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कातन्त्ररूपमाला
हेत्वर्थे ॥३९१ ।। हेत्वर्थे वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । अत्रेन सेवते । धनेन कुलं । विद्यया यशः ।
कुत्सितेऽङ्गे ॥३९२ ॥ कुत्सितेऽड़े वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । अक्ष्णा काणः। पादेन खञ्जः । अक्षि काणमस्येति । प्रधानत्वात्प्रथमैव ।
विशेषणे ।।३९३॥ विशेषणे वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति ।
__ शिखया बटुमद्राक्षीत् श्वेतच्छत्रेण भूपतिम् । केशवं शंखचक्राभ्यां विभिनेत्रै: पिनाकिनम् ।।
कर्तरि च ॥३९४ ॥ ___ कर्तरि च कारके वर्तमानाल्लिङ्गात्तीया भवति । देवदत्तेन कृतं । यज्ञदत्तेन भुक्तं । छात्रेण हन्यते । सुराभ्यां युध्यते। सुजनैः क्रियते ।।
तुल्यार्थे षष्ठी च ३१५ ।।
हेतु अर्थ में तृतीया होती है ॥३९१ ॥ यथा-अत्रेन सेवते— अन्न के हेतु सेवा करता है। धनेन कुल-धन के निमित्त से कुल है। विद्यया यश:-विद्या से यश होता है।
कुत्सित अंग में वर्तमान लिंग से तृतीया हो जाती है ॥३९२ ॥ यथा---अक्षणा काण:-आँख से काना।
पादेन खन:--पैर से लंगड़ा । यहाँ आँख कानी है जिसकी ऐसा बहुवीहि समास होने से काना व्यक्ति प्रधान होने से "काणः' इसमें प्रथमा ही हुई है।
विशेषण अर्थ में भी तृतीया होती है ॥३९३ ॥ श्लोकार्थ शिखा से वटु-ब्राह्मण को पहचाना, श्वेतच्छत्र से राजा को, शंख और चक्र से केशव को एवं तीन नेत्रों से महादेव को पहचाना। अत: क्रम से शिखया, श्वेतच्छत्रेण, त्रिनेत्रेण में तृतीया आई ।
कर्ताकारक में वर्तमान लिंग से तृतीया होती है ॥३९४ ॥ यथा—देवदत्तेन कृतं-देवदत्त ने किया।
यज्ञदत्तेन भुक्तं यज्ञदत्त ने खाया। छात्रेण हन्यते -छात्र के द्वारा मारा जाता है। सुराभ्याम् युध्यते-दो देवों द्वारा युद्ध किया जाता है।
सुजनैः क्रियते-सज्जनों के द्वारा किया जाता है। तुल्य अर्थ के योग में लिंग से तृतीया और षष्ठी दोनों हो जाती हैं ॥३९५ ॥
१. यहाँ विशेषण का अर्थ है दूसरे से भेद करने वाला।