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तिङन्तः
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उतो वृद्धिर्व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके ॥१३२ ।। धातोरुतो वृद्धिर्भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे । वृद्धिग्रहणाधिक्यादभ्यस्तस्य वृद्धिर्न भवतीत्यर्थः ॥ नौति नुत: नुवन्ति । नौषि नुथ: नुथ । नौमि नुव: नुमः । नुयात् नुयातां नुयुः । नौतु नुतात् नुतां नुक्न्तु। अनौत् अनुतां अनुवन् । नूयते । एवं पुञ् स्तुतौ । स्तौति स्तवीति स्तुत: स्तुवन्ति । स्तुते स्तुका सुकले। स्टूडे । मातुन अनारो।
कर्णोतेर्गुणः ॥१३३ ।। ऊणोंतेर्गुणो भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे । प्रोर्णोति । वृद्धिग्रहणाधिक्यात् अभ्यस्तस्य पृथक्करणाद्वा प्रोणोति प्रोणुत: प्रोणुवन्ति । प्रोणोषि प्रो#षि प्रोणुथ: प्रोणुथ । प्रोमि प्रोणोमि प्रोणुव: प्रोणुमः । प्रोणुते प्रोणुवाते प्रोणुवते । प्रोणुयात् प्रोणुयातां प्रोणुयुः । प्रोणुवीत । प्रोणोंतु प्रोणीतु प्रोणुतां प्रोणुवन्तु । प्रोणुतां प्रोणुवातां प्रोणुवतां ।
स्तन्यां च ।।१३४॥ ऊर्गुब् इत्येतस्य हस्तन्यां गुणो भवति व्यञ्जनादौ वचने परे । प्रौर्णोत् प्रौर्युतां प्रौर्गुवन् । प्रोणुत प्रौर्जुवातां प्रौणुवत । प्रोफ़्रयत इत्यादि । विद् ज्ञाने । वेत्ति वित्त: विदन्ति । विद्यात् विद्यातां विद्युः । वेत्तु वित्तात् वितां विदन्तु।
विद आम् कञ् पञ्चम्यां वा ।।१३५ ॥
व्यंजनादि गुणी सार्वधातुक विभक्ति के आने पर धातु के उकार को वृद्धि हो जाती है ॥१३२॥
'सूत्र में वृद्धि शब्द को ग्रहण किया है इसका अर्थ है कि अभ्यस्त को वृद्धि नहीं होती है। नौति, नुतः, नु अन्ति सूत्र ८३ से 'उ को उत् होकर नुवन्ति बना।' सप्तमी में-नुयात् । पंचमी में नौतु, नुतात् । ह्य० में- अनौत् । भावकर्म में नूयते । ऐसे ही 'स्तु' धातु स्तुति अर्थ में है। वृद्धि होकर 'स्तौति' बना। एक बार 'बुव ईड् वचनादिः' ८१वें सूत्र से 'ईद' एवं गुण होकर 'स्तवीति' बना 'स्तुतः' स्तुवन्ति । आत्मनेपद में-स्तुते स्तुवाते स्तुवते है । भावकर्म में-स्तूयते ।
ऊर्गुब् धातु आच्छादन करने अर्थ में है । ऊर्गु ति है।
ऊर्ण धातु को व्यंजनादि गुणी सार्वधातुक में गुण हो जाता है ॥१३३ ।।
यहाँ सूत्र पृथक् बनाने से 'वा' का ग्रहण हो जाता है अत: ऊपर सूत्र में वृद्धि' ग्रहण की अधिकता से या अभ्यस्त को पृथक् करने से विकल्प से वृद्धि भी हो जाती है। प्र उपसर्गपूर्वक प्रोर्णोति, वृद्धि पक्ष में --- प्रोर्णोति, प्रोणुत: प्रोणुवन्ति । आत्मनेपद में—प्रोणुते, प्रोणुवाते। प्रोणुयात् । प्रोणुवीत । प्रोणोतु । प्रोणौतु । प्रोणुतां। ___हस्तनी में व्यंजनादि गुणी विभक्ति के आने पर ऊर्गु को नित्य ही गुण हो जाता है ॥१३४॥
प्रौणोत् । ऊ को ह्यस्तनी में 'स्वरादीनां वृद्धिरादेः' सूत्र ४८ से वृद्धि होकर ओणीत् बना पुन: 'प्र' उपसर्ग से 'प्रौर्णोत्' बना । प्रौणुत, प्रौर्जुवातां प्रौटुंवत् । भावकर्म में-प्रोर्णयते ।
विद् धातु ज्ञान अर्थ में है। गुण होकर द् को प्रथम होकर वेत्ति, वित्त:, विदन्ति विद्यात् । वेत्तु, वित्तात्। पंचमी में विट् से परे विकल्प से आम् होकर 'कृ' धातु का प्रयोग होता है ॥१३५ ॥