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कातन्त्ररूपमाला
धुड् व्यञ्जनमनन्तःस्थानुनासिकम् ।।७५ ।। * अन्त:स्थानुनासिकवर्जितं व्यञ्जनं धुसंज्ञं भवति । क ख ग घ । च छ ज झ। ट ठ ड ढ । त थ द ध । प फ ब भ । श ष स ह इति ।
भादि महत्वे त्वे॥१४३॥ लिङ्गान्तोऽकार ए भवति बहुत्वे ध्रुटि परे । पुरुषेभ्यः । तथैव अपादानविवक्षायां शेषाः कमेंत्यादिना अपादाने पञ्चपी।
सिरात् ।।१४४॥ अकारान्ताल्लिङ्गात्परो सिराद्भवति । पुरुषात् । द्वित्वबहुत्वयोः पूर्ववत् । दीर्घोच्चारणं किमर्थम् । अकारे लोपे प्राप्ते सति तन्निमित्तम् । पुरुषाभ्यां । पुरुषेभ्यः । तथैव स्वाभ्यादिविवक्षायां शेषा: कर्मेत्यादिना स्वाम्यादौ षष्ठी।
ङस् स्यः ।।१४५ ॥ अकारान्ताल्लिङ्गात्परो उस् स्यो भवति । पुरुषस्य । द्वित्वे, धुटि बहुत्वे त्वे इति वर्तते ।
ओसि च ।।१४६ ॥
बहुवचन में धुट् के आने पर लिंगांत अकार को 'ए' हो जाता है ॥१४३ ॥ पुरुषे + भ्यस्—'स' का विसर्ग होकर पुरुषेभ्यः बना। यहाँ ७५३ सूत्र के नियम से अंतस्थ और अनुनासिक को छोड़कर बाकी व्यंजन को धुद संज्ञा
अपादान अर्थ की विवक्षा में 'शेषाः कर्म' इत्यादि सूत्र से पंचमी विभक्ति आती है। पुरुष + ङसि । ङ और इ का अनुबंध लोप हो जाता है।
सि को आत हो जाता है ॥१४४ ।। लिंगांत अकार से परे ङसि विभक्ति को आत् आदेश हो जाता है । तो पुरुष + आत्- पुरुषात् बन जाता है। यहाँ आत् में दीर्घ 'आ' किसलिए है ? यदि अकार का लोप प्राप्त हो तो उसके लिए दीर्घ आकार है । द्विवचन और बहुवचन पूर्ववत् बनते हैं-पुरुषाभ्याम्, पुरुषेभ्यः ।
स्वामी आदि की विवक्षा के होने पर 'शेषाः' इत्यादि सूत्र से षष्ठी विभक्ति आती है। पुरुष+ ङस्
डस् को 'स्य' होता है ॥१४५ ॥ लिंगांत अकार से परे ङस् को स्य आदेश होकर पुरुषस्य बन जाता है। पुरुष+ ओस् 'धुटिबहुत्वेत्त्वे' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है।
ओस् के आने पर लिंगांत अकार 'ए' हो जाता है ॥१४६ ॥ १. ह्रस्वोऽकार: सुतरामेव, तस्य सवर्ण दौर्षे कृते रूपसिद्धिर्भवति, तथापि दीर्घविधेर्वाधक वचनं अकारे लोपमिति, तद् बाधकं भा भूदिति, दीर्घोच्चारणं कृतमित्यर्थः ।