभूत दो शब्दों का एक आधार में समावेश होना तुल्याधिकरण कहलाता है । यहाँ पर भी “उक्तार्थानामप्रयोगः" इस नियम से चकार और तद् शब्दों
१. सप्तम्यन्त का कृदन्त के साथ तत्पुरुष समास करने पर सप्तमी विभक्ति का लोप नहीं होता है ||४३५ ॥