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________________ कातन्त्ररूपमाला नामिकरेण्यः परः प्रत्ययविकारागमस्थः सि: षमापद्यते नुविसर्जनीयषान्तरोऽपि पुरुषेषु । नीतक:पुरुषः पुरुषौ, पुरुषा: । हे पुरुष, हे पुरुषौ, हे पुरुषाः । पुरुषम्, पुरुषो, पुरुषान् । पुरुषेण, पुरुषाभ्याम्, पुरुषैः । पुरुषाय, पुरुषाभ्याम्, पुरुषेभ्यः । पुरुषात्, पुरुषाभ्याम, पुरुषेभ्यः । पुरुषस्य, पुरुषयो: पुरुषाणाम् । पुरुष, पुरुषयोः, पुरुषेषु ।। एवं धर्म वीर वेद वृक्ष सूर्य सागर स्तम्भ वाण मृग दन्त राघव मास पक्ष शिव शैल गुह्यक वात गण्ड कट कपाट नाग शङ्कर घट पटादयः ।। पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम् ॥१५१॥ पूर्वपरयोरिति कोऽर्थः । प्रकृतिविभक्त्योरित्यर्थः । प्रकृतयः का: । पुरुषादिशब्दा भूप्रभृतयो धातवश्चक सयो भवन्ति । विराय: का. । स्यादिस्थापि लियो; प्रकृतिविभक्त्योरर्थोपलब्धौ सत्यां समुदायस्य ज. पदसंज्ञा भवति । एवं विभक्त्यन्तानां सर्वत्र पदसंज्ञा भवति । सर्वशब्दस्य क्वचिद्विशेषः । सर्वः । सवौं । जसि—सर्वनाम इति वर्तते । पुरुषयोः जः सर्व इः ॥१५२॥ । अकारान्तात्सर्वनाम्नः परो जस सर्व इर्भवति । सर्वे । हे सर्व । हे सवौं । हे सर्वे । सर्व । सौं । सर्वान् । सर्वेण । सर्वाभ्यां । सवैः ।। इयि । यहाँ नामि से परे स् होने पर ए हो गया तो पुरुषेषु बन गया। अन्न पुरुष का पूरा रूप चलाइए-.. पुरुषः पुरुषों पुरुषाः । पुरुषाय पुरुषाभ्याम् परुषेभ्यः हे पुरुष । हे पुरुपौ ! हे पुरुषाः ! | पुरुषात् पुरुषाभ्याम् पुरुषेभ्यः पुरुषम् पुरुषौ पुरुषान् । पुरुषस्य पुरुषयोः पुरुषाणाम् पुरुषेण पुरुषाभ्याम् पुरुषैः । पुरुष पुरुषेषु इसी प्रकार से धर्म, वीर, वेद, वृक्ष, सूर्य, सागर, स्तंभ, वाण, मृग, राघव, मास, पक्ष, शिव, शैल, गुह्मक, त्रास, गण्डक, कट, पाट, नाग, शंकर, घट और पट आदि शब्दों के रूप चलते हैं। पूर्व और पर के मिलने से अर्थ की उपलब्धि होने पर उसे 'पद' संज्ञा होती है ॥१५१ ॥ - पूर्व और पर का क्या अर्थ है ? प्रकृति और विभक्ति को पूर्व और पर कहते हैं। प्रकृति किसे कहते हैं ? वृक्षादि शब्द और भू आदि धातु प्रकृति कहलाते हैं । विभक्ति किसे कहते हैं ? सि आदि विभक्तियाँ और ति, तस् आदि प्रत्यय विभक्ति कहलाते हैं। इन प्रकृति और विभक्ति के मिलने पर जो रूप बनता है उससे अर्थ का बोध होता है । अत: इस समुदाय का नाम 'पद' है जैसे यहाँ 'पुरुष' यह पद है। इस प्रकार से सर्वत्र विभक्ति हैं अन्त में जिनके ऐसे शब्दों को पद संज्ञा होती है। अर्थात् पुरुष शब्द को लिंग संज्ञा थी जब उसमें विभक्तियों लग गई तब उन्हें पद संज्ञा हो गई। सर्वशब्द सर्वनाम संज्ञक है अत: उसमें कुछ विशेषता है। सर्व + सि= सर्व; सर्व + औ = सर्वो। सर्व + जस् है—'जसि सर्वनाम्नः' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। यहाँ सूत्र लगा ज: सर्व इ: अकारांत सर्वनाम से परे जस् को 'इ' हो जाता है ॥१५२ ॥ सर्व + इ-संधि होकर = सर्वे बना । सम्बोधन में—हे सर्व हे सत्रौं, हे सर्वे । द्वितीया. तृतीया में भी अन्तर नहीं है। सर्व+हे हैं। -- . ..१.जस-शब्दस्य प्रथमेकवचनम ।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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