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________________ १४२ कातन्त्ररूपमाला हेत्वर्थे ॥३९१ ।। हेत्वर्थे वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । अत्रेन सेवते । धनेन कुलं । विद्यया यशः । कुत्सितेऽङ्गे ॥३९२ ॥ कुत्सितेऽड़े वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । अक्ष्णा काणः। पादेन खञ्जः । अक्षि काणमस्येति । प्रधानत्वात्प्रथमैव । विशेषणे ।।३९३॥ विशेषणे वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । __ शिखया बटुमद्राक्षीत् श्वेतच्छत्रेण भूपतिम् । केशवं शंखचक्राभ्यां विभिनेत्रै: पिनाकिनम् ।। कर्तरि च ॥३९४ ॥ ___ कर्तरि च कारके वर्तमानाल्लिङ्गात्तीया भवति । देवदत्तेन कृतं । यज्ञदत्तेन भुक्तं । छात्रेण हन्यते । सुराभ्यां युध्यते। सुजनैः क्रियते ।। तुल्यार्थे षष्ठी च ३१५ ।। हेतु अर्थ में तृतीया होती है ॥३९१ ॥ यथा-अत्रेन सेवते— अन्न के हेतु सेवा करता है। धनेन कुल-धन के निमित्त से कुल है। विद्यया यश:-विद्या से यश होता है। कुत्सित अंग में वर्तमान लिंग से तृतीया हो जाती है ॥३९२ ॥ यथा---अक्षणा काण:-आँख से काना। पादेन खन:--पैर से लंगड़ा । यहाँ आँख कानी है जिसकी ऐसा बहुवीहि समास होने से काना व्यक्ति प्रधान होने से "काणः' इसमें प्रथमा ही हुई है। विशेषण अर्थ में भी तृतीया होती है ॥३९३ ॥ श्लोकार्थ शिखा से वटु-ब्राह्मण को पहचाना, श्वेतच्छत्र से राजा को, शंख और चक्र से केशव को एवं तीन नेत्रों से महादेव को पहचाना। अत: क्रम से शिखया, श्वेतच्छत्रेण, त्रिनेत्रेण में तृतीया आई । कर्ताकारक में वर्तमान लिंग से तृतीया होती है ॥३९४ ॥ यथा—देवदत्तेन कृतं-देवदत्त ने किया। यज्ञदत्तेन भुक्तं यज्ञदत्त ने खाया। छात्रेण हन्यते -छात्र के द्वारा मारा जाता है। सुराभ्याम् युध्यते-दो देवों द्वारा युद्ध किया जाता है। सुजनैः क्रियते-सज्जनों के द्वारा किया जाता है। तुल्य अर्थ के योग में लिंग से तृतीया और षष्ठी दोनों हो जाती हैं ॥३९५ ॥ १. यहाँ विशेषण का अर्थ है दूसरे से भेद करने वाला।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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