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कातन्त्ररूपमाला
उशनस्पुरुदसोऽनेहसां सावनन्तः ॥३९८ ।। उशनस् पुरुदंशस् अनेहस् इत्येतेषामन्तोऽन् भवति सौ परे असम्बुद्धौ । उशना। उशनसौ । उशनसः । ना निर्दिष्टमनित्यम्।
सम्बोधने तूशनसखिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् ।
श्रीव्याघ्रभूतिप्रतितन्त्रमेपन्नायि निर्दिष्टमनित्यमेव ॥१॥ हे उशनः, हे उशनन, हे उशन । हे उशनसौ । हे उशनस: । उशनसं । उशनसौ । उशनसः । उशनसा । उशनोभ्यां । उशनोभिः । इत्यादि । एवं पुरुदंशस् अनेहस् शब्दौ सम्बुद्धि विना । विन्स् शब्दस्य तु भेदः । सौ-सान्तमहतोनोंपधाया इति दीर्घ: । विद्वान् । विद्वांसौ । विद्वांसः । हे विद्वन् । हे विद्वांसौ । हे विद्वांसः । विद्वांसं । विद्वांसौ।
असंबुद्ध 'सि' विभक्ति के आने पर उशनस्, पुरुदंशस् और अनेहस् शब्दों के अंत को 'अन्' हो जाता है ॥३१८ ॥
अत: उशनन् + सि हुआ। पुनः 'घुटि चासंबुद्धौ' इस १७७वें सूत्र से न् की उपधा को दीर्घ होकर “लिंगान्त नकारस्य” सूत्र से 'न्' का लोप होकर 'ठशना' बना । उशनस्+ औउशनसौ, उशनस: ।
नब् समास से निर्दिष्ट होने से यह वैकल्पिक है और
श्लोकार्थ—संबोधन में उशनस् शब्द के तीन रूप बनते हैं, सकारांत, नकारान्त एवं अकारांत। ऐसा श्री व्याघ्र भूति महोदय ने स्वीकार किया है क्योंकि यह नब् समास के द्वारा कहा गया होने से अनित्य ही है।
अत: उशनस् + सि, सि का लोप एवं स् का विसर्ग होकर हे उशन: ! अन् आदेश होकर हे उशनन् ! एवं अकारांत होकर हे उशन ! ऐसे तीन रूप बन गये।
तथाहि उशनस् उशना उशनसौ
उशनसः हे उशन: !हे उशनन् ! हे उशन् । हे उशनसौ ! हे उशनसः ! उशनसम् उशनसौ
उशनसः उशनसा उशनोभ्याम्
उशनोभिः उशनसे उशनोभ्याम्
उशनोभ्यः उशनसः उशनोभ्याम्
उशनोभ्यः उशनसः उशनसोः
उशनसाम् उशनसि उशनसोः
उशनासु उशनस्सु । संबोधन के सिवाय पुरुदंशस् और अनेहस् के रूप इसी प्रकार से चलते हैं।
विद्वन्स् शब्द में कुछ भेद है। विद्वन्स +सि “सान्तमहतोनोंपधायाः" इस २८६वें सूत्र से 'न' की उपधा को दीर्घ होकर “संयोगान्तस्य लोप:" सूत्र २६०वें से स् का लोप होकर एवं व्यञ्जनाच्च सूत्र से सिका लोप होकर 'विद्वान' बना । तत्रैव घट विभक्ति तक न की उपधा को दीर्घ एवं घुरि" इस २५८वें सूत्र से नकार को अनुस्वार होकर विद्वन्स् + औ = विद्वान्सौं बना।
१. अकार: किमर्थः ? सख्युरंतः अभवतीत्यत्र अप्रयोजनम् ॥ २. 'शेपे से वा वापररूपम्' से विकल्प से स हो गया है।