Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 05
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. - The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१७ 09 Madaan-munanasiuana REFE RememRIYArmal श्री जनकथा रत्नकाप नाग पांचमो. - - SATISATIONAL CV । आनागमा . विचित्र नपदेशनो कम्नागे एवोकपरप्रकरनामा ग्रंथ, ___ बालावबांध अने कथा सहित. ---- --- २ । नया संसारना प्रपंचसंबंधी स्वरूपने दर्शावनारो एवो भुवनभानु केवलीनो रास तथा समकेतनां षट्स्थानकनी चोपाइ अने अर्थसहित दृष्टांतशतक ए चार ग्रंथोनो समावेश करीने, श्रावक शा नीमसिंह माणके __ श्रीमुंबापुरीमध्ये निर्णयमागर नामक मुद्रागंत्रमा मदिन क.गव्यो. संत ५०.४., मन । * आ पुस्तकने छापवासंबंधी सर्व प्रकारनो हक छपावनार पोताने स्वाधीन राखेलो छे. m - - Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनुकधारनकोष नाग पांचमो. प्रस्तावना. ॥झानरुचि सम्यकदृष्टि सङनोना उपकारथी जैनकथारत्नकोष नामना पुस्तक संबंधी पंदर नाग मांहेलो था पांचमो नाग उपाइ तैयार थयो. सिंदूरप्रकर, कर्पूरप्रकर, केसरप्रकर, कुंकुमप्रकर,अने हिंगुलप्रकर, ए पां च ग्रंथ सुनाषित उतां एकज आचार्यना रचेला , ते प्रत्येक प्राणीने ध ममां दृढावनारा होवाथी ए मांहेलो सिंदूरप्रकर तो एज पुस्तकना प हेला नागमा पाइ गयो. अने बीजो कपूरप्रकर या पांचमा नागनाया दिमां अर्थ तथा संकेप एकसो सत्तावन कथा सहित बाप्यो ने. तेमां १३१ काव्यपर्यंतनी अवचूरी महा। पासे हती तेना उपरथी अर्थ कयो, उपरांत काव्यमा पर्वणीना दिवसोमां सत्कर्म करवाना वीश द्वार , पण तेनी टीका प्रमुख नथी माटे ते मूलपातेज बाप्या जे. तेमज ए ग्रंथमां ए काद बे काव्य बागल पाउल पाई गयेला , तथा प्रत्यंतरेबे काव्य व धारें दीवामां आव्या, ते सर्व अनुक्रमणिकामां सुधारी लीधा . तथा ग्रं थने बापवानी उतावलथी अगुरूता दीनामां आवशे,ते पंमितजनो सुधारी वांचवा कृपा करशे. यद्यपि पंमितो उपर नार मूकीने अक्षता राखवी ए योग्य कहेवाय नहीं; तथापि अगाउथी रूपैया नरनारा साहेबोनी तरफ थी ताकीद थवानी मने आशंका रहेवाने सीधे,जेम बने तेम तरत नापी ग्रंथ तैयार करवाना हेतुथी, अथवा प्रमादादि दोषथी, तेमज जूदी जूदी प्रतोमां जूदा जूदा पानंतर दोवाथी, तया महारीपासें अवचूरीनी एकज Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. प्रत होवाथी, ए जुलो थयेली जाणवी. परंतु हवेथी जे कोई एवा ग्रंथो ए पुस्तकमां दाखल करीश, तेनी उपर वधारे जद आपीने जेम बनशे तेम वधारे शोधन करवामां तत्पर रहीश. ए ग्रंथ अत्यंत रसिक तेमज एनो बोध सर्वोपयोगी होवाथी सदुथी प्रथम दाखल करेलो . बीजो ग्रंथ,श्रीनुवननानु केवलीनो रास पंमित श्रीनदयरत्नजीमहाराज नो रचेलो . ए ग्रंथ उपमितिनवप्रपंच ग्रंथने अनुसरतो होवाथी मिथ्या व, अविरत्यादिक हेतुयें करी बंधाता, अने जीवने संसारमां नमाडनारा, एवा ज्ञानावरणादिक अाकर्मोमां मुख्य एवं जे.मोहनीय नामा कर्म ने, तेने सर्वोपरि तेरावीने तेने मोहनृपति एवे नामें लखावीने पडी बीजा सात कर्मोने तेना बांधव रूपें स्थापन कस्यां ने. वली ते आठे कर्मोनी जे उत्तर प्ररुतियो जूदे जूदे नामें ,ते सर्वने ते बात कर्मरूप आते जाना परिवार रू. निर्धार करी ते प्रत्येक प्रतियोना उदयथी थता जीवना ना ना प्रकारना अध्यवसायनु यथार्थ वर्णन ए ग्रंथमां बावेलुं . जेम एक मोहनीय नामें राजा तेराव्यो तो तेमना कुटुंबी क्रोधादिकोनो हाबेहूब स्वरूप जाणे सादात् नाटक नजवी बताव्युं होय,ते श्रीनुवननानु केवलीयें पोतें जे प्रमाणे अनुनव्युं . ते प्रमाणे ए ग्रंथमा स्पष्ट देखाडी आप्युं . त्रीजो ग्रंथ, जे स्थानके समकेत तेरी शके, तेवा ब स्थानक , ते उ स्थान कने न माननारा जे मिथ्यावादीयो , तेमना निराकरणपूर्वक षट्स्थानकस्व रूपनी चोपाई श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत अर्थसहित दाखल करी जे.ए ग्रंथ नैयायिक पदनो होवाथी वांचनारने उत्कृष्ट यानंदकर्ता थशे. • चोथो ग्रंथ,दृष्टांतशतक एवे नामें बे. तेमांजूदा जूदा विषयोनो बोध कर नारा एवा सो दृष्टांतो लघु कथासहित यावेला .ते पण घणा रसिक बे. माटे ते ग्रंथना संस्कृत काव्य कर्त्तानी उपर नजर न राखतां प्राकृत अर्थ वाचवाथी मात्र बाल जीवोने रूडो बोध थशे,एवा नावथी बाप्यो . ए प्रमाणे बधा मली पूर्वोक्त चार ग्रंथोनो समावेश करीने ए पांचमो नाग पूर्ण कस्यो बे. तेमां अशुभता वगेरे दोष जे महाराथी रहेला होय, तेनुंसविनय मिथ्यामुष्कतादिक ते सर्व पूर्व नागोमां लखवा प्रमाणे आहीं पण जाणी लेवू. सुज्ञेषु किं बहु विलेखनेन ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रस्य पुस्तकस्यानुक्रमणिका प्रारभ्यते ॥ ॥ तत्र प्रथमं कर्पूरप्रकरग्रंथस्यानुक्रमणिका ॥ क्रमांक. विषय. पृष्ठांक. ३ ५ g १० १२ १४ १७ १ २१ | प्रथमकाव्यमां मंगलाचरण, बीजा काव्यमां ग्रंथमां कहेवाना द्वार. १ १ यार्यदेश द्वारे ईकुमारनी ने परदेशी राजानी कथा. २ कथमपिद्वारे धर लिंड्, तथा कंबल संबलनी कथा...... ३ मनुष्यनव हारें मेघकुमर तथा प्रसन्नचं प्राजर्षिनी कथा. ४. शतकुलहारें कसाइपुत्र सुलस तथा प्रभावती राणीनी कथा. ५ साधुसंगद्वारे तामलीतापस तथा वे पोपटनी कथा. ६ बोधा श्रेणिकराजा, पुण्याढंघराजा खने चिलातीपुत्रनी कथा. ७ सम्यक्त्वद्वारे रोहिणियाचोर तथा सुलसा श्राविकानी कथा. देवद्वारे दरदेवता तथा जीरणशेठनी कथा. गुरुद्वारें श्री गौतमगुरु, जमाली ने वज्रस्वामीनी कथा. १० धर्मद्वारे शय्यंनव तथा शशिराजानी कथा. ११ शक्तिद्वारें प्रतिमुक्तऋषि तथा मदालसा ने बलदेवजीनी कथा. १२ शमछारें गजसुकुमाल, चंड्रू ने विशाखचोरनी कथा. १३ यतिहारे कुंमरिक पुंमरिक तथा उदायिननृपमारक व्यसाधुनीकथा. ३२ १४ श्रावकद्वारे आनंदश्रावक तथा कामदेव श्रावकनी कथा. १५ प्राणातिपातद्वारें वज्रायुध, संगमदेव तथा श्रीनेमीश्वरनी कथा. १६ मृषावादवारें कालिकाचार्य, ब्रह्मा, विष्णु ने वसुराजानी कथा. १७ दत्तादानत्रतद्वारें दृढप्रहारी तथा श्रेणिकना याम्रचोरनी कथा. १० मैथुनव्रतद्वारे जंबुस्वामीनी तथा सुदर्शन शेवनी कथा. १९ परिग्रहव्रतद्वारें नंदराजा तथा मम्मणशेठनी कथा. २० दिखतारें चारुदत्त तथा श्रीकृमनी कथा. २४ .... १७ २ .... . **** .... .... .... २१ जोगोपनोगव्रतद्वारे वंकचूल, ब्रह्मदत्त ने इंश् यहिल्यानी कथा. २२ अनर्थमवतारें चेटकराजा तथा कोलिकनी कथा. २३ सामायिकव्रतधारें चंदावतंसराजा तथा नदायिनराजानी कथा. २४ देशाव का शिकव्रतद्वारे काकजंघकोकास तथा लोहजंघनी कथा. ३४ ३६ ३८ ४ १ ধ ধ ४५ ४८ : ५१. .. य. Ա i. जाय. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ա کیا کیا کا . ६७ ___ .... १ : .: . __अनुक्रमणिका. २५ पौषधव्रतधारें मेघरथराजा तथा सागरचंनी कथा. २६ संविनागव्रतधारें मूलदेव तथा शालिननी कथा..... .... २७ सातदेत्रछारें संप्रतिराजा तथाकलंकिपुत्र दत्तनी कथा. .... श, श्रीजिनबिंबहारें विद्युन्मालीदेव तथा अनयकुमारनी कथा..... एचैत्यघारें अश्वावबोधतीर्थ,बाहुबली अने अष्टापदतीर्थोत्पत्ति कथा. ३० झानपुस्तकछारें श्री आर्य रहितजी तथा सय्यं नवजीनी कथा. ३१ श्रीसंघहारें वजस्वामी तथा यदा साध्वीनी कथा. .... .... ३२ साधुहारें जीवानंदवैद्य तथा बाहुबलिजीनी कथा. ७४ ३३ साध्वीहारेब्राह्मी,पुष्पचूला,मृगावती,कुबेरदत्ता,याकिनीनी कथा. ३४ श्रावकछारें जरतराजा तथा श्रीनबादुजीनी कथा. ३५ श्राविकाहारें मरुदेवाजी तथा सुना.सतीनी कथा. GH ३६ श्रीजिनपूजाहारें श्रेणिकराजा तथा दमयंतीनी कथा. .... ७६ ३७ नयंहारें श्रीरामचंजी तथा ब्रह्मदत्तचक्रीनी कथा.... ३० विनयधारें नमि विनमि,करयद अने विष्णुकुमरनी कथा. नए ३ए सुवैराग्यधारें सनत्कुमार तथा चारे प्रत्येकबुदनी कथा. .... ४० दानधारें श्रेयांसराजा तथा चंदनबालानी कथा. .... ४१ शीलवारें स्थूलिनजी तथा वजस्वामीनी कथा. .... .... १२ तपधारें शिवकुमर तथा नंदीषेण ब्राह्मणनी कथा. .... ४३ नावनाहारें वक्तलमुनि तथा इलापुत्रनी कथा. .... .... ४३ पुण्यविस्मयछारें अजितनाथ, सगरचक्री, अने मन्निनाथनी क था. एबे काव्यमां दानादिक चार प्रकारना धर्मनी पुष्ठि अथवा विस्मय दर्शाव्यो ;पण या ग्रंथमां कहेवाना बासत धारनी संख्यामां ए झार गण्युं नथी जो गपीयें तो त्रेसठ थाय. १०६ १४ विषयघारें सात्यकी विद्याधर तथा ब्रह्मदत्तनी कथा. .... १०७ १५शब्दविषयछारें त्रिप्टष्ठवासुदेवनाशय्यापालक तथा कुलक कुमार कथार ११ ४६ रूपविषयहारें कुमारनंदी सुवर्णकार तथा सुज्येष्टानी कथा..... ११३ ७ रस विषयछारें पृष्ठ १२२ मां "रुपथ्यं” ए काव्यमां मथुरा मंगु अने ढंढणमुनिनी कथा तथा पृष्ट १२४ मां " किं जेयो” 'काव्यमां धर्मरुचि तथा वडवानल अने नीलकंठनी कथा ने. .00 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ए रस विषयनो अधिकार रूप विषयनी पासेज आववो जोश्ये परंतु मूलथी पाबल बपायो . माटे सुधारी वांचवो. १२५ .... १५ HG गंधविषयधारें सुबंधुमंत्री तथा लोढकनी कथा. .... .... ११ Hए स्पर्श विषयधारें चंप्रद्योतन तथा सुकुमालिकानी कथा. .... ११७ ५० सात कुव्यसनहारें पृष्ठ १२१ मां "निःसत्वं” ए काव्यमां कुमा रपाल राजा तथा मथुरामंगु अने ढंढणमुनिनी कथा . तथा पृष्ठ १२५ मां "सप्तापिव्यसनानि” एकाव्यमां श्री गौतम तथा यूलिनश्नी का . ए पण आगल पाउल पाया . १२१-१२५ ५१ द्युत हारें पांचपांडव तथा नलराजानी कथा. ..... .... १२७ ५२ मांसाहार हारें हरि नृप तथा चेवणाराणीनी कथा. .... १२ए ५३ मदिरापानझारें जीवयशा तथा वररुचिनी कथा..... .... १३१ ५४ वेश्याव्यसनहारें कृतपुण्यराजा तथा कुलवालुकंनी कथा. ..... १३४ ५५ पापईि हिंसाहारें शांतनुराजा, खांमववन,जराकुमर, तथा दर्श रथराजाने श्रवणकावडीयाना मावित्रं आपेला शापनी कथा..१३७ ५६ चौरकर्मधारे सगरराजाना पुत्रो तथा मूलदेव अने कंदर्पनी कथा. १५० ५७ परस्त्रीधारें रावण, दीर्घराजा अने चंइमानी कथा..... .... १४३ कपायधारें सुनमचक्रवती अने परशुराम तथा चाणाक्यनी कथा. १४५ ५ए क्रोधछारें कूरगडू, मेतार्य अने करडकुरडनी कथा. ..... .... १४७ ६० मानहारें नंदीषेण, कार्त्तिक स्वामी अने चमरेंनी कथा. .... १५१ ६१ मायाहारें वीरनगवान, कर्णराजा, विष्णुकुमार, आषाढ नति, · मन्निनाथ, महेश अने विष्णुनी मली सात कथा .... १५३ ६५ लोनहारें नरतचक्री तथा कपिलब्राह्मणनी कथा. .... .... १५७ ७५ पर्युषणादि सुकतनां दिवसोने विषे सत्कर्मो करवानां वीश हा र संबंधि काव्य तथा अवचूरीकार कृत काव्य. एमां प्रथमना केटलाएक काव्य अवचूरीकारें आगल पाउल लखेला . .... १६१ १ प्रस्ताविक दोहा लखीने ग्रंथ समाप्त करो . .... .... १६' ग्रंथ कर्तायें प्रत्येक धारमा वेवे काव्य बांध्या जे.परंतु सातव्यसन । एबे काव्य वधु होवाथी प्रदेप जणाय . ते याही अर्थसहित लख्या ॥ द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापईिचौर्ये परदारसेवा ॥ ए Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. सप्त व्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं व्रजन्ति ॥ पागंतरे ॥ पापा धिके पुंसि सदा नवंति ॥ १०५ ॥ इति व्यसननामानि ॥ द्यूताज्यवि नाशनं नलनृपः प्राप्तोऽथवा पांमवा,, मद्यात् कमनृपश्च राघव पिता पापईि तो दूपितः ॥ मांसानेणिकनूपतिश्च नरके चौर्याहिनष्टा न के, वेश्यातः कृत पुण्यको गतधनोऽन्यस्त्रीरतो रावणः॥ १०६ ॥ इतिव्यसनफलम्॥ अर्थःजुवटुं रमवू, मांसनदण करवू, मदिरापान, वेश्यासेवन, पापदि एटले हिंसा करवी, चोरी करवी, पारकी स्त्री सेववी ए सात फुर्व्यसन जे , ते लोकने विपे घोरातिघोर रूपी एवं जे नरक तेने विपे लजाय ॥ १०५ ॥ तेमां जूवटाथी नलराजा अने पांमवो पण राज्यन्रष्ट थया, मदिराथी कमराजा नीहारिकानो दाह थयो, हिंसाथी दशरथ राजाने श्रवणकावडीयाना मा वित्रोयें पुत्र वियोगनो शाप दीधो, ए दपंप पाम्यो, मांसथी श्रेप्पिकराजा अने बीजा नरकने विषे गया, चोरीथी घणा जीव नाश पाम्या, वेश्याथी कृतपुण्य राजा कुःखी थयो,अने पारकी स्त्रीने विषेप्रीति राखवाथी राज्यरूपी धन गमावनारा एवा रावणनो नाश थयो. माटे व्यसनोने सेववां नहीं. बीजो ग्रंथ, श्रीनुवननानु केवलीनो रास दृष्ट १६ए थी प्रारंन थयो जे. एमां श्रीनुवननानुजीने व्यवहारराशिमां श्राव्या पडी पहेलवहेलुं जे वखत अनार्य मनुष्यमां उपजq थयुं बे,ते वखत रसगृहिमां लुब्ध थवाथी नरका दिकनां कुःख अनंतिवार पाम्यां बतां 'चमां अनंतिवार को वखत काणो, कोई वखत क्लीब, कुरूपो आदिक वि६ि,खें करी अनंता पुजलपरावर्त अनार्य मनुष्यपणे कस्या ने तेमां देव,गुरु तथा धर्मनुं नाम पण जाण्युं नथी: __एम मोहराजाना एकेका किंकरथी अनंतअनंतिवार मनुष्यादिक पणुं पा मीने अशातावेदी तेतो रही परंतु समकेत पाम्या पली वमीने वलीपण मोहें मुंझायाथी जे सुःख पाम्या ,ते सांजलतां नकजीवोनारंवाटां उनां थाय. त्रीजो ग्रंथ, समकेतना षट् स्थानकना स्तवननी अनुक्रमणिका. प्रथम जीव ने तेनुं स्वरूप नास्तिकवादीना खंमन पूर्वक. ..... २७५ बीजु आत्मानित्य ले तेनुं स्वरूप बौधमतना खंमन पूर्वक. .... २७६ त्रीजुं आत्मा कर्ता अने चोथु आत्मा नोक्ता ए वे स्थानकनुं 'रूप वेदांती अने सांख्यमतियोना खंमनपूर्वक कर्तुं . .... २५५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ง ५ पांच मोक्षस्थानकनुं स्वरूप वैशेषिक दर्शननां खंमन पूर्वक. ३०४ ६ बहु मोक्षोपाय स्वरूप अनिवार्य बने धनुपाय वादीना खंमन० ३०० ७ स्थानको दृष्टांत पूर्वक निश्चय करवा माटे चर्चा. ३१५ .... चोथो ग्रंथ दृष्टांत शतक ने तेनी अनुक्रमणिका ष्टष्ठ ३२१ श्री मांगीने सो काव्य मांहेला प्रत्येक काव्यमां एकेकुं दृष्टांत बे ते अनुक्रमांके जाएवा. मंगला चरणादिनो प्रतिपादननुं | २२ मूर्खसाधें पंमितें वाद न करवो. १ संसारसुखने मधुबिंदुनो दृष्टांत. २३ स्त्रीयें पोताना धणीनी बागल २ हाथीने जोनारा पांच प्रांधला० पोतानुं चलण न करं. ३ जेवुं करे तेवा फल पामे दीप० २४ जाग्यहीन ज्यां त्यां दुःख पामे. ४ पोते पोताना वखाण करवानुं. २५ नाग्यविना उद्यम व्यर्थ थाय. ५ नीचना संग उपर कागडानुं० २६ समजण विना न बोलवु . ६ जे जेवुं करे ते तेवुं फल पामे. २७ संपत्तिमां परोपकार करवो. ७ तत्काल बुद्धि उपजवाथी गइवस्तु २० कपटी पागल कपटी यं. ८ शीघ्रोत्तर व्यापवानो दृष्टांत. १७ का जन्मांतरें पण यापवुं पडेले. ९ नाग्यहीन ने पासे प्रावेलीचीज० ३० कुनटा स्त्रीने उपकार कस्यो व्यर्थ. १० स्वामिति काम करवानुं० ३१ नाग्यमां लख्युं होय तेज मले. ११ मूर्ख उपर परने पणरोप चढे. ३२ पाप कस्यानो पश्चात्ताप करवो. १२ मूर्खनुं मूर्खपणुं न मटे तेनो. ३३ कोइने वचन विचारी यापवुं. १३ मूर्खशिष्य न करवा उपर दृष्टांत ३४उंचनी समानताकरेते दुःखी थाय. १४ दयालु शत्रु सारो. परंतु निर्दय ३५ महोटानी बाया पण सारी. ३६ सहिद्यार्थी सहु चमत्कारपामे. ३७ जारस्त्रीथी कपट पण करवुं. ३० शिष्यने परखी पाट यापवो. ३९ गुणहीन स्त्री घरनी हलका करे. ४० नइक जीव न‍ पशुं पामे. ४१ कोइ पदार्थ दीताथी वैराग्यथाय. ४२ एकला रहेवाथीज सुख बे. ४३देखादेखी थी जे होय तेपण जाय. मित्र पण न सारो. १५ कार्य न यानी पहेलां लडवानुं. १६ कौतुकार्थी पासें विद्या निःफल १७ जालमां लखेनुं मिय्या न थाय १८ पूतां वार उत्तर खापवानुं. १० जाने स्थानक न देखाडवुं. २० बजयी जोला लोक ठगाय तेनुं० २१ प्रदाता पासें याचवुं निःफल. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ४४धर्मियेंखोटीचीजसामीनकरवी. ७३ मांसाहारीने उपदेशनो दृष्टांत. ४५ बांकी गधेडीनी हरियाली ७४ अनव्यने उपदेश देवो व्यर्थ. ४६ बुद्धिथी ससले सिंहने मास्यो. . ७५ जे धर्म न करे ते फुःख पामे. ४७ कविनी चतुराश्नो दृष्टांत. '७६ मूर्ख वैद्यनो दृष्टांत. ४७ असंतोषीनो दृष्टांत. ७७ वक्र अने जड शिष्यनो दृष्टांत. ४ए नाववंदननो दृष्टांत. ७७ मूर्ख पुत्रनो दृष्टांत. ५० लोकने फोक गमे तेम बोले. ए पुण्यनुं फल अवश्य थाय. ५१ मृपा बोलनार नरकें जाय. ७० जे कार्य न थतुं होय ते न करवू. ५२ पंमितना कुर्तक्षण पण ढंकाय. १ नव्य जीवने उपदेश लागे. ५३ स्त्री वश पड्यो ' गुं न करे. ७२ जेवा मनना परिणाम तेवां फल. ५४ जेतुं वचन गयुं ते मवा जेवो. ७.३ मुर्ख पोताना अवगुण न देखे. ५५ नीतिथी देवता राजी थाय. निरसासाथें निरसो थर्बु तेनोन ५६ स्त्रीचरित्र केवां होय तेनो दृष्टांत. ७५ चार वस्तु के अने नथी तेनोन ५७ जेवी संगत तेवा गुण होय. ६ कटुक पण परिणामे हितकारक. ५७ जगवाथी फायदानो दृष्टांत. स्त्री चरित्र जोवाथी वैराग्यता. एए कुबुदिया मत्स्यनो दृष्टांत. थोडंपण धर्माचरण करवू. ६० धर्ममा मन स्थिर राखवानो ह ए हंस,काक अने बग जेवा साधुनो. ६१ कुलटा सासुना लदाणनो १० ए० धर्ममां बालस न करवानो. ६२ नियम लेवाथी लान थाय. १ कोश्पण नियम अवश्य लेवो. ६३ क्रोध न करवानो दृष्टांत. ए जो बकायनी हिंसा न मूकाय ६४ धनवानने मान मले तेनो १० तो एक त्रसकायनी पण मूकवी. ६५ जेतुं नाम तेवो गुण न होय.. ए३ शुनमा सहु सहाय करे तेनो० ६६ गुणग्रहण करवानो दृष्टांत. ए४ प्रश्न पण अवसर जो पूडवो. ६७ समकेतनी दृढतानो दृष्टांत. | एए धननो गर्व न करवो तेनो ६७ परजीवने बचाववानो दृष्टांत. ए६ सर्व शास्त्रनो सारपरोपकार. ६ए जीवदया उपर दृष्टांत. ए सामायिकमां समनावनो. ७० हिंसा मूकाववानो दृष्टांत. विद्या नावानी नपर. ७१ ज्यां संप त्यां लक्ष्मी रहेवानो एए सर्व दानमां अनयदान महोटुं. ७२ उष्टनुं नाम लीधे विघ्न थाय. । १०० जे काम करवू ते विचारीने. 'ir urur Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ॥ बालावबोधसहित कर्पूरप्रकर प्रारंनः॥ -~-~~- ~ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ कर्पूरप्रकरः शमामृतरसे वक्रेऽचंज्ञतपः,शुक्लध्यानतरुप्रसूननि चयः पुण्याब्धिफेनोदयः॥मुक्तिश्रीकरपीडनेसिचयोवाकामधे नोः पयो,व्याख्यालदयजिनेशपेशलरदज्योतिश्चयः पातु वः॥ अर्थः- (व्याख्यालय के०.) व्याख्याननी वेलानेविषे देखातो एवो (जिनेशपेशलरदज्योतिश्चयः के) श्रीजिनप्रनुना मनोहर एवा जे दांत • तेनी ज्योति जे कांति अर्थात् जिनदशनाति तेनो चय जे समूह ते (वः के०) तमोने (पातु के०) रक्षण करो. ते केवो ने जिनदशन द्युतिसमूह ? तो के (शमामृतरसे के०) शांतिरूप जे अमृतजल तेनेविपे (कर्पूरप्रकरः के०) कर्पूरसमूहयुक्त एवो तथा वली (वक्रेऽचंशतपः के०) मुखरूप जे चश्मा तेनी ज्योत्स्नारूप एवो, तथा वली (शुक्तध्यानतरुप्रसू ननिचयः के०) शुक्तध्यानरूप जे वृद तेना पुष्पनो डे समूह जेमां एवो अने ( पुण्याब्धिफेनोदयः के०) पुण्य समुश्ना फीनो के उदय जेनेविषे एवो तथा (मुक्तिश्रीकरपीडनेऽवसिचयः के०) मुक्तिरूप जे श्री तेनीसाथें विवाहनेविषे स्व वस्त्ररूप एवो अने (वाक्कामधेनोः के०) वाणीरूप काम धेनुना (पयः के०) मुग्ध जेवो एवो जिनेशदंतज्योतिःसमूह , तेतमारी र दा करो. ए आशीर्वादकाव्य कह्यु. प्रा शार्दूलविक्रीडित काव्य में तेम सर्व हवे पनीनां काव्य ते शार्दूलविक्रीडित वगेरे बंदोमां जाणवां ॥ १ ॥ हवे आ ग्रंथनेविषे कहेवानां हारनां नामो एक काव्यथी कहे जे. नव्यालब्ध्वार्यदेशं कथमपि नृनवं सत्कुलं साधुसंगं, बोधं देवादिशक्तीः कुरुत शमयतिश्रावकत्वव्रतानि ॥ सप्तदे त्री जिनार्चा नयविनय सुवैराग्य दानादिपुष्टिं, शब्दद्यूतक्रु धादेर्जयमपि सुकृतादेषु सत्कर्म मुत्त्यै ॥२॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. __ अर्थः- ( नव्याः के० ) हे नव्यजीवो (कथमपि के०) कोइएक पुण्यना उदयें करी आर्यदेशं के०) आर्यदेशने तथा ( सत्कुलं के० ) सारा कुलने तथा (नृनवं के० ) मनुष्य जन्मने तथा ( साधुसंगं के० ) साधुपुरुषना संगने (लब्ध्वा के) पामीने (मुक्त्यै के०) मुक्तिने माटे हवे कहेयुं एवां कार्य करो, ते कार्य केवां? त्यां कहे जे. के ( बोधं के० ) सम्यक्त्वने ( देवादि के०) देव, गुरु, धर्म, तेने विपे ( शक्तीः के) शक्तिने ( कुरुत के ) करो. थाहिं कुरुत ए क्रियापदनुं सर्वत्र योजन करवू. तथा वली ( शमयतिश्रावकत्वव्रतानि के०) शम, यति, श्रावकपणुं अने श्रावकना व्र तोनुं आराधन करो. तथा ( सप्तदेवी के०) सातदेत्र, सप्तदेवी पदनुं ग्र हण डे माटे सात देत्रनु एक हार तथा एक श्रीसंघy अने सात देवनां जुदां नाम लेने सात हार. एवं नव हार ग्रहण करवां (जिना_नयवि नयसुवैराग्यदानादिपुष्टिं के०) जिनअर्चन, नय, विनय, सुवैराग्य, एवं, चार हार तथा वली दान, शील, तपोनावनानी पुष्टिने करो, एम समजवु. ए पांच बार जाणवां. तथा (शब्द के० ) शब्दादिक पंचविषयनां पांच हार जाणवां तथा ( द्यूत के०) जुगार विगेरे सात व्यसनरूप सात चार अने आठमुं साते व्यसननुं एक, एम आठ हार जाणवां तथा (क्रुधादेः के० ) क्रोधादिक चार कपायनां चार चार अने पांचमुं समुच्चय कषायनुं एक धार. एवं पांच हार जाणवां. ए सर्वनो (जयमपि के० ) जय जे तेने पण करो. तथा (सुकताहेषु के ) सुकृत दिवसोने विषे (सत्कर्म के०) सारां कार्यने करो. एटले सुकृताहेषु एवं पद कह्यु डे तेनां वीश हार ग्रहण कर वां. या श्लोकमां कहेलां कार्य, हे नव्यजीवो ! तमे करो॥ आ काव्यमां लखेला सर्व मली केटलां चार थयां ते कहे . १ आर्यदेश, ५ मनुष्यनव,३ सत्कुल, ४ साधुजननो संग, ५ सम्यक्त्व, ६ देव, ७ गुरु, धर्म,ए कथमपि, १0 वोध,११ शक्ति, १५ शम,१३ यति, १४श्रावकत्व, २६ वारव्रत,५७ सातदेत्र, २७ जिनबिंब, २ए जिननुवन, ३० आगमपुस्तक, ३१ संघ, ३२ तपोधन, ३३ तपोधना, ३४ श्रावक, ३५ श्राविका, ३६ जिनार्चा, ३७ नय, ३७ विनय, ३५ सुवैराग्य, ४० दान, ४१ शील, ४२ तप, ४३ जावना, ४४ ए चार धर्मनी पुष्टि, ४५ श ब्द, ४६ रूप, ४७ रस, गंध, ए स्पर्श, ५० सात उर्व्यसन, ५१ यूत, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सदित. ५२ मांस,५३ सुरापान, ५३ वेश्या, ५५ पापर्षि, ५६ चोरी, ५७ परस्त्रीग मन, ५७ कपाय, एए क्रोध, ६० मान, ६१ माया,६२ लोन तथा सुस्त दिवसने विषे सत्कर्मनां वीश झार. एम सर्व मली व्यासी हार थयां ॥२॥ ____ हवे उपर लखेलां धारमा प्रथम सत्कुल हार कहे ले. कोऽपि स्याल्लघुकर्मकः सुकृतधीदेशेऽप्यनार्ये स्वत, स्तस्या प्याईकुमारवजुणचयः किंत्वार्यदेशाश्रयात् ॥ दाराब्धौ शशिनोऽथ कौस्तुनमणेः सा श्रीः कुतोयाऽनवत् , गं गाशालिनि शंनुमूर्ध्नि कमलागारे हरेश्योरसि ॥ ३ ॥ अर्थः-(कोपि के) कोइ पण (बधुकर्मकः के० ) लघु कर्मवालो जी व, (अनार्ये के० ) अनार्य एवा (देशेपि के ) देशनेविपेपण उत्पन्न थ यो बतो (स्वतः के०) पोतानी मेले (सुकतधीः के०) धर्मबुद्धि वालो जी व, ( स्यात् के० ) होय, (किंतु के ) तों पण ( तस्यापि के०) ते पुरुप ने पण (आर्यदेशाश्रयात् के०) आर्यदेशना आश्रयथकी (आईकुमारव त् के०) आईकुमारनी पेठे (गुणचयः के०) गुणनो संचय थाय , या ही दृष्टांत कहे . ते केनी पेठे ? तो के ( शशिनः के०) चंइमानी (गंगा शालिनि के०) गंगाथी शोजता एवा (शंखमूर्ति के ) शंनु एटले महादेव तेना मस्तकने विपे (अथ के० ) वली (कौस्तुनमणेः के०) कौस्तुनमणि नी (हरेः के वासुदेवना ( कमलागारे के०) लक्ष्मीने रहेवाना स्थान करूप एवा (नरसि के०) हृदयनेविपे (या के०) जे (श्रीः के०) शोना (अ नवंत के०) होती हवी, (सा के०) ते शोना (च के० ) वली (चाराब्धौ के०) कारसमुश्नेविपे (कुतः के०) क्याथीज होय ? अर्थात् होयज नही. एटले ते बेदु वस्तुनुं उत्पत्तिस्थानक तो दार समुज डे परंतु शिव अने विष्णुना आश्रयथी ते वेदु नुत्तम गुणसंचयने पाम्यां ॥ हवे अहीं आईकुमारनी कथा कहे ते. पूर्वनवने विपे आईकुमारे दीदा ग्रहण करया पनी कुलनो मद कस्यो. जे ढुं ब्राह्मण ढुं, ते शूना घरने विपे निदा ग्रहण केम करूं! ते वखत अनयकुमारने जीवें वास्यो तो पण म दनो त्याग न कस्यो. तेथी आगामि नवनेविषे नीच कुलमा अवतार थयो आदनराजाना घरनेविपे ते आईकुमार उत्पन्न थमहोटो थयो,त्यारे त्यां Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. श्रावेला वणिकना पुत्रोयें अनयकुमारनुं वर्णन ते आईकुमार पासें कयुं. पू वनवना स्नेहें करी आईकुमारने ते अनयकुमारनुं वृत्तांत सांनसतांज स्ने ह वृद्धिंगत थयो. पड़ी ते वणिक.पुत्रोनी साथें अजयकुमारने नेट मो कली अने अनयकुमारे वीरनगवानना कहेवाथकी पूर्वनव व्यतिकर आईकुमारनो जाण्यो. तेवारें अजयकुमारे पट्टकुलें करी आबादित करी श्रीजिन प्रतिमानुं प्रेषण कराव्यु. ते प्रतिमाना दर्शने करीनेज पूर्वनवर्नु स्म रण आव्युं अने वैराग उत्पन्न थयो. तेवारें महोटा कष्टें करीने अनार्यदेश थकी आर्यदेशमां भावीने दीक्षा ग्रहण करी. वली नोग्यकर्म बाकी रहेला होवाथी गृहस्थाश्रम स्वीकार कस्यो. तिहां चोवीश वर्ष रही पड़ी दीक्षा ग्रहण करी मोद पाम्या ॥ गाहा ॥ अप्पा विमोच ना,वबंधणा दव बंध णा उय ॥ ल ज परतिबिसु, सो अहरिसी सिवं पत्तो ॥ ३ ॥ हवे बीजं आर्यदेशोत्पन्न हार कहे . आर्य देशमवाप्य धर्मरहितोऽप्यन्यस्य धर्मक्रियां, ध मस्थानमहांश्च वीक्ष्य सुगुरोः श्रुत्वा च धर्म क्वचित् ॥ बोधं याति कुलोचनास्तिकमतो नूपः प्रदेशीयथा, स त्यं चंदनसंगिनः दितिरुहो नान्येऽपि किं चंदनाः॥४॥ अर्थः-(धर्मरहितोपि के०) धर्मरहित एवो पण जीव, (आर्यदेशं के०) उत्तम एवा आर्यदेशने (अवाप्य के०) पामीने (अन्यस्य के०) बीजा श्र चालु धर्मिजनोनी (धर्मकियां के०) धर्मक्रियाने तथा ते जनोना (धर्मस्थान के०) धर्मस्थानोने विषे (महान् के०) महोटानत्सवोने (वीक्ष्य के०) जो ने (च के) वली (सुगुरोः के) सुगुरुना मुखथकी (कचित् के०) कोश्क वखत (धर्म के०) धर्मने (श्रुत्वा के) सांजलीने (बोधं के०) बोधने (याति के) पामे जे. (यथा के०) जेम (प्रदेशीनूपः के०) परदेशी राजा बोधने पा म्यो, ते केवो ? तोके (कुलोबनास्तिकमतः के०) कुलागत नास्तिकमत जेनुं एवो . ( सत्यं के०) ते साचं . केम के (चंदनसंगिनः के०) चंद न वृदना संगवाला एवा (अन्येपि के०) बीजा पण (दितिरुहः के०) वृदो (किं न चंदनाः के०) झुं चंदन नथी थातां? अर्थात् थायज .ए टले सारा जनना संगथकी मोक्ष प्राप्ति थाय बे ॥४॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर अर्थ तथा कथा सहित. बांही परदेशी राजानी कथा कहे . श्वेतांबिका नगरीनेविषे नास्तिक मतस्थापक प्रदेशीराजा राज्य करतो हतो. एक दिवस ते नगरीना उद्या नमा श्रीपार्श्वनाथना शिष्य केशीगणधर आव्या, त्यां प्रदेशीराजायें आवी प्रश्न पूज्यो के महाराज ! एकदिवस चोरें चोरी करी, तेने में निशिवमंजू षामां पूस्खो. पड़ी ते मरण पाम्यो त्यारे तेनो जीव क्याथी निसरी गयो ? एटले आत्मा तो बेज नही, एम ते दिवसथी हुँ मानुं बुं. ते वात सांजली गुरुयें जबाप प्राप्यो के बिइ विनानी पेटीमा बेशीने कोश्क पुरुष शंख व गाडे दे तो ते शंखनाद बाहेर रहेला जनो सानले ले के केम ? राजा बोल्यो के सांजले . त्यारें गुरु कहे के मंजूषामां बिइ तो पड्यां नही ने शब्द क्यां थी संजलायो? तेनो उत्तर कांपण राजायें दीधो नहीं. त्यारें गुरु कहे ले के हे राजन! एम चोरनो जीव. पंग मंजूषामांथी नीकली गयो माटे या .त्मा ने एम निचे जाणवू. या दृष्टांतें करी प्रदेशी राजा निःसंशय थयो अने नास्तिकमतनो त्याग करी अर्हतमतने स्वीकारी स्वर्गमा गयो ॥४॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिणी:दितिमरुत्तेजोप्स्वसंख्या वने,ऽनंता. स्ता विकले गणेयशरदो जात्या विपल्या नयेत् ॥ स प्ताष्टौ तु नवांस्तिरश्चि मनुजे जीवोंऽतरेत्राऽस्य चे, धर्मस्तधरणेऽवत्स सुगतिं प्राप्नोति तिर्यपि ॥५॥ अर्थः- (जीवः के०) जीव, संसारनेविषे नमतो बतो (वितिमरुने जोप्सु के० ) पृथ्वी, तेज, तथा वायु अने जलने विषे (असंख्याः के०) असंख्याति ( उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः के०) उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी कालपर्यत जन्ममरणने (नयेत् के) पामे पड़ी ( वने के० ) प्रत्येक व नस्पतिअनंतकायनेविषे (ताः के०) ते (अनंताः के०) अनंतो कालपर्यंत रहे. ते पडी (विकले के०) बेंडी तेंही अने चरिंडीरूप विकलेंडियने विषे ( गणेयशरदः के० ) संख्यातावर्ष (जात्या के०) जन्में करीने अने (विपत्त्या के०) मरणेकरीने रहे अने (तिरश्चि मनुजे के ) तिर्यच अने मनुष्यने विषे (सप्ताष्टौ के०) सात आठ (जवान के०) नवने काढे. अ र्थात् सात बाउ नवपर्यंत रहे (तु के) वली (पत्रांतरे के०) आ ए पूर्वोक्त न वांतनेरोविषे(अस्य के०) आ जीवने जो (धर्मश्चेत् के०) धर्मप्राप्त थाय, (त Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. त् के) तो(तिर्यपि के) तिर्यंच पण (धरणेंश्वत् के०)धरणेंनी पेठे (सुगतिके०) रूडीगतिने (स के ) ते (प्राप्नोति के० ) पामे जे. जेम सर्प नो जीव हतो ते धर्मनी प्राप्तियें करीने धरणें थयो हतो ॥ ५ ॥ ते धरणेंनी कथा कहे . वाराणसी नगरीनेविषे कमनामनो तप स्वी पंचाग्निरूप तपने तपे जे. एक दिवसनेविषे गवादमां बेठेला श्री पार्श्व नाथ नगवाने ते तापसनी पूजा करवा माटे पुरना जनोने गाम बहार जतां दीवां, तेमणे अवधिज्ञाने करीने ते तपस्वीनी धूणीना काष्ठमां बल तो एवो जंग जोयो. पनी त्यां जश्ने बलता काष्ठथी सर्पने बहार खेंची लीधो के तुरत ते सर्प पार्श्वनाथस्वामीने नमस्कार कस्यो ते सर्प नवकार ना प्रनावथी धरणेऽथयो. पनी पार्श्वनाथ नगवान तपस्वीन कहेवालाग्या जे हे मूर्ख ! तुंबा अज्ञान तप करे ? देवाधर्मने जाणतो नथी ? इत्यादि वाक्योयें करीने ते तपस्वीने जनना समूहनी समकमां फिटकार बाप्यो.पढी. एकदा पार्श्वनाथ स्वामी, दीक्षा लीधा नंतर कायोत्सनै रह्या हता, त्यारे तेमनीनपर ते तापसनो जीव मरीने मेघमाली देवता थयो , तेणे मुशल धारायें करी वरसादनो उपसर्ग कस्यो तेने सहन करता एवा अने धरणे इना फणामंमलनी नीचे रह्या एवा नगवान् श्रीपार्श्वनाथने केवलझान त्पन्न थयुं. त्यारे धरणेंना जयथी बीतो थको मेघमाली देवता जगवानने पगे लागीने मिथ्या दुष्कृत देतो हवो. पढ़ी ते धरणें स्वस्थानकें गयो ॥५॥ कालप्राणिनवाअनादिनिधनास्तत्सर्वजातौ सदा, जी वेन भ्रमता मुहूर्तमपि हि प्राप्तं न किंचितिम् ॥ .. मुक्ताशुक्तिकयेव वारि मणिकृक्षार्थी क्वचिदैवत,स्तत्प्रा प्याथ सकंबलेन शबलेनोदणेव धार्य श्रिये ॥६॥ अर्थः- ( कालप्राणिनवाः के ) कालधर्म युक्त प्राणीने जन्मो जे जे, ते (अनादिनिधनाः के) अनादि अनंत वर्ते ने तेमां (सर्वजातौ के०) सर्वजातिनेविषे (सदा के०) निरंतर (चमता के०) नमता एवा (जी वेन के०) जीव जे तेणे (मुहूर्तमपि के०) मुहूर्त्तमात्र पण (किंचित् के०) कांड पण (तत् के०)ते (हितं के०) पुण्यरूप हित (न प्राप्तं के) नहिं प्राप्त कयुं (अथ क्वचिदैवतः के०) ते क्यारेक दैवयोगें करी (तत्प्राप्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. के) ते हितकारी पुण्यने पामीने (श्रिये के०) मोदलक्ष्मीमाटे ते (धार्य के०) धारण कर, परंतु ते पुण्यने मूकवू नही. ते जेम के (वार्टी के०) समु इने विषे (मणिकत् वारि श्व के०) मोतीनुं करनार पाणी जेम (मुक्ता शुक्तिकया के०) मोतीनी बीपें धारण कराय ले. तिहां दृष्टांत कहे जे के जेम (सकंबलेन के) कंबलनामा वृषनें युक्त एवा (शंबलेननदणा श्व के०) शंबलनामा वृषनें जेम पुण्यने मोद लक्ष्मी माटेधारण कयुं ॥६॥ हवे ते कंबल अने शंबल वृषननी कथा कहे जे ॥ यथा ॥ मदुराए जिणदासो, आनीर विवाहंगो उववासो॥ नंमार मित्तवच्चे, जत्नेनागोहि बागमणं ॥ १ ॥ वीरवरस्त नगवन, नावारूढस्स कासि नवसग्गं ॥ मिल हिहि पई, कंबल संबल समुत्तारे ॥३॥ मथुरानगरीने विषे कोइ जिनदा स नामे शेठ वसे में तेने अत्यंत स्नेहथकी आनीरनीकें पोताना विवा . हानंतर कंबल अने शंबलनामा अत्यंत सुशोनित वे सृषन नेट कीधा. ते बेदु वृषनो प्राशुक आहार तथा जलें करी व्रत पालता एवा शेठनी धर्मासक्ति जोश्ने जातिस्मरण शान पाम्या तेथी पोताना पूर्वजन्मनी स्मृ ति उत्पन्न थइ. तेवारें श्रावकनी पेठे अष्टम्यादिक पुण्य तिथियोना दिवस नेविषे उपवास करवा लाग्या. एक दिवसें ते शेठना कोइक मित्रे नंमीर मित्रनामना यदनी यात्रा करवामां ते बेदु बेलने खेड्या तेथी रुधिरयुक्त थया थका मरण पामी नागकुमार देवो थया. एकदा नावमा बेसीने गं गा उतरता एवा श्रीवीरस्वामीने उपसर्ग करता एवा मिथ्यादृष्टि देवने ते बेदु देवोयें उपसर्ग करतो निवास्यो ॥ ६ ॥ देत्रे नामलवालके च लवणाकीर्णे च रोद्यथा, बीजं किंचिदिदाखिले च फलति दात्रे च नानाफ लैः॥ देवे नैरयिक तिरश्चि मनुजे श्रेयःप्रसूतिस्तथा, तस्मान्मेषकुमारवन्नरनवेऽनंतश्रिये त्वर्यताम् ॥ ७॥ अर्थः-(इह के०) बालोकने विषे ( यथा के०) जेम (बीजं के) बीज, (अमलवालुके के०) निर्मल जेमां रेती उ एवा ( देने के०) देत्र मां फले नही ( च के ) तथा (लवणाकीर्णे के०) लवणाकीर्ण देत्र नेविषे पण (न रोहेत् के०) उगे नहीं कदाच नगे तो फले नहीं (च के०) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वली (अखिले के०)सर्वजातिना क्षेत्रने विषे जो नगे ले तो ( किंचित्फलति के०) कांइक फले जे. (च के०) वली (दात्रे के०) खातरवाला एवा खे त्रने विषे (नानाफलैः के०) विविधप्रकारनां फलोयें करी फले . (तथा के०) तेवी रीतें (श्रेयःप्रसूतिः के०) बोधबीज जे समकेत तेनी उत्पत्ति (देवे नैरयिके तिरश्चि मनुजे के०) देव,निरय,तिर्यंच अने मनुष्योनेविषे पूर्वना देवना दृष्टांतोथी अनुक्रमें जाणवी. आहिं श्रेयःप्रसूतिरूप बोध बीज जाणवू. अमल वालुका देत्रसमान देवनव जाणवो. अने लवणाकीसमान नरकन व जाणवो. अखिल क्षेत्रसमान तिर्यचनो नव जाणवो अने खात्रना क्षेत्र समान नरनव जाणवो. (तस्मात् के०) ते माटे हे लोको ! (नरनवे के०) मनुष्यनव प्राप्त थये बते (मेघकुसारवत् के०) मेघकुमारनी पेठे (अनंत श्रिये के०) मोद लक्ष्मीनेमाटे (वयंता के० ) उतावलथी उत्सुक था अर्थात् मनुष्य नव जे जे ते सर्व देवादिकना नवथी उत्तम डे माटे तेमां मोद पामवानो प्रयास करो. ए उपदेश कह्यो ने ॥ ७ ॥ बांही मेघकुमारनी कथा कहे . राजगृही नगरीने विषे श्रेणिकराजा पिता अने धारणी माताथी मेघकुमारनामा पुत्र उत्पन्न थयो हतो, ते मे घकुमारे आठ कन्यानुं पाणिग्रहण कयुं तेनी झदि श्रीज्ञातांगजीमां स विस्तर कहेली ने त्यांची जाणवी. ते मेघकुमार वीरनगवाननी वाणी सां नलीने आते स्त्रीयोनो त्याग करी दीक्षा ग्रहण करी. पनी रात्रिने विषे सु तां थकां साधुना पादप्रहारें करी फुःख पामवाथी दीदा उपर मनोनंग थयो. प्रनातें श्रीवीरनगवाने ते मेघकुमार साधुने देशना देवा मांमी. ते जे म के ॥ गाहा ॥ जललवतरलं जीयं, अथिरा लबी विनंगुरो देहो ॥ तुला य काम जोगा, निबंधणं उरक लरकाणं ॥ १ ॥ को चक्वटि शर्दि, चश्नं दासत्तणं समहिलस ॥ को वररयणाई मुत्तुं, परिगाह उवलखंमाई ॥२॥ नेरश्याण वि उरकं,जिन कालेण किं पुण नराणं ॥ ताण चिरं तुह होही, उरकमिणं मासमुच्चियस्सु ॥३॥ एत्रण गाथा कह्या पड़ी मेघकुमारना पूर्वन व कह्या. ते जेम के तुं वैताढयने विषे सुमेरुनामा हाथी थयो ते सातसो हाथणीनो नायक थयो. त्यां वनाग्नि लागवाथी तरश्यो थयो थको तलावमा पेठो. तेवारें सामा हाथी कादवमां नारखी मारी नाख्यो,त्यार पड़ी विंध्या चलने विषे पांचशो हाथणीनो नायक मेरु प्रजनामा तुं हस्ती थयो. ते नव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सदित. ए मां दवामि थयेलो जोश्ने तुने जातिस्मरण झान तत्पन्न थयु.त्रण स्थंमिल कस्यां. त्यां शरीर खजवालवामाटे पग उंचो कस्यो, एवामां कोक शशलो ताहरा पग नीचे धावी उनो रह्यो. पडी तें.त्रणदिवस पर्यंत शशलानी कपा यें करी पग नीचें मूक्यो नही. चोथे दिवसें पग उपाडीने स्थापन करतां ते ह स्ती मरीने तुं मेघकुमार श्रेणिकराजाने त्यां अवतस्यो. या प्रकारनां वीरनगवा ननां वचन सांजली करीने फरी वैराग्य उपन्यो, तेवारें अखंम संयम पालीने विजय विमाने देव थयो. माटे मनुष्य नव सर्वथी उत्तम डे, एम जाणवू ॥७॥ वेलाकूले महति नृनवे प्राक्प्रसन्नवत्त, जी वा मूढश्लथदृढधियः कोणते कर्म वस्तु ॥ क्रू रा गुप्तिः कुगतियुग़लीवर्णकः स्वरंतो, येनां ते स्याधिवपुरमुरुस्फूर्ति तेषां क्रमेण ॥ ॥ अर्थः-(मूढ के०) मूढ,तथा (श्लथ के०) शिथिल तथा (दृढधियः के०) दृढबुद्धि वाला एवा त्रण प्रकारना (जीवाः के०) जीवो, (तत् के०) ते (कर्मव स्तु के०) कर्मरूप वस्तुने (कीणते के०) उपार्जन करे ले. क्यां उपार्जन करे जे? तो के (नृनवे के०) मनुष्यजन्मनेविषे. ते केवो नृनव जे ? तो के (वेलाकू ले के०) समुश् समान (महति के० ) विस्तीर्ण एवो. केनीपेठे ? कर्मवस्तु ने ग्रहण करे ,तो के (प्राकप्रसन्नेञ्चत् के०) पूर्वे थयेला प्रसन्नचंराजर्षि नी पेठे (येन के०) जे कर्मवस्तुयें करी (तेषां के०) ते पूर्वोक्त त्रण प्रकार ना जीवोने (क्रमेण के० ) अनुक्रमें त्रण गति प्राप्त थाय ने. तेमां (कुग तियुगलीवर्णकः के०) नरकतिर्यकरूप जे गतिनुं युगल तेनो ने वर्णक जेमां एवी (कूरागुप्तिः के०) फुःखरूप में गुप्ति एटले गृह जेनुं एवी गति,मूढबुद्धि वाला प्राणीने थाय . तथा शिथिल बुद्धिवासाने (अंते के०) अंतमां (वर्ड रतः के०) स्वर्ग पण प्राप्य थाय अने दृढबुद्धिवालाने (उरुस्फूर्ति के०) अत्यंत प्रकाश जेनो एवं (शिवपुरं स्यात् के०) मोक्षपद प्राप्त थाय ॥6॥ __ बाहिं प्रसन्नचंराजर्षिनी कथा कहे . पोतनपुर नगरना स्वामी प्र सन्नचंराजायें पोताना राज्ये बमासना पोताना पुत्रने थापी दीक्षा ग्रह ए करी. एकदा श्रीवीरस्वामी राजगृही नगरीने विषे आवी समोसस्था. ते मनाथी केटलेक दूर उनो रहीने सूर्य सामी दृष्टि करी तथा उंचा हाथ क Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. री एक पगे उनो रही तप करवा .मांमधू. तेवामां एक धुर्मुखनामा श्रेणि कना पालायें बावीने ते राजर्षिने कह्यु जे हे मूढ ! तुंगुं तप करे ? वैरी ताहरा नगरने विंटी राज्य ग्रहण करी बमासना तारा बालकने मारी नाख शे. ते वात सांजलतांज ध्याननंग थगयो. पोताना मनमां संग्राम करवा नो विचार थवा लाग्यो तेवामां श्रेणिक राजायें मनें करी वंदन कयुं तो पण तेने धर्मलान न दीधो. तदनंतर श्रेणिकराजायें श्रीवीर पासें यावी ने प्रसन्नचंराजर्षि श्राश्रयी पूज्यु, तेवारें वीरनगवाने सप्तमनरक, मनुष्य जन्म अने सर्वार्थ सिदिगमन, आत्रणे प्रश्नमो प्रत्युत्तर प्रसन्नचंराज र्षिना मनना परिणाम उपर दीधो अने चोथा प्रश्नमां प्रसन्न राजर्षिने केवल ज्ञान उत्पन्न थयुं, एम कझुं ॥॥ तत्तादृशाऽनव्यपितुः सुतोंपि, धर्मालसोयः सुलसोऽनवन्न ॥ स किं विषादेर्विषहन्मणि स्त, पंकान्न वा श्रीसदनं सरोजम् ॥ ए॥ अर्थः-(यः के०) जे (सुलसः के०) सुलसनामा पुरुष (तादृशानव्यपि तुः के०) तेवा अनव्य पितानो (सुतोऽपि के०) पुत्र डे (तत् के०) तो पण (धर्मालसः के०) धर्मनेविषे आलस्ययुक्त (नानवत् के०) न थतो हवो. अ र्थात् धर्मोद्यमी थतो हवो. याहिं कांही आश्चर्य जाणवू नहिं कारण के (सः के०) सर्वजनोमां प्रसिद्ध एवो (विषहत् के०) विषने हरण कर नारो (मणिः के० ) मणि ते (विषाहे के०) विषवाला सर्पथी उत्पन्न थयो एवो तो पण विषने हरण करनारो (किं के०) यु (न के ) नथी थातो? अर्थात् थायज जे. (वा के०) अथवा (श्रीसदनं के०) लक्ष्मीने रहेवा नु घर, (पंकात् के०) कचराथी उत्पन्न थयेलुं अने (तत् के० ) ते सर्वत्र प्रसिह एq (सरोजं के०) कमल (न के०) नथी गुं? अर्थात् डेज. तेम मुष्ट पिताथी उत्पन्न थयेलो एवो सत्पुरुष ते धर्मकृत्य करे ॥ ए॥ यांहि सुलसनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे जे ॥ राजगृहीनगरीने विषे कालकसौकरिकनामा कसाइनो पुत्र सुलस नामें हतो, ते अजयकुमा र नामा मंत्रीनी संगतिथी दयाधर्मपालक श्रावक थयो. पडी कालक सौक रिकने श्रेणिकराजायें वास्यो, तोपण नित्य पांचशे महिष मारवाना पापथी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ११ निवृत्ति न पाम्यो. कालकसौकरिक उर्लेश्यायें मरीने सातमे नरकें गयो. अने तेना पुत्र सुलसने स्वजनोयें आवी कह्यु के श्रापणे तारा पितानु पाप सर्वे वेची लेगुं त्यारें सुलसें पोताना पगपर कुवाडो मारीने सर्वने कह्यु के जेम तमे महारा बापना करेला पापने वेंचो बो तेवीरीतें या मारी वेदनाने त मो सर्व वेंची लीयो. ते सांनली सर्व मौनव्रत धारण करी बेग तेणे जीव वध न करो ॥ गाहा ॥ अवश्नतिय मरणं, नय परपीडं करंति मणसा वि ॥ जे सुवियसुग्गइ पहा, सोयरिय सु जहा सुलसो ॥ ए ॥ बोधाय सधर्मकुलोनवाः स्त्रियोऽप्युदायनस्येव पुरा प्रनावती॥ सत्तीर्थता किं जलधेर्न गंगया, सवृत्तता वा शशिनोन राकया रणांतिसत्कुलधारम्॥१॥ अर्थः-(सधर्मकुलोनवाः के०) प्रधानधर्मसहित जे कुन्न तेनेविषे ने उ त्पत्ति जेनी एवी (स्त्रियोपि के०) स्त्रीयो पग (बोधाय के) बोधनै माटे होय . केनी पेठे ? तोके (पुरा के०) पूर्वे (उदायनस्य के०) उदायन राजा नी (प्रनावतीव के०) प्रजावती नामनी स्त्री जेम बोध पामी,तेम स्त्रीयो बोध ने पामें . तेमां कां आश्चर्य नथी. केम के (जलधेः के०) समुनी (स तीर्थता के०) सत्तीर्थता ते (किं के०) गुं (गंगया के०) गंगायें करी (न के०) न थाय. अर्थात् थायज . जुवो प्रत्यक्षप्रमाण के ज्यां गंगा समुश्ने मले ने त्यां प्रियमेलकनामा तीर्थ प्रसि . (वा के०) अथवा (शशिनः के) चंइमानी (सवृत्तता के०) गोलाकारपणुं (राकया के०) पूर्णिमायें करी मु (न के०) न थाय अर्थात् थायज ३ ॥ १० ॥ __ बाहिं प्रनावती नामनी राणीनो दृष्टांत . माटे तेनी कथा कहे . वी तनय पत्तनमां मिथ्यादृष्टि उदायननामा राजा राज्य करे ले. ते एकदिवस न दीना जलमां क्रीडा करतो हतो तेवामां एक पेटी जलमांतरती नजरें पडी. तेल पोताने घेर पाणी. तेने तालां घणांज मजबूत दीधां हतां ते को थी पण उघाडी शकाणां नही. तेवामां चेटक महाराजनी दीकरी महासती प्रनावतायें पोताना धर्मनुं श्रवण करावा मांमधु ने कह्यु जे मारा मनमा सुदेव सुगुरु अने सुधर्म जो होय तो था पेटीनां ताला उघडजो. एवं कहे वाथी तुरत ताला उघडी गयां. तेमांथी अतिशयें सहवर्तमान विद्युन्माली Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. देवतानी बनावेली देवाधिदेवनी प्रतिमा नीकली, ते प्रतिमाने राजायें जो ने तेज समये ते राजा सम्यकदृष्टि थयो. एकदिवस जिनमूर्ति सन्मुख नृ त्यकरतुं अने गानकरतुं एवं राणीनुं कबंध जोयुं एटले माथाविनानुं राणीनुं धड जोडे. ते वात राजायें राणीने कही. राणीयें खराब चिन्हथी पोतानुं आयुष्य थोडं जाणीने दीक्षा ग्रहण करी अनशन लश्ने सौधर्म देवलोकें दे वता था तिहांथी पूर्व स्नेहने लीधे राजापासें आवी राजाने प्रतिबोध क स्यो. तेथी राजायें कुगुरुवासनादि बोड्यां अने सजति पाम्यो माटे सर्म पालनारी स्त्रीथी पण बोध थाय ने ॥ १० ॥ इति सत्कुल धारं ॥ अथ सुगुरुवारं ॥ जीवादितत्त्व विकलैर्विपुलैस्तपोनि, मुं तो न तामलिरजातसुसाधुसंगः॥ कः स्वर्णसिक्ष्मिधिगन ति कूटकल्पैः, कोवांबुधिं तरति जर्जरयानपात्रैः ॥११॥ अर्यः-हवे सत्संग, एटले सशुरु संग तेनुं हार कहे जे. (अजातसुसा धुसंगः के०) नथी उत्पन्न थयो सारा साधुनो संग जेने एवो (तामतिः के०) तामलि तापस (जीवादितत्त्व विकलैः के०) जीवादि तत्वोयें रहित ह तो तेथी (विपुलैः के०) विस्तीर्ण एवां (तपोनिः के०) तपोयें करी पण (न मुक्तः के०) मुक्त थयो नहिं अर्थात् संसारथकी अथवा कर्मथकी न मु काणो. ते सत्य . जुवो के (कूटकल्पैः के०) खोटीवस्तुथी (कः के०) को गपुरुष, (स्वर्णसिदि के०) सुवर्ण सिधिने (अधिगन्नति के०) प्राप्त थाय ? अर्थात् कोइ पण प्राप्त थातो नथी. (वा के०) अथवा (जर्जरयानपात्रैः के०) जीवाणेकरी (अंबुधिं के०) समुने (कः के०) कोण (तरति के०) तरे ने अर्थात् कोइ तरी शकतुं नथी. बीजं तो सर्व सुगम डे ॥११॥ हवे आंही तामली तापसनी कथा कहे . ताम्रलिप्ति पुरीनेविषे ताम लीनामा शेठ हतो तेणे तापसी दीक्षा ग्रहण करी. पड़ी ते मध्यान्हें गा ममा जइ वोहरीलावे ते वहोरेला आहारना चार नाग करे,तेमां एक ज लचर जीवोनो, बीजो स्थलचर जीवोनो, त्रीजो खेचर जीवोनो अने चो थो पोतानो, एम कल्पना करी त्रण नाग काढी नाखे अने चोथा नागनां अन्नने एकवीश वखत जलें करी धोइने नोजन करे. ए प्रकारनुं तप साठ हजार वर्ष कयुं,पनी ईशान देवलोकमां इंश थयो तेणे अवधिज्ञानेकरी ए Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. बुं जाण्यु जे में पूर्वजन्में जे तप कयुं तेटला तपें तो सात जन मोहें जाय पण महारा तपमा सुसाधुसंगनो अनाव हतो. कहेलु के ॥ यतः॥ गा हा ॥ तामलित्तणे तवेण, जिणमय सिज्ज सत्त जणाण ॥ सो अन्नाण वसेणा, तामलि ईसाणइंद ग ॥ ११ ॥ गिरिपुष्पशुकाविवामलोंगी, गुणनाशोदयना ग जडझसंगात् ॥ जलदांबु विषं सुधा च न ‘स्यात्, कनकाशै च किमिदुकानने च ॥१२॥ अर्थः-(अमलोंगी के० ) निर्मल प्राणी, (जडझसंगात् के०) जडना अने ज्ञानीना संगथी ( गुणनाशोदयनाक् के० ) गुणनाश अने गुणोदय तेने नजनारो थाय ले. केनी पेवें. ( गिरिपुष्पगुका विव के०) गिरि अने पुष्प नामा बे पोपट जेम. जुवो (च के०) वली (जलदांबु के० ) मेघनुं जल, ते (कनकाशै के०) धंतुराना फाडनेविषे (विषं के०) विष (च के) अने (इदुकानने के०) शेरडीना वनमां (सुधा के ) अमृत (च के वली )किं के०) गुं (नस्यात् के०) न थाय ? ना थायज ॥१२॥ हवे गिरि अने पुष्पनामा बे गुकनीकथा कहे .चंपानगरीने विषे जितशत्रु राजा राज्य करे बे. ते कोइ दिवस विपरीत शिक्षित अबें बेठेलो तेथी अधे कुवाटें पमाड्यो पनी उग्रवनमां ते अश्व राजाने लगयो एटलामां एक फाडनी उपर पांजरामा रहेलो कोक चोरोनो पोपट चोरोने त्यां कहेवा लाग्यो के अरे चोरो, तमारे लुंटवा होय तो लपति माणस जाय ले माटे लुटी लुटो. ते सांजलतांज राजा त्याथी नाशीने एकदम तापसना आश्र ममां पेसी गयो. त्यां तापसनो गुक पांजरामा रहेलो हतो ते राजाने आवतो जो तापसो प्रत्ये कहेवा लाग्यो के हे मुनिवरो! राजा आवे ने अन्युबान करो, आसन मांझी थापो,याचमन आपो, आतिथ्य करो, था वां वचन ते पोपटनां सांजली राजा हर्षित थयो. एवं कौतुक जो शुकपा सें भावी राजायें शुकने पूब्युं जे एक पोपटें चोरोने कह्यु के था खाज जाय ले माटे बुंटो अने तुं कहे जे जे आ राजाने सन्मान आपो माटे ते केवी जातनो पोपट अने तुं केवी जातनो पोपट बो ? त्यां तापसनो शुक बेश्लोक बोल्यो के हे राजा! सांजव्य ॥ श्लोक ॥ माताप्येका पिताप्येको, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ __ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मम तस्य च पदिणः॥ अहं मुनिनिरानीतः,सच नीतो गवाशनैः॥१॥ गवाश नानां स गिरः शृणोति,अहं च राजन मुनिपुंगवानाम् ॥ प्रत्यमेतद् नवता च दृष्टं, संसर्गजादोषगुणा नवंति ॥ २॥ आ बेहु श्लोकनो नावार्थः- हेरा जन् ! अमारी बेहुनी माता पण एकज ने पिता पण एकज ने परंतु मने मुनि लोको पकडी लाव्या ले अने तेने चोरो पकडी गया माटे ते उष्टजननी वा णी बोले हुँ मुनिपुंगवोनी वाणी बोलुं बुं. हे राजन् ! ए तें प्रत्यक्ष दीतुं जे संसर्गथकी दोषो अने गुणो थाय ने साराना संगथी सारी बुद्धि आवेळे अने नरसाना संगथी नरसी बुदि आवे माटे सजननो संग करवो ॥१२॥ कोप्यन्यएव महिमाननु शुदृष्टे, यत् श्रेणिकोह्यवि रतोऽपि जिनोत्र नाव।पुण्यागर्गलः किमितरोऽपिन सार्वनौमो,रूपच्युतोऽप्यधिगुणस्त्रिजगन्नतश्च ॥१३॥ अर्थः- (शुपदृष्टेः के) सम्यक वंत एवा जननो (कोपि के०) कोपण ( ननु के०) निश्चे (अन्यः के०) बीजो (महिमा एव के०)प्र नावज होय . (यत के०)जे कारण माटे (अविरतोपिके) अविरत ए वो पण (श्रेणिकः के०) श्रेणिकराजा, (अत्र के०) या नरत देवनेविषे पद्म नाननामा (जिनः के०) तीर्थकर (जावी के०) थाशे (इतरोपि के०) बीजो नीच कुलमा उत्पन्न थयेलो एवो पण (पुण्यार्गलः के०) पुण्याढ्य नामें (सा वनौमः के०) चक्रवर्तिजेवोसर्वनूमिनोराजा (किं के) झुं ( न के०) न थयो. अर्थात् थयोज (च के०) वली ते (रूपच्युतोपि के०) रूपथकी भ्रष्ट थयेलो पण (अधिगुणः के० ) अधिक गुणवान् थयो (त्रिजगन्नतः के०) त्रण जगतें जेने नमन करेलु ले एवो थयो॥ __ बाहिं श्रेणिक राजानी कथा कहे जे. श्रेणिकनामा राजा राजगृही न गरीने विषे राज्य करे . ते सम्यक्त्व पाम्या पनी त्रणेकालनेविषे जिन नीअर्चा करतो हतो जिननी पासें प्रतिदिवस अष्टोत्तर शत सोनाना जव नो स्वस्तिक पूरतो हतो अने पात्रने दान देतो हतो, ते राजाना सम्यक् त्वनी प्रशंसा इंडे देवताउनी पासें करी हती ते देवतायें आहिं आवीने ते श्रेणिकराजानी सम्यक्त्वनेविषे परीक्षा करी. परंतु सम्यक्त्वथकी ते चला यमान थयो नहीं. तोपण ते अविरति ने स्वयंनू रमण समुना मत्स्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १५ नणनो नियम पण तेणे लीधो नहिं एवो अविरति श्रेणिक राजा पण दायिक सम्यक्त्वना लानयकी आवती चोवीशीमां पद्मनाननामा प्रथम तीर्थकर थशे बोहोंतेर वर्ष आयु तथा स्वर्णवर्णकाय, शरीरे सात हाथ उंचो, सिंहना लांबन युक्त एवो श्रीवीरजगवाननी समान थशे. हवे पुण्याढ्य राजानी कथा कहे जे. पद्मपुरने विपे तपन राजा राज्य करे . तेने ते नगरना रहेनारा को शेठें एक हस्ती नेट कस्खो. ते हाथी राजानो पूर्वनवें मित्र हतो पड़ी ते हस्तीयें करी राजायें दिग्विजय कस्यो. नगरमा प्रवेश करता ते हाथीयें राजाने बोध करवा माटे एक रस्तामा प डेला खडीना कटकायें करी प्रतोली उपर एक श्लोक लख्यो. ते श्लोक ॥ अविज्ञातत्रयीतत्त्वो,मिथ्यासत्त्वोनसचजः ॥ हा मूढशत्रुवेषेण,मित्रप्लोषेण हृष्यति ॥ आ श्लोकनो अर्थ सर्व विद्वानोने पूब्यो पण कोश्ये तेनो अर्थ कह्यो नहिं परंतु आनंदसूरिये ते श्लोकनो अर्थ सारी रीतें कह्यो. तेवारें राजायें कह्यु के था मारो हस्ती जेने राज्य बापे ते राजा. एम मंत्री ने कहीने पोते व्रतग्रहण करतो हवो. पडी ते ज्ञानवान् हस्तीय वनमांयी को पांगलाने आणी राज्य थापी दीधुं. परंतु ते राजाने पंगु जाणीने कोइ प ण तेनी याज्ञा माने नही. बीजे दिवसे प्रातःकालमां कोई अन्य राजा साथें संग्राम थये बते हाथीपर वेवेला पांगलाना हाथनेविषे रहेढुं तृण ते देवताना प्रनावथकी वजतुल्य थयुं. तेवारे ते पंगु कहेवा लाग्यो जे मारी आज्ञा नहि माने तेने शिर आ वज पडशे. ते सांजली सर्व राजायें तेनी आझानो स्वीकार कस्यो. पनी ते पंगुर्नु पुण्याढ्य एवं नाम सर्व लो कोयें पाडयु. ते अनुक्रमें त्रण खंझनो राजा थयो पनी कालेंकरी ते हस्ती मरण पाम्यो. राजायें तेना स्थानकने विपे मोहोटो प्रासाद कराव्यो. प्र तिमानी पासें हाथीनुं रूप कराव्यु. एक दिवस राजा ते श्रीजिनप्रतिमाने देखतो बतो करीरूपने जोतां गुनध्यानथकी केवलज्ञान पामीने मोदे ग यो परंतु पाबला नवमां पुण्याढ्यना जीवें मलिन गात्रवाला ऋषिना नेत्र थकी कांटो खेंची लीधो तेथी तेने निष्कंटक राज्य प्राप्त थयुं. अने ते म लिनगात्रवाला ऋषिने जो उगंडा कीधी ते कम करी पंगुत्व प्राप्त थयुं ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. प्राप्याल्पमप्यमलबोधवचचिलाती,पुत्रो यथाघम लिनोऽपि बिनर्ति शुझिम्॥कि कोटिवेधि रसचंदनर त्नबिंध,स्पर्शेपि मशिशिरं च न तप्तलोदम् ॥१४॥ अर्थः- (चिलातीपुत्रः के) चिलातीपुत्र, (यथा के०) जेम (अ ल्पमपि के०) अल्प एवा पण (अमलबोधवचः के०) निर्मल बोधवचनने (प्राप्य के०) पामीने (अधमलिनोपि के० ) पापथकी मलिन डे तोपण (शुद्धि के०) शुदिने (बिनर्ति के०) धारण करे ने. तेमां काहिं आश्चर्य नथी. जेम के ? (कोटिवेधि के०) कोटिप्रमाण लोहने वेधनारो एवो (रस के०) रस अने (चंदनरत्नबिंड के०) सर्वोत्तम चंदनरसनो बिंडु तेना (स्प शेपि के०) स्पर्शनेविषेपण (हेम के०) सुवर्ण (ह के) अने (तप्तलोहं के०) तपावेलुं लोढुं ते (शिशिरं के०) शीतल (किं के०) गुं (न के०) न थाय ना था यज.तेम सुजनना संगथी झुं मूर्ख होय, ते ज्ञानी न थाय ? ना थायज. आहिं चिलातीपुत्रनी कथा कहे जे. राजगृही नगरीने विषे एक धन श्रेष्ठी रहेतो हतो तेने पांच पुत्रो हता,तथा सुसीमा नामें एक दीकरी हती. तेने चिलाती नामे एक चाकर हतो ते सुसीमासाथे कुचेष्टा करवा लाग्यो तेथी शेतें तेने बाहेर काढी मक्यो ते कर्मना वशे करी पत्नीपति थयो. चो रनी धाड लश्ने तेज शेठना घरमां चोरी करवा रातें पेठो, अने धाडवा लाने कह्यु के जे धन मलशे ते तमें लेजो परंतु सुसीमा स्त्रीने ते ढुं राखीश चोरोएं ते धनश्रेष्ठीनुं घर लूटयु. चिलातीपुत्र सुसीमाने लश्ने निकल्यो,तेनी पनवाडे ते सुसीमानो बाप आव्यो तेने जोइने चिलाती विचारवा लाग्यो के हवे आने लश्ने जवाय तेम नथी पड़ी ते चिलातीपुत्रं सुसीमानुं मस्तक पोता नी पासें तरवार हती तेणे करी काप्यु. ते जोरधनश्रेष्ठी रुदन करीने पोतानी दीकरीनुं कलेवर स पाडो याव्यो. पनी आगल जतां ते चिलातीपुत्रं का योत्सर्गने विपे रहेला कोइमुनिने नजरें जोयो,तेवारें तेनी समीप जश्ने चि लातीपुत्र केहेवा लाग्यो के माहाराज! थोडा अदमां धर्म कहो,नहिं तो त मारुं माथु कापी नारखीश. तेने मुनिये " नवसमविवेग संवर,” ए गाथा क हीने आकाशमां गमन कयुं. ते चिलातीपुत्र तेना स्थानमा रहीने ते गा थाना अर्थने चिंतवन करतो तो कायोत्सर्गनेविपे रह्यो, तेना शरीरने मको Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तयां कथा सहित. १७ डा अने वज जेवा मुखवाली कीडीयोयें पादादिकथा आरंजीने शिरपर्यंत फो ली खाधुं चारणी जेवू शरीर कीg. एरीतें साडा त्रण दिवस उपसर्गने स हन करीने सहस्रार देवलोकनेविषे देवता थयो. एम थोडा अदना उप देशथकी चिलातीपुत्र महापापी हतो तोपण देवता थयो, माटे थोडो प ण धर्मोपदेश सुखदायक जे एम जाणवू ॥ १४॥ देषेऽपि बोधकवचः श्रवणं विधाय, स्याशैदिणेय श्व जंतुरुदारलानः॥ क्वाथोऽप्रियोपि सरुजां सुख दो रविर्वा, संतापकोपि जगदंगनृतां हिताय॥१५॥ अर्थः-(षेपि के०) पिनेविषे पण एटले मननी अरुचिमां पण (जंतुः के०) जीव (बोधकवचः के०) बोधकारक वाक्यतुं ( श्रवणं के०) श्रवणने (विधाय के०) करीने अर्थात् बोधकारक वचन सांजल्युं होय तो हितने माटे थाय. (यथा के०) जेम (काथः के०) क्वाथ (अप्रियोऽपि के०) कडवो ने तो पण (सरुजां के०) सरोगीजनने ( सुखदः के०) सुखदायक (स्या त् के०) थाय ( वा के०) तथा ( रविः के० ) सूर्य (संतापकोपि के०) संतापकारक के तो पण (जगदंगनृतां के०) जगतने विपे प्राणीयोना (हि ताय के०) हितने माटे थाय बे. केनी पेठे ? तोके (नदारलानः के०) महो टो थयो लान जेने एवो (रौहिणेयश्व के०) रौहिणिया चोरनी पेठे ॥१४॥ __ आहिं रौहिणिया चोरनी कथा कहे . राजगृहीनेविषे विनारगिरि पर्व तमा रूप्यखुरनो पुत्र लोहखुरनामा कोइक चोर रहेतो हतो,ते मरणना स मयंनेविषे पोताना पुत्र रोहिणियानी पासें कहे के धूर्त एवा श्रीमहावी रस्वामीनुं वचन तारे क्यारेपण सांजल नहिं ते वचन तेणें कबुल कयुं. तदनंतर लोहखुरो चोर मरण पाम्यो पड़ी रौहिणियो एकदिवस रस्तामां चा व्यो जाय तेटलामां वीरस्वामीनी योजनगामिनी वाणीने सांजली तेमां या गाथा सांजली जेम केः-” अणमिसनयणा मणक,ऊसाहणा पुप्फदा म अमिलाणा ॥ चतरंगुलेण नूमि, न बिबिंति सुरा जिया बिंति ॥१॥ आ गाथा सांजली तेने घणी वीसारे ने तो पण ते विस्मरण थाती नथी. हवे ते चोर श्रेष्ठी थश्ने राजगृहने विषे फरे ने थने अनयकुमारने प्रणाम कस्या विना जमतो नथी. एकदिवस जिनमंदिरमा वेवेला अनयकुमारनी पासें Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. श्रावक थक्ने प्रवेश कस्यो. वंदन स्थानकनेविष अजयकुमारने जुहार कस्यो. पनी अनय कुमार रौहिणियाने साधर्मिकना मिषे पोताने घेर तेडी जश्ने नोजन करवा बेसाड्यो नोजनानंतर दहीमा नाखेला सुरापानें करी तेने अचेतन करी नाख्यो पूर्व घणुंज सारं धवल करेलुं घर हतुं तेमां शय्यामां सुवास्यो, ज्यारें जाग्यो,त्यारे जीवता रहो आनंद रहो एम बोलती एवीने चामर नाखती एवी देवांगना तुव्य वारांगनाउनी साथें वार्ता करवा लाग्यो. तदर्शनं किमपि सा सुलसाप येन, प्रादाजिनोपिम हिमानममानमस्यै ॥ नैर्मल्यतः शशिकला नवकेत कीत्वं, मालातुलां च हरमूर्ध्नि बनार गंगा ॥१६॥ अर्थः-(तत् के०) ते ( किमपि के.) अपूर्व एवा (दर्शनं के) स म्यक्त्वदर्शनने (सा के०) ते (सुलसा के०) सुलसानामनी श्राविका (आप के ) पामती हवी. (येन के) जे सम्यक्त्वे करीने (अस्यै के०) ए सुलसाने (जिनोपि के०) जिननगवान् पण (अमानं के०) जेनुं प्र माण नथी एवा (महिमानं के०) महिमाने (प्रादात् के०) आपता हवा अर्थात् सुलसा श्राविकाना सम्यक्त्वने महावीर नगवाने वखाण्युं ते सम्य क्त्वनुं फल . त्यां दृष्टांत कहे ठे. ( शशिकला के०) चश्मानीकला तथा (गंगा के० ) गंगा ते (नैर्मव्यतः के०) निर्मल पणाथी अनुक्रमें ( हरमूर्ध्नि के०) शंकरना मस्तकनी उपर ( नवकेतकीत्वं के० ) नव केत कीपणाने (च के० ) वली (मालातुलां के०) मालानी तुव्यताने (बचा र के०) धारण करती हवी. अर्थात् ईश्वरना मस्तकने विषे चंकला केत की रूपने झुं नथी धारण करती ? तथा गंगा जे ले ते कुसुममालानी तुल्य ताने गुं धारण करती नथी ? ना करे ॥ याहिं सुलसानी कथा कहे जे. राजगृहीनगरीनेविषे दायिक सम्य क्त्व धारणकरनारी शीलालंकारें नूषित एवी सुलसा नामनी श्राविका रहे ती हती एकदिवस अंबडनामा परिव्राजकना मुखथी श्रीवीरनगवाने धर्म लान ते सुलसाने कहेवराव्यो अंबड नामा पारिव्राजक राजगृहीमा जश्ने प्रथमना दिवसमां वैक्रिय शक्तियें करी पूर्व प्रतोलीमा चार मुखेंथी चार वेदनो उच्चार करतो हंसवाहनपर बेतो अने अगिमां सावित्री ने जेने Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ए एवो सादात् पोतें ब्रह्मा थ बेतो तेने एक सुलसाविना बीजी सर्व प्र जा प्रणाम करवा माटे अावी. तदनंतर बीजे दिवसें दक्षिण प्रतोलीनेविषे गरुडपर बेठेला, लक्ष्मी सहवर्तमान सुशोनित तथा पीतांबरधारी, श्या मशरीरवाला अने चार हाथने विषे शंख, चक्र, गदा, पद्म, तेने धारण कर नारा एवा सादात् वैक्रिय शक्तिथी विष्णु थ बेतो. तेना दर्शन करवां प ण सुलसा शिवाय सर्वलोक गयां, पनी त्रीजे दिवसें पश्चिम प्रतोलिकानेविषे वृषनना वाहनवाला, तथा पार्वती अगें होवाथी शोलायमान, जस्में करी नहलित अंगवाला, कंठनेविषे मरेला मनुष्यना तुंबडानी माला पेहे रनारा, जटा जूटथी सुशोनित मस्तकवाला त्रिशूलने धारण करनार, क र्पूर गौर शरीर वाला, एवा सादात् शंकरर्नु रूपवैक्रिय शक्तिथी कयुं तेनां दर्शन करवा सर्वसुलसा विना गया. तदनंतर वली चोथा दिवसनेविषे उत्तर प्रतोलीने विषे सोनाना, रूपाना,अने रत्नना एत्रण प्राकारना मध्यनेविषे दिव्यसिंहासनपर बेवेला, मस्तकनपर त्रणं बत्रने धारण करनार, नामम ल, धर्मध्वज, अशोकवृद, धर्मचक्रादि समृदियें करी संशोजित, सुर असु र किन्नर तेनी कोडा कोडीये सेव्यमान, पचवीशमो हुँ तीर्थकर एवो जगत्मां उद्घोष करावतो सादात् पोतेंज तीर्थकर थतो हवो ते दिवसें तेने वांदवा माटे ते गामना सर्व श्रावको व्या, परंतु सुलसा श्राविका ग नही. पड़ी ते अंबडे सुलसाने घेर जश्ने नमस्कार कस्यो अने कह्यु के तुने धन्य के कारण के श्रीवीरनगवान पण तारा धर्मने वखाणे . ३ त्यादि वीरनगवाने करेली एवी प्रशंसा सर्वजन सानले. तेम अंबडे कहीने ते पोते पण दृढ सम्यक्त्वी थतो हवो ॥ १६ ॥ दूरेईतोस्तु महनादि नतीबयापि, श्रेयः सुरोजनि न सेडुकदरः किं ॥ कल्पमः स्मरणतोपि न किं फलाय, पार्थेपि वामृगमदोनहि सौरनाय ॥१७॥ अर्थः- (अर्हतः के०) वीतरागर्नु (महनादि के०) पूजनादिक तो (दूरेऽस्तु के०) दूर रहो. परंतु (नतीचयापि के०) नमन वांडनायें करी ने पण (श्रेयः के०) कल्याण थाय. तेमां आश्चर्य नथी. केम के (सेडुकद धुरोपि के ) सेडुकनामा ब्राह्मणनो जीव, दर्डर थयो बतो पण नमन वांड Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. नायें करी (सुरः के०) देव (किं के ) युं (न के० ) नहिं (अजनि के०) थयो. अर्थात् थयोज? एटले सेडुकब्राह्मण वातें करी कुष्टी थयो ब तो जलजल करतो मरण पाम्यो तेणे करीने तेने कोई वावमां देडकानो अवतार श्राव्यो. तेने लोकोना कहेवाथकी श्रीवीरनगवाननी स्तुति सांजली ने जातिस्मरण उत्पन्न थयुं तेथी श्रीवीरनगवानने नमस्कार करवा चाल्यो तेटलामां रस्तामां घोडाना पगमां आववाथी ते नमन करवानीश्बा सहित मरण पामवाथी प्रधान देवता गुं थयो नहि ? अर्थात् थयोज ॥ आहिं दृष्टांत कहे जे. (कल्पमः के) कल्पवृदनु, (स्मरणतोपि के०) स्मरण करवा थकी पण (फलाय के० ) फलने माटे (किं के०) झुं (न के० ) न होय अर्थात् होय. वली बीजो दृष्टांत कहे जे के (वा के) वली (पार्वे पि के०) पडखामा रहेली एवी (मृगमदः के० ) कस्तूरी ते (किं के०) सुं ( सौरनाय के०) सुंगध माटे (नहि के०) न होय. ना हो. यज. अर्थात् कस्तूरी पडखे पडी होय तो पण सुगंधने थापे ले. अनेक स्पद पण स्मरण करवाथी वांडित फल आपे . तेम नगवानने नम वानी वा पण देवपणाने आपे एमां आश्चर्य नथी॥ १७ ॥ हवे आहिं दर्डरांग देवनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे जे. एक दिवस श्रीवीरनगवान् वैजारगिरिने विषे समोसस्या त्यां सर्वलोक वंदन करवाने गया. ए अवसरने विषे प्रतोलीपालक बुदित एवो सेडुक नामना ब्राह्मणने वडां आपी ते ठेकाणे ते सेडुकने राखीने सर्वलोक प्रनुने वांदवा गया. पडी ते सेडुक ब्राह्मण बीजे स्थानकें जवाने असम र्थ होतो हवो. पण तृषा लागवाथी मरण पामीने आगल रहेली वाव्यने विपे देडको थयो. ते वाव्यमां जल जरवा आवेली एवी श्राविकाना मुखथी श्रीवीरनगवान् आव्या एम सांजलीने जातिस्मरण ज्ञान उपनुं तेवारें वीर नगवानने वांदवाने देडको चाल्यो रस्तामां श्रेणिकराजाना घोडानी खरी थी चंपा देडको मरण पाम्यो त्यांथी ते दर्डरांगनामनो देव थयो पढ़ी ते देवें महोटी नदि सहित श्रीवीरनगवान पासे आवीने वंदन कयुं ॥१७॥ ध्यातः परोदेपि जिनस्त्रिशुध्या, जीर्णानिधश्रेष्टिवदिष्टसिध्यै ॥ सिंधुप्रर-क्ष्य कुमुदौघलदम्य, चकोरतुष्टयै विधुरभ्रगोपि॥१॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १ अर्थः-(जिनः के०) नगवान (परोकेऽपि के० ) अप्रत्यक्ष होय तो पण (त्रिशुध्या के०) मन वचन कायानी युधियें करीने (ध्यातः के०) ध्यान कस्या बता (जीर्णानिधश्रेष्टिवत् के०) जीर्णनामाश्रेष्ठिनी पेठे (इष्टसिध्यै के०) वांबितनी सिदिने बापे जेम (अनगोपि के०) आकाशमा रह्यो एवो पण (विधुः के०) चश्मा जे ते ( सिंधुप्रवृध्यै के ) समुश्नी वृद्धि ने माटे तथा (कुमुदौघलक्ष्म्यै के०) कमलना उघनी शोनानेमाटे तथा (चकोरतुष्टयै के०) चकोरपदीनी तुष्टिने माटें झुं न होय ? ना होयज. आंही जीर्णश्रेष्ठीनी कथा कहे . चंपानगरीनेविपे श्रीवीरनगवान् चो मासु रह्या त्यां जीर्णश्रेष्ठी यावीने वीरनगवान कहे जे के महाराज! पारणने दिवसे मारे घेर पारणुं करवा पावजो. पनी वीरनगवान् तो पा रणाने दिवसे मिथ्यादृष्टि अनिनवश्रेष्ठीने घेर पारणुं करवा गया, तेणे आ जैनदर्शनी के एवी बुड़िये कुल्मायें करी पार| कराव्युं. तेना घरमां त्रीश कोडी स्वर्णरत्न अने रूपैयानी देवताउएं दृष्टि करी पड़ी ते नंगरना राजायें कोई एक मुनिनी पागल कह्यु के महाराज! अमारुं नगर धन्य ने जेमा श्रीवीरनगवाने पारणुं कर्तुं. पार| करावनार नाग्यवान् अनिन वश्रेष्ठी जे. त्यारें मुनियें कह्यु के हे राजा! ते शेखें तो इव्यपार| कराव्यु परंतु नावपारणुं तो जीर्णशेठे कराव्यं ने जेने प्रसादें करी ते देवता थाशे माटे नावज प्रमाण जे. एम जाणवू नाव विना सर्वे मिथ्या जाणवू ॥ १७॥ नव्योगुरुः सुरतरुर्विहितामितईि,र्यत् केवलाय कव लार्थिषु गौतमोऽनूत् ॥ तापातुरेऽमृतरसः किमु शै त्यमेव, नाप्रार्थितोऽपि वितरत्यजरामरत्वम्॥१६॥ अर्थः-(नव्यः के०) नवीन एवा (गुरुः के० ) गुरु, ते ( सुरतरुः के कल्पवृक्ष समान . वली केवा जे ? तो के ( विहितामितदिः के० ) अण याच्याथका पण प्रमाण विनानी दिना देवावाला ले ( यत् के०) जे कारण माटे (गौतमः के० ) गौतमऋषि तो (कवलार्थिषु के०) कवलनी याचना करनार, पारणार्थी तापसोने विषे ( केवलाय के० ) केवलज्ञानने माटे (अनूत के०) थाता हवा अर्थात् गौतम ऋषि कवलनी याचना क रनारने केवल ज्ञानना दातार थया (अप्रार्थितोपि के०) नहि प्रार्थना क Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. रेला एवा पण गुरु ( अजरामरत्वं के० ) अजरामरपणाने ( नवितरति के) नहि आपे गुं ? अर्थात् आपेज . जेम (तापातुरे के०) तापेंकरी आतुर एवा मनुष्यने विषे (अमृतरसः के०) अमृतरस (किमु के०) झुं (शैत्यमेव के० ) शीतलपणाने न पामे झुं ? पामेज. — बाहिं गौतमस्वामीनी कथा कहे जे.एकदिवस श्रीवीर मुखथकी गौतमें एवं सांजल्यु के जे स्वलब्धियें करीने अष्टापद पर्वतउपर चडीने चोवीश जिनने नमस्कार करे ते तेज नवमां मोक्ने प्राप्त थाय ने तेवारें.गौतमस्वा मी गगनमार्गे करी अष्टापद पर्वतनेविषे गया. तेमने गगनमार्गयकी आव ता जोड्ने पन्नरसोत्रण तापसो चिंतववा लाग्या जे या पुरुष केवी रीतें या योजन नंचा पर्वत उपर चडीशकशे? तेटलामां तो गौतम गणधर,रवि किरणोनुं अवलंबम करीने गिरिपर चढी गया. त्यां चोविशजिनने नम स्कार कस्यो. रात्रै रह्या त्यां श्रीवजस्वामीना जीवें तिर्यकर्जूनकदेव पणे. तेने बोध कस्यो. प्रातःकालमां गिरिथकी उतरता गौतमस्वामी रस्तामां पंदरसो ने त्रण्य तापसोने प्रतिबोध्या. पड़ी उधना नरेला एकपात्रं करी स वेने पार| कराव्यूं अदीपमहापसीलब्धियेंकरी परम अन्ननी वृद्धि था. पांचशे साधुने चलुं करतां केवलझान उत्पन्न थयुं अनेपांचसोने समवसरण जोतां केवल ज्ञान उत्पन्न थयुं. तथा पांचसोने श्रीवीरनगवाननीवाणी सां जलतां केवल झान उत्पन्न थयु. कहेलुं बे के॥कोडिन्नदिन्नसेवा,लनाम एवं च पंचसय कलिए । पडिबुझे गोयमदं, सणेणपणमामि सिधिगया॥१॥१९॥ कुवोधमतयोनितः कुगुरवोजमाल्यादिवत्, पुनः क्वचन वत्र वत्, सुगुरवोऽमलाजन्मतः॥करीरपिचुमंदवन्नधनसारसचं दना,घनान च खरोष्ट्रवजयतुरंगनाधिपाः॥२०॥गुरुधारं अर्थः-( जमाल्यादिवत् के०) जमाल्यादिकनी पेठे (कुबोधमतयः के) कुत्सितज्ञानमां ने मति जेनी एवा ( कुगुरवः के० ) कुगुरु जे ते मलवा तो (अनितः के०) सुलन डे (पुनः के ) वली (जन्म तः के०) जन्मथकी (अमलाः के०) निर्मल, एटले निष्पाप एवा (सुगु रवः के ) सुगुरु जे जे ते तो ( वजवत् के० ) वजस्वामीनी पेठे (क चन के० ) कोक ठेकाणेन होय. जेम ( करीरपिचुमंदवत् के०) केरडा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. २३ लींबडा वगेरेना जाड घणा होय जे पण (घनसारसचंदनाः के०) कर्पूर चंदननां वृदो ( घनाः के०) काऊ (न के० ) नथी होतां (च के) व ली (खरोष्ट्रवत् के०) गर्दन उंटनी पेठे कुगुरु घणा होय छे तथा ( जय तुरंगनइहिपाः के) जेणे करी संग्राममां जीताय एवा जयजातना अश्वो तथा नजातीना हाथीयो जे जे ते घणा ( न के) नथी होता. तेम कु गुरु घणा होय हे अने सुगुरु घणाज थोडा होय . प्रांहिं.जमालीना तथा वजस्वामीनो दृष्टांत बे. तेमां प्रथम जमालीनी कथा कहे जे. श्रीमहावीरस्वामीना जमाइ जमाति नामा राजकुमार पोता नी स्त्री सहित नगवान पासेंथी दीक्षा लीधी कमेंकरी तेने प्राचार्यपद प्राप्त थयुं तेना परिकरमां पांचशे साधु रहेता एक दिवस ते जमाली आचार्यने शरीरें ज्वर श्राव्यो त्यारें साधुने कयुं के मारे माटे संथारो करो,के जेथी ढुं सुर जालं, त्यारे ते साधुयें पथारी करवा मांझी एवामां वली पालु जमालीयें कडं के संस्तारण कयुं के नहिं ? साधुयें कह्यु हा मा हाराज पधारो. ते सांजली जमाली आचार्य त्यां याव्या. पथारी कराती हती ते जोड्ने बोल्या हे साधुन ! तमें तो सत्यवक्ता बो ने खोटुं हुं कर वा बोल्या जे हा संस्तारक कस्यो ? ते बोल्या महाराज अमे असत्य नथी बोल्या त्यारे सूरि कहे जे के तमें खोटुं बोल्या ? कारण करेलु कार्य होय ते नेज करेलुं जे एम कहेवू एम ते उत्सूत्रप्ररूपनार निन्हव थया. तेमां ते जमालीनी स्त्री महासती ते श्रीमाहावीरनी पुत्री हती, तेने कोई एक कुं नकार श्रावके कांबलीना एक प्रदेशना ज्वालने करी बोध कस्यो तेथी बोध पामी पण जमाली प्रतिबोध पाम्यो नही निन्दवज रह्यो. हवे वजस्वामीनी कथा कहे . श्लोक ॥ यः पालनस्थः, श्रुतमध्यगीष्ट, पाएमासिकोयश्चरितानिलाषी ॥ त्रिवार्षिकः संघममानयद्यः, श्रीवजनेता न कथं नमस्यः॥१॥ तुंबवनसन्निवेशे धनगिरिनामा श्रेष्ठीनी स्त्री सुनंदा नामें हती तेने वज नामे पुत्र थयो ते पारणामा रहेता तेवारें साध्वी एकाद शांगी नपती हतीते सांजलतावेंत नणी गया अनेत्रणवरसना थया तेवारें तेणे दीक्षा ग्रहण करी. पनी दिन दिन गुणना वधवाथी तेने गुरुयें आचा र्यपद दीg. एक दिवस श्रीवजाचार्य विहार करता उता कुसुमपुर नामे नगरें गया ते नगरमां नगरशेठने घेर उतरेली एवी साध्वीयें श्रीवजस्वामीनी रू Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो पसंपत्ति वखाणी ते शेवनी दीकरी सौजाग्यमंजरी सांजली तेथी ते श्री वजस्वामीने विपे अनुरागिणी थर थकी पोतानां माता पितापासें बोली के एक वरदान तमारी पासें मागवा हुं . त्यारे पितायें कह्यु के माग्य. ते वखत कन्या कहे डे के श्रीवजस्वामी विना बीजा पुरुष साथे मने वरा ववी नही. आवो बायह पोतानी कन्यानो जोइने ते नगरशेठ पोतानी कन्याने तथा एक कोटि धनने लश्ने श्रीवजस्वामी पासे जश्ने कहेवा ला ग्यो के हे प्रनो ! था कन्याने आप वरो अने कोटिधन ग्रहण करो मारी नपर प्रसन्न था त्यारे सूरीयें कह्यु के हे शेत ! ए वाक्य बोल्या ते तमो ने घटे नही. जेणे सर्व स्वधन, कनक, वगेरे त्याग कयुं वे एवा मुनिने विषयो विष समान फुःखदायक थाय ने. कहेलुं ॥ विसय विसं हालह लं, विसयविसं नक्कडं पियंताएं ॥ विसयविसायन्नंपिव, विसयविस विसोह या दुति ॥ १ ॥ कोडिसहेहिं धणसं, चयस्स गुणसुनरियाई कन्नाए ॥ न. विलुको वयर रिसी, अलोनया एस साहणं ॥ २ ॥ ए प्रकारनी वजस्वा मीनी वाणी सांजलीने ते कन्या दीक्षाने ग्रहण करती हवी. त्यां श्रीवज स्वामीना उपदेशथी अनेक जीवोयें दीक्षा ग्रहण करी ॥ २० ॥ विज्ञाय धन्याजिनधर्ममर्म, रज्यंति शय्यं नववन्न जाड्ये ॥ पी त्वा सितानावितधेनुग्धं,कोवाम्लतकार्कपयांसि पश्येत्॥२॥ अर्थः-(धन्याः के० ) सुनाग्य जाणवा. जे (जिनधर्ममर्म के०) जिन धर्मना मर्मने (विज्ञाय के० ) जाणीने (जाडये के०) जाड्यने विषे (शय्यं नववत् के०) शय्यंजवस्वामीनीपेठे (न रज्यंति के०) राग करता नथी ते धन्य ले. अर्थात् जडनावनेविपे यासक्त नथी थता ते धन्य जाणवा, शय्यं जव नट्ट मनकनो पिता दशवैकालिकनो कर्त्ता जिनप्रतिमाने जोश्ने बोध पाम्यो. अहो कष्टमहो कष्ट को तत्त्व जाणता नथी! एम साधुनां वचन सांजलीने गुरुने तत्त्व पूबीने मिथ्यात्व यागादिथकी वैराग्य पामीने प्राप्त थ ने उनयशिदा जेने एवो बतो शय्यंनवनामा आचार्य थयो. त्यां दृष्टांत कहे. (सितानावित के०) शर्करायें मिश्रित एवं (धेनुग्धं के०) गायनुं जे उध, तेने (पीत्वा के०) पान करीने (कः के०) कयो पुरुष (आम्लतक के०) खाटी बसने (वा के० ) अने (अर्कपयांसि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. २५ के०) आकडाना उधने (पश्येत् के०) जोवे ? अर्थात् खाटी गस तथा आकडाना दूध सामुं जोवेज नहिं, तो नदण तो केमज करे. __ अहिं शय्यंनव स्वामीनी कथा कहे . राजगृही नगरीने विषे मोटी स मृद्धि वालो शय्यंजवनामा नह वसे बे. ते धर्मार्थी थको लोकोने यज्ञ क रावे . एटलामा पोताने पाट योग्य पात्रने जोता एवा प्रनव स्वामी ते ना यज्ञमां बे साधु मोकल्या अने ते साधु बोल्या के अहो कष्ट महोकष्ट तत्त्व कोइ.जाणतुं नथी. एवं वचन सांजलीने शय्यं नवें साधुने पूब्यु. के त त्व ते शं? ते कहो कारण के जैनदर्शनी कल्पांतमां पण असत्य ना षण करता नथी. त्यारें साधुयें कह्यु के अमारा गुरुपासें आवो ते तत्त्व कहेशे ते सांजली तेनी साथे तेमना गुरु आगल गया. अने गुरुने पूब्यु के हे गुरो ! तत्त्व ते झुंजे ? त्यारे युरुये कह्यु के तमारो याजक कहेशे ते सांजली पाना वली तत्काल शय्यं नवें उपाध्यायने पूढे के तत्त्व ते गुंडे ? ते कहो. कारण जैनो कल्पना अंतमां पण असत्य बोलता नथी. माटे जो तमे सत्य नहि कहो तो शिरवेदमांज तत्त्व जे एम वेदवाक्य ने माटे त मारुं शिर छेदी नाखीश. एम कही हाथमा खड्ग नपाड्युं तेवार याझिको ये तेना यइस्तंननी नीचें रहेली शांतिनाथनी प्रतिमा देखाडी तेवारें श य्यंनव स्वामी प्रतिबोध पामीने सगर्ना स्त्रीने मुकीने गुरुनी पासे व्रतय हण करी अनुक्रमें थाचार्यपद पाम्या. तेमना पुत्र मनकनुं शेष महीना नुं बायु रह्यं तेवारें पोताना पुत्रने माटे दशवकालिक रच्यु. ब मासनी दीदा पालीने ते मनक पण देवलोकें गयो ॥ २१ ॥ लब्धे जडः कोपि दितेऽपि धर्मे, स्तोत्यहसौ ख्यानि शशीव राजा ॥न पंकजं नेक उपैति पंकं, क्रमेलकोनामुपैति निंबम् ॥२२॥ अर्थः-(कोपि के० ) कोइ पण (जडः के०) मूर्ख प्राणी, (हिते के०) हित करनार एवा (धर्मपि लब्धे के०) धर्म प्राप्त थये बते पण ( शशी के०) शशी नामा (राजा के०) राजानी (श्व के०) जेम (अदसौख्यानि के०) इंडियोनां सुखने (स्तौति के०) वखाणे. अर्थात् शशीराजा जिनधर्म पाम्या पली पण इंडियसुखने माटे आकांदी थयो तेनी पेठे ते जड पण Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनकथा रत्नकोष भाग पांचमो थाय ते. यांही दृष्टांत कहे बे के जेम (नेकः के० ) मेडको ( पंकजं के० ) कमलने (पैति के० ) प्राप्त थातो नथी परंतु ( पंकं के० ) गाराने प्राप्त थाय बे तथा ( क्रमेलकः के०) उंट ते ( यानं के० ) यांबाने ( नवपैति के० ) नथी प्राप्त थातो परंतु (निंबं के ० ) निंबवृदने प्राप्त थाय ते ॥ यांही शशीराजानी कथा कहे बे. शुक्तिमती पुरीने विषे सूर ने श शी बे नाइ राज्य करता हता एकदिवसें बेहुजण उद्यानने विषे श्रीशील सागर उपाध्यायनी पासें धर्मनी देशना सांजलता हता, तेमां या श्लोक श्रव को ते जेम के ॥ मानुषं नवमवाप्य दक्षिणा, वर्त्त शंखमिव ये नवांबुधौ ॥ पूरयेत्सुकृतगांगवारिणा, पापवृत्तिसुरया न चोत्तमः ॥ नावार्थ:- जे जी व मनुष्य देह पामीने नवांबुधिने विषे दक्षिणावर्त्त शंखनी पेठें सुकृतरूप गंगाजल ने पूरे, ते उत्तमजीव जाणवो. तथा जे जीव जवांबुधिने विषे मनुष्यदे रूप दक्षिणावर्त्त शंखने पापवृत्तिरूप मदिरायें करीने नरे ले ते जीव न. त्तम नहिं ॥ या गुरुवाक्य सांजलीने सुरराजा बोध पाम्यो अने ध मचरण करवा लाग्यो ने शशी राजा उपदेश समजीने इंडियसुखने नो वे बे, परंतु धर्मनुं याचरण करतो नथी. पती वृद्धनाइयें घणो समजाव्यो तो पण ते विषयासक्ति बोडी नही. पढी तेमरण पामी नरकें गयो. अने सूरराजा स्वर्गे गयो. त्यां अवधिज्ञानें करी नाइने नरकमां पडेलो जोयो तेवारें ते देव पोतें त्यां नरकमां गयो ते सूर राजानी समृद्धि जोड़ने शशी राजा पश्चात्ताप करे बे ने नाइने कहे बे के हे जाइ ! त्यां जश्ने मारा देह भेदन करो बेदन करो ने मने स्वर्गसुख मजे, तेम करो. ते सांन लीने तेने महोटो जाइ कहेवा लाग्यो के हे नाइ ! जीवरहित जडदेहनी कदर्थना करे गुंथाय ? पूर्वजन्में जीव होय तेवारें कष्ट कर होय तोज तेने सुख मजे, हवे चुं मजे ? एम कहीने ते देव पोताना स्थानक प्रत्ये गयो. कयुं वे के ॥ नरयबो ससिराया, बहु नगइ देह जालपा सुहिने ॥ प डिम नए जाउ, अंतो मे जाय तं देहं ॥ १ ॥ को तेरा जीवरहिए, ए संपयं जाइए हुक गुणो ॥ जइसि पुरा जायंतो, तो नरए नेव निवडं तो ॥ २ ॥ जावा नसावसेसं, जावय थोवोवि वि विवसा ॥ ताव करि ऊ पहिां, माससिराया वसोहेसि ॥ २२ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. २७ अष्टाब्दोपि तथा विधव्रततपः स्वाध्यायकृत्यासहो, प्युच्चैानबलेन कर्मरिपुनिर्मुक्तोतिमुक्तोमुनिः॥श त्या गबत तन्न किं हितपथं मुक्वा प्रमादोत्तरं,श्रूयं तेच मदालसा तनुनुवो बाल्येपि योगोज्ज्वलाः॥२३॥ अर्थः-हे नव्यजीवो ! ( अष्टान्दोपि के) आठ वरसनी उमर वालो एवो पण अने (तथाविधव्रततपःस्वाध्यायकत्यांसहोपि के) जे शास्त्रोक्त री तें करवा दुःकर एवां अहिंसादिक बारव्रत तथा तपःस्वाध्याय करवामांब शक्त कारण के अत्यंत नानो के. एवो पण (अतिमुक्तः के० ) अतिमुक्तना मा ( मुनिः के०) मुनि ते ( उच्चैानबलेन के०) उंचा एवा ध्यानबलें करीने (.कर्मरिपुनिर्मुक्तः के०) कर्मशत्रुथकी मुक्त थयो. (तत् के) ते कारण माटे ( शक्त्या के० ) पोतानी शक्तियें करी हे नव्यो ! (प्रमादोत्तरं के )प्रमादथकी उत्तर अर्थात् बालस्य तेने (मुक्त्वा के०) मूकीने ( हित पथं के) हितमार्गप्रत्ये (किं के ) केम ( नगनत के० ) जाता नथी? त्यां दृष्टांत कहे . जेम के (मदालसातनुनुवः के० ) मदालसाना पुत्रो, (बाव्येपि के०) बालपणामां पण मातायें बोध कस्या बता दीदा लश्ने (यो गोज्ज्वलाः के०) ध्यानमा निर्मल थ६ गया. एम (श्रूयंते के०) संजलाय ॥ __ आंहिं अतिमुक्तकषिनी कथा कहे जे. शावस्ती नगरीनेविषे रत्नादित्य नामा को शेठ वसे बे. तेनो पुत्र अतिमुक्त नामा हतो. तेणे ब वर्षनी उमरमां श्रीशीलंधराचार्यनी पासें दीक्षा ग्रहण करी. एक दिवस श्रीगुरु नी साथै बहिर्नूमिकायें गयो. गुरु जल लश्ने बीजे ठेकाणे जुदा गया. अ ने ते दुनक हतो ते पोतानी पासें कांचनी हती तेने लघु तलावनेविषे फेंकी दीधी अने ते काचली जलमां तरवा लागी त्यारे ते अतिमुक्तनामा हुनक कहेवा लाग्यो जे जुवो नाइन आ मारी बेडी तरे ले ए प्रकारे बो लता ते पुत्रने गुरुयें दीठो, पनी ज्यारे पोताने स्थानकें व्यो त्यारें गुरु ये कह्यु के, तुने मोहोटुं पाप लाग्युं कारण के तें मृत्तिकानी अने नीरनी विराधना करी. माटें पथिकी रूडी रीतें पडिक्कम ते सांजली ते र्याप थिकीने अर्थथी प्रतिक्रमतो बतो “ दगमट्टीमकडा” ए पद तथा अर्थनो उच्चार करतो शुक्लध्याने करी केवल ज्ञानने प्राप्त थयो. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो, था काव्यमां बीजी मदालसानी कथा , ते कहे . कांचनपुर। विषे ऋतुध्वज राजा राज्य करे . तेनी मदालसा नामे पट्टराणी हती. तेणें अनुक्रमें संसारजोगने नोगवतां पुत्र प्रसव्यो राजायें पुत्रजन्म महोत्सव कस्यो. ते बालक पारणामां पोढयो बतो रुदन करे . त्यारे ते मदालसा तेने हिंचकावती या श्लोक कहे जे के ॥ मृत्योर्बिनेषि किं बाल, सच नी तं न मुंचति ॥ अजातं नैव गृह्णाति, कुरु यत्नमजन्मनि ॥ नावार्थ:-हे बालक! मृत्युथकीशा माटें जय पामे ? ते मृत्यु बीहीता प्राणीने पण मुकतुं नथी. अने जे नत्पन्न थातो नथी तेने काल पण ग्रहण करतो न थी. माटें तहारो फरी संसारमा जन्म न थाय तेवो नपाय कर. एवो थ र्थ जाणीने बालक पण वैराग्यने प्राप्त थयो, रुदन करतो बंध थयो आठ वरसनो थयो त्यांज तेणे योग ग्रहण कस्यो. एम सात पुत्रो मदालसाना उपदेशे करी बालपणामांज तपस्वी थइ गया ॥ २३ ॥ शीलं तपश्च बलदेवमुनिश्चरित्वा, दानं प्रदाय रथकृत्रितये ऽप्यशक्तः॥ एणोमुदा तदनुमोदनया सुरोऽनूत्, योगादि सिक्ष्मिगमच्चतुरंगितांहिः ॥२४॥ शक्तिधारं संपूर्णम् ॥ अर्थः-(त्रितये के ) शील, तप, नावने विषे ( अशक्तोपि के०) अ शक्त एवो पण (रथरुत् के०) रथकार सूत्रधार, ( दानं के०) दानने (प्रदाय के०) दश्ने (सुरोऽनूत के०) देवता थतो हवो. अने (बलदेवमुनिः के०) बलदेव मुनि, (शीलं के०) शीतने (च के०) वली (तपः के०) तपने (चरित्वा के०) आचरण करी देवता थयो तथा (एणः के० ) हरिण द तो ते ( मुदा के० ) हर्ष थकी (तदनुमोदनया के०) दान शीलना अनु मोदने करीनेज (सुरोनूत् के०) देवता थयो. (हि के०) यस्मात् (चतु रेगितांहिः के०) चतुरंगी इति प्रसिद (योगात् के०) सारा जीवना यो गयकी (सिर्वि के० ) सिधिने (अगमत् के० ) प्राप्त थयो. आहीं बलदेवमुनिनी कथा कहें बे, नवम वासुदेव श्रीकृष्ण लघु ना विपन्न थये बते तेमना महोटा नाइ बलदेव वैराग्य पामी व्रत ग्रह ण करी तुंगिका पर्वतनी उपर तप करतो हतो एक दिवसें कोइ नगरने वि थे थाहारने अर्थे जातां कूवाना कांठा उपर रहेली को स्त्री ते कृषिने Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. २० दीग. ते मुनिनुं रूप जोवाथी यादित य एवी ते स्त्रीयें घटने बदले पोताना ढोकराना गलामां दोरडानो फांसो घाल्यो. ऋषियें जोड़ने कं के घरे या शुं करे बे ? एम कही ते बोकराना कंठमांथी दोरडी काढी ली धी. पढी ते ऋषियें जाएयुं जे धिक्कार बे मारा रूपने के जेथकी आवां य कार्य था, माटे महारे प्राजथी कोइ दाहाडे पारणुं करवा नगरमां जा कुंज नही. पी एक दिवसें ते पर्वतनेविषे काष्ठकापवानें माटे मोहोटा सा थने लेने कोइ रथकार श्राव्यो तेने जोइ ते मुनिनी साधें रहेलो मृगलो जातिस्मरणज्ञानेकरीने ते बलदेवमुनिने पारणार्थे त्यां सुतार पासें लाव तो हवो. ते रथकार मध्यान्हें अतिथिने प्राप्त थयेला जोइने हर्षित थयो ant ननो रेल पोतानो थाल लावी देवाने उत्सुक थतो हवो कृषि ये पात्र घरी वहो ते वखत हरिणें ते दाननुं अनुमोदन करूं तेज व सरने विषे. ई कपाइ गयेली एवी जाडनी शाखा वायुना जोरथी नांगी गाने ते त्रणे उपर पडवाथी ते त्रणेय मरण पामीने ब्रह्मदेवलोकने विषे देवता थया कह्युं ने के ॥ अप्पदिय मायरंतो अणुमोतो सुह गई लहई ॥ रहकार दाणुमो, अगोत्र मिगो जहय बलदेवो ॥ शमेन सिध्यंति मतानि कृष्णा, नु जर्पिवत्तीव्रत पोस्तु वा मा ॥ दि नाधिनाथेन कृतेऽन्नपाके, संधुक्षणं कः कुरुतेऽनलस्य ॥ २५ ॥ अर्थः- ( शमेन के० ) समतायें करीने ( मतानि के० ) मनोनिष्ट (क ष्णानुजर्षिवत् के० ) कृष्णानुजऋषिनी पेठें (सिकांति के० ) सिद्ध थाय मांटे (तीव्रतपः के० ) तीव्रतप, ( यस्तु के० ) हो ( वा के०) अथवा ( मा के० ) म हो. तथापि समतायें करी सर्व अभीष्टसिद्ध थाय बे. जेम कृष्णनो अनुज एटले नानेरो नाइ गजसुकुमाल ऋषि तपविना श्वसुरे क रेला मिना कष्ट सहन करतो बतो सिद्धिने पाम्यो तेनी पेठे सिद्धिने पा बे. त्यां दृष्टांत कहे बे. ( दिनाधिनाथेन के० ) सूर्ये करी ( अन्नपाके ad ho) अन्नपाक करे बते ( कः के० ) कयो पुरुष, ( नलस्य के० ) अमिनुं (संधुणं के०) सलगाववुं तेने ( कुरुते के० ) करे. ना कोइ न करे. यांही गज सुकुमालनी कथा कहे बे. द्वारिका नगरीने विषे श्रीकृष्णवासु देव राज्य करे बे. तेनो नानो नाइ गजसुकुमाल नामें हतो, ते सर्व दशार्द Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. ने घणोज वालो हतो ज्यारे युवान थयो त्यारें श्रीकृष्मे तेने बे कन्या प रणावी श्रीनेमीनाथनी पासें धर्म देशना सांजली प्रतिबोध पामी बेदु कन्या नो त्याग करी ते दिवसेंज व्रत ग्रहण करतो हवो. तेणे नगवानने पूज्यु के महाराज! मने क्यारे क्यां मोक्षप्राप्ति थाशे प्रजुयें कडं के,हमणांज स्मशा नमा जो कायोत्सर्ग करे, तो मोद थाय. आ वात गजसुकुमाल सांजली ने स्मशानमां जश् कायोत्सर्गमां उनो रह्यो. ते समयने विषे श्वसुर सोमि लनामा ब्राह्मणें तेने जोयो अने ते केहेवा लाग्यो के हे पापी! मारी पु त्रीने मुकीने आवो आ पाखंझ झुं करे ने ? एम कहीने ते मुरात्मायें खे रना काष्ठना अमिना अंगारानुं गाडं तेनी उपर नारख्यु अने त्यांथी चा व्यो गयो. ते गज सुकुमाल समता आणी उपसर्गने सहन करतो तो बलतां बलतां केवलझान पामीने सिधिने प्राप्त थतो हवो कहेलु डे के ॥ सपरिक्कम्मराउल,वाईएण सीसे पलिवीए नियए॥ गयसुकुमालेण खमा,तहा कया जहा सिवं पत्तो ॥ १ ॥ ॥ २५ ॥ प्रीत्यै शमी स्वपरयोरपि चमरु, शिष्योयथात्मनि गुरावपि केवला ॥ सप्तर्षिसंगतिमवाप्य विशा खनामा,चौरोऽप्यनूदिलसज्ज्वलदिव्यशक्तिः ॥२६॥ अर्थः-( शमी के ) उपशम करनारो प्राणी, ( स्वपरयोरपि के० ) पो ताने तथा परने पण (प्रीत्यै के० ) प्रीतिने माटे थाय . (यथा के०) जेम (चंमरुशिष्यः के०) चमशचार्यनो शिष्य (केवला के०) केवलका ननी दियें करीने (आत्मनि के०) पोतानेविषे तथा (गुरावपि के०) चम रुझचार्यनामा गुरुने विपे प्रीति पात्र थयो. वली लुंटवाने आवेलो (विशाखः नामा के०) विशाख नामा (चौरोपिः के०) चोर पण तीर्थयात्राने माटे या काश माथी उतरता एवा (सप्तर्षिसंगति के०) सात ऋषिनी संगतिने (अ वाप्य के०) पामीने (विलसज्ज्वलदिव्यशक्तिः के०) प्रकाशित के उज्ज्वल दिव्य कीर्ति जेनी एवो थयो. वली “फाड घोडो संसार थोडो” एम बोलतो बने घोटकना वृदनी चौतरफ बार वरस फरतां फरतां ते दिव्यशक्तिवालो थयो तेज सात ऋषिना उपदेशथी वाल्मीकीज्ञषि एरीते प्रसि६ थयो. आमां बे दृष्टांतमांप्रथम चंमरुना शिष्यनी कथा कहे . ताम्रलिप्ति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ३१ नगरीनेविषे गंगदत्तनामा शेठनो सागर नामेंपुत्र हतो तेने पितायें रुडा कुल नी कन्या परणावी. ते पुत्र पोताना सालानी साथे चमरुइगुरुने उपाश्रयें गयो. त्यारे तेना सालायें मशकरी करी जे हे कुमार! तुं युं गुरुपासेंथी दीक्षा ग्रहण करीश ? ताहरे तो गुरुनो पड मूक नहिं एम पोताना बनेवीने कहीने पढ़ी गुरु प्रत्ये कहेवा लाग्यो हे महाराज! आने दीक्षा आपो. ए प्रकारें साले नपहासथी कहे बते गुरुयें कोपायमान था नस्में करी तेना शिरनुं चुंबन कमु. पड़ी ते कुलीन पुत्र गुरुने कहेवा लाग्यो के, आ नगरने तमे मूकी दीयो, नहिं तर मारा स्वजनो मनें व्रतनो त्याग करावशे त्यारें गुरु कहे मारी पीमीमां चालवानी शक्ति नथी माटे ढुं चाली शकुं नहिं. तेवारे ते शिष्य गुरुने पोताना स्कंधपर बेसाडीने रात्रिये गाम मूकी चाल्यो गयो उंची नीची जंगामां चालतां गु रुने ज्यारे ध्रशको लागे त्यारे ते गुरु शिष्यने दमयी ताडन करे अने उर्व चन कहे. जे हे पापिष्ट ! सारा मार्गमां केम चालतो नथी? त्यारे शिष्य कहे के हे महाराज! दमायें करी महारो अन्याय सहन करो. दुं अप राधी बु एम पोताना स्वरूपने निंदतो निंदतोज केवलज्ञान पाम्यो ते वात गुरुने जाणवामां आवी तेवारें गुरु पण ते शिष्यने पगें पड्यो अने मिथ्या दुष्कृत देता गुरुने पण केवल ज्ञान उत्पन्न थयुं. हवे बीजी विशाख चोरनी कथा कहे . कांपिढ्य नगरनेविषे वलन नामा श्रेष्ठी वसे . तेनो विशाख नामा पुत्र ते बापने अत्यंत वालो हतो. तेथी बालपणामांज ते पुत्रने सर्वकलामां कुशल अने सर्व शास्त्रनो पारगामी कस्यो तेने यौवनावस्थामां सारी तदनुरूप कन्या परणावी एक दिवस रस्तामां चालतां कौतुकें करी जुगारना स्थानमा जश्ने बेगे. त्यां थोडे थोडे तेने द्यूत रमवानुं व्यसन थयु. द्यूत रमतो तो सर्वस्व हारवा लाग्यो पितायें वायो तो पण रम्या विना रहे नहिं एम करतां बापना घरनी सघनी पुंजी हारी गयो. एक दिवस ते पापीयें वनमा फरतां मूर्ति मंत उपरामरूप एवा सप्तरुपिउने जोया. तेवारें तेनी समीपें यावीने बेटो तेणें धर्मोपदेश कस्यो ते विशाख, लघुकर्मी होवाथी दीक्षा ग्रहण करी तेने अतिचार रहित पालीने सौधर्म देवलोके देवता थयो. इतिशमप्रकरणं ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. व्रतमपि बढु चीर्ण सातिचारं कुगत्य,दिनमपि शुचि मुक्त्यै पुंमरीकादिवत्तत् ॥ अहह दहति चित्रावारिपूरोऽपिशस्यं, नृशमपि कशपाथः स्वातिनं पाति जंतून् ॥ २॥ अर्थः-(व्रतमपि के० ) व्रत जे जे ते पण ( सातिचारं के०) अति चारोयें सहित (बहु के ) जाफा दिवस सूधी (चीर्ण के० ) पायुं होय, तो (कुगत्यै के० ) माठी गतिने माटे एटले नरकने माटे थाय . (त त् के) तेज व्रत, (दिनमपि के०) एक दिवस पण (शुचि के) निरति चार पणायें करीने पाल्युं होय तो (पुंडरीकादिवत् के० ) पुंमरीक कुंमरी क वे नानी पेठे थाय . जेम कुंमरीके घणा दिवस पर्यंत व्रत पाल्यु पण सातिचार व्रत पाल्युं तेथी तेने ते नरकने माटे साधननूत थयुं बने पुं मरीक तेनो नाश हतो तेणे थोडो काल व्रत अतिचाररहित पाल्युं तो तेने मुक्तिने माटे साधन थयुं. तेम बीजाने पण जाणवू त्या दृष्टांत कहे ले (अहह के०) खेदकारक ने के (नशमपि के०) अत्यंत एवो पण (चित्रावा रिपूरोपि के०) चित्रा नक्षत्रमा वरसेला मेघना जलनो समूह डे ते पण (श स्यं के०) धान्यने ( दहति के० ) बाली नाखे बे. अने ( स्वातिजं के०) स्वातिनक्षत्रमा वरसेलुं एबुं ( कशपाथः के० ) थोडं एवं जल ते ( जंतून् के० ) सर्व प्राणीने (पाति के०) रक्षण करे बे. हवे बातेकाणे कुंमरीक तथा पुमरीकनी कथा कहे जे.पुष्कलावती विज यमा पुमरिकिणी नामनी नगरीनेविषे पुंमरीक कुंमरीक नामनाबे नाश्य राज्य करे बे. एक दिवस ते बेहुयें गुरुनी पासें देशना सांजलीने बेदुजणा व्रत लेवाना अर्थी थया. एक कहे के ढुंदीक्षा ग्रहण करीश. बीजो नाई कहे जे दुं दीदा लश्श, पड़ी को रीतें वृक्ष नाश्नी आज्ञा लेश्ने नानो नाश कुंमरीक दीदा ग्रहण करतो हवो. तेणे हजार वरस दीदा पालन करी ज्यारे ते कुंमरीक मांदो थयो त्यारे ते कृषिने पुंमरीक राजायें पोताने घेर राखी सेवा करी. ते कुंमरीके रसलांपट्यथकी दीदा मूकी दीधी. थ त्यंत थाहारना प्रयोग करी गूढविशूचिकानो रोग उत्पन्न थवाथी वैद्योयें कडं के आ रसलोलुप डे माटे एने औषध कर अयोग्य जे एम मानी औषध न करवाथ। ते रौपथ्यानेकरी मरण पामी नरकमां गयो. पड़ी पुंक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. रीक तो मनःशुधियें करी थोडा दिवसज दीक्षा पालीने सर्वार्थसिद्धिविमानने विषे देव थयो ॥वास सहस्संपि जइ, काकणं संजमं सुविनलंपि ॥ अंते कि लिहनावो, नवि सिऊर कंमरी व ॥१॥ अप्पेणवि कालेणं, केवि जहा ग हिय सील सामन्ना ॥ साहंति नियय कङ,पुमरीय महारिसि व जहा ॥२॥ व्रतेन शुचिनापि किं किमथ सजुरूपासनै, रुदायिनृपमा रकश्रमणवत्सपापात्मनः ॥ शिरःस्थविषहन्मणिः फणिगणः किमानंदनः,स चंदनवनस्थितः किमथ वा जगत्तापहृत्॥२॥ अर्थः-( सपापात्मनः के) पापयुक्त जेनुं मन एवा पुरुषने (शु चिना के०) पवित्र एवा (व्रतेनापि के०).व्रतें करीने पण (किं के०) गुं? कांहिज नहिं. वली (अथ के०).ए थकी अनंतर (सनुरूपासनैः के०) सा रा गुरुनी उपासनायें करीने पण (किं के०) झुं ? तो के कांहीज नहिं. केनी पेठे ? तो के ( नदायिनृपमारकश्रमवत् के०) उदायिनृपने मारनार श्र मरानी पेठे, जेम ते पापात्मा उदायि राजाने मारवाने माटे श्रमण थयो. हवे त्यां दृष्टांत कहे . ( शिरःस्थविषहृन्मणिः के०) शिरने विषे रह्यो ने विषापहारी मणि जेने एवो (फणिगणः के०) सर्पसमूह, मनुष्यने (किं के०) झुं (आनंदनः के०) आनंदनो देनारो थाय . ना थातो नथी,प रंतु प्रध्वंसक थाय बे. (अथवा के०) अथवा (चंदनवनस्थितः के०) चंद नवननेविषे रह्यो एवो ( सः के०) ते सर्पगण (जगत्तापहृत् के०) जग तता तापने हरण करनारो (किं के०) झुं थाय ? ना थातो नथी. या तेकाणे उदायिनृपमारक इव्यसाधुनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . श्रेणिक माहाराजाना पुत्र कोणिक नृपति तेनो पुत्र नदायी राजा पाडलीपुरने विषे राज्य करतो हतो. ते राजायें पोताना प्रचंमदोर्दमना बलें करी सर्व सामंत राजाउने स्वाझापालक कस्या. पडी ते सर्व राजा उयें शेषनावथी घणुं इव्य आपी कोइ एक अधम क्षत्रियने उदायिनृपने मारवाने माटे पाडलीपुरमा मोकव्यो. ते अधम दत्रिये बीजो उपाय न जडवाथी कपटें करी सूरिपासें व्रत ग्रहण कयं अने ते सूरि, अष्टमी, चतु दशी,पूर्णिमा,एटला दिवसने विषे सुधर्मना उपदेशने माटे राजनवनने विषे रहेता. बारमा वरसनी आखेरीमा जंघामां बरी बांधी ते कपटीपण सूरीनी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनकथा रत्नकोष भाग पांचमो. साथें त्यां गयो पड़ी अवकाश जोड्ने लोहनी बरीथी तेणे उदायि राजाने चीरी नाख्यो. गुरु जाग्या पनी धर्मना काहनी बीकथी गुरुये पोतानुं शिर बुरीथी कापी नारव्यु. कह्यु डे के ॥ चेश्यदव विणासे,रिसिघाए पवयणस्स नफाहे ॥ संजय च नंगे, मूलग्गीबोहि लानस्स ॥ १ ॥ २७ ॥ साधोरहाय सिद्धिः सुचरणकरणैः श्रावकस्यापि हि स्या, न्मध्येष्टानां नवानां शशिविशदगुणानंदनानंदटत्तैः ॥ चेन्नौनिः शीघ्रगानिर्जलधिजलपथैस्तीरदेशेषु पांथाः, के चिद्यांत्याशु नान्ये हयकरजरथैर्नुपथैः किं क्रमेण ॥३॥ अर्थः-(साधोः के० ) साधुनां (सुचरणकरणैः के०) रूडां एवां चारि जना करणे करीने ( अह्नाय के०) शीघ्रं ( सिदिः के० ) सिमि, ( स्यात् के ) होय (श्रावकस्यापि के० ) श्रावकनी पण ( शशि विशदगुणानंद नानंदवृत्तैः के० ) चश्मा सरखा निर्मल आनंदश्रावकना वर्जनेकरी (हि के) निों (अष्टानां के ) पाठ एवा (जवानां के०) नवनी ( मध्ये के) मध्यमां सिदि थाय बे. त्या दृष्टांत कहे जे (पांथाः के०) पथिक जनो ( शीघ्रगानिः के० ) उतावलथी चालती एवी ( नौनिः के० ) नौ कायें करीने ( जलधिजलपथैः के) समुशंतर्जलमार्गे करीने ( तीरदेशेषु के०) समुश्ना कांठाने विषे (यांतिचेत् के०) जाय खरा. परंतु (केचित् के) को एक (अन्ये के०) बीजा पथिको (हयकरजरथैः के०) घोडा, हाथी अने रथेकरी (नूपथैः के०) नूमिमार्गे करी (क्रमेण के०) अनुक्रमें (किं के०) गं (आशु के०) उतावलथी (न यांति के०) नथी जाता? श्रा तेकाणे यानंदश्रावकनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . आनंद नामा कौटुंबिक श्रीवीरवचनना प्रतिबोधे करी बोध पामेलो हतो श्रमणोनी उपासकतायें करी जगत्मां कीर्तिपात्र थयो हतो. तेने घेर चार गायोनां गोकुल हता. तथा तेनां पांचशे वाहाण चालतां हतां, तथा पांचशे हल खेडाय तेटली जमीन तेने हती. तथा बार करोड इव्य हतुं. एम घणो प्रारंन हतो ते बतां पण तेना शुमनें करी तेनो मोद थोडा अवतार मां थयो, कहेलुं ने ॥ मनःशुक्ष्मिबित्राणा ये, तपस्यंति मुक्तये ॥ त्यक्त्वा नावं नुजान्यां ते, तितीर्पति महार्णवम् ॥ १ ॥ तदवश्यं मनःशुदि,मिलता Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ३५ पुरुषेण वै ॥ तपःश्रुतयमप्रायः, किमन्यैः कायदंमनैः ॥॥ आ श्लोकनो नावार्थ:-मननी शुद्धिने न धारण करता एवा जे पुरुष मुक्तिने माटे तप करे ले ते केवा जाणवा के जेम कोई मूर्ख मनुष्य नावने मूकी समुश्ने हा थथी तरवाने जे तेवा जाणवा ॥ माटे अवश्य करी मनःशुद्धिने बनार पुरुषने बीजा तपादिकें करीने गुं? कांहीज नहिं. जो मनःशुद्धि होय तो सर्व लान प्राप्त थाय ने मनःशुद्धि विना जे करीये ते सर्व व्यर्थ थाय ॥२॥ सम्यक्त्वोदारतेजा नवनवफलदा वर्तरूपव्रतालिः, सिहां तोक्तैकविंशत्यमलगुणगतिः श्राधर्मस्तुरंगः ॥प्रापय्यांतं नवार्नयति शिवपुरं कामदेवादिवत्तत् , मिथ्यावाधीश शंकादिकलयहरतोः यत्नतोरहणीयः॥३०॥.श्रावकत्वं ॥ अर्थः- ( सम्यक्वोदारतेजाः के० ) सम्यक्त्वरूप डे नदार तेज जेने विषे एवो तथा (नवनवफलदावर्तरूपव्रतालिः के०) नवीन नवीन फलदा यक चक्रकुंमाली समान हादशव्रतपंक्ति ,जेमां एवो तथा (सिमांतोक्तैकविंश त्यमलगुणगतिः के०) सिद्धांतोयें कहेला एवा एकवीश गुणो ते रूप डे गति जेने एवो ( श्रा-धर्मस्तुरंगः के० ) श्रावकना धर्मरूप अश्व, ते ( कामदे वादिवत् के०) कामदेवादिक श्रावकोनी पेठे (जवाई के०) संसार पर्वतना (अंतं के०) अंतने (प्रापय्य के०) पमाडीने (तत् के०) ते (शिवपुरं के०) मोदनगर प्रत्ये (नयति के) पमाडे , माटे ते (मिथ्यात्वाधीशशंकादिक नयहरतः के०) मिथ्यात्वरूप राजाना शंकाकांदादिकरूप अश्वचोरो ते थ की ( यत्नतः के ) यत्ने करी ( रक्षणीयः के०) रक्षण करवा योग्य . यांहि कामदेवादिकनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . कामदेवनां मा कौटुंबिक ते इक्षियें करी पूर्व कह्यो एवो यानंदश्रावक समान ने. ते दृढ सम्यक्त्व पालनारो होवाथी अष्टम्यादिक पर्वतिथिनेविषे स्मशानमा कार्योत्सर्ग करे ले. एक दिवस महाराज दृढसम्यक्त्व विषे तेनी प्रशं सा करी. ते सांजली कोक देवतायें आवी मदोन्मत्त हाथीनुं तथा नुजं गर्नु तथा व्याघ्रनु, सिंह चित्रविचित्ररूप विकुर्वी कायोत्सर्गमा रहेला का मदेवने दोन पमाडवा उपाय कस्या, परंतु तेथी ते लगारमात्र पण दुनित थयो नहीं. कहेलुं ले के, देवेहिं कामदेवो, गिहिवि नविचालिउ तवगुणेहिं॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मत्तगयंद यंगम, ररकस घोरट्टहासेहिं ॥२॥ धन्नासलाहणिजा ॥ ३० ॥ ॥ अथ मृषावादछारं ॥ धर्माणां गुरुरेव जंतुषु दयाधर्मस्ततः संस्थितः, श्रीवजायुधचक्रवर्तिसदृशां नो संगमादेर्हदि ॥ लायां कनकाचलस्य रमते कल्पमोनो मरौ, किं चैरावणवारणः कुनपतेधीरेस्ति यः स्वस्पः तेः॥३१॥ अर्थः-(जंतुषु के०) प्राणीयोने विषे (दयाधर्मः के०) दयारूप जे धर्म, ते (धर्माणां के०) धर्मोनी मध्ये (गुरुरेव के) श्रेष्ठज . (ततः के०) तेमाटे (श्रीवजायुधचक्रवर्तिसदृशां के०) श्रीवजायुध चक्रवर्ति समान पु रुषोना (हृदि के०) हृदयने विषे ( संस्थितः के०) दयारूप धर्म रहेलो ते दयाधर्म, (संगमादेः के०) संगमादिक नव अनव्यना हृदयने विषे (नो के०) नथी रहेतो ते नव अनव्योनां नाम कहे जे ॥ संगमय कालमरिक विला अंगार पालयाऽन्नि ॥ नोजीव गुरु माहिल, उदानिव मार चे व ॥१॥ ए नव अनव्य जाणवा. संगमदेव अजव्य हतो तेणे श्रीम हावीरस्वामीने नपसर्ग कस्यो. याहिं दृष्टांत कहे . (कल्पमः के०) क स्पद, ( कनकाचलस्य के० ) मेरुपर्वतनी (चूलायां के) चूलिकानी । पर ( रमते के० ) रह्यो . परंतु (मरौ के०) मरुस्थलिनेविषे (नो के०) रहे नहिं. तथा वली (यः के० ) जे (ऐरावणवारणः के० ) अहिरावण नामा हस्ती ते (स्वःपतेः के० ) इंश्ना (हारे के० ) हारनेविषे (अस्ति के०) बे (च के० ) वली (कुनृपतेः के० ) उष्टराजाना घरने विषे ( किं के) युं होय ? ना होयज नहिं. तेम दयाधर्म सकलधर्ममां मोहोटो ले ते वजायुध जेवा महोटा पुरुषोना हृदयमा रह्यो ने एम जाण ॥ ___ अहिं हवे वजायुध तथा संगमदेवना दृष्टांत होवाथी वेदुनी कथामां प्रथम वजायुधनी कथा कहे . कांचनपुरनेविषे श्रीवजायुध नामा राजा राज्य करे . ते महापराक्रमी होवाथी शरणे आवेला जीवोनी रक्षा करवा मां कुशल हतो. तेथी तेनुं नाम जगतमा वजपंजर करी सदु कहेता हता. एक दिवस सनानेविषे इंश्महाराजें तेनुं दयाधर्मसंबंधि पराक्रम वर्णव्युं. ते वातमां अक्षा राखनारा बे देवता प्रत्यक्ष पराक्रम जोवाने माटे आ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ३७ व्या. तेमां एकजणें पारेवानुरूप धारण कयुं अने एकजणे शीचाणा पदी नुं रूप धारण कयुं तेमां पारेवानुं रूप धारणकरनार देवता मारी रक्षाकर मारी रक्षा कर. एवां वचन बोलतो बोलतो वजायुधना खोलामां आव्यो. पब वाडे सींचाण पदीना रूपने धरनार एवो देव बोल्यो के ए मारूं नक्ष्य ले ते तुंमने आप. एम बोलतो बोलतो याव्यो. अने कहेवा लाग्यो के हे राजन् ! तुने क्यां दया ने जेमाटे मारूं नय जे पारेवु पदी तेतें ग्रहण कयुं. तेने राजाए कह्यु के तुने जे रुचे ते तुं खावानुं माग्य. त्यारे सींचाणे कयुं के मां सविना मने काइ रुचतुं नथी माटे महामांस मने तुं आप. त्यारे राजाये पोताना अंगनुंज बेदन करीने अर्पण करवा मांझयु. ते पनी त्रांज मगा वी, एकत्राजवामां पारेवाने बेसाडयुं अने एक बाबडामा पोतें वेठो. एवं तेनुं साहस तथा शरणागत रणव जोश्ने देवता तुष्टमान थया अने प्रत्य .द थ कहेवा लाग्या के तारी कीर्ति अमे इंश्महाराजपासें सांजली पण ते वात उपर अमोने श्रदान थइ तेथी तारी पासें प्रत्यद पारखं जोवा आ व्या. परंतु शरणागतना रदणमांप्राण खोवामाटे पण तुं नत्कंठित थयो एम कहीने ते देवता देवलोकमां गया. ते राजा वजायुधना नवथकी स्वल्प नवें ज श्रीशांतिनाथनामा शोलमा तीर्थकर था. यतः॥जो अत्तणोहिएसी,अ नयंजीवाण दिऊ निचंपि॥जह वजाह जम्मे,दिन्नं सिरिसंति नाहेणं ॥१॥ हवे बीजी संगमदेवनी कथा कहे . एक दिवस सौधर्मे देवताउनीमा गल वीरनगवाननुं सत्त्व वखाण्यु. जे त्रण नुवनमां पण श्रीवीरनगवानने कोई दोन करी शके नही. ते वचन न मानतो एवो संगमदेव, अनार्यदे शमां पोलास चैत्यने विपे कायोत्सर्गमा रहेला एवा श्रीवीरनगवाननी स मीप आवीने तिहां हस्तीनुं रूप विकुर्वीने पोताना घुमादमें नपाडी उपाडी ने प्रचुने गगनने विषे नलाली नारख्या. तो पण वीरनगवान् दोन न पाम्या पली प्रनुनी उपर रजनी वृष्टि करी. पली सर्प थश्ने जगवानने मश्या, एम एकज रात्रिमा वीश उपसर्गो कस्या. तो पण दोन न पामता एवा प्रनुने जोइने प्रजुना मस्तकनी नपर चक्र मूक्यु. तो पण परानव न पाम्या. एवा माहासत्त्ववाला प्रनुने मानीने पगे पज्यो. पठी सौधर्म देवलोक प्रत्ये जतां इं तेने वजे करीमायो अने स्वर्गथकी ते उष्ट देवने काढी मूक्यो ते हाल मेरुनी चूलिका नपर रहेलो ने ए अजव्य जीव अनंतसंसार पर्यटन करशे ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. एका जीवदयैव नित्यसुखदा तन्नेमिना स्वामिना, कन्या राज्यधनादि फल्गु तृणवत् संत्यज्य सैवादृता ॥ सोऽर्द न्वास्य किमुच्यते निजदिते नान्योऽपि मंदायते, किं कस्या प्यजरामरत्वमथवा नेष्टं सुखं शाश्वतम् ॥३३॥ अर्थ :- (एका के० ) एक एवी ( जीवदयैव के० ) जीवदया जे तेज ( नित्यसुखदा के ० ) निरंतर सुखने देनारी बे, ( तत् के० ) ते कारण मा टे (मिना स्वामिना के० ) नेमनाथ स्वामीयें ( कन्याराज्यधनांदि के० ) स्त्री राज्य, धनादिक ( फल्गु तृणवत् के० ) सडेला घांसना तरणानी पेठें ( संत्यज्य के ० ) त्याग करीने ( सैव के० ) ते जीवदयाज ( चाहता के० ) अंगीकार करी बे. ( वा के० ) अथवा ( सः के० ) ते ( अर्हन के० ) ती इ कर ले. माटे (स्य के० ) एने ( किमुच्यते के० ) गुं कहीयें अर्थात् ते तीर्थंकर दयाधर्म पाले तेमां तो गुंज कहेवं ? परंतु (अन्योपि के ० ) कों 5 बीजो जन पण (निजहिते के० ) पोताना हितमां (नमंदायते के०) मंद याचरण करतो नथी. ( अथवा के० ) अथवा ( कस्यापि के०) कोइ जी वने ( अजरामरत्वं के० ) अजरामरपणुं तथा ( शाश्वतं के० ) शाश्वत एवं ( सुखं के० ) सुख ( किं के० ) गुं ( न इष्टं के०) नथी सारुं लागतुं ? र्थात् सर्व प्राणीने सारुं लागेज बे ॥ ३२ ॥ ग्राहीं नेमिनाथ भगवाननुं ह टांत होवाथी तेमनी कथा प्रसिद्ध बे ते माटे याहीं लखता नथी. संकटेपि न महान मृपा वदे, दत्तमातुलककालिकार्यवत् ॥ चंदनः सुरनिरइमघर्षणे, पीतुरनुतरसोपि पीलने ॥ ३३ ॥ अर्थः - ( महान के० ) माहापुरुष, ( संकटेपि के० ) संकटने विषे प ए ( न के० ) नहि (मृपा के०) जुतुं ( वदेत् के०) बोले. केनी पेठें ? तो के ( दत्तमातुलक के० ) दत्तपुरोहितनो मामो ( कालिकार्यवत् के० ) का किसूरि गणधरनी पेठें. अर्थात् जेम कालिकाचार्य संकटमां खोडुं बोलता न हता तेम महान् पुरुष कष्टमां पण जुतुं न बोले. कह्युं बे के ॥ जीयं का कण पणं, तुरमणिदत्तस्स कालि खण ॥ यविय सरीरं चत्तं, नयन लिय महम्म संजुत्तं ॥ १ ॥ हवे याहिं दृष्टांत कहे बे. ( चंदन : के०) चंदन ते ( घर्षणेपि के० ) पाषाणनी सार्थे पीलवामां पण ( सुरभिः के०) सु Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ३ए गंधमय थाय . तथा (श्कुरपि के०) शेरडीनो सांगे पण (पीलने के०) पीलवामां (अनुतरसः के) अनुतरस रूप थाय जे. अर्थात् अपूर्व स्वाद मय थाय ने ॥ ३३ ॥ __ आहिं कालिकाचार्यनी कथा कहें . तुरमिणी नगरीने विपे दत्तराजानो मातुल कालिकाचार्य आव्या,तेमने एकदिवस दत्तराजायें पूज्यु के महारा ज! यज्ञ करवानुं झुं फल ले ? त्यारे गुरुयें कह्यु जे एमां हिंसा होवाथी महापाप थाय जे. त्यारे दत्तराजायें कडं के महाराज ! हुँ पूडं बुं तेथी उस टो जबाब शा माटे आपो बो? ढुं तो यज्ञ करवाथी फल झुं थाय? एम पु बुबु तेने गुरुये कह्यु के नरकमां जq एज यज्ञनुं फल के वली राजायें पु ब्युं के तेवारें दुं मरीने क्यां जश? गुरुयें कडं तुं नरकमां जश्श. ते सांजली कोधायमान थश्ने राजायें पुब्यु के तमे मरण पामीने क्यां जाशो, तेवारे गुरुयें कडं के हुँ स्वर्गमां जश्श. तेवारें राजायें पूयुं महारं आयु केटलुं ? तेने गुरुयें कह्यु सातदिवस, ताहरूं घायुष्य , ते सांजली राजा गुरुनी पासें लीपाश्नी चोकी राखीने पोताने घेर ज बेशी रह्यो, सातमे दिव में प्रधानोयें दत्तराजाने राज्य उपरथी उठाडी तेलनी कडाहमां नाखी तेनुं शरीर पचावीने कुतराने नदण कराव्युं ते मरीने नरकें गयो. गुरुपासें बेसा डेला सीपाश्च नाशि गया. एरीतें कालिकाचार्यने प्राणांत कष्ट प्राप्त थयुं तो पण असत्य नाषण न कह्यु. माटें मरणां ते पण असत्य बोलवू नही । घोरां मुर्गतिमेत्यलोकलवमप्यन्यर्थितोऽपि ब्रुवन्, वादे नारदपर्वताख्यसुहृदोर्यवधसुपतिः॥चक्रेऽर्चाविधुरोवि रंचिरनतात् केतक्यनिष्ठा मृषा, साक्ष्यात्किं न हरि नवेन मदितः,सत्यात्परीहादणे॥मृषावादारं ॥३॥ अर्थः-बीजा कोयें (अन्यर्थितोपि के ) अन्यर्थित कस्यो ने तो पण कोई प्राणी (अलीकलवमपि के०) असत्यवाक्यना लवने पण (ब्रुवन् के० ) बोलतो तो (घोरां के०) नयंकर एवी (ऊर्गतिं के०) दुर्गतिने (ए ति के० ) पामे . ( यत् के०) जेम ( नारदपर्वतारख्यसुहृदोः के०) ना रद अने पर्वत नामना बे स्नेहीना ( वादे के० ) विवादमा (वसुप तिः के० ) वसु नामा नूपति जेम घोरगतिने प्राप्त थयो अर्थात् उपाध्या Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ მშ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. यनी पत्नीनी करेली प्रार्थनायें करी कूटसाही नरवाथी वसुराजा दुर्गतिने प्राप्त थयो. त्यां लौकिक दृष्टांत कहे बे. ( जवेन के० ) ईश्वरें (विरंचिः के० ) ब्रह्माने (अनृतात् के० ) असत्य भाषणथकी ( अर्चाविधुरः के० ) पूजारहित गुं (नच के० ) न कस्या, ना कस्याज, अद्यापि ब्रह्मा ने ते लोकोयें पूजाता नथी. वली शंकरें (मृषासाक्ष्यात के० ) खोटी साक्षी 0 वाकी (केतकी कें० ) केतकीने, ( अनिष्ठा के० ) अनिश्चित ( किंन के० ) गुं न करी. श्रर्थात् करीज. जेमाटे ईश्वरने श्राजदिन पर्यंत केतकी चडती नथी ए प्रत्यक्ष वात बे. तथा इश्वरें ( परीक्षा के० ) परीक्षा वेला विषे ( सत्यात् के० ) सत्यभाषणथकी ( हरिः के० ) विष्णु, ( किं के० ) चुं ( नमहितः के० ) न पूजाया अर्थात् पूजायाज एटले श्रीकृष्ण प्रद्यापि जगत्मां पूजाय वे ते संत्यनापणथकी जाएावुं ॥ ३४ ॥ हां दृष्टांतां वसुराजा तथा ब्रह्मादिकनी कथा कहेवी जोइयें. तिहां प्रथम ब्रह्मा विष्णुनी कथा कहे वे एकदा ब्रह्मा ने विष्णुने वाद थयो के शिवना लिंगनो खापणने पार पामवो. तेने महादेवजीयें कह्युं के उपर तथा नीचें महारुं लिंग पारविनानुं बे माटे तेनो कोई पार पामी शके नही तो पण ते बेदु देव पार पामवाने चाव्या, तेमां ब्रह्माजी विष्णुना ना निप्रदेशथी निकलीने व मास पर्यंत उपर चाल्या ने विष्णु व मास पर्य त नीचें चाव्या, तो पण महादेवजीना लिंगनो पार ग्राव्यो नही एवामां शंकरनां मस्तक उपरथी केतकी नीचें उतरी तेने ब्रह्मायें पूजयं के तुजने शि वना मस्तक उपरथी उतरतां केटला दिवस यया ? तेवारें केतकीयें कयुं के महीना यया ते सांजली ब्रह्मायें विचायुं जे मने ब महीना थया पण हुं पार पाम्यो नही एम चिंतवी केतकीनें कह्युं के तुं शिवनी पासें एवी साक्षी यापजे के मुकने तमारा मस्तक उपरथी ब्रह्मायें आणी ते एटलुं असत्य बोलजे. ते वात केतकीयें कबुल करी तेवारें ब्रह्मा त्यांथी पाढा वव्या अने विष्णुने यावी कहेवा लाग्या के हुं ईश्वरना लिंगनो पार पाम्यो तेने टे को वा केतकी यें खोटी शादी पूरी तथा श्रीकृष्ण तो सत्यज बोल्या के हुं तो ब महीना पर्यंत ईश्वरनो पार पामवा माटे नीचो गयो पल पा र पाम्यो नही एवी रीतें ब्रह्मायें असत्य जावण कयुं माटे शिवजीयें ते ब्र Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ४१ ब्रह्माने अपूज्य कस्या. ते अद्यापि जगत्मां को ब्रह्माजीने को पूजतो नथी अने केतकी जूती सादी जरी तेथी शिवजीयें तेनो त्याग कस्यो जेमाटे आजपर्यंत केतकीनां फूल महादेव उपर चडतां नथी अने विष्णु सत्य बो ल्या तो तेने महादेवे जगत्मां पूज्य कस्या, ते अद्यापि पूजाय डे माटे गमे तेवू सुःख पडे तो पण सर्वथा असत्य नाषण करवुज नही असत्य नाषण करनारो पुरुष जे होय ते ब्रह्मा बने केतकीनी पेठे थाय ले. हवे वसुराजानी कथा कहे जे. शुक्तिमतिपुरीने विषे वसुराजा राज्य करे बे. त्यां दीरकदंब नपाध्याय रहे . ते पोताना पुत्रने तथा राजाना पुत्र वसुराजाने तथा नारदने ए त्रणने नणावे . एक दिवस उपलीनूमियें उपाध्याय रात्रिने विषे ध्यान करता हताः तेवामां आकाशमार्गथकी वे मु निनुं एवं वाक्य सांजल्युं जे आचार्यनी पासें त्रण जणशास्त्र नणे में तेमां वे जण नरकगामी थाशे अने एक जण स्वर्गे जशे. पनी उपाध्या ये त्रणे जणने कुर्कुट वधने माटे मोकल्या तेमां नारद विना वे जणे तो कुर्कुटवध कस्यो माटे ते बेदु जण नरकगामी थाशे अने नारदें वध न कस्यो माटे ते स्वर्गगामी थाशे. अनुक्रमें उपाध्याय मरण पाम्या, तदनंतर पर्वतें तो " अजैर्यष्टव्यं” ए वाक्यनो आम अर्थ कस्यो जे पशुयें करी य ज्ञ करवो, तेने नारदें कह्यु के हे नाइ! उपाध्यायें तो अज शब्दनो अर्थ त्रण वर्षनी जुनी व्रीहि कहेली . एम बेदु जनो विवाद थतां थतां एक बीजायें एवं पण लीधुं के जेनुं बोलवु खोटुं ठरे, तेनी जिह्वानुं छेदन करवू. ते बेदुजणे कबुल कयु. अनें वसुराजा जे उपाध्यायनो त्रीजो शिष्य हतो तेणे पर्वतनी माताना नपरोधेकरी खोटी सादी पूरी ने कह्यु के अज ए टले बकरो जाणवो एम उपाध्यायें कयुं हतुं आवीरीतें खोटुं बोव्यातांज शासनदेवीये तेने सिंहासन नपरथी गंधो नाखीने चपेटीयें करी मरण प माड्यो ते मरीने नरकमां गयो, माटे जे कोइ असत्य नाषण करशे तथा असत्य सादी नरशे ते वसुराजानी पेठे दुःखी थाशे. ए वैराग्यधार पूरुं थयुं. वैराग्यशस्त्रहतमोहतमोऽमलांत, दृष्ट्या पटिष्टपरि दृष्ठहिताहितार्थः॥चौरोपि शुध्यति शमेन दृढ प्रहारी, वापैति वा दवजवोजलदेन किं न॥३५॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. __ अर्थः-( चौरोपि के०) चोर पण (शमेन के०) शमतायें करी (मुख्य ति के०) शुभ थाय ले. अर्थात् पापथकी मुक्त थाय ने केनी पेठे ? तो के (दृढप्रहारीश्व के०) दृढप्रहारी चोरनी पेठे शमतायें करीने शुरू थाय ने. त्यां दृष्टांत कहे . के (दवजवः के) दावानलनो वेग ते (जलदेन के०) मेघे करी (नयपैतिकिं वा के०) शांतिने न पामे झुं ? अर्थात् शांतिने पामे बेज. हवे ते चोर कहेवो के ? तो के (वैराग्यशस्त्रहतमोहतमोमलांतई ट्या के० ) वैराग्यरूप शस्त्रेकरी हणायुं वे मोहरूप तम जेनुं एटला मा टेज अंतर्दृष्टिये ( पटिष्टपरिदृष्टहिताहितार्थः के० ) मनोज्ञ जेम होय तेम अंतरदृष्टियें करीने जोयो के हिताहितनो अर्थ जेणे एवो जे. अर्थात् श्रा देय अनादेय पदार्थ जेणे जाण्यो, वे एवो बे. __ आंहिं दृढप्रहारी चोरनी कथा कहे . माकंमीपुरीने विषे सुननामा श्रेष्ठी वसे ले. तेनो पुत्र दत्त करीने हतो,तेने बालपणामांज तेना पितायें सर्व शास्त्रो नणाव्यां, वली तेने परणाव्यो. अनुक्रमें ते जुगार रमतो उष्ट मनुष्यना संगें करी चोर थयो. लोकमां दृढप्रहारी एवे नामें विख्यात थयो. एक दिवस को एक ब्राह्मणना घरमां चोरी करवा पेठो, त्या ते ब्राह्मण जागतो हतो माटे चोरनी पडवाडे दोड्यो. तेने चोरें खमें करी मारी नाख्यो तेवारे ते ब्राह्मणनी स्त्री सगर्ना हती ते राज्यो नाखती चो र पासें आवी, तेने पण चोरें मारी नारखी. पड़ी चोरीमां अंतराय करना री ते ब्राह्मणनी गाय बाहिर उनी हती ते शृंगें करी चोरने मारवा लागी, तो तेने पण चोरे मारी नारखी,एवामां ब्राह्मणीना पेटमाथी निकलीने पृथ्वी नपर लोटता बालकने जोक्ने ते चोरना मनमां दया आवी अने अत्यंत वैराग्य नुत्पन्न थयो, तेवारें विचायुं जे अरे ! में पापिष्टें था केतुं पापकर्म कयुं ? अरे धिक्कार होजो मुझ उष्टने ! एम पश्चात्ताप करतो करेला पापने वारंवार स्मरणमा लावतो अन्न तथा जल बेदुनो त्याग करीने ते ज पुरना मार्गने विषे कायोत्सर्ग करी उनो रह्यो. ते नगरनां लोकोयें तेने छ ट हत्यारो जाणीने लाकडीना तथा पाषाणाना प्रहार करी मास्यो,तो पण समताधारण करी रह्यो. न मासमां कर्मोनुं उन्मूलन करी केवलझान पा मी सिदिने प्राप्त थयो. माटें चोर पण शांतियें करीने सिदिने पाम्यो, तो बीजा जन पामे तेमां तो झुंज आश्चर्य ? ॥ ३५॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथासहित. ४३ नानाकलाविदपि लाघवमेति चौर्या, विद्यानताम्रफ लचौर श्व प्रियार्थे ॥दोषो महानधिगुणेपिदिलांग नाय, रत्नाकरे कुजलवडशवत् सुधांशी ॥३६॥ अर्थः-(नानाकलाविदपि के० ) नानाप्रकारनी कलाने जाणनार एवो पुरुष पण (चौर्यात के० ) चोरपणाथी (लाघवं के०) लघुपणाने (ए ति के०) प्राप्त थाय . केनी पेठे ? (प्रियार्थे के०) पोतानी स्त्रीने मा टे (विद्यानताम्रफलचौर श्व के) विद्यायें करीने नम्र करेला एवा आंबा ना फलना चोरनी पेठे. इहां दृष्टांत कहे जे. (हि के) निश्चें (अधिगुणे पि के) अधिक गुणवाला एवा पुरुषनेविषे पण (महान दोषः के० ) महोटो दोष, (लांजनाय के०) कलंकने माटे थाय ले. जेम (रत्नाकरे के०) समुश्ने विषे (कुजलवत् कै ) दार जल जेम लांबनने माटे थयुं .ने, तथा (सुधांशौ शशवत् के०) निर्मल चंइमाने विषे, शश एटले मृगनुं चिन्ह जे जे ते जेम लांडनरूप थयो ले. तेम घणा गुणमां एक महोंटो दोष ते लांबनने माटे थाय ने ॥३६॥ चोरनी कथा कहे जे. चेलणाराणीने एकस्तंनुं धवलगृह कराववानी इला थइ. माटे श्रेणिक राजायें देव, आराधन करी एकस्थं नवाझुं घर बनाव्युं. तेनी पासे एक वाडीमा अत्यंत सुंचा थांबाना वृद . तेना फल कोइल शके नही. ते नगरमां को आकर्षणी विद्याना नगेला चांमालनी स्त्रीने धान फल खावानो दोहोलो उपन्यो. तेवारें चांमालें आकर्षणीविद्यायें थाम्र फल ग्रहण करयां. चांमालना स्पर्शे पान सुकाइ गयो. कोइ युक्तिथी अजय कुमारे ते चांमालने पकड्यो तेवारे ते आकर्षणीविद्या श्रेणिकने पापीने छूटो. स्युर्ब्रह्मणा नृसुरमोदसुखानि किंतु, जंबूमुनेः सुन गतानिनवैव काचित्॥नेजुव्रतं सममनेन मुदा प्रि यास्ता,अन्यारता सह जगाम च केवलश्रीः॥३॥ अर्थः- (ब्रह्मणा के ) ब्रह्मचर्ये एटले मैथुनपरित्यागरूपव्रतें करीने (नृसुरमोदसुखानि के ) मनुष्य, देव, अने मोदनां सुखो ( स्युः के० ) होय, (किंतु के०) केम तो के ब्रह्मचर्ये करीने ( जंबूमुनेः के० ) जंबूस्वा मीने (काचित् के० ) कोक (अभिनवैव के० ) नवीन एवीज (सुनग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ता के० ) सुनगता प्राप्त थ६. ते केम तोके (ताः के०) ते पोतानी प्रसिद एवी पाठ (प्रियाः के०) स्त्रियो ते (मुदा के० ) हर्षे करी (अनेन समं के०) आ जंबूस्वामीनी साथें (व्रतं के०) दीदाने (जेजुः के०) नजती हवी. (च के० ) वली (केवल श्री के०) केवलज्ञान रूप लक्ष्मी, ते (अन्यार ता के०) अन्यने विषे आसक्तिरहित एवी थकी. (सह के०) जंबूस्वामीनी साथेंज (जगाम के०) जाती हवी. कारण के, जंबूस्वामी पनी कोइने केवल ज्ञान उपनु नथी. ए बेवानां जंबूस्वामीने सुनगता दर्शावनारांबे. केम के जेनुं अंत पर्यत खलं सोनाग्य होय ते स्त्री, पोताना नर्त्तारनी सहचरी थाय डे. तेम जंबूस्वामीनी बाते स्त्री साथेंज मोदें गश् अने केवलज्ञानरूप स्त्री पण जंबूस्वामीनी साथें मोद गइ अन्य जीवोने विषे आसक्त रही नहीं। ___ हिं जंबूस्वामीनी लेशमात्र कथा कहे जे. कुसुमपुरने विषे धनदत्त नामा शेठना नवदत्त अने नवदेव नामना बे पुत्रो हता. तेमां नवदत्ते दीक्षा ग्रहण करीने, वली कालांतरें पोताना नाइने बोध देवा माटे त्यां आव्यो. ते वखत नवदेव अर्वी शणगारेली पोताने परण नारी कन्याने मू कीने महोटा नाश्ने वांदवा गयो. महोटा नाश्य वार्ता करावतां गुरुनी पासें पहोंचाज्यो. गुरुयें तेने प्रतिबोधी दीक्षा आपी. ते तेणे नाव विना पालवा मांमी. जेवारें महोटो नाइ नवदत्त साधु मरण पाम्यो तेवारें न्हानो ना फरीनोगनीअनिलाषा करतो नगरमां आव्यो, ते वात पूर्व परवा माटे सज थयेली अई शणगारेली स्त्री जाण्याथी तेणें तेने बोध कस्यो. पबीते मरण पामीने पुमरीकिणी नगरीयें पद्मरथ राजानी वनमाला नामें राणीनी कूखें शिवकुमार एवे नामें पुत्रपणे नपन्यो, बा तेने बत्रीश कन्या उ परणावी. तेणें पूर्वजन्मना नाइ सागरचं मुनि पासेंथी धर्म श्रवण करी संवेग पामी ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कयुं. पनी दीदा लेवानी वा करी, त्यारे अशक्त जागी तेना पितायें वास्याथी ते दृढधर्मा श्रावक थश्ने प्राणुका ननो थाहार वहोरी एकांतरें उपवास करीने पारणुं करे. पबी वली चोवी श वर्षपर्यंत यावत् बह त पारणामां अांबेल कयुं ते मरीने विद्युन्माली नामें देव थयो, त्यांथी च्यवीने राजगृहीनेविषे षनदास शेठनी धारिणी स्त्रीनी कूखें पुत्रपणे उपन्यो, एनुं नाम जंबू पाड्युं. तेणे हा विना पण पिताना याग्रहथी पाठ कन्या परणीने एकेक स्त्रीने नवी नवी कथा सं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तथा कथासहित. ४५ जलावी प्रतिबोध पमाडे , तेवामा प्रनवनामा चोर ते जंबूकुमारना घर मां पांचशे चोरोनी साथें चोरी करवा याव्यो. तेणें बानो उनो रहीने जं ब्रूकुमार स्त्रीने करेलो बोध सांजली वेराग्य पामी दीक्षा लीधी. ते व्रत पालीने देवता थयो. अने जंबूकुमार तथा तेनी आते स्त्रीयो मोक्ष पामी॥३७॥ न ब्रह्मतःसकलशर्मकृतश्चलन्ति धीराःसुदर्शन श्व व्यसने धनेऽपि॥ शेषोऽब्धिटलहरीचलशैलव ल्गनुग्नमौलिरपि विश्वनरं बिनर्ति ॥ ३ ॥ अर्थः-(सकलशर्मकृतः के० ) समस्त सुकतने करवावाला एवा (धी राः के०) धैर्यवान पुरुषो ( व्यसने केए) संकट थाव्या बतां अथवा (धनेपि के०) धन प्राप्त थया बता पण (सुदर्शन व के.) सुदर्शन शेग्नी पेठे (ब्रह्मतः के०) धर्मथी (न चलंति के०) चलायमान थता नथी. त्यां दृष्टांत कहे . (शेषः के०) नागें ते, (अब्धिमलहरीचलशैलवल्गनुन मौलिरपि के०) सागरना मोटा मोजाथी चंचल थयेला एवाजे पर्वत तेथी ध्रुजती थने विदारण पामती एवी जे पृथ्वी तेणें करी वक थयुं जे मस्तक जेनुं एवो बतो पण (विश्वनर के०) जगतनो नार तेने (बिनर्ति के०) धारण करे . पण मूकतो नथी. तेम मोटा लोको धर्मने क्यारे पण मूकता नथी॥ शहां सुदर्शन श्रेष्टिनी कथा कहे जे. चंपानगरीमा दधिवाहन राजा तेने अनया नामें राणी ले. ते नगरीमांसुदर्शन नामें शेठ वसे .तेनी देवांगना सरखी मनोरमा नामें स्त्री . तेना पांच पुत्रो ले. एकदा सुदर्शन शेग्नुं रूपंजोइने यनया राणी अनुरागणी थइ त्यारें शेठने तेडवा माटे पोतानी सखीने मोकली. शेठने बुद्धि नपनी तेथी कह्यु के हुँ नपुंसक बुं, माटे ए काम करवाने शक्तिमान नथी. दासीये पण ते प्रमाणेंज राणीने कयुं. वली एकदा शेतना पुत्रोने मार्गे जता जोड्ने राणीयें विचाघु के नपुंसकने संतति होय नही, माटे शेजें मने बेतरी जे. तो हवे एनुं फरीथी उपाय करीश.एक दिवसे कोई कार्यनिमित्तें शेठने नपाडी लावीने राणीयें प्रार्थना करी ते शेवें न मानी त्यारें तेणे स्त्री चरित्र करी बुमो पाडी जे शेवें महारी लगा लीधी एवो होकार करवाथी राजायें शेतने शूलीयें चडाव्यो. त्यां शीलना प्रना वथी शूली ते सिंहासन रूप थर पड़ी राजाना सेवकोयें खड्गना प्रहार कस्या Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ते मुकुट, कुंमल, हार, बाजुबंधादिक आनूषण रूप थता हवा. ए रीतें कष्ट पडतां पण शेवें अंगीकार करेलुं शीलवत न मूक्युं ॥ ३ ॥ विश्वोपकारि धनमल्पमपि प्रशस्यं, किं नंदवत् फलम मानपरिग्रहेण ॥प्रीत्यै यथा हिमरुचिर्न तथा दिमौ घः, स्याहा यथाऽत्र जलदो जलधिस्तथा न ॥३॥ अर्थः-(अल्पमपि के ) अल्प एवं पण (धनं के) धन, ( विश्वोप कारि के० ) सर्वलोकना कार्यने साधवावालुं तुं (प्रशस्यं के०) वखारावा योग्य थाय छे. परंतु ( अमानपरिग्रहेण के०) संख्याविनाना परिग्रहें करी (नंदवत् के० ) नंदराजानी पेठे (किं फलं के०) झुं फल होय ? अर्थात् कांहीपण फल ते धननुं न थयु. थाहीं दृष्टांत कहे . ( यथा के०) जेम ( हिमरुचिः के०) चश्मा, (प्रीत्यै के०) लोकने प्रीतिने माटे (स्यात् के०) होय, (तथा के० ) तेवीरीतें (हिमोघः के०) हिमनो समूह (न के) नं होय, (वा के०) अथवा (यथा के०) जेम (जलदः के०) मेघ ते (अत्र के ) आ जगत्ने उपकारी थाय , ( तथा के० ) तेम ( जलधिः के० ) समुह, ते हारजलें करी निरुपयोगी ने माटे ( न के० ) थतो नथी. अाहीं नंद राजानी कथा कहे जे, पाटली पुरने विपे उदायिन राजाने कोश्क पुरुषं साधुवेप धारण करीने कंकलोहनी बुरीयें मारी नांख्यो ! ते राजाने बोकरो न होवाथी राज्य रेदं थयुं, ए अवसरे हजाम पिता अने गणिका मातानो पुत्र नंदनामा हतो तेणें पोताना आंतरडायें वीटायला पाटलीपुरने स्वप्नमां दीk.प्रातःकालें स्वप्नपातकने स्वप्ननुं फल ब्युं, पाठकें पण पोतानी दीकरी तेने परणावीने पड़ी कह्यु के तमने आ पुरनुं राज्य मलशे. नंदपण ते कन्या परणीने घेर थाव्यो.अनुक्रमें पंचदिव्य हाथीयें नंदने अनिषेक कस्यो, नंद राज्य गादीयें बेगे, परंतु कोई मंत्री प्रमुख ते नंदनी आज्ञा माने नही. त्यारे नंदें निंत उपर चित्रेला असवारोनी सामुं जोयु. के तरत ते चित्रेला स्वारोयें उतरीने अनेक सामंतोने पाडीनारख्या. ते जो सर्व सामंत जय पामीने तेनी अाझा पाली ते पड़ी ते नंदनी गा दीये जे बेसे ते नंद कहेवाय,ते सर्वे नंद त्रणे खंझना अधिपति थया. सोना ना पर्वतो कराव्या; पण ते इव्य कोई सुकार्यमां वपरायुं नहि ॥ ३ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ४७ धन्यः परिग्रहमितैः सुखनाङ्न पापी, प्राङ्मम्मणो व णिगिवेंधहदीश्वरोऽपि ॥ वंद्यः कृतादरमहो जगतोमित श्रीः, पश्याधिकाऽधिकवसुः शशनृत् कलंकी ॥४॥ अर्थः-जे मतिमान पुरुष, (परिग्रहमितैः के) परिग्रहना माने करी वर्ने, ते (धन्यः के०) धन्य जाणवो. तथा (सुखनाक् के०) सुखनोगवनारो जा एवो परंतु (पापी के०) लोनी पुरुष (न के०) सुखनाग नथी. केनी पे ? तो के (प्रांक के०) पूर्व (ईश्वरोपि के०) कोटी धनवालो पण (इंधहृत् के०) नदीना पूरथी तणातां लाकडांनो लावनार (मम्मणोवणिगिव के) मम्मण शेठज जेम कहेलुं ले के ॥श्लोक॥ असंतोषवतः सौख्यं, न शक्रस्य न चकि णः॥जतोः संतोषनाजोय,दनयस्वैव जायते ॥ नावार्थः- असंतोपवालाई इने तथा चक्रीने पण सुरव होतुं नयी अने निर्धन होय परंतु संतोषी हो य तो ते सुखी जाणवो. (पश्य के०) जो के (शशनृत् के०) चंमा, (मि तश्रीः के० ) थोडी लक्ष्मीवालो होय त्यारे (अहो के०) आश्चर्य ! (कता दरं के०) कस्यो आदर जेने विषे एवो जेम तेम (जगतः के०) जगतने (वंद्यः के० ) वंदन करवा योग्य होय . अने (अधिकाधिकवसुः के०) अधिकवसु वालो चश्मा, तथा अधिकवसुवालो पुरुष, (कलंकी के०) कलंकवालो होय ने अने कोने नमन करवा लायक होतो नथी. पुरुष पदें वसु एटले इव्य जाणवू अने चंपदें वसु एटले किरण जाणवां. • बाहिं मम्मण शेनी कथा कहे . राजगृही नगरीये श्रेणिक राजा राज्य करे ले. एक दिवस चेलणाराणी गवादमां बेठां, तेवामां अईरात्रि ने समये अत्यंतपवने युक्त वरसाद वरसवा मांझयो, तेथी नदियें पूर या व्युं तेवारें नदीमा तणातां एवा लाकडाउने बाहिर खेंचता एवा कोश वृक्ष पुरुषने विजलीना उद्योतें करीने, राणीयें दीठो. तेवारें श्रेणिक राजा ने राणीयें कह्यु के महाराज ! मेघ राजानी पे तमें पण जरतामांजन रोबो? परंतु जुवो आवा कुःखी दरिडी थापणा नगरमा वसे ले. तेना न रण पोषणनी तमे चिंता पण करता नथी वाह ! ! तमारूं यातो मोहोटुं चातुर्य नासे ले ? तदनंतर श्रेणिक राजायें पण तणातां काष्ठोने खेंचना र वृक्षपुरुषने गोखमांथी जोयो, तेथी तेने बोलाव्यो अने पूब्यु के अरे तुं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G जैनकथा रत्नकोप नाग पाचमो. कोण बो ? त्यारे ते बोल्यो के ढुं वंणिक , मारुं नाम मम्मण ने. महारे एक बलद सुवर्ण रत्ननोचे अने बीजो बलद मेलववा माटे या काम करूं बु तेपनी ते कौतुक युक्त श्रश्ने श्रेणिक राजायें चेलणा राणीनी साथें जर ते मम्मण शेठना घरमां त्रीजी नूमिने विपे सुवर्ण अने रत्न समूहथी जडे ला एवा शीगडावाला वे वृपनीने नजरें दीना. ते जोस्ने श्रेणिकराजा चे लगा राणीने कहे के हे स्त्रि! श्रावी समृद्धि मारा नंमारमा पण न थी. वली श्रेणिक राजा ते मम्मण शेठने पूछे छे के एटली समृद्धि बतां त मो नदीमाथी काष्ठने शामाटे खेंचीलीयो बो ? त्यारें मम्मण शेवें कह्यु के हे राजन् ! आकाष्ठोनां रत्न थाशे. त्यारें राजायें कह्यु के थोडी किम्मतनां काष्ठोयें करी रत्न ते केम थाय ?. त्यारे तेणें कह्यु के या बावना चंदननां घणी किम्मतनां काष्ठो ढुं जलं ते वातं सांजली साश्चर्य थश्ने राजा त था राणी वेदु पोताने घेर गयां. ए रीतें जन्मपर्यंत मम्मण शेवें. बते धने. कोइने कांही पण आप्युं नहिं तेम खाधुं वापयुं पण नहीं ॥ ४० ॥ सीमस्थिते जलनिधौ निजकालमाने, शीतातपांन सि च जीवति जीवलोकः॥दिगमानमानमपि जंतुहिता य तत्, स्याच्चारुदत्तवदिदाप्रयतोति जुःखी ॥४१॥ अर्थः-( जलनिधौ के० ) समुह, ( सीमस्थिते के०) मर्यादामा रहे बते (जीवलोकः के० ) जीवलोक, (जीवति के०) जीवे में. जो तेनी मर्या दा मूकीने समुश् वर्ने तो केवी रीतें जीवलोकथी जीवाय ? (च के) त था ( शीतातपांनसि के०) शीतकाल, नष्णकाल अने वर्षाकालते (निजका समाने के०) निजप्रस्ताव वर्तमान थये बते जीवलोक, जीवे . पण पोता नो जे काल तेनो मान मूकी त्रणे व्यतिक्रम पामे, तो जीवलोक केम जीवे ? जीवेज नही. (तत् के०) तेनी पेठे निज समयप्रमाणे (दिगमानमानमपि के ) दिशा परिमाणनुं व्रत पण ( जंतुहिताय के०) जीवोना कट्याराने माटे ( स्यात् के० ) होय. तथा (इह के०) आ व्रतने विषे (अप्रयतः के० ) अनादर करनार जे पुरुष थाय, ते (अतिःवी के०) अत्यंत मुः खी थाय ने. केनी पेठे ? तो के ( चारुदत्तवत् के०) चारुदत्तनी पेठे.जेम चारुदत्तदिगवतना त्यागें करी फुःखी थयो. तेम थाय , ए नावार्थ जाणवो. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ए श्रांहिं चारुदत्तनी कथा कहे . मिथिलापुरीने विपे नीमक शेठनो पुत्र चारुदत्त नामा हतो, तेने परणाव्या पड़ी तेना पितायें चतुराश्ने माटे वे श्याने घेर मूक्यो. त्यां तेणे वेश्याना व्यसने करी पोतानुं घर पण बोड्यु तेना पितायें मरती वखतें ते चारुदत्तने बोलावीकडं के हे ना! जन्म पर्यंत तें मारुं वाक्य पाव्यु नहिं. हवे बीजं कांहिं कहेतो नथी परंतु एट झुंज कढुं के कष्टना वखतमां नवकारनुं स्मरण कर, एम कहीने चा रुदत्तनो पिता मरण पाम्यो. पनी तेनुं इव्य बधु दीण थ गयु. तेवारें नि र्धन थको पृथ्वीमां जमतां नमतां ते चारुदत्तने को योगी मल्यो तेणें सु वर्णरस लेवा माटे रसकूपिकामां नाख्यो त्यां कूपिकामां मरण पामता एवा कोइ पुरुषने तेणे नवकार संनलाव्यो यने पोतें चंदनघोने पुबडे वलगीने कुवाथी बाहेर नीकली पोताना मामाने गाम गयो. तिहां मामायें अने पो तें कपास.ग्रहण कस्यो,ते कपासने अरण्यमां सजता हता,तेवामां दावा नियें करी कपास बलीने राख थइ गयो. पबीमामो कहेवा लाग्यो जे आपणे एक चामडानी धमणमा प्रवेश करीने रहियें,तो मांसना लोनी नारंम पदीयो आपणने उपाडी उडीने सुवर्णधीपमा लजाशे. तिहां सुवर्ण ग्रहण करगुं ? एम कही मामायें पोताना लीधेला वे बकराने मारवा माझ्या तेने चारुद ते वाखो तो पण मामायें सांजल्युं नही चारुदत्त पोताने बेसवा माटे जे मामायें बकरो आप्यो हतो तेने मरती वखतें नवकार संजलाव्यो पनी मामो नाणेज वेदु जण ते बकराउनी खालनी धमणमां वेता तेवारें जा रंमपदीये ते वेदुने मांसनी ब्रांतिथी नपाडी लीधा, ते सुवर्णही जाना ख्या, त्यां खोलमाथी निकलीने ते चारुदत्त एक मुनिनी पासें गयो. जेवामां ते गुरुनी पासे बेसे ले तेवामां एक देदीप्यमान कांतियें विराजमान देव ता तिहां आव्यो, तेणे प्रथम चारुदत्तने वांदीने पडी मुनिने वंदन कयं ते जो कोई बीजा त्यां बेठेला पुरुष मुनिने पूयुं महाराज आ देवतायें प्र थम चारुदत्तने वांदी पड़ी मुनिने वंदन करवारूप विपरीत वंदन केम कयुं ? गुरुयें कडं एवं पूर्वले नवे आ देवताना जीवने नवकार संजलाव्यो हतो तेना प्रनावथी ए देवता थयो में माटे एनो गुरु होवाथी एणे चारुदत्तने वंदन कमु. पड़ी चारुदत्तने ते देवे केटलुं एक इव्य प्राप्युं अने पालो तेने स्वस्थानकें पोहोंचाज्यो. अर्थात् ए चारुदत्त बहुकर्मी हतो परंतु तेणे पो Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. ताना पिताना उपदेशथी नमस्कार बापवानो नियम राख्यो तो ते पालो सुखी थयो अने देवतायें पण पूर्वजन्मनो गुरु मानीने नमस्कार कस्यो. न गम्यं नागम्यं क्वचिदकृतदिग्यानविरतेः, कथं वा स्यादि श्वे सततगतिरेकत्र वसतिः॥क्तिीयहीपांतर्गतनरतमाक्रां तजलधि, नकिं पद्यर्थे हरिरमरकंकापुरमगात् ॥४२॥ अर्थः- (अकृतदिग्यानविरतेः के०) नथी करी दिग्गमननी विरति जेणे एवा सदा चमण शील जीवनें (नगम्यं के) नही जवा लायक त था ( नागम्यं के०) नही पाववा लायक एवं स्थानक (क्वचित् के०) कोइपण कालें नथी कारणके ( विश्वे के० ) जगतमा ( सततगतिः के०) निरंतरगति करनारो एवो जे वायु ते (एकत्रवसतिः के०) एकस्थलने विषे रहेनारो (कथं के० ) केवी रीतें (स्यात् के०) होय ? ना होयज नहिं, अहिं दृष्टांत कहे . ( हरिः के ) श्रीकृष्ण, (रौपद्यर्थे के०) ौपदी वा लवाने माटे (आकांतजलधिः के०) उल्लंघन कस्यो वे समुश् जेणे एवा बता (हितीयहीपांतर्गतनरतं के०) बीजो दीपजे धातकी खंम तेमा रहेला जर तदेवमां (अमरकंकापुरं के० ) अमरकंकापुर प्रत्ये (किंनथगात् के०) गुं न जता हवा ? एम दिशिनुं प्रमाण न करनारा पुरुषने सर्वत्र फरवू प्राप्त थाय ले. तेमाटे दिग्परिमाण व्रत अंगीकार करवू ॥४॥ आहिं श्रीकमनी कथा कहे . धारिकानगरीने विपे श्रीकम राजा रा ज्य करे बे. अने पांच पांमवो हस्तिनापुरमां राज करे ने एक दिवस झेप दीपांम्वनी स्त्री, काचमां मोढुं जोतां हतां तेवामां नारदमुनि आव्या तो तेने झेपदीयें सन्मान थाप्युं नही तेथी नारदजीयें तेनी उपर कोपायमा नथश्ने धातकी खंममां अमरकंकापुरीने विपे पद्मोत्तर राजानी पासें झै पदीना स्वरूपनुं वर्णन कयुं ते सांजली पद्मोत्तर राजायें देवनुं आराधन करी, देवना बलें करी ौपदीने पोताना नगरमां मगावी लीधी ते पड़ी नारदमुनियें आवी श्रीकृमने सर्व वात कही ते सर्व वृत्तांत जाणीने श्रीकम, पांडवोये सहवर्तमान समुठे उल्लंघन करीने धातकी खंममां अमरकंका यें आवीने संग्रामने विपे पद्मनानराजानो पराजय कस्यो नृसिंहरूपधारण करीने ते नगरनो किलो तोडी नाख्यो तेवारें स्त्रीनुं रूप धारण करी पद्मो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १ तर राजा श्रीकमना पगमां आवी पज्यो पनी शेपदीने लश्ने श्रीलम पोताना पुरप्रत्ये आव्या. माटे दिगपरिमाणवतने धारण करई ॥ ४२ ॥ नोगोपनोगनियमोऽपि शिवाय चेन्न, स्याईकचू लश्वदेवपदप्रदस्तु ॥ प्रीणाति चातकमनन्यरतिं पयोदश्ताशनैकरसमन्यन्तं वसंतः ॥ ४३ ॥ अर्थः- ( नोगोपजोगनियमोपि के ) नौगोपनोगनो नियम पण (प्राक् के०) प्रथम (शिवाय के०) मोदने माटे ने जो (नस्यात्चेत् के) न थाय तो पण (वंकचूलश्व के०) वंकचूलनी पेठे (देवपदप्र दस्तु के०) देवदपदने देवावालो तो निचे होयज त्या दृष्टांत कहे डे के (पयोदः के० ) मेघ, (अनन्यरति के०) नथी बीजा कोश्नी उपर प्री ति जेने एवा (चातकं के०) बपैयाने (प्रीणाति के० ) संतोष पमाडे ले अने ( वसंतः के०) वसंतऋतु जे जे ते (अन्यनृतं के०) कोकिलने सं तोषयुक्त करे हे ते, कोकिल केवो के ? तो के (चूतारानैकरसं के०) आम्र कलिका नदणे करीनेज ने एक रस जेने एवो डे ॥ ४३ ॥ हवे यांहिं वंकचूलनी कथा कहे . विंध्यपनीने विपे वंकचूल राजा राज्य करे . त्यां एक दिवस धर्मघोषसरि आवीने चोमासुं रह्या परंतु राजाना श्रा देशे करी कोइने धर्मोपदेश न देता हवा. चोमासुं वीत्या बाद धर्मघोषसूरिये विहार कस्यो तेमने वलावा माटे परिवार सहित केटली एक नाम सूधी वं कचूल राजा आव्या. पाला वलतां वंकचूल राजाने धर्मघोपसूरिये चार नियमो थाप्या. तेमांप्रथम अजाण्या फलनुनकाण न करवं. बीजो क्रोध च डे त्यारे साडात्रण मगला पाबा फरीने पली प्रहार करवो. त्रीजो राजानी पट्टराणीने मातानी पेठे मानवी. चोथो काकमांस नक्षण करईं नहिं ए वा चार नियमग्रहण करी राजा पाडो वल्यो. एक दिवस वंकचूलें किंपाक फलने अज्ञात फल जाणीने न खाधां. अने तेना परिकरें ते फल खाधां तेथी सर्व परिकर यमने घेर पहोतो वली एक दिवस वंकचल ग्रामांतरथी अर्धरात्रिय पोताने गामें आव्यो तिहां पोतानी स्त्रीना पडखामां कोक पु रुपने सुतेलो जोक्ने तेने साडात्रण मंगला पाडो फरीने प्रहार कस्यो ते प्र हार ते पुरुषना कपालमा लाग्यो त्यां ते वंकचूलराजानी बेन पुरुषनो वेष Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. धारण करीने सूती हती ते जागी गइ. तेणीए आशीर्वाद दीयो तेवारें चिं तववा लाग्यो के अहो ! या मारी बेनने में प्रहार कस्यो में जाण्युं जे को ३ पुरुप मारी स्त्रीनी साथै सुतो वे पण आतो, मारी बेन पुरुषवेष धारण करीने सुती जे एम तेने पश्चात्ताप थयो. तदनंतर एक दिवस ते वंकचूल कोई एक नगरने विषे राजधारमा पेठो, तेने अत्यंत सुकुमार जोड्ने ते नग रना राजानी पट्टराणीयें कह्यु के तुं मारो उपनोग कस्य तेम तेणे प्रार्थ ना करी तो पण तेणे ते काम का नहिं अने तेणे काकमांस. नहाण न कयं तेने अंते जिनदास श्रावकें अनशन आप्युं ते नियमना प्रनावथी ते वंकचूल स्वर्गने विपे देवता थयो. माटे एक पण नियम पले, तो तेथी क दापि मोदसुख न मने तो पण, स्वर्गप्राप्ति तो निचे ते प्राणीने थाय. तेमा संदेह जाणवो नहिं माटे सर्व जने परिग्रहवें परिमाण करवू ॥ ३३ ॥ मोगादिलोलुपतया लघुता न शर्म, श्रीब्रह्मदत्तस खिविप्रकुटुंबवत् स्यात् ॥ पीताधिकेंरुचिरुज्जति सीमसिंधुः, शक्रोपि गौतमकलत्ररतश्च शप्तः॥४४॥ अर्थः-(जोगादिलोलुपतया के०) जोगादिकनी घणी लोलुपतायें क रीने जीवने (लघुता के० ) लघुपणुं ( स्यात् के० ) होय डे परंतु (शर्म के०) सुख ( न के०) न होय केनी पेठे तो के ( श्रीब्रह्मदत्तसखि विप्रकु टुंबवत् के० ) श्रीब्रह्मदत्त जे दशमो चक्री तेनो सखि जे ब्राह्मण तेना कु टुबनी पेठे. जेम चक्रवर्तीनी मीठी रसोइ जमवाथी ब्राह्मणनुं कुटुंब लघु ताने प्राप्त थयुं अने सुखने न पाम्यु. तेनी पेठे जाणवू. त्या दृष्टांत कहे ने. (पीताधिपुरुचिः के०) पान करीने अधिक इंनी कला जेणे एवो (सिंधुः के०) समुझ ते पोतानी (सीम के०) सीमाने (नष्नति के०) त्याग करे बे. अर्थात् चंद किरणना पानथकी समुर्तिगत थाय ने एटले अति चंइकिरणना पाननी लोलुपतायें निर्मर्याद समुह थाय डे. (च के०) अने (शकोपि के०) इंइ पण (गौतमकलत्ररतः के०) गौतमऋषिनी स्त्रीमा था सक्त थयो तेने ( शप्तः के० ) गौतम ऋषिये शाप आप्यो लघुता पाम्यो. अांहिं ब्रह्मदत्तना सखा विप्रनो तथा इंनो एम बे दृष्टांत ने तेमां प्र थम ब्रह्मदत्तचकीना सखा ब्राह्मणनी कथा कहे . कांपिठ्यपुरने विषेत्र Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ५३ ह्मदत्तचक्री राज्य करे ने तेनो मित्र एक ब्राह्मण ने एक दिवस संतुष्ट थप ने चक्रवर्तीयें नोजन करवा माटे ब्राह्मणने कह्यं तेने ब्राह्मणे कडं महारा याखा कुटुंबनें जोजन करावो तो दुं नोजन करूं तेवारें चक्रवर्तियें काम दारा घरनुं जोजन को सहन करी शके नही तेवू ने एम घणो वाखो तो पण ते रस लोलुपतायें ब्राह्मण नोजन करवा आव्यो तिहां नोजन कर वाथी ब्राह्मणनुं कुटुंब सघलुं ग्रथिल पशुप्राय थरंगयुं तेथी ब्राह्मणने रोप चड्यो तेवारें धनुर्गोलिकाना प्रयोगथी राजानां बे चकु काहाढी नारख्यां. हवें बीजी इंश्नी कथा कहे के एक दिवस इंश् अत्यंत कामातुर होवा थी गौतमझपिनी नार्या अहव्या तापसणीने जोगववा लाग्यो एवामां गौ तमऋषियें यावी दीतुं तेणे इंने शाप आप्यो के हे उट ! तें ब्राह्मणनी स्त्री साथे व्यनिचार कस्यो, माटे तुं संहस्र योनियुक्त शरीरवालो था. पनी देव तायें पिनी प्रार्थना करी के महाराज ! एम करवाथी अमारो राजा क दरूपो लागे माटे कांक अनुग्रह करो त्यारे रुपियें अनुग्रह करीने इंश्ने सहस्त्र नयन कस्यो. या वात लोकिकशास्त्रनी चे पण अाहीं केहेवानुं का रण ए जे इंडिय लोलुपता राखवी नही राखेथी पूर्वोक्त फलनी प्राप्ति थाय डे. नाऽनर्थदंममघदं दधते महांत, एकेषुमात्रविजयीव सचेटनूपः॥ लोकस्य जाड्यहतये तरणे:प्रनाऽह्नि, तापनिदे च शशिनोनिशि नो तदत्यै ॥ ४५ ॥ अर्थः-(महांतः के० ) सत्पुरुपो, जे जे ते ( अघदं के० ) पाप दायक एवा ( अनर्थदंम के० ) अनर्थदंगने ( न दधते के ) धारण करता नथी केनी पेठें तो के जेम (सःचेटनूपः के०) ते चेटक नामा राजा (एकेषुमात्रवि जयी के० ) एकज बाणें करी विजयी थयो. अर्थात् चेटकराजा यु६ करती वखत एकज बाण मुकतो एवो नियम हतो ए वात सर्वत्र प्रसिह इहां दृष्टांत कहे जे. जेम के ( शशिनः के० ) चंमानी (प्रना के ) कांति, ते ( निशि के ) रात्रिने विपे (लोकस्य के० ) लोकना (तापनिदे के०) ता पने दवाने माटे थाय ने. (च के०) अने (तरणेः के०) सूर्यनी (प्रना के०) कांति ते (अहि के०) दिवसने विपे (जाड्यहतये के ) लोकना जाज्यने हरण करवा माटे थाय बे. परंतु ते बेदुनी कांति लोकने पीडा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनकथा रत्नकोष जाग पांचमो. करवा माटे होती नयी. तेम अनर्थदंमनो परिहार पण जानने माटें थाय बे. वे यांहिं चेटकराजानी कथा कहे बे. विशाला नगरीने विषे परमथार्हत एवा अर्थात् अनन्य जैनमतानुयायी चेटक नामा राजा राज्य करे बे. ते श्री वीरगवाननी पासे सम्यक्त्वसहित परिग्रह प्रमाणनुं ग्रहण करतां युद्धमां लडवा जावुं. त्याऐं धनुषयी एकज बाण मुकवुं एवो नियम कस्यो पढी ज्यारें संग्राममां चडे, त्यारें वैरी राजा प्रत्यें एकज बारा मूके, परंतु बीजुं बा कोइ वखत मूके नहिं. तथापि तेना एकज बाणयी वैरी राजा मरण जपामे. तेमां संशयज नहिं. एकदा संग्राममां चड्या एवा चेटक राजायें पोतानी ढिकरीना दीकरा एटले दोहित्रा काल बने महाकालादिक कुमारोना सैनिक एकेक बाणथी दिनदिन प्रत्यें नाश पमाड्या ॥ ४६ ॥ मूढोमुधैतिकुगतिं धिगनर्थदंगांत्, चक्रित्वमिचुखि नू नृदशोकचंडः ॥ किं नांगनंगमयतेशरनोऽब्दशब्द, म न्युत्पतन् परिणमंश्च गजोनुशैलं ॥४६॥ इत्यनर्थदंमद्वारं ॥ -- अर्थः- एक सकार्यपाप ने एक प्रकार्यपाप तेथी ( मूढः के०) मूढ़ (कु गतिं के० ) कुंग तिने (सुधैव के० ) वृथाज ( एति के० ) प्राप्त थाय बे. ते नर्थ ( धिक् के ० ) धिक्कार होजो. ( अनर्थमात् के० ) अनर्थदंमय की (अशोकचं नृत् के० ) अशोकचंद नामा राजा, ते ( इव के० ) जे म ( चत्विमित्रः के० ) चक्रिपणानी इवा करतो तो कुगतिने प्राप्त थयो ते जीव कुगतिने अनर्थकथकी प्राप्त थाय बे. जेम (शरः के० ) अष्टापद नो जीव, (दशब्द के ० ) मेघगजरिवना शब्दनी सन्मुख ( उत्पतन् के ० ) डीने पडतो तो पण ( अंगनंग के ० ) अंगना जंगने (किं नध्प्रयते के ० ) शुं नयी प्राप्त यातो अर्थात् याय बे. तथा (गजः के०) हस्ती (अनुशैलं के० ) पर्वतपर्वत प्रत्यें (परिणमन के० ) दंतमुशलना प्रहारने देतो बतो ( अंग जंगं किं न प्रयते के० ) शुं अंगजंगने न प्राप्त थाय ना थायज ॥ ४६ ॥ हिं अशोकचंनी कथा कहे बे. राजगृही नगरीने विषे अशोकचंड राजा राज्य करे बे. ते राजानुं बीजुं नाम कोणिक करीने पण हतुं तेणे पूर्वजन्मने विषे तापसपणामां मासपणादि उग्र तप तप्युं हतुं तेना पुण्यें करी या लोकने विषे मोहोटा राज्यने प्राप्त थयो. एक दिवस चमरेंदें ते Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ५५ कोणिक राजाने त्रिशूल आप्यु. तेना प्रनावथी बीजा राजायें वासुदेवनी पेठे तेनो त्रिखंझना अधिपतिपणानाराज्य पर पट्टानिषेक कस्यो. एक दिवस श्रीवीरप्रनुनी पासें कोणिक राजायें पूब्युं स्वामी ! चक्रवर्ति केटला थया. जगवान् बोल्या के बा अवसर्पिणीकालने विषे बार चक्रवर्ति थया . त्यारे कोणिकें कडं दुं तेरमो चक्रवर्ती थइश एम कहीने नवीन चक्र रत्नादि चक्र वर्त्तिने योग्य बनाव्यां पनी वैताढयनी गुफाना हार पासें गयो तिहां झारने दंम मारवाथी अधिष्ठायक देवें चार उघाडयुं तेनी उस्मताथी कोणिक राजा तेज समय बलीने नस्मीनूत थइ मरीने नरकें गयो माटे अनर्थदंमथी वि राम पामवं,नही तो कोणिकनी पेठे अवश्य नाश थाय॥इति अनर्थ दंमधारं ॥ सामायिकं विघटिकं चिरकर्मनेदि, चंशावतंसक वंञ्चधियोऽत्र किंतु ॥ स्पर्शेऽपि सत्यमुदकं मलि नंत्वनाशि,घोरं तमोहरति वा कृतएव दीपः॥४॥ अर्थः-(सामायिक के०) सामायिक (घिटिकं के० ) बे घडी पाल्यु होय तो पण (चिरकर्मनेदि के०) घणा कालनां संचेलां कर्मोने नेदना रुं थाय . केनी पेठे ? तो के (चंशवतंसकवत् के०) चंशवतंसक रा जानी पेठे ? अर्थात् वे घडीवार पालेलु सामायिक अनेक कर्मोनो नाश करे , तो जाजीवार पालवाथी (अत्र के०) ए सामायिकमां (उच्च धियः के०) उंची बुद्धिवालाने कर्मनो नाश थाय, तेमां तो गुंज आश्चर्य के ? (सत्यं के०) ते वात सत्य ने त्यां दृष्टांत कहे जे, जेम के ( उदकं के० ) जल (स्पर्शपि के०) स्पर्शने विषे पण (मलिनत्वनाशि के ) म लिन पणाना नाशने करनारूं थाय ने (वा के० ) तथा ( दीप. के०) दी पक, (कृतः के० ) कस्यो बतो (घोरंतमः के० ) जयंकर घणा कालना चं धकारने (हरतिएव के० ) हरण करे बेज तेम जाणवू ॥४७॥ आहिं चंशवतंस राजानी कथा कहे . विशालापुरीने विपे चंशवतंस राजा राज्य करे . ते जैनधर्मपालक परमनैष्ठिक साम्राज्यने करतो हतो. एकदा पांखीने दिवसें ते राजायें पोताना घरने विपे एवो अनिग्रह क यो के ज्यां सुधी आ दीवो रहेशे त्यां सुधी मारे कायोत्सर्ग पार, नहिं. दासीने ते अनिग्रहनी खबर न होवाने लीधे, स्वामी नक्तियें करीने दा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो, सीयें आवीने तेल बली गयुं, त्यारें बीजी वार पूयुं एम ज्यारें ज्यारें तेल थ रहे,त्यारे त्यारें दासी आवीने तेल पूरी जाय. ए रीतें पारखी रात्रि दीवो बल्यो त्यां सुधी राजायें कायोत्सर्ग पूरी न कस्यो. सूर्योदय थयो त्यारे का योत्सर्ग पूरो थयो याखी रात्र उनो रहेवाथी शरीर रुधिरें करी जराइ गयो, तेथी जेम पर्वत, शिखर त्रूटी पडे,तेम ते राजा नीचें नूमीयें पडी मरण पा म्यो. ते गुनध्याने करीने गुनगतिने पाम्यो. वास्ते सामायिक करनारा म नुष्योनां पातक दहन थइ जाय रे एम जाणवू ॥४७॥ . सामायिकं समतयारिमुहृत्सुसिध्यै, प्रयोतमुक्ति कृदायिनराजवतस्यात् ॥ सच्चंदनांशुकमिवास्फुट कुष्ठनाज, स्तत्कुर्वतः कंपटतोबहिरंगशुध्यै ॥४॥ अर्थः-(अरिसुहृत्सु के०) शत्रुमित्रोने विपे (समतया के०) समना व रूप (सामायिकं के०) सामायिक कयुं होय तो (सिक्ष्य के०) सिदिने मारे (स्यात् के०) होय. केनी पेठे तो के (प्रद्योतमुक्तिकत् के०) चंम्प्रद्यो तराजाने बंधनथी मूकनार एवा (नदायिनराजवत् के०) नदायिन राजा नी पेठे अने (कपटतः के०) कपटथकी सामायिक, (कुर्वतः के०) करनार ने (बहिरंगशुध्यै के०) बाहेरना अंगनी शुदिने माटे थाय . त्यां दृ ष्टांत कहे जे के जेम (अस्फुटकुष्टनाजः के० ) नथी बाहेर पड्यो कुष्टरो गनो विकार जेने एवा प्राणीने (सञ्चंदनांशुकमिव के० ) सारु चंदन चो पड, तेज अंगुक एटले वस्त्र, ते जेम लागे तेम ते सामायिक बाहिरना दोषोने मटाडे ने माटे तेवं सामायिक, सर्व जव्य जीवें जरुर करवू ॥४॥ हिं नदायिनराजानो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . वीतनय पत्तनने विषे नदायिन राजा राज्य करे , तेनी पट्टराणी प्रनावती नामे हती, ते राजाना घरमां अत्यंत रूपवाली एवी सुवर्णगुलिका नामें दासी हती. ते निरंतर अतिशय नाव सहवर्तमान देवाधिदेवनी प्रतिमानु पूजन करती हती. एक दिवसे नजेणीना राजा चंप्रद्योतें प्रतिमास हित ते दासीनु हरण कयुं तेवातनी उदायिनराजाने खबर पडवाथी दश राजाने साथें जश्ने सडवा माटे उजेणीयें गयो, बेहु राजायें दारु ए यु६ कत्युं. तिहां उदायिनराजायें चंप्रद्योतने जीवतो पकडीने बंदी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ud कपरप्रकर, अर्थ तथा कथा सदित. वान कीधो मार्गे चालतां वकाल आववाथी राजा, दशपुरनगरें रह्यो तिहां पर्युषण पर्व श्राववाथी उदायिराजायें उपवास कस्यो अने चंमप्र द्योतने रसोइयो पूबवा गयो के आपना सारूं केवी रसोई बनावीयें ? चं मप्रद्योतें कह्यु के जे नदायिराजा सारु बनावो तेज रसोइ महारा वास्ते बनावजो तेने रसोइयें कयुं के नदायिराजाने आज उपवास ले ते सांगली चंप्रद्योतने शंका नपनी जे आज एणे मने फेर आपवानो विचार कस्यो जणाय ने माटेज जुदी रसोइ बनाववायूँ कहे एवा नय थी वोल्यो जे महारे पण आज उपवास के अने ढुं पण जैनधर्मी बूं नदा यीनो साधर्मीनाइ पण मने विस्मरण थइ गयुं तेथी रसोई करवानें क युं तेवात रसोइये जर उदायिनराजा आगल कही तेवारे नदायिने विचा युं जे ए धूर्तताथी बोल्यो बे खरों तो पण महारो साधर्मीनाइ थइ चूको .माटे एनी साथे मिबाउकड आप्याविना शुद्ध सामायिक कर सूजे नही पबी नदायि राजायें चंम्प्रद्योतने कडं के महारी साथे मिजाक्कड कस्य तेणे कर्तुं महारूं राज्य पावू प्राप्य पनी बीजो कोई उपाय नही होवा थी तेने बोडी मूकीने पावू नऊयणीनुं राज्य प्राप्युं अने पूर्व उदायिरा जायें ते चंम्प्रद्योतना ललाटमां दासीपति ए राजा बे एवा अदरनो माम दीधो हतो ते मांमने ढांकी मूकवाने माटे तेने सोनानो पट्ट बंधावी स न्मान करीने उड़ायणी नगरीयें मोकली दीधो ते दिवसथी चंप्रद्योतना कपालमां सुवर्णपबंध निरंतर रह्यो एवीरीतें अविज्ञात पणाथी नपवा सादि सामायिक करे तो पण लान थाय तेवारे विज्ञातपणाथी फलप्राप्ति थाय तेमां तो कहेज झुं ? माटे सामायिक अवश्य करवू ॥१७॥ देशावकाशिकमपास्य सकाकजंघ, कोकाशवहिप दमेति जनः प्रमादी॥ धत्ते प्रनां दिनचरोन निशा करोऽपि,न स्तूयतेऽपिच पयोनृदकालदष्ठः ॥४॥ अर्थः-(जनः के०) मनुष्य, ( देशावकाशिकं के ) देशावकाशिकव्रत ने ग्रहण करीने पनी (प्रमादी के०) बालसु थयो बतो. ते देशावकाशि क व्रतने (अपास्य के० ) तजीने (सकाकजंघकोकाशवत् के० ) काकजंघ सहितकोकाशनीपेठे ( विपदं के०) सुःखने (एति के० ) पामे . एज अ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. थनो दृष्टांत कहे . ( दिनचरः के० ) दिवसे विचरनारो एवो ( निशाक रोपि के० ) चश्मा पण (प्रनां के०) कांतिने (न धत्ते के०) धारण कर तो नथी. (च के०) वली (पयोनृत् के० ) मेघ, (अकालपृष्ठः के०) अ कालें वरसे तो (न स्तूयते के०) वखणाय नही. तेम देशावकाशिकने त्या गनारो कोकाशनामा सूत्रधार,अने काकजंघनामा राजा काकजंघनी साथें जे वर्ते, ते सकाकजंघ कोकाश जाणवो. तेनी पेठे थाय ॥ ४ ॥ याहिं काकजंघकोकाशनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे... विदेहा नगरीनेविषे काकजंघनामा राजा अने कोकाशनामा सूत्रधार वसे . ते कांकजंघराजा लाकडाना संचायें गोठवेला एवा गरुडपर बेसीने फरेने तथा ते कोकाशिक लाकडाना संचावाला अश्वनपर बेसीने फरे ले. ते सूत्रधार ने लोको कोकाशी एवे नामे कहे . ते काकजंघ परमजैन हतो, पोता नी विद्याना बलेंकरी समेत शिखर पर्वत तथा अष्टापद प्रमुख तीर्थने विषे श्रीदेवाधिदेव अरिहंत प्रनुने नमस्कार करे ने एकदिवस ते काकजंघे, प्रा तःकालनेविषे गुरुनी पासें जा नगरथी माहारे बाहेर जावू नही. एवा देशावकाशिक व्रतने ग्रहण कह्यु.पनी एक दिवस ते एक पोतानाज गामने विषे संचायें करीचालता एवा काष्ठना घोडा नपर बेसीने गगनमार्गनेविषे चालवा लाग्यो गामबाहेर निकली गयो दैवयोगें ते काष्ठना अश्वनी कीलि का नांगी. तेवारें आकाश थकी पर्वतनी उपर पड्यो. त्यां मरण पामवाथी व्रतनी विराधनायेंकरीने ते काकजंघ उर्गतिने पाम्यो. माटे व्रत ग्रहण क र, ते को दिवस अजाण पणायें पण बोडवू नही ॥ ४ ॥ गुरुवचनवियोगाऽझातदेशावकाशो, विपदि तरतिपुण्याच्चेद्यथा लोहजंघः॥ दयमयसपनावाः स्वामिना वाह्यमानाः सततममि तगत्या किं हितं स्वस्य कुर्युः ॥५०॥ देशावकाशिकव्रतक्षारं॥ अर्थः-( गुरुवचन वियोगाझातदेशावकाशः के० ) गुरु वचनना वि योगें करी नथी जाण्यं देशावकाशिकव्रत जेणे एवो पुरुष जो पण ( विपदि के० ) विपत्तिने विषे पडे दे तो पण ते व्रतरूप ( पुण्यात्के) पुण्यथकी (तरतिचेत् के) तरे ने केनी पेठे ? तो के (यथा के०) जे म (लोहजंघः के०) लोहजंघ नामा चंप्रद्योत राजानो लेखकहार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. हतो ते गुरुना वचन विना देशावकाशक व्रतमा अज्ञात थयो बतो विपत्ति मां आव्यो तो पण तस्यो, ते पुण्यथकीज तरतो हवो त्या दृष्टांत कहे . ( हयमयवृषनावाः के० ) अश्व, उंट, वेल ए सर्व ( स्वामिना के०) स्वा मियें ( वाह्यमानाः के० ) वहन कस्या बता ( सततं के०) निरंतर (अमि तगत्या के०) अप्रमित गतियें करी ( किं के०) झुं (स्वस्य के० ) पोता ना ( हितं के ) हितने ( कुर्युः के०) करे ? ना नज करे ॥ ५० ॥ आहिं लोहजंघनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . नऊयिनी नग रीनेविपे चंम्प्रद्योत नामा राजा राज्य करे . तेनो लोहजंघ नामा दूत हतो. ते प्रति दिवस चोवीश योजन चालतो हतो. एकदा सामंत राजा ये विचाओँ के ज्यारे ए लोहजंघ पोताना.राजानी सेवा माटें आपणा न गरमां आने, त्यारे तेने युक्तियें करीने मारवो कारण के ते आपणा समा चार लइ.जाय ले, तेथी आपणने कष्ट थाय ने. एम विचारी एक सलाह करीने परी ज्यारे ते लोहजंघ तेमना गामथी पाडो वव्यो, त्यारे तेने संब लने माटें विष मिश्रित लाडु करीने प्राप्यो. जेवामां ते रस्तामा खावानो यारंन करे, तेवामांत्रण बीक थइ त्यारे तेने शंका पड्याथी ते लाडु खाधो नहिं, अने जोयुं तो विषमिश्रित लाडु दीठो पनी पोतें नजयणीमां चंम्प्रद्योत राजा पासें आवीने ते लाडुनुं वृत्तांत सर्व संनसाव्युं अने ते मोदक राजाने आप्यो. राजानी पासें ते वखत अजयकुमार बंदीवान हतो तेने राजायें पूब्यु जे हे कुमार ! आ मोदकमा झुंडे ? त्यारें अजयकुमारे कह्यु के, आमां दृष्टिविष सर्प उत्पन्न थयो . त्यारे ते लाडु राजायें ली लाखंडवाला वननेविपे नाखी दीधो. तेमांथी निकलेला सर्पनी दृष्टिथी थोडाज वखतमां ते लीलुं वन सुकाइ गयुं. ए देशावका शिकव्रत संपूर्ण थयुं. हवे पोषधवतनुं हार कहे जे. शुचिपौषधेन मुनितुल्यतेति किं, जिनतापि मेघ रथवभवेत् क्रमात् ॥ किमु निर्धनस्य मणिनेष्टदा यिना, धनितुल्यतैव नृपतुल्यता न किं ॥५१॥ अर्थः-(शुचिपौषधेन के०) पवित्र पौषधे करी गृहस्थने पण (मुनितुल्यता के०) मुनिनुं तुव्यत्व थाय जे (इति के०) ए प्रकारे होय तेमां (किं के०) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. गुं केहेवू वली तेने ( मेघरथवत् के० ) मेघरथनी पेठे ( जिनतापि के) तीर्थकर पणुं पण प्राप्त थाय . ते मेघ रथनो जीव अनुक्रमें दशमे नवे श्रीशांतिनाथ नामें तीर्थकर थयो. त्या दृष्टांत कहे . जेम के (इष्टदायि ना के ) इलित पदार्थने देनारा एवा (मणिना के० )चिंतामणियें करीने (धनितुल्यताएव के० ) धनवाननी तुल्यताज (नवति के०) होय ? परंतु ( नृपतुल्यता के० ) राजानी तुल्यता ( किं के० ) झुं (न के० ) न होय. ना होयज अर्थात् व्रतें करीने गृहस्थने केवल मुनितुल्यताज थाय अने जिनता न थाय एम जाणवं नहिं परंतु जिनता पण थायज. __याहिं मेघरथ राजानो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे जे. शावस्ती न गरीने विपे मेघरथ राजा राज्य करे जे. एकदा ते राजानी सनामां निमित्ति यो आव्यो. ते निमित्तियाने मंत्री पूथु जे कांक निमित्त कहो त्यारे नै मित्तियें कहूं के आजथं। सातमे दिवसें प्रा राजाना मस्तक उपर वीजली पडशे. ते वचनथी सर्व जनो नयनांत थगया. पनी राजायें पूब्युं के हवे मारे कम कर ? त्यारे केटलाएकें कह्यु के वाणमां बेशीने समुश्मांजावु, केटलाएके कां के गिरिगुफामां जश्ने रहे. त्यारे तेनो एक सुबुदि नामें प्रधान हतो,तेणें कह्यं के ए सर्व जवा द्यो अने देवधर्माराधन करो. जेणे करी सर्व विघ्नोनो नाश थर जाय. पडी राजायें नवीन पाषाणनो यद कराव्यो अने तेने राज्याभिषेक कराव्यो. अने पोतें सर्व त्याग करी जिनालयमांबेसी पोषध व्रत धारण कयु, सातमो दिवस ज्यारे आव्यो, त्यारे वीजली पा पागना यद नपर पडी, तेथी ते यह तरत फाटी गयो एटने राजाने मूकी यदनी उपर विद्युत् पडी. अने राजा पौपधवतना प्रतापें करी बची गयो ते राजाना जीववाथी सर्व जनोने परम प्रमोद थयो. ते राजा अनुक्रमें दशमे नवें श्रीशांतिनाथ नामा तीर्थकर थया. एम पोषधना प्रतापें करी मरण कुःख मट्युं तथा अनुक्रमें तीर्थकरपणुं प्राप्त थयु. माटे सर्व नव्य जीवें पौषधव्रत धारण करवू ॥५१॥ सत्पौषधं विविधसिदिमौषधं य, त्तभावनाशमरसाई हृदग्मिलीढः॥ स्वः सागरेंपुरजनि स्फुटदेममूर्ति, रौर्वा नितप्तविमलाऽजिरिवाब्धिमंथा ॥५॥ पौपधधारं ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. अर्थः-(यत् के०) जे (औपधं के०) औषधसमान एवं (सत्पौषधं के०) उत्तम एवं पौषधव्रत, ( विविधसिदिदं के०) अनेक प्रकारनी सिदिने देना लंबे. अने (तनावनाशमरसाईदमिलीढः के०) ते पौपधनी नावना तेज शम तप जे रस,तेणें आई एटले अकठोर नम्र एवं जे हृदय तेज अग्नि, तेणें करीआस्वादित एवो (सागरेंडुः के०) सागरचं नामा राजा, (स्फुटहेम मूर्तिःके०) प्रगट डे सुवर्ण समदेह जेनो एवो बतो (स्वः के०) स्वर्गने विषे (अजनि के० ) नत्पन्न थयो. बीजुं सुवर्ण पण रससंयोगें करी अग्नियें करी फूंक्युं होय तो शुद्ध थाय जे. केनी पेठे ? तो के ( अब्धिमंथा के० ) मेरु नामनो (अभिरिव के०) पर्वत तेज जेम (और्वामितप्तविमलः के०) वाडवाग्निना तापें करी निर्मल थाय ने सेनी पेते. मनुष्य पण प्रधान पो पथ व्रतें कंरी शु६ थाय ने एटले ते प्राणीना कर्ममलनो नाश थाय ने. आंहिं सागरचंइनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . धारिकाने विपे श्रीकृष्णनो श्वसुर उग्रसेन राजा हतो तेना पुत्रनुं नाम ननसेन हतुं. तेने परणाववा माटे तेना पितायें कमलामेला नामनी को एक कन्या जो मुकेली हती, पडी ननसेनने घेर नारदमुनि श्राव्या, तेनुं सन्मान ननसेनें कयुं नहीं तेथी रुष्ट थश्ने नारदें कमलामेलानुं रूप पट्टमां लखीने बलदेवना पुत्र सागरचंनी पासें देखाडयुं. ते कन्यानुं चित्र जोड्ने सागरचंद, कमला मेलानु नाम गांझानी पेठे वोलवा लाग्यो, बने नूतानिनिवेश जेम थाय, तेम थ गयो, ते पड़ी वाकबलें करी सांबकुमार ते कमला मेला सागर चश्ने परणावी आपी. ननसेन ते कन्या पोताने न परणवाथी सागरचं साथें ईप वहन करवा लाग्यो, एकदा श्रीनेमीनाथनी पासें सागरचं श्रा वकनां व्रत सीधां तेने पालन करतो स्मशानमां कायोत्सर्ग रात्रिये करतो हतो तिहां नमतां जमतां दैवयोगें ननसेने ते सागरचंश्ने कायोत्सर्गमा उनो रहेलो दोतो, त्यारें अमिना अंगारानी नरेली तीब, तेना माथा उप र ते पापियें मूकी, ते सागरचंड उपसर्गने सहन करतो बलतो बतो मर ण पाम्यो अने देवलोकने विषे देव थयो. माटे पवित्र पौषध करनारो एवो प्राणी सजतिने पामे , तेमां गं आश्चर्य जाणवू ? ॥ इति पौषधव्रत ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप जाग पांचमो. किमपिफलमपूर्व संविभागस्य साधो, र्यदनिलपित सि मूलदेवेऽपिमापाः॥ कृशमपि हि सुपात्रे न्यस्तमुच्चैः फल हर्यै, ननु तृणमपि धेनोईग्धपीयूषटयै ॥ ५३ ॥ अर्थः- ( यत् के० ) जे ( संविभागस्य के० ) संविभाग व्रतनुं ( किम पिके) का निर्वचनीय ( फलं के० ) फल, (पूर्व के० ) पूर्व या बे. जेम ( मूलदेवेपि के० ) मूलदेव नामा राजाने विषे पल ( साधोः ho ) साधुने पेला ( माषाः के० ) अडदना वाकला, ते अनिलपितसि So ) ति पदार्थनी सिद्धिने माटे थया. (हि के० ) निश्वे ते वात घटे जेम के (सुपात्रे के० ) सुपात्रने विषे ( कृशमपि के० ) थोडुं पण ( न्यस्तं के० ) खारोपण करेलुं बतुं ( उब्बैः फल ६ के० ) चा फलनी कविने माटे थाय ले. केनी पेठे ? तो के ( धेनोः के० ) गायने दीधेनुं ए (तृणं के० ) घांस पण ( डुंग्धपीयूषवृयै के० ) दुग्धरूप अमृतनी वृ दिने माटे थाय बे तेम ए पण जाणी जेवुं ॥ ५३ ॥ यहिं मूलदेवनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे बे . कौशांबी नगरीने विषे रिपुमर्दननामा राजा तेनो पुत्र मूलदेव करीने हतो, ते अत्यंतदान नो व्यसनी हतो एक दिवस कोइना मुखथी नवुं काव्य सांजलीने तेने एक लव्य यापतो हवो, ते सांजली तेना पितायें दाननो निषेध कस्यो. त्यारे ते बानो मानो घरथकी निकली गयो. अनुक्रमें एक अटवीमां श्रा व्यो त्रदिवसें ते घटवी उत्तरी गयो त्यां कोइक नगरीनेविषे नमतां मतां ते मूलदेवने बाफेला बाकला कोइयें खाप्या. ते बाकला पोते न खाधा ने नाव सहित कोई एक साधुने वहोरावी श्राप्या. ते जोइ ते वननी देवीयें तुष्टमान थइ मूलदेवने कयुं वरदान माग्य, कहेनुंबे के ॥ धन्नाणं सुनराणं, कुम्मासाहुति साहु पारणए । गणियंच देवदत्तं दंति सहस्सं च रं च ॥ १ ॥ तेवारें मूलदेवें एक हजार हाथी युक्त राज्य मा युं, देवीयें पण तेज वरदान प्राप्युं, त्यार पढी नगर प्रत्ये जातां कोइक गामने विषे पर्णकुटीमां सुतो, त्यां पोताना मुखमां चं प्रवेश थयो एवं स्वप्न दीतुं प्रातें उठीनें मूलदेवें तेनुं फल कोइ स्वप्नपाठकने पूढयं. तेवारे ते स्वप्नपाठकें प्रथम तो मूलदेवने पोतानी पुत्रीनुं पाणिग्रहण कराव्युं. ६२ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर. अर्थ तथा कथा सहित. ६३ ते पड़ी कह्यु के या स्वप्नना फलमां राज्यप्राप्ति तमोने थाशे. ते पड़ी सा तमे दिवसें माहम्मति नगरीनेविषे अपुत्रीयो राजा मरण पाम्यो ते राजा नुं राज्य पंचदिव्य थकी ते मूलदेवने प्राप्त ययु. एवीरीतें संविनागव्रतना प्रतापथी तेनी स्थिति उत्तम थइ तेमाटे संविनागव्रत करवु ॥ ५३ ॥ यदसदपि ददो प्राक्शालिनशेऽतिथेः स्वं, तदसदपि स लेने कामरईिः क्वमर्त्यः॥ व नुविजलधिरिंः क्वांबरे तं सपुष्णा, त्यमृतनृतपयोदंः शोपणेप्यौर्ववन्दः ॥५४॥ अर्थः-(प्राक् के०) पूर्वनवें (शालिनः के०) शालिनश्नो जीव ते (यत् के०) जे (असदपि के) असत् एवा पण ( स्वं के) पोताना पर मानरूप पारका घरथकी याचना करीने लावेलो हतो ते (अतिथेः के०) साधुने ( ददौ के०) आपतो हवो (तत् के०) तेयो (असत् के०) अ सत्एवा मनुष्यलोकना सुखने (सः लेने के ) ते पामतो हवो नहीं तो (अमररिदिः क के० ) अमरनी समृद्धि क्या अने (क मर्त्यः के०) म नुष्य ते क्यों ? अर्थात् अन्ननो कीटक एवो मनुष्य क्या अने देवतानी दिक्यां त्यां दृष्टांत कहे जे (नुवि के०) पृथ्वीने विपे (जलधिःक्क के) समुह क्यां? अने (थंबरे के० ) आकाशने विपे (इंउक्त के०) चश्मा क्यां एम ले तो पण (अमृतनतपयोदः के०) जेणे पाणी करी मेघने परिपूर्ण नरेलो वे एवो (सः के) ते चं जे ते (ौर्ववह्नः शोषणे पिके०) वाडवानलथी थता एवा शोषणनेविषे पण समुनु (पुमाति के.) पोषण करे . अाही शालिननी कथा प्रसिद्ध माटे लवी नथी. हवे सप्तदेत्रनुं हार कहे जे. देत्रेषु सप्तस्वपि पुण्यध्ये, वपेक्ष्नं संप्रति राजवश्नी॥ कृपीवलः केवलशालितंउला न्, वपेत्सकियोऽखिलशस्यलालसः॥५॥ अर्थः-(धनी के०) धनवान् पुरुष, (संप्रतिराजवत् के० ) संप्रति रा जानीपेठे ( सप्तसुदेवेषुअपि के०) सातदेवने विषेपण (पुण्यवृदये के०) पुण्यनी वृदिने माटे (धनं के०) धनने ( वपेत् के० ) वावे, (कपीवतः के०) खेड करनारो एवो (यः केर) जे प्राणी, (अखिलशस्यलालसः Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो के ) समय धान्यनो लालची होय, (सः के०) ते (किं के०) [ ( केवल शालितंकुलान के०) केवल शालितंउतनेज वावे . ना सर्व धान्यने वावे . आहिं संप्रतिराजानो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . पाडलीपुर नगरे मौर्यवंशने विपे अलंकार रूप चंगुप्त राजा राज्य करे . तेना पुत्र नुं नाम बिंदुसार तेनो पुत्र अशोक तेनो पुत्र कुणाल तेनो पुत्र संप्रति राजा थयो ते जन्म्या पनी दशमे दिवसेंज राज्य पाम्यो ते राजा वासुदेव नीपेठे त्रण खमनो नोक्ता थयो एकदिवस गवादमां बेठा राजायें रस्तामा जतां आर्यसुहस्ति सूरिने जोया. तेना दर्शन करतांज संप्रति राजाने जा तिस्मरण नुत्पन्न ययुं तेथी तरत आवीने सूरीने वंदन कयुं. राजायें पुब्युं हे जगवन ! अव्यक्त सामायिकनुं गुं फल के ? गुरुये कह्यु के. राज्य प्राप्त थाय. पी गुरुजीये ते संप्रति राजानो पूर्वनव कहेवा मांड्यो. हे राजा! तुं पूर्वनवनेविपे कोइक रंक हतो अमारा साधुपासे लाडुनी याच ना करी हती. अमोयें कह्यं के तुं जो अमारो शिष्य थायतो लाडु पापी ये त्यारें तें मोदकनी बाथी प्रव्रज्या ग्रहण करी. ते पबीते मोदकादि अति स्निग्धाहारथी गूढ विशूचिकायें करी पीडा पामतो बतो पण धर्मनुं अनुमोदन करतो मरण पामीने हमणां तुं संप्रति राजा थयो बो. ए अ व्यक्त सामायिकनुं फल ले एवं गुरुवचन सांजली वली गुरुपासें दीक्षा ले वानी प्रार्थना करी. त्यारे गुरुयें कह्यु के तारे राज्य संबंधि जोगावली कर्म शेष रह्यांचे ते सांजली राजायें पोताना नगरनेविपे दान शाला मंमावी तथा श्रीजिनप्रासादें मंमित पृथ्वी करी एक लाख, जिनबिंबो कराव्यां अनार्य देशोमां पण धर्मनी प्रवृत्ति करावी. चतुर्विध श्रीसंघनी न क्ति करवा मांझी, अंते मरण पामीने खर्गे गयो माटे सातदेवमां आपना र प्राणी सजतिने पामेले तेमां शंका जाणवी नहीं ॥ ५५॥ क्षेत्राणि सप्तापि फलंति सर्व, मप्येककं कल्कि जवत् सुजुष्टं ॥ यत्पुण्यमारार्तिकसप्तदीपै, रेकेन तन्मंगलदीपकेन ॥५६॥सप्तदेवघारं॥ अर्थः-( सप्तापि के) सात एवां पण ( देवाणि के०) क्षेत्रो, जे ले ते यथाशक्तिये स्पर्श करयां बतां (फलंति के०) फलदायी थाय ने (ए Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. . ६५ कैकमपि के० ) एकेक एवं पण ( देवं के० ) क्षेत्र, (सुजुष्टं के० ) सारी रीतें सेवन करेलु (सर्वमपि के०) सर्व प्रकारना महोटा एवा पण फलनु आपनार थाय ने. केनी पेठे? तो के (कदिकजवत् के) कल्किना पुत्र दत्त नी पेठे. त्या दृष्टांत कहे जे ( यत् के० ) जे (पुण्यं के०) पुण्य (बारा र्तिकसप्तदीपैः के०) बार्त्तिना सात दीवायें करीने थाय ने (तत् के०) ते पुण्य (मंगलदीपकेन के०) एक मंगलदीपें करीने पण थाय ने ॥ ५६ ॥ ___ आहिं कलिकपुत्र दत्त राजानो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे जे. श्री महावीरना निर्वाण दिनथी बे हजार वर्षना प्रांतमा पाटलीपुरमा कल्कि राजा थाशे. ते पूर्वनवना मित्र देवतायें आपेला त्रिशूलें करी जरतना त्रण खमने साधशे, तेनो पुत्र दत्त नामा थाशे, ते श्रीजिनना प्रासादोयें करी पृथ्वी अखंमित करावशे, परंतु श्री सर्वाना नाखेला वचनने बद्मस्थ 'जाषितनी पेठे असंबद जाणशे. हवे ते कल्किना पुत्र दत्तराजें जिनप्रासाद रूप एकदेत्र सेवन सारी रीतें कयुं, तो पण तेथी ते सुखी थयो ॥ ५६ ॥ बिंबं मदल्लघु च कारितमत्र विद्यु,न्माल्यादिवत् परनवे ऽपिशुनाय जैनम्॥ ध्यातुर्गुरुर्लघुरपीप्सितदायिमंत्रः, प्रागदौःस्थ्यनाविधनविघ्ननिदेन किं स्यात् ॥ ५॥ अर्थः-(अत्र के ) आ जवने विषे जो (महत् के० ) अत्युल्लष्टथी पांचशे धनुष प्रमाण अने (लघु के०) न्हानुं अंगुष्टपर्व समान एवं (जैनं के० ) जिननुं ( बिंब के) बिंब ( च के०) वली ( कारितं के०) करावेलुं होय, तो ते (विद्युन्माल्यादिवत् के०) विद्युन्मालि देवादिकनी पेठे (परनवेऽपि के० ) परनवने विपे पण (शुनाय के०) गुनने माटे थाय बे. कह्यु के के "नक्कोसपणधपुसय, लदुवाअंगुह पव समा” ए वचन जे. हासा प्रहासा देवांगनाना अधिकारने विषे स्वर्णकारनो जीव विद्युन्माली देव, तेणें जिनबिंब कराव्यु, ते तेने लानने माटे थयुं. इहां दृष्टांत कहे जे (गुरुः के०) गुरु, अने (लघुरपि के०) लघु एवो पण (ध्यातुः के०) ध्यान करनारने (इप्सितदायि के०) इलित पदार्थने आपनारो एवो (मंत्रः के०) मंत्र जे ते (प्रागदौःस्थ्यनाविधनविघ्ननिदे के०) पूर्वजन्मनां करेला जे दुष्कर्म तेणें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष भाग पांचमो. करी थयेला एवा जे निविड विघ्नो तेना नेदवाने माटे ( किं के ) गुं (नस्यात् के०) न थाय? अर्थात् थायज ॥ ५७ ॥ __ बाहिं विद्युन्माली देवतानी कथा कहे जे. चंपानगरीने विषे कुमारनंदी स्वर्णकार रहेतो हतो. ते अत्यंत विपयी हतो, ते एक दिवस हासाप्रहासा व्यंतरीयोनुं रूप जोड्ने वाणमां बेशी पंचशैल दीपप्रत्ये गयो. त्यां ते बेदु व्यंतरीयोयें कह्यु के, आ सात धातुनुं बनेगें एवं जे तारूं शरीर तेनाथी अमारे का प्रयोजन नथी. एम कही ते बेतु जगायें तेने मूकी दीधो. परंतु तेना. रूपथी मोह पामेलो एवो ते सोनी तेने मित्रे वायो तो पण अगिनीमरणने साधतो हवो, त्यांथी मरण पामीने हासाप्रहासा व्यंतरी योनो नर्ता थयो, परंतु यानियोगिक देवमां उपन्यो ले माटेबानियोग कमें करी अत्यंत शोक करतो हतो. त्यारें देवता थयेला एवा तेना पूर्वनवना मित्र देवें तेने कयुं के हे मित्र! हवे शोक कर नही. तुं नवीन जिनबिंब कराव्य, के जेथी ते पुण्ये करीने तारी सजति थाय, एवा पोताना मित्र देवना वचनें करी ते विद्युन्माली देवतायें चंदननी मूर्ति करावी. तेने लाकडानी पेटीमां मूकी ने समुश्मांतरती मूकी. कमें करीने ते पेटी उदायी राजाना हाथमां श्रावी. ते पुण्यना योगें करी ते विद्युन्माली देवता थोडाज नवोमां सिदि पामशे ५७ निर्मायाऽर्हतबिंबमाईतपदस्थानाग्रिमं धार्मिकः,स्वा स्मानं च परं च निर्मलयति स्तुत्यर्चनावंदनैः॥मंत्रि श्रेणिकसूरिवाकसुतं मोहांधकारे स्थितं,दीपः पुष्य तिकस्य कस्य न मुदं श्रेयः श्रियामास्पदम् ॥५॥ अर्थः-(धार्मिकः के) धार्मिक एवो पुरुष ते (आर्हतबिंब के०) जिनबिंबने ( निर्माय के ) निर्माण करीने (स्वात्मानं के०) पोताना आत्माने (च के०) वली (परं के०) परना आत्माने (आर्हतपदस्था नामिमं के० ) अरिहंत सिपवयवणेत्यादिने विषे अग्रिम स्थान एटले प्र थम स्थानप्रत्ये पमाडे ले. अथवा आईत्पदवीनुं स्थान जे मोद ते मोद मार्गने विपे अग्रेसरपणाने पमाडे ने. इहां दृष्टांत कहे . (मंत्रिश्रेणिकसू रिव के०) श्रेणिकनो पुत्र अजयकुमार मंत्री जे तेज जेम (मोहांधकारेस्थि त के०) मोहरूप अंधकारने विषे रहेला एवा (आईकसुतं के०) आई Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सदित. ६० कुमारनें (स्तुत्यचेनावंदनैः के० ) जिनबिंबनां स्तुति, अर्चन, खने वंदनें कर ( निर्मलयति के० ) निर्मल करता हवा. ते वात घटे बे. (च के०) वली (श्रेयः श्रियामास्पदं के० ) कल्याण ने लक्ष्मीना स्थानकरूप एवो ( दीपः के० ) दीप ते ( कस्यकस्य के० ) केना केना ( मुदं के० ) हर्षने (नपुष्यति के० ) नयी पोषण करतो ? अर्थात् करेज बे ॥ ५८ ॥ द्वार अहावीशभुं ॥ श्रहिं श्रनयकुमारनी कथा कहे ते. राजगृही नगरीने विषे श्री श्रे कि राजानो पुत्र अजयकुमार मंत्री, राज्यव्यापारने चलावतो हतो, ते एक दिवसें वीरभगवानने पोतानो पूर्वभव पूलवाथी पोताना पूर्वजव नो मित्र नार्यदेशमां उपन्यो जाणीने अत्यंत शोक करवा लाग्यो. पती ते मित्रने बोध करवा माटे पोताना मित्र वणिक पुत्रना हाथथी श्री जिनबिंब कुमार पासें मोकलतो हवो. ते वखत पूर्वे नहीं जोये .ला एवा. जिन बिंबने जोइने श्राईकुमार, चिंतववा लाग्यो के या केवुं यारण मारा मित्र मोकल्युं ले ? एम समजीने पोताना मस्तकें मूक्युं वली पाठुं त्यांथी लइने पोताना वेदु हाथमां बांधयुं, तो पण कोइ ठेकाणे ते रणबंध बेतुं नही ? पढी सिंहासननी उपर स्थापन कस्युं, तेथी य त्यंत शोजवा लाग्युं. ते जोड़ने श्राईकुमार चिंतववा लाग्यो के या ते केवुं खा ary? जे कोइ ठेका महारा जोवामां ते याव्युंज नहिं ? एम उहापोह क रतां करतां जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं. तेथी पोतानो पूर्व जव जोयो पढी वैराग्य उपज्यो, तेवारें व्रत ग्रहण करीने सिद्धिने प्राप्त ययो ॥ ५८ ॥ हवे तीर्थद्वार कहे बे. तीर्थ मुद्दे स्वपरयोरपि कीर्त्तिपाल, नूपालकारित तुरंगमबोधवत्स्यात् ॥ उद्यानसारसकारवनं फल , किं वप्तरेव न पुनस्तडुपासकानाम् ॥ ८ ॥ अर्थः- ( स्वपरयोरपि के० ) पोताने तथा परने पण ( मुदे के० ) ह ने माटे (तीर्थ के०) तीर्थ, ते जरूच्च क्षेत्र, (कीर्त्तिपालनृपालका रिततुरंगम बोधवत् के०) कीर्त्तिपालनूपाजें करावेला तुरंगम बोधनी पेठें (स्यात् के० ) थाय. त्यां दृष्टांत कहे बे. ( उद्यानसारसहकारवनं के० ) प्रधान एवा या ना वृदनुं वन, ( वतुरेव के० ) वावनारनेज ( फल के० ) फलनी स Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पाचमो. मृधिने माटेज थाय ले ? (पुनः के० ) वली (तपासकानां के ) ते स हकार वननी उपासना करनार प्राणीयोने (किं के०) गुं (न के०) नथी थातुं? ना थाय ज. अर्थात् वावनारने तो फल मले,तेमां शुं आश्चर्य, परंतु तेने उपासन करनार प्राणीने पण ते फलरूप दिने आपनार थाय ने एए __ अांहिं अश्वबोध तीर्थनो दृष्टांत दोवाथी तेनी कथा कहे . प्रतिष्ठान पुरमा सुमित्र नामा श्रेष्ठी वसे जे. तेनो परम मित्र जिनदास नामें श्राव क परमजिनधर्मी रहे . ते सुमित्र श्रेष्ठी प्रतिदिन कुपात्रने दान आपे . तेने जिनदास मित्रे वायो तो पण दीधाविना रहेतो नथी. एम करतां सु मित्र वार्तध्यान वशे मरण पामीने अनुक्रमें जूगुकलपुरने विषे राजानो पट्ट तुरंगम थयो. अने जिनदासनो जीव,मरीने स्वर्गमां जश्ने तिहाथी चवीश्री मुनिसुव्रत जिन तीर्थकर थयो. ए अवसरमां नृगुकानो राजा ते पट्टाश्वने प्रातःकालमां अश्वमेध यज्ञने माटे कुंममा होमशे. एम जाणीने श्रीमुनि. सुव्रत तीर्थकर तेने बोध करवा माटे रातमां साठ योजन पृथ्वी ननंघन करी प्रातःकालें नृगुको धावी समवसखा. तेवारे ते राजा तेज घोडा उपर बेसीने स्वामीने वंदन करवा माटे आव्यो. तीर्थकरना दर्शने करी अश्वने जातिस्मरण झान उत्पन्न थयु. तेथी पोताना पगना माबलाथी नूमि खो दीने अश्रुपात करवा लाग्यो. राजानी पासें श्रीमुनिसुव्रत स्वामीयें पोतानु तथा ते अश्वनुं वृत्तांत सर्व कही आप्युं. पडी ते अश्वे पूर्वनवना जातिस्मृति झाने करी अनशन व्रत ग्रहण कडे. ते मरीने अष्टमस्वर्गमां देवता थयो. पड़ी ते नृगुपुरमां कीर्तिपाल नूपालें त्यां अश्वावबोध एवे नामे श्रीजिन प्रासाद कराव्यो. ते राजा पण तेज नवमां दीक्षा लश्ने मोदें गयो. अने त्यां अश्वावबोध नामक तीर्थ ययु,माटे तीर्थथी परोपकार थाय ॥५॥ वित्तं स्थिरं सुकृतकीर्तिकरं च बाहु, बल्यादिवविवि धतीर्थनिवेशिकानाम् ॥ केतुल्लसभरतपुण्ययशार्थ वाद, मष्टापदं कश्व नानमदद्य यावत् ॥ ६० ॥ अर्थः-(विविधतीर्थ निवेशिकानां के० ) अनेक प्रकारना तीर्थमां धनने निवेश करनार पुरुषोनु, (वित्तं के०) इव्य, ते (सुरुतकीर्तिकरं के०) सुकतने अने कीर्तिने करनारंथाय . (च के०) तथा (स्थिरं के० ) ते ऽव्य स्थिर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा साहित्त. ए थाय जे. एम जाणवू. कोनी पेठे ? तो के (बादुवव्यादिवत् के०) वादब व्यादिकनी पेठे. बाहुबली पोताना इव्यथी जेम श्रीषन पाउकारूप ती र्थ,तहशिलाने विष स्थापन कस्युं. ते अद्यापि पर्यंत 'हज' एवे नामें उलखाय डे. याहिं (श्व के०) श्व शब्द जे जे ते अलंकारार्थ . (केतूनसनरतपुण्य यशोर्थवादं के ) केतुना मि– करी ननसित एवं नरत राजानुं पुण्य तथा यश तेनी प्रशंसाने कहेवा वालुं एवं (अष्टापदं के०) अष्टापद तीर्थ, तेने ( कः के) कयो पुरुष, ( अद्ययावत् के०) अद्यापि पर्यंत ( नअनमत् के० ) न नमतो हवो ? अर्थात् सर्व ते तीर्थने नमेज डे ॥ ६ ॥ __ शांहि प्रथम बाहुबलीनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . तक्षशिला पुरीने विषे बाहुबली राजा राज्य करे डे. एक दिवस श्रीषनदेवजी बद्मस्था वस्थायें विचरता थका तदशीला नंगरीना उद्यानमां पधास्या. ते पाराममा रहेनारे यावी बाहुबलीने तेनी वधामणी आपी. बादुबली राजायें संतुष्ट थइने बधामणीयाने पोताना अंगनो शृंगार सर्व प्राप्यो. पनी राजायें वि चायुं जे हमणां सांज पडवा यावी माटें प्रातःकालमां महोटा बाबरें स्वामीने वांदवा जाइश. पनी ज्यारें रात्रि गइ, अने सूर्योदय थयो त्यारे जेवामां बाहुबली राजा चतुरंगिणी सेना सहित श्रीषन देवजीने वांदवा आव्यो, तेवामां श्रीषनदेवजी तो,अन्यस्थलमा विहार करी गया. बाहुबली यें स्वामीने न देखवाथी माहाक्लेश करवा मांझयो. पनी जिहां स्वामी रात्रि रह्या हता ते दिशानी सन्मुख थश्ने परिवार सहित राजायें नमस्कार कस्यो. अने ज्यां स्वामी पधास्या हता, त्यां रत्नमय बे पाउकायें युक्त धर्मचक्रनु नि र्माण कयुं. त्यां हाल म्लेन लोकोनुं हज एवा नामर्नु तीर्थ थयुं . हवे बीजी अष्टापद तीर्थनी उत्पत्तिनी कथा कहे . अयोध्या नगरीने विषे श्री रुपनदेव स्वामी वीश लाख पूर्व कुमरपणामां तथा वेशठ लाख पू र्व राज्य नोगवीने सर्व मली व्याशी लाख पूर्व गृहस्थाश्रममा रही बरतने राज्य आपी पोतें दीक्षा लीधी. हजार वर्ष दीदा पालीने केवलझान पामीने श्रीअष्टापद गिरिने विषे मोदने प्राप्त थया. पली स्वामीना निर्वाणना स्था नकनी उपर नरत राजायें बेगान पहोलो अने चार गाउ लांबो अनेत्रण गान उंचो चार दरवाजायें सहित सिंहनिषद्या एवा नामवालो नंदीश्वरही पादि शाश्वत प्रासादने अनुसरतो सर्व तीर्थकरना पोतपोताना शरीरनां Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ go जैनकथा रत्नकोष नाग पांचम्रो. मान, यने शरीरना व करी सरखी एवी चोवीशे जिनप्रतिमानयें करी य लंकृत एव प्रासाद बनाव्यो. ॥ ६० ॥ इति चैत्यहार. ज्ञानं जगत्रयहितं पुनरप्यधीते, झोप्यार्यरक्षित श्वेतरशास्त्रपाठैः ॥ ये स्वर्णधीकनककाचकृतादरा स्ते, मैव सत्यमधिगम्य किमु त्यजति ॥ ६१ ॥ अर्थ : - ( झोऽपि के ० ) विधान् एवो जन पण ( जगत्रयहितं . के ० ) त्रण जगतना हितने करनार एवा ( ज्ञानं के० ) ज्ञानने ( पुनरपि के० ) वली पण (धी के०) जो बे. केनी पेठें ? तो के ( श्रार्यरक्षितइव के० ) श्रीश्रार्यरहितजीनी पेठें ? ( इतर शास्त्रपाठैः के० ) अन्य जैनशास्त्रना पाठ करवा एटले जेम खार्यरक्षित ब्राह्मण चन्द विद्यानो पारगामी हतो तथापि पोतानी माताना कहेवाथी तथा तेनी प्रेरणाथी चौद पूर्व शास्त्र वागयो. त्यां दृष्टांत कहे बे. के ( ये के० ) जे ( स्वर्णधी के० ) सो नानी बुद्धियें करी ( कनककाचकतादराः के० ) सोना समान काचनेविषे कोदर जे एवा बे, ( ते के० ) ते पुरुषो ( सत्यमेव के० ) सत्य एकुंज (हेम के० ) सुवर्ण तेने (अधिगम्य के० ) प्राप्त थश्ने ( किमु के० ) शुं ( त्यजति के० ) ते खरा सुवर्णनो त्याग करे बे ? ना त्याग करता न थी. अर्थात जेणें अजाणपणे पीला काचना कटकाने सुवर्ण मानी लीधुं हतुं ते पुरुषने जेवारें खरा सुवर्णनी प्राप्ति थाय तेवारें ते खरा सुवर्णनो त्याग करे ? ना ते नहींज करे ॥ ६१ ॥ यहीं श्रार्यरक्षित ब्राह्मणनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . माहे श्वरी नगरीने विषे सोमदेव ब्राह्मणनी फल्गुमित्रा नामें स्त्री हती, तेने प्रार्यर दित नामापुत्र हतो, ते अत्यंत विद्या जणवामां रसिक होवाथी परदेशें ज‍ चनद विद्या शीखीने पोताने घेर श्राव्यो, मातापिताने प्रणाम कस्यो. ते या कितने जोलो सांजली सद्दु लोक खुशी ययां. परंतु पोतानी मातानी अप्रसन्नता जोइने यार्यरहितें पूब्धुं के हे माताजी ! सहु मारी विद्याथी खुशीयां, ने तमेकेम नाराजी थया हो ? त्यारें माता बोली के हे पुत्र ! जो तुं चोद पूर्व जलीने याव्यो हत, तो मुने हर्ष यात, त्यारें तेणे पूढ के ते चौद पूर्व कोण जपावे बे ? मातायें कयुं के तारो मामो पुष्पमित्राचार्य Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. ७१ जगावे छे. ते सांजली तरत ते चौदे पूर्व जणवा माटे बाहेर निकल्यो रस्ता मां प्रथम साडानव इदं नेट थयेला जोवामां श्राव्या, पढी ढगुर श्राव का प्रयोगथी वंदन विधि शीखीने याचार्यनी सान्निध्यें जइ कयुं के महा राज ! चचद पूर्व मने जावो. त्यारे सूरिये कह के जे दीक्षित होय तेना थी ते पूर्वो नाय बे. गृहस्थथी नणाय नहिं. ते सांजली दीक्षा नेइ साडानव पूर्व पर्यंत जणीने गुरुने कयुं के हे महाराज ! हवे केटलुं नावं बे? त्यारे सूरियें कयुं के हजीतो तुं समुमांथी एक बिंदु जोलो वे. समुझ तो यखं ते या वात सांगलीने तरत नग्नोद्यम यर गयो. त्याऐं सूरियें कयुं के इदुर्दमना योगें करी मोयें जाएयुं जे तुं एटलांज पूर्व नणीश. त दनंतर तेणें माता पिताने पण दीक्षा लेबरावी ॥ ६१ ॥ " प पठति यतस्वान्नादिना लेखय स्वैः स्मर ं वितर च साध ज्ञानमेतद्धि तत्वं ॥ श्रुतलवमपि पुत्रे पश्य शय्यंन वोऽदा, गति दिन सुधायाः पानतः पेयमन्यत् ॥६२॥ अर्थ :- हे साधो ! तुं पोतें ( ज्ञानं के० ) ज्ञानने ( पठ के० ) जल. तथा ( पठति के० ) जणेला जनने विषे ( अन्नादिना के० ) अन्नादिकथी ( यतस्व के ० ) यत्न कर ( स्वैः के० ) पोताना ( इव्यैः के० ) इव्यें करी ( लेखय के ० ) ज्ञानने लखाव. ( स्मर के ० ) ज्ञाननुं स्मरण कर. ने (सा धौ के० ) सुजनने विषे ( च के० ) वली (वितर के०) जणाववा माटे यत्न कर. या संसारने विषे ( एतत् के ० ) ए (ज्ञानं के०) ज्ञान (हि के० ) नि (तत्त्वं के० ) तत्व बे. (पश्य के०) जुवो. के ( पुत्रे के० ) पुत्रने विषे ( शय्यं जवः के० ) श्रीशय्यंनवस्वामी ( श्रुतलवमपि के० ) श्रुतनो लवज (दात् के० ) यापता हवा. ( हि के० ) ते वात घटे बे जुवो के ( जगति के ० ) जगतने विषे ( सुधायाः के० ) अमृतना (पानतः के० ) पानथकी (अन्यत् के० ) बीजुं कांइ ( पेयं के० ) पान करवा लायक ( न के० ) नथी ॥६२॥ हवे हिं पण शय्यंजवनो दृष्टांत ठे पूर्वै तेनी कथा जो के कहेली ले तो पण स्थानशून्यना हेतु माटे कांइक शय्यंनवस्वामीनी कथा कहे बे. चद पूर्वमांथी दशवैकालिक नामा ग्रंथ काढीने शय्यंजव गणधरें पोताना पुत्र मनकने जलाव्यो मनकना मरण पढी शय्यंनव गणधर रडवा लाग्या, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. त्यारे यशोन मुनियें पूज्यु के हे जगवन् ! झुं कहेवाय ? गुरुये कह्यु के संसारनो स्नेह तो एवोज . अा वृत्तांत सांजलीने साधु सर्व खेद पाम्या. लोकेन्योनृपतिस्ततोपि हि वरश्चक्रीततोवासवः, सर्वे ज्योपि जिनेश्वरः समधिकोविश्वत्रयीनायकः ॥ सोड पिज्ञानमहोदधिं प्रतिदिनं संघं नमस्यत्यहो, वैरस्वा मिवउन्नतिं नयति तं यः स प्रशस्यः दितौ ॥३॥ अर्थः- (लोकेन्यः के०) सर्वलोकोथी (नृपतिः के०) राजा ( वरः के० ) श्रेष्ठ जाणवो. वली (ततोपि के ) ते थकी पण (हि के०) निश्चे (चक्री के०) चक्रवर्ती श्रेष्ठ जाणवो. अने (ततः के०) ते चक्रीयकी (वा सवः के०) २६ श्रेष्ठ जाणवो. तथा ते पूर्वोक्त (सर्वेन्योपि के०) सर्वथकी पण (विश्वत्रयी के० )त्रण जगतना (नायकः के०) नायक, एवा (जिने श्वरः के०) जिनेश्वर श्रीतीर्थकर देव ते (समधिकः के०) रूडे प्रकारें अधिक जाणवा. (सोपि के०) ते जिनवर पण (ज्ञानमहोदधिं के) ज्ञानरूप समुहले जेमां एवा (संघं के०) चतुर्विध श्रीसंघने (अहो के०) या श्वर्ये (प्रतिदिनं के०) रात्रिदिवस (नमस्यति के०) नमस्कार करे . माटे (तं के) ते श्रीसंघने ( यः के) जे पुण्यवान मनुष्य, (वैरस्वामि वत् के०) वैरस्वामीनी पेठे ( नन्नति के० ) उन्नति प्रत्ये ( नयति के ) पमाडे , (सः के०) ते (दितौ के०) पृथ्वीने विषे (प्रशस्यः के०) प्रशं सा करवा लायक जाणवो. जेम वजस्वामी माहेश्वरी नगरीने विषे बौद राजानी वागल श्रीसंघनी उन्नति करता हवा. तेम संघनी उन्नति बीजा पण पुण्यवान् प्राणीयें करवी॥ ६३ ॥ हि वजस्वामीनी कथा पूर्वे कही ने तो पण यत्किंचित् कहे . प्र जावकचक्रवर्ति श्रीवजस्वामीनी पेठे शासनरूप गगर्ने उद्योत करवो. ए कदा बार वरसनो दुष्काल पड्यो, ते वखत श्रीवजस्वामी साधु तथा श्राव कना संघने पट्टमां बेसारीने गगन मार्ग करी माहेश्वरी नगरी प्रत्ये पहों चाडता हवा. त्यां महासुनिद वर्ने जे. एवा समयमां पर्युषण पर्व याव्यु, ते समय श्रीसंघ आठ दिवस नवनवा महोत्सव करे ले. त्यां ईर्ष्या करनारा बौद्धोयें राजानी आज्ञा लश्ने जिननगवानने पुष्प चडाववां निषेध करा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर अर्थ तथा कथा सहित. ७३ व्यां, ते जाणीने श्रीवजस्वामी गगन मार्गेथी दुताशन देवने घरे गया. श्री वजस्वामीना थादेशे करी ते देव,मंदारना पुष्पोयें नरेला लद करंमिया मा हेश्वरी नगरीने विषे लाव्यो, ते प्रनाव जोइने बौको हतप्रनाव थ गया. अने ते नगरीनो राजा बौछ हतो ते पण ते दिवसें जैनधर्मी थयो ॥६३ ॥ कोप्यन्योमदिमास्त्यदो नगवतः संघस्य यस्य स्फुर, त्कायोत्सर्गबलेन शासनसुरी सीमंधरस्वामिनं ॥ नीत्वा तत्कृतदोपशुदिमुदितां यदार्यिकां चानयत्, किंचैतन्ननुतत्प्रनावविनवैस्तीर्थकरत्वं भवेत् ॥६५॥ अर्थः-( जगवतः के ) समर्थ एवा. ( संघस्य के० ) चतुर्विध संघने (कोपि के० ) कोइ पण अनिर्वचनीय एवो ( अन्य के) बीजो ( महि मा के०) महिमा (अहो के ) आश्चर्य (अस्ति के०). केम के (य स्य के०) जे श्रीसंघना ( स्फुरत्कायोत्सर्गबलेन के० ) प्रकाश थतुं एवं जे कायोत्सर्ग तेना बलें करीने (तत्कृतदोषधिमुदितां के०) पोताना नाइने पर्युषण पर्वमां तप करवाथी मरण प्राप्त थवाना दोषोनी शुदिने श्वती एवी (यदार्यिकां के०) यदा साध्वीने (शासनसुरी के०) शासननी अधिष्टायि का देवी (सीमंधरस्वामिनं के०) ते श्रीसीमंधर स्वामीनी पासें (नीत्वा के०) लश् जश्ने बे चूलिकानुं दान कराव्युं. माटे (किंच के०) झुं (एतत् के०) था (तनुप्रनाव विनवैः के० ) श्रीसंघना तनु एटले थोडा प्रनावना विन घोयें करी (तीर्थकरत्वं के० ) तीर्थकरपणुं (नवेत् के०) होय, एवो श्री संघनो महिमा जाणवो ॥ ६४ ॥ __ यांहिं यदासाध्वीनी कथा कहे . पाडलीपुरने विषे शकमाल मंत्रीनी दीकरी यदा हती तथा ते शकमालनो पुत्र श्रीयक नामा हतो, तेणें श्री नंदराजानो कारनार घणा दिवस पर्यंत कस्यो. पनी वैराग्य पामीने श्रीय के दीक्षा ग्रहण करी. परंतु ते श्रीयक तप करवाने समर्थ हतो नही ते थी क्रिया अनुष्ठान करतो हतो, एम करतां पर्युषण पर्व आववाथी ते श्री यक मंत्रीनी बेन यदायें आग्रह करी तेने उपवास कराव्यो तेथी ते सां जे मरण पाम्यो. त्यारे तेनी बेने कडं जे मने ऋषिहत्या लागी. पली श्रीसंघे तथा गुरुयें घणुं कह्यु के एमां तमने पाप लागे नहि तो पण ते य Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो.. दार्यिकाने संतोष थयो नहिं. त्यारे श्रीसंघे कायोत्सर्ग कयं. ते करवाथी शासन देवता यावी तेणें ते यदार्यिका साध्वीने उपाडीने श्रीसीमंधरस्वा मीपासें पोहोंचाडी. त्यां जगवानें कह्यु के तुने कां पण कृषिहत्या लागी नथी. परंतु उलटुं पुण्य थयुं. ते वखतें तेने आगतानिझानने माटे बे चू लिका आपी पड़ी ते शासन देवतायें पाली यदार्यिकाने स्वस्थाने पोहोंचा डी. श्रीसंघे कायोत्सर्ग पायो. सर्वने बानंद थयो पनी ते बे चूलिकानुं द शवैकालिक सूत्रनी अंतें अद्यापि स्थापन कयुं बे. एम श्रीसंघना महिमा थी ते सर्व कार्य बन्यु. माटे ए चतुर्विध श्रीसंघनी ते महत्ता जाणवी ॥६॥ नवति हि नवपारः शुक्ष्या साधुनत्त्या, धनगृहपतिजी वानंदवैयेशवत् प्राक्॥पृथुरपि हि पयोधिस्तीर्यते चारु तर्या, तिमिरनरनृतोध्या दीप्तयादीपयष्ट्या ॥६५॥ अर्थः-( शुक्ष्या के०) शु६ एवी (साधुनक्त्या के० ) साधुनी नक्तियें करी (प्राक् के०) पूर्व नवनेविषे (धनगृहपतिः के० ) धनसार्थवाहनो जीव तथा (जीवानंदवेद्येशवत् के०) आदिनाथनो जीव जे जीवानंद वैद्य, तेनी पेठे (नवपारः के०) संसारनो पार (नवति के०) थाय जे. अर्थात् ते जीवानंदसाधुनी नक्तियें करी संसारनो पार पाम्या. त्यां दृष्टांत बे कहे ने. (पृथुरपि के० ) मोहोटो एवो पण (हि के० ) निचे (पयोधिः के०) समुह, ( चारुतर्या के०) मनोहर एवी नौकायें करी (तीर्यते के०) त राय जे. तथा (दीप्तया के०) प्रकाशित एवी (दीपयट्या के०) दीपपंक्ति यें करीने ( तिमिरनरनृतोध्या के ) अंधकारें नरेलो एवो रस्तो शुरू था य दे तेम साधुनक्तिथी सर्व पदार्थ लन्य थाय डे ॥ ६५ ॥ हिं जीवानंद वैद्यराजनी कथा कहे जे. महाविदेह क्षेत्रमा पुमरिकि एणी पुरीने विषे जीवानंद नामा वैद्य वसे ले. तेने एक राजानो पुत्र, एक मंत्रीनो पुत्र,एक श्रेष्ठीनो पुत्र,एक सार्थवाहनो पुत्र,ए चार मित्र हता,एक दि वस जीवानंदने घेर चारे मित्र आवीने बेठा हता तेवामां एक महा कमी युक्त कुष्ट रोगना उपवें करी कुःखी एवो साधु वहोरवा माटे त्यां आव्यो, ते साधुने जोक्ने ते सर्वे कहेवा लाग्या के हे वैद्यराज! या बिचारा सा धुने साजो करो त्यारे जीवानंद वैये कयुं के मारे त्यां सपाक तेल के प Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ५ रंतु तेथी गुं थाय? बीजुं रत्नकंबल तथा चंदन जोये ते तमो लावो तो ए नो नपाय थाय. आ वात सांनती ते साधुने त्यां बेसाडी चंदनकाटनी 5 कान मांमनार वाणीयानी कानपर गया. लद इव्य ते वणिक पासें मूकी ने कह्यु के तमो रत्नकंबल तथा गोशीर्ष चंदन आपो. तेवारेंतेवाणीयेंगरीबनो पण पुण्यनो बादर जोड्ने धर्मथीज रत्नकंबल अने चंदन ए वेदु वानांम फत आप्यां अने पोते पण वैराग्य पामी प्रव्रज्या ग्रहण करीने तेज नवने विपे सिद्धिने प्राप्त थयो. पडी ते पांचे जण एकत्र थश्ने ते मुनिने रोग म टाडवा माटे वनमां ले गया. प्रथम लक्ष्पाक तैलें करी ते साधुने अन्यं ग कस्यं. पनी रत्नकंबलें करी एन अंग ढांक्युं तेवारें कमी हता, ते सर्व बा हेर निकली गया. पडी ते साधुना अंगने चंदनें करी विलेपन का, एमत्र .ए वार करवाथी ते साधुना शरीरथी कुष्ट मूलमाथी जतो रह्यो. अने ते मु नि नीरोगी देहवालो थयो ते जीवानंदनो जीव ते पुण्यनाप्रनावें करी चा र नव करीने आदीश्वर नगवान थ श्रीतीर्थकर पदने प्राप्त थयो ॥ ६५ ॥ दानैः प्रासुकनक्तपानवसनावासौषधानां मुने, . वैयाटत्यकृतेश्च विस्मयकरा नोगा बलं चाप्यते॥ श्रीमहादसुबाढवत्परनवे सा कामगव्यप्यहो, स चारीजलदानकोमल करस्पर्शेरलं तुष्यति॥६६॥ अर्थः-(प्रासुकनक्त के ) प्रासुकएवो जात, तथा (पान के० ) जल, (वसन के० ) वस्त्र, (आवास के० ) उपाश्रय, तथा (औषधानां के० ) औषधो तेनो (मुनेः के) मुनिने ( दानैः के०) दानदेवे करी ( च के०) वली (वैय्यावृत्यकृतेः के० ) वैयावच्च करवायकी (परनवे के० ) परनवने विषे ( श्रीमदादुसुबाहुवत् के० ) शोनायमान एवा बादु अने सुबादु, पांचशे साधुने नक्त पान आवास विश्रामण करवाथकी बेदु श्रीषनदेव जीना पुत्र थया तेनी पेठे (विस्मयकराः के०) विस्मयने करनारा एवा (नोगाः के०) नोगो, (च के० ) वली (बलं के०) बल, तेने (बाप्यते के० ) प्राप्त थाय डे. अर्थात् साधुनक्ति एवं फल आपेले पण (अहो के०) आश्चर्ये (सा के०) ते प्रसिद एव ( कामगवी अपि के) काम धेनु पण (सच्चारीजलदानकोमलकरस्पशैंः के० ) सारो चारो, जलपान, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. करस्पर्श एटले हाथेथी खजवालवू तेणें कर। (असं तुष्यति के०) परिपूर्ण संतोष पामे डे अने फलदायक थाय ने अर्थात् गायने जेम सारो चारो आपवाथी तथा जलदान एटले पाणी पीवराववाथी तथा करस्पर्शेकरी ए टले हाथफेरववे करी उग्ध वगेरेनी देनारी थाय ने तेम साधुसेवा रूप गाय पण वैयावृत्यादि सारो चारोआपवाथी तथा फासु जलनुं दान देवाथी तथा पगचंपी वगेरे करस्पर्श करवाथी सारा फलनी देवावाली थायले माटेसा धुसेवा अवश्य करवी ॥ ६६ ॥ __ अहिं बाहुबलीनी कथा कहे . माहाविदेह देत्रने विषे पुमरिगीण। नामनी नगरीयें वजसेन राजा राज्य करे बे. तेने पांच पुत्र हता तेनां ना म, एक वजनान, बीजो सुबाहु, त्रीजो बाहु, चोथो पीठ, पांचमो महा पीठ,ए पांच पुत्र 'हता ते पांचपुत्रोये पंण संसार सुख जोगवीने तीर्थकर नी पासें दीक्षा ग्रहण करी. तेमा प्रथम पुत्र चौदपूर्व शास्त्र नणी प्राचार्य थ यो. अने बीजा चारेजण हता ते अग्यार अंगधारक थया.तेमां बादुनामा मुनि नित्य पांचशे साधुने नात पाणी लावी बापता हता. अने सुबाहुना मा मुनि पांचशे साधुनुं वैयावच्च करे तथा पीठ अने महापीठ नामा बेदु मुनि ते बादु अने सुबाहु ए वेदुमुनिनो महिमा सांजलीने तेनी ईर्ष्या करता ह वा, हवे वजनाननो जीव तो श्रीयुगादि देवयादिनाथ नगवान् थया.अनेबी जा चार तो अनुक्रमें जरत अने बाहुबली तथा ब्राह्मी अने सुंदरीपणे आवी उत्पन्न थया. तेमां बाहुना जीवने जरतना नवमां परिपूर्ण जोगफल प्राप्त थयु. अने सुबाहुना जीवने बाहुबलिना नवमां समय बादु बल लन्यमान थ, एम ते साधुसेवा थकी उत्तमताने पाम्या ॥ ६६ ॥ धर्मःपुंप्रनवोयदेतदिदमेवार्याऽपिपूज्यापुन,र्यस्या धर्मसमुभवा गुरुजनेष्वप्युन्नतिर्यत्पुरा ॥ सौनंदे यनृपेऽनिकासुतगुरौ श्रीचंदनायां न किं,ब्राह्मीपु प्पवतीसुता किलमृगावत्यप्यनून्मुक्तये ॥६॥ अर्थः-(यत् के०) जे कारण माटे (पुंप्रनवः के०) पुरुषथकी उत्पत्ति जेनी एवो (धर्मः के०) धर्म, (एतत् के०) ए वात, (इदमेव के०) एमज . कहेलु डे के “धम्मोपुरिसप्पनवो, पुरिसवरदेसिन पुरिसजिहो” इत्यादि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. งง सर्व ठेकाणे कहेनुं ने. (पुनः के०) परंतु तेमां (यापि के० ) श्रार्या एटले तपोधना स्त्री ते पण (पूज्या के०) पूजवा लायक होय बे. कारण के (यस्याः ho) जेार्यानी (धर्मसमुद्भवा के०) धर्मथकी उत्पन्न यइ एवी ( उन्नतिः ho) उन्नति एटले गुरुता ते (गुरुजनेपुपि के० ) गुरुजनने विषे पण मुक्ति ने माटे या बे. जुवो ( यत् के०) जे कारण माटे (पुरा के० ) पूर्वे (किल ho) निधें (सोनंदेयनृपे के०) सुनंदा पुत्र बाहुबलि राजाने विषे तातश्री क देवजीयें प्रेरेली एवी (ब्राह्मी के०) ब्राह्मी बेहेन ते 'हेनाइ हाथी थकी हे वो तस्य' एवं वाक्य कहती बती (मुक्तये के०) मुक्तिने माटे (नूत् के० ) थाती हवी. तथा ( यन्निकासुतगुरौ के० ) यन्निकापुत्र गलधरने विषे ( पुष्प वतीसुता के० ) पुष्पवतीनी पुत्री पुष्पचूना साध्वी मुक्तिने माटे थइ तथा ( श्रीचंदनायां के० ) श्रीचंदनबाला साध्वीने विषे ( मृगावती के० ) मृगा वृती साध्वी ( किं के० ) शुं ( न के० ) मुक्तिने माटे न थइ ? ना थइज बे. अर्थात् साध्वीच पण गुरुजननी मुक्तिने मांटे साधननूत थाय बे ॥ ६७ ॥ या श्लोकमां ब्राह्मी तथा पुष्पचूला ने मृगावती ए त्रणेनो दृष्टां त होवाथी नी कथामा प्रथम ब्राह्मी साध्वीनी कथा कहे बे. श्रीन रतचक्री पट् खं पृथ्वी जीत्या, पण न्हाना नाइ बाहुबलीयें प्राज्ञा न मानी तेथी चरतचक्री पोताना नाइने जीतवानी इहाथी सैन्यसहित बाहु बलीनी तक्षशिलानगरीयें गयो. त्यां ते बेदु नाइने मोहोटुं युद्ध युं. अनेक मनुष्यनो संहार थयो. पी ड़ें खावी युद्ध बंध करावीने बाहुबलीनी सा में वागयुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध, दृष्टियुद्ध, अने दंमयुद्ध ए पांच युद्ध कर वां ठेराव्यां, सर्वे युद्ध मां बाहुबलीयें जरतनो पराजय कस्यो. तेवारें जरत राजायें चक्र मुक्युं ते बाहुबली कुटुंबनो होवाथी तेने लाग्युं नही त्यारें बा हुबली मुष्टि नपाडीने नरतनी सन्मुख दोड्यो ते वली पोतेज विवेकें करी नेते मुष्टिनाइने मारी नही. परंतु उत्तम पुरुषनी मुष्टि पाठी फरे नही माटे वैराग्य पामी ते मुठीयें करी पोताना मस्तकना केशनो लोच करी पोतानी मेजें प्रव्रज्या ग्रहण करीने त्यांज कायोत्सर्ग करी रह्या. त्यां शी तोष्ण कष्टने सहन करता हता, ते वात जाणीने श्रीकृषनदेवजीयें म हासती एवी बाहुबलीनी नगिनी ब्राह्मी हती तेने मोकली. ते बाहुबली नपा वने वा लागी के हे नाई ! गजथी हेगे उतस्थ. ते बाहुब Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. लीयें विचार करीने जोयुं तो जाण्यु जे अांहिं गज तो नथी पण तेनो कहे वानो अनिप्राय एवो दे के मानरूंप गज थकी उतस्य एम समजीने पड़ी माननो त्याग कस्यो तेवारें तुरत तेने केवल ज्ञान वर्ष प्रांतमा उत्पन्न थयु. हवे पुष्पचूलानी कथा कहे जे. पुष्पपुरने विपे पुष्पकेतुनामा राजा तेनी पुष्पवती नामनी राणी हती तेना पुत्रनुं नाम पुष्पचून अने पुत्री नुं नाम पुष्पचूना पाडयुं, ते बेहुला बेन युवावस्थाने प्राप्त थयां परस्पर स्नेह होवाथीबेदनूं समान रूप जोड्ने राजायें विचार कस्यो जे बेतु जणा नो वियोग करीये ते सारूं नही? माटेना नगिनी बेदुनो परस्पर विवा ह कस्यो ते अधर्म तेनी माता पुष्पवती जोर शकी नही तेथी दीक्षा ल मरण पामीने देवता थ. ते देवता ते बेदु जाने स्वप्नामां आवी अधर्मे करी यतां नरकनां कुःखो देखाडवा लागी. ते सुःखथकी बीहीती एवी पुष्प चूलायें वैराग्य पामीने अन्निकापुत्र आचार्यनी पासें जश्ने दीक्षा ग्रहण करी. ते आचार्य दीपजंघाबलं होवाथी साध्वीयाहार लावी थापती सा ध्वीने केवलझान उपन्युं एकदिवस वर्षाकालें गुरुने माटे अन्न लावी त्यारे गुरुये कह्यु के हे सति ! अचित्त प्रदेश विषे अन्न लावता विराधना का करे ने ? त्यारें साध्वीयें कह्यु एमां विराधना थ नथी त्यारे गुरुये कह्यु के तें केम जाण्यं के आअचित्त स्थल अने या सचित्त स्थल कहेवाय? त्यारे पुष्पवती कहे जे के जगवन् ! तमारा प्रसादथकी में जाण्युं. ते सांजली केवलज्ञान नपर्नु जाणी मिथ्याकुष्कृत दश्ने गुरुयें पूब्युं के मने केवल ज्ञान क्यारे उत्पन्न थशे. त्यार तेएवं कर्वा जे गंगा उतरतां तमने केवल झान उत्पन्न थाशे ते पनी नावें करी गंगाने उतरता एवा सूरिने पूर्वनवना वैरी देवता ये त्रिशूलें करीने माया, त्यां गुरुने ध्यान ध्यावतां अपकाय जीवोनी । पर दया उत्पन्न थई ते दयायें करी केवल झान उत्पन्न थयु. देवोयें केव लझाननो महोत्सव कस्यो त्यां प्रयागनामा तीर्थ थयुं ते लोकमां अद्या पि प्रसि ॥ए पुष्पचलानो संबंध थयो. हवे मृगावतीनी कथा कहे जे. कौशांबी नगरीनेविषे शतानीक नामा रा जा राज्य करे . तेनी पट्टराणी चेटक राजानी दीकरी मृगावती नामा हती. तेणें ज्यारें पोतानो स्वामी मरण पाम्यो तेवारें पोताना पुत्रने रा ज्य उपर स्थापीने पोतें वैराग्य पामीने श्रीवारस्वाम) पासें दीक्षा ग्रहण Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. क. एकदा ते बीजी साध्वीयोनी सायें श्रीवीर भगवानने वांदवाने समय सरणमां यावी. ते दिवसें श्रीवीरजगवानने वांदवा माटे सूर्य चं पण वि मानसहित प्रावेला हता. तिहां बीजी साध्वीच तो दिवस अस्त यया पहेलां पोताने उपाश्रयें यवीयो ने मृगावती तो चंड्सूर्य स्वस्थाने गयानंतर अंधकार प्रसार थयो तेवारें उपाश्रयें यावी. त्यां चंदनबाला सुती हती ते तेने कहेवा लागी के हे नड़े ! तुं महोटा कुनमां उत्पन्न थयेली बो. तने रात्रिम फर योग्य नथी. एम शिक्षा करतां करतां चंदनवालाने नि श यावी, अने मृगावती तेना चरणमां मस्तक मूकीने कहेवा लागी के हे न ! मा करो. एम क्षमा मागतां मागतां ते मृगावतीने केवल ज्ञान उत्पन्न ययुं. पढी चंदनबालाने पण मृगावतीने पगें पडतां क्षमा मागतां केवलज्ञान उत्पन्न युं ॥ ६७ ॥ किं पूज्या श्रमणी न सा श्रुतरसा दुर्बोधहन्मोहहन्, मात्रासक्तकुबेरदत्तदयिता साध्वीवजातावधिः ॥ धन्या एव चिरंतना व्रतधना अप्याधुनिक्यः शुभा, याकि न्याहरिजज्वादि मुकुटः सोऽबोधिवामात्रतः ॥ ६८ ॥ अर्थः- ( किं के० ) चुं ( सा के० ) ते ( श्रुतरसा के० ) सांतव्यो बे शास्त्ररस जेणे एवी ( श्रमणी के० ) साध्वी ( न पूज्या के० ) पूजवा ला यक नथी. ना बेज. कारण के जुवो (डुर्बोधहृत् के०) माग बोधने हरण करनार, तथा ( मोहहत् के० ) मोहने हरण करनार, एवी ( मात्रासक्त कुबेरदत्तदयिता के० ) माताने विषे यासक्त एवो जे कुबेरदत्त तेनी दयि ता एवी जे कुबेरदत्ता ते ( जातावधिः के० ) उत्पन्न ययुं बे अवधिज्ञा न जेने एवी (साध्वी इव के० ) साध्वी जे बेतेनी पेठें केम पूजवा योग्य याय नहीं अर्थात् यायज वली (याधुनिक्यः के० ) याधुनिक एवी ने (शुनाः के० ) पवित्र एवी ( चिरंतनाः के० ) घणा कालनी ( व्रत धनाः के० ) व्रतरूप वे धन जेने एवी साध्वी (धन्याः एव के० ) घन्यज जा वी. जुवो ( याकिन्या के० ) याकिनी नामा साध्वीयें ( सः के० ) ते ( ह रिश्वादिमुकुटः के० ) वादकरनाराउने विषे मुकुटसमान एवा जे श्रीहरि नसूर, तेने ( वाङ्मात्रतः के० ) एक गाथामात्रेकरीने ( बोधितः के० ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वोध माड्यो. माटे साध्वीथी पण मोहोटा पुरुषोने ज्ञान प्राप्त थाय बे. या श्लोकमां कुबेरदत्तानो तथा याकिनी साध्वीनो दृष्टांत होवाथी प्रथम कुबेरदत्तानी कथा कहे बे. मथुरा नगरीने विषे वसंततिलका नामा एक वारांगना रहे बे. एकदिवस ते वारांगनाने वे बालक उत्पन्न थयां के तुरत पोतानी नामांकित मुश्कििा सहवर्त्तमान पेटीमां नाखी पेटीने यमुना मां तरती मूकी, तेमां बोकरो तथा बोकरी हती पढी तरती तरती ते पेटी शौर्यपुरमा गइ. ते शौर्य पुरना वे वेपारी हता तेने ते पेटी मली तेमांथी ए क पुत्र ने एक पुत्री प्रतिस्वरूपवान् मव्यां, तेवारें बेहुजलने संतान न होवाथी एकें कन्या लीधी अने एकजणे पुत्र लीधो ते बेदु वेपारीयें ते वेदु जाश्वेननो विवाह को पढ़ी एक दिवस कुवेरदत्तायें पोतानी तथा पोता नाजाइनी मुड़िका जोइने समानता देखीने विचायुं जे श्रमो वे नाइ वेन बै ये एम जाणवाथी कुबेरदत्तनें कह्या विना एकदम दीक्षाग्रण करी. एकदा कुबेरदत्त वेपारने माटें मथुरामां ज्यां पोतानी माता गणिका रहेने त्यां या व्यो. तेणे पोतानी माताने गणिका जाली जोगववा मांमी. तेथकी तेने एक पुत्र उत्पन्न थयो. तदनंतर कुबेरदत्ता साध्वीने यवधिज्ञान उत्पन्न थवाथी ते त्यां प्रवीने ते सुतेला बालकने प्रढार नात्रां थयां ते प्रकट करवामाटें रमाडवा लागी ने हिंचको नाखतां केहेवा लागी के हे पुत्र ! सांजव्य || श्लोक ॥ जातासि तनुजन्मासि, वरस्यावरजोपि च ॥ भ्रातृव्योसिपितृव्योसि पुत्रपुत्रो सिचार्जक ॥ १ ॥ यश्च ते बालक पिता, समे जवति सोदरः ॥ पिता पितामहो चर्चा, तनयः श्वसुरोपि च ॥ २॥ याच बालक ते माता, सा मे मातापितामही ॥ चातृजायावधूः श्वश्रूः सपत्नीचनवत्यहो ॥ ३ ॥ श्रा श्लोकनो जावार्थ:तुं महारो नाइ, पुत्र, देर, नत्रीजो, काको, दीकरानो दीकरो, थाय बे ने हे अनेक ! ताहरो जे बाप ते माहरो नाइ थाय बे पिता थाय बे, पिता मह थाय बे, स्वामी थाय बे, पुत्र थाय बे, घने श्वसुर पण थाय बे, वली हे वाक !! जे तारी माता ते माहरी माता तथा पितामही थाय बे. अने जानी वहु या बे. वहु याय बे. सासु थाय बे ने शोक्य थाय ने ग्राम प्रहार संबंध कह्या. ते सांजली कुबेरदत्त नीचें खावीने पूढवा लाग्यो के हे साध्वी! या गुं कहो हो धने तसे कोण हो ? त्यारें साध्वीयें सर्व बनेलो Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. संबंध कही आप्यो, ते सांजली कुबेरदत्तने वैराग्य उपन्यो तेवारे संसार बोडी दीक्षा ग्रहण करी. स्वर्गने प्राप्त थयो.. ___ हवे याकिनी साध्वीनी कथा कहे . नमूलकपुरनेविपे चनद विद्याने जा पनारो अनेक वादनेविषे महाप्राज्ञ एवो दरिनश्नामा नह रहेतो हतो,तेनी एवी प्रतिज्ञा हती के जेनुं कहेलुं दुं न जाणुं, तेनो हुँ शिष्य थावं. एक दि वस ते हरिन नामा नह, साध्वीनी शाला प्रत्यें जाता हता, तेवामां म हासती एयी याकिनी कहेली एवी गाथा सांनली ते जेम के ॥ गाहा ॥ चकिडगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की ॥ केसवचक्की केसव, उच कि केसीय चक्कीय ॥ १ ॥ आ गाथा सांजली तेनो अर्थ न जाणता हरि नसरिये पूब्युं, हे आर्ये ! चाकचक्य बहु ए गाथामां करेलुं नासे . त्यारे ते आर्यायें कह्यु के नवीनलिपित नूमिनेविषे चांकचक्य थाय . ते पनी वाणी करी बलेला जाणीने गाथाना अर्थर्नु अविज्ञातत्व जाणी ने हरिन नट्ट साध्वीने पगे लागीने कहेवा लाग्यो के हे साध्वी ! तमें मने शिष्य करो पनी ते साध्वीये तेने आचार्यनी पासे दीदा अपावी.अनु क्रमें ते श्रीहरिनश्सरि, याकिनीपुत्र नामनुं विरुद धारण करनारा थया. एम णे चौदशे चुम्मालीश प्रकरण कस्यां श्रीजिनशासनमा महाप्रानाविक थया. अकृत नरतचक्रीविश्वसाधर्मिकारी, कुरुत तदनुमा नाबेयसेऽत्रोद्यमं तत् ॥ यदिसकलधरित्री प्रीणयत्यं युवादः, किमु न तदरघहःदेत्रमात्रं टणातु ॥ ६॥ अर्थः-( जरतचक्री के० ) जरत चक्रवर्ती ( विश्वसाधर्मिकारों के० ) सर्व साधर्मिक नाश्नी अर्चाने (अकृत के० ) करता हता, (तत् के) तेमाटे (तदनुमानात् के०) तेना अनुमानथी ( अत्र के० ) अांहीं साध र्मिकना वात्सल्यने विषे ( श्रेयसे के०) मोदरूप कल्याण माटे ( उद्यम के०) नद्यमने हे नव्यजनो ! ( कुरुत के० ) करो. जुवो ( यदि के० ) जो (अंबुवाहः के० ) मेघ, (सकलधरित्री के०) सर्व पृथ्वीने (प्रीणयति के०) पूरे ले ( तत् के० ) त्यारे (अरघट्टः कें० ) अर्हट्ट ( देवमात्रं के० ) देत्र मात्रने (किमु के०) यु (नष्टणातु के०) न पूर्ण करे ? करेज अर्थात् नर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go जैनकथा रत्नकोष जाग पांचमो. तचक्रवर्त्तियें सर्व साधर्मीनुं पोषण करूं तेथी आपणथी तेटलुं न बने तो यथाशक्तपणें साधर्मी वात्सव्य करवुं जेम वरसाद तो आाखी पृथ्वीने तृप्त करेले, परंतु यह जे बे ते पण एक क्षेत्रने तृप्त करे ले ॥ ६० ॥ यांहिं जरतaat दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे बे. अयोध्या नगरीने विषे नरतचक्रवर्ती राज्य करे छे. एक दिवस श्रीपनदेवजी चो राशी हजार साधुयें युक्त उद्यानमां समोसखा. तेनी जरतचक्रवर्त्तीने ख वर पडवाथी प्रशन, पान, खादिम, स्वादिमनां सहस्त्रशकट नरीने समव सरणने विषे गया. स्वामीने वंदन करीने जरतचक्रवर्त्तीयें कह्युं के स्वामिन ! या सर्व अन्नपानादि साधुना पारणाने माटे ग्रहण करो. त्यारे स्वामीयें क ह्युं के न्नादिकमां घणाज दोषो बे, एकतो यांहि लाव्यो तेमां जीव हिंसा दोष, वीजो अन्याहृत दोष, त्रीजो राजपिंक दोष, एम अनेक दोषो माटें ए मारे सर्वथा कल्पे नहिं. ते सांजली जरत राजा अत्यंत पचा ताप करवा लाग्यो. त्यारें स्वामीयें कयुं के मध्यम पात्र श्रावको बे, माटें ते साधर्मिक थी श्रावकोनी नक्ति तुं कस्य पछी ते नरतचक्रवर्त्तीयें स र्वत्र उद्घोषण देवरावी जे सर्व श्रावकोयें माहरें घेर जम. ने रसोया पण कयुं के जे श्रावक यावे तेने जोजन करावजो. एम करवाथी सर्व लोको त्यांज जमवा लाग्या. पढी रसोया थाकी जवाथी जागी गया. चक्रवर्त्तियें जाएयुं जे या तो सर्व जण जोजन करवा यावे ते, माटें श्राव कनी परीक्षा करीने पती जमाडवा ने तेने कांइक चिन्ह कर एम विचा रीने चक्रवर्त्तियें श्रावकनी परीक्षा करी तेमना कंठमां काकिणी रत्नें करी त्रण रेखा करी. एम व मासें परीक्षा करवा मांमी. तेथी श्रावकनीं अ ने बीजानी व्यक्ति थवा लागी. एवी रीतें नरतचक्रवर्त्तियें साधर्मीवात्सल्य करूं. श्राद्धानां सडपासका बहुमता एवैकधर्मत्वतः, साधूनामपिजातु गौरवपदं वीतस्टहाणाममी ॥ रुग्नाशाडुपसर्गहत्स्तवनतः श्रीन ज्वादोर्यथा, चंदाक्कब्दवत्तमेषु सहजं विश्वोपकारित्रतं ॥७०॥ अर्थः- ( सडपासकाः के० ) श्रेष्ठ उपासना करनारा ( एकधर्मत्वतः के० ) एक धर्मपणाथी एटले साधर्मिंपणार्थी ( श्राद्धानां के० ) श्रावका ( वहुमताव के ) यति अनीष्ट एवाज ( अमी के० ) या उपास Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ८३ को ( जातु के ० ) कोइ समये (वीतस्ष्टहाणां के० ) निःस्पृह एवा ( साधू नामपि के ० ) साधु ने पल ( गौरवपदं के०) गौरवना स्थानरूप ( नवंति के० ) थाय बे. ( यथा के० ) जेम ( श्रीनबाहोः के० ) श्रीनबाहुना उपासको (रुग्नाशात् के० ) रोगने नाश करनार एवां ( उपसर्गहस्त वनतः के० ) उपसर्ग हर स्तोत्रथी गौरवताना स्थानरूप थया तथा ( न तमेषु के० ) उत्तम पुरुषाने विषे ( चंाकव्दिवत् के० ) चंद सूर्य ने मेघनी पेठें. ( सहजं व्रतं के० ) स्वाभाविक व्रत जे वे ते ( विश्वोपकारि ho ) विश्वनो उपकार करनार बे. अर्थात् जेम सूर्य, चंद ने मेघ एत्रणे स्वावेज परोपकारी बे तेम उत्तम जननेविषे पण विश्वने उपकार करनारुं एवं व्रत स्वानाविक होय वे एम जाणी जेवुं ॥ ७० ॥ या श्लोकमां श्वानो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे बे. पोलास पुरनगरने विषे सोमदत्त ब्राह्मणना पुत्र नवा अने वाराहमिहर नामे वे नाइ हता. तेणें एकदा गुरुनी वाणी सांजली वैराग्य पामी दीक्षा जीधी वेहु जाइ सर्व शास्त्र ना जाणनारा थया. तेमां नड्बाहुने अधिक गुणवालो जाली गुरु आचार्यपद याप्यं. तेथी वाराहमिहर खेद पामीने दीक्षानो त्याग करीरी पुनः संसारासक्त थयो. एक दिवस वाराहमिहरें राजा पासें खावी कह्युं के, या कुंमाजाने विषे बावन पलनुं मत्स्य व्याकाशमांथी पडशे अने श्रीन बा गुरु कयुं के कुंमथकी बाहेर पडशे. तेवार पढी श्रीनबादुयें जेम hi हतुं तेज प्रमाणें ययुं. एक दिवस वाराहमिहिरें राजाना पुत्रनुं श्रायुर्दा सोवर्षनुं वत्युं ने कह्युं के तमारो पुत्र सो वर्ष जीवशे. त्यारें नश्वातु गुरुयें कयुं के ए सात दिवसज जीवशे यने मार्जारीयकी मरण पामशे तो ते त्रण गुरुना कहेवा प्रमाणेज ययुं. एम स्थानकें स्थानकें वाराहमिहिर ने श्रीन बायें जीत्यो. तदनंतर थोडोक काल रहीने वाराहमिहिर मरण पामीने व्यंतर थयो ते साधु श्रावक वगेरेने महामारीनो उपश्व करवा लाग्यो संघ छावीने श्री बाहुस्वामीने कत्युं के संघमां मनुष्य मरण पामे ले ? ते सां जली गुरुयें उपसर्ग हर स्तोत्र रचीने प्राप्युं तेनो पाठ करवाथी मारीनो उपश्व शांत थयो धरणेंदें श्रीगुरुनी पासेंथी बडी गाथा जंमारे मूकावीने कल्युं के एटलाथीज हुं महारे थानके रहीने सर्वने सान्निध्य करीश ॥ ७० ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. स्त्रीपुंसोप्यधिका त्रिपदविशदापुंरत्नखानिर्यतः,स्वा मिन्या मरुदेवया तु सदृशीनूताननाविन्यपि ॥ वि श्वार्योंजिनचक्रिणोप्रथमतोयत्पुत्रपौत्रावदो,याप्रागे व शुनेलयनूनिवपुरप्रस्थानकस्था प्रनोः ॥ १॥ अर्थः- (पुंसः अपिअधिका के० ) पुरुष थकी पण अधिक एवी तथा जे (त्रिपदविशदा के०) मातृपद, पितृपद, अने श्वसुरपद, एवा त्रणे पदोयें करी निर्मल, एवी वली ( यतः के०) जे कारण माटे ( स्त्री के०) ते स्त्री (पुंरत्नखानिः के०) पुरुष रूप रत्ननी खाण एवी (मरुदेवया के०) मरुदेवा (स्वामिन्या के०) स्वामिनी (सदृशी के०) सरखी कोई पण (ननूता के०) जथी थइ तथा ( ननाविनीअपि के ) थवानी पण कोइ नथी. वली (अहो के०) आश्चर्ये ( यत्पुत्रपौत्रौ के) जे मरुदेवीना पुत्र श्रीरुपनदेव अने पौत्रा श्रीनरत ते केवा डे तो के ( विश्वार्यों के०) सर्व विश्वमां आर्य ले तथा वली कहेवा ने तो के (जिनचक्रिणौ के०) ए श्रीषनदेव जिनेश्वर तीर्थकर थया ले तथा बीजा श्रीनरत ते चक्रवर्ती थया . वली (या के०) जे मरुदेवी (प्रनो के० ) श्रीरुपनदेव तीर्थ करनी (प्रागेव के०) प्रथमज (शुनेह्नि के० ) गुनदिवसनेविपे ( शिवपुरप्र स्थानकस्था के०) शिवपुर प्रत्ये प्रस्थानने विपे रहेनारां (अनूत् के० ) थतां हवा. जेम बीजो कोई पुरुष पण महोटा कार्यने माटे जती वखतें प्रथमथी प्रस्थान मूके छे तेम ज्यां नगवान् श्रीषनदेवजी शिवपुर प्रत्यें आवनार ने तेना प्रस्थानने माटे प्रथमथी श्रीमरुदेवी माताजी पोतेंज प्रस्थानने विषे रहेतां हवा. एवी स्त्री जगत्मां उत्तम जाणवी ॥ ७१ ॥ या श्लोकमां मरुदेवीनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे जे. अयोध्या नेविपे नानिराजानी स्त्री मरुदेवीजीना पुत्र श्रीषन देवजी हता तेमणे पोताना सो पुत्रने राज्य आपी दीक्षा ग्रहण करी पनी पोताना पुत्रना कुःखें करीने मरुदेवीनां चढुने पडल आव्यां ते ज्यारें षनदेवजीने पु रिमतालनेविषे वडनी नीचें केवलज्ञान उत्पन्न थयु, त्यारे तेमना पुत्र न रत चक्रवर्ती मरुदेवीजीने हस्तीउपर बेसारीने श्रीरुषनदेवजीने वंदन कर वा गया त्यां श्रीषनदेवजीनी वाणी सांजलीने मरुदेवि माताने हर्ष न Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ५ त्पन्न थयो तेथी यांखनां पडल उघडी गया. त्यां पोताना पुत्रनी समृद्धि जो इने पोताने पण केवल झान उत्पन्न थयुं तरत मुक्तिने पामतां हवां ॥७॥ या श्राविकाप्यमलशीलपवित्रितांगी, सा श्लाघ्यतेत्रि नुवनेऽपि यथा सुनज्ञ ॥ यस्यास्त्रिवारिचुलकादित लोकतुष्टेः स्रोतःसहस्रकृतमुत्सदृशी व गंगा ॥७॥ अर्थः-(या के०) जे (अमलशीलपवित्रितांगी के०) निर्मल एवा शी लें करी पवित्रित ने अंग जेनां एवी (श्राविका के०) श्राविका ने (साथ पि के०) ते पण (त्रिनुवनेपि के०) त्रण नुवननेविषेपण (श्लाघ्यते के०) वखणाय . केनी पेठे ? तो के (.सुनश यथा के०) सुना श्रावि का तेज जेम? वली ( त्रिवारिचुलकाहितलोकतुष्टेः के० ) पाणीनी त्रण अंजलिने बांटवेकरीने करीने सर्वलोकनी तुष्टि जेणे एवी (यस्याः के) जे सुना श्राविका ते (सदृशी के०) समान (गंगा के०) गंगानदी (क के०) क्याथी होय? अर्थात् नज होय. कारण के सुना श्राविका यें तोत्रण अंजलिथी त्रण दार उघाड्यां अने गंगा नदी तो वली (स्त्रो तःसहस्रकृतमुत् के०) पोताना हजारो पाणीना प्रवाहोयें करी लोकोने हर्ष देनारी थाय ने अर्थात् सहस्त्रप्रवाहें करी जगत्तुं कल्याण करे ने अने आ सुनश श्राविका तो पाणीनी त्रण अंजलियेंज जगतने संतोष दाय क थले माटे गंगाथकी सुनश श्राविका अधिक वे ॥ ७ ॥ • अाहिं सुनशनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . चंपापुरीनेविपे जिनदत्तनामा श्रेष्ठी रहे . तेनी दीकरी परम जैनधर्म पालनारी सुनश नामें हती ते बौना जक्त बुझदास नामा व्यवहारीना पुत्रनी साथे पर पी. एकदा सुनाने घेर कोइ जिनकल्पी साधु याव्या. ते साधुनी आंख मां घांसनुं फोतलं पडेलुं हतुं तेने जिह्वायें करील लीधुं. तेवारे सुनशना कपालमां सिंदूरनुं तिलक हतुं ते मुख अडवाथी साधुना जालमां सिंदूर लागी गयो, हवे ते सुनशनी नणंद महा उष्ट हती तेणे पोताना नाइने कह्यु के नाइ ! आ मारी जानीने में साधुसा| संग करतां नजरें जोइ, ते जो खोटुं मानोतो जुवो आ मारी जानीना कपालमा लगावेलो सिंदूर ते एक बीजाना मुखे मुख मलवाथकी साधुने लाग्यो के ते वात सांजलीने Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. जुवे तो साधुने कपालें सिंदूर लागेलो दीठो के तरत ते सुनाने असती मानीने तेना स्वामीयें तेनो त्याग कस्यो पढी सुना कायोत्सर्ग करवा वेठी वारे शासनसुरी प्रगट थइने कहेवा लागी के हे सुन ! तारुं कलं कहुं उतारीश तेनी तुं चिंता करीश नहिं एम कही गामना त्रणे दरवाजा ना बारां ते शासनदेवीये को यकीन उघडे एवां कमाड बंध करी दीघां. जायें बीजा उपाय करवा मांमया तेवारें याकाशमांथी शासनदेवी यें कह्युं के जो कोइ सती काचा सूतरना तांतणायें बांधेली चारणीएं करी सि चेलो जल घारने बांटे, तो ते द्वार उघडे, परंतु बीजा कोई उपायथी उ घडे ते नथी. पती गाममां जे सती स्त्रीयो हती ते सर्वने राजायें बोला वी ने तेमने का तांतणे चारणीयो बांधी कूवामांथी जल काढवानो राव को परंतु कोथी ते बन्युं नहिं एम सर्व सतीनो मदजंग थयो. त्यारे सुना पोताना सतीपणानी परीक्षा देवा माटे त्यां यावी क्राचे ता. त बांधेजी चारणीयें करी कुवामांथी जल काढयुं काढीने त्रणे दरवाजा उपर एक एक बांट जलनी नाखी के तरत ते त्रणे दरवाजानां कमाड न घाड्यां ने कदापि कोई बीजी स्त्री कहे के ए रीतें तो हुं पण उघाडी पुं तो तेने उघाडवा माटे एक दरवाजो रहेवा दीधो ॥ ७२ ॥ पुष्पाकृताद्भुत गुणस्तवनादिभेदात्, त्रैविध्यतः प्रति दिनंजिनपादपूजा ॥ श्रीश्रेणिकादिजनवनितादि दत्ते, चक्रादयः कलशतामिवनृद्दलस्य ॥ ७३ ॥ अर्थः- ( पुष्पा ताम्रुतगुणस्तवना दिनेदात् के० ) पुष्प, अक्षत, अं एवा गुण स्तवनादिक तेना चेंदें करीने ( प्रतिदिनं के० ) प्रति दिवस, ( जिन पादपूजा के ० ) जिन्नगवानना पगनी पूजा ( त्रैविध्यतः के० ) त्र प्रकारें करी करवी. या ठेकाणे यादिशब्द प्रत्येक नेदें जाणवो. जेम के पुष्प त्यां पुष्पादि तबे त्यां प्रतादि, स्तवन बे त्यां स्तवनादि एम खा दिशब्द जेवो ने जे देह उपर चढे बे ते पुष्पादि पूजा जाएावी. ने जे देवनी पासें मूकीयें ते श्रतादि पूजा जाणवी बने जे गीतनाटक करियें ते पूजा स्तवनादिकमां जालवी. ए पूजाना त्रण प्रकार जालवा. ते जिनपू जा ( श्रीश्रेणिकादिजनवनितादि के ० ) श्रीश्रेणिकादि राजानी पेठें तीर्थंक Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ७ रादिक पदवीने (दत्ते के०) आपे बे. याहिं आदिशब्दें करी वासुदेव, बल देव राज्यादिक पण लेवां एटले जिनपूजा करनारने ए सर्व पदवी प्राप्त था य . केनी पेठे. तो के (मृद्दलस्य के०) मृत्तिकाना दलना (चक्रादयः के०) चक्र, लाकडी, दोरडी, कुंजारप्रमुख जेडे, ते (कलशतामिव के०) कुंनादिक ने जेम आपे . तेम जिनपूजा पण तीर्थकरादिकपणाने थापे ॥७३॥ __ या ठेकाणे श्रेणिक राजानो दृष्टांत होवाथी पूर्व श्रेणिक राजानी कथा कही ने तो पण फरीने किंचित्मात्र कथा कहे . श्रेणिक नामा राजा प रम जैनी दायिक सम्यक्त्वने धारण करनारो हतोत्रण काल श्रीजिनन गवाननु पूजन करतो हतो. ते राजा प्रति दिवस एकशो आठ सोनाना य वोयें करी श्रीजिननगवाननी पासें स्वस्तिक पूरतो हतो. ए प्रकारनी श्री जिननक्तियें करी तीर्थकर नामकर्म उपार्जन ते राजायें कयुं. ॥ ७३ ॥ • स्याजिनार्चनकृतस्त्रिकशुध्या, शंविपद्यपियथा दवदंत्याः ॥ स्वस्तरुःफलति किं नहिरोरे, नेउरस्यतितृषंचचकोरे ॥४॥ अर्थः-(त्रिकशुध्या के ) मन, वचन अने कायानी शुधियें करी (जि नार्चनकृतः के ) जिन, अर्चन करनारने ( विपद्यपि के० ) विपत्तिने वि पे पण (शं के०) सुख ( स्यात् के ) होय. केनी पेठे ? तो के ( दवदं त्याःयथा के०) दवदंतीनी पेठे जेम (रोरे के०)दारिश्चेकरी परानव पामेला एवा पुरुषने विपे ( स्वस्तरुः के० ) कल्पवृक्ष (किं के०) सुं ( नहिफलति के ) नथी फलतो ना फलेज डे. ( च के ) वली (इंः के०) चश्मा, (चकोरे के०) चकोर पदीने विषे (तृषं के०) तृष्णाने (न अस्यति के०) नथी फेंकतो? अर्थात् फेंकेज ने ॥ ॥ __ आहीं दृष्टांतमां दवदंतीनी कथा कहे . अष्टापद पर्वतनी पासें धन्य नामा गाम बे. तेनो मम्मण नामें राजा हतो, तेनी वीरमती नामें स्त्री हती. एक दिवस ते राजा आयडो करवा नीकट्यो तेने जैनसाधु सामो मलवाथी अपशुकन थयुं एम मानीने ते साधुने पकडीने बार प्रहर राख्यो पड़ी वीरमतीयें राजाने समजावीने ते साधुने बोडाव्यो. साधुयें धर्मोपदे श दीधो वीरमती श्राविका थइ पांचशे आंबिल कस्यां वली अष्टापद ऊपर जश्ने चोवीश जिननगवानने मणिमय तिलक कराव्यां. ते पनी ते वीरमती Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मरण पामीने कुंमिनपुरनेविषे श्रीनीमनुपनी कन्या दवदंती नामें थइ म म्मणनो जीव नल राजा थयो. ते दवदंतीने परस्यो ते दवदंतीना कपाल मां जन्मतांज स्वानाविक रविमंगल जेम शोने तेवुं देदीप्यमान तिलक थइ रह्युं हतुं. एकदा जुगारें रमता नलराजा राज्यादिक सर्व हास्या. बार व रस ते स्त्री पुरुषने परस्पर वियोग रह्यो दवदंतीने स्थानस्थानमां विकट डुःखाव्यां तां ते सर्व जिन अर्चना प्रजावथकी लय थइ गयां बार वरसना अंतमां नलराजाने फरीने राज्य प्राप्त थयुं इति जिनपूजनाधिकार श्रीरामवनोनयएव सेव्यः, प्रजानुरागवत वित्तमूलं ॥ कोद क्षिणावर्त्तमुपेत्यशंखं त्यजेन्मुधाश्यामल चित्रकंवा ॥ ७५ ॥ अर्थः- (जो के०) हे नव्यजनो ! ( प्रजानुरागव्रतवित्तमूलं के० ) प्रजाने विषे अनुरागप्रतीति, व्रत, याचार, अने इव्यना मूलरूप एवो (नयः एव के० ) न्याय तेज ( श्रीरामवत् के० ) श्रीरामचंदनी पेठे ( सेव्यः के० ) सेववा योग्य बे. त्यां दृष्टांत कहे बे के (मुधा के०) खोटा एवा ( श्यामलचित्रकं के० ) काली चित्र वल्लीरूप कोडाने ( उपेत्य के० ) पामीने (दक्षिणावर्त्त ho) दक्षिणावर्त्त नामना (शंखं के० ) शंखने ( कःवा के० ) कयो पुरुष, ( त्यजेत् के० ) त्याग करे ? कोइ त्याग करे नही ॥ ७५ ॥ " या ठेका श्रीरामनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा प्रसिद्ध वे तो पण कहे ले. कौशला नगरीने विषे रामचंदजी राज्यने जोगवे बे तेनी पट्टराणी सीताजी हतां, ते रामना नाइ लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, एवे नामें हता. बा पनी प्रज्ञाथी राज्यनो त्याग करीने वार वरस वनवास जोगव्यो. न्याय मानेसरी रावण प्रतिवासुदेवने मारीने तेणे हरण करीने लइ गयेली निष्कलंक एवी पोतानी स्त्री सीताने पाठी वाली. ते पढी दशहजार वरस पर्यंत न्यायें राज्य जोगव्युं, लोकमां पण सारुं देखतुं राज्य होय तो राम राज एम द्यापि पर्यंत ख्याति बे एवं राज्य चलाव्यं ॥ ७५ ॥ मनसि वचसि शश्वत्न्यायएवोत्तमानां यदमरवर लब्ध्या पारदारिक्यचौर्ये ॥ अनुविषयमरौत्सीच्चत्र नृब्रह्मदत्तः, कसुरसरितिपंकः क्वेशचंद्रे कलंकः ॥ ७६ ॥ अर्थ :- ( मनसि के० ) मनने विषे ( वचसि के० ) वालीने विषे ( शश्व " Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. त् के० ) निरंतर ( उत्तमानां के० ) उत्तमोने ( न्यायएव के०) न्यायज योग्य वे. ( यत् के०) जे कारण माटे (अमरवरलब्ध्या के० ) प्रधानदेव तानी प्राप्तियें करी (पारदा रिक्यचौर्य के० ) परदारानी चोरीना कार्यने (अनुविषयं के) देशदेश प्रत्ये ( चक्रनृत् ब्रह्मदत्तः के० ) ब्रह्मदत्त नामा चक्रवर्ती (अरौत्सीत् के०) निवारण करतो हवो. त्या दृष्टांत कहे जे. के जेम (सुरसरिति के०) स्वर्गगंगाने विपे (पंकः के०) कचरो (क्क के०) क्यां थी होय, तथा (ईशचं के०) शंकरना शिर उपर रहेला चंझ्ने विपे (कलं कः के०) कलंक ते (क के० ) क्याथी होय. ना नज होय ॥ ७६ ॥ प्रांहिं ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीनी कथा कहे . ब्रह्मदत्तें वनने विपे कोक दे वतानी स्त्रीने कोइ पुरुप साथें रमती जोड्ने ते स्त्री पुरुष वेदुनु ताडन क यु. ते स्त्री त्यांथी जश्ने पोताना स्वामी प्रत्ये कहेवा लागी के हे स्वामिना न! मने प्रावी रीतें ब्रह्मदत्तचक्रीयें मारी,पढ़ी तेना पति नागकुमार देवने सहेज तरतज कोप चड्यो, अने तरत त्यां श्राव्यो. ते वरखतें ते ब्रह्मदत्त चक्री पोतानी स्त्रीने घरमां कहेतो हतो के हे स्त्री : में कोई स्त्रीने कुकर्म करती जोड्ने मार मास्यो ,ते वाक्य सांजलतांज नागकुमार देव प्रसन्न थयो थको प्रगट थने कहेवा लाग्यो के हे राजन् ! वरदान मागो. त्यारें ब्रह्मदत्तें कह्यु के तमें अवधिज्ञानथी सर्व वात जाणो बो, माटे मारा देशमां परस्त्रीनी चोरी जो थाय, तो मने प्रावीने कहे,तेने ढुं शिक्षा आपीश. ए वरदान मागुं . पड़ी ते प्रमाणे ते देवें कयुं अने ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीये पण तेमज कयुं ॥७६॥ विद्याविनतिमहिमव्रतधर्ममोद, संपत्तये विनय एव विनुः किमन्यैः॥ किं किं नमिःसविनमिर्जिनतो न लेने, पूज्यांघ्रिरेणुरपि पश्य नमस्यएव ॥ ७ ॥ अर्थः-(विद्या के०) विद्या, (विनति के) लक्ष्मी वा संपत्ति, (महिम के) महिमा (व्रत के० ) व्रत, (धर्म के ) धर्म, (मोद के० ) मोद तेनी ( संपत्तये के०) संपत्तिने माटे ( विनयएव विनुः के) विनय तेज समर्थ जे. (अन्यैःकिं के) बीजायें करीने गुं ? ( सविनमिः के०) ते वि नमियें सहित एवो (नमिः के०) नमि ते (जिनतः के० ) श्रीरुपनदेव ती र्थकरथकी (किंकि के) . (न लेने के०) न पामतो हवो. अर्थात् Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. सर्व राज्यादि लक्ष्मीने प्राप्त यतो हवोज. माटे ( पश्य के० ) हे नव्यजन ! जुवो. ( पूज्यां घिरेणुरपि के० ) पूज्य एवा तीर्थकरना चरनीरज पण ( नमस्यएव के० ) नमन करवा योग्यज ने माटे विनय राखवो ॥ ७७ ॥ हिं नमि विनमिनी कथा कहे बे. नमि ने विनमि वे क्षत्रिय ते कब महाकबना पुत्र ते श्रीरूपन देवजीना अंगरक्षक होता हवा, ते वेहु को कार्यने विदेशांतर गया. तदनंतर श्रीकृषनदेव स्वामीयें दीक्षा ग्रहण करी पढ़ी, ते जेवारें पाठा याव्या तेवारें स्वामी ज्यां विहार करे, त्यां सा थें फरता रहे. प्रातःकालमां श्रीरूपनदेवजीना चरणने कमलें करी पूजीने कहे के हे स्वामी ! राज्य देनारा थाजो. एम मागता हता. एक दिवस धर , श्रीपनदेवना वंदन माटे याव्यो ते बेहु जाने जोने कहेवा ला ग्यो. के तमो येहु भरतचक्रवर्ती पासें जाउ ते तमोने राज्य प्रापशे. त्यारे तेणें कहां के कपनदेवजी नहिं थापे ? वचमां तमारे बोलवानुं शुं काम बे ? तमारे जा होय तो जाउ प्रमोने तो ज्यारें स्वामी राज्य श्रापशे, तेवारें जेशुं मारे कांइ जरतनी सार्थे प्रयोजन नथी, ते सांगली धरणें तुष्टमान यइने चोराशी हजार विद्या प्रापी ने वैताढ्य पर्वतने विषे दक्षिण श्रेणी ने उत्तर श्रेणीनुं राज्य वेंचीने वेदु नाइने धरणेंजें प्राप्युं, ते तेणें लीधुं ॥ ७७ ॥ किं मर्त्यस्त्रिदशोप्यपास्तविनयोम्लानेः सढ़ानेः पदं, यो करः किमार्यखपुटाचार्येण ना शिक्षितः ॥ किंवा विष्णुकुमारतोन नमुचिर्मृत्वाऽगमद्दुर्गतिं, नद्यो घस्तरुमुन्नतं रुजति वा नम्रं तु नो वेतसम् ॥ ७८ ॥ अर्थः- (पास्तविनयः के० ) त्याग कस्यो बे विनय जेणें एवो (त्रि दशोपि के० ) देवता पण ( सहानेः के० ) दानियें सहित एवा ( म्लानेः के० ) परावनुं ( पदं के० ) स्थानक थाय. जुवो (वृद्धकरः के० ) वृ कर नामा ( यक्षः के० ) यक् तेने (आर्यखपुटाचार्येण के० ) श्रार्यखपुटा चायें ( किं के० ) गुं ( नाशिक्षितः के० ) न शिक्षा कस्यो ? ना कस्योज बे. तो ( मर्त्यः किं के० ) माणसनुं तो गुंज कहेतुं ? हवे ते वृद्धकर यक्ष केवो हतो ? तो के जिनशासननो द्वेषी, साधुने दुःख दायक हतो ने हुं महा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ५ ज्ञानी बुं. एम अनिमान कयुं तेथी आर्यखपुटाचार्य प्रासादनो अंतराय करे बते गुरुयें तेने प्रतिपत्तिने पमाड्यो. पनी गुरुयें बोध कस्यो (वा के०) वली (वि ष्णुकुमारतःके) विष्णुकुमार जे मुनीश्वर तेथकी (नमुचिः के०)नमुचिनामा प्रधान ते (मृत्वा के०) मरीने (उर्गतिं के०) उर्गतिने (किंनअगमत् के०) झुं न पामतो हवो ? कवि कहे जे ते वात घटे जे.जेम (वा के०) वली (नद्योघः के०) नदीना जलनो समूह, (उन्नतं के०) चंचा एवा (तसं के०) वृदने (रु जति के०)नंग करे ये परंतु (नम्र के) नम्र एवा (वेतसं तु के०) वेतस नामा वृदने तो ( नो के०) नंग करतो नथी. अर्थात् अनिमाननो तो नंग पण थाय . परंतु विनयनो नंग कोइ ठेकाणे थतोज नथी. एम जाणवू ॥७॥ आ श्लोकमां बे दृष्टांत होवाथी प्रथम वृक्षकर यदनी कथा कहे जे. गू ढशस्त्र नगरंने विषे नुवनमुनियें वृक्षकर नामा बुधमुनिनो वादमा विजय कंस्यो. ते मरीने यद थयो. पड़ी ते यदें संघनै उपश्व करवामांमयो. तदनं तर त्यां श्रीखपुटाचार्य देवश्लायें आव्या. गुरु ते यदना घर प्रत्ये जश्ने यदना कर्णने जुना खासडानो निवेश करी तेनी बातीने विषे पोतानो पग मूकी वस्त्रे करी ते यदनुं अंग ढांकीने खपटाचार्य सुता, ते प्रनातें यदना पूजन करनारें जोइने सर्व वृत्तांत राजाने निवेदन कयुं. राजायें तिहां आ वीने सेवकोना हाथे कोरडायें करी गुरुने मारवा ममियो. ते कोरडाना प्र हार राजाना अंतःपुरमा लाग्या, ते जोश्याचार्यने पगे लागीने राजायें हमा मागी. तेवारें गुरु त्यांथी नग्या अने गुरुयें तिरस्कार पमाडेला यदें चतु विधसंघनी रक्षा करी. पडी ते गुरुयें यद विनायक रुादि देवतायें युक्त थया बता पुर प्रत्ये जश्वे पापाणनी कुंमी नगरने दरवाजे स्थापन करी सर्व देवताउने रजा यापी. देवो पोताने स्थानकें गया. ते अद्यापि पर्यंत पापा पनी कुंमिका प्रतोलिकामां देखाय . कोइ पण तेने चलावी शकतुं नर्थ।. हवे विष्णुकुमारनी कथा कहे जे. पद्मपुर नगरने विषे पद्म नामाचक वर्ती राज्य करे . तेनो नमुचि नामा मंत्री हतो. तेने एक दिवस नास्ति क मतने प्ररूपण करता थकां सुस्थिताचार्यना लघु शिष्ये सर्व लोकोनी सम द जीती लीधो. एकदा नमुचियें कोई कार्य करीने चकीने अत्यंत प्रसन्न कयो. तेवारें चक्रीयें कडं तुं माग, ते ढुंबापुं. तेणें सात दिवस पर्यंत राज्य Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जैनकथा रत्नकोष जाग पांचमो. माग्यं. ते राजायें पण सात दिवस राज्य प्राप्यं. नमुचि मंत्री राज्यासने a. ने साधु कहेवा लाग्यो के मारी पृथ्वीनो तमो त्याग करो, नहिं तो हुं सर्व साधुग्ने हणीश पढी कोइक साधुयें गगनमागें मेरुना शिखरप रजइने श्रीपद्मचक्रवर्तीना नाइ श्री विष्णुकुमारनी पासें नमुचिनुं वृत्तांत स र्व कं. विष्णुकुमार त्यांथी यावीने नमुचिने कहेवा लाग्या के हे राजन् ! या साधुग्ने उपव करवो तुमने घटे नहिं ? केटली एक पृथ्वी तुं साधु नेाप के जे ठेकाणे सर्वे साधु निवास करे. त्यारें मंत्री कहेवा जा यो के पगलां पृथ्वी मो आापीयें बैयें, माटे जाने तेटली पृथ्वीमां रहो. ते सांगली विष्णुकुमार मुनियें लाख योजननुं वैक्रियरूप धारण क रीने पृथ्वीने उल्लंघन करी एक पगलुं पूर्वसमुड् उपर मूक्युं ने एक प गलुं पश्चिम समुड़ें मूक्युं पी विष्णुकुमार कहेवा लाग्या के हे पापी ! त्रीजुं पगलुं हुं क्यां मूकुं ? ते सने कहे. एम कही तेना मस्तकपर एक पग मूक्यो ते पगना प्रहारें करी तेने चूर्ण करी नाख्यो. पती विष्णुकुमारें पो तानुं वैक्रियरूप संहरण करी लीधुं पोते यालोयणा लेता हवा ॥ ७८ ॥ राज्यं शक्रकृतानिपेचनमदो रूपं त्रिलोकेऽप्यस, त्सारूप्यं च सनत्कुमारनृपतेः सोऽप्पंगवैराग्यतः ॥ चक्रे चारुतपः सलब्धिरपि तत् स्वं नाचिकित्सत्पुना, रज्येा प्रतिकर्मनिर्मलरुचौ कः कुप्यपात्रे सुधीः॥ ७ ॥ अर्थ : - ( शकता निषेचनं के० ) इंदें को बे निपेक जेनो एवं (राज्यं के० ) राज्य, (च के०) तथा (अहो के०) प्रार्ये ( त्रिलोकेऽपि के० ) त्रण लोकनेविषेपण (असत् के० ) नथी विद्यमान ( सारूप्यं के० ) समानपणुं जेनुं एवं (रूपं के० ) रूप, ते बेडु (सनत्कुमारनृपतेः के०) सनत्कुमाररा जाने हतां, (सोऽपि के० ) ते सनत्कुमारनृपति, पण (अंगवैराग्यतः के० ) ते अंग विषे वैराग्ययकी ( चारुतपः के०) मनोहर एवा तपने (चक्रे के ० ) करतो हवो. तथा ( सलब्धिरपि के० ) ते लब्धियें सहित थयो तो पण ते सनत्कुमारराजा ( पुनः के० ) फरीने (तत् के०) ते ( स्वं के० ) पोताना अं गने सारं करवानो (नाचिकित्सत् के० ) उपाय न करतो हवो, एटले शरीर बगड्युं तो पण तेनी प्रतिक्रिया करी नही. कवि कहे बे. ते वात घटे बे कारण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ए३ के (सुधीः के०) रूडी , बुद्धिजेनी एवो (कः के०) कयो पुरुष,(प्रतिकर्मनि मैलरुची के०) प्रतिकर्मैकरीने के निर्मल कांति जेनी एवा (कुप्यपात्रे के०) ताम्रपात्रनेविषे ( रज्येहा के०) राजी थाय वारु ? नज थाय. तेम वैराग्य थवा पली कूप्यादि सदृश देहादिकने विपे कोण राजी थाय ? ॥ ए ॥ बांही सनत्कुमारनी कथा कहे . अयोध्यानगरीनेविपे सनत्कुमार नामा चकी राज्य करे बे. एकदिवस सनत्कुमार, रूप इंई पोतानी सना मां वखाण्युं, तेनुरूप जोवाने तत्काल वे देवता याव्या, ते वखत चक्रवर्ती स्नान करवा वेग हता, तेनुं रूप जोइने ते वेदुजण विस्मय पामी गया. च क्रवर्तीयें कह्यु के हे देवतान! ढुंजेवारें सिंहासन पर बेसुं, तेवारें तमो माहरा स्वरूपने जो जो. पनी जेवारें सन्ममां सिंहासन पर बेग, तेवारें सनत्कुमारनुं रूप जोता वेदु देवोनां मुख विबाय थयां. ओइने ते वेदुने च 'क्रवर्ती कहेवा लाग्यो के केम तमारुंमुख विहाय देखाय बे ? देवतायें कह्यु के तमारा शरीरमां कुष्टादिक रोग थवाथी अमोयें स्नानवखतें जेवू तमाळं रूप जोयुं हतुं, तेथी हमणां अत्यंत हीन थइ गयुं. या वात देवताना मुख - थी सांजली चक्रीने तुरत वैराग्य उत्पन्न थयो, तेथी राज्य बोडीने दीदा ग्र हण करी. पड़ी तेने कुष्टादिक आठ रोग उत्पन्न थया. सातशो वर्षरोगर्नु मुःख सहन कयु. परंतु पोतामां लब्धि बते पण तेना निवारणनो कोइ उपाय कस्यो नहिं. वली ते उसड करे ले के नहिं एवी तेनी परीक्षा करवा माटे वे देवता वैद्य थइ अाव्या परंतु सनत्कुमार मुनियें वैये कहेलो उपाय कां 'पण कस्यो नहिं. माटे वैराग्य के तेज झानसाधन ने ॥ ७ ॥ आजन्मांतमनंतर्मुदि नवे वैराग्यमस्त्येव त,ध्यक्तं देतु पु सत्सु किंतु नवति प्रत्येकबुक्षेप्विव ॥ सूर्याइमन्यनलं प यः शशिमणौ स्वर्ण सुवर्णावनौ, कोऽशाहीत् पुनरर्कचं दुतनुग्रयोगात् कुतोप्येति वा ॥ ७० ॥ वैराग्यप्रक्रमः॥ अर्थः-(आजन्मांतं के० ) जन्मथी आरंजीने मरण पर्यंत (अनंत मुदि के ) अनंत चे सुःखाकुलमुद् जेमां एवा (जवे के०) संसारने विपे (वैराग्यं के० ) वैराग्य ( अस्त्येव के) होय ज. ( तध्यक्तं के०) ते स्पष्ट देखाय के (किंतु के० ) केम ? तो के (सत्सु के०) प्रसिह एवा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ( हेतुषु के० ) वृषनादि हेतु बते (प्रत्येकबुक्षेष्विव के० ) प्रत्येक बुझोने विषे जेम वैराग्य (नवति के०) थयो. त्यां कवि कहे . फुःखदायक संसा रने विपे पण वैराग्य रह्यो जे. केनी पेठे तो के (सूर्याश्मनि के०) सूर्य मणिने विषे ( अनलं के०) अग्मिने (कोऽशदीत् के० ) कोण जोतो हवो कोइ नहि तथा ( शशिमणो के०) चांश्मणिने विषे ( पयः के०) अमृ तरूप उधने कोण जोतो हवो तथा (सुवर्णावनौ के० ) सुवर्णमय पृथ्वीने विषे ( स्वर्ण के) सुवर्णने कोण जोतो हतो, अर्थात् ते पूर्वोक्त. सर्व वस्तु एटलाने विष अदृष्टज जे. परंतु (पुनः के०) वली (अर्कचंतनुगयोगात् के ) सूर्यमणि, चश्मणि, सुवर्ण तेनें एटले अनुक्रमे सूर्यमणिने सूर्यनो, चश्मणीने चंनो तथा स्वर्णनूमिने अमिनो योग होवाथी अग्नि, उध, अने सुवर्ण उत्पन्न थाय ने ( वा के० ) तेम ( कुतोपिके) क्यारेक पण देह थकी वैराग्य (एति के०) नत्पन्न थाय छे. एम जाणवू. जेम पूर्वोक्त प. दार्थ सूर्यादिकना योगथी थाय ने तेम कोश्क वरखतें देहादिकथी वैराग्य नुत्पन्न थाय ॥ ७० ॥ इति वैराग्यप्रक्रमः ॥ आंहिं चार प्रत्येक बुझ्नो दृष्टांत होवाथी तेनी कथामा प्रथम करकंमप्र त्येक बुधनी कथा कहे .कलिंग देशे काकंदी नगरीमांकरकंकु राजा राज्य करे .तेणें एक दिवस राजमार्गमां जतां एक गोकुलने विपे जाडा कांधवालो, गंची कोट वालो, धोला दांत वालो, अने महाबलवान्, पोतानी त्राडथी दिशाउने गजवतो, अत्यंत सुशोनित,एवो एक वपन दीठो. तेथी राजाना मनमां अत्यंत प्रमोद उपनो. वली केटला एक वर्ष पड़ी पाबा तेज रस्ते चालता ते राजायें जर्जरीनूत गाववालो पड़ी गयेला बे दांत जेना एवो तथा जेना मोढामांथी लाल पडतीजाय ने बिनस मुखवालो अने पशुथी कुःख सहन करतो शोना रहित एवा तेज वृषनने जोयो ते जोड्ने राजा विचार करे डे के जेवी दशा या वृषननी थइ तेवी दशा आ माहारा कलेवरनी पण थशे? एम चिंतवता वैराग्य उत्पन्न थवाथी ते करकं राजा पोतेंज दीदा ग्रह ण करी कर्मनो क्य करी सिदिने प्राप्त थयो. एकरकं प्रत्येक बुधनी कथा. हवे उम्मुहराजानी कथा कहे . पंचाल देशमां कांपिठ्यपुरने विषे र्मुख नामा राजा हतो. ते एक दिवस नगरथी बाहेर निकटयो ने तेणें रस्तामां नगरना घणा लोकोयें पूजन करेलो, तथा जेनी बागल शृंगार Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ए सजेली एवी स्त्रीयोनां वर्गे गान करेलो अनें नानाप्रकारनां याचक लोको यें स्तुति करेलो तथा हजार ध्वजायें करी शोनायमान जाणीयें सादात् इंज होय नहिं. एवा इंश स्तंनने जोड्ने राजाना मनमां विस्मय थयो. पा बो फरीने राजा तेज रस्तामा सायंकालें गयो त्यां दरियुक्त पृथ्वीने विपे पडेलो शोना रहित एवा तेज स्तंन जोड्ने राजाने वैराग्य उपन्यो, तेवारें चा रित्र लश्मोदसुख पाम्यो ए उर्मुख प्रत्येक बुधनी कथा कही. हवे नमि प्रत्येक बुधनी कथा कहे . श्रीमिथिला नगरीने विषे नमि राजा राज्य करतो हतो. ते अत्यंत स्वरूपवान् तथालनीने पण तिरस्का र करनारी देवांगना सरखी पांचशो स्त्रीयोनी साथे जोग नोगवतो सूर्यना उदय अस्तनी पण तेने खबर नथी. एक दिवस ते नमि राजाना अंगने विपे दाहज्वर उत्पन्न थयो. तेथी राजा को ठेकाणें सुखने न पाम्यो. ते अवसरे राजाना अंगने शीतलता थवाने माटे पांचशे स्त्रियोयें चंदन घ सवा मांमधं, तिहां स्त्रीयोना हाथमा पहेरेली चुडीयोना खणखणाटथी राजाने कंटालोआव्यो, तेवारें एकेक चूडी सर्व स्त्रीयोने राखवानो दुकुम क . स्यो. ते सांनती सर्व स्त्रीयोयें एकेक कंकण हाथने विपे राख्युं, ते वरवत रा जाने समाधि थर, अने मनमा विचाओँ के जाजाना संगथी मोहोटुं छः रख थाय , माटे एकलांज रहेq ते सारं . ए हारें वैराग्य उत्पन्न थयो तेवारें पांचशे स्त्रीयोने तथा राज्यनें बांझीने प्रव्रज्या ग्रहण करी. तेनी ६ ब्राह्मगनुं रूप विकूर्वी अनेक प्रकारें परीक्षा करी, तो पण चलायमान थया नही. ए नमि प्रत्येक बुधनी कथा कही. हवे चोथा नग्रति प्रत्येक बुधनी कथा कहे . गांधार देशने विपे मा हिष्मती नगरीमा नयति नामें राजा राज्य करे . एक दिवस ते राजा व नने विषे क्रीडा करता थाकी गयो. ते समयें मनोहर नवपन्नवनी शोना यें विराजमान, नवी आम्र मंजरीयें करी सुशोनित, पाकेला फलें करी दे दीप्यमान अने अत्यंत बायायुक्त एक आम्रवदने राजायें जोयो. तेनी नी चें जश्ने घणीवार सुधी विश्रांति लीधी. फररी केटलाएक का. पाडो रा जा ते वनमा गयो. त्यां तेज थाम्रने सुकाइ गयेलो पत्र रहित मालविना नो जोइने ते नयति राजाने वैराग्य नत्पन्न थयो. तेवारें व्रत ग्रहण करी केवलज्ञान पामीने मुक्तिने प्राप्त थयो ॥७०॥ इति वैराग्यप्रक्रमः संपूर्णः ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सुप्रापं शुरूपात्रं धनमपि विशदं किंतु निप्पुण्यकानां, नो वित्तं पात्रदानं प्रति नवति मतिर्यत्र शुद्धाशनायैः॥आयो ऽन् वर्षमेकं प्रतिदिनमगमतुझ्नैोऽपि देशे, श्रेयांस स्त्वेकमायं सुकृतिपु कृतवान् स्वं प्रनोः पारणेन ॥१॥ अर्थः-जे दानयकी ( यत्र के०)जे वित्तने विपे ( शुभाशनायेः के०) शुभ एवा अशनादिकोयें करी दान देवानी (मतिः के०) बुद्धि, उत्पन्न थाय तथा तेवू दान अने (शुहपात्रं के०) गुरुपात्र, (सुप्रापं के० ) प्राप्त थयेल्लं होय तथा ( धनमपि के०) इव्य पण (विशदं के) शुरू होय (किं तु के० ) तो पण ( निष्पुण्यकानां के ) पुण्य रहित जनोनुं (वित्तं के०) व्य, ते (पात्रदानंप्रति के०) पात्रदान प्रत्ये (नोनवति के ) यतुं नथी. त्यां दृष्टांत कहे जे के (आद्योऽर्हन के०) आदिनाथ जे श्री रुपनदे वजी तीर्थकर ते, (वर्षमेकं के ) एक पर्ष पर्यंत, (शुध्नेदयेऽपि के०) शुभ ले नेदय एटले अन्न जेमां एवा (देशे के०) देशने विपे (प्रतिदि नं के० ) प्रतिदिन ( अगमत् के० ) जता हवा, परंतु गुम अशनादिक कोयें पारणा माटे आप्युं नहिं. अने (सुकृतिषु के०) एक सुरुतिजनने विपे कृतार्थ एवो (श्रेयांसस्तु के०) श्रेयांस राजा जे ने तेज (आद्यं के०) अदन करवा योग्य ( एकं के० ) एक एवा (स्वं के० ) पोतानी पासे रहे ला शेरडीना रसने (प्रनो के०) श्रीयादिनाथना (पारणेन के० ) पारणा ने कराववे करीने सार्थक (कृतवान् के०) करतो हवो ॥ ७१ ॥ आंहिं श्रेयांस राजानी कया कहे . गजपुर नगरने विपे बद्मस्थ अंव स्थायें विहार करता एवा श्रीकृषनदेवजी मध्याह्नने समय निदाने माटे नमे ले परंतु ते समये निदा ते वली गुं? अने कोण निदाचर होय. ते वात कोइ पण जाणतुंन हतुं, एवामां पोताना घरनी चंची बारीमाथी श्री श्रेयांस कुमार श्रीरुपनदेवजीने जोया. ते जोता वेंतज ते श्रेयांस कुमारने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं, तेवारें श्रेयांसकुमार त्यांथी उठी प्रनु पासें जश्ने प्रनुने पोताने घेर तेडी लाव्यो. तेवामां कोक जन घणा एक शेर डीना रसना कुंन नेट लाव्यो. तेज शेरडीना रसथी प्रनुने पारणुं कराव्युं ते समय पांच दिव्य प्रगट थयां आकाशमांथी सुवर्णनी वृष्टि थइ. कहे Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ए लुंजे के “ रिसहेस समं पत्तं, निरवऊ इरकुरससमाहारं ॥ सेयंस समो जावो, हविङ जश् मग्गियं दुजा ॥ १ ॥ एम सुपात्रने दान आपवाथी तेज नवमां श्रेयांस मुक्तिने प्राप्त थयो ॥ ७१ ॥ यदपि तदपि शुई चंदनावत्प्रदत्तं,झटिति फलति पात्रेऽन्य त्र नो चार्वपि स्वं ॥जलधिजलमसारं वारिवाऽमृती स्या त्, मधुरमपि हि पुग्धं पन्नगास्ये विपी स्यात् ॥ ७॥ अर्थः-(यदपितदपि के०) सरसविरसएवं पण (शुई के०) बहेंतालीश दोषरहित एवं दान, (चंदनावत् के० ) चंदनबालानी पेठे (पात्रे के० ) पा त्रनेविषे (प्रदत्तं के०) दीधेनुं होय तो (झटिति के०) उतावलथी (फलति के० ) फले ले (अन्यत्र के० ) कुपांत्रने विपे ( चार्वपि के. ) सारूं एवं अने (स्वं के०) पोतानुं श्व्य दीधुं होय तो पण ते (नो के०) नथी फलतुं. केनी पेठे ? तो के (असारं के०) साररहित एवं जे (जलधिजलं के०) समुनु खासै जल ले ते (वारिवाहे के०) मेघनेविषे (अमृती स्यात् के०) अमृतवालुं थाय . अर्थात् अमृत समान मिष्ट थायडे,अने (मधुरमपि के०) मधुर एबुंपण (दुग्धं के०) दूध में तो पण ते (हि के) नि2 ( पन्नगास्ये के०) सर्पना मुखने विषे (विषी स्यात् के० ) विषवालुं थाय बे अर्थात् सुपात्रने दान थापेखें अमृतसदृश फल आपे अने कुपात्रने आपेलुं दान विप जेवं फल आपे ३ ॥ आहीं चंदनवालानी कथा कहे जे. चंपानगरीने विषे दधिवाहनराजा तेनी धारिणी नामा पटराणी हती. ते राजाने वसुमती नामनी दीकरी हती. प बी शतानीकराजायें चंपानगरी नग्न करी, तेवारें एक प्यादो हतो तेणे ते वसुमती कन्यानुं हरण कस्यं, तेने कौशांबी नगरीमा आणी. ने वेचवा काढी त्यां धनावहनामा श्रेष्ठिये ते ऽव्यापीने वेचाती लीधी. घेर आणी पोतानी पुत्री करी राखी, तेनुं चंदनबाला एवं नाम स्थाप्यु. पड़ी ते धनावह श्रेष्ठी नी मूला नामें स्त्री हती तेना मनमां एवी शंका थइ जे आ कुमरीने महा रोधणी स्त्री करी राखशे, एवा हेतुथी तेने दुःख देवा माटें बल जोती रहे वे. एकदा शेठ बीजे गाम गया तेवारे अवसर पामीने ते मूलायें चंदनबाला नुं शिर मुंमन करावीने बंधीरवाने नाखी. पनी धनावह श्रेष्ठी पाबो श्राव्यो तेवारें ते वात जाणीने त्रण उपवास वाली चंदनबालाने जमवा माटे शुद्ध १३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. एवा अडदना बाकला सूपडाना खुणामां नाखीने आप्या. अने तेने जंबरान पर बेसाडी पोतें तेनी बेडी नंगाववा माटे सहारने तेडवा गयो. एवा सम यमा श्रीवईमान स्वामी बमासी तपना पारणा माटे त्यां याव्या. ते वरखतें त्रणउपवासना अंतमा ते बाकला चंदनबालायें वईमानस्वामीने आप्या. त्यां पांच दिव्य प्रगट थयां. साडाबार कोटि सुवर्णनीवृष्टि श्राकाशमांथी पडी. नवो वेणिमाव्यो.अने लोढानी बेडीयो हती ते सुवर्णनी थइ गइ, पढीचं दनवाला,नगवान पासे दीदा लइ केवलज्ञान पामीने मोक्षसुखने प्राप्त थ. ए चंदनवालाये पात्रदान आप्युं,तेथी सजतिने पामी ॥७॥ दानप्रक्रमः॥ स्त्रीविभ्रमैश्चलति लोलमनानधारः, श्रीस्यूलन श्व ताशसंकटेपि ॥ चूर्णीनवेदृषदयोपि विलीय ते च, वैर्यमेति विकृति ज्वलनात् पुनर्न ॥ ३ ॥ अर्थः-(लोलमनाः के) चंचल मन जेनुं एवो पुरुष, (स्त्रीवित्र . मेः के० ) स्त्रीना हावनाव कटादादिकें करी (चलति के ) चलायमान थाय ले परंतु (धीरः के०) धीर पुरुष जे जे ते (न के) चलायमान थतो नथी. केनी पेठे ? तो के (श्रीस्थूलनइश्व के०) श्रीस्यूलिननी पेठे. ते जे म ( तादृशसंकटेपि के० ) कोश्यागणिकाना संकटने विपे पड्यो बतो पण चलायमान न थतो हवो. कवि कहे ने खरी वात ले. जुवो (ज्वलनात् के०) अमिथकी ( दृषद् के० ) पाषाण ते (चूर्णीनवेत् के० ) चूनो थइ जाय ठे (च के ) वली (अयोपि के०) लोह पण ( विलीयते के०) विशे करी लय पामे ले परंतु (वैमूर्य के०) वैमूर्य नामा रत्न, जे ले ते (विकृति के) विकारने ( नएति के०) प्राप्त थतुं नथी. (पुनः के० ) परंतु विशेपें करी देदीप्यमान थाय ने ॥ ३ ॥ ___ आंहिं श्रीस्थूलिनजीनी कथा कहे जे. पामलीपुर नगरें नंदराजानो प्रधान शकमाल नामें हतो तेनो एक स्थूलिन अने बीजो सरियो ए बे पुत्र हता तेमां स्यूलिन तो कोशावेश्याने त्यां साडी बार करोड सुवर्णनो व्यय कस्यो अने नाना प्रकारना नोग जोगव्या. पड़ी पोताना पिता शकमाल नुं मरण सांजलीने ते स्थूलिनश्ने तरत वैराग्य उत्पन्न थवाथी श्रीसंनू तिविजय गुरुनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. चोमासुं करवा माटे श्रीगुरुनी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. आशाथी चार मास कोशावेश्याने घरे चित्रशालीयुक्त घरमा रह्यो त्यां अ नेक प्रकारना दाव; नाव, कटाच ते वेश्यायें कस्या. परंतु तेथी लगार पण चलायमान थयो नहिं. एम कामराजने जीतीने कोशावेश्याने बोध कस्यो. चातुर्मासी पूर्ण थयेथी गुरुयें त्रण वार करकार कहीने तेनां वखाण कस्यां. कह्यु ले के, "वेश्या रागवती सदा तदनुगा, पड्नीरसै!जनं, शुनं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यं वयोयौवनं ॥ कालोयं जलदागमस्तदपियः कामं जि गाय दणात्, तं वंदे युवतिप्रबोधचतुरंश्रीस्थूलनई गुरुं ॥ १ ॥ नावार्थः-जे स्थूलनश्ने कोशावेश्या अनुराग वाली तथा पोताना कहेवा प्रमाणे चाल नारी अने ते कोशावेश्याना घरमा रहेवाथी पट्रस जोजन मलतुं हतुंथ ने मनोहर धाममा रहेता हता. पोतानुं तथा वेश्यानुं पण नवयौवन हतुं तेमज समय पण वर्षाऋतुनो हतो तो पण स्थूलिनश्मुनि महाप्रबल को थी न जीताय एवा कामदेवने जीतीने ते कोशावेश्याने पण एक कामां ज बोध कस्यो. एवा ते श्रीस्यूलिन महामुनिने कवि कहे जे के हुँ वारंवार प्रणाम करूं मुं, कारण कोथी न बने तेवं तेणें काम कयुं ॥ ३ ॥ सज्पयौवनगुणागतसानुराग, वित्तेशदत्ततनयान यनेष्वनेदात् ॥ वजेण वजमुनिना स्वयशोर्ण साऽसत्, संगाशुचि कचिदपूयत शीलमेव ॥४॥ अर्थः-(सधूप के ) सारु रूप ( यौवन के० ) सारं यौवन अने (गु "ए के० ) सारागुणो तेणें करी ( आगतसानुराग के०) आव्यो अत्यंत स्नेह जेने एवी (वित्तेशदत्ततनया के०) धनदत्तनामा व्यवहारीनी कन्या ते तेना पितायें आपी(नयनेष्वनेदात् के०)तो पण ते कन्याना नयनबाणे करी ननेदाणा एवा (वजेण के०) वजसमान (वजमुनिना के० ) वजमुनिये (क्वचित् के०) को वखत (असत्संगाशुचि के०) असत्संगथकी अपवित्र थयेलु एवं ( शीलमेव के ) शीलनेज ( स्वयशोऽर्णसा के०) पोताना यश रूप जलेंकरी (अप्रयत के०) पवित्र करता हवा.अर्थात स्त्रीना हावनावथी नहिं पराजय पामेला वजस्वामीय कोइक दिवस कुसंगथी अपवित्र थयेला एवा शीलने यशरूपजलें करी पवित्र कडे ॥ ७ ॥ हिं वजस्वामीनो दृष्टांत होवाथी ते पूर्वे कथा कही ने तो पण फरी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. संदेपथी कहे जे,कह्यु ले के ॥जो कन्नाइ घणेणय, निमंतिउ जुवर्णमि गिहि वयणे ॥ नयरम्मि कुसुमनामे,तं वयर रिसिं नमसामि ॥१॥ एक दिवस धन दत्तव्यवहारीना गृहनेविषे आवेली साध्वीय दत्तव्यवहारीनी पुत्री पासें वजस्वामीना रूपनुं वर्णन कयुं. ते सांजली ते कन्याये मनमां विचायुं जे महारे वजस्वामीनेज परण, अने जो तेम नहीं बने तो अमिमां पडीने म रण कर, पण अन्यजननुं पाणिग्रहण करवु नहिं. पड़ी ते कन्यानो बाप कोटि धन लश्ने वजस्वामी पासें श्राव्यो अने कह्यु के हे स्वामिन् ! आ क न्याने अने धनने अंगीकार करो. त्यारे वजस्वामीये कह्यु के अमें जो प्र मदाने जीयें तो अमारुं यतिपणुं क्यों रहे? ते विचार करो. एवा तेमना उपदेशथकी कन्याने पण बोध एयो. तेवारे ते कन्यायें पण वैराग्य पामीने वजस्वामीना हाथथीज दीक्षा ग्रहण करी ॥ ४ ॥ तपःशिवकुमारवञ्चरति मंदिरस्थोऽपि यः, सदेवपरिपद्यपिद्यु तिमहत्त्व विस्फूर्तिनृत् ॥ कृशान्वकृशतापनोल्लसितवर्णिकं कां चनं, न धातुषु विशिष्टतां नृपतिमौलितामेति च ॥ ५॥ अर्थः-( यः के०) जे पुरुष, (मंदिरस्थोऽपि के० ) मंदिरने विपे रह्यो बतो पण (शिवकुमारवत् के०) शिवकुमारनी पेठे एटले जेम जंबुस्वामीनो जीव पूर्वला नवे शिवकुमार नामे हतो तेणे मंदिरने विपे रह्या उतां पण पांचशो अंतःपुरीमध्ये वार वर्ष पर्यंत तप कयुं अने पारणामां आंबिल कयुं, तेनी पेठे (तपः के० ) तपने ( चरति के०) कोइ पण पुरुष घरमे विपे रह्यो बतो पण आचरण करे ले तो (सः के०) ते पुरुष, (देवपरिपद्यपि के० ) देवताउनी सनाने विषे पण (द्युतिमहत्त्व विस्फूर्तिनृत् के०) तेज ना महत्त्वनी विस्फूर्त्तिने धारण करनारो थाय . त्यां दृष्टांत कहे जे के (कशान्वशतापनोन्नसितवर्णिकं के०) अग्निना महोटा तापें करी प्रकाशित डे वर्ण जेनो एवं (कांचनं के०) सुवर्ण जे जे ते, (धातुषु के०) सर्व धातुनने विषे (विशिष्टतां के०) विशेषपणाने झुं (न एति के ) न पामे ? ना पामे बे (च के० ) वली (नृपतिमौलितां के) राजाना मुकुटपणाने झुं नथी प्राप्त थातुं ? ना प्राप्त थायज जे. एम घरमां वेशी तप करनारा पण महा अमिमां तपावेला सुवर्णनी पेठे सर्वने विषे उत्तमताने पामे . एम जाणवू. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. २०१ यांहिं शिवकुमारनी कथा कहे . शिवकुमार पूर्वनवने विपे अमंमिता स्त्रीना पतिपणामां चारित्रने विराघवे करी दीदा लेवामां समर्थ थयो नहिं. परंतु त्यां बत्रीश अंतःपुरीना मध्यमां रहीने निरंतर ब ब तपने पारणे यांबिल करतो एरीतें तेज नगरमां दृढधर्मी श्रावक पासें रह्यो थको साधुनी पेठे अन्न पाणी वहोरी लावीने जोजन करतो हतो, एम बार वर्ष पर्यत एवं तप कस्युं. पनी ते मरण पामीने महाद्युतिमान देव थयो. ते देवर्नु अत्यंत कांतिमत्त्व जोश्ने श्रेणिक राजाना मनमां विस्मय थयो. तेवारे ते वात श्रीवीरनगवानने पूबी श्रीवीरस्वामी शिवकुमारना पूर्वना सर्व नव कह्या. वली कह्यु के ए देवता एज नगरीने विपे षनदेव नामा श्रेष्ठी रहे , तेनी धारिणी नामनी स्त्रीनी कूखें ावी श्रीजंबु कुमार नामें पुत्रपणे अवतरशे. ते चारित्र लइ केवलझान पामीने मोक्ने प्राप्त थाशे. ते सांजलीने त्यां जंबुस्वामीनो पितृव्य अनाहत नामा देव हतो ते नृत्य करवा लाग्यो ॥ ५ ॥ तपःसकलकर्मनिदिविधलब्धिकन्निश्चितं,गृहे पुरिच उनगो -- प्यहह नंदिषेणोदिजः॥व्रते शमतपःपरःसुरनरैकवंयोऽनव, विज्वलनतापितः,श्रयति दीप्तिमामोघटः ॥६॥तपोधारं॥ अर्थः-( सकलकर्मनिद के ) सर्व कर्मने जेदना अने ( विविधलब्धि कृत् के०) अनेक प्रकारनी लब्धिने करनारुं एवं (तपः के०) तप (निश्चितं के) निश्चे ले (अहह के०) खेदें (गृहे के ) घरने विषे ( च के० ) वली (पुरि के०) पुरने विषे (पुर्नगोपि के०) पुनर्जाग्य एवो पण (नंदिपेणोदिजः के०) नंदिपेण नामा ब्राह्मण, (बते के०) व्रतने विषे ( शमतपःपरः के० ) शम अने तपने विषे तत्पर बतो (सुरनरैकवंद्यः के०) देवताने अने मनु ष्यने एकज वंदन करवा योग्य (अनवत् के०) थतो हवो. त्या दृष्टांत कहे . के जेम (आमोघटः के०) माटीनो काचो घडो, होय ते (रवि ज्वलनतापितः के०) सूर्य अने अनि तेणे ताप पमाड्यो बतो (दीप्ति के०) दीप्तिने (श्रयति के० ) आश्रय करे जे. एटले प्रकाशने पामे वे ॥ ६ ॥ यांहिं नंदीषेण ब्राह्मणनी कथा कहे जे. कोइ नंदिषेण ब्राह्मण हतो ते जन्मतांज तेनां माता पिता मरण पाम्यां. कोई रीतें करी तेना संबंधी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो उयें पोषण करी महोटो कस्यो. जन्मथी आरंजीने कुर्नागी हतो, तेने ते ना मामायें कडं के माहरे सात दीकरी तेमांथी तुने ढुं एक दीकरी आपीश. तेवा लोनमां नारखी तेने घरनां काम करवामां राख्यो. परंतु ते कुर्नागी होवाथी कोइ पण दीकरी तेने परणवानी ना करती न हती. तेवारें नंदिपेण मरवानो विचार करी कोइ पर्वत उपर चढयो. त्यां साधुयें प्रतिबोध आप्यो, तेथी प्रव्रज्या ग्रहण करी. महोटुं तप कयुं, ते नंदिषे पनां वखाण इं पोतानी सनामां कयां. ते सांजलीने बे देवतायें त्यां बावीने ते नंदिषेणनी परीक्षा करी. तो पण ते ऋषि सत्यथकी चलायमा न थयो नहिं. हजारो वर्ष तप करी अंतमां दौ ग्यना स्मरणथकी एवं नियाj कयुं जे ढुंआवता नवमां स्त्रीवन्नन थाउं! एम विचार करतांम रण पामीने वसुदेव दशार्दपणे उत्पन्न थयो. त्यां स्त्रीयो, तेनुं पडवू क्यारें पण मूकती न हती.अने सर्वत्र.क्रीडा करतो हतो. तेवू जोक्ने सर्व गामना महाजनें समुविजय राजा पासें जश्ने कयुं के आ महोटो अधर्म के जे . सर्वत्र वसुदेव दशाई निर्लऊ थको क्रीडा करे बे. ते वात सांजली राजायें कमु के, वसुदेवें पोताना घरना कोटमांज क्रीडा करवी. बीजे स्थलें बाहेर क्यांही फरवू नही. ते वात दासीना मुखथी वसुदेवें जाणी. ने पोतानुं अ पमान थवाथी वसुदेवें बाहेर जश्ने बहोंतेर हजार राजकन्या तथा वि द्याधर कन्या परणी. ते जन्ममां ते वसुदेवें पूर्ण नोग जोगव्या ॥६॥ दानं वित्तव्ययेनापरयुवतिरतित्यागतःशीललीला, ना नादाराप्रचारात्तपश्ह तददोहृद्यपध्यानहीनाः॥नावं कु तु येनाप्यखिलसुखनृतां वल्कलस्येव मुक्ति,मिष्टास्वा दैर्यदि स्यान्ननुतनुपटुतां कोन तां कारयेत्तत् ॥७॥ अर्थः-( वित्तव्ययेन के० ) इव्यना व्ययें करी एटले इव्य वावरवे क री ( दानं के०) दान देवाय , अने (अपरयुवतिरतित्यागतः के०) प र स्त्रीने विषे रतिना त्यागथकी ( शीललीला के०) शीलनी लीला प्राप्त थाय ने तथा (नानाहाराप्रचारात् के०) नानाप्रकारनाथाहारना परित्या गकी (इह के०) या लोकने विषे (तपः के०) तप, थाय (तत् के०) तेमाटे (अहो के०) आश्चर्य हे नव्यजनो! ते पूर्वोक्त तप वगेरेमा (ह Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. १०३ दि के० ) हृदयने विषे ( अपध्यानहीनाः के० ) दुष्टध्यानरहित बता ( नावंकुर्वंतु के० ) जावने करो. कारण के ( येन के० ) जे नावें करी (खिसुख नृप के० ) समग्र सुखने धारण करनारा एवा पुरुषोनी मध्यें पण ( वल्कलस्य इव के० ) वल्कलमुनिनी जेम (मुक्तिः के० ) मुक्ति , ते पूर्वोक्त नावयुक्त दानादिकें करी बीजा जननी मुक्ति थाय बे, वली ( यदि के० ) जो ( मिष्टास्वादैः के० ) मिष्टनोजनोयें करी मुक्ति ( स्यात् के० ) थाय ( तत् के० ) तो ( ननु के० ) वितर्के ( कः के० ) कयो पुरुष, ( तां के० ) ते (तनुतां के० ) शरीरपटुताने ( नकारयेत् के० ) न करे. ते कारण माटे सद्भावना शिवाय ए दानादिक सर्व व्यर्थ जाणवुं. अर्थात् सद्भावना युक्त दानादिक करवाथी मुक्ति व्याय बे. या श्लोकमां वल्कलमुनिनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे छे. पोत बपुर नगरने विषे सोमचंद राजा हतो तेन धारिणी नामें स्त्री हती तेनें प्रसन्नचं नामा पुत्र थयो. एकदा राजायें पोताना मस्तकमां पली जोयुं तेथी तरत वैराग्य उत्पन्न थवाथी पोतें पोतानी जार्या सहित तापसी दी ग्रहण करी. पाउल प्रसन्नचं पढी तेनो पुत्र, राज्य करवा लाग्यो. अ ने ते प्रसन्नचं राजानी माता तापसणी हती तेने केटला एक दिवस प वनविषे एक पुत्रनो प्रसव थयो ते तापसी सूतिकाना रोगथकी म रण पामी. पठी ते पुत्रने सोमचं तापसें हनु हनु उबेरीने महोटो क स्यो. ते पुत्रनुं नाम वल्कलचीरी पाड्युं. पढी ते वल्कलचीरी पोताना पिता ने माटे वनमांथी फलफूल लावी यापतो हतो, एकदा प्रसन्नचं राजा ने खबर पड़ी के माहारो नाइ वनमां बे ने माता मरण पामी ने माटे मारा जाने वनमांथी तेडावी लावुं एम विचारी गाममां पटह वग डाव्यो जे माहरा जाइ वल्कलचीरीने जे गाममां तेडी लावे, तेने जे नीष्ट मागे ते पुं. ते वात गामनी गणिकाउयें स्वीकार करी पढी ताप सीनो वेश धारण करीने ते वनमां गई. वल्कलचीरीयें ते गणिकाउने पूग्धुं जे क्यां तमारा याश्रमो बे ? कया वनमां तमारो निवास बे ? त्या रें ते कहेवा लागी जे में पोतनपुरमा रहीयें बैयें, माटे मारा वनमां तमो यावो में पण तमारी प्रतिपत्ति करं. एम कही ते तापसीजयें लाडु हता ते वल्कलचीरीने याप्या. तेने वल्कलचीरीयें पूढधुं के या गुं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमोः ने ? त्यारे ते स्त्रीयें कह्यु के,या अमारा वननां फल ले. पनी ते वेश्यायें पोताना अंगनो स्पर्श कराव्यो. वल्कलें पूज्युं या झुं ? गणिका कहेवा लागी के जे पोतनपुरमा आवीने फलो खाय , तेने या प्रकारनां फल मले जे. एम करीलोन पमाडीने ते वल्कलचीरीने लाने पोताना नगरमां गणिका प्रावी. ते वल्कलचीरी मुनि लाडुमां लोन पाम्यो थको नित्य वेश्याने घेर जवा लाग्यो, तदनंतर वेश्यायें पोतानी दीकरीनी साथें पाणिग्रहण कराव्युं,ते लगननी वखत मृदंगनो शब्द थवा लाग्यो, अने ध वल गावा ममियां तेनो नाद चोतरफ प्रसार थयो ते सांनली पोताना जाइना न आववाथी शोकातुर थयेला प्रसन्नचं राजायें पूयुं जे या म होत्सव कोने घेर थावा मांमया ले ? तेने लोकोयें कह्यु के वेश्याने घेर ते मनी कन्यानो विवाह थाय . तेनो महोत्सव वर्त्त जे. ते सांजली राजा यें वेश्याउने बोलावी पूज्युं वेश्यायें कह्यु के तमारा नाइने अमो तेडी लाव्यां जैयें अने अमारी कन्यानुं पाणिग्रहण पण कराव्यु. ए वचन सां 'जली राजा संतोष पाम्यो, अने तेने घटे तेवू इव्य आप्यु. पनी राजा ते वल्कलचीरीने पोताने घेर तेडी लाव्यो. त्यां थोडो थोडो व्यवहार जाणवा लाग्यो कारण के पशु पण शीखव्या बता व्यवहारने जाणे , तो मनुष्य जाणे, तेमां गुंज कहे? एक दिवस पोताना पिताने वांदवाने मात्रै प्रस नचं राजा वनमा गयो, वल्कलचीरी पोताना बापनी पर्णकूटीमां गयो. त्यां पोताना बापना उपकरणनुं प्रतिलेखन करतां बतां ते वल्कलचीरीने वैराग्य उत्पन्न थयो तदनंतर केवलज्ञान पामी मुक्तिने प्राप्त थयो ॥७॥ योदानं न ददौ तथैव न तपःशीलाईदर्चागमे, य स्यानार्ययुजोऽत्र केवलमनूमावादिलानंदने ॥ स्व शै ज्वलनेन वह्निपदोईढं मियोघटनै, रादर्श रविणा महौषधिवने किं तु स्वनावेन ना ॥1॥ अर्थः-(यः के०) जे इलापुत्र, (दानं के०) दानने (नददौ के०) आपतो न हतो (तथैव के०) तेमज वली (शीलाऽर्हद गमे के०) शील, अने जिननी पूजा तथा आगम श्रवण तेने विषे (अनार्ययुजः के०) अ नार्य लोकोने योजना करता एवा (यस्य के० ) जे इलापुत्र तेने (नतपः Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १५ के० ) तप न हतुं परंतु (अत्र के० ) इहां ए (इलानंदने के०) श्लानंदनने विषे (नावात् के०) नावना नाववा थकीज (केवलं के०) केवलज्ञान (ध नूत् के० ) होतुं हवं. त्या दृष्टांत कहे जे. के ( स्वर्णाझै के० ) सुवर्णाग्नेि विषे (ज्वलनेन के०) अनियें करी (ना के०) कांति नत्पन्न थाय , अने (वह्निपदोः के०) चकमकना पाषाणने विषे ( गाढं मिथोघटनैः के०) अत्यंत परस्पर घसवा थकी प्रकाश नत्पन्न थाय . अने (आदर्श के०) दर्पणनेविप्ले ( रविणा के०) सूर्यथकी कांति उत्पन्न थाय बे (किंतु के०) गुं वली तो के (महौषधिवने के०) महौपधिना वनने विषे (स्वनावेन के०) स्वजावें करीने पण कांति थाय . एम जीवमां पण जाणवू ॥ ७ ॥ यांहिं इलापुत्रनी कथा कहे . सांकेतिक पुरने विषे धनदत्त नामा श्रे ष्ठी वसे ले. तेने इलाची नामापुत्रं हतो, एक दिवस तेणें गवाहमांथी सु रूपवती कोई नटडीने जोड्ने मोह पामी नाटकीयाने कोइने मुखें कहेवरा व्युं के तारी पुत्री मने तुं परणाव्य. ते सांजली नट कहेवा लाग्यो के ए वट लीने अमारी न्यातमां आवे तो ढुं मारी पुत्री आपू. तेवारें कन्याना लोनें करी इलाचीपुत्रं ते वात अंगीकार करी वटलीने नट थयो अनेक नाटक करी घणुंज इव्य उपार्जन कयुं. एक दिवस जितशत्रुराजानी पासें नाटक करवा माटे श्लापुत्र, वांसडा उपर चड्यो रे ते समय जागीय विजलीनो जबकारोज होय जी ? एवी नीचें उनेली नटीनी उपर राजानी दृष्टि पडी. तेने जो मोह पामीने राजा मनमां विचारे ले जे जोया वांसडेथी नीचें पडीने मरण पामे तो ढुं ए नटीने ग्रहण करूं. एवी राजाना मननी वात इलाचीपुत्रं पण जाणी जे हवे राजा मने दान आपतो नथी अने एनी न जर मारी स्त्रीनी नपर पडी ने राजा एनी उपर आसक्त थयो . ते समयमां कोइ व्यवहारीने घेर वहोरवा आवेला साधुने व्यवहारीयानी स्त्रीयें अन्न नुं दान आप्युं, ते साधुनी दृष्टि अन्न उपर हती पण ते स्त्री उपर पडी न ही. अने तेवी तेनी नावना पण थ नहीं ते साधुनी तथा राजानी दृष्टिने जोस्ने इलाचीपुत्रने मनमां वैराग्य उत्पन्न थयो. त्यारे विचारतो हवो के अरे धिक्कार हजो मने जे हुँ महोटा कुलमां उत्पन्न थयेलो बतां केवी माठी बुद्धिमने उपनी के जे बुद्धि कोई हीन जातिवाला मनुष्यने पण न थाय? अरे में विषयासक्तियेंकरी मारा आत्माने उर्गतिमां पाड्यो ए प्रकारे संसा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. रथकी मन नतस्युं ने स्वस्वरूपमां मन तल्लीन यतां यतां एलाची पुत्रने वंश उपर रह्यां रह्यांज केवल ज्ञान उत्पन्न ययुं पढी त्यां शासन देवतायें श्रावी रजोहरणादिक साधुनो वेश थाप्यो. त्यांज एलाचीपुत्रं देशना दे वामांमी. राजादिकने प्रतिबोध व्याप्यो ॥ ८८ ॥ मातुर्गर्भावतारे चतुरधिकदशस्वप्नसंसूचितौ प्राक्, जातौ यावेकरात्रौत्वजितसगरयोः पुष्ययोः पश्य जातिं ॥ आग जोत्पादमित्रैरसुरसुरनरैः सेवनीयस्त्रिलोकी नाथोऽर्दनेक आसीदनरतनृपनतोऽन्यच चक्री द्वितीयः ॥ ८ ॥ अर्थः- ( प्राक् के ० ) पहेली ( मातुः के०) माताना (गर्भावतारे के ० ) गर्ना तारने विषे (चतुरधिकदशस्वप्नसंसूचितौ के ० ) चनद स्वप्तायें करी नाग्यसं पत्तिवाला एवा (यौ के०) जे बेदु (एकरात्रौ के०) एक रात्रिने विप्रे ( जातो के ० ) उत्पन्न थया ते (तुके०) वली (पुण्ययोः के०) पुण्यशाली एवा (अजितसग यो: के०) श्री अजितनाथ तीर्थंकरनी अने सगरचकीनी (जातिं के० ) जातिने हे नव्यजनो ! ( पश्य के०) जुवो (एकः के० ) एक श्री अजितनाथतो (आग त्पाद के०) गर्ने रवाना प्रारंभथी ते उत्पत्तिपर्यंत (इं: के० ) इंड्रोयें तथा (सुरसुरनरैः के०) असुर देवो तथा मनुष्योयें ( सेवनीयः के० ) सेवन क वायोग्य ने (त्रिलोकीनाथ : के०) त्रण लोकना नाथ एवा (एकः के० ) एक ( o ) तीर्थकर थया ( च के० ) वली (अन्यः के० ) अन्य ( द्वितीयः के० ) बीजा ( नरतनृपनतः के० ) भरत क्षेत्रना राजाउने नमस्कार करवा लायक एवा ( चक्री के० ) चक्रवर्त्ती थया ॥ ८९ ॥ चाहिं श्री अजितनाथनो तथा सगरचक्रवर्त्तीनो दृष्टांत होवाथी प्रथम श्री अजितनाथ तीर्थकरनी कथा कहे बे. शावस्ती नगरीने विषे जितशत्रु रा जा तेमनी विजया नामे राणीना पुत्र श्री अजितनाथ भगवान ते ज्यारें गर्ज मां ह्या त्या तेमनी मातायें वृषनादिक चन्द स्वप्नो दीवां तथा प्रभुजी गर्भगत थया, ते दिवसथी राजा साथै विजया राणी रमे तो तेमां राणीज जीतवा लाग्यां. त्यारे राजायें विचायुं जे या प्रभाव एना पेटमा गर्न र हेलो बे तेनो जावो परंतु कांहि मंत्रतंत्रथी राणी जींतती नथी. माटे प्रसवथया पढी तेनुं नाम अजित पाडगुं. पठी जन्मथया नंतर जन्मोत्सव Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १०७ थयो उपन्न कुमारीकायें आवी सूतिका कर्म कयं. चोराछोयें मेरुपर्वतनी नपर स्नात्रमहोत्सव कस्यो. ते स्वामीनो सुवर्ण सम वर्ण हतो, अने गजनुं लांबन हतुं. साडाचारसो धनुपर्नु शरीरमान हतुं बोहोंतेरलाख पूर्व आयुष्य हतुं राज्यनोगवी सांवत्सरिकदान दश्चारित्र लर,आवे कर्मनो नाश करी के वल ज्ञान पामी. तीर्थकरनी लक्ष्मीनो उपनोग करीने मुक्तिने प्राप्त थया. हवे सागरचक्रवर्तीनी कथा कहे जे. विनीता नगरीयें सुमित्र नामे रा जा तेनी यशोमती राणीनी कुदिमां केसरी सिंहनी पेठे सगरचकी उत्पन्न थया. गर्नरहेवाने समय तेमनी माताने पण वृषनादिक चौद स्वप्न थयां पुत्र जन्म्या पली तेनुं नाम सगर पाड्युं आयुधशालामा सगर कुमार ग या, त्यां आयुधशालाने चलायमान करतो. चक रत्न नपन्या पली दक्षिण जर ताईना त्रणवंम साधिने उत्तर नरंतना त्रण खंमने साध्यानंतर अयोध्या मां अाव्या पली बत्रोश हजार राजायें सगरचकोने चक्रवर्त्तिनुं पद पापी अनिपेक कस्यो. एक दिवस अजितनाथ स्वामीनी वाणीने सांजली ते चकी यें श्रीशजयपर्वतनी उपर ताम्रमय श्रीजिन प्रासाद करावी तेमां रत्नमय विवो पधराव्यां संघपति थश्ने अति विस्तारथी तीर्थ यात्रा कर अंते प्रत्र ज्या ग्रहण करीने मुक्तिरूप लक्ष्मीने वरता हवा ए सगरचक्रवर्तीनी कथा. तुल्यं तीर्थाधिपत्यं बलमपि सदृशं सर्वतीर्थकराणां, किं तु श्रीमल्लिनाथः प्रथयति सुकृतैः किंचिदाश्चर्यमुच्चैः॥ पूर्वाह्ने यस्य जझे व्रतमपि सुलनं केवलं चापराह्ने, ' झानं नानेयवीरप्रनृतिजिनपतेरप्यनूयच्चिरेण ॥७॥ अर्थः- ( तीर्याधिपत्यं के ) तीर्थाधिपतिपणुं ते ( सर्वतीर्थकराणां के) सर्व तीर्थकरोतुं ( तुल्यं के० ) तुल्य वे तथा ( बलमपि के ) बल पण सर्वतीर्थंकरोतुं ( सदृशं के०) सरखं ने, (किंतु के० ) तो पण (श्री मन्निनाथः के० ) श्रीमन्निनाथ (उच्चैः के०) उत्तम एवा (सुकते. के०) सुरुतोयें करी (किंचित् के०) कांक (आश्चर्य के०) आश्चयने (प्रथय ति के० ) विस्तार करे , झुं आश्चर्य विस्तारे ने तो के ( यस्य के०) जे श्रीमलिनाथने (पूर्वाह्न के०) पूर्वप्रहरने विषे (व्रतमपि के० ) व्रत पण प्राप्त थयुं (च के०) वली (अपराह्ने के०) अपराह्न कालने विषे ( सुलनं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. के० ) सुलन एवं (केवलंझानं के) केवल ज्ञान (जझे के०) उपन्युं अने (नानेयवीरप्रनृतिजिनपतेःअपि के०) रुपनदेवथी वीरनगवान् प्रमुख जि नपतिने पण ( यत् के० ) जे केवलझान (चिरेण के०) घणाकालें (अनू त् के०) थयु. अर्थात् सर्व तीर्थकर थकी मल्लीनाथ तीर्थकरनो एटलो वि शेष के बीजा तीर्थकरने दीदा लीधा परी घणाकालें केवलझान थयुं अने मन्निनाथने एक दिवसमांज व्रतादि सर्व प्राप्त थयां ॥७॥ पाहीं मनीनाथनी कथा कहे . मिथिलानगरीनेविषे श्रीकुंजनामा राजानी स्त्री प्रजावती राणी चनदस्वप्नायें सूचित तथा नील जेनो वर्ण जे, कुंननुं जेने लांबन , पचवीश धनुप जेना देहनुं प्रमाण एवा महिन नाथ तीर्थकरने जन्म प्राप्यो. इंजोयें जन्ममहोत्सव कस्यो यौवन अवस्था मां पण जन्मथीज ब्रह्मचारी होवाथी पाणिग्रहण कयुं नही अने राज्य पण ग्रहण कयुं नहिं. सांवत्सरिक दान दीधा पनी स्वयमेव दीक्षा ग्रहण करी दिवसना प्रथम प्रहरमां व्रतनुं ग्रहण थयुं अने तेज दिवसना बीजा प्रहरमा प्रनुने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं ॥ ए ॥ इति धर्मप्रकरः समाप्तः ॥ श्रुत्वाहानंस्त्रियस्तामनुसरतिरसोहंसकोन्नादपादे, ना शोकः स्टष्टमात्रस्तिलककुरुबकोचुंबनालिंगनान्यां ॥ पुष्येकाब्जवासाधिकरससुरयाकेसरश्चेदिकारो, ऽप्ये पांतत्सत्यकीवाधिकविषयरतिर्यातुकिं नो नवार्ति॥१॥ अर्थः-( स्त्रियः के०) स्त्रीना (आह्वानं के०) आह्वानने (श्रुत्वा के) श्रवण करीने ( रसः के० ) पारो, ते (तां के०) ते स्त्रीने (अनुसरति के.) अनुसरे ले, एटले तेनी पडवाडे जाय . तथा (हंसकोनादपादेन के०) नेपुरें कर, अधिक नाद करता एवा स्त्रीना पगे करीने ( स्टष्टमात्रः के०) स्पर्श कराणो एवो (अशोकः के० ) अशोक वृद ते (पुष्येत् के०) पोषण ने प्राप्त थाय . तथा (तिलककुरबको के०) तिलक अने कुरबकनो वृद, (चुंबनालिंगनान्यां के० ) स्त्रीना चुंबन अने आलिंगनथकी पोषणने प्राप्त थाय ले. अर्थात् बेदु वदनां पुष्पो विसिकत थाय जे. (वक्रानवासाधिकर ससुरया के०) कामिनीना मुख कमलना परिमलें करीअधिक के रस जेमां एव। मदिरायें करी गंव्यो एवो (केसरः के०) केसर नामा वृक्ष पोषण था Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. पण य . ( चेत् के०) जो वली (एषामपि के०) ए पूर्वोक्त वृद वगेरे एकेंशि य जीवोने पण (विकारः के०) विषय विकार उत्पन्न थाय ने (तत् के) तो (सत्यकीव के०) सत्यकीनी पेठे (अधिक विषयरतिः के) अधिक डे विषयमा प्रीति जेने एवो जीव, (नवार्ति के ) संसारना मुःखने ( किं के० ) केम (नो के०) नहि ( यातु के० ) पामे. अर्थात एकेडियने प्रो क्त विषयरसनी आसक्ति ,तो सत्यकीनी पेठे बीजाने थाय तेमां तो गुंज कहे ? तथा तेने संसार सुःखनी वृद्धि प्राप्त थाय तेमां झुं नवाइ? ॥१॥ हिं सत्यकी विद्याधरनी कथा कहे जे. चेलाराजानी सुज्येष्ठा नामे महोटी दीकरी साध्वी था हती तेने घणी स्वरूपवाली जोड्ने पेढालविद्या धरे चमरनुं रूप धारण करीने जोगवी तेने सत्यकी नामें पुत्र थयो तेणें रो हिणी प्रज्ञप्ति प्रमुख विद्या साधी पोतानी माताना शीलमा लोपक पेढाल ने मारी नारख्यो ते सत्यकी महा समकेत धारीत्रणे काल जिनार्चामां त त्पर थ तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करतो हवो. तदनंतर ते स्त्रीलंपट थ यो थको राजादिकनी स्त्रियोने विद्याबलथी लावीने जोगववा लाग्यो, एकदा तेने मारवा माटे उऊयणी नगरीयें चंप्रद्योतन राजायें उद्घोषण कराव्युं तेवारें उमा नामें वेश्यायें राजाने श्रावी कडं के सत्यकीने दुं व श करीश पड़ी तमे मारजो एम कही शृंगार सजीने नमा वेश्या सात्यकीने मोह उपजाववा माटे जेवी रोतें सात्यकी तेना अंगने जूए तेवी रीतें न घाडां अंग मुकीने प्रतिदिवस अगासीमां प्रावी बेसे. एक दिवस तिहां बेठेनी नमावेश्याने जोश्ने ते सत्यकीने मोह थयो तेवारें लुब्ध थश्ने बी जी स्त्रियोथी विरक्त थइ तेज स्त्रीने नोगववा लाग्यो. एकदा नमायें तेने ए कांतमां पूडयुं जे, तमारी पासे शीशी विद्या बे ? त्यारे तेणें कडं के मारे रोहिण्यादिक विद्या ने तें मारा अंगमां ने परंतु ज्यारें मैथुन करुंजं त्यारे तेने मारा खजमा राखं बु त्यारें मारुं वल क्यांश चालतुं नथी ते सर्व वा त नमायें राजानी पासें निवेदन करी. वली नमायें कह्यु के शब्दवेधि जो को पुरुष होय तो जे वखत ए मारे विषे आसक्त थयेलो होय ते वरखत ते सिम एने मारे तो तरत मरण पामे अन्यथा मरे नही, पनी राजायें शब्दवेधि पुरुषोनी परीक्षा करवाने अर्थ एकशो आठ कमल पत्र दाव्यां ते पुरुषे नमानी साथें मैथुनमा बासक्त थयेला सत्यकीने मारी नाख्यो, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सात्यकी मरीने नरकें गयो पनी तेना मित्र कालसंदीपक विद्याधरें नगरने चूरण करवा माटे एक शिला नगर उपर विकूर्वी. राजा ज्यारें नोगादि करे, त्यारे ते विद्याधर सात्यकीनो मित्र आवीने कहे के जो तुं मिथुनावस्था ने रूपें करी सात्यकीने पूजे, तो तुजने जीववा दश नहिं तो ताहरो ना श करीश आ वात सांजलीने राजायें जलाधारीमांहिं लिंगस्थापना करी तेनुं पूजन कयुं ते दिवसथी लोकोमा लिंगपूजानो प्रचार चाल्यो. एम वि षयासक्त प्राणी नरकें जाय ॥ १ ॥ संसारारण्यमध्ये मधुरमुखकटुप्रांतनकामधूर्ती, दहा न्मूढांश्च तत्तत्सुखलवनजनैः प्राणिनोविप्रतार्य ॥ हृत्वा तत्पुण्यवित्तं गमयति कुंगतिं ब्रह्मदत्तं यथातत्, पूर्वभ्रा तेव धीरःशिवमटति पुनस्तं तपोऽस्त्रेणनित्वा ॥ ५॥ अर्थः-(संसारारण्यमध्ये के०) संसाररूप वगडानेविपे ( मधुरमुखक टुप्रांतनृत् के० ) प्रथम मधुर अने अंते कडवा फलनो देनार एवो (काम धूर्तः के ) काम रूप धूर्त, ( तत्तत्सुखलवनजनैः के० ) ते तुब विनिश्चर एवा लवमात्र सुखना जोगववायें करीने ( मूढान् के) मूढ ( च के० ) वली ( ददान के०) माह्या एवा (प्राणिनः के०) प्राणियोने (विप्रतार्य के० ) तरीने ( तत्पुण्य वित्तं के० ) तेना पुण्यरूप वित्तने (हृत्वा के० ) हरण करीने (ब्रह्मदत्तं यथा के० ) ब्रह्मदत्तनेज जेमतेम ( कुगति के०) नरकगति प्रत्ये (गमयति के ) पमाडे . ( पुनः के०) वली (तं के) ते कामदेवने ( धीरः के० ) धीर एवो ( तत्पूर्वचाताश्व के० ) ते ब्रह्मदत्त नो पूर्वजन्मनो नाइ, जेम (तपोस्त्रेण के० ) तपरूप अस्त्रे करीने (नित्वा के०) नेदीने ( शिवं के० ) मोक्षप्रत्ये (अटति के० ) अटन करे . अ र्थात् मोद प्रत्ये जातो हवो. एम जाणवू ॥ ए२ ॥ हिं ब्रह्मदत्तनी कथा कहे . कांपिठ्यपुरने विषे ब्रह्मदत्तचकी राज्य करे . एक दिवस त्यां तेनो पूर्वनवनो मित्र कोइक साधु आव्यो, तेने जोइने चक्रवर्तीने मोहोटो हर्ष उत्पन्न थयो. तदनंतर ते साधुयें ते चक्र वर्तीने पूर्वजन्म कहेवा मांमया के हे राजन् ! सांजव्य मारा अने तारा पूर्वनव ढुं कढुं ॥श्लोक ॥ आश्वदासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौतथा ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ११ एषानौषष्ठिकाजाति, रन्योन्यान्यांवियुक्तयोः ॥ १॥ नावार्थः-थापणे वे पे हेलां घोडाना रखवाल हता त्यांथी मरी मृग थया, त्यांची हंस थया, पली हाथी थया, पांचमे नवे देवता थया अने आ आपणो हो नव ने ॥ १ ॥ तेमां पूर्वनवें तें रूडीरीतें चारित्र पाल्यु, तेथी तुं चक्रवर्ती थयो बो अने ढुं पुरिमतालने विषे धनदत्त व्यवहारीनो चित्रक नामा पुत्र थयो. तिहां श्रीगुरुनी वाणी सांजली वैराग्य नत्पन्न थवाथी में महाव्रत ग्रहण कस्यां. हमणां मुजने अवधिझान उपन्युं ने तेथी ढुं तने बोध करवा माटे याव्यो बु. जे हवे तुं धर्माचरण कर, एम घणुं ते साधुयें कह्यु तोपण धर्मा चरण न करतो बतो चक्री राज्य जोगववा लाग्यो, अने मरीने सातमे नरके गयो अने ते तेनो मित्र साधु हतो ते रूडीरीते व्रत आराधन करी ने मोदने प्राप्त थयो ॥ ए३ ॥ इति विषयहारं ॥ गीतामृतातिरतिकर्णपुटस्त्रिप्टष्ठ, पर्यकपालश्वक ष्टमुपैति घोरम् ॥ सद्मलुब्धककृतानुतगीतलु ब्धं,बई विलोकय मृगं जयविव्दलांगम् ॥३॥ अर्थः- (गीतामृतातिरतिकर्णपुटः के० ) गीतरूप अमृतनेविपे ने अ त्यंत प्रीति जेने एवा ने कर्णपुट जेना एवो (त्रिष्टष्ठपर्यकपालश्व के.) त्रिष्टष्टराजानो शय्यापालक तेज जेम, एटले ते शय्यापालकने त्रिप्टष्ठ रा जायें कह्यु के ढुं ज्यां पर्यंत निश न पामुं त्यां पर्यंत तुं गान थवा देजे, पली गान बंध करावजे. हवे जेवारें राजाने निशावी तेवारें गान मांहे आसक्त थयेला एवा शय्यारदकें ना न पाडवाथी ते गान चालवा लाग्यु, तेथ ते शय्यापालक (घोरं के० ) घोर एवा ( कष्टं के०) कष्टने ( नपैति के०) प्राप्त थयो. वली जुवो के (सबद्मलुब्धककृतातगीतलुब्धं के०) बल युक्त एवा पाराधीयें करेला अद्भुत गीतनेविषे लोनायेलो एवोयने ते गाने करी (बई के०) बंधायेलो तथा तदनंतर ते लुब्धकना (नय विह्वलां गं के० ) जयें करी कंपायमान जेनुं अंग ने अर्थात् लुब्धके कंपावेला एवा (मृगं के०) मृगने ( विलोकय के० ) हे नव्यजनो ! तमें जुवो ॥ ए३ ॥ हिं त्रिष्टष्ठी राजाना शय्यापानकनी कथा कहे . हारवति पुरीने विषे त्रिप्टष्ठी नामा वासुदेव राज्य करे . एक दिवस तेनी आगल रूडा स्वरवा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ला गंधर्व गान करता हता, तिहां पोताना शय्यापालकने त्रिष्टष्ठ राजायें कयुं के हुं निशवश थानं तदनंतर गीतगान बंध करावजे, तथापि गीतगान मां लुब्ध थयेला ते शय्यापालकें राजाने निश याव्या पढी पण गान श रुरखायुं तेी राजा जागी गयो, अने कोपायमान थइने कहेवा लाग्यो केष्ट ! तें मारा कहेवाथी उलटुं करूं ने कसकिने ली तें गान शरु रखायुं माटे तुं शिक्षापात्र बो एम कहीने ते शय्यापालकना कानमां शीयुं तपावीने रेड्युं. तेथी ते मरण पामीने नरके गयो ने त्रि पृष्ठ राजानो जीव अनुक्रमें केटला एक जव संसारमां करी चोवीशमा तीर्थ कर श्री वीरजगवान थया. ते वखत शय्या पालकनो जे जीव हतो ते अनुक्रमें गोवा लियो थयो . पूर्वजन्मना वैद्यकी ते गोपालें श्रीवीरना कानने विषे कटा हवंश शिलानुं देपण करूं ते मरण पामीने नरके गयो. ए प्रमाणें त्रिष्ट ष्टि राजाना शय्या पालकनी कथा कही ॥ ३ ॥ स्यात् कुनकानिधकुमारवदस्थिरेपु, स्थैर्याय गीतम पिबोधकरं कदाचित् ॥ बालोपि निर्वृतिमुपैति निशम्य सम्यक मात्रोदितानि कलमन्मथगीतकानि ॥ ए४ ॥ अर्थः- ( स्थिररेषु के० ) अस्थिर पदार्थोंने विपे ( स्थैर्याय के०) स्यै माटे ( गीतमपि ० ) गीत पण ( कदाचित् के० ) क्यारेंक ( कुल्नका निधकुमारवत् के० ) कुल्लक नामा कुमारनी पेठें ( बोधकरं के० ) बोध क नारुं ( स्यात् के० ) होय. ( बालोपि के० ) बालक पण ( मात्रोदितानि के० ) मातायें कहेलां एवां ( कलमन्मथगीतकानि के०) मनोहर कामं गी तो ( सम्यक् के) रूडे प्रकारें (निशम्य के०) सांगतीनें (निर्वृत्तिं के० ) निर्वृतिने ( उपैति के० ) प्राप्त थाय अर्थात् सुगीतथी पण बोध थाय बे ॥ श्लोकमा कुलककुमारनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे बे. पूर्वै चंपापुरीने विषे वज्रबाहु राजा राज्य करे बे, केटला एक कालें राजा मर ए पाम्यो तेनो नाइ वज्रजंघ राजा राज्यगादीयें वेतो तेवारें वज्रबाहु रा जानी स्त्री पोताना पुत्रना संरक्षणने माटे पुत्रने लइने त्यांथी नाशीने म थुराम यावी सुरिजीनी पासे पुत्र सहित प्रव्रज्या ग्रहण करीने एक सा ध्वनी पासें रही, तेनो कुल्लककुमार पुत्र श्रीगुरुनी पासें शास्त्रने जातो Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ११३ रह्यो. केटला एक कालें ते दुल्नककुमारें व्रतने मूकवानी इला करवा मांझी, त्यारे तेनी मातायें तथा महोटा महोटा जनोयें उपाध्यायोयें आचार्यों यें मली समजाववाथी तेनी दाक्षिणतायें करी बार वरस पर्यंत दीदा पा ली. पनी पोताना काका वनजंघे राज्य दवावेलुं हतुं तेने जेवा माटे पोता ने गाम गयो, त्यां राजसनामां नाटक थतुं हतुं. ते समयमा नाटक कर नारनी स्त्री नटी थाकी गयेली होवाथी ते समय १६ एवी कोइक स्त्री गीतमध्ये एक गाथा कही. ते जेम के “ सुहुगाइयं सुवाश्यं, सुतु नच्चि यं साम सुंदरी ॥ अणुपालियं दोहराईयं, सुमिणंते मा पमायए ॥ १ ॥ ए गाथा सांजलतां वेंत कुनक कुमारे रत्नकंबल ते वृक्ष नाटिकाने आप्यो, अने व्यवहारीनी स्त्री रत्नजडित सोनानुं. कंकण हतुं ते अपण का त था मंत्री वेठो हतो तेणें सोनानी मुश्किा यापी. राजामा पुत्रं एकावल हार समर्पण कस्यो, अने हस्तिपालकें कनकनो अंकुश अर्पण कस्यो. त्यारे ते सर्व आपनारने राजायें पूयुं जे तमोयें एने दान केम प्राप्युं ? त्यारे दुनकें राजग्रहणादि सर्व स्वरूप कडुं ते सर्व दुध्नक कुमारनी साथै प्रतिबोध पाम्यां दुन्नककुमार श्रीगुरुनी समीप जश्ने प्रायश्चित्त ग्रहण पूर्वक दीदाराधन करीने रूडी गतिने प्राप्त थयो. एप्रमाणे एक गाथाना गीतें करीबोध पाम्या. नोविंदत्युष्णशीताद्यपि न सदसदप्युक्तमाविष्करोति, छः सधान्न वेत्ति प्रथयति न रसान् रूपनिर्मग्नदृष्टिः ॥ तद्द टैकेन्येिऽस्मिन्नहितदितमतिः कः कुमाराग्रनंदौ, चंपापुः स्वर्णकारे विवशशि यथा पंचशैलेशदेव्योः ॥ ५ ॥ अर्थः-( रूपनिर्मग्रदृष्टिः के० ) रूपने विपेज निमग्न दृष्टि जेनी एवो पुरुष, (नष्णशीताद्यपि के० ) नषण शीतादिकने पण (नोविंदति के० ) जाणतो नथी विचारणायें विचारतो नथी एवं करी शरीरेडियनो नाव क ह्यो, वली (सत् के०) सारूं अने (असत्यपि के०) खराब ( नक्तं के०) क हेतुं तेने पण (नयाविष्करोति के) प्रगट करतो नथी.काने आणतो नथी एवं करी कर्णेडियनो नाव कह्यो, तथा (उःसगंधान के० ) सुगंध दुर्गंध ने (नवेत्ति के०) जाणतो नथी एवं करी घ्राणेंशियनो नाव कह्यो. तथा ( रसान के० ) रसोने पण ( नप्रथयति के० ) विस्तार करतो नथी अर्था Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. त् पट्स पण जाणतो नथी एणें करी रसनेयिनी जावरहितता कही. ए टले ए सर्व इंडियाने विषे जावरहितपणानुं प्रतिपादन करवाथी मात्र ( स्मिन् के० ) या (एकेंदियें के० ) एक चतुरिंडियना व्यापारमां त्र्यासक्त होवाथी (तत् के) ते रूप (दृष्ट्वा के०) जोइने (ग्रहित हितमतिः के० ) अ तिने तिनी मति वालो (कः के०) कोण उत्पन्न याय बे ? त्यां कहे वे के (चंपापूः स्वर्णकारे के०) चंपापुरीनो सोनी (कुमाराय नंदी के ० ) कुमाराय नंदी (पंचशैलेश देव्योः के०) पंचशैलद्दीपनी हासा प्रहासा नामनी देवीयोनुं रूप जोने (यथा के० ) जेम (विवशदृशि के ० ) पर वश दृष्टि यये बते ते छिप गयो. श्रांहिं कुमारनंदी सुवर्णकारनी कथा पूर्वे कहेली ने तो पण खांदी कहे d. चंपापुरीने विषे कुमारनंदी नामा सुवर्णकार यात कोटी सुवर्णनो धणी ने पांचशे स्त्रीम स्वामी हतो, एक दिवस ते हासा ने प्रहासा नामनी देवीयोनुं रूप जोने मोह पामीने तेमने विषय सेववानी प्रार्थना करी त्यारे व्यंतरियोये कयुं के तारें इहा होय तो पंचशैल दीपमां यावजे. ते सुवर्णकारे उद्घोषणा करावी के जे कोइ मने पंचशैलीपमां पोहोंचाडे, तेने हुंत्रण लाख सुवर्ण पुं. ते वात सांजलीने कोइ वृद्ध नाविक हतो, तेणे तेने पंचशैल दीपें पोहोंचाड्यो. त्यां देवीयोयें नाकारो करवायी श्रगि नीमरण करीने ते देवीयोनो स्वामी विद्युन्माली देव थयो || ५ || प्रास्तां सत्यं रूपमालेख्य बिंब, स्यालोकेऽपि एवातिरागात् ॥ सुज्येष्ठाश्री श्रेणिक दमापव त्स्यात्, नैणांतितवारीणात्किम् ॥ ए६ ॥ अर्थः- ( सत्यं के० ) प्रकट एवं ( रूपं के० ) रूप ( प्रास्तां के०) रहो अर्थात् प्रकटरूप तो दूर रहो, परंतु (याजेख्यबिंबस्य के० ) चित्रित एवा रूपना (लोकेऽपि के० ) जोवाने विषे पल (अतिरागात के० ) अत्यंत राग की (क्लेशएव के० ) क्वेराज थाय बे. ( सुज्येष्ठा के० ) सुज्येष्ठा स्त्री नी, तथा ( श्रीलिकयापवत् के० ) श्री श्रेणिक राजानी पेठें ( स्यात के० ) होय, एटले जेम सुज्येष्ठानुं स्वरूप पट्टमां खाजेखेलुं जोइने श्रेणि क राजाने मोह थयो, तेथी क्लेशने प्राप्त थयो, अजयकुमारें खोदेली सुरंग ने रस्ते जइने श्रेणिक सुज्येष्टाने बदले चिलणानेज ग्रहण करीने पोताने Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ११५ नगरें गयो. तथा (एणश्रांतिः के ) हरणने थाक (ब्रांतवारीक्षणात् के) जलमांऊवाना जोवाथी (किंन के ) झुं न होय. ना होयज ॥ आहिं सुज्येष्टानी कथा कहे . विशाला नगरीयें चेडा महाराजानी सुज्येष्ठा नामे दीकरी हती तेनी पासें एकदा कोक तापसणी मिथ्यात्व नुं प्रतिपादन करवा लागी तेने सुज्येष्टायें निनबी तेथी ते तापसणी तेनुं यथास्थित रूप पट्टमां आलेखीने राजगृहमां जय श्रेणिकराजाने देखाडयं. ते जोइने राजा मोह पाम्यो. पड़ी अजयकुमार श्रेणिकराजानुं रूप पट्टमां बालेवीने विशाला नगरीमा गयो, त्यां वणिक था सुगंधि वस्तुनी उका न मांझी श्रेणिकराजानो चित्रपट्ट लश्ने वेतो. सुज्येष्ठाने श्रेणिकराजानुं चित्र देखाड्युं ते जोड्ने सुज्येष्टा पण श्रेणिकराजामा तल्लीन थइ गइ. प बी अनयकुंमारे धरतीमां सुरंग खोदी, ते सुरंगेथी श्रेणिक राजा आवीने सुंज्येष्ठाने स्थानकें चिन्नणाने लश्ने पोताने पुर आव्यो. एम पट्टमां आ लेखेनुं रूप जोवाथी परस्पर मोह प्राप्त थयो ॥ ए६ ॥ स्याधोपि यतस्ततोऽप्यधिगतः क्वेशाय नाशाय च,त चाणाक्यधियाऽतुरः श्रुतिमगानमंत्री सुबंधुन किं ॥ प श्य क्लिश्यति पुष्पसौरनधृतः सर्पः सदोपि सन्, सा यं चांबुजकोशबंधनमलिः प्राप्नोति गंधातितृट् ॥ ए॥ अर्थः-(यतस्ततोपि के०) ज्यांथी त्यांथी पण (अधिगतः के) आव्यो एवो (गंधोपि के० ) गंध पण (क्वेशाय के०) क्वेशने माटे (च के० ) वली (नाशाय के०) नाशने माटे ( स्यात् के०) होय, केनी पेठे ? तो के (चाणाक्यधिया के ) चाणाक्यनी बुधियें करी एटले चाणाक्ये प्रे पण करेला पुष्पपुटना सुगंधना सुंघवाथकी (आतुरः के० )आतुर थको क्वेशने प्राप्त थयेलो एवो ( सुबंधुःमंत्री के० ) सुबंधुनामा मंत्री ते हे नव्यो? (किं के० ) झुं तमारा (श्रुति के० ) कर्ण पुट प्रत्ये (न अगात् के० ) न आवतो हवो ? एटले पुष्पपुटना सुंघवाथी कष्टने प्राप्त थयेला एवा सुबंधु मंत्रीने हे नव्यजनो ! तमोये गुं नथी सांजल्यो ? वली (पश्य के) जुवो (सदोपिसन के०) अहंकारयुक्त एवो बतो पण (सर्पः के०) सर्प, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. (पुष्पसौरनवृतः के० ) पुष्पसौरजने धारण करतो बतो ( क्लिश्यति के०) क्वेश पामे जे. एटले सुगंधनी लालचमां नाखीने ते सर्पने गारुडी लोको बंधनमां नाखी कुःख आपे . ( च के० ) वली (गंधातितृट् के० ) गंध ने विपे अत्यंत ने तृष्णा जेने एवो (अलिः के०) चमर, ते (सायं के०) सायंकालने विपे (अंबुजकोशवंधनं के० ) कमल कोशना बंधनने (प्रा प्नोति के) पामे . एटल्ने चमर जे जे ते सुगंधना लोनें कमल गंधने ले वा माटे कमलमां जश् वेसे, तेवामां सायंकाल पडवाथी कमल कोशबंध थइ जाय. तेथी तेमांज मरण पामे, माटे अतिसुगंधासक्त प्राणी सुबंधु मंत्री अने सर्प तथा चमरनी पेठे क्लेश पामे ने. (तत् के० ) ते माटे गंध नी अत्यासक्तिनो त्याग करवो ॥ ए.॥ आहीं सुबंधु मंत्रीनी कथा कहे . पाडलीपुरने विपे मौर्यवंशनो चं गुप्त नामा राजा राज्य करे के तेनो बुद्धिचतुर चाणाक्य नामा मंत्री , ते चाणाक्ये अवसर पामीने नातमां थोडं थोडं विप नावीने राजाने खवराव्युं एक दिवस कोइएक राजानी राणी पोताना स्वामीनी साथें ज मवा वेती परंतु ते तो जमतांज विप प्रयोगें करी मरण पामी. चाणाक्ये राणीनुं नदर विदारीने पेटमा गर्न हतो तेने जीवतो काढयो ते बोकरानुं नाम बिंडसार एबुं आप्यु. चंगुप्त स्वर्गमां गयो त्यारे तेनो पुत्र विंसार राजगादीयें वेतो. एवा वरवतमां चाणाक्यनो वैरी सुबुद्धि नामनो मंत्री हतो तेणे एकांते बिछुसार राजाने कह्यु के तमारी मातानुं पेट, चाणाक्ये फोडी नास्युं, ते सांजली राजाने रीश चडी पनी प्रजातमां ज्यारे चाणा क्य याव्यो त्यारे तेनाथी पराङ्मुख थइ वेगे. ते राजायें सुबंधुने घर प्राप्यु, ते घरमां एक मंजुपा हती तेमांथी एक सुगंधवासनो दाबडो सुबंधुने मल्यो,सुगंधयकी वासनुं आघ्राण कयुं तेमां लखेलो एक पत्र मला याव्यो, तेमां लरव्यु हतुं जे आ सुगंधोने सुंघीने जे पोतें जोग वशे, रूडा वस्त्रोने धारण करशे, रूडां जोजन करशे ते मरण पामशे अने आ दाबडाने सुंघी ने कपिनी पेठे जे रहेशे, ते जीवशे. इत्यादि वांचीने विपरीत चालवाथी सु बंधु मंत्री आलोकमां महाकष्टोने पाम्यो भने परलोकें नरकनां दुःख पाम्यो. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ११७ विस्त्रैर्धातुनिरंगमेतदघटि प्रागेव तत्राप्यहो, उर्ग धः प्रतिकर्मणापि हि बहिः प्राकर्मतःकश्चन ॥ गंधेव मृगातनूजवदतः सौरन्ययत्नोत्रको, गंधश्व्य चयैर्निबोध शुचिता का नीलिकानाजने ॥ एत॥ अर्थः-(विस्टेः के०) बीनत्स एवा (धातुनिः के०) सात धातुयें करीने ( एतत् के०) या (अंगं के०) अंग, (प्रागेव के ) पूर्वेज (अघटि के) बनेर्बु . ( तत्रापि के०) वली ते यंगने विपे पण (अहो के०) आश्चर्ये (क श्चन के) कोक (प्राकर्मतः के० ) पूर्वकर्मना योगथी (जुर्गधेव के० ) मुर्ग धानामा नारीनीपेठें तथा ( मृगातनूजवत के०) मृगापुत्र लोढकनी पेठे (उन्धः के) मुर्गध थाय , तो तेना (प्रतिकर्मणापि के० ) मुर्गध मटाड वाने माटे (बहिः के० ) ब्राह्यकत्रिम स्नानादि शुश्रूपायें करीने शुरू करे बे, तो पण ( हि के०) निश्चं ते धुगंधज निकले ले, (अतः के०) ए कारण माटे (अत्र के० ) ए पूर्वोक्त अंगने विपे (गंधव्यचयैः के० ) गंध इव्यना समूहोयें करी ( सौरन्ययत्नः के० ) सुगंधनो यत्न (कः के० ) शो करवो? एम हे नव्य! तमे (निबोध के०) जागोजे (नीलिकानाजने के० ) गलिना पात्रने विपे (शुचिता के०) पवित्रता (का के०) शी करवी? तेम या शरीरनुं पण जाणी लेवु ॥ ७ ॥ आहिलोढकनी कथा कहे. चंपानगरीने विपे जितशत्रुराजानी मृगावतीरा णीना नदरथीकोक पापी जीव प्रसूत थयो. तेने पग, हाथ, कान, आंख्यो, तथा मस्तक ए कांश हतां नही मात्र जेवो पापाणनो लोढक होय, तेवो ते हतो, तेथी पुत्रनुं लोढक नाम प्राप्यु. एक कलशीअनाजनो महोटोढगलो करी तेनी उपर ते लोढकने बेसाडीने तेनी उपरथी लोटावे त्यारे तेना मुख रूप धारमा अनाज पेसवाथी पोषण थाय. ए प्रकारे आहार करे. एकदा त्यां श्रीवीरनगवान आवता हवा, तेनी साथें श्री गौतम गणधर हता, तेणें ते लोढकनुं स्वरूप जो विस्मय पामीने श्रीवीरनगवानने पूब्यु के हे जगवन् ! आणे पूर्वजन्में गुं पाप का हशे? जे कर्मे करीया वो थयो ? त्यारे श्रीवीरनगवाने कह्यु के पूर्वजन्मने विषे लोढकनो जीव, मकाती नामा दत्रिय हतो, ते प्रकृतियें करी निर्दय हतो,अने गोधनने चा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. रतो हतो, एकदिवस गोधन चारीने गोधन ज्यारें बेतुं त्यारे ते केटलाएक ढोरोनां पुंउडां अने केटलां एक ढोरोना पगने कातरतो हवो, केटला एक नी नपर घोडानी पेठे आरोहण करतो हवो, ए प्रकारे जीवहत्या करी मरण पामीने पाहिं लोढकनामें उत्पन्न थयेलो .या वात सांजलीने घ गाये बोध पाम्या ॥ तथा पुगंधास्त्रीनी वात झानपंचमीमां प्रसिक ॥॥ स्पर्शेतिगतरतिबल्यपि याति फुःखं, प्रयोतनूपश्व मंत्र्यनयेन बदः॥कोवाऽग्रहीष्यदिनमेप न चेत्करे णु, स्पर्शाधधीः स्थगितगर्तगतोऽनविष्यत् ॥॥ अर्थः-(अतिबलीअपि के०) अत्यंत बलवान् एवो पण प्राणी ( स्प शेऽतिगृचः के० ). स्पर्शने विपे अति इलावालो बतो (पुःखं केए) अत्यंत कुःखने ( याति के०) प्राप्त थाय ने, केनी पेते? तो के (मंत्र्यनयेन के०) अनयकुमारनामा मंत्री (बहः के ) बांधेलो एवो ( प्रद्योतनूपश्व के) प्रद्योत नामा राजानी पेठे, जुवो ( यदि के०) जो (एपः के० ) या प्रत्यद जगतमा प्रसिद एवो हस्ती ते (करेणुस्पर्शीधधी के०) हाथणी ना स्पर्शने विपे दे अंध बुदि जेनी अर्थात् विचार शून्य एवो बतो ( स्थ गितगर्तगतः के ) तृणथी ढांकेला खाडानेविषे प्राप्त ( नअनविष्यत्चेत् के० ) जो नहि थशे तो ( कोवा के ) कयो पुरुष (इनं के०) हस्तीने (अग्रहीष्यत् के०) ग्रहण करी शकशे? अर्थात कोज नहिं करी शके ॥एए॥ यांहिं चंप्रद्योत राजानी कथा कहे . नऊयिनी नगरीने विपे चम प्रद्योत नामा राजा हतो, तेणे एक दिवस उद्घोषणा करावी, जे को अ जयकुमार मंत्रीने बांधी लावे, तेने मनोनीट ढुं आपीश ? ए उद्घोषणा एक वेश्यायें कबूल करी,पली ते कपटथी श्राविका बनीने केटला एक परि वारें युक्त थइ राजगृहने विपे ावी. तिहां आ मोहोटी श्राविका ने एम मानीने अजयकुमार ते वेश्याने नोजन कराव्यु, पनी कपट श्राविकायें अ नयकुमारने पोताना उतारामां जमवा तेड्यो त्यां अनयकुमारने चंइहास नामनी मदिराथी घूर्णायमान करीने रथे बेसाडी नऊयिनीमां चंमप्रद्योत राजानी पासें लावी उनो राख्यो तेने राजायें बंदिखाने नाख्यो, त्यां बंदी खानामा रहेला अनयकुमार चतुर्वणे करी राजाथी पोताने मूकाव्यो बने Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ११० राजाचंम्प्रद्योतने कहेवा लाग्यो के अरे राजा ! मने तें धर्मबलें करी बंदी खाने नखाव्यो,पण हुँ तने सर्व लोकसमद वांधीने उजायगीना रस्तामाथी राजगृहि नगरीमा लइ जश्श, त्यारें अनयकुमार खरो, एम जाणजे. ए वी प्रतिज्ञा करीने केटलाएक दिवस पली नानाप्रकारनी वस्तुयें करी गाडां प्रमुख जरी पोतें सार्थवाहनो वेश धारण करीने उजयिनी नगरीने विपे ते अजयकुमार याव्यो,त्यां राजाना घरनी पासेंज एक घर नाडे लीधुं एकदा पोतानामाणसोने गाडामां बेसास्यां पड़ी जेम राजानी नजर पडे,ते ठेकाणे गाडं चलाव्युं, ते माणसोमांथी एक माणसने चंप्रद्योत एवं ना म प्राप्युं, तेने मार मारतो तो बाहेर लइ चाल्यो ते माणस चंचें स्वरें करी कहेवा लाग्यो के हे लोको दोडो ! दोडो ! दुं चंमप्रद्योत नामा बुं ते मार खावं ' माटे मने बोडावो, ए प्रकारे बोलता एवा तेने राजाना सेवकोयें अने गामना माणसोयें बोडाव्यो, एम पावू वे वे चार चार द हाडे करवा मांमधु. तेने जोड्ने गामना माणस कहेवा लाग्यां के अरे या मूर्ख शेठ केवो के के ए बिचाराने वारंवार पकडे ? तो वारे वारें एने कोण बोडावशे ? वली ते अनयकुमार घणीज स्वरूपवान वे वेश्यानने राखी, ते वेश्याने नित्य सायंकालें पोतानी पासें नृत्य कराववा लाग्यो, एक दिवस चंम्प्रद्योत राजा गवादमां उनो हतो तेणे ते मनोहर एवी बेदु वेश्याने नजरें जोइने तरत वेदु वेश्या पर तेना मननी आसक्ति थ. पड़ी ते वेश्याने विपे लुब्ध एवा चंमप्रद्योत राजायें पोतानी एक दासी साथे केवराव्युं जे तमने बेहुने राजा बोलावे ,ते प्रमाणे ते दासीयें या वी वेश्याउने कमु अने वली दासीये कह्यु के तमोने राजा पट्टराणी करशे ते सांजली वेश्या बोली के राजाने जो प्रयोजन होय, तो यांहिं आवे, ते वात दासीयें राजाने कही. राजा लुब्ध थने अजयकुमारने उतारे था व्यो के तरत अनयकुमार चंम्प्रद्योत राजाने बांधी लीधो, ढोलीया उपर नाखीने मारवा मांझयो अने गाडामां नारखी लोकोनी समद सदु जोवे ते वी रीतें बजारनी वचमां मारतो मारतो चाल्यो. राजायें पोकार कस्यो परं तु लोकें जाण्यं जे एतो चंम्प्रद्योत एy पोतानुं माणस ने तेने ए निरंतर गाडीमां बेसाडी मार मार ले तेम आज पण मारे जे एम जाणी कोयें Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. तेने बोडाव्यो नही. अनय कुमारे तेने राजगृही नगरीने विपे लावीने श्रेणि कने अर्पण कस्यो, पनी श्रेणिकें तेने दया करीने बोडाव्यो ॥ एए॥ यः स्पर्शसौख्यलवमितिमूढबुद्धिः, सिक्षिप्रदेन त पसा सुकुमारिकेव ॥ चिंतामणेः सकलनूतलराज्य दातु, बालः सनृष्टचणकान् तृणुते लुधार्तः॥१०॥ अर्थः-(यः के ) जे (मूढबुदिः के०) मूढ ने बुद्धि जेनी एवो पुरुष, ( सिक्षिप्रदेन के०) सिदिने देनारा एवा (तपसा के०) तपें करीने ( सुकु मारिकाश्व के०) सुकुमारीकानी पेठे, ( स्पर्शसौख्यलवं के०) स्पर्श इंडिय रूप सुखना लेशने (इन्वति के) इला करे , (सः के०) ते (बालः के०) मूखंजन, ( सकालनूतलराज्यदातुः के.) समग्र पृथ्वीना राज्यने देनारा एवा ( चिंतामणेः के०) चिंतामणिथी ( दुधातः के०) नूरख्यो बतो (नृ टचणकान के) मुंजेला चणांने (वृणुते के) मागे ने. एम जाणवू. अर्थात् जे तपश्चर्या करी फरी विषय सुखनी ना करे बे, ते चिंतामणि बोडीने शेकेला चणानी ना करे एम जाणवू ॥ १० ॥ ___ यहि सुकुमालिकानी कथा कहे . मथुरापुरीमा सागरदत्त श्रेष्ठीनी दी करी सुकुमालिका करीने हती ते यौवनावस्था पामी तेवार समुदत्तव्यव हारीना पुत्रनी उपर मोहित थ तेने घरजमाइ करीने ते कन्या परणावी दीधी परंतु तेनुं अंग अंगारानी पेठे तपतुं हतुं तेथी तेनो स्वामी तेने स्प शे करवा जाय तेवामांदाजवा लाग्यो तेवारे ते स्त्रीने एमज शय्यामांस तेली मूकीने पोताने घेर जतो रह्यो पालथी ते रुदन करवा लागी त्या रें माता पितायें रुदन करती अटकावी. तदनंतर कोइक निदाचरने ते ने आपी, ते पण तेवी रीते तेने बोडीने चाल्यो गयो, पनी पिताने घरे रही दान देवा लागी, तेवामां को साध्वी त्यां यावी तेणे प्रतिबोध कस्यो तेथी वैराग्य पामीने दीक्षा ग्रहण करी, महोटुं तप करवा लागी, एक दिवस वनमा आतापना करती हती एवामां तेणें एक गणिकाने पांच पुरुचे सेवेली नजरें जोश, तेवारें विचारवा लागी के अरे मारे ा नवमां एक पण स्वामी थयो नहीं था नाग्यशाली स्त्रीने पांच स्वामी नोग वे , ते माटे मारे पण पांच जारो थाय तो ठीक ? एवं नियाणु करी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १२१ मरीने देवपणुं पामीने पड़ी पांच पांमवोनी पदी नामें स्त्री थ६ ॥१०॥ निःसत्वं निर्दयत्वं विविधविनटनाशौचनाशात्महानि, रस्वास्थ्यं वैरटर्व्यिसनफलमिहामुत्र उर्गत्यवाप्तिः॥ चौ लुक्यमापवत्तक्ष्यसनविरमणे किं न ददा यतध्वं, जा नंतोमांधकूपे पतत चलत मा दृगविपादेःपया दे ॥१०॥ अर्थः-( निःसत्त्वं के०) निःसत्त्वपणुं तथा ( निर्दयत्वं के०) निर्दय पणुं अने (अस्वास्थ्यं के ) अस्वस्थपणुं ( वैरवृदिः के०) वैरनी वृद्धि, (शौचनाशात्महानिः के०) पवित्रतानो नाश, तथा आत्मानी हानि, ( विविधविनटना के ) विविध प्रकारनी जे जीवोने विडंबना ते सर्व ( व्यसनफलं के० ) कुव्यसननो फल ते (इह के.) आ लोकमां प्राप्त थाय ने अने (अमुत्र के० ) परलोकमां तो ए कुव्यसन थकी (5 गैत्यवाप्तिः के० ) उर्गतिनी प्राप्ति थाय जे. केनी पेलें ? तो के ( चौलुक्य क्ष्यापवत् के०) चौलुक्य राजानी पेठे, (तत् के०) ते कारण माटे (व्यसन विरमणे के० ) व्यसननाविरमणने विषे ( ददाः के०) हे माह्या पुरुषो ! (किं के०) झुं (नयतध्वंके०) यत्न नथी करता? अर्थात् ते व्यसन त्यागनो हे माह्या जनो! तमो यत्न करो. (जानंतः के ) जाणता बता (अंध कूपे के०) बांधला कूवाने विषे (मापतत के०) म पडो, अने (दृग विषाहेः के० ) दृष्टिमांज जेने विष रह्यु एवा सर्पना (पथा के०) मार्गे (हे के०) हे ददो ! तमें (माचलत के०) म चालो अर्थात् दृष्टिविषयुक्त सर्प ज्यां रहे जे ते मार्गमां तमो चालो नहिं ॥ ११ ॥ यांहिं कुमारपाल राजानी कथा कहे . अणहिनपुर पाटणने विपे चौलुक्यवंशनो कुमारपाल राजा राज्य करतो हतो, ते राजा, कलिकालमां सर्वज्ञ बिरुदधारक,त्रण करोड ग्रंथना कर्ता एवा प्रनुश्री हेमाचार्यना वच नोयें करी बोध पामी परम जैनधर्मी थयो, तेणे पोताना अढार देशमाथी सात उर्व्यसन निवृत्त करयां अने पोताना देशोमा रहेली कंटकेश्वरी देवी नी बागल पाडाउनो नाश थतो हतो, ते सर्व निवृत्त कराव्यो. तथा तेना राज्यमां कोई जू पण मारे नही एवो हिंसानो निषेध कस्यो. जो कोई जू ने मारे तेनो दंम करीने ते ऽव्यथी जु विगेरे जंतुना नाना महोटां रहाण Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमोः स्थान कराव्यां हतां यूत तथा मारी शब्दना कयनें करी पोतानी बेहेनना वर शाकंनरी राजाने शिक्षा करी मांस नहाण करनार पासेंथी दंम जश्ने बत्रीश जैनप्रासाद कराव्यां,ए प्रकारें साते उर्व्यसननो नाश कस्यो ॥११॥ रुक् पथ्यं च रसैर्यथा बहुतया संसेवितैलोलुपै, धीरै यविधिना नवेदपि॥पागंतरे॥(बहुतया यूनेन संतोषि पा योग्यायोग्यतयाशितैरिह) तथा संसारमोदावयि ॥ यन्नानारसलालसःस मथुरामगुर्नवं भ्रांतवान्, यत्ती र्णश्च सुढंढणः सममघैः सन्मोदकदोदकः ॥१०॥ अर्थः-(लोलुपैः के०) रसलोलुप एवा पुरुषोयें (बहुतया के) घणी रीतें ( संसेवितैः के० ) सेवन करेला एवा (रसैः के०) रसोयें करी (रुक् के० ) रोग ( यथा के०) जेम थाय ने (च के० ) वली ( तथा के०) तेम (धीरैः के) धीर पुरुषोयें ( यत् के० ) जे (विधिना के०) विधियें करीने सेवन करेला रसें करी (पथ्यंबपि के०) पथ्य पण (नवेत् के० ) थाय (पाठांतरथी) (बहुतयायूनेन के०) अत्यंत जोजनना प्रीतिवाने तथा (संतोषिणा के०) नोजनमां संतोषी एवा पुरुचे ( योग्यायोग्यतयाऽशितैः के) योग्यायोग्य नोजनथी (इह के०) आहिं ( तथा के०) तेम (अपि के० ) वली ( संसारमोदावपि के०) संसार अने मोद पण प्राप्त कराय ने. अर्थात् रसलोलुपने संसार वृद्धि अने त्यागीने मोद थाय जे. जुवो (यत् के ) जे कारण माटे ( नानारसलालसः के) नाना प्रकारना रसमां लोलुप एवो ( सः के० ) ते प्रसिह (मथुरामंगुः के०) मथुरामंगु नामा आचार्य (नवं के) संसार प्रत्यें (ब्रांतवान् के) जमतो हवो ( यत् के) जे कारण माटे ( च के०) वली जुवो ते केवो ? (सन्मोदकदोद कः के०) सारा लाडुने चूर्ण करी परतवनार एवो (सुढंढणः केस) सुढंढ ण मुनि, ते (अधैःसमं के) पाप सहित (तीर्णः के०) संसारथी तरी ग यो. अर्थात् मोक्ने प्राप्त थयो, एटले रसलोलुपतायें मथुरामंगु दीर्घ संसा री थयो, अने ढंढणमुनि रसलोलुप न होवाथी संसारथी तरी गयो, पानं तरथी अत्यंत नोजनप्रिय पुरुपें तथा जोजनमां संतोष राखनारा एवा पु Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १२३ रुषोयें योग्यायोग्यना विचारथकी वर्तवू, रसलोलुपत्व बोडq ॥ १० ॥ __ हिं मथुरामंगु तथा ढंढणमुनिनी कथामा प्रथम मथुरानंगुनी कथा कहे . मथुरानगरीने विपे मथुरामंगु नामा आचार्य पांचशे साधुयें युक्त रह्या हता, तेने पुरमा रहेतां रसलापट्य वृद्धिंगत थयु. ते आचार्य मरण पामीने ते पुरनी खाल पासें देवकुलमा यद थयो, ते पडी जे अनुगमना दिकने माटे साधु आवे, तेने पोताना मुखें करी खेंचीने मोहोटी जीन काढी देखाडे जे. ते यदें प्रतिदिन एम करवा मांमयु, एक दिवस साहसि क को साधु हतो, तेणे पूडु, के तुं कोण बो? अने शामाटे जीन नित्य देखाडे बे, तेनुं कारण बने तारूं स्वरूप कहे? त्यारें यह कहेवा लाग्यो के, दुं तमो सर्व साधुनो गुरु मथुरामंगु नामा श्राचार्य . रसलांपटयें करी मरण पामीने पुरनिर्धमणने विपे यद थयो , तमोयें पण रसलांप 'ट्यनो त्याग करवो, जिव्हादि इंडियोनो जय करवो. एम उपदेश कस्यो. हवे ढंढणमुनिनी कथा कहे जे. धारकाने विषे श्रीकृमनी ढंढणा ना मा राणी हती, तेनी कुदिरूप सरोवरमांथी हंसनी पेठे ढंढण नामा पुत्र उत्पन्न थयो, तेणे एक दिवस श्रीनेमिनाथ पासेंथी देशना सांजलीने स्त्री त्यागीने स्वामीनी पासें दीक्षा लीधी. ए अवसरनेविषे पोताना देवने वि पे पूर्वजन्में साधुने दान बापतां अंतराय करेलो हतो, ते कर्मनो उदय थाववाथी ज्यां वोरवा जाय, त्यां साधुने कल्पे, एवी निदा मले नहिं, एम ब मास पर्यंत तेणे उपवास कस्या, एकदिवस श्रीनेमीश्वर जगवानने श्रीकमें पूज्यु के महाराज! तमारा अढार हजार साधु ने तेमां उल्क ट तपस्वी कोण ? ते कहो. नगवाने कडं के ढंढणकुमार जेवो कोइ पण मुनि नथी, ते सांजली श्रीकृष्म प्रसन्न थया अने हाथी उपर चडीने गा ममां आवे जे त्यां सामा आवता ढंढणकुमारने जोइने हाथीथी उतरीने ढंढ साधुने वंदन कयुं, ते कोई गवादमां बेठेला व्यवहारी जोयुं, तेणे श्री कृमें वंदन करवाथी ढंढणमुनिनुं माहात्म्य जाणीने त्यां आवी ढंढणमुनि ने घेर बोलावीने मोदक वोराव्या, ते मोदक नगवानने देखाडवाथी जग वाने कह्यु ए तुजने श्रीकृस्मथी मल्या बे एवं सांजली ते मोदकनुं चूर्ण क री परवी याव्या, पोतें शुनध्यानमा रही केवलज्ञान पाम्या ॥ १० ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. किं जेयो रसनेंयेिण स महान् यः सत्वरक्तारुचि, धर्मरुचिः कुटुंबकमसौ पक्कावयेत् ॥ किं वा विश्वहिताय नोदरगतं सिंधुर्दधौ वाडवं, सारग्रा हि सुरास्तमाशु न विषं किं नीलकंठः पपौ ॥ १०३ ॥ अर्थः- ( यः के० ) जे ( महान के० ) महोटो पुरुष इंडिय लोलुप ता रहित एवो बे, ( सः के० ) ते पुरुष, ( किं के० ) गुं ( रसनें दिये के० ) रसना इंडियें करीने (जेयः के० ) जिंतवायोग्य बे ? ना नथीज. के नी पेठें ? तो के ( सत्त्वरकारुचिः के० ) जीव रक्षणमां ने रुचि जेने एवो (सौ के ० ) प्रा. प्रसिद्ध (धर्मरुचिः के०.) धर्मरुचिनामा साधु तेरा ( कुटुंब कं के० ) कडवा तुंबडाने ( यत् के० ) जेवी रीतें ( पक्काम्रवत् के० ) पा केला ाम्रफलनी पेठें ( नयेत् के० ) नक्षण कखं त्यां दृष्टांत कहे बें ( विश्व हिताय के० ) विश्वना हितने माटे (सिंधुः के० ) समुड् ( उदरग तं के० ) उदरमां रहेला ( तं वाडवं के० ) ते वडवानलने (किंवा के० ) शुं वली ( नदधौ के० ) न धारण करतो हवो अर्थात् वडवानलने धारण करतो हवो, तथा ( सारग्राहिसुराः के०) समुड्मंथन करती वखतें सारना ग्रहण करनारा देवता तो थया, परंतु प्रसिद्ध एवं (विषं के० ) विषने ( या के० ) जलदी (नीलकंठः के० ) महादेव ( किं के० ) गुं ( न प पौ के०) न पान करता हवा ? अर्थात् महादेव विषनुं पान करता हवा ॥ माटे जीवराने माटे इंडियलोलुपत्वनो त्याग करी महोटा पुरुषो य डुःख सहन करे लेखने विष जेवा पदार्थनुं नक्षण करे बे. जो रसनेंशिय लोलुप होय तो ते विषादि क्षण करे नहिं ॥ १०३ ॥ १५४ या श्लोकमां धर्मरुचि तथा वडवानल ने नीलकंठ ए त्रणना दृष्टां तले, तेमां प्रथम धर्मरुचि साधुनी कथा कहे बे. यिनी नगरीने विषे सोमदेव, सोमनूति, घने सोमशम्मी नामें त्रण ब्राह्मण नाइयो हता, ते त्रणेने अनुक्रमें नागश्री चूतश्री अने यी नामनी त्रण स्त्रीयो हती, ते त्रणे स्त्रीयो पोत पोताने वारे वारे रसोइ करे. एक दिवस नागश्रीनो रसोइनो वारो धाव्यो त्यारें कडवं तुंबडुं तैयार कर Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. १२५ ने धर्मरुचि नामा कोइ साधु वहोरवा जता हता, तेने ते पापणीयें वो होराव्युं, साधुयें ते तुंबडुं लइने पोताना गुरुने देखाड्युं ते जोड़ने गुरु बोल्या, के एने स्थं मिलमां परतवो, त्यारें साधु परठवा गयो, त्यां महि का कीटकादिक जीवोनो घात थशे एम जाणी, ते तुंबडाने पोतें न am करी गयो, ते विष प्रयोगें मरण पामी सर्वार्थ सिद्ध विमानप्रत्यें गयो. हवे बीजी वडवानलनी कथा कहे बे. पूर्वे ब्राह्मणनी जाति वडवा नलनामा एक नवीन असुर उत्पन्न थयो, ते प्रचंम एवा सर्व देवतार्जनो उपरोध करवाने तत्पर थयो ते समयें सर्व सुरपति प्रमुख देवतायें एक ब्रह्मपुत्र सरस्वतीनी प्रार्थना करने, ते वडवानलने समुइमां ना खी दीधो. पीतेने कोइ बाहेर कांढवा शक्तिमान् ययुं नहिं, पढी शारदा देवघटन वच्चें तेने प्रक्षेपण करीने ते वडवानलने देखतां हतां कहेनुं || श्री रतीसुरपतिप्रमुखैः सुरोघै, रज्यर्थिता जलनिधिं ज्वलयांचका र ॥ तन्नंदनेषु सतत वैरमनुस्मरंती तन्नंदनेषु विबुधेषु पङ्मुराखी सा ॥ १०३॥ नीलकंठन कथा कहे बे, एकदिवस सर्व देवता सुरपति प्रमुख ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, सुरपति, ग्रहपति, निशापति, देता यें एकठा थने मेरुनो मंथानक करीने शेषनागनुं नेत्रुं बनावी, समुइनुं मंथन करवा मां मधुं ते समय चन्द रत्न उत्पन्न थयां, तेमां लक्ष्मीनामनुं रत्न निकल्युं तेने विष्णुयें ग्रहण करयुं. एम चतुर्दश रत्नो सर्व देवोयें वेंची लीधां. तेमां देवतायें रंना अप्सरा मेलवी, तथा शंकरना नागमां काहिं पण खाव्यं नहिं, त्यारें शंकरें कयुं हवे हुं समु मंथन करीश ते प्रमाणे मंथन कर वा मांमधुं त्यारें विष्णु प्रमुखें कयुं बहु मंथन करवाथी कालकूट विष न त्पन्न थशे, पण ते न मानतां मंथन कस्युं, तेवारें कालकूट विष समुमां श्री उत्पन्न युं, ते विषने सर्व जगत्ना कल्याण माटे शंकर, पोतें पान करी गया ने कंठमा राख्युं, तेथी नीलकंठ एवं शंकरनुं नाम पड्युं. सप्तापि व्यसनानि पापसदनान्येतानि वर्ज्यानि यत्, सत्कर्मापि न शस्यते व्यसनमत्या सेवयास्या यथा ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. स्नेहोऽहत्यपि गौतमस्य गणनाऽकाले च कोशागुरोः, ग्लानिःपारदनाविते हि कनकेऽरिष्टं फलेऽनातवे॥१४॥ अर्थः-( एतानि के० ) ए ( सप्तापि के० ) सात एवां पण ( व्यस नानि के० ) व्यसनो जे , ते (पापसदनानि के० ) पापनां घर में, माटे ( वानि के०) वर्जवा योग्य डे, (यत् के०) जे कारण माटे ते व्य सन सेवनारो प्राणी (सत्कर्मापि के०) सारा कर्मने करनारो होय तो पण ( नशस्यते के० ) वखणातो नथी. ते व्यसनोनी (अत्यासेवया के० ) अ ति सेवनायें ( व्यसनं के०) दुःख (स्यात् के० ) होय. केनी पेठे ? तो के (यथा के० ) जेम (गौतमस्य के०) गौतमने (अर्हति के) अरिहंत जग वानने विपे (स्नेहोपि के०) स्नेह पण जे जे, तेने लोको व्यसनज कहे जे. (च के० ) तथा ( कोशागुरोः के० ) स्यूलिनश्ने ( अकाने के० ) अका लने विपे ( गणना के०) पूर्वमी गणना ते पण (ग्लानिः के०) व्यसन रूप थाय . तथा (पारदनाविते के०) पारासाथे अत्यंत नावना करे ला एवा ( कनके के०) सुवर्णने विपे श्यामता थाय . तथा (अनात वे के ) ऋतु विनाना समयमां उत्पन्न थयेला (फले के० ) फलने विषे (हि के०) निचे (अरिष्टं के०) अरिष्ट थाय ने. एम लोकोक्ति , तेमाटे अति सर्वत्र वर्जयेत्, एम जाणवू ॥ १० ॥ या श्लोकमां गौतम तथा स्थूलिनश्नो दृष्टांत होवाथी प्रथम गौतम गणधरनी कथा कहे . श्रीवमानस्वामीना शिष्य प्रथम गणधर श्रीगौत मस्वामी हता,हवे जेने वीरजगवाने पोताने हाथें दीक्षा आपे तेने तरत के वलज्ञान उत्पन्न थाय, परंतु गौतमगणधरने श्रीवीरनगवाननी नपर अत्यं त स्नेह होवाथी स्नेहांतरायथी केवलझान उत्पन्न थयुं नहिं,पनी वीरनग वाने पोताना निर्वाण समयने विषे देवशर्माने प्रतिबोध करवा माटे गौत मने आसन्नग्रामें मोकल्या, श्रीवीरनगवान अपापा नगरीने विषे हस्तीपा ल राजानी जीर्ण रकुक सनाने विषे रह्या, शोल प्रहर पर्यंत देशना देवा पनी कार्तिक वदि अमावास्याने दिवसें परमपदने प्राप्त थया, हवे देवशर्मा ने प्रतिबोधीने पाबा आवता देवताउना मुखथकी वीरनगवान् निर्वाणप दने प्राप्त थया, एवं सांजलीने गौतमस्वामी अत्यंतशोक करीने पनी प्रजु वैराग्य बाणी स्नेहपाशनो बंध तोडीने केवलज्ञान पाम्या. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १२७ हवे स्यूजिलश्नी कथा पूर्व कहेली पूर्वे ,तथापि प्रकारांतरथी वली कहे बे. एक दिवस श्रीनबादुस्वामीनी पासें स्थूलिनश्नी बेहेनो यदादि या र्यायें कह्यु के हे जगवन ! स्थूलिन हाल क्या ? त्यारें गुरुयें कडं के, अशोकवनने विषे पूर्वोनी गणना करतो तो रह्यो बे,त्यारें सर्वे साध्वीयो तेने वांदवा माटे अशोकवनमा गइ, त्यां पोतानी वेनोने आवती जोड्ने स्यूलिन पोतानी विद्यानी परीक्षा करवा माटे सिंहनुं रूप विकुर्वीने स न्मुख आव्यो तेने जोक्ने सर्व साध्वी त्यांची नाशीने गुरुनी पासें आवी कहेवा लागी के हे जगवन् ! स्थूलिनाने तो सिंह नदण करी गयो. ते सां जली गुरुये कह्यु के हजी त्यांज स्थूलिनजी . बीजी वार तेनी बेनोयें जश्ने वंदन कस्युं पली गुरुयें जाण्यु एनाथी विद्या जीरवाती नथी माटे हवे पूर्व नणाववां नही तो पण श्री संघना नपरोधथकी चार पूर्व मूलपा वें गुरुयें जणाव्यां, परंतु अर्थथकी नणाव्यां नहिं ए. स्यूलिननी कथा कही. द्यूतेनार्थयशः कुलकमकलासौंदर्यतेजःसुहृत्, सा धूपासनधर्मचिंतनगुणा नश्यति संतोपि दि॥ यह त्पांमुसुतेषु तच्युतसुधीप्वादित्यनावर्जिते, विश्वे किं तमसा स्फुटं घटपटस्तंनादि वा लयते ॥१०॥ अर्थः-(संतःअपि के०) विद्यमान एवा पण (अर्थ के०) धन अथवा शास्त्रना अर्थ ( यशः के) यश (कुलक्रमः के०) कुलाचार, (कला के०) लिखित, पवित, गीत, वाद्यादिक बहोंतेर कला, ( सौंदर्य के० ) सुंदरपणुं ( तेजः के० ) तेज, ( सुहृत् के०) सुमित्र, ( साधूपासन के०) गुरुपर्यु पास्ति, (धर्मचिंतन के०) दानशीलादि धर्मचिंता, एवा (गुणाः के०) गुणो (यूतेन के०) द्यूतें करी (हि के० ) निश्चे ( नश्यंति के० ) नाश पामे . केनी पेठे ? तो के ( यत् के०) जेम ( पांमुसुतेषु के० ) पांच पांडवोने विषे. ते केवा पांवो ? तो के (तच्युतसुधीषु के०) ते द्यूतथकी भ्रष्ट थ ले बुद्धि जेनी एवा . कवि कहे जे के (आदित्यनावर्जिते के०) आ दित्यनी कांतिथी रहित एवा ( विश्वे के० ) विश्वने विषे ( तमसा के०) अंधकारें करी ( स्फुट के०) प्रगट पणे ( किंवा के० ) गुं वारं. (घटपट स्तंनादि के० ) घट, पट, स्तनादिक (लदयते के०) लक्ष्य थाय . ना थ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ता नथी. तेम द्यूतमां पण पूर्वोक्त गुणो दृश्यमान थता नथी, ए नावार्थ जे. __ अांहिं पांच पांमवोनी कथा कहे . कुरुदेशमा हस्तिनापुर नगरने विषे युधिष्ठिर राजा, नीम, अर्जुन, सहदेव अने नकुल ते चार नाइये सह वर्तमान पोतें साम्राज्यश्रीने जोगवता हता. एक दिवस पोताना नवीन करावेला श्रीशांतिनाथजीना देरासरनी प्रतिष्ठा करवाना महोत्सवने अर्थे पत्रधारायें हस्तिनापुरथकी कुर्योधनादिकने तेडाव्या, त्यां प्रतिष्ठाना नवन वा महोत्सव थ रह्या नंतर मणिचूड विद्याधरें सहस्र स्तंनयुक्त निर्माण करेली सनाने विषे कौरवो तथा पांवो मलीने द्यूत रमवा लाग्या, तेने तेमना काका विरजीयें घणी रीतें रमवानो निषेध कस्यो, तो पण पांडवो तथा कौरवो द्यूत रमवाथी विराम पाम्या नहिं, पड़ी शकुनियें नाखेला दे वाधिष्ठित पाशावें करी दुर्योधन पांमवना राज्यने हरण करतो.हवो. अनु कमें शैपदीने पण हारी गया, तेवारें नीष्मादिकें तेराव्युं के पांमवो बार वरस वनमा रहे तथा, एक वरस नाना को जाणे नहिं एवीरीतें रहे, ते प्रमाणे पांमवो बार वर्ष वनवासमा रह्या अने एक वरस रूपांतर करीने वैराट नगरमा बाना रह्या. पडी कौरवो साथें युद्ध करी कौरवोनो पराज य करी राज्यने प्राप्त थया. ए प्रमाणे द्यूतमां दुःख जे एम जाणवू ॥१०॥ द्यूतं न किं त्यजत किं दहत स्वदेदं, गगं च मूत्रयसि किं वदने स्वकीये ॥ तत्तादृशी प्रियतमासहितोनलोपि, जानीत रोरश्व राज्यसुखानिरस्तः॥२०॥द्यूतप्रकरणम्॥ अर्थः- हे मूढजनो! (यूतं के० ) द्यूतने (किं के०) केम (नत्यजत के०) त्याग करता नथी तथा (किं के०) शामाटे (स्वदेहं के०) पोता ना देहने (दहत के०) द्यूतानियें करीने बालो बो. (च के०) वली (बागं के०) बकराने (स्वकीये वदने के०) पोताना मुखने विषे (किं के०) शा माटे (मूत्रयसि के० ) मूत्रावो गे जुवो (तत् के ) ते माटे (तादृशी के०) तेवी (प्रियतमा के०) वनन एवी पोतानी स्त्री दमयंतीये ( सहितः के ) सहित एवो (नलः अपि के०) नलराजा पण (राज्यसुखात् के) राज्यसुखथकी यूतें कर। (निरस्तः के०) भ्रष्ट थयो बतो (रोरश्व के०) जेम दरिडी होय तेनी पेठे थयो. एम (जानीत के०) हे जनो तमो जाणो॥१६॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सदित. २२॥ याहिं नलराजानी कथा कहे जे. नलराजा त्रणखमनो अधिपति हतो एकदिवस राजने विषे लोन पामेला कुबर नामा पोताना नाइ साथै नलरा द्यूत रमतां दैववशे राज्य हारी गयो. पड़ी दमयंती सहित वनमा गयो, मार्गमां विचायुं जे ढुं झुं आवा हालें सासराने घेर जावं, एम विचारीने दमयंतीने वनमां सूतेली मूकीने जातो रह्यो, पाउलथी जेवारें दमयंती जागी तेवारें बहुविलाप कस्यो, मार्गमा सार्थवाहनुं धाडीथी रक्षण कयुं, पली पर्वतनी गुफामा रहिने पांचशे तापसने बोध कस्यो, सात वरस त्यां रहि. पनी पोतानी मासीनी दीकरीने घेर गइ, नलराजा पण देवप्रयोगें करी विरूपांग कुन थयो, सुसमार पुरमां दधीपर्ण राजानी पासें रसोयो थइने दस वरस पर्यत रह्यो. अने दमयंती पण पोतानी फश्ने त्यां बह अहम तप करती रही पनी पोतांना बापने घेर गइ. नलराजा पण त्यां ते दमयंती साथें मल्या, वली पण द्यूत रमाडीने पावू पोतानुं राज्य कुबर पासेंथी लइ लीधुं, माटे सर्वथा यूत रमवू नहिं ॥ १०६ ॥ मांसाशनान्ननरकएव ततः सदेव, स्तल्लोलुपं दरि नृपं कृतवान्सरोपः ॥ किंपाकपेशलतराशनदत्तत प्णे, किंपाकनोजिनि मृतेरपि संशयोस्ति ॥१०॥ अर्थः-(मांसाशनात् के०) मांसाशन थकी (नरकएव के०) नरकज होय, (ततः के०) तेमाटे (सरोषः के०) रोषयुक्त एवो (सः के० ) ते (देवः के०) देव ( हरिनृपं के० ) हरिनामना राजाने (तल्लोलुपं के० ) ते मांसनाथशनमा लोलुप एवो (कतवान् के०) करतो हवो, (पाकपे शलतराशनदत्ततृष्णे के०) पाकें करीने अत्यंत मनोहर एवं डे अशन जेनुं एवा पदार्थने विषे दीधी ने तृष्णा जेणे एवा ते (किंपाकनोजिनि के०) विष वृदना फलनुं जोजन करनारने विषे (मृतेरपि के०) मरणनो पण (संशयः के०) संदेह (किं के० ) झुं (अस्ति के० ) . ना नथीज. एटले फेर खा नारने विषे मरण संदेह होयज नहिं एम जाणवू ॥ १७ ॥ हिं हरिनृपनी कथा कहे . मधुपिंगलनो जीव अने बीजो हरिन पनो जीव ए बेडु पूर्वनवना वैरें करी मरण पामी, एक हरिवर्ष क्षेत्रमा युगलीक थयो, अने एक देवता थयो, परंतु ते तेनो वैरी जीव युगलीक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. होवाथी तेने मरणादिक कष्ट करवामां कोई रीतथी देवता समर्थ थयो नहिं तेवारे ते युगलियाने ते पूर्वजन्मनो वैरी देव नपाडीने नरतखममा लावी राज्य दश्ने ते युगलीयाने मांस लोलुप करतो हवो थोडे थोडे मद्य पान पण करावतो हवो, तेथी ते युगलीयो मरीने मांसाशनना पापथी नरकमां गयो. एवीरीतें ते देवें खरेखलं पोतानुं वैर लीधुं ॥ १० ॥ स्नेहोदयापि हृदि कामिपलोलुपानां, किंचिल्लणापि पति मांसदलानि नैउत्॥ नानाति किं निजकुटुंबमपि विजि व्दी,स्थानं स्वमन्यदपि किं दहतीद नाग्निः ॥ १० ॥ अर्थः-(आमिषलोलुपानां के० ) आमिषने विषे लोलुप एवा प्राणी योना (हृदि के.) हृदयने विषे ( स्नेहः के०) स्नेह श्यो ? तथा ( दया पि के० ) दया पण ( का के.) शी ? अर्थात् आमिषलोलुपने हृदयमां दया तथा स्नेह होतो नथी. जुवो (चिन्नणापि के) चिन्नणा नामनी स्त्री पण पोताने पुत्रनो गर्न रहेवाथी (पतिमांसदलानि के) पति श्रेणि कराजाना मांसना कटकाने (किं के० ) गुं (नैबत् के) न इवती हवी ? अर्थात् मांसलोलुपा चिन्नणा थइ,त्यारे तेणे पोताना पति, पण मांस खा वानो विचार कस्यो, वली (विजिव्ही के०) सर्पिणी (निजकुटुंबमपि के) पोताना कुटुंबने ( नानातिकिं के०) झुं नथी खाती ? ना खायज, अ ने ( अग्निः के ) अग्नि जे जे, ते (इह के ) आहिं ( स्वं के०) पोतानुं तथा (अन्यत्यपि के ) बीजा स्थानने पण ( किं के०) झुं (न दहति के०) बालतो नथी? ना बालेज ॥ १० ॥ ___ यहिं चिल्लणा राणीनी कथा कहे .राजगृही नगरीने विषे कोई तापस मास पण करतो हतो, तेने सर्व लोक निमंत्रण करीने पारणुं करावतां हतां, एक दिवस ते तापसनुं लगनग मासोपवास व्रत पूर्णथवा आव्युं ते वखत तेने श्रेणिकराजायें श्रावीने विनंति करी पोताने घेर पारj कराव वा माटे आमंत्रण कयुं पड़ी मध्याह्न समये पारणुं करवा तापस पाव्यो त्यारे राजाने विस्मरण थगयुं तेथी कृषि आवे तो तेने पारणुं करावजो ए, कोइने कह्यु नही. कृषि पण बोल्या विनाज पोताना स्थानक प्रत्ये जश्ने बीजा मासपण तप करवानो प्रारंन कस्यो, वली राजायें जाण्यु जे में Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १३१ यामंत्रण करीने रुषिने पार| कराव्युं नही एम विचारी श्रेणिक राजा पावं ऋषिने पारणामाटे आमंत्रण कर वली पण पारणाने दिवसे ते वात राजाने वीसरी गइ अने घरमां कोश्ने कडुं नहिं. तेथी फरी पण कृषि पाला गया, अनेत्रीजा मासदपानो प्रारंन कस्यो, एमत्रीजी वार पण श्रेणिक राजायें कयुं ते पनी तपस्वी क्रोधायमान थइने कहेवा लाग्या के आवता नवमां अवतार लश्ने आ राजानो हुँ अनर्थकारक था एम नि याएं करी ते तापसनो जीव मरीने चिन्नणाना उदरमा आवी उपन्यो तें पेटमा रहेवाथी गर्नप्रनावथी तथा पूर्वजन्मना वैरथी चिल्लणा राणीने दो होलो थयो, जे ढुं मारा पतिना मांसनुं नक्षण करुं? ए विचार थाय पण कहेवाय नहिं, अने तेनी चिंतामां राणी मुबला था गइ, त्यारे श्रेणि के एक दिवस राणीने पूर्दा के हें राणी ! तुं दिवसे दिवसें उबल केम थ ती जाय ? राणीयें जे पोतानो विचार दतो, ते यथास्थित राजापासें निवेदन कस्यो, पढी अनयकुमार श्रेणिक राजाने अंधकारमा राख्यो, ते ना पेट नपर मृगनुं मांस बांध्यु, अने तेमाथी प्रतिदिन कातरीने चिन्नणा ने जेम जेम आपे, तेम तेम राजा खोटी रीतें रुदन करे, जेम कोईनु पेट कापे, ने रुवे तेम ते रोवे, तेवारें चित्रणा हर्ष पामे, एम ते चिल्ला राणी नो दोहोलो संपूर्ण कस्यो, पडी पोताथी नत्पन्न थयेला बालकने चिन्नणा राणी उकरडे नाखी दीधो, तेजी मालम पडवाथी श्रेणिक राजायें त्यां थी ग्रहण करी लीधो, त्यां उकरडामा कुकडे ते बालकनी अंगुलि वगेरे नुं नक्षण कमु तेथी तेनुं नाम कोणिक पाड्युं, अने बीजं नाम अशोक चंड एवं पाडयु, अनुक्रमें करी ते त्रण खंझनो अधिपति थयो ॥ १७ ॥ नाकृत्यकृत्यविदलं मधुपानमत्तो, नूतानिनूतश्व शून्यमनोवचोंगः॥किं देवकीपरिणये मदपारवश्या नाश्लेषि जीवयशसाऽप्यतिमुक्तकर्षिः ॥ १०॥ अर्थः-(मधुपानमत्तः के०) मधुपान थकी मदोन्मत्त श्रयेलो तथा (शून्यमनोवचोंगः के०) शून्य डे मन, वचन अने काया जेनी एवो तो (नूतानिनूतश्व के०) नूतप्रेतादिकें परानव पमाडेलो होय नहि झुं ? एवो, ते प्राणी (अलं के०) पूरी रीतें (अकत्यकृत्य वित् के०) य Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. कृत्य भने कृत्यने जाणनारो (न के०) थातो नथी. (देवकीपरिणये के०) देवकीना परिणयने विषे (मदपारवश्यात् के) मदना परवश पणाथी (जीवयशसा के०) कंसनी स्त्रीजावयशायें (अतिमुक्तकर्षिः अपि के) अतिमुक्त नामा ऋषिने पण (किं के० ) { (न आश्लेषि के०) न आलिंगन कस्या. अर्थात् मदिराना परवशपणाथकी कंसनी स्त्री जीवयशा ये अतिमुक्त कृषिने आलिंगन कस्याज ॥ १० ॥ • आहिं जीवयशानी कथा कहे . मथुरापुरीने विषे कंस राजा राज्य करतो हतो, तेनी जीवयशा राणी हती ते कंसराजायें देवकराजानी दी करी देवकीजीने पोतें अग्रेसर थइने तेना स्वामी वसुदेवजीने आपी, दे वकीने परवाने ते वसुदेव मव्या, अने मंम्पमां नवनवा नत्सवो थ वा मांम्या, तेवा समयमां कंसनो नां अतिमुक्त ऋषि निदाने माटे त्यां आव्यो, तेवामां मद्यपानेकरी, परवश थयेली एवी जीवयशा प्रोताना दे वरने कंठने विपे वसगीपडी, अने कहेवा लागी के तमो गीत गान करो, ढुं नृत्य करीश ? तेवारें साधुये तेना हाथमाथी बुटवानो घणो नपाय क ख्यो तो पण तेणीये ते साधुने बोड्यो नही. त्यारें मुनियें कह्यु के एटलो बधो हर्ष तुंने केम उत्पन्न थयो ? एज देवकीनो सातमो गर्न थाशे ते तारा वापनें, तथा तारा पतिने मारशे या वात सांजलतांज जीवयशाने मद्यनो निशो उतरी गयो अने कांइक झपिने बोड्या अवसरजोइने कृषि निकली गया,कालेंकरीने श्रीकृमना हाथथी कंस तथा जरासंध मरण पाम्या॥१०॥ मधु मधुरवचोनिःप्रेयसीप्रेरितोयः, पिबति निजकुलोच्चा चारचिंतां विमुच्य ॥ वररुचिवदिदापि प्रेदते मुर्गति सः, क्व च तनुदृढता स्यानोगिनुक्ताज्यनोगैः ॥१२॥ अर्थः-(मधुरवचोनिः के० ) मधुर एवा वचनोयें करी (प्रेयसीप्रेरितः के०) प्रियायें प्रेयो एवो (यः के०) जे पुरुष (निजकुलोचाचारचिंतां के ) पोताना कुलना उंचा आचारनी चिंताने (विमुच्य के०) मूकीने (मधु के० ) मद्यने (पिबति के ) पान करे (सः के०) ते पुषरु (३ हापि के०) या लोकनेविपे पण (उर्गतिं के० ) उर्गतिने (प्रेदते के०) जोवे . कोनी पेठे ? तो के (वररुचिवत् के०) वररुचिनी पेठे ? जेम वर Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कया सहित. १३३ रुचि पंमितना कानमा मद्यपान करवाथी कालेलु शीशुं रेडयुं ते वात घटे डे केम के (च के०) अने (नोगिनुक्ताज्यनोगैः के०) सर्प बोटेला घृतथी (तनुदृढता के०) शरीरनी दृढता (कस्यात् के० ) क्यांथी होय ॥११॥ आहिं वररुचिनी कथा कहे . पामलीपुरने विपे वररुचिनामा पंमित रहेतो हतो, ते पंमित नित्य पांचशे नवीन काव्योयें करी नंदराजानी प्रातः कालमां स्तुति करतो हतो, ते काव्यो सांजलीने तरत राजा, पोता ना शकमाल मंत्रीनी सामुं जूवे,जे या मंत्री काव्योना अर्थ सारी रीतें क रे, तो ढुं कांहिंक पंमितने दान आपुं ? शकमाल मंत्री तेनुं पांमित्य यथा स्थित घगुंज सारु जे एम जाणे खरो, परंतु सम्यक्त्व मलीनतायें करी ते ना काव्यनी काहिं प्रशंसा करे नहि. पनी शकमाल मंत्रीनी स्त्रीयें कडं जे तमो ते वररुचि पंमितना काव्यनी प्रशंसा करता नथी ले कांही तीक नहिं एवां स्त्रीना वचन सांजली एकदिवस एकश्लोकनुं व्याख्यान शकमाल मंत्री कयुं. तेवारे तरत राजायें तेने दान आप्युं, एकदिवस ते वररुचि पंमितनुं अनिमान उतारवा माटे शकमाल मंत्री राजाने कह्यु के जे वररुचियें काव्यो कस्वां, ते सर्व मारी दीकरियोने आवडे हे त्यारे राजायें कह्यु के त मारी दीकरीने केवरावो, तेवारें पडदो चाडो नाखीने कन्यायें वररुचिनां कहेला सर्व काव्य कह्यां. पनी वररुचि, प्रागमां गंगानी पांचशे काव्योयें करी स्तुति करे तिहां यंत्रप्रयोगें करी पांचसो दिनार धारण करनारी, कोश स्थली नडीने हाथमां पडवा लागी. तेवारें वररुचि कहेवा लाग्यो. के गं गाजी स्तुतिथी मने प्रसन्न थश्ने इव्य आपे बे. पनी शकमाले तेवा त जाणीने संध्याकाले कोशस्थली हती तेमां यंत्रप्रयोगें करी पाषाणो मूक्या, अने नंदराजा पासें वररुचिनी लजा खोवरावी. हलको पाड्यो, तेवारें वररुचियें पोतानी पासें नणनारा बोकराउने आ प्रमाणे गाथा शीखवी, जे ॥ नंदराय जाणे नहि, जे शकमाल करेसि ॥ नंदराय मारी करी, सिरिल रऊवेसि ॥१॥ ए गाथा सांजली राजाने शकमाल नपर क्रोध चड्यो तेवारें शकमा विषनाग करी पोताना बोकराने शीखव्युं तेनी शीखवणीथी राजानी समद सरिये पोताना बापने तरवा रथी मारी नाख्यो राजायें सिरीयाने प्रधान व्यापारमुक्ष आपी, श्रीयकें वररुचिथी वैरसेवा माटे कोशाध्यदने कयुं के जेवी तेवी रीतें वररुचिने Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. पाडवो, एकदिवस तेणे रात्रिनेविषे चंदास मद्यपान कराव्यं प्रातः का समां राजानी सनाने विष कमल सुंघवाथी मद्यनी वांति करी, त्यां नरी सनामां तेनी लजा गश्खष्ट थयो,ते मद्यपानना प्रायश्चित्तमां ते वररुचिने शीशुं नकालीने तेनुं पान कराव्युं तेथी मरण शरण थयो॥११०॥सुराप्रकरणं. वेश्याविश्वकलत्रमत्र तदहो पानीयशालाजले,यत्कां दविकाशने च शुचिता का प्रायशस्तादृशी ॥ तस्मात् साकृतपुण्यवत् कृतकमुबोकोदया किं प्रिया, पूर्ण लं विशदा स्वनावकलुषा, दोषापि नेंदौ कृशे॥ ११ ॥ अर्थः-(वेश्या के० ) वेश्या.जे , ते (अत्र के०) आ संसारने विषे ( विश्वकलत्रं के.) पाखा विश्वनी स्त्री (तत् के ) ते कारण माटे ( सा के०) ते (किं के०) गुं (प्रिया के०) मनो, नीष्ट थाय, ना नज थाय, (अहो के०) आश्चर्ये ( यत् के०) जेम (पानीयशालाजले के०) पा पीना परवना जलने विष (च के०) वली (कांदविकाशने के ) कंदो इना नोजनगृहने विपे ( शुचिता के० ) पवित्रता (का के ) शी ? तेम (प्रायशः के०) प्रायें बदुप्रकारे करी वेश्या पण (तादृशी के०) तेवीज जा एवी अर्थात् जेम पाणीना परबमां तथा कंदोश्ना नोजनघरमा पवित्रता होती नथी तेम वेश्यामां पण पवित्रता होयज नहिं. (तस्मात् के०) ते का रण माटे (सा के०) ते (कृतपुण्यवत् के० ) कृतपुण्य नामा शेउनी पेठे ( कृतकमुबोकोदया के०) पहेलां कस्यो ने मोद एटले हर्ष आनंद जेणे अने पड़ी कस्यो डे शोकनो नुदय जेणे एवी वेश्या जाणवी. जुवो ( दोषापि के० ) रात्रि पण (अलं के० ) अत्यंत (पूर्णे के०) पूर्ण (इंदौ के) चंबते ( विशदा के०) निर्मल (न के०) झुं नथी थातीना था यज डे अने चश्मा (कशे के) क्षीण थये बते, (स्वनावकलुषा के०) रात्रि स्वनावधीज मेली थाति नथी गुं? अर्थात् स्वनावे करीने कलुष एवी रात्रि ले ते चश्मा रूप पोतानो स्वामी कलाथी पूर्ण होय त्यारे निर्मल देखाय डे, अने ज्यारें चंइमानी कला नष्ट थाय, त्यारे रात्रि काली नासे डे तेम वेश्या पण स्वनावकलुष ते परपुरुषोनुं धन मले तेथी निर्मल लागे जे अने पुरुष निर्धन थाय त्यारे पोतें पोताना वनावने पामे ॥१११॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १३५ आ श्लोकमां कृतपुण्यनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे . राजगृ हिने विष कोइक धनदत्तनामा श्रेष्टी रहे , तेने कृतपुण्यकनामा पुत्र ह तो, तेना पिता धनदत्ते चातुर्यने माटे कृतपुण्यकने यौवनमां वेश्याने घेर शिदा माटे मोकल्यो, ते वेश्यानुं नाम वंसतमंजरी करी हतुं, त्यां रहि ने ते कृतपुण्यकें पोताना बापनुं बार कोटिधन हतुं ते सर्व उडाडी दीg, कालें करी तेनां माता पिता नष्ट थइ गयां, हलवे हलवे इव्यनो नाश थ गयो, पड़ी ते ज्यारे निर्धन थयो त्यारे वेश्यायें तेने अपमान करीने काढी मूक्यो, कतपुण्यकनी नार्यायें ककलाट करवा मांझयो तेवारे घरमां निर्धन पणुं जोइने परदेश जवानो विचार धास्यो, ते विदेशीनी साथें गाम बाहेर निकल्यो, त्यां सूतो हतो, तेवामां रात्रिनेविषे चार स्त्रियोयें आवीने सुतोने सूतो त्यांथी उपाडीने तेने पोताना जवनमा राख्यो, त्यां ते चारे स्त्रियोनी साथे नोग नोगवतो बतो रह्यो, ते स्त्रियोथकी चार पुत्रो उत्पन्न थया, केटलोक काल गया पनी एकदा ते कृतपुण्यक सूतो हतो तेने तेमज पाबो ज्यांथी उपाड्यो हतो, त्यां लावी सार्थमां मू क्यो, तेनी साथें एक नातानो लाडु आप्यो हतो, तेने कयवन्नायें पोताने घेर नांगीने जोयुं, तो अंदरथी चार रत्न निकटयां, अनुक्रमें ते श्रेणिकरा जानी दीकरीने परण्यो, ते अनयकुमार मंत्रीनी बुद्धियेकरी पानी चारे स्त्रियो तथा पोताना चारे पुत्र तेने मल्या ॥ १११ ॥ कलघुनि गणिकानां हृद्यनेके गवाहा, दधति यदनुवेलं ता रसं नव्यनव्यं ॥तदजनि हृतत्तः कूलवालोऽपि तानि,र्गल ति हिमगिरिा नानुनानिर्दढानिः ॥ १२॥ वेश्याधरं ॥ अर्थः-( गणिकानां के०) वेश्याना (लघुनि के० ) हलका एवा (हृदि के०) हृदयने विषे (अनेके के० ) अनेक (गवादाः के०) गो खना जेवां निशे (क के० )शा माटे थतां हवा, ( यत् के०) जे कारण माटे ( ताः के०) ते वेश्या ( नव्यनव्यं के०) नवीन नवीन एवा (रसं के०) रसने (अनुवेलं के०) प्रति समय ( दधति के) धारण करे , (तत् के०) तेमाटे (कूलवालोऽपि के०) कूलवाल नामा तपस्वी पण ( ता निः के०) ते वेश्यायें (हृतकृत्तःअजनि के०) हरण करी के त्ति जेनी ए Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वो चारित्रयी भ्रष्ट थयो ते वात घटे , केम के ( हिमगिरिः के०) हेमाच लगिरि हिममय ले ते (वा के०) जेम ( दृढानिः के० ) दृढ एवी (ना नुनानिः के०) सूर्यना किरणोयें करी (गलति के०) गले . हिं कूलवाल ऋषिनी कथा कहे . कोणिकराजायें पोतानी पट्टराणी पद्मावतीना वचनथकी पोताना पुत्र हन विहननी पासें सेचानक हस्ती, हार, अने कुंमलनी याचना करी ते बेदु जणायें ते वस्तु आपी नहिं. पनी ज्यारे घणीज मागणी करी त्यारें चेडा महाराजानी पासें गया, दूत मोकलीने चे टकराजाने जणाव्युं के कोणिक राजा था प्रमाणे वस्तु मागे बे. पनी ते वस्तु न मलवाथी कोणिक राजा यु६ करवा माटे समस्त सैन्य लश्ने वि शालानगरीने विपे गयो, त्यां युद्धमा प्रथम चेटकें एक बाणेकरी काल.. कुमरने हण्यो, तदनंतर दश युखोये करी कोणिकना दश बांधवो मास्या, ते वारें कोणिकें चमरेंइनुं अने सौधर्मेनुं आराधन कयुं, तेणें चेटकराजा ना बागनुं स्खलन कराव्यु, तेवारें चेटक राजा अनशन लइ देवगतिने प्रा त थयो, पडी सेचनक हाथी उपर वेशीने हल्लविदल्ने रात्रिनेविपे घणा माणसोने मारी नाख्यां, पनी कोणिकना कूडकपटथी ज्यारे सेचनक ह स्ती संग्राममां मरण पाम्यो, त्यारें हल्न तथा विहल्ने श्रीवीरनगवाननी पा में दीक्षा ग्रहण करी, अने कोशिके विशालानगरीने ग्रहण करवानोउपाय कयो, तो पण ते नगरी लेवाने समर्थ थयो नही. त्यारे कोइरादसे कह्यु के कूलवालक ऋषि जो आवे, तो विशाला नगरी ग्रहण थइ शके ! ते काम मागधिका वेश्याथी थाय तेम ३. पनी कोणिके मागधिकाने कहे वाथी तरत ते कपट श्राविका थश्ने जे वनमां कूलवालकरुषि हता, त्यां पोतानी साथें बीजी पांच ब वारांगना लश्ने गइ ते स्त्रियोयें लाडुमां ने पालानुं चूर्ण नावीने ऋषिने वहोराव्या तेथी ऋषिने जाडा थवा मांझ्या त्यारे ते स्त्रियोयें ते मुनिनुं वैयाकृत्य करवा मांमधु, अने यंगस्पर्शनादिकें लोनित करी चारित्रथकी पतित करीने राजानी पासे पाण्यो,राजायें पूज्यु के हे मुनि ! ए विशालागनरी केवीरीतें लेवाय ? त्यारे ऋषियें कह्यु के पुर नी वचे श्रीमुनिसुव्रतस्वामीनो प्रासाद ने तेमां एक इंसु , ते जो पाड्य, तो विशाला नगरी तने मले, पनी कषि पोते ते पुरमां गया, अने के Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १३७ हेवा लाग्या के जे तमें सर्वे मतीने प्रासादना दंम कलशादिकने पाडो, तेवारें कटक तथा लोकोयें तेम कयुं तेथी पृथ्वी ग्रहण करी. पनी त्यांह लनी साथै गर्दनने जोडीने देत्रो खेडवा मांमयां, तेथी राजानी प्रतिज्ञा पूर्ण थइ ॥ ए कूलवालककपिनी कथा ॥ ११५ ॥ व्याधोनान्यदिताय सत्यमसकृविश्वस्तजंतूंस्तुदन्न स्व स्मिन्नपि तुष्टये च्युतशरकोडादितोऽतं व्रजन् ॥ मृत्यौ पुर्गतिमाप्तवांश्च मगयालोकध्यात्य ततो, गांगेये न सशांतनुदितिपतिस्तस्यानिषिक्षस्ततः ॥ ११३॥ अर्थः-( सत्यं के ) ते वात तो सत्य.ने, के ( अन्यहिताय के०) अ न्यना हितने माटे (व्याधः के०) जे पाराधि जे हिंसक ते.(न के०) नथी वली ते पाराधि केवो ? तो के ( विश्वस्तजंतन के० ) गायनेकरी वि श्वास पमाडेला जे मृगादि जंतु तेने (असकत् के०) वारंवार (तुदन् के ) फुःख देतो एवो तथा ( च्युतशरक्रोडादितः के० ) पोताना हाथथी बोडेलां एवां जे बाणो, ते शूकरादिकने लाग्यां, ते माटेज ते व्याधने मा रवा दोड्या, एवा जे शूकरादिक तेथकी (अंतं के० ) अंतने (व्रजन् के) प्राप्त थयो एवो ते व्याध , ते ( स्मस्मिन्धपि के०) पोताने विपे पण ( तुष्ठये के०) तुष्टिने माटे ( न के० ) थातो नथी. अने ते को डादिक शूकरादिकोनुं ( मृत्यौ के०) मरण थये बते, मारनार जे व्याध , ते (ऊर्गतिं के) उर्गतिने (प्राप्तवान के० ) पामतो हवो, (च के०) वली (मृगया के०) ते मृगादिक मारवानी जे हिंसा ते (लोकध्यात्य के०) बेतु लोकनेविपे फुःख दायी ने अर्थात् हिंसा करवाथी आ लोकमां मरणादि नय अने परलोकमां मुर्गति ए बेदु प्राप्त थाय ने. ( ततः के०) ते माटे (ततः के० ) ते हिंसाथकी (गांगेयेन के०) जीष्म पितामहें (सः के० ) ते (शांतनुदितिपतिः के०) शांतनुराजाने ( तस्याः के ) ते मृगयाथ की (निषिदः के०)निषेध कस्या अर्थात् मृगया करवाथकी विराम पमाड्यो. हवे ते गांगेय शांतनुनी कथा कहे , हस्तिनापुरमां कुरुवंशनेविषे शां तनु राजा अत्यंत मृगयाना व्यसनी हता, ते शांतनुराजायें वनमांहि सात नूमिनी श्वेत हवेलीमा रहेली जगु विद्याधरनी पुत्री गंगादेवी जेम कहे ते Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वी रीते राजायें वनवू एवी प्रतिज्ञा करीने ते गंगासाथे लग्न को,परणीने घेर आव्या पड़ी गंगायें शांतनु राजाने उपदेश करी मृगया रमवानुं व्यसन मू काव्युं एकदा गंगाने गर्न रह्यो त्यारे तेने धनुष्टंकारव करवाना तथा खज धाराना मुखदर्शन करवा वगेरेना दोहद उत्पन्न थया,तदनंतर गांगेय ना मा पुत्रनो जन्म थयो, पढी फरी पण शांतनु राजा मृगया व्यसनमां या सक्त थयो, त्यारें गंगायें तेने घगुंए समजाव्यो तो पण तेणें मान्युं नही अने मृगया रमवा गयो, तेथी परणती वखतें करेली प्रतिझानो नंग थयो जाणीने गंगा पोताना पुत्र गांगेयने लइने पोताना पिताने घेर जती रही त्यां गांगेयना मामायें शस्त्रास्त्र विद्या सारीरीतें गांगेयने शीखवी, तेथी गांगेय सर्व कलामा उत्कृष्ट थयो, पली जगत्मां लोकोये केहेवा मांमधु जे गंगा पोताना स्वामीने त्यागीने पीयरमां रहे बे तेवी निंदाना सुःखथी पोताना पुत्र गांगेयने लश्ने गंगा पाली वनमां ते प्रासादनेविपे जश्ने रही. पाल लथी शांतनु राजायें गंगा पोताने पियर तरफ जवाथी चोवीश वरस प र्यंत पोते शोक कस्यो, केटला एक दिवसें जे वनमां गंगा पोताना गांगे य पुत्रनी साथें रहे जे तेज वननेविषे शांतनु राजा मृगया रमवा माटे आव्या, त्यां गांगेयें मृगया करता अटकाव्याथी गांगेयने अने शांतनु रा जाने परस्पर महायु६ थयुं, ते युधमां गांगेये शांतनुने जीत्या, पडी गंगा ने युनी खबर पडवाथी त्यां ावीने पोताना पति शांतनु राजाने कह्यु के या तमारो पुत्र महाप्रतापी गांगेय . तेनी साथें तमें युक्ष्मां पराज य पाम्या, आ वात सांजली शांतनु राजा अत्यंत प्रसन्न थया, पड़ी गां गेये शांतनु राजाने मृगया रमवाना निषेधनी प्रतिज्ञा करावी जे हवेथी तमारे को वखत मृगया रमवा जवु नहिं ॥ ११३ ॥ पापस तनुमधोधितघृणः पुत्रेपि उष्टाशय, श्यंमः खांमवपावकादपि मुधा कं कं न दन्याङडः ॥ किं बाणेन जरासुतो वनगतो विव्याध नो बांधवं, प्रापो च्चैर्मुनिघातपातकनरं किं नाजराजांगजः॥१२॥ अर्थः-(पापों के०) हिंसाकर्म रूप दिने विषे ( तनुमधोलित गः के०) शरीरधारी प्राणीना वधनेविषे त्याग करी जे दया जेणे एवो Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. १३० ने (चंमः के० ) तीक्ष्ण के मन जेनुं एवो प्राणी ( पुत्रेपि के० ) पुत्रने विषेपण (ष्टाशयः के० ) इष्ट ने अंतः करण जेनुं एवो थाय बे, अर्था त् तेने पुत्रनी पण दया यावती नथी. जुवो (जडः के० ) जड एवो इंड् ते ( खपावकादपि के० ) खांमववनने बालवा मुकेला अभि थकी प ए (कंकं के०) कया कया प्राणीने ( मुधा के० ) विनापराध ( न हन्यात् के० ) नहा तो वो अर्थात् घणा प्राणीने इंड़ें हण्या, वली ( वनगतः ho) वनने विषे गयेलो एवो ( जरासुतः के०) जरा पुत्र ते (बान के ० ) बायें करी ( किं के० ) गुं ( बांधवं के० ) पोताना श्रीकृष्म बांधवने (नो विव्याध के० ) न मारतो वो ना मारतोज वो, खने ( अजराजांगजः के० ) अजराजानो पुत्र दशरथराजा ( उच्चैः के० ) अत्यंत पणे ( मुनिघा तपातकनरं के० ) मुनिघातना पातकनारने (किं के ० ) न पामतो हवो ना मुनिघातना पापचारने प्राप्त थयोज माटे हिंसा सर्वथा करवी नहिं ॥ ११४ ॥ लोकमां त्रण दृष्टांत ले तेमां प्रथम खांमव वननी कथा कहे बे. जनमेजय राजायें यज्ञविषे अत्यंत घृत होमवा थकी श्रग्मिने एटली तृ तिथ के जेणेकरी मिने अजीर्ण थयुं, पढी कोइना यज्ञमां घृतदाह था नहिं त्या सर्वेने विचार थयो जे हवे आपले गुं करवुं ? पढी इंड़ें वायुने सहाय करीने अग्निने खांमव वन हतुं तेमां मोकल्यो तेथी ते प्रिये खांमव वन सजीव हतुं ते जस्मीनूत करी नाख्युं, खने अमिने जीर्ण रोग हतो, तेनो नाश कस्यो, या कथा लौकिक शास्त्रगत होवाथी संब-ध जेवी बे. तो पण इहां दृष्टांतमां जीधी ने एम जाणवुं. वली बीजा जराकुमारनी कथा कहे बे. एकदिवस श्री नेमीश्वर जग वाने पूयं के मारुं मृत्यु केवी रीतें थाशे ? त्यारें जगवाने कयुं के जरा कुमारना हाथथी तमारुं मरण थशे ? ए वचन सांजलीने जराकुमारें जा एयुं जे हुं यांहिं रहीश तो महारे हायें कदाच महारा नाइनो नाश याशे एम पोताना नाइ श्रीकृष्मनी नक्तियें करी वनमां जतो रह्यो पढी पाय न नामा असुरें ज्यारे द्वारिका जस्म की नाखी तेवारें बलदेव ने श्री कम जमता जमता ते वनमां गया, त्यां श्रीकृमने तरष लागवाथी पा ली रवा बलदेव कोइ जनाशय प्रत्यें गया पाउन श्रीरुम पीतांबर दी एक काडतले सुइ गया, त्यां फरतो फरतो ते जराकुमार याव्यो, तेणे बे Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. टेथी पीतांबर उढेचं तथा पादतलमां पद्मनु चिन्ह जोवाथी जराकुमारने था मृगलो के एवी ब्रांति थइ, तेथी तेनो शिकार करवा तेणें जोरथी बाण मूक्यो, जेथी श्रीकम मरण पाम्या ॥ २ ॥ हवे दशरथराजानी कथा कहे जे. अयोध्या नगरीमा दशरथ राजा राज्य करे बे. एक दिवस ते राजा वनमां क्रीडा करवा गयो, त्यां वारिली लायें करी विलास करतो एवो हस्तानो शब्द सांजव्यो, त्यारे दशरथ रा जायें तदनुसारें बाण मास्यो, ते बाणथी पाणीनो घटनरतो एक मुनिपु त्र मरण पाम्यो. तेवारें हातात एवो शब्द करी ते मुनि धरतीयें पड्यो, तेवामां ते दशरथराजा त्यां जुवे, तो बाणविद थयेला मुनिपुत्रने जोयो, एटलामां ते मुनिपुत्रनां माता पिता पण त्यां आव्यां, तेणे शरविक्ष थ मरण पामेला पोताना पुत्रने जोड्ने घणोज शोक कस्यो, राजा विलखो थइ ते वृक्ष माता पिताना पगमां पड्यो, त्यारे ते वेदु वृकडं जे अमो जेम पुत्रवियोगें मरण पामीयें .यें तेम तुं पण पुत्रवियोगें मरण पामी श? एवो राजाने शाप दश्ते बेदु इमरण पाम्यां,अने तेमज दशरथरा जानुपण पुत्र वियोगें मरण थयुं माटे हिंसा थकी दुःख प्राप्त थया विना रहेतुं नथी ॥ ११ ॥ चौरोःखमुपैतिनारकसमंसत्योपितत्सऽन्निधेः,शुप्के प्रज्ज्वलिते दि साईमपि किं नो वहिना दह्यते॥संघोळटनसबदग्धचरटग्रामेऽग्नि तप्तप्रजा,मध्योत्पत्तिनवे समं सगरजैः किं किं न लेने तथा॥१५॥ अर्थः-(चौरः के०) चोर (हि के०) निश्चे (नारकसमं के०) नार कीस मान, (वं के०) दुःखने (उपैति के०) पामें ले, ते चोर तो पामे परंतु (सत्योऽपि के०) चौर्यकर्म रहित एवो साचो पुरुप पण (तत्सन्निधेः के०) ते चोरना सहवास थकी दुःखने पामे ने केनी पेठे ? तो के (शुष्के के०) सुकुं एवं काष्ट (प्रज्ज्वलिते के०) सलगे बते तेनी साथें रहेलु एबुं (सा ईमपि के० ) लीलु काष्ट पण (किं के०) झुं ( वह्निना के०) अनि जे ठे, तेणे करी (नोदह्यते के०) नथी बलतुं ना बलेज . तेम चोरनी साथे रहेवाथी सारो मनुष्य पण फुःख पामे वे. वली जुवो ( संघोछंटन के० ) संघना खुंटवामां (सक के०) सजीनूत थया एटलामाटेज (दग्धचरट Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १४१ ग्रामे के ) बालेला ने चोर जेमां एवा ग्राममां ( अमितप्तप्रजामध्योत्प तिनवे के ) ते चोरोनी मध्ये अग्नीथी तपीने प्रजा लोक पण बनी गया ते शाहजार चोरानी नत्पत्ति केटलाएक नवें (सगरजैः समं के० ) सग रराजाना पुत्रे पणे सर्वनी साथेंज थइ. माटे ( तथा के०) ते प्रकारें (किं किं के०) झुं (नलेने के० ) जीव न पामे ॥ ११५ ॥ यांहिं सगरराजाना पुत्रोनी कथा कहे . महार्गस्थपनीने विषे शा न हजार चोर रहेता अने नलालोकपण रहेता हता एकदा त्यांथी श्रीन रतचक्रवर्त्तिनुं संघ चाल्यो जतो हतो तेने लूंटवाने चोर तैयार थया तेवा त नरतराजायें जागी तेवारे त्यां आवीने पत्नी, हार बंध कयुं तेवारें स वैचोरो अग्नीथी नली गया तेनी साथें त्यां रहेनारा साधुलोकोपण बली गया. शाहजार चोर घणा नव भ्रमण करीने सगरचक्रवर्तिना पुत्र थया. एक दिवस ते रत्नदंमकें करी अष्टापदपर्वतने परिखा करवा तत्पर थया,तेने देवतायें वास्या तो पण ते अष्टापद उपर गंगानदीना जलने लावता एवा ते साठे हजार पुत्रोने अग्निकुमार देवतायें बाली जस्मीनूत करी दीधा. चौर्य स्वेन च वर्णकेन च कृतं मूढापुरंतं नवे, राझा मं मिकशालकोऽपि न दतः किं मूलदेवेन सः ॥ किं चैत त्रिजगतप्रियोऽपि मदनस्तञ्चित्तचौर्योद्यतः, शापं प्राप न किं प्रजापतिगिरा दादं च रौजामिना ॥१२६॥ अर्थः-( स्वेन के० ) पोताना ( वर्णकेन के ) पोतानी जाति वाला संबंधीए पण (चौर्य के०) चौर्य, (कृतं के०) कघु (मूढाः के०) हे मूढ जनो ! (नवे के०) नवने विपे ( मूलदेवेन के० ) मूलदेव नामा (राज्ञा के० ) राजायें (सः के०) ते प्रसिद एवो (मंमिकशालकोपिके) चोरी करनारो मंमिक नामा पोतानो शालक (किं के०) झुं (न हतः के०)न मास्यो. ना मायोज (च के०) वली (एतत्रिजगतप्रियोऽपि के०) आत्रण जग तने वहालो एवो पण (च के०) अने (तचित्तचौर्योद्यतः के०) तेना चित्तने चो रवामां उद्युक्त एवो (मदनः के० ) कामदेव, (प्रजापतिगिरा के० ) ब्रह्मा नी वाणीथी ( पुरंत के० ) पुरंत एवा ( शापं के०) शापने (किं के० ) गुं (न प्राप के ) न पामतो हवो ? वलो कामदेवें ब्रह्मानुं मन हरण क Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो यं तेथी ब्रह्माने पोतानी दीकरी सरस्वतीनी उपर कुदृष्टि थइ पनी कोकें कडं के या गुं? अकार्य करवा इडो बो! त्यारें ब्रह्मायें जाण्यु जे ा सर्व अनंग एटले कामदेवनोज रंग ले. पडी कामने शाप आप्यो (च के०) वली (रौाग्निना के०) शंकरना त्रीजा लोचनमाथी निकलेला एवा अनियें करी (दाहं के०) दाहने झुं कामदेव न पाम्यो ? ना दाहने पण पाम्योज॥११६॥ आंहिं मूलदेव तथा कंदर्पनी कथामा प्रथम मूलदेवनी कथा कहे जे. रत्नपुर नगरने विपे मूलदेव राजा राज्य करे , तेनो मंमिक नामा शालो हतो,ते पोताना बनेवीना घरमांथी सर्व पदार्थो लश्ने सुख जोगवतो हतो, एम करतां पूर्वकतकर्मोदयथा तेने जुगारना व्यसनमा मन थयु, ते जुगार रमतां रमतां अनुक्रमें घर वगेरे सर्वस्व. हारी गयो, पनी इव्यहीनताने लीधे अत्यंत दुःखी थवाथो नगरमां चोरी करवा लाग्यो, नगरनां लोको ये मूलदेव राजानी पासे आवी फरीयादि करी, के आ तमारो सालो गाम मां चोरी बदुज करे , ते सांजली राजायें तेने वास्यो के हवेथी तारे श्रा काम करवू नहिं. था वखत आ तारो अन्याय हुँ सहन करुं बुं अने तुं महारो संबंधी होवाथी कांही पण शिक्षा तेने देतो नथी. वली केटलाए क दिवसें ते शालायें पोतानी वेनना घरमांज खातर पाडयुं, त्यारे गृहर दक शिपाश्च्ये तेने नाशी जतो जोइ पकडीने राजानी पासें थाण्यो, न्या यवंत राजायें तेने शूलीयें चडाव्यो ते मरण पामीने उर्गतियें गयो ॥११६॥ हवे कंदर्पनी कथा कहे जे एक दिवस ब्रह्मा ध्यान करता हता, त्यां कामदेव तेना ध्यानने नंग करवानो विचार करी ब्रह्माना मनमा पेठो, के तरत पोतानी पासें रमती एवी पोतानी दीकरी सरस्वतीने जोक्ने तेनी उपरज ब्रह्मानी सरागता थइ, त्यारे सहुयें जोइने कह्यु के था तो धर्मलोप थाय अने घणोज अनर्थ थाय ते वातनुं ब्रह्माने ज्ञान थवाथी मनमा विचार करवा लाग्या के बा ते शो गजब बन्यो ! जून आ कामदेवज आवा अधर्ममां मुने उतारवा तत्पर थाय ने एम जाणी पबवाडे जुवे ने तो त्यां कामदेवने नजरें जोयो त्यारें रोषयुक्त थइने ब्रह्मा बोल्या के हे पापी ! म हादेवना त्रीजा नेत्रना अनिथकी तुं बलीने जस्मीनूत थइ जाइश ? एम ब्रह्मायें शाप आप्यो, के तरतज शंकरने काम उपर क्रोध आववाथी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १४३ पोतानुं नाललोचन उघाड्यु, तेमांथी अग्नि निकव्यो, तेणें करी कामदेव जस्मीनूत थइ गयो, ए सर्व चोरीनुं फल मल्युं माटे सर्वथा चोरी करवी नहिं ए तात्पर्यार्थ जे. ए लौकिकशास्त्रनो दृष्टांत बे. पुण्यापुण्यचयेन बुद्धिरमला स्यात्कश्मलाऽप्यंगिनां, वा तेनेव युगंधरी सदसता मुक्ताफलं गारना ॥ लंकेशो नलकूबरप्रियतमां नाम्नोपरंनां रता, मत्यादीदर तां च रामवनितां सीतां जहाराशुवत् ॥ ११७ ॥ अर्थः-( पुण्यापुण्यचयेन के०) पुण्य तथा अपुण्यना समूहें करी (बु ६. के०) बुद्धि, (अमला के) निर्मल तथा (कश्मलापि के) पापिष्ट पण ( अंगिनां के०) सर्व प्राणीयोनी (स्यात् के०) होय, (वातेन के०) वायुयें करी ( युगंधरीव के ) युगंधरी जेमतेम ( सदसता के०) सारा अने न रसा वायुयें करीने अनुक्रमें (मुक्ताफल के०) मुक्ताफलनी अने बीजा (चं गारजा के) अंगारनी कांतिने प्राप्त थाय ले. जुवो ( लंकेशः के०) राव ण ( रतां के० ) अासक्त एवी ( नलकूबर प्रियतमां के०) नलकूबरनी प्रिया (नाम्नानपरंनां के०) नपरंना नामें हती तेने (अत्यादीत् के) त्याग करतो हवो, ते सत्कर्मना उदयतुं फल थयुं, ( च के०) वली तेज रावण (अर तां के०) आसक्त नहि एवी ( रामवनितां के०) दशरथना पुत्र राम ते नी स्त्री (सीतां के०) सीताने (आशुवत् के ) शीघ्रतानी पेठे (जहार के०) हरण करतो हवो, तेथी तेनो कुलक्ष्य थयो, ते पापकर्मना उद यर्नु फल थयुं ॥ ११७ ॥ यांहिं रावणनी कथा कहे जे. कांचनपुरने विपे नलकूबर राजा राज्य करे . एकदा दिग्विजय करवा रावण त्यां आव्यो, नलकूबर राजा सैन्य लश्ने साहामो लडवा आव्यो, रावणे सैन्य नांग्युं, जोइने गढमां प्रवेश करीने रह्यो, नगरनी फरतो असाली विद्यायेंकरी अनिमय प्राकार कस्यो, तेवारें रावण कोप्योथको अमिना नयेंकरी कोटनी नजीक रह्यो थको,खेद पाम्यो, त्यारें नलकूबरनी पट्टराणी सखीसहित त्यां आवीने रावणने कहेवा लागी, के मने तुं अंगीकार कर, तो ढुं तुने ऊर्गग्रहण विद्या सम पण करूं रावणे ते वात कबूल करीने पट्टराणी पासेंथी विद्या लइ अमिना Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जेनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. कोटने जांगीने पनी नलकुबरनी पट्टराणीने रावण कहेवा लाग्यो के तुंमा री विद्या गुरु थमाटे हे स्त्रि! ढुं तुने बतो नथी. एम कही पनी नलकूबर राजाने रावणे कर्तुं के या मारी विद्यागुरुस्थाने ले माटे महारी नगिनी य एने तुं पट्टराणी करी राख्य,वली कालेंकरी दशरथ राजाना पुत्र श्रीराम चंड वनवास गया त्यां दंमकाऽरण्यमा रह्या हता,तेवामां श्रीरामचंश्नी सी ताने माटे सिंहनादादि उपायो विकूर्वीने रावणे सीतार्नु हरण कस्युं ॥११॥ मूढः परस्त्रियमुपेत्य कुवाक्यबंध,घातापकीर्तिमृतिउगति मुःखपात्रम् ॥ स्याब्रह्मराजचुलणीरतदीर्घवत्किं, लदम दयादिव विधोगुरुतल्पगस्य ॥ परस्त्रीधारं ॥ १२ ॥ अर्थ-:( मूढ के) मूढ पुरुष, (परस्त्रियं के) परस्त्रीने (उपेत्य के) प्राप्त थइने (कुवाक्य के०) ऽर्यश, (बंध के०) रोधनादि, (घात के०) लकुटादिनु ताडन, (अपकीर्ति के०) अपकीर्ति, (मृति के०) मरण (उर्गति के०) उर्गति, इत्यादि (फुःखपात्रं के०) उखनुं पात्र, (स्यात् के०) होय, केनी पेठे (ब्रह्मराजचुलणीरतदीर्घवत् के०) ब्रह्मराजानी चूलणी नामा स्त्रीनेविपे आसक्त एवा दीर्घराजानी पेठे थाय ने, (गुरुतल्पगस्य के) वृहस्पतिनी स्त्रीसाथे व्यनिचारने करता एवा (विधोः के० ) चं माने (लदमदयादिव के०) कलानाक्यथकी जेम फुःख (किं के०) झुं नहिं ? थयुं ना थयुंज ॥११॥ आ श्लोकमां दीर्घ नृपनो तथा चश्मानो दृष्टांत होवाथी प्रथम दीर्घ नृपनी कथा कहे जे. कांपिठ्यपुरने विषे ब्रह्मराजा राज्य करे , तेनी चु हनणी नामें स्त्रीहती, ते ब्रह्मराजा मरण पाम्यो तेवारे तेनो पुत्र ब्रह्मद न चक्रीहतो ते घणोज नानो हतो,चुनणी दीर्घराजानी साथे विषय नोग ववा लागी एकदिवस पुत्र धने माता बेदु बेगले तेवामां एक हंसी ह ती ते कागडानी साथें रति सुख करती नजरें पडी ते जोस्ने तेज वखतें ते ब्रह्मदत्तें पोतानी माताने देखतां ते हंसीने मारी नाखी, ते जोइ चिह्न पीयें जाण्यु जे आ पुत्रे मने शिक्षा आपवा माटे आ काम कयुं जणाय ने अने मारूं चरित्र पण आ पुढे जाण्युं बे, तेथी लाखनुं घर करी उपर धोलाव्युं अने पुत्रनें कह्यु के हे पुत्र ! आ घरमां ताहरी स्त्री सहित तुं र Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्परप्रकर, अर्थ तया कथा सहित. १४५ है. ए निज्ञ करवानुं एकांत स्थल घगुंज सारं ते सांजली ब्रह्मदत्त ते मां रह्यो रात्रिये मातायें ते घरने अग्निये सलगाव्युं तेमांथी ब्रह्मदत्त, मं त्रीनी शिदाथी सुरंगने मार्गे निकली गयो. ते पृथ्वीमां फरतां फरतां य नुक्रमे त्रणखंमनुं राज्य प्राप्त करी पालो पोताने गाम बावतो सांजल्यो के तुरत तेनी माता चुलगी थार्या थइ गइ. अने दीर्घराजाने चक्रवर्ति ब्रह्मदत्तें अनेक कदर्थनाथी मारी नाख्यो ॥ हवे चंदनी कथा कहे . एकदिवस वृहस्पतिनी नार्या तारानामे घ. पीज स्वरूपवती हती तेने जोश चंमा तेना जोग माटे आव्यो, कह्यु ले के ॥ विकलयति कलाकुशलं, हसति शुचिं पंमितं विडंबयति ॥ अधीरयति धीरनरंक्षणेन मकरध्वजोदेवः ॥ १॥ नावार्थ:-कामदेव ने ते, एक द एमां कलाकुशल पुरुषने विकल करे ,क्षणमां पवित्रने हसे बे,दणमां पं मितने विडंबन करे .हणमां धीर पुरुषने अधीर करे .एवो ए कामदेव बे. हवे पोतानीस्त्री तारा तेनी साथें असमंजस कर्म करता चंने जोड्ने वृहस्पतिये शाप आप्यो, के हे पापी ! तुं लांबन सहित था. तथा वली ताहरे कोइदिवस आहिं आवq नहि. एम तिरस्कार कस्यो ॥ ११ ॥ सुनूमजमदग्निजप्रतिमपुंजुमाघर्षजे, कपायदवपावकेवि षयवात्यया दीपिते॥ मदअपवनं ददत्यहह पुण्य कल्प सुम,स्ततोस्तियदिदैवतःशमघनाघनोवर्षति ॥ १२॥ अर्थः-(सुनूमजमदग्निजप्रतिमपुंजुमाघर्षजे के०) सुनूम राजा बने ज मदग्नि पुत्र परशुराम तेना सरखा पुरुषरूप जाडना घसावाथकी उत्पन्न थये लो एवो अने (विषयवात्यया दीपिते के०) विषयरूप विंटोलीया वायुयेंकरी प्रदीप्त एवो (कषायदवपावके के०) कषायरूप दावाग्मिने विषे (महशुगवनं के०) मोहोटा गुणरूप वन (अहहदहति के०) अरेरे बली जाय डे. (ततः के०) त्यार पड़ी पुण्यकल्पमउपर दवामि लागे जे त्यारे ( पुण्यकल्पामः के०) पुण्यरूप कल्पम जे जे, ते ( यदि के० ) जो (दैवतः के०) नाग्य थकी ( शमघनाघनः के०) शमरूप मेघ ( वर्षति के०) वरसे , तो ते क ल्पम (अस्ति के०) त्यां रहे डे, अर्थात् दाह थतो नथी एम जाणवू ॥ आंहिं सुनूमचक्रवर्ति तथा परशुरामनी कथा कहे ले. एक वनने विषे Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. जमदग्नि ऋषि तप करता हता, त्यां तेणे एवं सांजव्युं जे “अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' श्रा वैदिक वाक्य सांजलीने ते जितशत्रु राजानी दीकरी रे णुकाने परण्या, तेने परशुराम नामा पुत्र थयो, रेणुका एकदिवस पोता नी बेनने मलवा गइ त्यां ते रेणुकाने तेना बनेवी कतवीर्य राजायें जोग वी ते वातनी जमदमि कपिने खबर पडवाथी तेणे पोताना पुत्रने कह्यु के हे पुत्र! था ताहारी उष्टाचरणी माताने तुं मारी नाख्य, ते वात सांजल तांज परशुरामे तरत पोताना कुठारेकरी पोतानी मातानुं शिर कापी ना रख्युं श्रा वात जाणीने जमदनिने कृतवीर्य राजायें मारी नारख्यो, वली प रगुरामें पोताना बापने मारनार कृतवीर्यने मायो तेवारें कृतवीर्य राजानी स्वी सगर्ना हती ते नाशिने तापसना आश्रममा गइ. त्यां तेने पुत्र थयो, तेनुं सुनम एवं नाम पाडयुं, ज्यारे ते यौवन वयने प्राप्त थयो त्यारे सर्व पोतानुं वृत्तांत माताना मुखथी सांजली सुनमचकी कांपिठ्यपुरमा प्राव्यो, तेनी दृष्टिमा क्षत्रियोनी दाढा ते स्थलने विषे रहेली हती ते परम अ नरूप थती हवी त्यां सुनूमने मारवाने माटें परशुराम आव्या,पढी सुनूम ना नाग्ययोगें करी ते स्थलचक्ररूप थ गयुं ते चक्रे करी सुनमें परशुरा मनुं शिरजेदन करी नारख्यं, पूर्व परशुरामें सात वार निःदत्री पृथ्वी करी हती तेवार पनी सुनूम राजा एकवीश वार निर्ब्राह्मणी पृथ्वी करी नर के गयो माटे कपायनो त्याग करवो ए सर्व सुज्ञ संमत ठे ॥ ११ ॥ जीवाः कपायविवशान विचारयंति, चाणाक्यवल्कि मपि कृत्यमकृत्यमत्र ॥ कल्पांतवात विततितुनित स्य पूर्ण,रोदोऽतरस्य जलधेर्ननु कोविवेकः॥२०॥ अर्थः-( कषायविवशाः के० ) कषायथी विवश एवा (जीवाः के० ) जीवो, (चाणाक्यवत् के० ) चाणाक्यनी पेठे (किमपि के०) कांही पण (अत्र के ) आहिं (कृत्यं के० ) कृत्यने अने (यकृत्यं के) असत्य ने (न विचारयंति के०) विचार करता नथी. (कल्पांतवात विततिकुनितस्य के ) कल्पांत कालनो जे पवन तेनो जे विस्तार तेणें करी दुनित एवो अने (पूर्णरोदोंऽतरस्य के०) पूर्ण पृथ्वी आकाशनो अंतर जेनेविषे एवा (जलधेः के०) समुश्ने (किं के० ) झुं (विवेकः के० ) विवेक होय? Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १४७ अर्थात् न होय तेम कषायविवश जीवने पण विवेक न होय ॥ १२०॥ हिं चाणाक्यनी कथा कहे . चणकग्रामने विषे चणीनामा विष तेनी चणेश्वरीनामें नार्या हती, तेने चतुरबुदि चाणाक्यनामा पुत्र थयो, एकदिवस कांक प्रार्थना करवा माटे नंदराजाना दरबारमा ते चाणा क्य आव्यो, त्यां सनामां सोनानो सिंहासन जोड्ने तेनी उपर बेगे, एट लामां नंदराजा जमीने सनामां आव्यो, तेणे चाणाक्यने कह्यु जे हे चा पाक्य! तुं राज्यासन उपर केम बेठो ? हवे तुं नीचे उतर एम सामवृत्ति ये करी कर्दा. तो पण ते आसनथी उठ्यो नहिं, तेजो राजानी पासे रहे नारा जनोयें तेने सिंहासनथी गलोथो दर नीचे पाडी नारख्यो, तेवारें को धावेशित ययेला चाणाक्ये राजानी समक् प्रतिज्ञा करी के जो ढुं तारूं उन्मूलन न करूं तो दुं ब्राह्मगज नहिं. एम कही माथा नपरनी शिखा बांधी त्यांची मयूरग्राममां गयो,त्यां दत्रीनी पुत्रीनो चंपानदोहद पूयो, तेने चंगुप्त नामा पुत्र थयो, तेने राज्याभिषेक करावी कटक लश्ने चाणा क्य पाडलीपुरमा गयो,त्यां परस्पर यु६ थयुं,तेमां चंगुप्त तथा चाणाक्य पराजय पामी नाशि गया, पडी वृक्षबुद्धिवाला पर्वत राजाने सखा करी ने देशने बोडीने पाडलीपुरनेविपे जश्ने पढ़ी नंदराजानो धर्मशारेकरी नाश करीने चंगुप्तने अने पर्वतराजाने नंदराजानी गादीपर बेसाख्या, अने मंत्री, काम पोतें चाणाक्यें करवा मांमयुं पड़ी ॥ तुल्यार्थ तुव्यसाम W,मर्मज्ञ व्यवसायिनं ॥ अर्थराज्यहरं मित्रं योन हन्यात्सहन्यते ॥ आ प्र कारनुं नीतिनुं वाक्य संजारी ते चाणाक्यें पर्वतने विषकन्यानुं पाणिग्रह ण करावीने मारी नाख्यो. कह्यु केः-बुझा सकचतुरिया सुहिणो, विवि संवयंति कयकज्जा ॥ जह चंदगुत्तगुरुणा,पवन घाइ राया ॥ १ ॥१०॥ मिष्टान्नं मुंव हृद्यं पिब जलमपि तान् पसान् मा च रुं दि, कायक्लेशं त्यजांगं विमलयसुकरः कुरकुंनर्पिणोक्तः॥ मोदोपायोऽस्ति कोपं जय नज शिवजं शर्म साधो निबोध, शदेतुदीरखंमप्रवैतिरसबलात्सन्निपातेऽप्यउष्टम्॥१२॥ अर्थः-( साधो के) हे साधु ! ( निबोध के० ) जाण ते झुं ? जाण तो के ( मिष्टान्नं के० ) मिष्टान्न भोजनने (मुंव के०) जम, तथा (ह Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. यं के०) यानंद करनार एवा ( जलमपि के०) जलने पण (पिब के) पान कर, ( च के० ) वली (तान के०) ते (षड्रसान् के०) ब रसोने ( मा संदि के ) म रोक्य अर्थात् षट्रसनुं आस्वादन कर अने (काय क्वेशं के०) कायक्लेशने ( त्यज के० ) त्याग कर तथा ( अंग के०) अंगने ( विमलय के ) निर्मल कर. कदाच तुं कहीश के एवा उपदेश करवाथी मोद तो सर्वथा थाय नहिं परंतु नारकीनां सुःख उत्पन्न थाय ले. त्यां कहे डे के ना एम नहिं (क्रूरकुंनर्षिणा के० ) कूरगडुकृषियें (मोहोपायः के०) मोदनो उपाय (सुकरः के०) रुडी रीते थाय एवो ( उक्तः अस्ति के) कहेलो . ते कयो उपाय ? तो के (कोपं के०) क्रोधने (जय के०) जी त. जेथी ( शिवजं के०) मोदथी थयेला एवां (शर्म के० ) सुखने (न ज के) नज. अर्थात् सर्व विषयसुख जोगव अथवा चाहे तो न जोगव, पण कोप करीश नही तेवारेंज मोदसुखनी प्राप्ति थशे परंतु जो कोप क रीश अने बीजा विषयोनो नोग न करीश तो सुखी थाइश नहीं एम जा गजे. (शदेकुदोरखंमप्रनृतिरसबलात् के०) शदा, दुरस उध, खांम प्र मुख रसनां बल जे जे ते (सन्निपातेऽपि के०) सन्निपात थयो होय,तेने विषे पण ( अउष्टं के०) अष्ठ थाय परंतु कोप जय ते महारसबल वा स्ते सुबुध्येि क्रोधनो त्याग करवो ॥ ११ ॥ __ यांहिं कूरगडुनी कथा कहे . तुरमणिपुरीने विषे श्रीकुंजराजा राज्य करे . तेनो पुत्र ललितांग नामा हतो, एक दिवस गुरुनां वचन सांजली ने ललितांगें वैराग्य पामी दीक्षा ग्रहण करी, परंतु वेदनी कर्मना प्राबल्य थकी तेने कणेदणे नूख घणीज लागती हती,बदु क्रूर नोजन जमतो हतो तेथी तेनुं कूरगडु मुनि एवं नाम सदुयें पाडयुं, एकदा पजोसपना दिवसें तेने नूख लागी, त्यारे जमवाने बेगे, तेने साथें रहेनारा साधुयें क ह्यु के हे पापी ! बाज पर्वने दिवसें पण तुं जमे ले ? तो पण दमामंदिर मां रह्यो बतो कांही पण बोल्या विना पोताना यात्मानी निंदा करवा ला ग्यो के अरे पापी आत्मा तुं आजनो दिवस पण नूख सहन करी शक्यो नहि. एम आत्माने धिक्कारता तेने नोजन करतांज केवलज्ञान उत्पन्न थयु. त्यां देवतायें आवीने केवलज्ञाननो महोत्सव कसो, ते जोइ चार जण Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. २४० साधु जे कूरगडूने जमती वखतें धिक्कार देता हता तेणे आवो कूरगडूनो महिमा जाणीने नमस्कार करी मिथ्या दुःष्कत देता एवा ते चार दपकोने पण केवलज्ञान उत्पन्न थयुं ॥एम कोपजय करनारने पण मोदसुख मले . यदि शिवगतिरिष्टा सार्यमेतार्यवत्त,ऊयरुषमुपसर्गे ऽपीप्सिता उर्गतिश्चेत् ॥ करडकुरडवत्तक्रोधमुच्चैर्वि धेयः, सुरतरुकनकशेर्योमतस्तं नजस्व ॥१२॥ अर्थः-( यदि के० ) जो (सा के० ) ते प्रसिद एवी (शिवगतिः के०) मोदगति (इष्टा के०) इखित होय (तत् के०) तो (यार्यमेतार्यवत् के०) मेतार्य मुनिनी पेठे ( उपसर्गेऽपि के ) उपसर्गमां पण (रुषं के) रोषने (जय के०). जीत्य,अर्थात् मोदनीं ना करतो होय तो मेतार्यनी पेठें रोष जय कर अने जो (उर्गतिः के०) उर्गति (इप्सिता चेत् के) इखित होय,तो (करडकुरडवत् के० ) करडकुरडनी पेठे (तक्रोधं के० ) ते कोधने (उच्चैः विधेयः के०) उंची रीते अर्थात् अतिशयपणे करवो, ए वेमांथी हे नव्य जीव ! तुने गमे तेने सेव. एटले ( सुरतरुकनकशेः के०) कल्पवृद अने धतुरो ए वेहुना वृदबे, तेमध्ये ( यः के०) जे ( मतः के०) मनमां मा नेलो होय, (तं के० ) तेने (नजस्व के०) सेव. अर्थात् सुरतरु अने धत्तु रवृद ए बेदु ने तेमां तुने गमे तेने सेव्य. कल्पद समान रोपविजय जा णवो अने धत्तुरवृक्ष समान रोपनो अविजय जाणवो ॥ १२ ॥ अांहिं मेतार्यनी तथा करडकुरडनी कथामा प्रथम मेतार्यमुनीश्वरनी कथा कहे . मेतार्यज्ञपिनी उपर सुवर्णकारें उपसर्ग कस्यो, तो पण तेने क्रोध चड्यो नही बने कुरड महाकुरड नामना बेमुनीश्वरो हता, तेमणे क्रोध कस्यो तेथी ते बेदुजण ऊर्गतिने प्राप्त थया ते कहे जे. श्रीवत्सा नग रीनेविषे बंधुदत्त नामा श्रेष्ठी रहे , तेनो मित्र यज्ञदत्त ब्राह्मण हतो, ते पण बंधुदत्तना संसर्गथी जैनधर्मी थइ गयो, ते बेदुजणायें गुरुनी वाणी सांजलीने दीक्षा ग्रहण करी. तेमां ब्राह्मणऋषियें तो पोताना ब्राह्मणकुल नो मद करवा मांझयो, साधु ने कहे के शूना घरनुं जे अन्न तमे व्योहो? ते ठीक नथी करता तेमज पारकी निंदा पण करवा लाग्यो पनी ते बेद मित्र मरीने स्वर्गमा देवता थया, तेमां यज्ञदत्तनो जीव देवगतिथी चवीने रा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. जगृहने विपे चांमालकुलमा उत्पन्न थयो, तिहां धनश्रेष्ठीनी स्त्रीने पुत्र न होवाथी ते ज्यारें गर्भवती थइ त्यारे प्रसवती वखतें ते चांमालणी पासेंथी पुत्रलाने पोताने यावेली दीकरी तेने यापी दीधी पड़ी था मारो पुत्र एम खोटी वात चलावीने तेनुं पोषणं करवा मांमयु,नगरमां ते वातने को ये जाणी नही. ते पुत्रनुं नाम मेतार्य एवं पाड्युं, ज्यारे ते पुत्र युवान थयो त्यारे पितायें तेने आठ कन्या सारा घरनी परणावी. देवता प्रयोगें करी श्रेणिकराजानी दीकरी तिलकसुंदरीने पण परण्यो तेनी साथै घणां वर्षपर्यंत सुख जोगवीने पढ़ी देवतायें प्रतिबोध करवाथी श्रीवीर पामें दीक्षा ग्रहण करी. एकदा निदाने माटे कोइ सुवर्णकारना घर प्रत्यें गया. ते सोनीना घरनेविषे सोनाना' यव हता ते कौंचपदीय नक्षण कखा, पली स्वर्णकार घरंथी बाहेर आवी जुवे तो यव दीना नहिं, त्यारें तेणे जाण्यु, माहरा यवो निचे आ साधुयें ग्रहण कस्या . एमां संदेह नहि.पली कोपायं मान थ मुनिनें मस्तकें वाधरी वींटी गलापाश दइ मारी नारख्या, मेतार्य रुषि केवल पामी मोदे गया क्रोधजयनुं फल सोनीने मव्युं ॥ हवे कुरड महा कुरडनी कथा कहे . कुणाला नगरीनेविषे खाला नी समीप कुरड अने महाकुरड नामना बेहु षियो कायोत्सर्गमां उ ना हता, तेना महिमाथी ते साधुने जलोपसर्ग म था एवा अनिप्राय थी त्यां मेघ वरसतो नथी. ते जो गाममा रहेनारा मिथ्यादृष्टि लोको प्रावी इषिने कहेवा लाग्या के तमारा बे जाना तपथी गाममां वृष्टि थाती नथी या अरिष्ट तमारा बे जपयी सर्व लोकोने थाय ने एम कही कहीने उपसर्ग करवा लाग्या, तेथी ते बेदु मुनिनो कायोत्सर्ग जंग थयो, त्यारे वेदु मुनिने क्रोध उत्पन्न थयो, अने कप्टेंकरी तेणे आ श्लोक कह्यो, ते जेम के, वर्ष मेघ कुणालायां, दिनानि दश पंच च ॥ मुशलप्रमाणधारानि, यथा रात्रौ तथा दिवा ॥१॥ एम कडं के तुरत मुशल धारायें मेघ वरसवा लाग्यो, जलें करी नगर सर्व पलाली नारख्युं थाखा नगरने नपाडीने वरसादें समुश्मा नाखी दीg, अने बेदु कपि वृष्टिये करी निंजा गया, परी ते बेहुजण मरीने नरकने प्राप्त थया, ए कोध करवाथी तेने कायोत्सर्गनुं फ ल न मलतां नरक गमन थयुं माटे क्रोध सर्वथा करवो नहिं ॥ १२ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १५१ मानी तपःश्रुतशमव्रतधर्महीनः, स्यान्नंदिषेण व पण्यवधूपहासे ॥ किं तारकः कमलनूवरईरो ऽपि, नाकारि शंनुशिशुना हृतसर्वगर्वः ॥१२३ ॥ अर्थः- ( मानी के० ) जे अनिमानी मनुष्य होय, ते (तपःश्रुतशम व्रतधर्महीनः के० ) तप, शास्त्राध्ययन, समता, व्रत, अने धर्म, ते थकी हीन (स्यात् के० ) याय जे. केनी पेठे ? तो के (पण्यवधूपहासे के०) वेश्यायें करेला उपहासने विपे (नंदिपेण इव के०) नंदिषेणमुनि जेम थयो तेम, एटले वेश्याये नंदिपेणमुनिनो उपहास कस्यो जे तमे धर्मलान कहो डो पण अमारे तो धनलान जोश्यें आ सांजली कृषिने अनिमान आव्युं जे सारामां युं धन आपी शकुं एवी शक्ति नथी ?.एम विचारी तृ पारखलाना नंजनेकरी बारकोटि सोनामोरनी वृष्टि करी. तेथी तप अने शास्त्राध्ययन, समता तथा व्रत अने धर्म ते थकी चष्ट थयो.आ नंदिपेण मुनि श्रेणिक राजानो पुत्र हतो, वली (कमलनूवरपुरोऽपि के०) ब्रह्माना वरदानथकी ईर एवो पण (तारकः के०) तारकासुर दैत्य (हतसर्वगर्वः के ) हस्यो सर्वगर्व जेनो एवो (शंनुशिशुना के०) शिवपुत्र जे कार्तिक स्वामी तेणे (न अकारि किं के०) झुं अनिमानथी हीन न कस्यो॥१३॥ आ श्लोकमां नंदिपेण तथा कार्तिक स्वामिनो दृष्टांत होवाथी तेमां प्रथम नंदिपेणनी कथा कहे . राजगृही नगरीमा श्रीश्रेणिकराजानो पु त्र नंदिपेण हतो, ते श्रीवीरनगवाननी वाणी सांजली वैराग्य पामीने दीदा लेवा नजमाल थयो तेने जगवानें कह्यु जे हजी तारें नोगावली कर्मनो उदय ने माटे तुं हाल दीदा नेवी रहेवा दे, तो पण रह्यो नही शूरपणायें करीतप तपतां तेने अनेक प्रकारनी सब्धि प्राप्त था, एमक रतां बारवरसने अंते नोग्य कर्मनो नदय आव्यो, तेवारे ते मुनि विहार करतां अजाण्यां कोई वेश्याने घेर गया, त्यां साधुनी रीत प्रमाणे धर्मला न दीधो, त्यारे वेश्यायें कह्यु के, बाहिं अमारे तो धनलान जोश्य बियें, एम मशकरी करी. तेवारें मुनियें मनमां विचायुं जे झुं मारे धननी खो ट, एम अनिमान लावी, घांसनी सलीला तेना जीणा जीणा कटका करीने उपर उबाल्या, अने कहेवा लाग्यो जे आथी धनवृष्टि था, एवं बो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमोः लतांज तपना प्रनावथी जेने सर्व लब्धि प्राप्त थ डे एवा झपिनां वाक्य थी आकाशमांथी बारकोटी सुवर्णनी तृष्टि थइ,वेश्याना घरना आंगण मां सोनामोरोनो मोहोटो ढगलो थ गयो, पनी मुनि ज्यारे चाल्या, त्यारें ते वेश्यायें तेनो लेडो पकडी लीधो, अने पोतानुं इव्य जे वृष्टिथी आव्यु हतुं ते, मोह नत्पन्न थवाथी वेश्याने घेर रहीने त्यां नोगव्यु, प्रतिदिन दश पुरुषने प्रतिबोध करीने पढ़ी जोजन करे एम बारवरस त्यां रहीने उदय आवेलां नोग्य कर्म नोगवीने वारवर्षने अंते नवजणने प्रतिबोध्या अने दशमो पुरुष कोइ न आव्यो तेवारें अंते वेश्यायें हास्यथी कह्यु के आजे दशमा तमेंज था एवां वेश्यानां वचनथी प्रतिबोध पामीने फ रीने पानी प्रव्रज्या ग्रहण करी, मोदे गया, हवे कार्तिक स्वामीनी कथा कहे . पूर्वे पृथ्वीने विपे प्रचंझ एवा पो ताना हाथेकरी अखंम वैरिमंमल जेणे जीत्यु ले एवो अने सर्व कलाथी पूर्ण तथा ब्रह्मानी करेली सृष्टिमांहेला कोइथी जीताय नहि एवो तारक नामनो दैत्य हतो, ते पापियें अनेक तीर्थोनो तथा देवनी प्रतिमानो विध्वंस करी नारख्यो, तथा घणा लोको अने घणा गामनो नाश कस्यो ए प्रकारे ज्यारें म होटो उपश्व थयो, त्यारे सर्व देवता एकता थइने ध्यानमां वेता शंकर देव पासें गया,त्यां तारकासुरनो सर्व जुलम शिवजीनी पासे निवेदन कस्यो, शिवजीयें कर्तुं बधुं सारं थशे, तमो चिंता करशो नहिं थोडा वखतमा त मारा दुःखनो पार आवशे आम कही, देवोने विसर्जन कस्या पडी हेमा चल पर्वतनेविषे शिवजीयें पार्वती साथै महामैथुन को, तेथी कार्तिकस्वा मी नामा पुत्र उत्पन्न थयो, ते जन्मथी ब्रह्मचारी रह्यो तेणे तारक दैत्यने मास्यो अने सर्व देवताउनु कुःख निवृत्त कमु, माटे माननो त्याग करवो. स्वस्यापरस्य च बलान्यविचिंत्यमानः, शक्रान्यमित्रचम रेंज्वदापदे स्यात् ॥शुक्रः कदाचिदिद चेत्तनुते प्रकाश,ले शं ततः स्थगयतींमदो महत्कि ॥२२॥मानप्रक्रमः॥ अर्थः-( स्वस्य के० ) पोताना ( च के०) वली ( अपरस्य के ) पर नां (बलानि के०) शक्त्यादिकने (अविचिंत्यमानः के०) न चिंतन करतो एवो बतो अनिमान करी महाबलवाननी साथे वैर करे, तो ते फुरवने Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कंथा सहित. १५३ माटे थाय , केनी पे तो के ( शकाऽन्यमित्रचमरेंवत् के ) सौधर्म सुरेंनी पासें गयेला एवा चमरेंनी पेठे (आपदे के० ) आपदने माटे (स्यात् के०) होय. जुवो (शुक्रः के०) शुक्रनु,तारो, (इह के०) बाहिं (कदा चित् के०) क्यारेक (प्रकाशलेशं के) लेशमात्र प्रकाशने (तनुतेचेत् के०) विस्तारे ने खरो परंतु (ततः के०) तेथी (किं के०) गुं (महत् के० ) मो होटा एवा (कुमहः के० ) चश्माना तेजने (स्थगयति के० ) ढांकी शके ने? ना ढांकी शकतो नथी. अर्थात् महोटा साथे अनिमान करवु नहिं. हिं चमरेंनी कथा कहे . गजपुरमां पूरण नामें तपस्वी बदु वर्ष पर्यत उस्तर तप करतो हतो, तेना महिमायें करीने मरण पामी पाताल मां चमरचंचा राज्यधानीने विषे नवीन चमरेंइपणे उपन्यो, तेणे एक दि वस अवधिज्ञानेकरी पोताना मस्तकं उपर सौधर्मेनुं सिंहासन जोयु, ते थी तेने प्रबल कोप उपन्यो तेवारे शर्के साथे लडवा चाल्यो, तेने परिकर देवें वायो, तो पण मिथ्यानिमानना वशयकी स्वर्गमा गयो, त्यांज देवो मांहे महाकोलाहल कस्यो,इंई अवधिज्ञान प्रयुंजी चमरेंड्ने प्राव्यो जाणी तेनी उपर पोतानुं वज मूक्युं ते वजने जोक्ने नय पामतो थको ते च मरेंड चमरनु रूप विकूर्वीने श्रीवीरनगवान कासग्गे रह्या हता तेना प गनी नीचें पेसी गयो, वज पण जगवानने प्रदक्षिणा करीने पावं देवेंना हाथमा आवी रह्यु, पड़ी परस्पर शकें तथा चमरें मिथ्या रुत दी, अने क्लेश मट्यो, आमां पातालवासी देवो उपरला स्वर्गमां जाय नहिं अने चमरें३ गयो माटे ए अबेरुं थयुं ॥ इति मानप्रक्रमः ॥ १२ ॥ माया उर्गतये परत्र विपदे चास्मिन् नवे संनवेत्, श्री वीरेण सुरोऽपि कैतवसखा कुब्जीकृतोमुष्ठिना॥ किं कर्ण स्य न निष्फला युधि कला विप्रबलात्ताऽनवत्, किं श्री शोनजगाम वामनतनुर्दैन्यं बलेबधनम् ॥ १२५ ॥ अर्थः-(माया के०) माया ले ते (अस्मिन के ) या ( नवे के ) नवने विषे (उर्गतये के०) उर्गतिने माटे (संनवेत् के०) संनवे, (च के०) तथा ( परत्र के ) परलोकने विषे (विपदे के) विपत्तिने माटे थाय , जुवो (श्रीवीरेण के०) श्रीवीरनगवाने (कैतवसखा के० ) कपटथी थये Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जेनकथा रनकोष नाग पाचमो. लो सखा एवो (सुरःअपि के०) देव पण ( मुष्टिना के०) मुठियें करी (कु जीकृतः के०) कुल करी नाख्यो. वली (कर्णस्य के) कर्णराजानी (वि प्रबलात्ता के०) ब्राह्मणनो वेश लश्ने बन करवाथी लीधेली (युधि कला के० ) परशुरामनी पासेथी शीखेती यु६ कला (किं के०) गुं ( निष्फला के०) निष्फल (नअनवत् के) न थ ना थज. अने (वामनतनुः के०) वामनरूप धारण करनारा एवा (श्रीशः के०) लक्ष्मीपति जे विष्णु ते, (बलेः के०) बलिराजाना (बंधनं के०) बंधनने अने (दैन्यं के०) दीनपणाने एटले निदावृत्तिने (किं के०) झुं (न जगाम के०) न पामता हवा ॥ १२५ ॥ या श्लोकमां वीर नगवाननो तथा कर्णराजानो तथा विष्णुनो दृष्टांत होवाथी प्रथम वीरनगवाननी कथा कहे . एक दिवस सौधर्मना अधिपति ये श्रीवीरकुमारना पराक्रमनुं आधिक्य वर्णव्यु,ते सांजलीने कोक देव हतो ते इंना वचनने न सहन करतो तो मायायें करी बालकनुं रूप विकुर्वी ने नोकरानी साथे क्रीडा करवा माटे आव्यो, तेमां एवी सरत करी के जे कोइ हारे, तो ते हारेलो जीतेलाने पोतानी पीउपर उचकीने अमुक स्थान पर्यंत लइ जाय. एम करवाथी श्रीवीरथी देवता हास्यो तेवार ते वां को थश्ने बे हाथ तथा बेदु पग नोंय उपर राखीने रह्यो श्रीवीरनगवान् तेनी पीउपर चडती वेलाज ते देव सात ताड जेटलं नंचं रूप विकर्वीने नंचो थयो तेने श्रीवीरनगवाने एक मुष्टि मारीने कुबडो करी दीधो, ते व खत श्रीवीरनगवाननुं नाम महावीर पाडयु. हवे कर्णनी कथा कहे जे. एक दिवस कर्णराजा कपटथी ब्राह्मणनुरूप लश्ने परशुराम पासें युदविद्या शिखवा गयो कारण के परशुराम एक मा त्र ब्राह्मण शिवाय बीजा कोइने शिखवता नहिं हता. पनी एक दिवस पर शुराम कर्णराजाना नत्संगमा मस्तक मूकी सुश् गया, तेटलामा एक सर्प आव्यो ते कर्णनी जंघामांकरड्यो तो पण जंघा वंची करीनहिं अने लोनी नीक चाली त्यारें परशुराम जाग्या अने पूज्युं के ए हिं रुधिर क्याथी चाल्यु. त्यारे कर्णराजायें सर्व वृत्तांत परशुरामने कहुं ते सांजली परशु रामें जाण्युं जे आ कांही ब्राह्मण नथी परंतु दत्रियज के कारण के क्षत्रिय विना एटर्बु सहनशीलपणुं ब्राह्मणनु होय नहिं के जेने सर्पदंश थवाथी लोइ चाल्युं परंतु जरा पण मनमां नय आण्युं नहिं माटे जरूर था क्षत्रि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कथा सहित. Հաս यज बे. एम जाणीने क्रोधायमान या शाप याप्यो के तुं क्षत्रिय बतां arcel ब्राह्मणनो वेश लइने विद्या शीख्यो तो जा तारी शिखेली विद्या सर्व व्यर्थ था ? पी ते कर्णराजाने तेमज थयुं ॥ हवे श्रीपति विष्णुनी कथा कहे बे. बलीराजा करीने दैत्यपति महा दानशूर राजा हतो ते जे याचना करवा यावे तेने जे मागे ते खापे, एवो हतो, एक दिवस कपटथी विष्णुयें वामनरूप धारण करी बलि पासें जइ त्रण मगलां पृथ्वीनी याचना करी, त्यारें सत्यवादी दानशूर एवा बलिरा जायें ते खाप कबूल करयुं पठी तुरंत विष्णुयें वे पगलायें करी खाखी पृथ्वी नल्लंघन करीने फरीथी श्रीहरियें कह्युं के वीजा पगलामां चुं लहुं ? त्यारें बलिराजा बोल्यो के माहरी पीठपर बीजो पग मूको, तेवारें त्रीजा पगलायें क हरिये बलिराजाने पातालमां चांप्यो, पढी विष्णुयें प्रसन्न थइने कयुं जे हे बलि ! तुं घणोज सत्यवादी बो माटे कांही मारी पासें माग्य, त्यारे बलिराजा बोल्यो के मारा दरवाजामां द्वारपाल थइने तमो रहो, हरियें कबूल करी एम कपटरहित काम करवायी बलिराजा सुखी थयो. सर्वेऽप्येते कपायाः सदृशबलनृतः किंतु तीव्रैव माया, जित्वा याssपाढभूतिं नटमिव नटयामास गौरीव रुषम् ॥ स्त्रीत्वं स्त्रीलिंगभावादिव नृषु न ददौ मल्लिमुख्येषु या किं, सत्यं पुर्दा तदैत्यं कपटसुरमणीरूपविष्णुर्जघान ॥ १२६ ॥ वात अर्थ : - ( एते के ० ) ए ( सर्वे कषायाः अपि के० ) चारे कषाय पण ( सदृशबल नृतः के०) समान बनवाला बे, (किंतु के०) तो पण तेमां (ती व के०) तीव्र एवी ( माया के०) माया बे. ( या के० ) जे माया ( श्राषा तिं के० ) पाढभूति मुनिने ( जित्वा के० ) जिंतीने ( गौरी के० ) पार्वतीपोतानी प्रागल (रुश्व के०) रुइने जेम नचावती हती, तेम (नट मिव के०) नटनी पेरें (नटयामास के०) नचावती हवी. त्यां कवि उत्प्रेक्षा करेले के (स्त्रीलिंगनावात के० ) स्त्रीलिंगना जावथकी (नृषु के० ) पुरु पोने विषे ( स्त्रीत्वं के० ) स्त्रीपणुं करवाने ( इव के० ) जाणे इबती होय नहिं ? जुवो ते उत्प्रेक्षा सत्य बे ते जेम के ( म त्रिमुख्येषु के० ) मल्लिना य तीर्थकर प्रमुख विषे ( या के० ) जे माया स्त्रीपणाने (किं के० ) गुं Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. (न ददौ के०) न देतीहवी ना देतीहवी वली (सत्यं के०) सत्यवात ने जुवो (कपटसुरमणीरूपविष्णुः के ) कपटें करी रमणीय स्त्री, रूप ले नारा विष्णु, (उर्दातदैत्यं के०) उदीतनाम दैत्यने ( जघान के०) मारता हवा, अर्थात् ज्यारे विष्णुयें कपटथी रमणिय स्त्री, रूप ग्रहण कह्यु, त्यारे उर्दीत दैत्यनो नाश थयो । १२६ ॥ हवे आ श्लोकमां आषाढनूतिनो, मन्निनाथनो, मदेशनो तथा विष्णु नो, ए चार दृष्टांत होवाथी प्रथम आषाढनूति मुनिनि कथा कहे . एक गढमां आषाढनूतिनामा साधु नानाप्रकारनी लब्धिमुं पात्र हता, ते पुरु षमा शिरोमणि एवा कोश्नटने घेर निदामाटे गया, ते नटनी एवी रीत डे के जे कोइ नवो निदुक आवे , तेने एक लाडु आपे , तेथी तेणे आषाढनूतिने एकलाडु आप्यो, पडी मुनि पाडो वली चिंतवे डे, के आ लाडु तो मारा गुरुनेज पूर्ण वाशे, एम समजीने लब्धियें करीबी रूप करीने वली याचना करवा गया, त्यारे बीजो मोदक मल्यो, आ प्रमाणे वली कपट करी ते त्रीजुं१६ साधुनु रूप कयुं ते उपर बारीमा उनेला नटें जोयुं त्यारे नटें जाण्यु जे आ नानाप्रकारनां रूप करवां था मुनिने आवडे ,माटे जो बापणीपासें ए होयतो यापणो नटनोधंधो सारो चाले, अने इव्य घणुंज मले,पढी घरमां बावीने पोताना घरना माणसोने कह्यु के था साधुने तमे लाडु आपशो नहिं अने पोतानी दीकरीने कह्यु के ए साधु आहिं आवे के तुरत तेने हाव,नाव, कटादें करी संयमथी भ्रष्ट करवो. ते वात कन्यायें कबूल करी, पड़ी ते साधु ज्यारे वोहोरवा आव्यो, त्यारें तेने हावनाव कटादें करी कन्यायें फसावी दीधो तेथी ते मुनियें चारित्र बो डीने गृहस्थाश्रम अंगीकार कस्यो. अने नटनी साथें रह्यो, ते नटने या षाढनूतियें कह्यु के जो तारे घेर मांस, मदिरा जोवामां आवशे, तो हुँ र हीश नहिं. ते नटे कबूल करी पड़ी तेना सहायथी अनेक प्रकारना नाट क करी थोडा दाहाडामां ते नटें घणुंज इव्य उपार्जन कडे,एकदिवस पो तानी स्त्रीने मयें करी मदोन्मत्त जोश्ने उत्पन्न थयो ने वैराग्य जेने एवो बतो जरत राजानुं नाटक करता करतां तेने केवलहान नत्पन्न थy. हवे बीजी मनीनाथनी कथा कहे जे. ज्यारें मल्लीनाथें पूर्वनवमां दी दाग्रहण करी, त्यारे पोताना मित्रोने कहेवा लाग्या के माहरी साथें Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १५७ सर्वेयें समान तप करवू पण कोयें वधारे नबुं करवु नहिं ते सहुयें कबू ल कयुं परंतु मन्निनाथनो जीव कपट करी ज्यारें मासपण व्रतनुं पा र| आवे त्यारे बीजा मित्रोने कहे, माहरा पेटमां फुःखे दे माटे ढुं सर्व था पारगुं करीश नहीं. एम कही वली बीजा मासपण व्रतनो आरंन करे, एम पारणे पारणे कपटथी बीजा ब साधु थकी अधिक तप करतां तेणें तीर्थकर नामकर्म उपार्जन कमु,परंतु कपटे तप करवाथी मनीनाथना नवमां तेमने स्त्रीपणुं प्राप्त थयु, त्यां तीर्थकर थया तो पण स्त्रीपणुं तेमने हतुं, पाणिग्रहणने अर्थ आवेला पोताना पूर्वनवना न मित्र जे राजा थ या हता तेमने अशुचियें नरेली शालिनंजिका एटले मूर्तिमां नरेला अन्नना दर्शनथीप्रतिबोध पमाड्या एम श्रीमन्नीनाथने कपटेकरी स्त्रीपणुं प्राप्त थयुं। हवे महेशनी कथा कहे . एक दिवस महादेवजी पोतानी स्त्री गंगा अने पार्वतीनी पासें कहेवा लाग्या के हुँ: संसारमार्गथी लक्ष्मि थइ गये लो बुं. माटे हवेथी माहारे तमारी वेहुनी साथे का काम नथी. हूं तो हवे तपज करीश. एम कहीने शंकर कैलास प्रत्ये गया, त्यां ते पर्वत नी गुफामां पद्मासन वालीने ध्यानमां बेठा, पार्वतीये जाण्यु जे शिवजी तपस्यामां बेठा ले पण ते संसार नविन हुँ एम कही गया ले, माटे तेना तपनो हुँ नंग करूं. एम धारीने पोतें निलडीनो वेश धरीने त्यां जर शंकर पासें रहीने नाना प्रकारना हावनाव कटाक्ष करवा मांझ्या, तेवारे ध्यान मूकीने शिवजी ते निलडीनी प्रार्थना करवा लाग्या के हे नई! तुं माहरी स्त्री था. त्यारे निलडी बोली के माहरो स्वामी तो निल डे ते प बवाडे चाल्यो आवे . माटे जो तेम दुं करूं तो ते निल, मने अने तम ने बेहुने शिदा आपे, त्यारें शिवजी कहेवा लाग्या के हे सुंदरि ! में त्रिपु रासुर जेवा लद दैत्योने मारी नारख्या तो ताहरो स्वामी बीचारो शी गणतीमां ने ? त्यारें निलडी कहे , जो एम दोय तो तमो माहरी पा में नृत्य करो तो ढुं तमारी स्त्री थावं त्यारे ते निलडीने वश पडेला महा देवें नृत्य करवा मांमधे ते जो पार्वतीने हास्य आव्युं त्यारें शिवजी स मजी गया के या तो पार्वती के एम जाणीने ललित थइ मनमां खेद पा म्या जे अरे ! या झुं थयुं ! हुँ कहेतो हतो के दुं संसारथी विरक्त बुं अ ने मने कपटें करी एणे बल्यो तेथी हूं परवश थ गयो एम समजील Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमों. जा पाम्या. एम मायाथी शंकर पण उगाया माटे मायानो त्याग करवो. हवे ऽतिदैत्यने विष्णुयें स्त्रीपणायें करी मोह कस्यो तेनी कथा कहे डे. उर्दात दैत्य हतो तेणे ब्रह्मानुं आराधन कयं, तेनी घणी नक्तियें ब्रह्मा सं तुष्ट थया, अने ब्रह्मायें कह्यु के तुं वरदान मान्य. त्यारे दैत्ये कह्यु के मने अजेय करो. तेने ब्रह्मायें कह्यु के जेने माथे तुं हाथ मूकीश ते जस्मीनूत थइ जाशे तेवा वरदानथी प्रसन्न थयेलो एवो ते दैत्य जगतमां अन्याय करवाने तत्पर थयो, एक दिवस तेणे पार्वतीना ग्रहण माटे शिवजीनी प्रार्थना करी के मने तमारी स्त्री पार्वती आपो तेने शंकरें ना पाडी त्यारें ते शिवजीना मस्तक उपर हाथ मूकवा तैयार थयो तेजो शिवजी त्यां थी नाशिने विष्णुनी पासें आव्या, अने कहेवा लाग्या के हे प्रनु ! माह री रक्षा करो तेने विष्णुयें कह्यु के तमे स्वस्थ थान जय राखोमां दुं तेने शिदा आपुं बुं. पड़ी विष्णु पोते पार्वतीनुं स्वरूप जश्ने दैत्यनी सन्मुख गया, दैत्य बोल्यो के तुं मारी जार्या बो मने तुं सुखी कर. त्यारे नमार्नु रूप धारण करनारा विष्णु कहेवा लाग्या के माहरी पासें तहारा माथा उपर हाथ मूकी तुं नृत्य कर. तो हुँ ताहरी स्त्री थावं त्यारे ते माथा न पर हाथ मूकीने नृत्य करवा लाग्यो तेने श्रीकृष्ण कह्यु के तुं जस्म था तेथी तरत ते देत्य नस्मीनूत थइ मरण पाम्यो॥ १२६ ॥ लोनी तृप्यति नो घनैरपि धनैरिउन्नवं स्वं नवा, दप्या यः पितृकल्पितानुजपदं किंवार्षनि बिदत् ॥ अश्रां तं सरितां शतैरपिनतः किं वांबुधिः पूर्यते, किंवा शाम्य ति काष्टकोटिनिरपि ज्वालाकरालोऽनलः ॥ १२ ॥ अर्थः-(लोनो के ) लोनी प्राणी ( घनैरपि के०) घणा एवा पण (धनैः के० ) धनें करी ( नो तृप्यति के ) तृप्ति पामतो न ते केवो लोनी छ ? तो के ( नवादपि के० ) नवा एवा इव्य आववाथी पण वली (नवं स्वं के०) नवा धननी (श्वन के०) श्बा करतो एवो . जुवो (आ यः के०) श्राद्य (आर्षनिः के० ) रुपनदेवजीनो पुत्र जरतचक्रवर्ती, (पि तृकल्पितानुजपदं के०) पोताना पितायें आपेला एवा पोताना न्हाना ना इतनां पदने (किंवा के०) गुं ( नाहिदत् के०) नहिं बिनवी लेतो हवो ? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकर, अर्थ तथा कंथा सहित. १८ ते वात घटे बे जुवो ( श्रांतं के० ) निरंतर ( सरितां शतैः के० ) नदिन ना कडा करी (नृतः अपि के० ) पुरायो उतो पण ( अंबुधिः के० ) समुइ (किं के० ) गुं (पूर्यते के० ) पूराय बे ? ना पूरातो नथी. वली (का कोटिनिरपि ० ) करोडो काष्ठोयें करीने पण ( ज्वालाकरालः के० ) ज्वालाए विकराल एवो ( अनलः के० ) अनि जे बे, ते (किंवा के० ) गुं ( शाम्यति के० ) शांत थाय बे. ना शांत यातो नथीज ॥ १२७ ॥ श्रांहिं नरतचक्रवर्त्तिनी कथा कहे बे. विनितापुरीने विषे भरत चक्रवर्त्ति राजा राज्य करता हता, अनुक्रमें बये खंम तेणे स्वहस्तगत करया, पी पोताना श्राणुं नाना नाइने बोलाववा माटे दूतोने मोकल्या, दूतोयें जश्ने कुरुप्रमुख नाइयोने कयुं के हे राजकुमारो ! षट्खंमने साधनारा एवा तमास नाइ नरतजी चक्रवर्त्तीने तमे प्रणाम करो के जेथी तमारा सर्वनो विनय थयो गणाय ? कारण के वृद्ध नाइ ते पिता समान तथा गुरु समान मानवा योग्य बे. माटे तमो नरतचक्रवर्त्तीनो विनयादि कर शो तो तमोने देश, ग्राम, नगरना राज्यनो लान यशे ? ने जो तेम न हिं करो तो तमारुं राज मूलयकी लइ लेशे ते सांजलीने पती हा ना इन एकता ने अन्योन्य कहेवा लाग्या के आपणुं जरतराजापासें गुं चालशे ? एतो यापणी साथे युद्ध करी पराजय पमाडीने आपणुं स वेनुं राज्य ग्रहण करशे ? माटे आपणे श्रीकृषनदेवजीनी पासें जश्ने या वात निवेदन करीयें ने जेम ते कहे, तेम करीयें ? या प्रमाणें सर्वे इन विचार करीने श्रीरूपनदेवजी पासें गया, तेमनी प्रदक्षिणा क नमन करीने बेठा ने नरतजीनुं वृत्तांत जे दूतद्वारायें बन्युं ते सर्व कह्युं ते वखत रूप देवजी देशना देता हता, तेमां या गाथा कहेता हता जे 66 सुलहा सुरलो सिरि, एगबत्तावि मेइली सुलहा || डुलहा पुलसंसारे, जिणंदवर देसि धम्मो ॥ १ ॥ खावी उपदेश गाथा सांजलीने तेमने बोध थयो, तेथी सर्वे जाइयें राज्य बोडीने प्रजुनी पासें दीक्षा ग्रहण करी. पीते हाणुं नाइनुं राज्य नरतचक्रवर्ती ग्रहण करता हवा ॥ १२७ ॥ चित्तावन्यां जनानां कपिलसमधियां वित्तलेशाप्तमूलः, प्रत्याशावा रिसिक्तोधनिविविधधनप्रार्थनानोगवल्गुः ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. नूपेंशत्वादिसंपन्मतिकुसुमंततिर्नोगचिंताफलर्दि, र्लोनो तृत्त्या श्रवंत्या व्रजतु कलितसर्वप्तरप्यार्तिदेतुः॥१२॥ इति लोनप्रक्रमः॥ इति कर्पूरप्रकरग्रंथः समाप्तोयम् ॥ अर्थः-(लोनः के०) लोनरूप (कलितरुः के) नयंकर वृद, ते (र त्या के०) संतोषरूप (श्रवंत्या के०) नदीयें करी (व्रजतु के०) तणाजा एटले जेम नदीना जोरथी वृद तपाइजाय तेमालोजरूप वृत पण सं तोष नदीथी तणाइ जा. हवे ते लोनरूप वृद्ध केवो ने ! तो के (कपिलस मधियां के०) कपिल ब्राह्मण समान बुद्धिवाला (जनानां के०) जनोनी (चि तावन्यां के०) चित्तरूप अवनीने विषे (वित्तलेशाप्तमूलः के०) प्राप्त वित्तना लेशरूप मूल जेनां एवो दे तथा (प्रत्याशावारिसिक्तः के०) आशा अने प्र त्याशा ते रूप जे जल तेणें करी सिंचायेलो एवो जे. तथा (धनिविविधध. नप्रार्थनाजोगवल्गुः के०) अनेक धनवाननी विविध प्रकारनी प्रार्थनानो जे विस्तार, तेणें करी मनोहर अने वली (नूपेंश्त्वादिसंपन्मतिकुसुमत तिः के०) मोहोटा मोहोटा राजादिकनी जे संपत्ति तेने विषे मतिरूप ले कुसुमनो विस्तार जेमां एवो ने. वली (नोगचिंताफलाईः के०) नोगनी जे चिंता ते रूप जे फल तेनी संपत्ति जेने विषे एवो . माटे कवि कहे जे संतोष नदीये करी लोनद तपाइ जान. एवी इजा सर्वे जन राखो । आंहिं कपिलब्राह्मणनी कथा कहे जे. चंपापुरीने विपे कपिलदेव नामा ब्राह्मण रहेतो हतो,ते नाग्ययोगथी दासीमा बासक्त थयो,तेथी थोडे थोडे ते निईव्य थ गयो. एक दिवस ते दासीय तेने अईरात्रिय राजा पासें बे मासा सुवर्ण लेवा माटे मोकटयो, त्यां तेने राजाना माणसोयें पकडी बांधी ने राजानी पासें थाण्यो. राजायें तेना आकारथी जाण्यु जे आ चोर नथी, राजायें पूयु के अरे तुं कोण हो ? त्यारे ते ब्राह्मण बोल्यो के एक दासी मारी राखेली स्त्री ने तेणे मने मोकटयो ने था खरी वात सांनलवाथीरा जा संतुष्ट थइ कहेवा लाग्यो के जे तारे शबा होय ते माग्य. त्यारे ब्राह्मणे कर्दा के तमारा अशोक वनमा जइएकांतमां थोडी वार विचार करीने प बीमागीश ? राजायें तेमकबूल कयूं पड़ी ते त्यां वनमां जर विचारवा लाग्य के हुँ ते झुं मागु सो मामु ? के सहस्त्र मागुं? के लद मारे ? के करोड Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १६१ मागु ? के दश करोड मागुं ? एम आशानो तो कांश अंत आवतोज नथी. माटे या लोनने धिक्कार हजो जेनो हजी सुधी अंतज आवतो नथी. ढुं तो मात्र वे मासा सोनुं लेवा आव्यो हतो पण राजायें कडं जे माग्य ते आपुं पण मने कोट्यावधि धनथी पण तृप्ति थती नथी कह्यु डे के “जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डः ॥ दो मास कणय कऊं, कोडिएविन निध्यिं ॥” एम चिंतवन करतां ते ब्राह्मणने वैराग्य उत्प न थयो, त्यारें तेणें आलोचनाने स्थानकें केश लोचन करी नारव्युं. पडी प्रवज्याग्रहण करीने मार्गमां पांचशे चोरने तेणे प्रतिबोध पमा ड्या, माटे लोन विस्तार करवो नहिं लोन ले ते पापर्नु मूल ठे ॥ १२ ॥ इति कर्परप्रकरांतर्गताः सर्वाः कथाः समासाः ॥ समाप्तोयं ग्रंथः ॥ ॥सप्तपंचाशदधिक शतसंख्यासमन्वितः॥ कथामहोदधिग्रंथो हृद्यपद्यैर्वि निर्ममे ॥ १॥ अर्थः-एकसो सतावन कथानना महासागर रूप या ग्रंथ मनोहर पद्योयेंकरी युक्त रचायेलो २ ॥ अस्मिन् ग्रंथे सहले , शते ष ष्ठिसंयुते ॥ अनुष्टुपां सर्वसंख्या, प्रत्यदरनिरीक्षणात् ॥ ५ ॥ प्रत्येक अद रनी गणना करतां सर्व मलीने या ग्रंथनी अंदर बे हजार बसोने साठ अनुष्टुप श्लोकनी संख्या ए संख्या अवचुरीकारें लखीने ॥२॥ ॥वर्षे वार्घबरशरसुधारश्मिसंख्ये बनूव,श्रीमान् ग्रंथः सकलसुमनश्चित्त हर्षप्रदायी ॥ यावत्क्रीडां गगनकमले राजहंसौ विशाले, तन्वानौ स्तस्तिमिर निरौ तावदेषोऽपि जीयात् ॥१५०४ नी शालमांसघला विज्ञानोना चित्तने विषे हर्षनु अर्पण करनार आ श्रेष्ट ग्रंथ निर्माण थयेलोडे माटे ज्यांसुधी विशाल एवा आकाशरूप कमलनेविषे विहार करता अंधाराने नेदनार राज हंस सरखा एवा सूर्य चंडे त्यांसुधी आग्रंथ जगतनेविषे जय पामतो रहो । विद्योपनिषहिलासवसतेश्चातुर्यलक्ष्मीपतेः, श्रीसूरीश्वररत्नशेखरगुरोः प्रामाणिकस्य प्रनोः॥ शिष्यः पंडितसोमचंवरुधीर्माधुर्यधुर्योव्यधात्, कर्पूर प्रकरादिकाव्यकथिता एताः कथाः सत्प्रथाः ॥॥ अर्थः-त्रैविद्य अने उपनिषद्ना विलास करवाना मंदिर रूप तथा चातुरीरूप लक्ष्मीना स्वामी अर्थात् चातुरीरूप संपत्तिना पति तथा प्रमाणिक अने समर्थ श्रीसूरीश्वर रत्नशेखरनामना जे गुरु तेमना शिष्य पंमित सोमचंद के जे अतिउदारबु दिवाला.माधुर्यवाली सुंदर कविताना रचनारनेविषे मुख्य में तेमणे आ सुं Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. दर रचनावाली, अतिप्रसिद्ध कर्पूर प्रकरनामे महाकाव्यनी कथा कही. ॥ इति श्रीबालावबोधसहितः कर्पूरप्रकरग्रंथः संपूर्णः ॥ ॥ अथ कपूरप्रकर अवचूरिकत तपनपकमः॥ ॥प्रतिदिनमपि दानं पुण्यसंपनिदानं,पुनरधिकफलं स्यात्पारणाहोत्तराहे ॥ दिशति जलनृदन्नं कृत्तिकादौ सुदृष्टः, पुनरमलमनय॑ मौक्तिकं स्वातियो गे ॥ १॥ अर्थः-प्रतिदिन जे दान आप, ते पण पुण्यरूप संपत्तिनुं थादिकारण ने वली तेज दान, जो पारणाने दिवसें तथा उत्तर पारणाने दिवसें देवाय तो अधिक फलने आपनार थाय जे. कृत्तिकाना आरंजमां सारी रीतें वर्षेलो वरसाद धान्यनी उत्पत्ति सारी करे . वली ते वरसाद जो स्वातिने विषे वरस्यो होय तो निर्मल एवा अमूल्य मोतिने उत्पन्न करे . ॥ १ ॥ जितनवदकषायः पादिकादेर्दिनोऽय्यो, वितरणकरणैः प्रा पश्चिमावप्युदारौ ॥ विहितनुवनमुत्किं पार्वणश्चंइएक, स्तदितरशशिनौ किं नो मुहूर्ताऽप्रकाशौ ॥ ॥ अर्थः-संसारने वधारनारा चार कषाय तेने जीतनारो एवो पाक्किनो ( पांखीनो ) आगलो दिवस में तेमज दान वि गेरेना आपवाथी पांखीनो पहेलो लो बंने दिवस उदार उत्कृष्ठ फलदा यक गणाय . ते जेम के सघला नुवनने जेणे हर्ष आपेलो डे एवो एक पुनमनो चश्मा नथी गुं? ना बेज. ते शिवायना बीजा दिवसना चं ते, मात्र वे चार घडी प्रकाश अने अप्रकाश करनारा नथी झुं ? ना तेवाज . थ र्थात् सर्व दिवसो करतां पाखीनो दिवस ते दान विगेरे कर्मनो अति फलदाय क ने बीजा सर्व दिवस सामान्य फलदायक . वली पारणानेविषे कहे जे. ॥ गुई तपः केवलमप्युदारं, सोद्यापनस्यास्य पुनः स्तुमः किं॥ ह्रद्यं पयोधे नुगुणेन तत्तु, शदासितादोदयुतं सुधैव ॥३॥ अर्थः- केवल गुरु तप डे ते पण अति श्रेष्ठज ले तेमां वली ज्यारे ते तप उद्यापन सहित होय तो तेमां झुंज कहे. अर्थात् तेनां वली गुं वखाण करवां ? जेम के जे गायनुं उध गायना गुणथीज मधुर बे, परंतु तेमां वली शख अने साक रनो नुको नारव्यो होय त्यारे मधुर अमृत जेवु थाय तेमां गुंज कहे ॥३॥ वृदोयथा दोहदपूरणेन, कायोयथा सश्सनोजनेन ॥ विशेषशोनां जनते यथोक्त, सोद्यापनेनैव तथा तपोऽपि ॥४॥ इति उद्यापनप्रक्रमः॥ अर्थः- जेम खातर विगेरेनी पूरणी करवाथी वृद, विशेष शोनाने पामे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. २६३ बे. जेम शरीर, सारा रसवाला सुंदर पदार्थोना जोजनेंकरीने विशेष शो जाने धारण करे जे; तेम यथाविधि अर्थात् शास्त्रमा कहेला विधिप्रमाणे उद्यापन करवाथी तप पण अधिक उत्तमोत्तम शोनाने आपे ॥ ४ ॥ इति उद्यापनप्रक्रमः समाप्तः श्रीरस्तु गुनमस्तु. स्व^मेर्मागर्मेऽगमउदयमहो यः सुरैमैरुशैलोसिक्तस्तातालयेऽगाउपचय मनिशं बाययाऽक्रांतविश्वः ॥ पादोपांताऽवनम्रत्रिनुवनजनतास्वीकतोचैःफ लर्दिः श्रीवीरोवोऽस्तु चिंताऽधिकतरवरदः कल्पशाखी नवीनः ॥ १ ॥ अर्थः-जे स्वर्गनूमिथी पोतानी माताना गर्नरूप क्याराने विषे उत्पन्नथ येला अने जे देवतायें मेरुपर्वतनपर नवरावेला अर्थात् सिंचन करेला,तथा पोताना पिताना घरने विषे निरंतर वृदिपामेला अने जेणे पोतानी बायायें करी पाखाविश्वने विश्रांति थापेली, तथा जेणें पोताना चरणमां नमेली त्रण नुवननी जनतारूप फलसमृदि स्वीकार करी ने अर्थात् सर्वजगतने नमन करवारूपजले फल जेने एवा अपूर्व कल्पवृक्ष जे श्रीवीरनगवान् ते, तमारा अधिकमनोवांडित वरने देनार था. आहिं वीरनगवानने विषेक ल्पवृदनी नत्प्रेक्षा कवियें करेली , जेवा काडमां उत्पन्नथवाथी फलप्रा प्ति पर्यंत गुणो ने, तेम आहिं श्रीवीरनगवानरूप कल्पवृक्मां सर्वे घटाव्याले. __ स्युत्रिंशत्सहस्त्रा जरतजनपदाःसाईपंचायविंश,त्यार्येष्वहत्प्रबोधः सु गुरुनिरधुना पंचषेष्वस्ति धर्मः ॥ सत्देत्रं तत्र चाल्पं नवननुवि यथा पल्वले ग्रीष्मतुबे, पद्मं हंसस्य तुष्टयै तदिव समनवत्सचतुर्मासिकन्नः ॥ २ ॥ अर्थः-सर्व मली बत्रीश हजार जरतखममां देशो तेमां पण साडी पञ्चीश आर्यदेश तेनेविषेज श्रीअर्हत्प्रनुनो प्रबोध प्रचार पामेलो तेनी अंदर हाल पांच के ब देशने विषे सारा गुरु धर्मनुं श्रवण करावे ३ वली ते जरतखंमनी नवननमिनेविषे सारां देत्र अति थोडां , उनालामां सुकाइ गयेला अल्प जलाशयनेविष रहेढुं कमल जेम हंसने संतोषने माटे थाय ने तेम या अल्पदेवनी अंदर अमारे चातुर्मास्य संतोषदायक था ॥ १३०॥ या बे श्लोक बीजी प्रतिमांथी मल्या ले. तेम बीजा पण ४७ श्लोक ते प्रतमां ने परंतु तेनी अवचूरी पण न होवाथी तथा ते प्रक्षेप काव्य जेवा जाणवामां आव्याथी हां मूलपाठे नीचे दाखल करीये बैयें. वर्षाक्षमा श्रमणे ॥ ६३ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. यनश्चिरं विहाराङिननतिपुण्यं तदाशु वोऽत्रानूत् ॥ कषुकशाले यत्नाछ ६किशालेभुतं तु फलं ॥१॥ कृतिकर्म कर्ममर्मनिदे नवेजावतोऽन्यथा श्रांत्यै ॥ पुण्याधिकनिष्पुण्यककृतकामदमंत्रसाधनवत् ॥२॥प्राघूर्णकवंदनके ॥ ६ ॥ राजा विश्वहितो जिनो नयपरा व्यापारिणः श्रावकाः, स्थाने सर्वगुणो ज्वलेऽत्र शमिनः कौटुंबिकास्ते वयम् ॥ जैनाझागुणपत्रदत्तविधिना वर्षासु तेन स्थिता, ज्ञानदेत्रमुपास्महे बहु मिथः स्यायेन पुण्यं धनं ॥ ३ ॥ फुल्न कोधविषमं बदुरजो मानप्रचंडानिलं, मायोद्यन्मृगतृष्णिकं परिलसलोना स्थिमापन्निधिं । निंदन्मोहनिदाघकालमनितः सध्यानदृष्ट्या जवज्रांतिश्रां तिनिदेऽस्तु वोनवघनश्रीमच्चतुर्मासकं ॥ ४ ॥ पारणके ॥६६॥ व्याख्या नश्रवणं सदैव हि मुदा पीयूषपानं यथा, वर्षास्वस्य पुनर्विशेषमहिमा यह न्मयूरध्वनेः ॥ तद्नव्याइह तु त्रिकापणनिने पूज्यप्रसादोदयात्, दाना यंगणिमादिवस्तुवदलं गृहंतु पुण्याईये ॥ ५ ॥ वर्षातबंदुवर्दिनो नवरसै जर्जाड्यक्रुधोर्वविदः, शश्वत् श्रीजिनसन्निधेरनिनवाझ्याख्यानरत्नाकरात् ॥ मादृग्वागलहरी स्फुटं शमसुधासम्यक्त्वचिंतामणिः, श्रेयःस्वस्तरुमुख्यरत्न निवहं गृहंत्वनायासतः ॥ ६ ॥ व्याख्यारंने ॥ साष्टमी व्यनिचाराय श्रे यःकर्मणि किंयया ॥ तुल्यः पदध्येऽपीऽर्धतः पदांतरस्थया ॥ ७ ॥ ए कैकाऽपि हि पुण्याय नूतेष्टापि तदंतिके ॥ योगे किं त्वब्धिवेलायां गंगायमु नयोरिव ॥ ॥ पुण्यतिथौ ॥ ६७ ॥ अहश्चिंतामणित्वं कनककुसुमतां पंच यषणानि, यस्याः सत्कंकणत्वं दधति च सततं पंच यन्त्रणानि ॥ धर्मः सिक्षार्थसार्थः सुगुरुपदरजोदोरकस्तगुणाली, धार्या सम्यक्त्वरदा कु गतिनयनिदे सजतिश्रेयसे च ॥ ए॥ रदायां ॥ ६॥ ॥ कल्पाख्यानकपं चदिव्य विहितः क्लृप्तानिषकोत्सवे, नव्यैः पर्युषणामहः दितिपतिर्मिय्या त्वकोपादिकं ॥ दृष्ट्वा पंच कुलं जनेऽतिविषमं नव्यं नवं स्थापयन, सम्य क्त्वं शममार्दवार्जवनिरीहत्वं शमायाऽस्तु वः ॥ १० ॥ चेतःस्थालं विशा लं कलमकणगणः श्रावकाणां गुणाली, सम्यक्त्वं सद्दुकूलत्रितयमनुपम नालिकेरं विवेकः ॥ जैनाझा मूर्ति उमिलयजघुमृणे नावलोकानुरागौ, सत्कीर्तिः पुण्यवपिनमिति नवतादातरहिड्जये वः ॥ ११ ॥ पर्युषणाप र्वणि ॥ ४२ ॥ सौख्यं शाश्वतमेकएव हि जिनः कुर्यात्तु शेषैः सुरैः, स्याचे दैहिकमेव किंचन ततोयहा सवित्रा यथा ॥ तहत्किंशशिदीपतारमणिनि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १६५ विश्वप्रकाशो नवे, देवं मंगलदीपकोच्च शिखयाऽद्याष्टाहिका शंसति ॥ १३ ॥ रागद्वेषजितोऽर्हतोऽघ्रियुगलं पाणिध्येनार्चयन, साधुश्रावकधर्मनाक परन वेस्वर्गापवर्गों नजेत् ॥ दृक्कोतियेन रूपगुणनृञ्चैहापि तोषं परं, घंटाचाम रचेष्टितेन विवृणोत्यष्टाहिकैकोत्तरा ॥ १३ ॥ त्रैलोक्यं त्रिपदीतनुस्त्रिपथ गा तोषाय यस्यान्वहं, कालेषु त्रिषु तं त्रिकालविरं देवं त्रिशुध्या महः ॥ स्वत्रत्रयसंपदं दिशति वोयेनैष रत्नत्रयं, त्रिःपुष्पांजलिसंझया झपयतीत्य ष्टाहिकाान्तरः ॥ १४॥ व्याख्या सप्तचतुर्विधामरकृतं प्राप्यावदद्यं चतु, मूर्तस्तीर्थपतिश्चतुर्गतिहितं धर्म चतुर्दा बुधाः ॥ तं कुर्वतु चतुःकपायरहिता स्तुर्ये पुमर्थरता, ब्रूते संघरुतस्तुतिप्रतिरवै स्तुर्येयमष्टाहिका ॥ १५ ॥ किं पंचेंश्यिशर्म पंचविषयै मूढामितं वांबलो, दंचपंचसु नावनानि दधतां पंचव्रतान्युच्चकैः ॥ पंचज्ञानवतां यथा बहुसुखावः स्याजतिः पंचमी, स्प ष्टं जल्पति पंचशब्दनिनदैरष्टाहिका पंचमी॥ १६ ॥ जित्वा पतिकति स्टहां षडपि तान मुक्त्वा रसान शक्तितः, षड़जीवावनतस्तपः कुरुत पड़ नेदं बहिश्चाबहिः ॥ टिषडर्गजयोमतः पड़तुजा पूजा च चेन्मानसे, नट्टो नादितषट्पदध्वनिरुवाचाष्टाहिका षष्ठिका ॥ १७ ॥ सप्तापि व्यसना नि सप्त नरकछाराण्यहो सप्तनी, हेतनित्यजता पुण्यनृपतेः देत्राणि रा ज्यांगवत् ॥ सप्ताप्याप्नुत सप्तनूमिकगृहे तत्वे वसंतु स्वयं, सत्सप्तस्वरगीत कैतवमुवाचाष्टादिका सप्तमी ॥ १७ ॥ मुक्त्वाऽष्टौ मदकारणान्यविरतं स प्रातिहार्याष्टकं, देवं पूजय पूजयाष्टविधया येनैषतुष्टः पदं ॥ तोयबतु यत्र नास्ति पतनं उष्टाष्टकर्मापदां, चष्टे मांगलिकाष्टदीपकमिषादष्टाहिका चाष्टमी ॥ १५॥ नैतेप्येतश्योपमानविगमादष्टाहिकावासरा, एकैकोच्चकलाइती पुसदृशाः किंचित्त्वजूवनिमे ॥ श्रावस्वांतपयोधिनेत्रकुमुद श्रेणीचकोरेक्ष्णो हनासाय स्मर तापमोहतिमिरोहित्यै यतोहर्निशं ॥ २०॥ अष्टाहिकासु ॥ कल्याणिकं जगवतां धुरि यत्र चालूत्, श्रेष्टः सएव दिवसः पुनरागतोद्यः ॥ श्रीवीर मोहदिवसोनवदीपपर्व, यहत्ततः सुरुतिनोत्र महोऽनुवर्ष ॥२१॥ सध्यानोज्वलदीपकप्रविलसत्स्वाध्यायमेरात्रिकः, शुझाचार सुनोजनः सुगु एवाक् तांबूलशोनागुनः॥ अश्रीनिर्गमलक्ष्म्युपागमजयज्येष्ठावनामोत्तरः, शीलालंकृतिनार मुदे नवतु वोऽर्हधर्मदीपोत्सवः ॥ २२ ॥ दीपोत्सवे ॥ ॥ ७३ ॥ व्याख्यानं श्रुतमुग्धसारमधुरं स्निग्धं निपीयादरा, न्मात्यालू र Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सिका मुधा शमदधि श्रेयो घृतोत्रायरुत् ॥ अस्मात्तस्य समर्थनाद्यतदिदं कालेन नव्यैः पुनः, सम्यक्त्वांगविवक्षिकद् बहु तृषा पेयं तमस्तापनित् ॥ २३ ॥ सिद्धांतांबुधिसंनवेऽद्य विरते व्यारव्याघने ससे, दृष्टांतैः स कषायतापजनहृभूमिं शमित्वाऽनितः ॥ सप्तदेवधरासु वित्तवपनं कुर्वतु वः पुण्यतो, निःसत्पव्यसनेतिनीतिविविध शस्यं यथा सङनाः ॥ २४ ॥ व्या ख्यासमर्थने ॥ व्याख्यानांबुधरोपदेशसलिलैः सुश्रावचेतः सरः, पूर्तिः की र्निनदीतनिर्मलरजबित्तिश्च यत्रानवत् ॥ बालश्रावकनेककेकिफ्टनस्वाध्या यकोलाहलं, सत्कृत्यान्नफलाय वो नवतु तर्षाचतुर्मासकं ॥ २५ ॥ व्याख्यासमर्थने ॥ तृष्टे धर्मकथोपदेशसलिलैनव्योर्वरायां गुरा, वन्दे संयम धन्यसप्तदशकं रूढक्रिया मारुतैः॥ हृष्टैः स्पष्टगुणं विशोधितमनः स्वव्यार्थ शस्योगमं, स्यादेवोद्यमरपालदलितांपायं फलस्फातिमत् ॥ १६ ॥ कार्तिक्यां चतुर्मास्यां ॥धस्त्रे शीतोष्णकाले प्रथमवयसि तत्कर्म कुर्वीत विद्या न, येनांते स्यात्सुखीतोवयमपि तदहोवेत्य कुर्मो विहारं ॥ नानार्हत्तीर्थयात्रा श्रुतधरनमनं संशयांतः श्रुतायः, गुमान्नोपध्यवाप्तिः प्रवचनमहिमा मूढबो धोद्यता यत् ॥ २७॥ विहारे ॥ ७६ ॥ चातुर्मासिकमेकपारण दिनं नूनं फलं प्राप्नुया, नेतुर्वार्षिकमप्यवाप न कथं श्रेयांसएकाहयपि ॥ स्थान स्थाननिखातकोटिविनवः कोटीश्वरः किं नवे, कोटीमूल्यमहामणिं करतले किं खेलयन्नापरः ॥ २७॥ कार्निक्यां ॥ ७ ॥ तीर्थशैव्रतधर्मनाप णपुरस्कारात्परामुन्नति, नीतं यच्च ददाति नूतिमतुलां श्रीशालिनशदिवत् ॥ तन्नः सत्वतिर स्क्रिया लघुकलौ दानं त्वयोलासितं, कैः कैनए पुनः फलिष्य ति फलैस्तत्ते जिनोवेत्ति तत् ॥ ए॥ मान्यस्तीर्थपतेः परिग्रह श्वदमाप स्य संघोध्रुवं, धन्योयस्य गृहांगणं सचरणांनोजैः पुनीतेतराम् ॥किं ब्रूमःफ जमस्य तभरतवद्योवेत्त्यमुं संमदात्, श्रीरप्यस्य गृहे स्थिराः प्रतिनुवः श्री जैनपादाश्मे ॥ ३० ॥ नीत्वा स्थानेऽनिरामे धनसमयममी संयताः श्वे तपदा, स्तत्तत्स्थाने विजह्वःसुरुतिनिरनिशं जाड्यशीतं च निनं ॥ शीतदो मैस्तपोऽग्निव्रतनियमगृहै वमागंधतैले, यंत्राऽचार्किगोनिर्हिमसमयचतुर्मा सकं तन्मुदे स्तात् ॥३१॥ चातुर्मासिकपर्वसंनवतपोवहिस्तदावश्यक,न श्यत्कर्मदलोद्रितस्थगणकस्तोमेऽत्र नस्मीकते ॥ प्रातर्वदनके मुखांशुकविधि व्याजाहिकीर्णेऽनितः, धन्योऽर्दशुणफाल्गुनोऽमलरजाः स्यादागमांनाप्लवैः Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १६७ ॥ ३२ ॥ रजःपर्वणि ॥ ७ ॥ स्पर्धा महत्सु नरवाक् शुकवत् क्लमाय, सत्यं पुनः पदमुपैति जनः कृतार्थः॥माहि पंचमगुणस्थितिमुक्तियोग्याः, श्राधेषु तजिनमहेऽनुचितेंड्ताऽपि ॥ ३३ ॥ देवैर्जिनस्य यदि जन्ममहा दि चके, न श्रावकैरनुकृतिः क्रियतां तदेषा ॥ स्वःशकदंतिमदतुंबरुगानरंजा, नृत्यादि चेञ्जवि नकोऽपि ततः करोतु ॥ ३५॥ कल्याणके ॥ ७३ ॥ जै नार्चयाऽपि नवनिः कुसुमैरशोक, उच्चोच्चसंपदनवन्नवशेवधीशः॥ लदार्च नेन तु फलं जिनएव वेत्ति, सस्थकालघनसिक्तसुबीजवत्तत् ॥ ३५ ॥ आश्चर्यकारि फलमप्यतुलं प्रदास्य, त्याश्चर्यनंगिनिरियं विहिता जिनार्चा ॥ कार्य हि कारणगुणेन नवेत्तु चित्रं, पुष्पैरिमैत्रिदशरफलप्रसूतिः ॥ ३६॥ महापूजायां ॥ ४ ॥ अप्येकजैननवनस्नपनादिनाद्य, नावाउपार्जि सुक तं शिवरुभवनिः, स्थानं कचेत्युपरिपाटिकयार्जि तस्य, ज्ञातं महत्स्तुतिकृतां हृदयानि संति ॥ ३७॥ अद्योदियाय सुदिनोजवतां कला वा, जज्ञे य दल्पवसुनाऽपि हि नूरिलानः ॥ चैत्यावलीषु यउपार्जि शिवाय पुण्यं,नत्या सुसंनदलपुष्पफलोपहारैः ॥ ३० ॥ चैत्यपरिपाट्यां ॥ ७१ ॥ गुरूं तपः के वलमप्युदारं, सोद्यापनस्यास्य पुनः स्तुमः किं ॥ हृद्यं पयोधेनुगुणेन तत्तु, शदासितादोदयुतं सुधैव ॥ ३५ ॥ उदोयथा दोहदपूरणेन, कायोयथा ससनोजनेन ॥ विशेषशोनां जनते यथोक्ते, नोद्यापनेनैव तथा तपोऽपि ॥ ४० ॥ नद्यापने ॥ नूपाश्वत्रगुरूदराकृतिरथाद्येषूपयोगान्मया, वंशत्वे कट सुंमकादिषु जनाचाराधितानूरिशः ॥ नैतत्काऽपि महत्त्वमापि सुलने केव ग्रहस्तोरणे, घंटावाग्निरिति ध्वजस्त्वरयतेवोदेवताऽराधने ॥४१॥ सिंहस्त पःप्रक्रमएव तावत्, पुष्कर्मदंतावलमंमलीनां ॥ तदद्य तस्मिन् प्रखरानिवे शो, यद्यउद्यापन विस्तरोऽयं ॥ ४२ ॥ नैवेंदोः सफलैः शिवाध्वसुखदं स्पष्टं समं शंबलं, धूपेनोर्ध्वगतिः सुगंधि तदिदं वासेन गुनं यशः ॥ न स्वर्गादिफ लं फलैश्च कलमैजैनाटकार्चात्मनः ॥ पुष्पैर्लोकशिरः स्थितिः शिवतनुर्दीपै र्जिना फलं ॥ ४३ ॥ अष्टविधपूजायां ॥ ७ ॥ यादर्शोदितकेवलरिस मैश्वर्यश्च नशसनाद्, ब्रह्मांमस्य शरावसंपुटतनोर्यः कामकुंनंपुरः ॥ श्रीव त्सांगमिति स्फुटश्च तनुते नित्योत्सवः स्वस्तिका,नंदावर्तवदभुतारुतिकतानं दः सवोऽव्याङिनः ॥ ४४ ॥ अष्टमंगले ॥ नए ॥ मुक्तेः सौख्यप्रमाणं नव ति सुरगिरिः सोऽस्ति वा योजनानां, लदं वार्दिः स्वयंनूरमणइति पुनः सो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ऽस्ति रअप्रमाणः ॥ लोकातीतं तदेतङिनपतिरपि वा नोपमातुं प्रगल्नो, नू नृनोगानुनूतिं स्वजनमनुवदन् यदज्ञः पुलिंदः ॥ ४५ ॥ यत्पादांबुज→ गतामविरतं नेजुस्त्रिलोकीजना,यश्चिंतामणिवत्तदीयहृदयानीष्टार्थसंपादकः॥ सोप्यहन्महितोयदर्थमनिशं तत्तत्तपस्तप्तवान्, नानीष्ठं हृदि कस्य कस्य तद हो नैःश्रेयसं मंगलं ॥ ४६ ॥ मुक्तिधारं समाप्तं ॥ ७२ ॥ व्रीहिर्यवोमसूरो, गोधूमोमाषमुजतिलकाः ॥ अणवः प्रियंगुकोश्व, मयुष्ठकाशालिराढक्यः ॥ किं च पलायकुलबी शणसप्तदशेति धान्यानि ॥ ७॥ श्रीवजसेनस्य गुरो स्त्रिषष्ठि, सारप्रबंधस्फुटसजुणस्य ॥ शिष्येण चक्रे हरिणेयमिष्टा, मुक्तावली नेमिचरित्रका ॥४॥ इति श्रीकपूरप्रकरानिधः सुनाषितकोषः समाप्तः ॥ ग्रंथांते वैराग्यदर्शकोऽयं श्लोकः दिप्तोस्ति सयथा ॥ ॥येषां वित्तः प्रतिपदमियं पूरिता नूतधात्री, यैरप्येत वनवलयं निर्जितं लीलयैव ॥ तेऽप्येतस्मिन् नवपुंरुहदे बुहृदस्तंबलीनां कृत्वा धृत्वा सपदि विलयं नूनुजः संप्रयाताः ॥ श्रीरस्तु. इति श्रीकपूरप्रकर ग्रंथ मूल तथा बा लावबोध अने कथासहित समाप्त ॥ ॥ मतलबविपे प्रस्ताविक दोहा ॥ ॥मतलबके सब यादमी, मतलब विना न कोई॥ जब जाकी मतलब दुवे, तबहि दूर व्है सोश ॥ १ ॥ मतलबसम या जगतमें, कोउ न और पदार्थ ॥ यातें सब व्यवहार है, याबिन है सब व्यर्थ ॥ ॥ मतलब नां ही सुजनकों, जाको अंग स्वनाव ॥ ताकोंही सऊन कहत, जिहिं सब स रखो नाव ॥३॥ मतलब बिना सुनारिद, रहै न पतिके गेह ॥ पतिढू नारी ना रवै, जो सुत चाहन रेह ॥४॥ मतलबके सबही सगे, मतलब जौ लगि जांहि ॥ जो मतलब जगमे नहीं, उत्तम मनुष कहांहि ॥ ५ ॥ मतलब ताको राखिये. जातें कारज होत ॥ शूके तरुवर गये, फल बा या न मिलोत ॥ ६ ॥ मतलब तबलग होतहै, जबलग कर में दाम ॥ पीछे कोइ न आवहीं, ज्यूं शूके सर गाम ॥ ७ ॥ मतलब धनसम और नहि मित्रदु वैरी होय ॥ मतलब पाये होत पुनि, शत्रु मित्रहू सोय ॥ ७ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २६ए अथ ॥श्रीनदयरत्नजी महाराजकृत नुवननानु केवलीनो रास प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ सकल सिदिदायक सदा, अकल अरूप अनंत ॥ सिम नमुं हुं ते सदा, आपे जे नव अंत ॥ १ ॥ वलि वंदू वारू विधे, रुपनादिक जिन राय ॥ नेटुं मुर्मति नंजणा, नावी नारति पाय ॥ ॥ गुरु गणधर गुण आगला, जे जे नर जगमांहि ॥ शासन देवादिक सदु, प्रामुं परम उत्सा हि ॥ ३ ॥ जनक शाह यशवीर जस, जननि खिमादे जास ॥ श्रीहीर रत्नसूरी नमुं, असारु पूरे पास ॥४॥ जे जग रमणिक जाणियें, ते ते वस्तु अनित्य ॥ वलि राजा परें बकिने, धर्म करो दृढ चित्र ॥ ५ ॥ नुव ननानु जे नूतलें, केवलि करुणा धाम ॥ प्रगट थया ने पूरवे, गावं तस गुण ग्राम ॥ ६ ॥ बलि राजा पहेलो दुतो, नाम जेनुं अनिराम ॥ वननानु वलतो थयो, गुणनिष्पन्न सुनाम ॥ ७ ॥ त्रिविधंसूं हूं तेहनो, रास रचूं रसरूप ॥ श्रोता जन सुगजो तमे, आणी नाव अनूप ॥ ७ ॥ चरित्र ए चोखे चित्तें, सुणसे जेह सुजाण ॥ मारी मोह नरेंड्ने, लेशे परम कल्याण ॥ ५॥ ॥ ढाल पहेली ॥ ॥ पहिलोने पासो ॥ ए देशी ॥ ए जंबुदीपें दोजी मेरूथी पश्चिम दिशे, गंधिलावती विजय वखाणियें जी ॥ विजयपुर नामें होजी नगर वसे ति हां, सर्व संपदनुं सदन ते जाणीयें जी ॥१॥ धर्मनुं धाम होजी वेस्म विलासनु, शुभ्र व्यवहारनु सोध सोहे घणुं जी ॥ अघनो अनाश्रम हो जी आश्रम न्यायनो, अमरपुरीथी अधिक सोहामणुं जी ॥ २॥ वेष्टित व होजी खाश्य उर्गम, अनेक कौतुकनो आस्पद उपतो जी ॥ तिलक सरि होजी नूरमणी नालें, अलकालंकानी शोना लोपतो जी ॥ ३ ॥ राजे तिहां राजा होजी चंमौलि नामें, नमे वे जेहने अनेक नरेसरू जी॥ बल दल बुझिनो होजी जे जलधि अने, अतिहि सूरामां ने अग्रे सरू जी ॥ ४ ॥ वासवैनवनो होजी विस्मयकारी वली, महामंत्रीनी म तिने बलें मुदा जी ॥ कामीना मननी होजी पूरवा कामना, काम सरि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमों. खो जेह जाणो सदा जी ॥ ५ ॥ करि कुंनस्थल होजी दलन कठिन क रें, रिपु रमणीना केशनें खींचतो जी ॥ ते तरुणीने होजी नेत्रजलेंकरी, कुल कीरतिना कंदने सींचतो जी ॥ ६ ॥ वजथी विरु होजी पर दल पाटने, लागे ते धरनो लोनि जी ॥ कीरति जेहनी होजी व्यापी दि गंतरे, जेह न जाए केणे खोनि जी ॥ ॥ अंतेनरने होजी पूरे पर वस्यो, विचरे ते अनंगने गंजतो जी ॥ सुरपति सरिखो होजी अखं म आणें करी, नूमि पतिना माननें नंजतो जी ॥ ७ ॥ पहिली ढालें हो जी उदयरतन कहे, नवियण नावें सदुको सांजलो जी ॥ कौतुककारी हो जी रास ए ले रूडो,जगतां नाजे नवनो आमलो जी॥ ए॥सर्वगाथा॥१७॥ ॥दोहा॥ ॥ रतन जडित सिंहासने, बत्र धरावंतो श्वेत ॥ वेठो जे नृप एकदा, सुनटनी कोडी समेत ॥१॥ पूरव दिशि प्रगट्यो तुरत, तेज अतुल तिणि वार ॥ रवि मंगलथी रम्य ते, पसखो सना मकार ॥२॥ अकस्मात तव ऊबल्यो, सुरनि पवन समकाल ॥ पसयो ते सघले पुरें, परिमल जास रसाल ॥ ३ ॥ सहसा तव सद् सांजली, गगनें किन्नर गान ॥ सुरवधुने समुहें करी, नन उपे तिणि थान ॥ ४ ॥ गगनमंमल गाजी रह्यो, नूपुर हंदे नाद ॥ नानु मंगलसुंपणे, जाणे केलीधो वाद ॥५॥ सुर गाय न कोलाहलें, कुंकुनि नाद अपार ॥ अंबर तव बहिरो थयो, तुमुल स्वरें ते तार ॥६॥ तब नृप ते सहसा तिहां, ससंन्रम सस्नेह ॥ परपद जनसुं प्रेम मुं, अचरज लही अह ॥७॥ आसनथी उंचो थइ, माबो कर धरि नाल ॥ बीजो कर उवि वेकें, जूवे नयण निहाल ॥७॥ अहो अहो ए अचरज कि श्युं, श्म अवलोके सोय ॥ तेमज पेखे तिहां वली, सना लोक सङ कोय ॥५॥ ॥ ढाल बीजी ॥ ॥ सोरती रागना चालनी देशी ॥ तव श्रीखंमतिलक निलाडे, करे जे केसर बाडे ॥ करें कनक बडी जे धारे, सोहे पीन पयोधर नारें ॥१॥ हिये मुक्ताफल हार, धारणी प्रतिहारी नदार ॥ प्रणमीनूपतिना पाय, बेसी ते बोली तिणे ताय ॥ ३ ॥ पूरव दिशिनो वनपाल, श्हां आव्यो ने उजमाल ॥ जो आपो प्रनु आदेश, तो परपदें करे प्रवेश ॥ ३ ॥आवे ते नृप याणायें, वनपाल सनामां त्यांयें ॥ प्रणमी पृथिवीपति पाय, मुखें Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १७१ बोले ने महा राय ॥४॥ किन्नर नर सुरनी कोडि, जेहने नमे कर जोडी ॥ नुवननानु जस नाम, केवली करुणा रसधाम ॥ ५ ॥ अवनिपति सु गिने एम, पूरण ते पाम्यो प्रेम ॥ ऐन अमृतने रसें अरच्युं, जाणे चंदन सुं तन चरच्युं ॥ ६ ॥ जाणे त्रिभुवन लीला लाधी, सुख सागरनी लहेर वाधी ॥ दीधुं तेहने प्रीतिदान, जेहनु नवि थाय मान ॥ ७ ॥ एक आं ख उलालामांहि, सामग्री सजी उडांहि ॥ श्वेत नइ गजें समारी, ऊ पर करे असवारी ॥ ॥ श्वेत बत्र शिर ऊपर बाजे, जे नानु प्रतापने नाजे ॥ शशिकिरण समूह समाने, ढले चामर उऊल वाने ॥ ए ॥ दय गय रथ पायक पूरें, वीट्यो चोफेर सनूरे ॥ परिकर श्रेणे परवरित, अव निपति उलट नरिच ॥ १० ॥ पुरव दिशिने नद्याने, पहोतो पावन थावा ने ॥ उरथी देखि मुनि राय, तजी असवारी तिणे गय ॥ ११॥ शस्त्र चामर मुकुट ने बत्र,तजी तंबोलादिक तत्र.॥ कर चरण वदन जल शुदि, परवाली परम शुरू बुदि ॥ १२ ॥ तजी पाऊका विनयसुं त्रिविधे, करक मल जोडीने सुविधे ॥ परपदमा पेसी प्रीतें, मुनिनें वंदे मन हीतें ॥१३॥ देश प्रदक्षिणा त्रण तेह, शिर नुमीसुं फरसी स्नेह ॥ जावें वंदी लगवान, सपरिवारें राजान ॥ १४ ॥ उदयरत्न कहे ए ढाल, बीजी में बोली रसा ल ॥ नेहें जे मुनिने नमशे, ते नवनी जावत गमशे ॥१५॥सर्वगाथा ४२॥ ॥दोहा॥ ॥कर जोडी स्तवना करे, निरवद्य नूमि निहालि ॥ बेगे वे कर जोडी ने, वारू सना विचालि ॥ १ ॥ दीधी मुनिवर देशना, शांजलि ने नृप सो य ॥ घरज करी वलती इसी, उत्तम अवसर जोय ॥ ३ ॥ रांक रीजे जि म रत्ननी, वृष्टि देखिने वेग ॥ तुम आगमने तेम हूं, निज मन पाम्यो ने ग ॥ ३ ॥ नव सागर जूमो घणो, कंमो जेह अथाग ॥ दरश आज तुम देखतां, तेहनो पाम्यो ताग ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ ४६ ॥ ॥ढाल त्रीजी॥ ॥ थां पर वारि मारा साहेबा ॥ ए देशी॥ नगवन मुफ बाल नावमां, मुनिवर एक मलिन ॥ बोध प्रापीने बह परें, पुरुत नीर दलिन ॥१॥ पण समकित नवि सदह्यो, वाल बुदिपणाथी॥ उपदेश ते अगारनो, जे ह मुक्तिनो साथी ॥ २ ॥ संस्कारमात्र ते साधुनी, देशना दिल धारी ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299 जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. यौवनने जोरें करी, ते पण में वीसार ॥ ३ ॥ राज्य धुरा जारें वली, मद् तिमिरे मंज्यो | उपदेशरूप नद्योत ते, मोहें मन रंज्यो ॥ ४ ॥ वलतो विषय विलासमां, काल गयो केतो ॥ जातो पण जाएयो नही, तृष्णावश तेतो ॥ ५ तेवार पति में ग्राजनी, रजनी विरमंती ॥ जागीने जोयूं मनें, आलोची एकांती ॥ ६ ॥ ग्रहो महारंन तिरो नरें, पुरित दल मेट्यो, वि पाक समे हो केम ते, जासे अवहेल्यो ॥ ७ ॥ दुःख देशे मुने कुष्ट ते, परजव महापाप ॥ श्राडो तव कोण यावशे, एम चिंतु श्राप ॥ ८ ॥ गुरु ज्ञानी को जो मिले, तो पुढं तेहने, कोण रक्षा करशे कहो, याविनदयें एहने ॥ ए ॥ नाव समो निग्रंथनो, संग जे थयो पहेलो ॥ ऋष्ट थयो हूं तेहथी, मंद बुद्धि महेलो ॥ १० ॥ जन्म समुमांहें पड्यो, प्रेो घ पवनें ॥ अहो कोण आपशे, उल्हवी नव दवने ॥ ११ ॥ खेदें 5 म करतां खरखरो, दुर्घट ए वातें ॥ प्रगट प्रजात समय थयो, यामनि शे प जातें ॥ १२ ॥ कृत्य करी प्रजातनां, सनायें जेहवे ॥ मजलस मेली श्रासने, वेगे हवे ॥ १३ ॥ वनपालें वधामणी, दीधी मन खां ॥ ताजी तुम याव्या तणी, सुणी हरख्यो ए जांते ॥ १४ ॥ जिम हरषे म रुदेशमा, पंथी सर पेखी || जिम चातक ग्रीपम कतें, रीजे घन देखी ॥ ॥ १५ ॥ जिम वनवासी घाममां, अंबनी घन बाया || पामी रति पामे म ने, उसी प्रतिकाया ॥ १६ ॥ सुधारसनी नहि कूपिका, रोगी जिम रोजे || तिमहूं रीज्यो ते समे, घणुं शुं कहीजे ॥ १७ ॥ तर त्रीजी ढाल मां, जेह मुनिने नमवा ॥ तरशे जव जल ते वदे, उदय घ गमवा ॥ १८ ॥ ॥ दोहा ॥ || जिम कायर युद्धे जुड्यो, पडियो गणमांहें || शरण चाहे जिम शूरनुं, पीडयो शस्त्र प्रवाहें ॥ १ ॥ तिम नीड्यो पातक नरें, नव वेरीथी नाग ॥ तुम शरणे दूं याविउ, नही अपूरव लाग ॥ २ ॥ महेर करी मु ऊ परें, ते माटे कहो स्वाम ॥ शरण होशे मुने केहनुं, पर जव पीडागम ॥३॥ ॥ ढाल चोथी ॥ ॥ वृपजानु जवन गई दूति ॥ ए देशी ॥ तव दसनयोति तम नरने, द तोमुनि कहे नरवरने ॥ त्यारे शरण होशे तु तेह, महापुरुष अंगीकरयो जेह ॥ १ ॥ तुम सरिखे बीजे पण नजियुं, विशेषे मे परिवजियुं ॥ ते Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. होशे तुजने त्राता, परनव जाता सुण झाता ॥ २ ॥ इम सांजलि ते न रनाथ, महा कौतुक लही मन साथ ॥ मरकलढुंदर मुखें बोले, रूडां वयए अमीरस तोलें ॥ ३ ॥ त्रिनुवन त्राता प्रनु तुमने, कुण शरण बीजुं कहो अमने ॥ ए अचरज कारी उदंत ॥ नापो विवरी नगवंत ॥ ४ ॥ त व मुनि कहे कथा ए मोटी ॥ नवनी ज्यां कोटा कोटी ॥ राज काज वशे वडिवार ॥मन न रहे तुमारूं तार ॥५॥ अधिकार असंख्य ले एतो॥ ते माटे कहिये केतो ॥ मनने घेरवा लहो मर्म ॥धर्मथी जोरावर कर्म ॥६॥ नापो मां एह, नगवान ॥ सुधापान तजी असमान ॥ जड पण करवा विषपा न ॥ किम चाहे कहे राजान ॥ ७ ॥ मेघने जिम ले मोर, चंदने जिम चाहे चकोर ॥ तिम वाट जोतां मुनिराज, पुण्यें पानधास्या आज ॥ ७ ॥ अवर तज्या आदेप, हवे लागे नहीं अन्य लेप ॥ ते माटे कथा तुमारी, विगतें तमें कहो विस्तारी। ॥॥ तुम वचन सुधारस पान, करवा चाहे मुफ कान ॥ सफली करीने ए प्रजा, पूरो प्रनु तेहनी वा ॥ १० ॥ चोथी ढालें चित चाहें, उदय रत्न वदे माहें ॥ जग जन तारक जिन वाणी, जावें सुजो नवि प्राणी ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ ७ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तव ज्ञानी गुरु बोलिया, सांनन थ सावधान ॥ एक ध्याने एक यासने, रंगें तूं राजान ॥ १ ॥काइक कहुँ तुज पागलें, मुफ वीतक म हानाग ॥ सांजलतां सूधे मनें, वधशे मन वैराग ॥ २ ॥ सर्वगाथा ॥७॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ ॥ नटियाणीनी देशी ॥ आ लोकोदर इण नामें, नगर विराजे हो वसे लोक अनंत जिहां ॥ नहिं जस आदि न अंत, अपर पर वस्ती हो पुह्ये नहिं खाली किहां ॥ १ ॥ सर्व संपदनुं गेह, पुरुषोत्तमने समुहें हो से वित जे जाणो सदा ॥ अचरजनो आश्रम, कोडा कोडी कल्पांतें हो जेहनो नंग नहिं कदा ॥२॥ नहिं ते योनि ने जाति, गोत्र ने कुल वर्ण हो नहिंसा विद्याने कला ॥ नहिं ते हिरण्यने हाट, नाटकने नहिं नीति हो, नहिं ते आगम आमला ॥३॥ धर्म कर्म नहिं तेह, वैनव ने विलास हो नहिं ते दर्शनने क्रिया ॥ नहिं वलि ते व्यवहार, रत्नने रंजादिक हो नहिं ते सुर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. पतिनी श्रिया ॥ ४ ॥ केतां कहियें नाम, बीजो पण पदार्थ हो जोतां को न जडे तिश्यो ॥ जे नवि दीशे त्यांहि, सर्व वस्तुमां हो रम्य ते पुर राजे श्श्यो ॥ ५ ॥ कटक सदा इहां दोय, मांदोमांहें जूंजे हो अंत न आवे ते हनो ॥ एक धर्म ने बीजं पाप, यन्योअन्य सुःख दाई हो दल ए बल बद् बेहनो ॥६॥ पाप सेनानो नाथ, मोह राजा महा वलि हो त्रिनुवन वश कीधुं तिणे ॥ अहितकारी अत्यंत, संसारी सदु जीवने हो जाय नहीं जी त्यो किणे ॥॥ इंश्नी पण ए बाण,मनावि पोतानी हो महीला रूप पालां धरी ॥ चकीने पण तेम, वाणुं लाख पायकनें हो पेखि वशवर्ति करी॥ ॥ ॥ राजाने करे रंक, सेठने सेनापति हो सारथवाह सचीवने ॥ दास ना जे करे दास, कुवासनायें वासे हो जे सद्ध पामर जीवने ॥ ए॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म, पिर करीने थापे हो तजावी तत्वनी वासना । अतत्वनो करी अनुकूल, अवस्तुनो आसंगो हो करावी राखे अासना ॥ १० ॥ त जावि पुण्यनो पद, पातकसुं पोसीने हो करावे जे निज चाकरी ॥ हिंसा अदत्त अलीक, मैथुन ने परिग्रहनी हो लगन लगावी याकरी॥११॥ निशि जोजनसं नेह, जोडावी जोरेसुंहो क्रोधानलें नाखी वली ॥ नारी मान शिलाएं, मायारूप नुजंगी हो मुखे मसावे रली ॥१२॥ पाडे लोन समु, पुत्रादिक संबंधे हो प्रेम तणे नरें ॥ यंत्री युवति रागे, घणनेहें घेरीने हो पीडे पग पग बदु परें ॥ १३॥ दोलतथी करे दूर, महत्व घटाडी हो देखा डी महादीनता ॥ आरति अरति अपार, नपाइने आपे हो जुर्गति नरकनी हीनता ॥ १४ ॥ अवतारे तिरयंच,कुत्सित नर योनिमां हो घालीने पीडे घj॥ सुःख दारिश ग्य, विडंबिने देखाडे हो वली कुगतिर्नु बार| ॥ ॥ १५॥ एम अनंती वार, जमाडे नवमांहे हो प्राणीने पीडे दुःखें ॥ अ हित तिणें कहेवाय, आचरणा वलि एहनी हो केती कहेवाये मुखें ॥१६॥ उदय रतन कहे एम, पांचमी ढालें हो परमारथ तुमें प्रीब्जो ॥ मेली मो हनो पास, आगम निसुणीने हो उत्तम गतिने बिजो ॥ १७ ॥ ॥दोहा॥ ॥ अहंकार कोप आदि दे, अद्भुत कटक अनंत ॥ आणकारि तेहने अडे, अति उहत बलवंत ॥ १ ॥ पीडे ते सद् प्राणिने, अहितकारी अ पार ॥ जेवो नृप तेवी प्रजा, अंतर नहीं लगार ॥ २ ॥ सर्वगाथा ॥एए॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १७५ ॥ ढाल बही॥ ॥ ईमर आंबा अांबली रे ॥ ए देशी ।। चारित्र धर्म नामें लहो रे, धर्म सेनानो नाथ ॥ शम दम यादें शोनतो रे, सबलो जेहनो साथ ॥ राजेसर, सुण मन राखी गय ॥ १ ॥ समकेत सत्य सुवासना रे, सदागम ने सद बोध ॥ अङव मदव उपता रे, जालम जेहने योध ॥राजे॥२॥ गंजीर धीर शौचादिकें रे, सुनट अनंतें सोय ॥ सोति ए सदु जीवने रे, हितवंबक ते होय ॥राजे ॥३॥ देव धर्म गुरुनेविषे रे, जे नपजावे राग ॥ अत त्वने अवस्तुनो रे, जेह करावे त्याग ॥राजे ॥४॥ सक्रिया जे शीखवे रे, दया धरी दिल मध्य ॥ अलिक अदत्त उबापिने रे, शील पलावे शु६॥ राजे ॥५॥ परिग्रहना महा पासथी रे, तुरत बोडावे तेह ॥ निशि नोजन मूकावीने रे, शमें शोनावे देह ॥ रांजे ॥ ६ ॥ सरल मृउ गुण सोंपिने रे, स्नेहनि सांकल तोडि ॥ नांजी वेडी रागनी रे, अरथनी यापे कोडि ॥रा जे० ॥७॥ गुरुता गुणने नपिने रे, लेणी लघुता अतीव ॥ सुजस व धारे जे सदा रे, सुमति आपे सदीव ॥राजे ॥ ७॥ नरक तिर्यंच गति रोकीने रे, आपे सुर अवतार ॥ नरजव द वलि निर्मलो रे, धर्मे धरावे प्यार ॥ राजे॥ए ॥ परमैश्वर्य पमाडिने रे, गुरू सधावे योग ॥ देवप | वलि देइने रे, जला विलसावे नोग ॥ राजे॥ १० ॥ एम सदु संसा रिने रे, सुख थापे संसार ॥ अंतें आपे शिवपुरी रे. तिणे जाणो हितका र ॥ राजे ॥ ११ ॥ बही ढालें चाहीने रे, कहे कवि उदयरतन्न ॥ धर्म जणी जे ध्यायसे रे,जय लहेसे ते जन्न ॥राजे॥१॥ सर्वगाथा ॥१११॥ ॥दोहा॥ ॥ एम ए दल जॅफे बने, सुख दुःख देवा काज ॥ सदा काल सदु जी वने, वढतां नावे वाज ॥ १ ॥ काल अनंतो अतिक्रम्यो, दल ते जूंके दो य ॥ हार क्यारे केनी दुवे, क्यारे जीते कोय ॥ ५ ॥ बलि ए बेदुथकी, त्रीजो त्रिनुवन राण ॥ कर्म परिणाम नामें प्रनु, मोटुं जस मंमाण ॥३॥ गुन अशुन रूपेंकरी, चरित्र विचित्र ले तास ॥ स्थूल मती नवि उत्तखे, योगी लहे गति जास ॥४॥ वडो नाइ ए मोहनो, काल परिणती कंत ॥ नाटक वन्नन जेहने, त्रिवन व्यापक तंत ॥५॥ लोकस्थिति नगिनी वडी, जेहने जाणे सङ कोय ॥ बाकी बल नहि केहy, तेह करे ते होय ॥६॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनकथा रत्नकोप नाग पाचमो. ॥ ढालं सातमी॥ ॥ दोणा दे रे मोड्या दोणा ॥ ए देशी ॥ कुदरत जो जो कर्मनी, वि ध विधना बनावे वेप रे ॥ नाच नचावे नवनवा, दिलमां रीफे नृप देख रे॥ में एहयो रे ते तो ने एहवो ॥ १ ॥ रासनरूपें करे देवने, रासनने करें देवरूप रे ॥ तिर्यचने करे नारकी, नारकीने तिरिय सरूप रे ॥ एहवो ॥२॥ कुंथुरूपें करिने करे, कुंथुने करे गजराज रे ॥ रंक करे जे रायने, रं कने करे महाराज रे ॥ एहवो ॥३॥ धनवंतने निर्धन करे; निर्धनने करे धनवान रे ॥ रोगरहित करे रोगिने, निरोगीने करे ग्लान रे ॥ २ एह वो ॥ ॥ शोकरहित शोकवानने, शोकरहितने करे शोकवंत रे ॥ सुखि याने मुखिया करे, मुखियाने करिमुखिया अनंत रे ॥ एहवो ॥५॥ ए हवी शक्ती एहनी, नापी जगवान रे ॥ विचित्ररूपी कह्यो ते वती, नहिं कोइ एह समान रे ॥ जे एहवो ॥ ६ ॥ देव मानव तिरिय नारकी, अनं त पात्रं मोह एम रे ॥ नृत्य देखाडे नित नवां, ए देखी रीके जेम रे ॥ एहवो० ॥७॥ चारित्र धर्म तणे पखें, थाय शुनरूपें ए सखाय रे ॥ अन्य दा मोहना पदने, पोपंतो रहे सदाय रे ॥ जे एहवो ॥ ७ ॥ ज्यारें पासुं करे जेहन, त्यारे तेहनी थाय जीत रे ॥साधारण समजो तिणे, एहवीक ही एहनी रीत रे ॥ ने एहवो ॥॥ उदयरतन कहे पातमा, बीजो मेली बनाव रे ॥सूधो सातमी ढालमां, समज जे कर्म सनावरे। एहवो॥१॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वे गोलीनो चरडु, ज्येष्ठ बंधुने जाण ॥ रूपो मोह राजा मने, व दे ते एवी वाण ॥ १ ॥ बंधव तुम पागल बहू, नेह धरी अमे नित्य ॥ नृत्य कला दावू नवी, जिम रीफे तुज चित्त ॥ ५॥ सदागम योगें ते सदा, नाटकनो करे नंग ॥ पात्र पहोचाडे शिवपुरी, वेरी करे विरंग ॥ ३ ॥ ॥ढाल अाउमी॥ ॥ रसीयानी देशी ॥ तो पण तुं तेहy पासुं करी, अमने मनावे रे हा र ॥ सहोदर ॥ ए लक्षण ताहाँ ढुं लहेतो नथी, एहश्यो ताहरो रे था चार ॥ सहोदर ॥१॥ इम नवि कीजें हो सुगुण सहोदरु, मूक तुं मननी रे गाढ ॥ सहोदर ॥ जाते दाडे हो पर नहि आपणा, हसतां न जश्य रे हा म॥ सहोदर ॥ ५ ॥ खांतें कहो किम ते खेल खेलिये, जेणे थाए घरमां Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १७७ रेहाण ॥ सहोदर ॥ पुत्र पीयारे हो निज घर नवि वसे, ए शीख तूं मनमां रेआण ॥ सहोदर ॥३॥ आचरण तारां कहो कोण उत्लखे, नानाविध ता रा रे ढंग ॥ सहोदर ॥ कुलनो बोलु बेरु तुं सही, जे शत्रुसुं करे रे संग ॥ सहोदर ॥ ४ ॥ तव हसी शिर चुंबो देश्ने, नुजसुं जरावी रे बाथ ॥ सहो दर ॥श्म बोले ते आंसूं वरसतो, करम संचय नर नाथ ॥ सहोदर ॥५॥ वत्स हूं जाणुं बु चेष्टा एहनी, जिम तुं नाखेडे रे तेम ॥ बंधवजी॥ मूल कापे ने ए सही आपणां, तो पण करिये रे केम ॥ बं० ॥ ६ ॥ स्वनाव माहरो ने ए रीतनो, तज्यो न जाय रे तेह ॥ बं० ॥ अनंत कालनो एह सुंमाहरे, चाल्यो आव्यो रे सनेह ॥ बं० ॥ ७ ॥ महोबत मेली न जाय ते हनी, जीव जो जाय तो जा ॥ बंon कांइक क्यारे समारं तेहनो, दिल धरी तेणें रे दाउ ॥बं० ॥ ॥ काज तुमारां साधुं दुं सर्वदा, तुमे 'बो मारी रे पांख ॥ बं० ॥ त्रिवनमां हूं गाजूं तुम वडे, जे कहो ते सधा रुं रे धांख ॥ बं॥ ए॥ तव त्यां मोह महिपति बोलिन, निज अव्यय पु रथी रे घेर ॥ बं० ॥ सहाय संसारी जीव आपो मुने, जिम करूं शत्रुने रे फेर ॥ बं० ॥ १० ॥ असंव्यवहार नामें निजपुरथकी, कर्मनूपालें रे ताम ॥बं० ॥ नव्य ने अनव्य बदु आपिया, अनुज ने सखाइ उद्दाम ॥ वं० ॥ ११ ॥ मोहनृपर्नु महत्व उपि तिणे, खलकमां वधारी रे ख्यात ॥ श्री ता जी ॥ उदयरतन कहे याठमी ढालमां, मोहनी मोटीरे वात ॥श्रो॥१२॥ ॥दोहा॥ ॥ चारित्र धर्मना सैन्यमां, वेगें ग ते वात ॥ निरानंद स घळ थयुं, सैन्य सुणी सहसात ॥ १ ॥ सर्वगाथा ॥१४३॥ ॥ ढाल नवमी॥ ॥ सहियां माहरां नयण समारो ॥ ए देशी ॥ तेहबुं ते देखी ने मंत्री, सदबोध कहे नृपने रली जी॥ स्वामी एम युं गलि जाबो, कायरनी प रे कलकली जी ॥१॥ आपद पडे उपाय तेहनो, उत्तम आलोचे मुदा जी॥ पग पसारी बेसवु शोने, क्लीबके कामनीने सदा जी॥२॥ उद्यम पांखे यावास लागे, बुद्धि विना जे बेशी रहे जी ॥ जलण तेहनुं सर्वस्व जाले, लान किश्यो कहो ते लहे जी ॥ ३ ॥ दिन स्वामी जातीमद घेख्यो, निज पराकम मूके नहीं जी॥तो ते फरी उदयने पामे,आपदने अंते सही Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. जी ॥ ४ ॥ धीरपणुं धरिने ते माटे, उपाय एहेवो कीजियें जी ॥ जिम एहनुं समाधान याये, रियणनो अंत लीजियें जी ॥ ५ ॥ तव मंत्रीने कहे म हाराजा, युक्ति ए तूं जाणे सवेजी ॥ ते माटे जे तुजने गमे ते, हुकमत ते कीजें हवे जी ॥ ६ ॥ निज स्वामीना पाय नमिने, सदबोध वलतो एम वदे जी ॥ मनमांहिंथी यारति मेली, वात एक धरजो हृदे जी ॥ ७ ॥ य वश्य प्रापणने जावं घटे बे, कर्म परिणाम कने वही जी ॥ जिम पावकें दाधा प्रालीनी, पावक पाडे समे सही जी ॥ ८ ॥ शत्रुनी पण समय नही ने, मरजी माफक चानियें जी ॥ जिम सघलुं बाल्युं जे में, घरमां तेहने फिरि घालिये जी ॥ ए ॥ पोखिएं बैएं आपण एहना, गुन पहने सर्वदा जी ॥ यापण वली प्रदेश एहमो, फेरवता नथी कदा जी ॥ १० ॥ चा करी ए चित धरीने, दिलासो देशे किश्यों जी ॥ खाखर एहवोऽष्ट नथी ए, जोतां मोहराजा जिश्यो जी ॥ ११ ॥ नवमी ढालें नेह धरी ने, उदयरत्न' इम उचरे जी ॥ जाण अबे जे जिन वालीना, फेरव्या ते नवि फरे जी ॥१२॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सदबोधनुं कयुं सांजलि, इत्यादिक व्यवदात ॥ चारित्रधर्म ते चित्तमां, राजा थयो रनियात ॥ १ ॥ खागल करि मंत्रीशने, थोडे से परिवार ॥ धर्म राजा तव धाइने, पोहोतो तसु दरबार || २ || सर्व गाथा ॥ १५७ ॥ ॥ ढाल दशमी ॥ ॥ निज गुरु चरण पसाय ॥ ए देशी ॥ सदबोध मंत्री ताम, अवसर जोईरे, कर्म राजाप्रति बोलिउरे || पडि वेलामां याज, प्रभु म साथेरे, तुमें पण अंतर कियोरे ॥ १ ॥ न घटे ए तुमने नीति, काल प्रमाणें रे, अधिके जे वडो रे ॥ स्वनावे तुमें स्वामी, श्रमशुं तेणे रे, यांटो न राखो ए वडो रे ॥ २ ॥ जुनी स्थितिने जोय, केहनुं कयुं रे, लेखे तुमें मत लेखवो रे ॥ पालो पूरव प्रीत, न करो एक पखो रे, इम न घटे ऊवेखवो रे ॥ ३ ॥ मौन रही वडवार, तव ते नृप रे, मनमांहि विचारिने रे । अव्ययपुरथी एक, हुने कार्जे रे, सहायक आस्यो धारिने रे ॥ ४ ॥ सदबोधने ते देखाडे, aart, araria युं तदा रे ॥ तमने पण एक एह, सहाय थाशे रे, अनुक्रमें सजो मुदा रे ॥ ५ ॥ दवणां तो एहनां तेह, वेरी थासे रे, अनु मति महार | बेशी रे ॥ नहिंतो कुटंब विरोध, थाय यमारी रे, करशोमां प्र Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवन भानु केवलीनो रास. gu चिंता कशी रे ॥ ६ ॥ खाखरें तुमने एह, जिम तिम करी रे, खाणी मेल वसुं मे रे ॥ ए वानो संदेह, रखे हृदयमां रे, रेख मात्र राखो तुमे रे ॥ ७ ॥ इम सुणी धर्म नरिंद, परिकर लेई रे, पहोतो पोताने घरें रे ॥ मंत्री कहे एम, एशुं की रे, कर्म नृपें कपटजरें रे ॥ मोह राजाने स खाय, बंधव जाली रे, बहु याप्यो मननी हरे रे || आपने दिन एक, तो पण जुन रे, देखाडशे कालांतरे रे ॥ ए ॥ तव मंत्री सद्बोध, हसीने कहे रे, स्वामी गुं सूयो नथी रे ॥ धेनु न गविठाण, लहियें ते वारू रे, मन सायें जुड़े मयी रे ॥ १० ॥ मोह बंधु हितवंत, आदेश कारी रे, सुनट सदु बे तेहना रे ॥ अंत तणा करनार, जग जाणीता रे, आपण वेरी एहना रे ॥ ११ ॥ बहिन वडी बलवंत, लोकस्थिति नामें रे, कर्म राजानी जे कही रे ॥ ते मोहनी वांबे जीत, अनंतमे जागें रे, आपणो जय बांबे सही रे ॥ १२ ॥ शत्रु अनेक हुं एक, ए पण इहां रे, खेद रखे राखो हृदे रे ॥ ए कलो जिम यादित्य, तमनर दले रे, फेरि जिम पायें नदे रे ॥ १३ ॥ ब दु कालें ते सहाय, मिलसे तेहनो रे, खरखरो न करो विनु रे ॥ पंख । नू रख्या माट, काची कतें रे, नंबर किम पाके प्रभु रे ॥ १४ ॥ शीघ्र न थइयें स्वामि, धीरां धीरां रे, कारज सघलां नीपजे रे || दशमी ढालें एम, उदय पयंपे रे, धर्मे धन सुख संपजे रे ॥ १५ ॥ सर्वगाथा ॥ १७२ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ एक चितें सब ए सुणो, चंड् मौलि नूकंत ॥ अचरज लहि इम चिंत वे, हो मंत्रि बुद्धिवंत ॥ १ ॥ यथार्थ नामें ए सही, धन्य मंत्रि सदबोध ॥ बीजानें इम बोलतां किम यावे अविरोध ॥ २ ॥ केवल इम अनुग्रह करो, इहां खावि मुनिराज ॥ याख्यानक कहि यापणुं, साखां यातम का ज ॥ ३ ॥ क इम थालोचिने, मिलित लोचन महिपाल || बोल्यो बे कर जोडिने, मन लहि मोद रसाल ॥ ४ ॥ नगवत चारित्र धर्मने, सोंप्यो जेह सहाय ॥ गुं गूं तेहने शंनल्युं खागल कहो उपाय ॥ ५ ॥ यति न त्सुक मन माह, सुगवा एह संबंध | कहो नगवन् सुपसायकर, प्रेमें एह प्रबंध ॥ ६ ॥ सर्वगाथा ॥ १७८ ॥ , ॥ ढाल अग्यारमी ॥ ॥ चरणाली चामुंमा रण चढे ॥ ए देशी ॥ मुनिवर कहे महाराजने, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. तव कर्म परिणामें मोदे रे ॥ असंव्यवहारथी नदी, धस्यो तेह व्यवहार निगोदें रे ॥ मुनि ॥१॥ तेह समीपें रह्यो तिहां, पोतें प्रबनरूपें सोई रे ॥ मोहादिक तव चिंतवे, जुगति तेहनी सर्व जोई रे ॥मुनिः॥२॥ अहो ए नायक थापणो, नारदरूप निहालो रे ॥गारना खीलानी परें, अस्थिर माया घालो रे ॥ मुनि ॥३॥ वणकरनी जेहवी नली, जेहवी घंटनी ला ली रे ॥ मृदंग जेहवं मातंगमुं, एहवी एहनी गति नाली रे ॥ मुनि ॥४॥ मध्य मणी जिम हारनो, तिम ए उजय पदगामी रे ॥ शीखामण पण देतां सही, हठ नवि मेले हरामी रे ॥ मुनि ॥५॥ अंगी जे एवं कयुं,ते हृदयमांहि नवि रघु रे ॥ नृत घट ऊपर जल यथा, चिढुंपासे जाए वयुं रे ॥ मुनिः॥ ६ ॥ जल जिम जलमो तापव्युं, वलि शीतल थाय विशेषो रे ॥ शीखामण शी सहेजने, जिहां अफल थाय उपदेशो रे ॥मुनि॥७॥ जोए थयो जे वेरडो,तो जाशे एहनी लाजो रे ॥ समय जोइ निज जुजबलें, था. पण साधयुं काजो रे ॥ मुनि ॥ ॥ श्म चिंतीने आवियो, ते संसारी जीव पासें रे ॥ मोहादिक मलि एकता,पुःख देवा नलासें रे ॥मुनि॥॥ जावी धर्म नूपालनो,नीरु जाणी टोक्यो रे ॥ अनंत उत्सर्पणी लगे,व्यवहार निगोदमा रोक्यो रे ॥ मुनि ॥ १० ॥ सुख दीधां कोडो गमें, जे संसारिने तेणें रे॥ अग्यारमी ढालें उदय वदे,ते कयुं न जाए केणे रे ॥मुनि॥११॥ ॥दोहा॥ ॥ कालांतरे कोइक समे, लाग लहिने तेह ॥ कम प्रथिवी कायमां, वास्यो तिहाथी लेह ॥ १ ॥ मोहादिक उष्टें मली, त्यां पण तेने निशंक ॥ घेरी राख्यो घण कुःखमां, उत्सर्पणी अशंख्य ॥२॥ श्म अप तेन वानमां, तेमज रोकी तास ॥ फुःख दीधां लाखो गमे, कर्मर्नु उपर जास ॥ ३ ॥प्र त्येक तरुमांहे पड़ी, शितेर कोडाकोडि ॥ सागरोपम राख्यो सही, दुःख द लख कोडि ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ १३ ॥ ॥ ढाल बारमी ।। ॥ गौतम समुश् कुमार ॥ ए देशी ॥ इम ते संसारी जीव, वलि मोहा दिकें, वलि वलि पाडो वालिने ए॥ वाश्यो व्यवहार निगोदें, प्रथिव्यादिक मां, फरि राख्यो तिहां घालिने ए ॥ १॥ श्म एकेडिमांहि, अनंत नत्सर पणी, फेरव्यो ते फरि फरी ए ॥ पुजल तिहां असंख्य, परावर्त्य तिणे, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २१ नव बदुला करि करी ए ॥ २॥ वलि पामी विचालु,कम ते तिहांथी, वि गलेंश्मिा वासि ए॥ ते जाणीने उष्टें, पू आवीने, परानव पासें पासि Jए ॥ ३ ॥ वरष संख्याता सहस्रं रे, तिहां वलि रोंकीने, निगोदादिक मांहे धस्यो ए ॥ असंख्याता पुजल, परावर्तावीने, विगलेंडी रूपें कस्यो ए ॥॥ संख्यातो तिहां काल रे, वासी ने वलि, एकेंदिमां याणि ए॥ वलि विगलेंश्मिांहे, वलि एकेडीमां, तेहने इम बदु ताणि ए ॥ ५ ॥श्म अवतरी वार अनेक, पुजल अनंता, परावर्त्त तिहां दुःख घणे ए ॥ वलि कम लहिय विचालु रे, अवतायो तेहने, समुर्बिम पंचेंश्यिपणे ए॥६॥ तिहां पण धायां पं रे, मोहादिक मली, अष्ट नव तिहां रोकीने ए ॥ पूर्व कोडि प्रत्येक, सुःख दीधां बटु, दया न आवी दोषीने ए॥ ७॥ अरि ने लहि अासन्न रे, वलि वाली पाबो, एकेडी अवतारी ए. वलि विगलें हिमांहि रे, समुर्बिम पंचेंडी,अवतारी दुःख.नारी ए॥॥श्म पुजल अ नंतरे, परावर्तावियां, ते संसारी जीवने ए॥ मोह राजानी साथें रे, फुःख मां रोकीने, राख्यो करतो रीवने ए॥ ए॥ बोल्यो बारमी ढालें रे, महा राजा मोहनो, जोरो जो जो नविजना ए ॥ सांजलि एह संबंध रे, चित मां चेतजो, उदय वदे थइ एकमना ए ॥ १०॥ ॥दोहा॥ ॥ अवसर लहि तव अन्यदा, तिरिय पंचेंहि मांहि ॥ कम ते अवतारि ड, अंगीकृत उजांहि ॥१॥ त्यां पण अरि आवी तिणे, पूर्व कोडि प्रत्ये क ॥ अष्ट जवां तस रोकिने, दीधां कुःख अनेक ॥ ॥ वलीकोधे वाली त्यां थकी, अवतास्यो ते जंत ॥ एकेडीथी आदिदे, गर्नज तिरय पर्यंत ॥३॥ पुजल परावां तिहां, आपदमांहि अनंत ॥ वलि म पंचेही कयो, तक सहि कर्मे तंत ॥ ४॥ सर्वगाथा ॥ २० ॥ ॥ढाल तेरमी॥ ॥ किरती अरजे जेम वारी ॥ ए देशी ॥ मोह राजादिक लहि ते मर्म, चिंते जोजो बंधुनां कर्म ॥ आघो आघो चलवे के एहने, जाणिये ने मेल वशे तेहने ॥ १ ॥ श्म बालोची ते संसारी, मोहें दीधो मांस अहारी॥ घj करावीने जीवघात, नरकमांहे ते नाख्यो अनाथ ॥ २ ॥ असंख्य काल त्यां कुखमां धरी, वली कर्मे तिहांथी उधरी ॥ विहंगम जातिमें Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वाइयो जेइ, वली मोहादिक क्रोध धरे ॥ ३ ॥ एकेंदियादि नरक पर्यंत, तेमांहे रुध्यो जंत ॥ पुल परावर्त अनंत, दुःख तेहनुं जाणे जगवंत ॥४॥ संमुर्बिम मनुष्यमा वलि सोई ॥ कर्मे सरजाव्यो तक जोई ॥ तिहां पण मोहादिकें व अष्ट || रोकीने दीधुं महाकष्ट ॥ ५ ॥ अष्ट अंतर मुहूर्त तिहां राखी ॥ वली तिमज दुर्गति ते दाखी ॥ संमुर्बिम अंते एकें । यादे ॥ जव बहुला कीधा प्रमादें || ६ || अनंत पुदगल परावर्त्तन कीधां ॥ मोहादिकें रोकी दुख दीघां ॥ गतागतें नही बाधा जेह ॥ ज्ञानी विना कुण जाणे तेह ॥ ७ ॥ वली कर्मों कांइक तक साधी ॥ गर्भज मनुज ती गति बाधी ॥ अनारजदेशें लहि यवतायो | तब मोहादिकें एम विचारयो ॥ ८ ॥ हा हा इ हो सहि हलिया ॥ न्यापाने लेखे नवि गणिया । श्रहो हो कर्म परिणाम देरी ॥ घली भूमि यो ए वेरी ॥ ए ॥ तव रसमृद्धि प्रवृत्ति ए नामें ॥ मुख मरडी बोली ते ठामें ॥ श्रम बलानुं जु बल सामी, सबलाने पण नाखुं दामी ॥ १० ॥ तो प्रभु प्रागल कहो ए से जे खे ॥ या तुमारी कुण कवेखे ॥ श्रादेश जो अमने या देव ॥ तो गले काली एहने ततखेव ॥ ११ ॥ तुमचरणे लावुं तहकीक ॥ वचन अमारां ए मा ठीक | द रत्न कहे तेरमी ढालें ॥ धन्य जे न पडे मोहनी जालें ॥१२॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तव मोह नृप मुखें बोलिन, कलट याणी कर ॥ यहो मारा सै न्यमां, स्त्री पण एहवी शूर १ ॥ इम कहि यापी यागना, वेगें घेरो जइ तेह || हुं पण तुम पूंठें लगो, बुं बुं दल नेह ॥ २ ॥ प्रभु खाणा यें त्यां जई, रस दियें दीन ॥ रसनो ते रागी कस्यो | मदिरामांस तल्ली न ॥ ३ ॥ प्रवृत्तियें जई प्रेरि ॥ जननी जगिनी साथ || अगम्यगमन न लट नरे, कराव्युं दिन रात ॥ ४ ॥ नरक गतें वली नाखीउ, तरत जेइने तेह ॥ म एकें मां फरी, रोक्यो काल बेह ॥ ५ ॥ पुदगल परावय तिहां, यापद नरे अनंत ॥ विपदा वेठी जे वली, ते लहे तेहज जंत ॥६॥ ॥ ढाल चौदमी ॥ ॥ नदी यमुनाके तीर नमे दो पंखियां ॥ ए देशी ॥ अनारज देश मजार ते कर्मे ॥ मातंगना कुलमांहि, ते मोहें जा लिउ ॥ १ ॥ घाट्यो नरक मजार, वलि नरजव दीउ ॥ तव महाजड जात्यंध, ते मोह नृपें Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलींनो रास. १७३ कीयो ॥२॥ किहां एक पाषाणरूप, विरूप वली कस्यो । एकेंझ्यिादिकमां हे के, धवधव ले धयो ॥३॥ रोक्यो केतो काल, वलि कम रती ॥ याप्यो नर अवतार के, अवसर अटकली ॥ ४ ॥ दरसनावणे ताम के, जाति बधिर पणुं ॥ पी कस्यो पबररूप के, कुःख देवा घj ॥ ५ ॥ तिमज फेख्यो तेह के, पहेलो जिम कह्यो ॥ क्यां एक पंगु मूक के, कुबजपणो लह्यो ॥ ६॥ क्वीब कांणो कुरूप के, दासपणो धरी ॥ वसक रि वार अनंत के, फेरव्यो फरि फरी ॥ ७ ॥ अनंता पुगल एम, परावर्तन कस्खा ॥ गण्या ते न गणायके, फेरा जे फस्या ॥ ७॥ कर्म परिणामें ते व ली, मनुजगतें तव्यो ॥ निजचर मोकली मोहें, तिहां पण परनव्यो ॥ए॥ उष्ट चरें ते किहां एक, कुष्टी महोदरी ॥ वायुरोगी पित्तवानके, गु ल्मी नगंदरी.॥ १० ॥ कंठ ने कर्ण कंपाल, तालु आदे घणा ॥ उपाया महा रोग, जिहां दुःखनी नहिं मणा ॥ ११ ॥ ताव पाहो अतिसार, द सन रसना गर्दै ॥ अधर ग्रीवा आंख रोगें ते, पीड्यो पदें पदें ॥ १२ ॥ कपोल रोगी बंध कुष्टीके, शिर रोगी कस्यो ॥ हृदय उदर पूनुं सूलके, आ म रोगें नयो ॥ १३ ॥ अंरुचि प्रमेह खीन रोग, आदि महा गद नरे॥ पीड्यो पाडे मुख रीवके, विलवे बदु परें ॥ १४ ॥ चौदमी ढालें तेह, ज ड्यो मोहने जणें ॥ उदय वदे महा दीन ते, घेखो गद घरों ॥ १५॥ ॥दोहा॥ ॥ जाण्यां अजाण्यां आचरे, औषध अनेक उपाय ॥ जिम तिम जे ते ना कह्या, नूकी क्वाथ बनाय ॥ १ ॥ अनद अपेय बे आदयां, मंत्र तंत्र बलिदान ॥ शरीर काज शंका तजी, पाप कस्यां असमानं ॥ २ ॥ पाप न रें पामी प्रगट, नर नवहारी जंत ॥ एकेश्यिादिकमा रुपनो, म ते वा र अनंत ॥३॥ मानव नव वलि एकदा, पाम्यो कर्म पसाय ॥ तव मन माहे कोपिउ, मोहराय तिण गय ॥ ४ ॥ सर्व गाथा ॥ २४६ ॥ ॥ ढाल पंदरमी॥ ॥ सोनारी जणी ॥ ए देशी ॥ राजा किहां एक मोह नरिंदें, दंम नाय क तेहने कस्यो ॥ सोई साधु नणि ॥ किहां रे आहेडी अति क्रूर, किहां रे कसाब कुलें धयो ॥ सो० ॥१॥ किहां रे धीवर किहां रे चंमाल, किहां रे मांसनदी घणो ॥ सो० ॥ किहां एक मद्यपानी मत्सराल, किहां एक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मंसा, हिंसकपणुं ॥ सो० ॥ ५ ॥ किहां खात्रपाडो खरो उष्ट, किहां एक साधु घाती कि ॥ सो० ॥ किहांएक कान तोडो कुलहीण, किहांएक दा सपणो दिन ॥ सो० ॥३॥ किहांएक धूर्त ठग धर्महीण, धाडपाडो परधन हरो ॥ सो ॥ कूडा घाटतणो घडनार, जनवंचक जोडागरो॥सो॥४॥ किहांएक बांद जलो कोटवाल, गुप्ति पालक मंत्रीसरू ।। देश नगरना दे अधिकार, खर कर्मनो कस्यो घागरू ॥ सो० ॥ ५॥ किहांएक नेल सने लमां नेलि, तेल इतु पीलाविने ॥सो० ॥ मदिरा मांस वेचावी क्यांश, किहांएक शस्त्र घडाविने ॥ सो ॥ ६ ॥ लोह लाख अने रस केस, हल मू सल खलतणा ॥सो० ॥ सोप्या बहु सावध व्यापार, घरटी आदि अति घणा ॥ सो० ॥ ७॥ वली सॉपी अधम अनेक, कुटुंब काजे आजीविका ॥ सो० ॥ श्म हिंसा करावी अनंत, उर्गतिनी जे दीपिका ॥ सो० ॥ ७ ॥ एकेडियादिकमांहि, वाश्यो तेहने वली वली ॥ सो० ॥ अनंतां पुजल ए म, परावर्तन कीधा वली॥सो॥ ए॥श्म मानव गति पुरमांहि, प्राणी ते पानो फरी फरी ॥ सो० ॥आव्यो त्यां अनंती वार, अवतार बदुला करी करी ॥ सो० ॥ १० ॥ उदय रत्न कहे इणि जांति, पनरमी ढालें प्रेम तूं ॥ सो॥ कथा ए सुणवा कान, नितप्रते आवजो नेमसं ॥सो॥११॥ ॥ दोहा ॥ ॥ मोह राजा हवे अन्यदा, मेली निज समुदाय ॥ मनसूं बालोची मुदा, इम बोल्यो तिणि ताय ॥ १ ॥ असंव्यवहार पुर आदिथी, मांझी थ द्य पर्यंत ॥ एसंसारी साथै जम्यो, मुफ आदेशे तंत ॥२॥ मिथ्या दर्शन महा सुनट, सेवक तेहना शूर ॥ ज्ञानावर्ण अज्ञान वे, जडवाव जेहनो नर ॥३॥ एत्रणेना प्रनावथी, देव धर्म गुरु नाम ॥ काने पण क्यारे नवि सुण्यं, जमतां तिण को नाम ॥४॥ लोक नाषित पण नवि लह्यो, केवल गमायो काल ॥ आहार निज्ञ मैथुन वसें, अवर जाण्युं सर्व आल ॥ ५ ॥ हवे सुणिएं एहवो, कनक पुरे कर्म राय ॥ अमरशेठ घरें यंग ना, नंदा नाम कहेवाय ॥६॥ तेहनी कुखें उपजावशे, पुत्र पणे पुर तेह ॥ कांक धर्म वासित अडे, तिण मुज चिंता एह ॥ ७ ॥ रखे पामे ते धर्म ने, धर्मी लोक प्रसंग ॥ अधर्मी पण लहे धर्मने, वसतां धर्मी संग ॥७॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवननानु केवलीनो रास. १. ज्य ॥ ढाल सोलमी ॥ ॥ जरमर वरशे मेह हो राजा परनाले पाणी पडे महारा लाल || ए दे शी ॥ मिथ्या दर्शन नामें हो राजा, मंत्रीसर इम सांजली, महारा लाल ॥ ताली जे प्रज्ञानने हाथ ॥ हो० ॥ मुखं तव बोल्यो मन रली ॥ मा० ॥ १ ॥ अहो ननुं थयुं एह ॥ हो० ॥ घी ढल्युं खीचडी ऊपरे ॥ मा० ॥ या न लोपे कोई ॥ हो० ॥ सेव ते अमरतणें घरें ॥ मा० ॥ २ ॥ माथे लई ते माटे || हो || काम ए में करवूं सही ॥ मा० ॥ इम करतां जो कां ॥ हो० ॥ मुथी निपजशे नहीं ॥ मा० ॥ ३ ॥ तो अनंत तमारे यो ध ॥ हो० ॥ एक एकथी बलिया घणुं ॥ मा० ॥ रसग्र६ यादी रौ ॥ हो ० ॥ अद्भुत दल बलातणुं ॥ मा० ॥ ४ ॥ तेहवो हुं नहि बलवान ॥ हो० ॥ जेह बल ने एहनुं ॥ मां० ॥ पग पग पाडे वाट || हो० ॥ मुह नव राखे हनुं ॥ मा० ॥ ५ ॥ स्वामी वडें संसार ॥ हो० ॥ अथवा बल दाखे सहु ॥ मा० ॥ तो माहारां वखा ॥ हो० ॥ श्ये कारणे बोल्यो ब दु ॥ मा० ॥ ६ ॥ तेहवें तिहां तरुणी एक ॥ हो० ॥ चिंतव्या मोह मंम पतनें ॥ मा० ॥ क्कीवसुं करती कलोल ॥ हो० ॥ बेठी बे बाहेर नूतनें ॥ मा० ॥ ७ ॥ ते मंत्रीना सुणि बोल ॥ हो० ॥ अट्टहासे ते हसी ॥ मा० ॥ क्की करे ततकाल ॥ हो० ॥ ताली लेईने नल्लसी ॥ मा० ॥ ८ ॥ तव विस्मित मोह नरिंद || हो० ॥ कठी श्राव्यो बाहिरें || मा० ॥ तिहां विपर्यय समुह श्रासने || हो० ॥ बेसी बोल्यो इलि परें ॥ मा० ॥ ए ॥ कहे वत्से तूं केम, हे नरे ॥ ए क्लीव में हसी इहां ॥ मा० ॥ तव प्र एमी तसु पाय || हो० ॥ तरुणी ते बोली तिहां ॥ मा० ॥ १० ॥ देवा सहुने दुःख ॥ हो० ॥ जालम हुं बुं योगिणी ॥ मा० ॥ वाहनांना पाहुं वियोग || हे० ॥ हुं आपदा इष्ट वियोजनी ॥ मा० ॥ ११ ॥ ए मरणना में महा योध ॥ हो० ॥ पंमक पराक्रमनो धणी ॥ मा० ॥ गणे त्रिभुवननें तृण मात्र ॥ हो० ॥ सूरो सुनट शिरोमणी ॥ मा० ॥ १२ ॥ इंशदिक माने खाण ॥ हो० ॥ अलंघ्य शासन एहनुं ॥ मा० ॥ धिंगी वे एहनी धाड ॥ हो० ॥ जगव्यापक बल जेहनुं ॥ मा० ॥ १३ ॥ जन बाल वृद्ध यु वान ॥ हो० ॥ उलखे एहने सदु ॥ मा० ॥ प्रभु प्रसादें एह || हो० ॥ बल धरावे वे बहु || मा० ॥ १४ ॥ उदय रतन कहे एम ॥ हो श्रोता ॥ २४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सोलमी ढालमांहे सुणो ॥ मा० ॥ यमने जीते जेह ॥ दो० ॥ जालिम जोर तेहनुं गणो ॥ मा० ॥१५॥ ॥ दोहा ॥ ॥ प्रनु तुम बंधु कनक पुरें, अमरशेतने गेह ॥ ल नंदा कूखें धस्यो, सत्व संसारी तेह ॥१॥ महिना वोल्या जिश्ये, तव सहि तुम अभिप्राय ॥ मरण सहायनी हुँ तिहां, ततखिण पहोती जाय ॥ २ ॥ तुरत तात तेह नो हस्यो, जननी जणतां खेव ॥ शेष कुटंब सर्व संहां, तुम पसायें देव ॥३॥ तव मरणे आवी तिहां, ते पण तीधो ताणि ॥ कुलमां कोई न क गयुं, नाम रह्यं निर्वाण ॥ ४ ॥ एकेडियादिकमांहि वलि, ऊमो धस्यो अथा ग॥ पुजल अनंत परावर्तशे, तब ते लहेशे ताग ॥५॥ मिथ्या दर्शन महत्त म, मंत्री मुखनी वाणि ॥सांनलिने स्वामी अमे, हस्यां बने ते गणि ॥६॥ ॥ ढाल सत्तरमी ॥ ॥ सुंदर हे सुंदर बालुं दणरी चाकरी ॥ ए देशी ॥ राजन हो राजन, मोह राजा मन वसि रह्यो । खिजमतकारी ते खंत ॥रा ॥ पराक्रम ते हनां सांजली, नपनो हर्ष अत्यंत ॥रा० ॥ मो० ॥१॥रा॥ तव प्रेमें अ वलोकिने, करगुं फरसी देह ॥रा॥ आग्रह नामें खवासने, कहे मोह रा जा तेह ॥रा०॥ मो० ॥ २ ॥ सेवक हो सेवक, जो जो महारा सैन्यमां, पंझकनुं पण जोर ॥ रा० ॥ त्रए नुवनमांहे एकलो, जेह पडावे शोर ॥ रा ॥ मो० ॥३॥ रा॥ मरणमुखें तव बोलिन, एह म कहो स्वामि ।। रा० ॥ प्रतापते प्रनुनो सही, जे सेवक साधे काम ॥रा०॥ मो० ॥४॥ यतः ॥ सिध्यति मंदमतयोऽपि यदत्रकार्ये, संनावनागुणमवैहि तमीश्वरा णां ॥ निद्यात्सपंगुररुणोऽपिकथं तमांसि, सूर्योरथस्य धुरि तं यदिनाऽकरि प्यत् ॥ १ ॥ मोह राजा वलतो वदे, वत्स सांजल कई वात ॥ से० ॥ जो तो चो ते जीवने, रहिजे तुं दिन रात ॥ से० ॥ मो० ॥ ५॥ मानव गति पुरिमां कियां, जोते यावे जीव ॥से ॥ तो उठवा पण तेहने. रखे देतो सुणि रीव ॥ से ॥ मो॥ ६ ॥से॥धर्म अदर जिम नवि धारे, तिम नमूली तास ॥से०॥ ततविण पाडो वालि ने, आणजे आपणे वास ॥ से० ॥ मो० ॥ ७॥ आण प्रमाण करी सवें, ठ्या न करी जेडि ॥से॥ मरणादिके मन मोदलं, कीधी जेहनी केडि ॥ से० ॥मो॥॥से॥ कर्मप Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. ០១ रिणामें ते आणिड, कुलटा नारिनी कूख ॥ से० ॥ इष्टौषध पानादिकें, गर्न थी घाल्यो दुःख ॥ रा॥ मो० ॥॥रा॥ वलि एशियादिकमां फरी, तेम ज राख्यो नेट ॥रा॥ वलि कर्मे काढी धस्यो, प्रथम गर्ना त्रिय पेट ॥रा ॥मो॥१॥रा॥ त्यां पण योनिना यंत्रमां, पीडाणोते प्राणि ॥रा०॥ ज गतां जननी सहित ते, मरणे लीधो ताणि ॥रा॥ मो॥११॥राण॥ वलि एकेडियादिकमां धस्यो, अहो अनंतो काल ॥रा० ॥ इम किहां इक वर्षनो, किहां बे चरषनो बाल ॥ रा॥ मो० ॥१२॥रा॥ वलि किहांएक त्रण वर्ष नो, एम अनंतीवार ॥रा ॥ मरणे ते लीधो हरी, न सह्यो धर्म विचार ॥ रा० ॥ मो० ॥१३॥ रा०॥ एम एकेडियादिकमां तेहने,वाश्यो वार अनंत ॥ रा॥ पुजल परावयां घणां, जेहनो नावे अंत ॥राण॥ मो० ॥१४॥रा०॥ सतरमी ढालें सांजलो, इम वदे नदयरतन्न ॥रा०॥ नरव पामी निर्म 'लो, करजो जीव यतन्न ॥ रा॥ मो० ॥१५॥ सर्वगाथा ॥ ३०१ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ श्री निलय नामे नगर, मानव क्षेत्र मकार ॥ तिहां धन तिलक श्रेष्ठ वसे, धनवति तस घर नार ॥१॥कर्म परिणामें अन्यदा, जीव संसारी तेह । तसु उदरें आवतारी, लघु लाघव कले लेह ॥ २ ॥ मिथ्या दर्शन मंत्रिने, मोह लही ते तंत ॥ जापे जय पामी मने, आतुर थश्अत्यंत ॥३॥ ॥ ढाल अढारमी ॥ ॥ आले लालनी देशी ॥ नीचां नमावी नयण, वदनें न वदे वयण ॥ आ लाल ॥ दण एक मनसुं आलोचिने ॥ शिर धूणी तेणि वार, मुख मेली हुंकार ॥श्रा०॥ सचिव कहे ते शोचिने ॥१॥ मन मान्या महाराज, कर\ सघलां काज ॥ आ० ॥ मुफ सबलुं कुल तेह अले, आज लगें प्रनु कां, वीरीय वासित नांहि ॥आ०॥ में पण मगन कस्युं न ॥२॥ या ज थकी ते माट ॥ विशेषे आणीसुं वाट ॥था॥ चिंता शी ए वातनी, त जावी तुम ताक, किहां ए जाशे वराक ॥ श्रा० ॥ नजर अमोघ दे नाथ नी॥३॥ अल्प कालें ए बान, गले काली राजान ॥ा॥ आणीसुं या पणे घरें॥ पण पांकीने आम, बीडं बबी बलधाम ॥या॥ मंत्री जई निज मंदिरें ॥४॥ वेठो चिंतामगन, लागी जोर लगन ॥ आ० ॥ कपाल थापी मावे करें ॥ अवनी जिमणे हाथ, खणतो थको मन साथ ॥ आ॥ आ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमी. लोचें रति नरें ॥ ५ ॥ कुदृष्टि नामें तस नार, पेखी कहे तिथिवार ॥ ० ॥ ० ॥ कु जगमां युवत। इशी ॥ जेहने काजें धरि राग, अरति करो बो प्रयाग ॥ ० ॥ कुरा तुम कालजमां वशी ॥ ६ ॥ रूप पुरंदर स्वामि, यु वती जन विश्राम ॥ ० ॥ मोहन मुनें कहोने खरूं ॥ कुण एहवी गुण वान, नारी रूप निधान ॥ प्रा० ॥ जेणें मन प्रजुनुं युं ॥ ७ ॥ तव ते कहे गुण खाण, हसतां पण ए वा ॥ सुरा वाम ॥ कहेवी सही न घटे तुने ॥ जे तुजविण बीजी नार || सूतां सुपन मजार ॥ ० ॥ दीवी पण न गमे मुने ॥ ८ ॥ कोइक कार्य विशेष, चिंता वर्ते बे एष ॥ तवसा नम री उल्लालीने ॥ कहेतुं स्वामी गुं काम, एहवुं वे उद्दाम ॥ ० ॥ जिसे रा युं बेचित घालीने ॥ ए ॥ लीलामां त्रिभुवन देव, वश करो ततखेव ॥ ० ॥ समरथने चिंता किशी ॥ कहेवा योग्य जो होय, तो कहो मुज या गले सोय ॥ ० ॥ चिंता जे चित्तमां वसी ॥ १० ॥ सु सुनगे में कांइ, श्राजलगें मनमांहि ॥ सुणो वाम ॥ कपट किश्यो नवि राखिने || मुज घर नो कारनार, तुहायें निरधार ॥ या० ॥ एशुं याज तें जाखिने ॥ ११ ॥ न दरतन कहे एम, सुणो श्रोता धरि प्रेम ॥ सुख का में, श्रागमने जे अन्यसे ॥ खदारमी ढाले तेह, नवनो लहेशे बेह ॥ सु० ॥ मन मान्युं तेहनुं थशे ॥ १२ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ चिंतानुं कारण हवे, सुण मन राखी ठाय ॥ कर्म परिणामें धर्मने, काजें एक सखाय ॥ १ ॥ अव्ययपुरथी ऊधरी, ऊंचो आयो तेह | सांप्रत श्री निलय पुरे, धन तिलक श्रेष्टी गेह ॥ २ ॥ धनवंती कुखें धस्यो, जीव संसारी सोय ॥ जिम जिम ते वाधे तिहां, तिम इहां चिंता होय ॥ ३ ॥ प्रतिज्ञा प्रभु खागले, पण पांकी ते काज ॥ में कीधी बे मजलसे, अहो बजे सुए आज ॥ ४ ॥ तें पण तेह सुणी हशे, कठिण ने ए काज ॥ इ तर लोकतली परें, फल न होय अवाज ॥ ५ ॥ सर्वगाथा ॥ ३२९ ॥ ॥ ढाल नगलीशमी ॥ ॥ गढ बुंदि हो वाला ॥ एहनी देशी ॥ चारित्र धर्म नृप बे चावो, संग्रा मे महा सुरो हो ॥ प्रिये पंकजनयणी, सुनगे सुख शशिवदना ॥ कर्म प रिणाम राजाने काने, ते लागो बे पुरो हो । प्रि० ॥ १ ॥ मोह राजानी माजा मुकीने, कर्म करे ने पासुं हो ॥ प्रि० ॥ याग उठे वे तिणे निजघर Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. नए मां, लोक करे ने हांसुं हो ॥प्रि॥२॥ आजलगें तो कुशलपणे ते,मे पूरण नथि पास्युं हो ॥ प्रि॥ फेरव्युं पण न फरे अमारूं, वेरीएं जे वायूं हो ॥ प्रि० ॥३॥ निपुण अडे शत्रु ए सघला, मुज मतनिमां जेवा हो ॥ प्रि० ॥ ए अम वासित जनना मनने, समरथ डे नांजेवा हो ॥ प्रि० ॥४॥ स म्यक् दर्शन नामें सहि माहरो, विशेष अजे ते वेरी हो ॥ प्रि० ॥ धर्मबुद्धि नामें ले धूया, तेहने गुणनी लहेरी हो ॥ प्रि० ॥ ५॥ सुरपति सरिखा से वे जेहने, चक्री जेहने चाहे हो ॥ प्रि० ॥ मगन थईने रहे मुनि मनमां, अवनीपति आराहे हो ॥ प्रि० ॥६॥ सुधी जन जेहनी संगति इने, ध्या नी जेहने ध्याये हो ॥ प्रि० ॥ उत्तम जन अंगीकरे जेहने, जे अमरने मो ह नपाये हो ॥ प्रि० ॥ ७ ॥ सकल सौजाग्य रूप सुधीनी, तरंगिणी ते रा जे हो ॥ प्रि० ॥ तापस पण ते. सद् तेहने, बबी अनोपम बाजे हो ॥ प्रि० ॥ ॥ वश्य करवा चाहे तेह पासें प्रथम एहने प्रेखे हो ॥ प्रि॥ अम वासित देखी जन एहने, अमने न गणे लेखे हो ॥ प्रि० ॥ ॥ थ म स्वामीना नक्त जे पूरा, जे रहे चरणें विलगा हो ॥ प्रि०॥ ततखिण ते हना मन एह नांजी, अमथी करे ते अलगा हो ॥ प्रि॥१०॥ उत्तम कु लनी नपन अबला, जे अदनूत रूपाली हो ॥ प्रियाशक थया जेह नर एहना, ते मेले तेहने टाली हो ॥ प्रि० ॥ ११ ॥ उपदेशे जे एहने लागे, तेहने संग बीजो न सुहाय हो ॥ प्रि० ॥ एहनी पूनमतो हीमे, निविड स्नेही थाय हो ॥ बि० ॥ १२॥ सार करीने माने तेहने, तेहy पासुंता गी हो ॥ प्रि० ॥ संसार सघलो तेहमें देखी, अमने वेरी जाणी हो॥प्रि० ॥ १३ ॥ पद अमारो एह सम्लो , ननमूले श्म जाणो हो । प्रि॥ चिं तातुर ढुं ते माटे, अवर न सांसो बाणो हो ॥ प्रि० ॥ १४ ॥ गणी शमी ढालें एम बोले, नदय रतन एकतानें हो ॥ प्रि० ॥ नविजन जावें त त्पर थाजो, जिन वाणी सुणवाने हो ॥ प्रि॥१५॥ सर्व गाथा ॥३३६॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तव सा कांक मन हसी, कुदृष्टि कहे सुणो कंत ॥ वणिकपा एतु मने, नयनी लागे नंत ॥ १॥ अर्कपत्र जिम दूरथी, शशि ज्योति सा दात ॥ व्याघ्र कर्ण नासे प्रनु, शरद पुनमनी रात ॥ २ ॥ तिम लागे तुमने, अबतो जय अनंत ॥ मन कल्पित कायर परें, शूरा नवि शंकंत Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ סס? जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥३॥ जीवन जेह तुमें कह्यो, कर्म करे पद ॥ स्वामी ते साचूं सही, ब लि एह अलद ॥ ४ ॥ अंगीकृतने ऊधरे, ते जाणो तहकीक ॥ पण केव ल केहनी नथी, वात कहूं नीक ॥ ५॥ अखंम अ ए आपणो, रिपु पखे ने रेख ॥ दाकिण लगे तेहने मिले. आपणा कुलनो एख ॥ ६॥ वे रि अ ते एहना, आपण एहनी बांह ॥ जे जेहना ते तेहना, बाखर दुए उबांह ॥ ७ ॥ ते संसारी जीवने, आज लगें एकंत ॥ रोकी दुःख दी धां घणां. जेहनो नावे अंत ॥ ७ ॥ मध्यम वर्ति त्यां जाणजो; राजा क म परिणाम ॥ एह विना तुमे तेहने, फुःख किम दे शको स्वाम ॥ए॥ नि ज घर वाहालूं सहूने, पाणी पाणीनी वाट ॥ आरवर जातां उतरे, नवो न शोने घाट ॥ १० ॥ सर्व गाथा ॥ ३४६ ॥ ॥ ढाल वीशंमी॥ ॥ वात म काढो व्रततणी, ए. देशी ॥ वाहाला सुणां वाल वानता, एहवं कह्यु तुमे जेहरे ॥ वेरी निपुण जे वासवा, ढुं नवि मार्नु तेहरे ॥ वा॥१॥ जो ते निपुण अति ने एहवा, तो काल अनादिना फरतारे ॥ एक निगो दना जीवने, वश्य कहो कां नथि करतारे ॥ वा० ॥ ॥ एक निगोदें जंतु जेता, तेहने अनंतमे जागे रे ॥ एवं कीधा आपणा, काल अनंते लागेरे ॥ वा ॥३॥ बाकी अनुचर तुमतणा, त्रिनुवन प्ररियुं तेणेंरे ॥ अनंत जंतु गण जेहनी, संख्या न थाए केणेरे ॥ वा ॥४॥ चोराशी लद चोवटे, नृत्य अनंतां थायरे ॥ जुतुमारा राज्यमां, नाटक चाव्यां जायरे ॥ वा० ॥ ५ ॥ तो निपुणपणुं पण तेहy, श्ये कामें आव्युं रोपेरे ॥ चांच बोले जो चरकली, तो सायर जल शुं शोपे रे ॥ वा० ॥ ६ ॥ जेह वली तुमें क ह्यो, धर्म बुद्धि तस वेटीरे ॥ इंशदिकने सेव्य , सौनाग्य गुणनी पेटीरे ॥वा० ॥ ७॥ सापनी नातें शीदरूं, देखी जिम को बीहेरे ॥ तिम तुम ने प्रचुं तेहनी, ब्रांति वशी ने हिएरे ॥ वा ॥ ७ ॥ घोडाचड जिम को क घणुं, तस्कर देखी त्रासेरे ॥ बीहिकें निज बल नवि लहे, सांसे पड्यो नवि नासेरे ॥ वा ॥॥ तिम प्रनु तुमे बते बले, शाने पड्यानो सांसेरे ॥ जालिम मोह राजातणो, हाथो में तुम वांसेरे ॥ वा० ॥ १० ॥ आपणे पण पुत्री अजे, धर्म बुद्धि इणि नामेरे ॥ तेहने पगसुं ठेसी परी, त्रिनुवन जेहने कामेंरे ॥ वा० ॥ ११ ॥ ते सम्यक् दर्शननी सुता, मुज पुत्रीनी बी Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १ केंरे ॥ गमन करे बाप गोपवि, नीर जिम चाले नीकेंरे ॥ वा ॥१२॥ जे आपणी तनयायें तज्या, वक्र अनें बहु वादीरे ॥ जे चर्चकने शक नया, ते नर एहना स्वादीरे ॥ वा ॥ १३॥ ते रांकडीने मुफ आगलें, गुं दाखो बो दीदारुरे॥ उदय रत्न कवियें कही, वीशमी ढाल ए वासरे ॥वा० ॥१४॥ ॥दोहा॥ ॥ वलि स्वामी गुं कहूं घj, जो पामो प्रजुनीत ॥ तो मुझने तिहां मो कलो, जिम जश्ने करुं जीत ॥ १ ॥ गले कालिने गेरसूं, तुम उहितानो करि दास ॥ ते संसारी जीवने, आणुं तुमारे पास ॥ २॥ प्रीतम ढुं प्री बुंअर्बु, इम मूकीने लाज ॥ न घटे बोलवू नारिने, विनययुं जेहने काज ॥३॥ धारत अलगी टालवा, जे जे कह्या जबाप ॥ महेर करी ते माह रो, अविनयं करजो माफ ॥४॥ सर्व गाथा ॥३६४॥ ॥ ढाल एकवीशंमी॥ ॥ सुग्यानी पास जिणंदावे, ए देशी ॥ सब सुख दायक सुंदरि, तूं मु ज प्राणाधार ॥ आज में तुजने पारखी, मारा घरनो तुं शणगार ॥ सया नी सुण सुखकंदावे, सुनगे में तुज बंदावे ॥ १ ॥ मिथ्यादर्शन मंत्री हसी तव, बोले एहवा बोल ॥ प्रिये महिला प्रधान , सहि राखवा घरनो तो ल ॥ स ॥२॥ मोह राजाना राज्यमा सघलें, राजे एहवी रीत ॥ मर द महिला प्रजें चले, परिघल दाखंतो प्रीत ॥स ॥३॥ ते माटे अति सुंदर दाख्यो, सुंदर ते ए नेद ॥ तिहां जाने प्रिया तुमे, अरिने नाखजो नद ॥ स ॥४॥ श्म सुणि सा अबला बोली, नाथ ए घटतुं नांहि ॥ पग होय जिहां तुमतणो, माझं बल चाले त्यांहि ॥ सुझानी साहेब मेरा बे ॥ स ॥ ५॥ मोहन विण गजूं सुं माहरूं, ते माटे सुणो स्वामि ॥ तु मे पण तिहां आवq, आपण शोनियें एकतामि ॥ स० ॥ ६ ॥ पासें रह्या अमें पेखशू, तूं तिहां करजे फेलाव ॥ कलत्र सुतागुं संचयो, इम मंत्री ते करिय बनाव ॥ स० ॥ ७ ॥ मोह नृपें वली केडथी मेल्या, आपद व्य सनने लोन ॥ लानांतरायादिक लह्यो, जे जगने पमाडे दोन ॥ सुझा नी सुणो श्रोतारूबे ॥ स० ॥ ॥ उदय वदे एकवीशमीं ढालें, जगने कर वा जेर ॥ मोह सम को मोटो नहीं, जेहनी आण फरे चोफेर ॥ स ॥५॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ दोहा ॥ ॥ हवे ते श्रीनिलयपुरे, धन तिलक शेठ धाम ॥ जायायें सुत जनमि ज, वैश्रमण धयुं तस नाम ॥ १ ॥ अनुक्रमें यौवन आविउ, करतां कला अन्यास ॥ तव निज अवसर उलखी, धन तृष्णायें तास ॥॥ आलिं ग्यो ग्लट नरें, गाढालिंगन देह ॥ अनिलाष तव तसु बल्यो, लागो ते हसुं नेह ॥३॥ तव सा रे तेहने, जो मुजसुं बढ़ प्यार ॥ तो धन काजें धाश्ने, विविध करो व्यापार ॥ ४ ॥ सर्वगाया ॥३७७ ॥ ॥ ढाल बावीशमी॥ ॥ बिंदलीनी देशीमा ढाल ले ॥ वसन सोवन मणि केरां, व्यापार करो जलेरा हो ॥ तृष्णा कहे तेहने । कण कस्तुरी कपास, विजो जिम पो चे आस हो । तृष्णा कहे तेहने ॥१॥ लोह फोफलने गली लाख, वोरो जिम फले अनिलाष हो ॥ ४० ॥ वाणोतर चलवो विदेशे, वाणना करों वणिज विशेषे हो ॥ तृ॥ ॥ नरी नांमसुं गाडी नूरे, देशावरे जा दूरे हो ॥ तृ॥ वलि वाहो कंटने पोती, बंदरप्रतें घालो कोठी हो ॥४॥३॥ मांझवी लिदाण वोलावी, लक्ष्मी जिम रहे घर अावी हो ॥४॥ लिगाम नगर इजारे, थान कोटीध्वज सकरारे हो ॥ तृ० ॥ ॥ करो खेतीने पशु पालो, जिम दरी नरे उचालो हो ॥ ४० ॥ खणो खाणने धातुर्वाद, अन्यसो धरीने आल्हाद हो ॥ ४० ॥ ५ ॥ रस बिन प्रवेश अ न्यासो, करी घरने जाडुत वासो हो ॥ ४० ॥ कारमा करीयाणां कर वा, शीखो वली कपट आदरवा हो ॥ तृ ॥ ६ ॥ एहवा सुगिने उपदे श, ननसिन तेह विशेष हो ॥ तृष्णाए प्रेखो ॥ तव तेहने कहे ते वा रू, उपदेश दीधो सुख कारू हो ॥ तृ ॥ ७ ॥ एह पाखें धननी रासि, किम आवे निज आवासि हो ॥ ४० ॥ इम कहीने विराज ते सघला, मांमया मेली मन अर्गला हो ॥ तृ० ॥ ॥ बावीशमी ढाल ए बोली, खांतें जो जो दिल खोली हो ॥ तृ॥ उदय कहे अागम पाखे, उर्गति पडतां कुण राखे हो ॥ तृ ॥ ए॥ सर्वगाथा ॥३६॥ ॥दोहा॥ ॥ अवसर जाणी आपणो,तव त्यां लानांतराय ॥ धनस्थाने वश्यो धा इने, वैश्रमणना घरमांय ॥१॥ तव तेहना परजावथी, कांणी कोडी मात्र ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १९३ लान न थाये हाटमां, तस्कर पाडे खात्र ॥ २॥ चिंतातुर मन चिंतवे, तेह तेणे प्रस्ताव । नाडुं नरीयें जेटलु, तेती न मिले आव ॥३॥ नाटक मात्र जो कपजे, तो वलि चिंते तेह ॥ वाणोत्तरी सूजे नहीं, वणज खोटो सहि एह ॥ ४ ॥ तसु लानें घर खरचनी, आरति करी अपार ॥ श्म नो गोपनोगादिक बदु, विध विध धरे विचार ॥५॥ खोट आवे ने अहो खरी, मूलगि पूंजीमांहि ॥ तो कोटिध्वज किम थायूं , एम चिंतवे त्यांहि ॥६॥ ॥ ढाल त्रेवीशमी ॥ ॥ जाटणीनी देशी ॥ धनने काजें हो ते धातो फिरे, न गणे रातने दी ह ॥ तृष्णाएं वाह्यो आरति नरें, न गणे नूख तृष बीह ॥ध ॥ १ ॥ ग रथनी करतां गवेषणा, जिहां तिहां. नमतां हो जोर ॥ एक दिन पुरुष एक नेटिन, चंचल जाते ते चोर ॥ध ॥ २॥ विलोकावे ते वैश्रमणने, एकां तें तेडी बानर्ण ॥ शिर कंचने श्रवणादिकनां, जहवेर जडित पंचवर्ण ॥ ५० ॥ ३ ॥ इंगित आकारें उलयां, चोरीनां एह सूत्र ॥ धनतृष्णायें त व धाश्ने, प्रेखो सेग्नो पुत्र ॥ध ॥४॥ होनारूं जे होयशे, निर्वहि लेयूं तेह ॥ दूध पीतां मांग वागशे, तो वागो ससनेह ॥ध० ॥ ५॥ श्म चिं ती अलंकार ते, अल्प आपीने मूल ॥ ते पासेंथी लीधा तिणे, जो जो लोननां शूल ॥ध० ॥ ६ ॥ तस्कर ते गयो जेहवे, तेहवे राजचरें त्यांहि ॥ आवि वणिक ते बांधिन, नूषणसहित नहि ॥ध० ॥ ७॥ ल गया लातिएं हणी, विगोता जिहां वसुधेश ॥ जाखे ते जइ नूपने, जन त्यां जु वे अशेष ॥ध० ॥ ॥ प्रनुजी नूषण तुमतणां, लोनें लीधां एण ॥ पठे वाश्या बांधिने, इहां पाण्यो ए तेण ॥ध०॥ ए॥ नृप कहे निश्चे एहने हणो, तव जनकें महाजन्न ॥ मलीने मूकाविळ, आपीने बदु धन्न ॥धo ॥१०॥ धन पिपासा प्रेस्यो वली, पुरमा हाट प्रनूत ॥ मंझावी मन मोद सुं, उद्यम करे अदनूत ॥ध ॥ ११ ॥ लानांतरायतणे उदे, लान न थाय लवलेश ॥ महा यापद पद पामिन, पग पग पामे क्वेश ॥ध० ॥ १२ ॥ प्रेयो प्रदेश चलाववा, धन तृष्णाएं ते धाय ॥ तव तातें ते मनें करी, अ न्य सोंपी विवसाय ॥१०॥१३॥ करियांणां बहु नांतिनां, गाडीये नरी गेल ॥ चाल्यो तेह देशावरें, खेलवा नवो खेल ॥ध ॥ १४ ॥ उदयरतन Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. कहे आतमा, तुं त्रेवीशमी ढाल ॥ लालच मेलने लोननी, जिम न पडे न वजाल ॥ ध० ॥ १५ ॥ सर्वगाथा ॥ ४०७ ॥ ॥दोहा॥ ॥ महा अटविमां मारगें, नूलो पड्यो ते साथ ॥ तरशें खोले तोयने, जलनी न मले जात ॥ १ ॥ आशा तूटी आपनी, तव मिलित लोचन मु औय ॥ जन सर्वे जगतीतलें, पड्या अचेतन थाय ॥ ॥ तिणे समे त्यां आवी पडी, महातस्करनी धाड ॥ सर्वस्व ते लूंटी गया, अटवी तेडी न जाड ॥ ३ ॥ सर्वगाथा ॥४१॥ ॥ ढाल चोवीशमी ॥ ॥ शालिन मोह्यो शिवरमणी रसें रे ॥ ए देशी ॥ नुवननानु नांपे। म केवली रे, चश्मौलि महाराय ॥ सावधान थइने सुणजे तुं 'हवे रे, पा तक जेम पलाय ॥ नु० ॥१॥ कोश्क कृपालु पंथिय ते समे रे, किहां ए कथी जल याणि ॥ थोडं थोडं सघला साथने रे, पायुं परमारथ जाणि ॥नु०॥२॥ स्वस्थ थया तव तेणें पंथिएं रे, जलाशय जणाव्यो तास ॥ तिहां जश्ने सदु जल पिये गली रे, अंग पखाले नन्नास ॥ नु० ॥३॥ सऊ थश्ने पंथसिरे सदु रे, आप तणी इलाएं ॥ संबल रहित तिहाथी संचया रे, जेहने पूरवे ज्यांएं ॥ नु० ॥ ॥ वैश्रमण पण एक गामें जा रे, तर स्यो नुख्यो तरुबांहि ॥ पड्यो पृथिवियें पग पसारीने रे, मूर्जित मारगमां हि ॥ नु० ॥ ५ ॥ दीन देखीने दया ऊपनी रे, कोइकने तिणि ठाम ॥ थ नादिक ते थापे याणिने रे, चेतन आव्युं ताम ॥ नु० ॥ ६ ॥ वलि था गल मारगें चालतां रे, श्रांत थयो अत्यंत ॥ पहोर पहोरे पण पग नवि कपडे रे, फर कर लोहि ऊरंत ॥नु॥ ७॥ रहि रहि पडीने मुळये वली रे, वलि विशोचे विरंग ॥ वैनववाहलां विरहें जूरतो रे, दीन थयो गति नंग ॥ नु० ॥ ७॥ गामो गामे नीख काजे नमे रे, तो पण न मले तेह ॥ अंतराय पापी आवी आडो पडे रे, उबल थइ तिणें देह ॥ नु० ॥ ए॥ न मतो जमतो श्म फुःख देखतो रे, पहोतो वेलाकुलें कोई॥ वाणोत्तर राख्यो वणिक लही किणे रे, कांक सधन थयो सोइ ॥ नु० ॥ १० ॥ तृष्णाएं प्रेयो तव मां तिहां रे, विध विधना व्यवसाय ॥ लक्ष्मी लाखगमें लाधी तिरों रे, एक श्लोक सुण्यो को गाय ॥ नु० ॥११॥ यतः ॥ इदक्षत्रं Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनजानु केवलीनो रास. १ " समुदश्व, योनिपोषणमेवच, प्रसादो नूनुजां चैव सद्योघ्नंति दरितां ॥ १ ॥ पोत पूरी तव तेह ॥ पयोधिमांहि तृ ० ॥ १२ ॥ बेह ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जलधिमां जातां थकां घटा करी घन घोर ॥ अंबर मंगल उन्हयो, चमक वीज चिहुं र ॥ १ ॥ कल्पांतकाल तणी परें, पवन वाया प्रति कूल ॥ दधि तव तिहां कबल्यो, जलधर प्रगट्या स्थूल ॥ २ ॥ जल मो जाना जोरथी, नाव थयां शतखंग ॥ वैश्रमण तव पामि, फलक तणो एक खं ॥ ३ ॥ चपल कलोलें जलचरें, याकुल यतो अपार ॥ तरंग त सुपसायथी, पाम्यो जलधी पार ॥ 8 ॥ सर्व गाथा ॥ ४२६ ॥ ॥ ढाल पचीशमी ॥ उदय वदे चोवीशमी ढालमां रे, प्रेरियो रे, चाल्यो धरि चूंप ॥ मालीकेरे बागमें दोय नारंग पकेरे लो यहो ॥ दो० ॥ ए देशी ॥ नाम पण निज देशनुं, न जलाए जे देशें लो, अहो न जाए जे देशें लो ॥ रा जेसर सुण रसरागीरे लो, स्वजननी न जड़े वारता ॥ पड्यो तेह प्रदेशें लो ॥ ० ॥ १ ॥ दुःखनरें तिहां रेहेतां थकां, रोगें तक साधी लो ॥ अ० ॥ दग्ध उपर फोटकपरें, वेदना बहु वाधी लो ॥ ० ॥ २ ॥ ज्वर शिर रोगशूलादिकें, महारोगें पीड्यो लो ॥ श्र० ॥ सूने देवकुलें सुए, ना ਕਰੇਂ " बहु नीड्यो जो ॥ ० ॥ ० ॥ ३ ॥ बेठकें हिंमे बेसतो, पडे प्रपाय लो ॥ ० ॥ मठ मढ़ियें लोटतो फिरे, आक्रंदे सराय जो ॥ ० ॥ रा० ॥ ४ ॥ नमतो रहे घर घरें, बोले दीन वाली लो ॥ ० ॥ पथ्य औषध याचे वली, पाये कोइ न पाली लो ॥ ० ॥ रा० ॥ ५ ॥ इम दुःखें दिन गालतां केते एक कालें तो ॥ ०॥ रोग रहित तव ते थयो, तृमाएं ते ता जें जो ॥ ० ॥ ० ॥ ६ ॥ उदेस्यो तव उद्यमें, लोनें करी लागे जो ॥ ० ॥ संपद काई न संनवी, तोय पाटो न जागे लो ॥ ० ॥ रा० ॥ ७॥ किहां एक नृप जूंटी लिये, धूते धूरत किहां रे लो ॥ ० ॥ चोर क्यारे चोरे वली, दहे अनि कोठारे लो ॥ ० ॥ रा० ॥ ८ ॥ इम ते टन करी बहु, नानाविधदेशें लो ॥ ० ॥ विषमथलें विचरे वली, वेठे विपद विशेषें जो ॥ ० ॥ ० ॥ ए ॥ वृश्चिक व्याल व्यंतरतणा, परानव सहे तो लो ॥ ० ॥ धर खणतो धन लालचें, हींमे गह गहितो तो ॥ श्र० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥रा॥१०॥ अरहट घटि जलोका परें, नरी उलवातो लो ॥०॥ मते यापद अनुजवी. जिहां तिहां जातो लो। अ० ॥रा०॥ ११ ॥दे श दारा धन स्वजनने, वियोगें वरिलो ॥०॥ नूपी- नमतो रहे, प्रारतियें आवरि लो॥ अ० ॥रा ॥ १२ ॥ तृमाने जोरेंकरी, इम उ दय ते बोले लो ॥ १० ॥ पंचवीशमी ढालें जुआ, जिहां तिहां ते मोले . लो ॥ य० ॥रा०॥ १३॥ सवेंगाथा ॥ ४३ए ॥ ॥दोहा॥ ॥ इणि परें नमतां एकदा, सुणो सदु श्रोता लोक ॥ मनमांहे कोश्क मुखें, सांजव्यो एक श्लोक ॥१॥ ॥ यतः ॥ ॥ आर्यावृत्त ॥ स्वज नधननुवनयौवन, वनिता तत्वाद्यनित्य मिदमखिलं ॥ ज्ञात्वाऽपत्रासहं, धर्म शरणं नर्जत लोकाः ॥१॥ सर्व गाथा ॥४४॥ ॥ ढाल बवीशमी ॥ ॥ काब्बानी देशी ॥ ए श्लोक सुणीने त्यांही, तव मनमांहें दो वणि क ते चिंतवे ॥ फुःख जे बागें जाय, कहियें तिहारे हो ते सदु म चिंत वे ॥१॥ धर्म न कीधो धाय, यतन करीनें हो ते जन्मांतरें ॥ धर्म विना जगमांहे, प्राणी पामें हो यापद बदु परें ॥ २ ॥ खिाने ते माट, ए क धर्म विना हो शरण बीजुं नथी ॥ अनेक धरो उचाट, पण पुण्य पाखें हो सुख न लहियें रति ॥ ३ ॥ चिंते कुदृष्टि ताम, मिथ्यादर्शन हो केरी जे गेहनी ॥ अहो अवसर अनिराम, बाजढुं पामी हो चिंता दुती जेहनी॥ ॥४॥ वैराग्य नामें विख्यात,अम वेरीनो हो सेवक ए सही ॥ ए पात्रमा हें सहसात, प्रगटियो दीशे हो इहां संदेह नहीं ॥ ५ ॥ जो आवशे एह नी केडि, वेरणी अमारी हो सम्यकदर्शनसुता ॥ तो अमने नाखशे नथे डि, उद्यम सघलो हो अफल करी सर्वथा ॥ ६ ॥ म चिंती उजमाल, धर्म बुद्धि हो नामें निज नंदिनी॥ ते पासें ततकाल, प्रेमें प्रेखी हो कुटुंब आनंदिनी ॥ ७ ॥ तेहतणे सुपसाय, उत्सुकपणे हो इम चिंत्युं तिणें ॥ नेहें निजघर जाइ, धर्म करीशुं हो हवे आदर घणे ॥ ॥ कारण पुष्टें कार्य, सहेजें थाये हो ते माटे जावं घरें ॥ एम बालोची ताम, जमतो जमतो हो गयो को बंदरें ॥ ए ॥ प्रवहण चढिन तेह, कोक जननो हो रही वतागरो ॥ निजपुरे पहोतो नेह, थलवट थश्ने हो अनुक्रमें पाधरो Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. 'एy ॥ १० ॥ मात पिता पर लोक, पहोतां तेहनी हो दिशा ते देखिने ॥ तव तसु वाध्यो शोक,घर हाटादिक हो पड्यां तिहां पेखिने ॥११॥ विध विध करे विलाप,भारति पूरे हो बातम निंदतो॥पूरव नवनां पाप, उदय आव्यां हो म कहि कंदतो ॥ १२॥ धर्म बुदें धरे मन्न, मावित्र केरां हो मृतकार ज करे॥कहे कवि उदय रतन, बवीशमी ढालें हो कर्म गतिनवि फरे ॥१३॥ ॥दोहा॥ ॥ एहवे समय मलि एकठा, चारित्र धर्मादिक ॥ प्रेखी सदबोधने प्रीत वी, कर्म परिणाम नजीक ॥ १ ॥ तव ते जइ कहे तेहने, अमने एक स हाय ॥ आगे कह्यो ने आपवो, मन मोजें महाराय ॥ २ ॥ कथन तेह कह्या पनी,अनंत अनंतीवार ॥ पुजल पराया तिरों,तोहे न आव्यो पार ॥ ॥३॥ आज लगें जुन अमने, वाते पण ससनेह ॥ महाराजा मेलव्यो नथी. जीव संसारी तेह॥ अंगिकस्यं जे उत्तमें युगांतें पण तेह ॥ अवश्य न थाये अन्यथा, कहो स्वामी गुं एह ॥ ५ ॥ सर्वगाथा ॥ ४५ ॥ ॥ ढाल सत्तावीशमी॥ ॥ पालीने बणाजो हो, मेडतिया ठाकुर ॥ ए देशी ॥ सदबोध मंत्रीने हो तव कहे कर्मनरेसरू, आंख नलाली एम ॥ वात सविगतें हो आज लगे पण एहनी, तुं नथि लहेतो केम ॥ स ॥१॥ ताकी दीन तुम सा मो हो थाणुं हुं हुं तेहने, पण मुफ बंधव प्राण ॥ फरिफरि ने पाडो हो वाले ते रांकने, जाणि प्रजानी प्रजानी हांण ॥ स० ॥ २ ॥ घरने वि रोधी हो आखर जो ताणुं घगुं, तो वाला वेरी होय ॥ मस्तकें लश्ने हो में पण निश्चय एकले, काज न थाए कोय ॥ स ॥३॥ नव्य स्वनावने हो लोकस्थिति उद्यम वली, काल परिणति आदि ॥ एदुनी रजा विण हो कां काज न नीपजे, पग पग मांमे ए वाद ॥ स० ॥ ४ ॥ ते माटे स दुसुं हो एकांतें आलोचिने, समय सही तुम काज ॥ निश्चयगुं करीने हो बोल जे बोल्या मुखें, तेहनी ने अमने लाज ॥ स० ॥ ५ ॥ कथन में तुम ने हो पहेलें जे कयुं अने, ते जिहां लगें पिंझमां प्राण ॥ वीसरी न जा ए हो तिहां लगि वीशे वसा, समको चतुर सुजाण ॥ स० ॥ ६ ॥ सदबोध पयंपे हो संप्रति सुणिएं लिए सुं, धर्म बुद्धि ते पास ॥ गई ते माटे हो आज पण अमने तुमे, झुं नहि मेलो तास ॥ स० ॥ ७ ॥ स्वनाव इणि ना Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. में हो निज मंत्रीवर करें, ताली लेइने ताम ॥ ऊंचे स्वरें हसीने हो एह वी वाणी कचरे, नरपति कर्मपरिणाम | स० ॥ ॥ धर्म बुद्धिसासाची हो हो हो जुन पारखी, ए गुं बोल्यो सदबोध || पूरण पाप बुद्धि हो जातें पहने जाणजो, सत्यशुं जेहने विरोध ॥ स० ॥ ए ॥ नाम धरावे हो धूतारी जगने धूतवा, एहनुं तो मुह दीव || सम्यक् दर्शननी हो सु ता ते वीजी वे, धर्म बुद्धि धरे पीठ ॥ स० ॥ १० ॥ मारी ए पखी हो जाणो उदयकारिणी, तमारी परखें विषकंद ॥ समूलो उनमुजे हो ए ह तमारा वंशने, चालतो दुःखनो कंद ॥ स० ॥ ११ ॥ सहुने सुखकारी होती धारा जिशी, अलौकिक वे ते एक ॥ श्रम बंधु मंत्रीनी हो पुत्री ए सदु जीवने, अरति उपाए अनेक ॥ स० ॥ १२ ॥ यनिधान सरीखें हो सहेज न होवे सारिखा, विंप जिम जलने जहेर || कहेवाए पण जहेरें हो जीवने जोखम कपजे, जलनी जीवाडे लहेर ॥ १३ ॥ प न कवाए हो कनकने नागर वेलनां, जिम बहु नापा जाति ॥ वृक्ष कही जें हो वलि बने जीबने, पण जूई जूई धात || स०॥ १४ ॥ दधि दूध घृ तादिक हो कांजी बहुविध तेलने, रस कहेवाए जेम ॥ बहेन कहेवाए हो नगिनीनी जिम सोकने, इणि परें जालो तेम ॥ स० ॥ १५ ॥ नाम सरीखें हो सरिखा गुण न होये कदा, जिम बहु विधनां धान ॥ उदय पयंपे हो एह सत्तावीशमी, ढालें सुखो धरि कान ॥ स० ॥ १६ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ कां कहेतुं मने नवि घटे, शत्रु मित्र समान || अधिके उले नवि गणुं, ए म सहज निदान ॥ १ ॥ श्रम बंधुना मंत्रिनी, पुत्री एह प्रत्य द ॥ श्रवगुण एहना मने, कहेवा न घटे मूख ॥ २ ॥ पण गुण अवगु ए जेहनो, जेवुं देखूं नयण ॥ त्राहित यमे दाखुं तिश्यो, कुरा शत्रु कुण सयण ॥ ३ ॥ तव स्वनाव कहे प्रभुजी सुष्णो, कह्यानुं शुं काम ॥ श्राचरण सघनांए लहे, तेहना जे वे स्वाम ॥ ४ ॥ शिर धूणी तव बोलि, राजा कर्म परिणाम ॥ श्रहो ए तें साचूं कयुं, धूरत ए बलधाम ॥ ५ ॥ एत होम गरढा जणी, हसि जांगे बे हाम ॥ युक्ति सर्व जाणे अबे, पण मंदी रह्यो मुह फाम ॥ ६ ॥ कांन ढांकिकरि तब कहे, सदबोध मंत्री सो य ॥ एवुं प्रभु म कचरो, तुम नजरें सब होय ॥ ७ ॥ हूं तो हवे जानं Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. अर्बु, जे कां अम योग्य होय ॥ कारज ते कहेजो प्रनु, अमने अवसर जोय ॥ ७ ॥ तव ते नूपति कहे फिरि, समय थाशे सर्व ॥ अाज जा घर आपणे, मूकी मननो गर्व ॥ ॥ वाणी जेह मुखें वदी, ते निफल न होशे नेट ॥ अर्थ अमे ए साधगुं, मननो सांसो मेट ॥ १० ॥ श्म सुणि मंत्री याविन, नेहें निज आवास ॥ वात सवें निज स्वामिने, आखे मन उन्नास ॥११॥सर्वगाथा ॥ १५ ॥ ॥ढाल अहवीशमी॥ ॥ राम सीताने धीज करावे रे ॥ ए देशी ॥ हवे माता पिता उख नरि अरे, वैश्रमण विपत्तें वरि ॥ कुदृष्टि सुता आवरित रे, तापस थावा मन करि॥ १ ॥ तिहां एक त्रिदंमि वसे वासें रे, स्वयंनु नामें तसु पासें॥ ते वणिक आधे तिहां रोज रे, सुगवा तस बागम बोज ॥ ५ ॥ सांजलता तेहनी शिदा रे, अंते लीधी तसु दीदा ॥पूरण निज पंथमां लीनो रे, शौ चादिकमा रहि लीनो ॥ ३ ॥ अपगल जलमां बांहि रे, नित्य नाहे न यादिकमांहे ॥ नाजन कोपीन उपगरण रे, रोज पखाले वार त्रण ॥४॥ गुरु पद पाम्यो काल केते रे, उपदेश कुपथना देते ॥ शुद्ध पंथने तेह न थापे रे, अन्यने निंदी आप थापे ॥ ५॥ बातम सर्व देवमें माने रे, उत्त म देवने अपमाने ॥ कुधर्म बुझे वश कीधो रे, मद मत्सरें घेरी लीधो ॥ ॥ ६ ॥ मरी एकेंझ्यिादिकमाहें रे, ते अनंत पुजल अवगाहे ॥ पुत्रीना प राकम जाणी रे, कुदृष्टि थइ सपराणी ॥ ७ ॥ मिथ्या दर्शन मोह राजा रे, ते वात सुणी थया ताजा ॥ आपणि उन्नति थाए ज्यारें रे, कुण मु दित न थाए त्यारें ॥७॥ वलि कमै तिहांथी निकाश्यो रे, ले। मनुज तणी गति वाश्यो ॥ ब्रह्मदत्त ब्राह्मण घर जायो रे, सोमदत्त नामें निपा यो । ए॥ तिहां पण कुदृष्टियें केडो रे, कस्यो रिपुनो करवानो मेडो ॥ प ति पुत्रीसुं जइ वलगी रे, अध ण न रही ते अलगी ॥ १० ॥ उष्ट दल तेहने उपराने रे, मोकल्यु वलि मोह नूपालें ॥ कुग्रह हिंसादिक बदुर्बु रे, पर दलने करे जे उहद्धं ॥ ११॥ तप तिहां पण तेह अपारा रे, करे याने वावे जवारा ॥ यागने काजें हणे बाग रे, तसु मांस नहाण धरी राग ॥ १२॥ हल लोह लवण तिल दान रे, गौ चूमि कन्या नपान ॥ दासी तुर ग शय्याने कपास रे, इत्यादिक थापे उन्नास ॥ १३ ॥ इम बीजां पण ः Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०0 जैनकथा रनकोप नाग पांचमो. खदाई रे, धर्मने बलें पातक धाई ॥ करावी ते पाड्यो नरकें रे, मलीने मो हने कटकें ॥ १४ ॥ ए अगवीशमी ढाल रे, सांजलजो थ नजमाल ॥ जदय रत्न कहे नन्नासें रे, पडता रखे मोहने पासें ॥१५॥ ॥ दोहा ॥ ॥ वलि तिहाथी लइ वासिन, एकेडियादिकमांहि ॥ परावर्ती परवश पणे, अनंत पुजल त्यांहि ॥ १ ॥ बौक्षादिक मतमां धरी, धर्म बलें अघ बेक ॥ करावि इणिपरें फेरव्यो, जीव ते वार अनेक ॥ २॥ . ॥ ढाल गणत्रीशमी॥ ॥रूडी रे रबारणी रमला पदमणी रे ॥ए देशी ॥ सौनाग्यपुर नामें न गरें वली रे, मानव खेत्र मकार ॥ गृहपति सुंदर घर उपजाविने रे, ते व रुण नामें कुमार ॥१॥ इणिपरें चिंते कर्म नरेसरू रे, में जीव-संसारी एह ॥ चारित्र धर्म समी नवि धस्यो रे,आज लगे फुःख गेह ॥३०॥२॥ नामें धर्मबुद्धि पण महा पापणी रे, जिहां लगि एहथी दूर ॥ न रहे तिहां लगि पहोचाडी नवि शकू रे, चारित्र धर्म हजूर ॥॥३॥ सम्यक् दर्शननी सुता विना रे, अलगी एह न थाय ॥ तेहने संगें ए लहेशे सही रे, शुक्ष दिशा सुखदाय ॥३०॥॥ शुद्ध दिशाएं श्रुति दूतीतयो रे, अरथी थाशे एह ॥ सु गुरु सदागमथी ते पामशे रे, योग मेलुं तिणे तेह ॥३०॥५॥ अनिप्राय क मनो एहवो उसखी रे, बीनो मोह नरें॥ कलुपाणो मनमुं रागकेसरी रे, धूज्यो क्षेप गजें ॥३॥६॥ मनसुं बीहीनो मोह नरेसरू रे, पाठांतरें॥ वज पड्यो जाणे सद्धने शिरें रे, तव मंत्री सामंत ॥मजलस मेलीने बेठा मली रे, बालोचे एकंत ॥३०॥७॥ तव को निज नाथने ते कहे रे, त्रिनुवन गं जन स्वामि ॥ तुमने पण सचिंता साहिबा रे, सहि तुमारे नाम ॥३०॥॥ दीर्घ निसासो मेहली ते कहे रे, जे तुमें कह्यो ते तंत ॥ चाबख सम पण महारी चाकरी रे, सुर पतिसा धूजंत ॥३०॥ ॥ मुज पायकने पण दो न पमाडवा रे, समरथ नहिं ने कोय ॥ पण सुं कीजे मुझघर वेरडं रे, बंध वें मेट्यो विगोय ॥३०॥१०॥ तेह कहेगुं नवं गयुं किमु रे, कर्म परिणा मने संग ॥ मोह वदे तव एक नवो इणे रे, नपजाव्यो ने रंग ॥३०॥ ॥११॥ सदगुरु संगें सदा मनो सहि रे, ते जीव संसारीने जोग ॥ मनसुं चाहे जे ए मेलवा रे, एहवू कहे जे लोग ॥ ३० ॥ १२॥ श्रम कुल कंद स Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवनजानु केवलीनो रास. २०१ . ते मूलो बालवा रे, जे दावानलनी काल ॥ श्रुति दूतिका ते पासें प्रेखशे रे, सरुम कुल काल ॥ ३० ॥ १३ ॥ उदय वदे उगणत्रीशमी रे, मारु रागें ढाल ॥ जाषी नवियण नावें सांजलो रे, खागें थइ उजमाल ॥ ३० ॥ १४ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तव हुंकारो मुख मुकिने, बोल्या सघला तेह ॥ जो एवं बे तो प्रभु, न करो चिंता ह ॥ १ ॥ घमे करीशुं एहनुं, जिम ए चिंता मूल ॥ ते गुरु यावी तिहां नवि शके, कारण नहि प्रतिकूल ॥ २ ॥ मोह राजा मन हर खिने, तव फिरि व्याखे तास ॥ वत्सो वेगें तेह करो, जिम सफल फले मुफ खास ॥ ३ ॥ इम कही ते कतावला, पाषक पहोता त्यांही ॥ अप शुकन थालोचिने, प्रेखा मारगमांहि || ४ || विविध विघन प्रेखा वली, श्रम प्रास शिररोग ॥ वत्र जंग नृप विग्रह, मरकी उपव सोग ॥ ५ ॥ गुरु यागमननो गेलशुं, जीत्यादिकें मनि जंग || कीधो हुकम ते केलवी, शत्रुनो लहि संग ॥ ६ ॥ कुदृष्टि सुता कथनेंकरी, धर्म बलें बहु पाप ॥ एकेंदियादिकमां ऊपनो, वरुण मरी ते आप ॥ ७ ॥ ॥ ढाल त्रीशमी ॥ ॥ शीरोहीनो शेलो हो दाडिम योधपुरी ॥ ए देशी ॥ वली मानव खेत्रें हो, विमलपुरें धरि ॥ रमण श्रेष्टि घरें हो, कर्म ते दुःख दरि ॥ १ ॥ यौवन पहोतो हो, सुमित्र नामें सोई । एक दिन कर्मे हो, तव तिहां तक जोई ॥ २ ॥ खाया याचारज हो, मोज घरी मनमां ॥ गुण जलधी पूरें हो, वहु शालक वनमां ॥ ३ ॥ संयमश्रीयें शोजित हो, पूरित प्रशमन्तरें ॥ तपे तप तेजें हो, जे सत्य शौच धरे ॥ ४ ॥ जय भ्रमरें नूषित हो, मु ख पंकज जेहनुं ॥ शीलें विलेपित हो, तनु राजे तेहनुं ॥ ५ ॥ सद् गुण शृंगारें हो, उपे अंग सदा ॥ चारित्र सीमायें हो, न चजे जेह कदा ॥ ६॥ सम कितने धरवा हो, थिर जे मेरु परें ॥ मति श्रुत ज्ञानी हो, मंमित मु निप्रकरें ॥ ७ ॥ तव शुद्ध सिद्धांतें हो, श्रोता तिहां रसिया || पुरजन नृ पादें हो, सहु यावे धसिया ॥ ८ ॥ मन क तिहां जावा हो, सुमि त्रे पण जेहवे ॥ ते लही मोहराजा हो, इम बोल्यो तेहवे ॥ ५ ॥ रे रे ग्र ही राखो हो, बाकी गई बाजी | इम सुलिने ससंभ्रम हो, ऊठ्या सहु गाजी ॥ १० ॥ रोके त राखवा हो, पायकने प्रेरी ॥ मोह महीपति हो, २६ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनकथा रनकोष नाग पांचमो. इम बहु उदेरी ॥ ११ ॥ बालस अलसावा हो, प्रेखे मूढपणुं ॥ कुटंबना रागमें हो, चडावी शूर घणुं ॥ १२ ॥ अवज्ञा करि आगें हो, मद बलव्या मांजी ॥ कस्या सज क्रोधादिक हो, प्रमाद कस्या राजी ॥१३॥ अदत्त गुण उप्यो हो, शोक कयो शूरो ॥ अज्ञाननयादिक हो, प्रेरी दल पूरो ॥१४॥ कपि गृह हट्टनी हो, सबल सजी सेवा ॥ विषय वकाया हो, वली व्यसन देवा ॥ १५ ॥ नाटक पेषणादिक हो, कौतुक कोडि सज्यां ॥ निज स्वा मीने कामें हो ॥ तिणे निज काम तज्यां ॥१६॥ किलली करि धायां हो, इत्यादिक संघला ॥ वेगें तिहां जश्ने हो, अनेक करी अर्गला ॥ १७ ॥ केणें कोक दिन हो, गुरु पासें जातां ॥ वलि ग्रहि ते राख्यो हो, विधन करी माता ॥ १७ ॥ ते गुरु पण एक दिन हो, विहार करे तिहांथी॥ ते पण मरी पहुँतो हो, आव्यो दुतो जिंहांथी ॥ १५ ॥ एकेंशियादिक हो, मांहे तिम राख्यो ॥ काल अनंतो हो, पहिले जिम जाख्यो ॥ २०॥त्री शमी ढालें हो,मोहना बल जेहq ॥ बल नथि केहy हो,उदय वदे एहवं॥२१॥ ॥दोहा॥ ॥ ते संसारी जीवने, एम अनंती वार ॥ फेरा तेमज फेरव्या, एकेंडि यादि मकार ॥१॥ अवति पुरि अवतारिन, गंगदत्तने गेह ॥ सिंधुदत्त नामें ते वली, कर्म परिणामें लेह ॥ २ ॥ यौवन जर जव आवीन, सुगुरु सदागम संग ॥ तव कर्मे जिम तिम करी, मेव्यो मन नबरंग ॥ ३ ॥ ॥ढाल ॥ एकत्रीशमी॥ ॥ रामचंदके बाग चंपो मोही रह्योरी ॥ ए देशी ॥ मोह लही ते वात, चिंता समुई पड्योरी ॥ कहे मेली निज साथ, अहो ए ऊंचो चड्योरी ॥ ॥ १॥ तरकस खुटा तीर, अंत अरीनो न आव्यो ॥ धरिएं किम करि धी र, फंद ए एहनो फाव्यो ॥ २ ॥ ज्ञानावरण सामंत, तव तिहां एम वदेरी ॥प्रनु तुम सुनट अनंत, एक एकथी अवधेरी ॥ ३ ॥ सागरथी सुणो स्वामि, अंजली एक जरी री ॥ नंदिनी शून्यता नामें, माहरी सङ करी ॥४॥ मोकलो तेहने पास, सुण्युंजे अफल करी री ॥ तब नृपें प्रेषी ता स, चालीसा प्रेम रीरी॥५॥ सिंधुदत्तना मनमांहि, जई तिणे वास कीयो री॥ तव तेहने गुरे त्यांहि, श्म उपदेश दीयो री॥६॥ मिथ्यादर्श न तसु नारि,तेहनी सुताने तजी री॥ श्रुत जे सुणे नर नारी, शिव सुख ते Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनजानु केवलीनो रास. २०३ ह् नजी री ॥ ७ ॥ गुण वखाएया गेलि, सम्यक् दर्शन तनयाना ॥ मोहने मेलो ठेलि, अर्थी या दयाना ॥ ८ ॥ मोहनुं दल महा दुष्ट, पग पग स हुने पीडे ॥ कोडी पाडे कष्ट, जव संकटमां जीडे ॥ ए ॥ चारित्र धर्म प साय, वली तस सैन्य बलें री ॥ लहियें लील सवाय, दुर्गति दूर टले री ॥ १० ॥ इम दीधो उपदेश, सिंधुदत्तने तेह सूरें ॥ पण थयो फल यशे ष, प्रबल महा शून्यता पूरें ॥ ११ ॥ पूबे तसु परषद लोक, मारगमां घरे जातां ॥ तें कां सांजल्यो श्लोक, ते कहे हुं नहिं ज्ञाता ॥ १२ ॥ मित्रा दिकने उपरोध, गुरुकने तेह गयोरी ॥ बीजे दिन पण प्रतिबोध, शून्यता एं न जह्यो री ॥ १३ ॥ चालली नीरने न्याय, तेहने गुरुनुं कह्युं री ॥ मन मां न रह्युं कांई, चित्त शून्यताएं ग्रयुं री ॥ १४ ॥ तव गुरु गया अन्य देश, कुदृष्टि कुधर्मबुधेंरी ॥ सिंधुदत्त वाइयो विशेष, कुमत कदाग्रह वधेरी ॥ ॥ १५ ॥ जव रही शून्यता क्रूर, तव ते रंग नरें री ॥ कयुं कुमतिनुं नूर, समी चित्तधरे री ॥ १६ ॥ एम करी पाप उपाय, एकेंदियादिकमांहि ॥ उपजी वेठे पाय, काल अनंतो त्यांहि ॥ १७ ॥ ए एकत्रीशमी ढाल, न दय रतन कही खाखी ॥ बलिराजानुं रसाल, चरित्र इहां बे साखी ॥ १८॥ ॥ दोहा ॥ ॥ हृदयांतर हवे अन्यदा, चिंते कर्म परिणाम ॥ अहो ए किसे बापडो, न हे धर्म सुता ॥ १ ॥ सर्वगाथा ॥ ५६८ ॥ ॥ ढाल बत्रीशमी ॥ ॥ ऊरमर वरशे मेह जरूखे वीजली हो लाल ॥ ज० ॥ ए देशी ॥ बंधव मुऊ बलवान, जोरावर जालमी हो जाल ॥ जोरावर जालमी ॥ उद्धत ए नो साथ, प्रबल महापराक्रमी हो लाल ॥ प्रबल महा० ॥ १ ॥ चारि त्र धर्म नरेंइनुं, जई जूए बज्युं हो जाल ॥ ज० ॥ ए संसारी जीवनुं, एह बुं नहीं गजुं हो लाल ॥ ए० ॥ २ ॥ तुङ थाए बल तास, कला करूं तेह वी हो लाल ॥ क० ॥ पण पोतानी पांख, पडे बे बेडवी हो लाल ॥ प० ॥ ३ ॥ विषम ए दोइ न्याय, हुए गुंजूरतां हो लाल ॥ दु० ॥ जे थाए ते था, प्रतिज्ञा पूरतां हो लाल ॥ प्र० ॥ ४ ॥ वडवानल वारिधि जेम, डुखें पण निर्वहे हो लाल || डु० ॥ शशक काजे शशि जेम, कलंक पोतें सहे हो लाल ॥ क० ॥ ५ ॥ उपकार करतां खाप, गुणी दय नवि गणे हो Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. लाल ॥ गु० ॥ जिम देह दजाडी दीप, दिशा तम ने हणे दो लाल ॥ दिए ॥ ६ ॥ धर्मादिक संघलां मुज, जो क्ष्य वां सदा हो लाल ॥जो० ॥ तो पण करूं उपकार, एह जागी मुदा हो लाल ॥ ए॥ ७ ॥ यतः ॥ उ पकारिणि कृतमत्सरे वा, सदयत्वं यदि तत्र कोतिरेकः ॥ अहितसहसावल ब्धे, सघण यस्य मनः समासधुर्यः ॥१॥ अपास्य लक्ष्मीहरणोजवैरतां, मा चिंतयित्वा च तदश्मिर्दनं ॥ ददौ निवासं हरये महार्णवो, विमत्सरा धीरधियां हि वृत्तयः ॥ ५ ॥ अथवा मारो पद गुन, पोषे जे ए नितें हो लाल ॥ पो० ॥ सम्यक् माहरूं स्वरूप, जाणे जे जे श्रुतें हो लाल ॥जा ॥ ॥ जगमां मुज अवदात, जणावे जोपर्यु हो लाल ॥ ज० ॥ त्रिनुव नमां पर सिह, चला चोपा हो लाल ॥ च ॥ ए ॥ नहितो महारुं कु ण नाम बतुं जगमा लहे हो लाल ॥ 5 ॥ प्रसिदिना अर्थी. पुरुष, ते गुं गुं नवि सहे हो लाल ॥ ते ॥ १० ॥ यतः ॥ तमसाऽनिशं शशांको, गगनं न त्यजति खममानोपि ॥ कैतावती प्रसिद्धि, यस्मादन्यत्र परिवस तां ॥ १ ॥ विजय वर्धनपुरें लेई, सुलस श्रेष्टि घरें हो लाल ॥ सु० ॥ सुत अवताखो सोय, कर्मे को अवसरें हो लाल ॥ क० ॥११॥ नंदन धयं नाम यौवन आव्युं जिशे हो लाल ॥ यौ० प्रउन्नपणे ज पास कर्मे या प्यु तिशे हो लाल ॥क० ॥ १२ ॥ खडग यथाप्रवृत्त, करण नामें सही हो लाल ॥ क० ॥ वली एक बानी वात, कर्णमांहें कही हो लाल का ॥ १३ ॥ ए खडगें अरिनो सुंद, कहुँ तिम मारजे हो लाल ॥ क ॥ शी खामण मनमांहि, नली परें धारजे हो लाल ॥ ज० ॥ १५ ॥ मोहनो सी तेरमो नाग कश्कि को सही हो लाल ॥ का॥ मेली नगन्योतेर नाग, अधिक केती लही हो लाल ॥ १० ॥ १५ ॥ ज्ञानावरणादिक चार, थ रीनो त्रीशमो हो लाल ॥ १० ॥ नामने गोत्रनो नाग, तजीने वीशमो हो लाल ॥ त० ॥ १६ ॥ गणत्रीशने गणीश, कांक अधिका वली हो लाल ॥ कां० ॥ हणजे तूं दुशियार, ए खडगे मन रली हो लाल ॥ ॥ ए०॥ १७ ॥ ए सातें थाशे दीण, कटक तव एहनु हो लाल ॥क० मुहनंग थाशे विशेष, गजुं युं तेहy हो ॥ लाल ॥ ग ॥ १७ ॥ तव नि न्यपणे महामात्य, सम्यग्दर्शन तणुं हो लाल ॥ स० ॥ देखीश तूं स हि हार, जे सुखदाइ घणुं हो लाल ॥ जे ॥ १५ ॥ बत्रीशमी ए ढाल बो Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. । २०५ ली, बहु नेदनी हो लाल ॥ बो० ॥ उदय रतन कहे एम, अरि उडेदनी हो लाल ॥ अ०॥ २०॥ सर्वगाथा ॥५ ॥ ॥दोहा॥ ॥ तिहां राग शेष रूपें अडे, छारें सजड कपाट ॥ ते अघाड्यानो पले, देखाडीj घाट ॥१॥ हमणा में ए जिम कह्यो, तिम तुं करजे तंत ॥ तव तेणें तिम आचयुं, अरिनो लेवा अंत ॥२॥ सम्यक् दर्शन मंत्रिनु, जव इणे दातुं हार ॥ तव कम सजुरुतणो, योग मेव्यो तिणिवार ॥३॥ सहायनी सोंपी ददता, शून्यसा जिणें पलाहि ॥ सुगुरु सदागम संगतें, कम पाण्यो साहि ॥४॥ ॥ ढाल तेत्रीशमी ॥ चनसदहणा ति लिंग ॥ ए देशीमां ॥ ॥ धारल्याननी देशी, रामगिरि रागें चाल ॥ मोह राजा मूर्ना लीनजी, 'झानावरण सामंत दीन जी ॥ नाम गोत्र शोकाधीन जी,रूए राग केसरी थ बलहीन जी ॥ बलहीन सघलुं सैन्य देखी, मिथ्या दर्शन नाम ए॥ मंत्रीश्वर तव थयो ऊनो,धरी हियामां हाम ए॥ अवस्था सदु निज साथ नी, अवलोकी अमरष जयो ॥ अश्रधान नामें महाअष्ट चूर्ण, ग्रही वेगें परवस्यो ॥ १ ॥ पहोतो जश् शीघ्रं ते नंदने पासेंजी, सुगुरु सदागम तव तिहां नासे जी॥ ते नंदन आगें आलस बांमी जी,मोह मिथ्या दर्शनना मांमी जी॥ मांझी कह्या मोह साथना,तिणे अवगुण एकेक ए॥ तव धर्म नृपना पदना पण,गुण कह्या अनेक ए॥ धर्मे सुर शिव दुवे संपद, पा नरकादिक लही ॥ तव ददता प्रनावथी, ते साचुं सघj सहही ॥ ॥ तव मिथ्या दर्शनें निज कामें जी ॥ उष्ट चूरणते अश्रवा नामें जी॥ हेला तसुदी, हिंमत योगें जी॥ तव ते चेती तास प्रयोगें जी॥तिणें प्रयोगें मति पालटी,चिंते ते नंदन ताम एकुण कर्म ने कुण धर्मने कुण,कुगति ने सुर धाम ए॥ किणे कांश दीटुं नहीं ए,बाल जिम तिम कचरे॥ फोगट माटें फंद मांमी, पेट नराम श्म करे ॥३॥ समीप वर्तिने शने शने एम जी, ताली लेइने कहे धरी प्रेम जी॥अहो चरचा ए चितनी उपाई जी॥ धीरजें युं कहे जे दृढ थाई जी ॥ दृढ थइ अहो धर्मनी ए, करे चर्चा फो क ए॥प्रत्यद ते प्रमाणियें, किणे दीठो ने परलोक ए॥ तिहारे कर्म राजा कोपिउ, मोहनी वाधी मानता ॥ तेना सुनट सघला सज थया, परिपूर्ण Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६। जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. पहेला जिम हता ॥४॥ सम्यक् दर्शन महामंत्रीने जी॥ घरे जश्ने ते प्रा पीने जी ॥ गले ग्रहीने कीधो यागें जी ॥ मोहने साथें क्रोध अतागेजी ॥ क्रोध अतागें तेहने तव, करावी महापाप, एकेंझ्यिादिक मांहि धरी, जोजो मोहनो व्याप ॥ वलि नर्क तिर्यंच मनुष्यमांहे, फेरव्यो ते फरि फ री॥ वार अनंती विगत तेहनी, ज्ञानी विण कुण लहे खरी ॥ ५ ॥पू रव रीतें खडग देखाडी जी ॥ मोहादिकने पातला पाडी जी ॥ सम्यक् द र्शन मंत्री हारें जी ॥ वार अनंती एणे प्रकारें जी ॥ वार अनंती गयो पण तिहां,पाम्यो नही प्रवेश ॥ रोग विषय रस क्रोधयोगे, अफल कस्या उ पदेश ॥ फरी मोहादिकें सऊ थर, एकेडियादिकमां धस्यो ॥ उदय रत्न क हे वार धनंती, तेत्रीशमी ढालें फस्यो ॥ ६ ॥ ॥दोहा॥ ॥ मलयपुर नामें नगर, मानव देत्र मजार ॥ इंश नामें अवनीपति, राज्य करे ते तार ॥ ॥ विजया राणी तेहने, तेहनी कूरखें तास ॥ थं गज पणे अवतारी, कर्म परिणामें खास ॥ २ ॥ विश्वसेन वारू तिहां, निरुपम दीधुं नाम ॥ अनुक्रमें योवन विउ, सकल कला गुण धाम ॥३॥ अशोक सुंदर उद्यानमां, एक दिन रमवा काम ॥ परिकर पूरें पर वस्यो, राजकुमर ते जाम ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ ६०२ ॥ ॥ ढाल चोत्रीशमी॥ ॥ फरमर करमर दो सेला मारु वरशे लो ॥ ए देशी ॥ तव कम हो सुगुरु सदागम योग, तिहां विश्वसेनने वनमा मेलि ॥ तेहने दर्शने हो उलस्युं वीर्य विशिष्ट,तिणें सुविशेष मोहने अवहेलि ॥१॥ त्यां ते खड्ने हो मोहादिक शत्रुनां तन्न,पूर्वेथी अधिक बेदी प्रेमने नरें॥प्रणमीने हो सुगुरु सदागम पास,कर जोडीने बेठो ते सपरिकरें ॥२॥ सदागम हो नपिने सु गुरे तास,श्रुतसंगम कीधो तव सा कहि ॥ विश्वसेनने हो श्रवणे लागी विर तंत, सुणतां जेहथी ज्ञान दशा लही ॥३॥ नमाज्यो हो नवसागरमांहे नूरि, नए नोला तुंने परें परें नोलवी ॥ प्रौढ पापीयें हो मोह राजाने प्र धानें, मिथ्यादर्शनें राख्यो उलवी॥४॥ गेहिनी संगें हो प्रेखी निजनंदि नी सोय, धर्मबुद्धि नाम तेहनुं जूतूं धरे ॥ महापापणी हो त्रिनुवनें नम ती तेह, सदु प्राणीने घेरी वश करे ॥ ५॥ धर्मने बलें हो करावी पापथ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २० घोर,पाडें नरक गते सहु प्राणीने ॥ मिथ्यादर्शन हो तात कुदृष्टि मात, म न तेहनां रीझवे हित आणीने ॥ ६ ॥ मिथ्यादर्शन हो कुदृष्टि जे करे क रतुक, श्यां श्यां मांमी ते कहूं तुफ पागले ॥ रागादिक हो दोष रहित जे देव, अदेवपणुं थापे तेहमां बलें ॥ ७॥ निःस्टहादिक हो गुणें जे रा जे गुरुराज, अगुरु बुद्धी तेहनेविषे धरे ॥ दयादिक हो सहित जे धर्म स दाय, ते धर्मना हेपी सदु जीवने करे ॥ ॥ कुदेव कुगुरु हो कुधर्मसुं क रे तल्लीन, विपर्ययपणुं नपजावी बदु परें ॥ आचरावी हो प्राणीने पाप अनेक, दूरतें सुःख दाखे सहुने शिरें ॥ ए॥ तुझने पण हो मोहादिकें म ली जोर, काल अनंतो कष्ट दीधा घणां ॥ सकुटंब हो मिथ्यादर्शन सु वि शेष, महा दुःख दीधा नवि राखी मणा ॥१०॥ तेहनी नारी हो पुत्रीएं पीड्यो जेह, सहस्र जीनें जो विवरीने कहे ॥ तो पण तेहनो हो पारन 'पामे कोय, उदय चोत्रीशमी ढालें इम कहे ॥ ११॥ ॥दोहा॥ ॥ श्रुति जाषित इम सांजली, जय पामी ते नूर ॥ गद गद स्वर गुरुने कहे, पद प्रणमी हित पूर ॥१॥ आज लगें प्रनु ए सवे, हूं नवि समज्यो कां ॥ आचरणे अज्ञानने, बातम मेव्यो बांई ॥२॥ एहवा मुफ अशरण जणि, वेरिये आणतां वाज॥ शरण होशे प्रनु केहy, उपदेशो ते आज ॥३॥ ॥ढाल पांत्रीशमी॥ ॥अणसण ते रे विरह अनाहक दीधुं ॥ए देशी ॥ गुरु कथनें फरी तेह ने रे, श्रुति समजावे विशेष ॥ वार अनंती में तुने रे,ए दीधो ले उपदेश ॥ गु० ॥१॥ किहां एक शून्यताने बलें रे, अंक्षानयोगें क्यांयें ॥ मद मो हषवशे किहां रे, शगुणने महिमायें ॥ गु० ॥२॥ कुदृष्टि सुताप्रसं गथी रे, जे में कह्यो ते लेक ॥ बातमहित अणवांबते रे, ते अफल कयुं अनेक ॥ गु० ॥३॥ हित उपदेश जे कहूँ हवे रे, ते तुं सुण सावधान ॥ उपयोगगुं तव ते सुणे रे, कर जोडी धरी कान ॥ गु० ॥ ४ ॥ सा कहे सु गुण सुधारसे रे, नरियुं सागररूप ॥ चारित्र धर्म के नूपति रे, जस राज धानी अनूप ॥ गु० ॥ ५ ॥ सम्यक दर्शन मंत्री जलो रे, सदागम सोदर सार ॥ सदबोध बंधु जेहने वडो रे, सर्व जीवनो हितकार ॥ गु० ॥६॥ पीपल पानतणी परें रे, मोह राजानुं सैन्य, धूजे जेहना नामथी रे, पामे Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០០ - जैनकथा रत्नकोष भाग पांचमो. अवस्था देन्य ॥ गु० ॥ ७ ॥ परें परें पीस्यो घणुं रे, सवधू सुता समेत ॥ मिथ्या दर्शनने जेणे रे, रंगेगुं रणखेत ॥ गु०॥ ॥ पाईयो धर्म प्रसाद नो रे, मोद तरुनु मूल ॥ धरवा गुण सुपीठने रे, फणीश्वर जे महा स्थूल ॥ गु०॥ ए ॥ सुख स्मृति विपदने ते नहीं रे, जे तूतो न आपे एह ॥ सम्यक् आश्रित सत्वने रे, पहोचाडे नव बेह ॥ गु० ॥ १० ॥ तनुजा बे एक तेहने रे, सकल सौनाग्य सदन्न ॥ धर्म बुदि सहि तेहy रे, नाम डे गुण निप्पन्न ॥ गुण॥११॥ जंतु जे एहने नजे रे, निबिड धरीने नेह ॥ सम्यक् दर्शन मंत्रीनुं रे, दर्शन पामे तेह ॥ गु० ॥ १२ ॥ दीठो जे उरगति हरे रे, शरणे राखे सदीव ॥ मोहादि त्रास पामे मने रे, जेहने नामे अ तीव ॥गुण॥१३॥ तस उहिता न लही जिणे रे, ते दर्शन न लहे तास ॥ सत्व ते शरर्ण विना सही रे, पग पग पामे त्रास ॥ गु० ॥ १४॥ जो गर जू होय तूं तेहनो रे,तो सा मेसुं तुज ॥ जिम नागेजवयातना रे, मननी मटे अनुज ॥ गु०॥ १५॥ पांत्रीशमी ढाल ए कही रे, जे मोहनीमांजे जाति ॥ सांजल जो साचे मने रे, उदय वदे इणि नाति ॥ गु० ॥१६॥ ॥दोहा॥ ॥ दर्शन तेहनुं देखवा, उत्सुक हूंडं आज ॥ दया करी देखाडिये, क हूं मेली लाज ॥ १ ॥ तव गुरुराजें तेहy, योग्यपणुं ते जोय ॥ श्रुतिमु खें सुविस्तरपणे, जपावे तक जोय ॥ २ ॥ मोह मिथ्या दर्शनतणा, कुद ष्टि साथै जोडि ॥ अवगुण फरी तिणे उचस्या, कुधर्मबुदिना कोडि ॥३॥ शुभ धर्म सूधी परें, त्यां लगे कह्यो अविरुच ॥ आदरवानी एहने, ज्यां लगे उपनी बुझ ॥४॥ सर्वगाथा ॥ ॥ ढाल बत्रीशमी॥ ॥ लेख आपीने कहावे ॥ ए देशी ॥ तव मगन थश्ने तेह, सशुरुने क हे सस्नेह ॥ जगवन तुम श्रुति सुपसाएं, धर्म बुद्धि हूं पाम्यो उडांहि ॥ ॥१॥ चित्तमा हवे चाहूं करेवा, तुम नाषित धर्मनी सेवा ॥ कुदृष्टि कुधर्म बुझिनो, संग न करूं अन्य लिंगीनो ॥२॥ नांषो करी तेणे सुपसाय, शु ६ धमें विधान नपाय ॥ तव गुरु कहे तारीए थिरता ॥ था अमने न बाहनी करता ॥ ३ ॥ श्रोता श्रुत अर्थी लाधे, वक्ता, महाबल वाघे ॥ गुम धर्म विधान कहेवाने, अमे पण थया एकतानें ॥ ४ ॥ शुद्ध धर्मनो Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलानो रास. ए थाय जे अर्थी, पहेलो परहो रहे ते परथी॥ मन वचन कायानी गुमें, निर्नय नेही एक बुझें ॥ ५ ॥ सम्यक् दर्शन विण स्वामी, अन्यने न करें शिर नामी ॥ मनसुं हित राखे बदुखें, दिल किहारे न करे मुहु ॥ ६॥ सम्यक् अाराधो एह, चडतां सुख आपे अह ॥ तव चिंते राजकुमार, आणी हृदयमां हर्ष अपार ॥ ७ ॥ अहो ए सम्यक् दर्शन केरो, प्रनाव दीशे जलेरो ॥ नाम पण अति सुंदर जेहनु, क्यारें दर्शनदेखीश तेह नुं ॥ ॥ अंतरंग आलोची एम, मनमांहे धरी ते प्रेम ॥ तव अवसर लखी तास, राजा कर्म परिणामें खास ॥ ॥ शुभता परिणाम स्वरूप, अपूर्व करण नामें अनूप ॥ दृढ तीक्ष्ण कठिन कुगर, एक आप्यो तेहने नदार ॥ १० ॥ कानमा वलि कही एक वात, तव उनस्युं वीर्य विख्यात ॥ युगतेसुं बथोक्तप्रकारे, पोलें जई तेह कुठारे ॥ ११॥ निबिड राग अने बीजो क्षेप, परिणति रूप लहो सविशेष ॥ ग्रंथी नाम कमाडनी जोडी, ततखिण ते नाखी त्रोडी ॥ १२ ॥ मोहादिक शत्रूने मथतो, उत्तम पंथ ने अनुसरतो ॥ अंतःकरण नामें सुविचार, महामात्य प्रसाद नदार ॥ १३ ॥ उदय रत्न वदे एम वाणि, बत्रीशमी ढालें जाण ॥ जिनवाणी जे सदहिसे, लान ते अपूर्व लहिसे ॥ १४ ॥ ॥दोहा ॥ ॥प्रतिझा पूरी थई, तव हरखी कर्म परिणाम ॥ यति विशुद्ध अध्यव सायमें, आपे एहने ते नाम ॥ १ ॥ अनिवृत्तिकरण नामें सें, वजदंमप्र चंग ॥ ते पामी तस ननस्यु, अनिनव वीर्य अखंग ॥ २ ॥ ष गजें मोह राजनो, सुत तेहना सुत दोय ॥क्रोध मान नामें लहो,अनंतानुबंधी सोय ॥३॥ तथा बीजो सुत मोहनो, राग केसरी पुष्ट ॥ माया तेहनी नंदि नी, अनंतानुबंधिनी कुष्ट ॥ ४ ॥ सुत तेनो वलि जालमी, अनंतानुबंधी लोन ॥ मिथ्या दर्शन मंत्रीश ते, जे मोहघरनो मोन ॥ ५ ॥ ए पांचे थ ति आकरा, ते दंमे हण्या पूंत ॥ मेहली नहि तेहनी किमे, कना थाये कत ॥६॥ तिम फेरी चूया तिणे, जीवित जगत सान ॥ महाअटविमां ज ई पज्या, मूर्नागत तजि मान ॥ ७॥ सर्व गाथा ॥ ६५७ ॥ ॥ढाल साडत्रीशमी॥ ॥ बाले वेसे ने बाबरी नाहनी ॥ए देशी ॥ श्मन सघलां दूर करीने, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनकथा रंनकोष नाग पांचमो. बहु दिननो लजायो रे ॥ अंतःकरण नामें तव मोहोलें, राजकुमर ते यो के दर्शन देखीने ॥ सम्यक् दर्शननुं सार, मोह्यो मुख पेखिने ॥ १ ॥ तिहां उपराम समकित रूपधारी, सम्यक् दर्शन मंत्रीने रे ॥ देखतां दि लवलस्युं तेहनुं, मृग जिम सुणि तंत्रीके ॥ द० ॥ २ ॥ पुष्करावर्त नामें घनयोगें, जिम तरु दवनो दाधोरे ॥ नवपल्लव थाए तिम तेणें, हर्ष पू लोके ॥ ० ॥ ३ ॥ जिम पंथी सर देखी रीके, ग्रीष्म ऋतु मरुदेशें रे ॥ दुर्जन वचनें दाधो जिम साधु, सुवचनें सीच्यों विशेष के ॥ द० ॥ ॥ ४ ॥ जनम दरि । जिम धन धारा, देखीने दिल हीसे रे || ही में बाव्यां जिम अंबुज विकसे, वारु वसंत जगीसें के ॥ द० ॥ ५ ॥ जिम विरही व नने योगें, मेघागमे जिम मोरा रे ॥ मालती नहीं जिम मधुकर माले, चंदने देखि चकोरा के || द० ॥ ६ ॥ मोहादिक वेरिएं मलिने, काल अ नादि अनंत रे || डुःख दावानल दऊव्यो ते प्राणी, एहवो तप्त अत्यंत के ॥ ६० ॥ ७ ॥ सुधारस पूर समो महा शीतल, देखी तास दिदार रे ॥ ति म विश्वसेननुं मन उल्लसियुं, आनंद पाम्यो अपार के || द० ॥ ८ ॥ त व गुरुराज कहे फरि तेहने, विगतेंसुं विस्तारी रे ॥ वली वली शीखामण वारू, जेसुं हितकारी के ॥ ६० ॥ ए ॥ साडत्रीशमी ढालें सुपो श्रोता, उदय रतन इम बोले रे | मुक्ति तो तेहने वें मुह यागें, जे दर्शनथी नवि मोले के ॥ द० ॥ १० ॥ ॥ दोहा ॥ कह्यो बे जो पूरवे, तो पण दृढवा काम ॥ सूरी कहे नृपसु त सुगो, एक चितें अभिराम ॥ १ ॥ ॥ ढाल प्राडीशमी ॥ ॥ हमीरांनी देशी ॥ रखेरे राचो कोई अन्यने, जीव सलामती सीम कुमरजी ॥ ण एहनी खाराधजो, निश्चयसुं धरी नीम ॥ कु० ॥ १ ॥ सुर पण न शके चालवी, दृढ तिम धरजो धीर ॥ कु० ॥ प्राणांतें पण प्रीवियें, व्रत नवि खंमियें वीर ॥ कुं०॥ २ ॥ शंका कंखा विगंडा वली, प र पाखंमी प्रसंग || कु० ॥ प्रशंसा पर धर्मनी, रखे करो मन रंग ॥ कु०॥ ॥ ३ ॥ पिंम प्रदान प्रपादिक, एहवा अनेक प्रकार || कु० ॥ समकितने ते सर्वथा, दूषणना देनार || कु० ॥ ४ ॥ श्रातम हितवंडक नरें, समकित राख शुद्ध || कु० ॥ थोडं पण जो मेलुं करें, तो मांगे मोहादिक युद्ध Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. ११ ॥ कु० ॥ ५ ॥ पापी ते सदु बलें पडे, तव समरी पूरव वीर ॥ कु०॥ को पें चड्या काली गले, लई जाए निज घेर ॥ कु० ॥ ६ ॥ विडंबी विविध परें वली, निर्दय तेह नितोर ॥ कु०॥ ते माटे तूं एहनु, जतन करजे जो र ॥ कु० ॥ ७ ॥ क्यारे जो ते पामशे, थोडो पण अवकाश ॥ कु०॥ तो बाधो गढ नेलसे, रखे करो विशवास ॥ कु० ॥ ॥ सम्यक दर्शनने स दा, आराधजे कचित्त ॥ कु०॥ पतिव्रता नारी परें, मेली मननी ब्रांति ॥ कु० ॥ ए.॥ चारित्र धर्म राजान ते, योग्य जाणि गुणगेह ॥ कु० ॥ देखा डशे दिन केटले, नक्तवत्सल प्रनु तेह ॥ कु० ॥ १० तनुजा बे ने तेहनी, अंगथी पण नहि अलगी। कु० ॥ परम वहनन प्रजित जगें, शीला रही जे विलगी ॥ कु० ॥ ११ ॥ साम्राज्य संपद दायिनी, प्रवर लदणोपेत ॥ कु०॥ सुख खाणी सुनगी घj, सकल सोहगर्नु खेत ॥ कु० ॥१२॥स वस्व गुणनी उरडी, देश विरति एक दिव्य ॥ कु० ॥ सर्व विरति बीजी स ही, नामें उत्तमतरें सेव्य ॥ कु० ॥ १३ ॥ एकमने आराधतां, चक्री चा रित्र धर्म ॥ कु० ॥ ते पुत्री तुने परणावशे, शाश्वत जे ये शर्म ॥ कु० ॥ ॥१३॥ तरवारनी धारा जिसुं, आराधन तास ॥ कु० ॥ सुजाराने सु खनुं मूल डे, अजाणने के कुःखरास ।। कुछ ॥ १५ ॥ त्रिविधं तेहने सेव तो, पामीश तूं सुख पूर ॥ कु० ॥ क्रमे क्रमे चडतो पगथिए, रहे तो तास हजूर ॥ कु०॥ १६ ॥ परम प्रसूता पद प, मुक्ति पुरीनुं राज्य ॥ कु०॥ पामीश परमेश्वरपणुं, जिहां वेरी न थाणे वाज.॥ कु० ॥ १७ ॥ अडत्री शमी ए ढालमां, नदय रतन कहे एम ॥ कु०॥ सुखिया तो तेहज सही, जेहने संयमसुं प्रेम ॥ कु० ॥ १७ ॥ ॥दोहा॥ ॥ सम्यक् ए सर्व सांगली, ते विश्वसेन कुमार ॥ सम्यक् दर्शन मंत्रि नो, सेवक थई तिणिवार ॥ १ ॥ नेहेंगुं गुरुने नमी, पोतो पोताने गेह ॥ कुमर ते सपरिकरें, लाहो अपूरव लेह ॥ २ ॥ सुगुरु वचन संनारतो, स म्यक् दर्शन सेव ॥ सम्यक् ते सूधा करे, नवे नेहें नितमेव ॥ ३ ॥ कर्म राजा तव चिंतवे, अहो प्रतिज्ञा प्राहि ॥ पूरी में पाडी हवे, चिंता न र ही कांहि ॥ ४ ॥ बांधव मुफ बदु कोपशे, जो आगें तो पण सत्य ॥य र्ध पुदगल उपहरी, एहने नहिं नव स्थित्य ॥ ५ ॥ प्रौढ सहाय प्रनाव Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. थी, नित्ति पुरिये नेट ॥ आखर ए सहि पोचशे, खेली मोह आखेट ॥ ॥ ६ ॥ सर्वगाथा ॥ ६७७ ॥ ॥ ढाल उगणचालीशमी॥ ॥ वैरागी थयो ।ए देशी ॥ अनुक्रमें ते राजा थयो रे, जनकें जातां पर लोक ॥ नूमिका तेहने नालवी रे, सोंप्यो सघलो लोको रे ॥ १॥ समकि त सांचवे, पाले राज्य पट्रो रे ॥ न्याय सुनीतिमु, उर्जनने करि दूरो रे ॥स ॥ २॥ निरानंद हवे एकदा रे, अमरषरहित अत्यंत ॥ पद पो तानो पेखीने रे, कोप्यो राग केसरी चिंत्यो रे॥ स ॥३॥ दृष्टि राग रूपें थई रे, वडो सुत मोहनो ते वीर ॥ पिताने प्रणमी संचयो रे, पहोतो वि श्वसेनने तीरो रे ॥ स०॥॥ बिइ जुवे बल कारणे रे, निशदिन रहे नि जीक,पण लांग न पामे ते किशो रे, थापवा निज मत ठीको रे ॥स॥५॥ पूर्व परिचित एकदा रे, तव एक तापस त्यांयें ॥ आव्यो पुर उद्यानर्मा रे, सांजव्युं ते नररायें ॥ स० ॥ ६ ॥ विश्वनूति नामें ते सही रे, कपट कलानो कोट ॥ दरी उष्ट विद्यातणो रे, चूके न मंत्रनी चोटो रे ॥ स० ॥७॥ आका अज्ञानना रे, जन सद् जोवा जाय ॥ पण नरपति नावे कदा रे, समकित जिणे उहवायो रे ॥ स० ॥ ॥ कोईक साथें कहाव्युं । गुं रे, तव ते त्रिदंमाएं तास ॥ दर्शनने पण यावतां रे, श्यो थाए विणा शो रे ॥ स॥ ए॥पूर्व प्रसंगतों वशे रे, दाक्षिण लगे नरदेव ॥ कां क मुहशरमें करी रे, तिहां पहोतो ततखेवो रे ॥स० ॥१०॥ मंत्र वि या कौतुक कला रे॥ तपसी देखाडे तास ॥ दृष्टिरागें तव तक लही रे, नृपघटें पूस्यो वासो रे ॥ स० ११ ॥ त्रिदंमिए तिम रीफव्यो रे, राजा आ वे तिहां रोज ॥ नित जोए कौतुक नवां रे, चित्तमांहे धरि चोजो रे ॥ स० ॥१२॥ चित्त चंचल थयुं कुमरतणुं रे, ते कुदृष्टिरागें कस्यो जेरो ॥ समकेतथी तव ते चट्यो रे, इम नाखे ते वेरो रे ॥ स ॥ १३ ॥ ए श्वेत पटा नितु जडा रे, कला न बूजे कां ॥ ए त्रिदंमि नगवानमां रे ॥ ज्ञान नणिम किसी ना रे ॥ स० ॥ १४ ॥ तव सम्यक् दर्शन चिंतवे रे, कुह ष्टि स्नेह काम राग ॥ रूपें इहां राग केसरी रे, प्रगट्यो पूर्ण लही लागो रे ॥ स० ॥ १५ ॥ एक ज्वरतणे जोरें करी रे, व्यापे सघला रोग ॥ तिम ए एकने बागमे रे ॥ श्रावशे यहां अरि उघो रे ॥ स० ॥१६॥ इहां रहे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १३ बुं जुगतुं नहीं रे, मुझने हवे ते माट ॥ अलोप थयो म चिंतिने रे, कु संग लही ते कुघाटो रे ॥ स ॥ १७ ॥ मिथ्या दर्शन मंत्रवी रे, किहांय थी प्रगटी त्यांही ॥ गले कालीने तेहने रे, नाख्यो निज फंदामांही रे ॥ स०॥ १७॥ कुलिंगी संग करावीने रे, धर्म बले बहु पाप ॥ एकेंझ्यिादि कमां धस्यो रे, मोहादिकें मली सपापो रे ॥ स० ॥१५॥ तिमज राख्यो तिहां रोकीने रे, तेहने अनंतो काल ॥ गणचालीशमी ए कही रे, उद यरतन ए ढालो रे ॥ स ॥ २० ॥ ॥दोहा॥ ॥ वली हवे ते एकदा, कर्म नृपें धरि हेत ॥ धन श्रेष्टीने धाम लेइ, उ पजाव्यो नर खेत ॥ १॥ सुनगनामा सुत ते सही, यौवन पाम्यो जाम ॥ सुगुरु सदागम संगथी, समकित पाम्यो ताम ॥ ॥ मिथ्या दर्शन आदि दे, उश्मन कीधा दूर ॥ सम्यक् दर्शननी सेवना, तिमज करे नरपूर ॥३॥ सम्यक् दर्शन मंत्रि जे, झायोपशमिक रूप ॥ त्रिविध आराधे तेहने, आ पी जाव अनूप ॥४॥ वरष केतां एक वही गयां, सुपरें करतां सेव ॥ प रण्यांपू एकदा, सुत तसु जगतां खेव ॥ ५ ॥ अवसर जाणी आपणो, वलि तिहां आव्यो वेग ॥ रोषनरें राग केसरी, उपजाव्या उग ॥ ६ ॥ ते सुनगतणां घटमां सही, बीजे रूपें बलवंत ॥ स्नेह रागमिमें संक्रम्यो, तव नपनो स्नेह अनंत ॥ ७ ॥ मात पिता नगिनीविषे, नाइविषे अति जूर ॥ दास दासी परिजन विषे, प्रीतिनुं वाध्यु पूर ॥ ७॥ बाहिरथी श्रा वे घरे, जो नजरे नावे कोय ॥ तो तेहने जोतो फिरे, नूरख्यो तरस्यो सोय ॥ ए॥ नजरें देखे तेहने, तव तसु थाय करार ॥ पुत्रतणा तो प्रेमनो, प रमेश्वर लहे पार ॥ १० ॥ सर्व गाथा ॥ ७१७ ॥ ॥ ढाल चालीशमी ॥ ॥ नणदल साखूडामां मोतीडो मणेर ॥ ए देशी ॥ वारी वेढुं मासानो बाल ते, वारी आलिंगे लई उत्संगे हो॥ बलबल बोरुडामां मनडो कि रहि 3॥वारी मुखपर मारखी गण गणे, वारी तो पण चुंबे मनरंगें हो ॥ ॥१॥ वारी खेलें खरडी नासिका, वारी लपनथी चुए लाल हो ॥ ॥ वारी कोकाकरी लुहे करें, वारीमल मूत्र बदु जंबाल हो ॥ब० ॥२॥ वारी के. घाली क्रीकलो, वारी त्रिक चोक चाचरे तेह हो ॥ ॥ वारी सुत ग्रस्तनी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. परें नमे, वारी गलियां गलियां पुर लेह हो ॥७॥३॥ वारी अनेक विधे दु लरावतो, वारी लोकनी न गणे लाज हो ॥३०॥ वारी दिन सारो लागी र हे, वारी जोजन न करे काज हो ॥ब० ॥ ४ ॥ सुखें रातें सूए नहीं, वा री जिहां नवि लंघे ते बाल हो ॥ब० ॥ वारी जर निंदामांथी नड किन, वा रीठे सेवा संजाल हो ॥ ब० ॥ ५॥ वारी जनकनांनाणामांहेथी,वारी मीतुं मधुरं नेह हो ॥ ॥ वारी आसडी जाए सवे, वारी खातो थयो जव तेह हो ॥ब० ॥ ६ ॥ वारी तिहां तिहां साथे संचरे, वारी जिहां जिहां जाए ते बाल हो ॥ ॥ वारी जे जे कांई जोश्ये तेहने, वारी चि त्तमा राखे चाल हो ॥३०॥७॥ वारी निशालें जई नित्य, वारी पठावे रही पास हो ॥ ॥ वारी पांडसपाडां बहु करे,वारी पूरे पंमयानी बास हो ॥ ब० ॥ ७॥ वारी व्याधितणे उदय वली, वारी अधिक करे उचाट हो ॥०॥वारी ते ऊपर खडो रहे. वारी अहनिशि सूवे न खाट हो॥ ब० ॥ए॥ वारी वैद्य तेडावे वलि वलि, वारी औषध करे अनेक हो । ०॥ वारी जाणा जोषीने नूवा, वारी विध विध मेले विशेष हो । ॥ १० ॥ वारी मंत्र यंत्र मणि औषधी, वारी अनेक परें कतार हो । ॥ वारी करीश्म करतां कांश, वारी जो न पडे करार हो ॥ ११ ॥ वारी हिंमत तो हारे हिए, वारी सुखी थईने दीन हो ॥ ॥ वारी विविध परें विलवे घj, वारीसंघे भारती लीन हो ॥ ॥ १२॥ वारी हाहा गुं थाशे हवे, वारी नावे कां अमने मोत हो ॥ ३० ॥ वारी अती नेहें म चरे, वारी घर गयुं सर्वस्वसोत हो ॥ब० ॥ १३ ॥ वारी चालीशमी ढालें जुन, वारी स्नेहवरों गई सान हो ॥ ॥ वारी उदय रतन कहे ते हने, वा। सुगजो सद्ध सावधान हो ॥ ॥१४॥ ॥दोहा॥ ॥ इम करतां मोटो थयो, जालिम तेह जुवान ॥ परणावी तस प्रेम सुं, कन्यारूप निधान ॥ १ ॥ हाट बेसाडी हेतसुं, शीखवे रही समीप ॥ वणिज कला तसु वेगसुं, कुमर लही कुल दीप ॥ २ ॥ धनद शेग्नुं धन सवे, सुनगे सोपी तास ॥धव धव कीधो घर धणी, अंगें धरि नन्नास ॥ ३ ॥ लेवू देवू ते वसू, गरथ ने गृहव्यापार ॥ पोतें कांई प्री नही, बेगे रहे घरबार ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ ७३६ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनमानु केवनीनो रास. Ա ॥ ढाल एकतालीशमी ॥ || लाल वेसरदे ॥ ए देशी ॥ इम अंगजनी चेष्टा लीनो, नावतें जरमां रही जीनो || लाल सुत नेहें, मनसुं मुंजाणो ॥ सु० ॥ पापें पथराणो ॥ सु० ॥ ० ॥ १ ॥ सुत स्नेहें ते जो जो सुनगो, दुर्गति लहेसे महा 5 नगो ॥ जा० ॥ २ ॥ दिलमांहे न संनारे देवा, वली वीसारी गुरुसेवा ॥ ला॥ ३ ॥ सुत विसायां पड्यो सांसे, मुखथी न कहे सामी वरांसे ॥ ला० ॥ ४ ॥ अलगा रह्या गुरुना उपदेश, वेरणि थइ धर्मकथा विशेष ॥ जा० ॥ ५ ॥ सम्यग्दर्शन नामें पण तेह, यारति मने नही बेह || ला० ॥ ६ ॥ स्नेहरूपें राग केसरी बलिउ, लहि ने तिहांथी कचलि ॥ ला० ॥ ७ ॥ सम्यक्दर्शन नामें पण तेह, खारति मनें लही खबेह ॥ ला० ॥ ८ ॥ मिथ्यादर्शन मंत्रीसर धायों, लेइ परिकर ने तिहां आयो || ला० ॥ ए ॥ सुनगता घटमां सकुटंबे, यावी वश्यो अवलंबे ॥ ला० ॥ १०॥ जात वधूनो जव थयो जोरो, तव संचास्यो तिरो दोरो ॥ जा० ॥ ११ ॥ तिणे दोरे सुतनो दिल फरिनु, तव तातनो गुण विसरिज || ला खाठे पहोर उद्वेग उपाय, ए दीवो अम न सुहाय ॥ ला० ॥ १३ ॥ स घला अनर्थनुं ए मूल, खमने सुखमांहे जगावे शूल ॥ ना० ॥ १४ ॥ सु खें बेसी रहेवा न दीयें, अवगुण केता मुख वदीयें || ला० ॥ १५ ॥ इम चिंति घरमाथी नेटे, बापने काढ्यो ते वेटे || ला० ॥ १६ ॥ सुधर्म बुद्धि तजी ते सुनगो, अंगज वधूथी घणुं उनगो || ला० ॥ ७ ॥ घर घर जी ख मागीने खाय, किहां रे पेट पूरुं न नराय ॥ जा० ॥ १८ ॥ मन वचन ने काया केरां, करी पातक तेह घोरां ॥ जा० ॥ १९ ॥ तिमज एकेंदि यादिकमां जमिन डुःखें मोहादिकें दमि ॥ ना० ॥ २० ॥ एकतालीश मी ढालें कहे उदय, श्रावक विण कूल हूए सदय ॥ जा० ॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥१२॥ ॥ नरनव वलि कर्मै दियो, सिंह नाम नर सोय ॥ अनुक्रमि समकि त पामिन, यौवने प्राव्यो जोय ॥ १ ॥ विषय राग त्रीजुं वली, रोषें ध रिने रूप ॥ वश्यो तेमां राग कैसरी, मन हरख्यो मोह नूप ॥ २ ॥ शब्द रूप रस गंध फरस, तेहना त्रेवीश नेद ॥ तीव्र राग तेहनो घरे, प्रहनि शि तेह उमेद ॥ ३ ॥ रमणीरागें इंजिन, मांजी सौनो मोह || खापें ज Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ६ अलगी वश्यो, खिण नवि खमे विडोह ॥ ४ ॥ जे सा बोली ते खलं, बीजो न गमे बोल ॥ हितकारि तेहy कयुं, मनसुं मानि अमोल ॥ ५ ॥ वाहला सदु विष सारिखां, वनिता अमृतवेलि ॥ शरण न को श्यामा स मुं, बाला समी न बेलि ॥ ६ ॥ मनसुं तो इम मानतो, अवरां कहे अव हेलि ॥ सुखनुं मूल सुंदरी, बाकी घीनो मेल ॥७॥ सर्वगाथा ॥७६२॥ ॥ ढाल बेतालीशमी ॥ ॥ तट जमुनानो अति रलियामणो रे ॥ ए देशी ॥ तव तसु नारी रे 'निज जोरो लही रे, जूनां दास दासी जेह ॥ दूर करीने रे दूजां दिल ना वतां रे, राख्यां घर रंग लेह ॥ १ ॥ नखरां जो जो रे निर्लज नारिना रे, अडखिल मेहली नचालि ॥सलिल सुगंधे रे स्नान करे नितें रे, वेणि वधा रीवाल ॥ नः ॥ २ ॥ सुरनिव्ये रे नित नीनी रहे रे, पहेरे मन गमता वेष ॥ जूषणनारे रे अंग नांगी पडेरे, दर्पणमा रहि देख ॥ न० ॥३॥ ली पेरें गंजे रे नोजन नावतां रे, मन माने ये मोज ॥ जे जे गमे रे ते ते जारगुं रे, रमणी रमतें रोज ॥ न॥ ४ ॥ माया गाली रे तो पण ते मा नुनी रे, न्यायने वचनें नाथ ॥ जीनने जोरें रे नली परें नोलवे रे, जो जो युवतिनी जात ॥ न ॥५॥ पवित्र ए नारी रे ने पतिव्रता रे, सति थामां शिरदार ॥ दयिता माहरी रे जे देवपूतली रे, नांखेश्म जरतार ॥ ॥ न० ॥ ६ ॥ एक दिन तेणे रे पारखा कारणे रे, अबतो दोष उपाय॥ माथामांहे रे माखो पग पानिएं रे, तव तस मर्दै ते पाय ॥ न० ॥ ७ ॥ कहे का जूतुं रे नही ए कामनी रे, चतुरा पडि मुने चूक ॥ आज पड़ी एह रे, नहि आचरुं रे, दिलमां न धरो दूरख । न० ॥ ॥ जो वलि चुंकू रे इम करतां कदा रे, तो चंदन रसथी जोर ॥ शीतल तुम पगें रेप हार करी मुने रे, सुख देयां बल फोर ॥ न ए ॥ तव सा चिंते रे दास ए रांकने रे, श्याने जमाडं नूर ॥ जे गमे मुने रे तेहने लावू घरें रे, शंका मेहेली दर ॥न॥१०॥ तव बीजे दाडे रे जर दोषा समे रे,अंगणे तेडीए क ॥ नर कोई तरुणो रे नाथने ते कहे रे, सुणो स्वामी सुविवेक ॥ न०॥ ॥ ११ ॥ पितृतुं प्रेष्यु रे पितृलोकथी रे, मनुज आवी रह्यं बार ॥ ते मु ज साथें रे करवा कांई वारता रे, श्ये एकांतें अपार ॥ न० ॥१२॥पण हूं न करूं रे तमने पूज्या विना रे, पर घर नंजा लोक ॥ मननुं कल्प्यु रे का Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १७ लें कहे किश्युं रे, अब्ता उपाइ दोष ॥ पण हूं० ॥ १३ ॥ तुमे तो महा रां रे लक्षण सवे लहो रे, लोक लवे जो लाख ॥ तो पण केहy रे कह्यु मानो नहीं रे, स्नेह पूरे जे साख ॥ पण हूं० ॥ १४ ॥ ढाल ए बोली रे वे तालीशमी रे, उदय वदे श्म धार ॥ कामिनी परें रे कोई आप गोपवा रे, समरूँ नहिं संसार ॥ पण हूं ॥ १५ ॥ ॥दोहा॥ ॥ तव ते कहे प्रिया तुने, न घटे कहेवु एम ॥ विकल्प को ताहरेविषे, कहो हुँ चिंत केम ॥ १ ॥ ढुं नहिं बीजा सारिखो, लोकने कहेणे लाग ॥ मेनूं जे मूरखपणे, आपणा घरमां बाग ॥ २॥ ते माटे जाई तुमे, तस सनमानो तेम ॥ पूर्वज प्रीतें थापला, जयकारी होंय जेम ॥ ३ ॥ ॥ढाल त्रेतालीशमी॥ ॥ रुकमणि राणि मोहोलमां ॥ए देशी-॥ तव सा जश्ने तेहसुं, खेले वि ध विध खेल हो लाल ॥ स्वेडाएं तनु सोंपती, रसनी चलावे रेल हो लाल ॥१॥ माया जो जो महिलातणी, जे किरों परखी न जाय हो लाल ॥ बयल पुरुषनें तरे, बाखर केहनी न थाय हो लाल ॥ मा० ॥ २॥ न रतारने नाखे पडे, अवहेली मुने एण हो लाल ॥ नक्तं तुमे नजो नहीं, पूर्वज रूठा तेण हो लाल ॥ मा० ॥३॥ विनयतणे वचनें करी, नाव दे खाडी नूरि हो लाल ॥ तिम संतोष्यो तेहने, में उलट आणी कर होला ल ॥ मा० ॥ ४ ॥ पूर्वजने ए प्रीवी, प्रसन्न करशे विशेष हो लाल ॥ स घला पितृनो सही, यति मानीतो एष हो लाल ॥ मा० ॥ ५ ॥ बीजुं प ए बद्ध काम बे, पितृसंबंधी स्वामि हो लाल ॥ दिन केताएक ते वती, ए रहेशे आ गाम हो लाल ॥ मा० ॥ ६ ॥ ते माटे में तस्यो, जिहां ल में रहो यांहि हो लाल ॥ जोजन तिहां लगे अम घरें, करजो तुमे खां हि हो लाल ॥ मा० ॥ ७ ॥ तव ते कहे तें रूई कस्युं, आमंत्र्यो जे एह हो लाल ॥ नलि परें मुंजावजो, अति आदरें सस्नेह हो लाल ॥ मा०॥ ॥॥ पितृ जन को प्रादुणा, थावे आपणे नुवन्न हो लाल ॥ चाही कीजें चाकरी, पोते होवे जो पुन्य दो लाल ॥ मा० ॥ ५ ॥ शालि दालि घृत शालणां, लापति घृत पूर आदि हो लाल ॥ उपपतिने ते अंगना, सु विधे जमाडे स्वादि हो लाल ॥ मा० ॥ १० ॥ अनेक विधने वासने, सु Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. रत सजि तसु संग हो लाल ॥ अकल गति अबलातणी, ढांकी राखे ढंग हो लाल ॥ मा० ॥ ११ ॥ फल फूल मेवादिक नवा, आपे धरी उमेद हो लाल ॥ जरतार नक्तिनरें करे, नित नवलां निवेद हो लाल ॥ मा० ॥ ॥१२॥ तव ते जार वदे अहो, पूर्वज तुज जली पेर हो लाल ॥ संतो ष्या बे में सही, मनमांहे धरसे महेर हो लाल ॥ मा० ॥ १३ ॥ जे जे क रे सेवना, ते ते पहोचे २ तास हो लाल ॥ एह, जाणीने तेहने, अंगें थयो उन्नास हो लाल ॥ मा० ॥ १४ ॥ नक्ति अपूर्व उन्नसी, अष्टांग प्र एमी विशेष हो लाल कांई जे खातां गरे,शिर चढावे ते शेष हो लाल ॥मा०॥ १५॥ तेतालीशमी ढालमां, जो जो महिलानां काम हो लाल ॥ उदय वदे निज नाथने, गोरीये कीधो गुलाम हो लाल ॥ मा० ॥ १६ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जो कोई कहे तेहने, उःशीला तुज नार ॥ तव ते कहे हुँ जाणुं में बु, ए सघलो आचार ॥ निर्मल मुफ नारी अडे, गोप्य न राखे गूज ॥ सं बंध पहिलो ए सवें, मांमि कह्यो ने मुफ॥॥श्म नत्तर नापे किश्यो, कर्वा न माने कांहि ॥ मगन थयो महिला रसें, निर्गम समके नांहि ॥३॥ तव एक दिन कोई उर्जनें, देखायो ते जार ॥ तेहने घरमां पेसतो, सम्य क् परें सुविचार ॥ पोताने घरें पेसतो, पेखी तेह पुरूष ॥ घर यावी घरणी प्रतें, रंगें जणावे रूप ॥ ५॥ हे कांते कहो ए किसी, लव करे जे लोक ॥ तव सा कहे थइ तरतरी, लोक तणा मुख बोक ॥६॥ सर्वगाथा ॥ ७०३॥ ॥ ढाल चुमालीशमी॥ ॥ सीता हो पीन सीतारा प्रनात ॥ ए देशी ॥ जाण्यु हो पिन जाण्यु तुमाऊं में बाज, सघळु हो पिन सघj जाण पणुं सही ॥ परघर हो पि न परघरनंजा लोक, तेहनी हो पिठ तेहनी वातें लागा वही ॥१॥ घरनी हो पिन घरनी त्रेवड लहे जेह, परनी हो पिठ परनी न माने वा रता ॥ दोषी हो पिठ दोषी जन विण दोष, पापी हो पिठ पापी रहे प चारता ॥२॥ में तो हो पिठ में तो आगलथी एह, तुमने हो पिठ तुमने गुह्य कह्यु हतुं ॥ तुमें तो हो पिठ तुमें तो दिलनुं कूड, जलें हो पिठ जलें याज कमु उतुं ॥ ३ ॥ फलशे हो पिन फलशे मनोरथ माल, जो जो हो पिन जो जो आज थकी सदु, धरशे हो पिन धरशे पितृपण हेत ॥ लग Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. शए ति हो पिन नगति तमारी देखी बहु ॥ ॥ जावी हो पिन नावी प्रमाणे बुद्धि, पाखर हो पिठ घाखर सदुने ऊपजे ॥ मतिने हो पिन मतिने मा ने फलपत्ति, जगमां हो पिन जगमा जोतां नीपजे ॥ ५ ॥ सुंदरी हो पिन सुंदरी अवर समान, मुजने हो पिठ मुजने जाणीने सदा ॥ रहेजो हो पित रहेजो रखोपा काज, महारो हो पिन महारो हाथ जाली मुदा ॥ ६ ॥ यापद हो पिन आपद को अत्यंत, लहेसो हो पिन लहेसो तुम लक्षणे लहो ॥ दीशेहो पिन दीशे वांको दींह, अमने हो पिन अमने जे एहवं कहो ॥ ७ ॥ निपट हो श्रोता निपट निब्यो तास, पोतें हो श्रोता पोतें रोष धरी रही ॥ उदय हो श्रोता उदय रतन ए ढाल, चुंपें हो श्रोता चुंपें चुमालीशमी कही ॥ ७ ॥ ॥दोहा॥ ॥नोजन काजे निज नुवन, विट आवंतो तेह ॥ वनितायें वो तदा, निश्चल दाखी नेह ॥१॥ तव एक दिवसें ताकीने, मनोहर महिषी एक ॥ गोप्य रखावी आपणी, विटपाहे सुविवेक ॥ ५॥ तव सिंह नणे सुण सुंदरी, महिषी नावी बार ॥ के कोई चोरें अपहरी, के रही रान मकार ॥ ॥३॥ ते कहे तो ढुं युं करूं, फुटूं ताहरुं कर्म ॥ याचरण बंधा ताहरां, मूढ न जाणे मर्म ॥ ४ ॥ तव शोधे सघली दिशा, थारतिवंत अपार ॥ नूख्यो तरस्यो वन जम्यो, न सही गुदि लगार ॥५॥ घर ावी तव ते घ j, मुख मेली नीसास ।। नारीने कहे नवि जडी, अहो हवे शीयास ॥६॥ ॥ ढाल पीस्तालीशमी॥ ॥वीजाजी हो रतन कुमुख सांकडो रे वीजा ॥ ए देशी॥ तव सा कहे जेवो ताहरो रे पिनजी, पितृ ऊपर दे नाव ॥ स्वामी सुजो शीख साची॥ पियुजी हो सिदि घरमा तेहवी रे ॥पि०॥ कडं बूं पामी प्रस्ताव ॥स्वा० ॥१॥पि॥ वधतो वलि थाशे किशोरे ॥१०॥आगल तुम उतपात ॥स्वा०॥ पि॥ मुदरत ए मांमयुं सही रे॥पि॥ धूल तुमारी धात ॥स्वा॥२॥ श्रोता जी हो, तव ते वेगें करिने रे ॥पि॥ वदे विलगी पाय,वात सुराजो सैण वा रू॥ प्रियाजी हो सघलु ए तमे साचुं कह्यु रे प्रियाजी, में पितृ मेव्या पजाय ॥ वा॥३॥प्रि॥ तेमाटे हवे तेहई रे ॥णि॥ आराधन करो एम ॥वा॥ त्रियाजी हो, जिम आवे यापण मंदिरें रे ॥त्रि पूर्वज धरीने प्रेम ॥वा० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० । जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. ॥॥ श्रोताजी हो, तव सा कोपी कामिनी रे ॥ श्रोता ॥ मंदिरमा न स माय ॥ वा० ॥ सगजी हो सत्य पुरुष तुं रहे ने परहो रे ॥ स०॥ इम बो सी ननराय ॥ वा॥५॥स॥ लक्षण ताहरां लटुं सवे रे ॥ स० ॥ श्म क ही मायो लात ॥वास॥ फरी फरी वली नाखे परदुं रे ॥श्रोता। हडसेली पग साथ ॥वा॥६॥स॥ जोरपणे युवतीतणे रे ॥श्रोता॥ चरणे थापीर ह्यो सीस ॥ वा० ॥ साधीस दुं तव सा कहे रे ॥ पि० ॥ पूर्वजने सुजगी सवा॥७॥पिण॥ पण पर घर पंमित लोकनां रे ॥१०॥ तमे धरसो वच मनमांहि ॥ वा ॥ तव ते कहे हवे आजथी रे ॥ श्रो० ॥ नहिं धरूं जी वित तांहिं ॥ वा० ॥ ॥ त्रि० ॥ महारुं कर्तुं फल में लघु रे ॥ त्रि०॥ हजी मु वली नथी शीख वागाश्रो॥ बेल परें इम बांधिने रे ॥ श्रोता॥ ते कामिनीएं करयो तीक ॥वाणा श्रो०॥ उदयरतन श्म नच्चरे रे ॥श्रो ता॥ पिस्तालीशमी ढाल ॥ वा० ॥ श्रो० ॥ मर्द महिलाने वशे पज्यो रे ॥ श्रोता ॥ न जुए आप संजाल ॥ वा० ॥१०॥ ॥दोहा॥ ॥ बलि पूजा उपचार बदु, थाणावी पिन पास ॥ पितर पूजे सा प्रेम दा, अगर उखेवी खास ॥१॥ श्म करतां पाराधतां, यामनी जव गई याम ॥ तव ते विटने तेडीने, निज पीचने कहे आम ॥ २ ॥ मनुष्य पितृ नुं मोकल्यु, थाव्यु के ग्रह बार ॥ तव ते कहे तुमे जई सुणो, जे जंपे तेह विचार ॥३॥ नक्ति करो बहु परें नली, जिम आपणे जयकार ॥ परिघल कमला पामियें, तिम करजो तुमें नार ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ ३० ॥ ॥ ढाल बेतालीशमी ॥ ॥ श्रेणिक मन अचरज थयो ॥ ए देशी ॥ तव सा जईने ते कने, प्रेमें पूरव रीतें रे ॥ सुख विलसी निज स्वामिने, प्रीबवे मननी प्रीतें रे ॥ १ ॥ स्नेह वशे परवश थयो, ते नामनी नोलविरे ॥ नवसंकटमां नारिज, आचरणमा उलवी रे ॥ स्ने ॥ २ ॥ विनय विवेक वचनरसें, में पितृ संतोष्या विशेषे रे ॥ महीषी किहां एकथी यावशे, वसति कुशल कल्याण करेशे रे ॥ स्ने॥३॥ प्रदोष समे तम पसरते, महीषी रिकती मोदे रे ॥ छारें पेठी दोडती, तव सिंह हरष्यो सविनोदे रे ॥ स्ने० ॥४॥ अदनूत प्रत्यय ऊपनो, अति रंज्यो रमणीरागें रे ॥ वलि कांश थापो थागना, ३ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. म कहे स्त्री आगे रे ॥ स्ने० ॥ ५ ॥ शिर मुंमावो सा कहे, जिम विशेषे ते रीफे रे ॥ मुंमन वाहतुं प्रेतने, ते तिम करे दिन बीजे रे ॥ स्ने ॥६॥ श्म विषय रागरूपें करी, राग केसरीयें विगोयो रे, प्रमदाने वश पाडीने, अवतार थालें खोयो रे ॥ स्ने ॥ ७ ॥ देव गुरु बादिक दिलयकी, प रिहरि प्रमदा राची रे ॥ धर्मादिक धंधोलिया, सुंदरी जाणी साची रे ॥ ॥ स्ने ॥ ७ ॥ को क्यारे कहे तेहने, तें समकित दर्शन सेवा रे ॥ कि म मेली सव ते कहे, सुणो कहुँ समजावी हेवा रे ॥ स्ने ॥॥ श्लोक ॥ सम्यक् दर्शनमेतस्याः, प्रियायाएव निश्चितं ॥ सम्यग्दर्शनो ह्यन्यस्तु, को पि धूतैः प्रकल्पितः ॥ १ ॥ पूर्वढाल ॥ रागकेसरीना राज्यमां, श्म ते बोले उधुं रे॥ पाचरण अवटु ए सवे, सम्यक जाणी सधैं रे ॥ स्ने ॥१०॥ सम्यक् दर्शन मंत्रवी, दिल चोरी रह्यो दूरे रे ॥ मिय्यादर्शन तव मोदछु, पेठो निज दल पूरे रे ॥ स्ने॥ ११॥ मरण लहीने मूढ ते, एकेडियादिक यादें रे ॥ योनि ते फरसी फरी फरी, वाह्यो विषय सवादे रे॥स्ने॥१२॥ बेतालीशमी ढाले तस्यो, विषये तेह वराको रे ॥ उदयरतन कहे अहोन वी, विरुवा विषय विपाको रे ॥ स्ने ॥ १३ ॥ ॥दोहा॥ ॥ अवतायो वलि अन्यदा, जिनदास श्रेष्टि गेह ॥ पुत्रिपणे ते प्राणि ने, कर्मे तिहांथी लेह ॥ १ ॥ जिनश्री नामें ते सही, सकुटंबें ते सेठ ॥स म्यक् दर्शन मंत्रिने, सेवे सदा गुन ३ ॥२॥ जिनश्री पण पाले तिणे, समकित धरी स्नेह ॥ विमल सेठ गु६ श्राइने, परणावी ले तेह ॥३॥ देव धर्म गुरु रागिए, श्री जिन धर्म नदार ॥ करतां कुलमान थया, ते हने पुत्र बे चार ॥४॥ घर धणियाणी ते थई, थाण न लोपे कोय ॥ चारो नहि को अवरनो, जे एह करे ते होय ॥ ५ ॥ धनश्री नामें धर्मि गी, वडा पुत्र घर नार ॥ सारथ वाहनी ते सुता, स्वरूपवंत उदार ॥६॥ ॥ ढाल सडतालीशमी ॥ ॥ बेडो नाजी ॥ ए देशी ॥ तेहवें तक सांधीने विनव्यो, क्षेष गजें धाई ॥ मोह गजेंड्ने मननी मोजें, जो जो मुज सकजाई ॥१॥ दुग्द्योजी ॥ मानें मोहराजा महाराजा ॥ दू० ॥ मेहेलावी तेहनी माजा ॥ दू०॥ वजडावी सुयशवाजां ॥ दू०॥ योजी द्योजी योजी दुग्द्योजी ॥ ए थांक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. णी॥ ज्येष्ट बंधु माहरो जोरावर, राग केसरी रोसालो॥जीती करी थाव्यो ते जालिम, पोते जई तिहां पालो ॥ दू॥२॥ तातजी महेर करीने तेहने, नेहनो आप्यो नेजो ॥ अहिली वार अमारो वारो, जड जाणी तिहां नेजो ॥ दू० ॥ ३ ॥ इणि परें उन्नसि उजे, अमरपसुं श्रावरि ॥ जनकने प्रण मीने ते वेगें, जिनश्री घर संचरि ॥ दू० ॥ ४ ॥ तेह तणे संजोगें तेहने, धनश्री नपरें शेष ॥ परें परें ते पुत्र वधूसुं, उपनो रोष अशेष ॥ दू० ॥ ॥ ५ ॥ दी रीसें बले दिलमांहि, अवटु अवलु बोले ॥ प्रीसे नहीं जा पामां पूरूं, खोटा अवगुण खोले ॥ दू० ॥ ६ ॥ विण अपराधे वांक उपा ई, चहोडे शिरमां चाटूं ॥ बहु बिचारी पग चांपे तव, सासु मारे पार्ट्स ॥ दू० ॥ ७ ॥ काम कस्यां सघंलां अवहेले, निढुकने पणें मेलो ॥ पोते आपीने पचारे, पुत्र न राखुं नेलो ॥ दू० ॥ ७ ॥ रोटी अंन्नादिकने री सें, आगलथी न ये अडवा । कण मात्र जो कोरं खाए, तो नडकी बे से नडवा ॥ दू० ॥ ए ॥ विनयवती ते न करे अविनय, पद पदाले बे सी॥ नित्रंबी तव नाखे तेहने, पगसुं पाबी ठेसी॥ दू० ॥ १० ॥वांसो चोलें तो वलि तेहने, निपट नाखे निबेटी ॥प्रीसती वेला जो रहे पासें, तो अलगी करे आबेटी ॥ दू० ॥११॥ रखे एहनो कांश थाए चारो, घडी एक घर नवि मे,श्म जाणी रहे बल जोती,ग्रॅमी कहीने मे ॥॥१॥ ॥ देव धर्मने गुरुने दिलथी, वली मेहेव्या वीसारी ॥ ढांकणादिक नांगु ल ही जांमे, जूनुं पण संनारी ॥ दू॥१३ ॥ लोक बागल हीमे लवलवती, अबता अवगुण कहेती ॥ वदु पाडो उत्तर नवि वाले, कुल लजाने वती ॥5॥१४॥ षनरें श्म रहे धगधगती, सदाकाल ते सासू ॥ वेरणीनी परें था वहुने आंखें पडावे आंसू ॥दू०॥१५॥ सडतालीशमी ढालें सासूने, व दुनीसाथै वेर ॥ उदयरतन कहे चाल्यां आवे,आगममां इणि पेर ॥दू०॥१६॥ ॥दोहा॥ ॥समज्युं सयल स्वरूप ते,विमल श्रेष्टि सवि आदि ॥ वजन कुटंब सदु पुर जनें, वाध्यो तव विषवाद ॥१॥ जो शीखामण को कहे, तो कोपे सुविशेष ॥ क्रोध दावानलें धम धमे, याकुल दूर अशेष ॥२॥मावी कर मेली तदा, उर्जननी परें दूर ॥ सदुएं मलिने जिनसिरी, नूंमी जाणी नूर Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २३ ॥३॥ सम्यक् दर्शन पण सहा, बटक गयो तव बोड ॥ परिकस्सुं वासी तदा, मिथ्यादर्शन मन कोड ॥४॥ ॥ ढाल अडतालीशमी॥ ॥ आज सखी सामली-रे मुने मारगडा॥ ए देशी ॥ एकदा ते रोपें न राणी रे, वदे में जिम तिम वाणी रे ॥ विमल श्रेष्टिकने विवहारी रे ॥ तव श्राव्यो कोई अधिकारी रे॥१॥ मुखें मौन धरी रही वद रे ॥ सासु तव जांमे बहू रे ॥ तिहां बेठे ते नरें दीठो रे ॥ ऐन बलें जाणे अंगीठो रे ॥२॥ तव ते कहे सुण नई रे ॥ सुं वसुं वढे ने बिई रे ॥ फोकट ए फजेत थावं रे ॥ एक श्लोक कही समजावु रे ॥३॥ आर्या ॥ सत्वं कस्यगृहमिदं, या स्यति सह केन चेयमिति लक्ष्मीः ॥ कतिपयदिनपर्यतं, नत्वं न गृहं न चेयं श्रीः॥१॥ वदुनो स्वनावते सारो रे ॥ दीसे ले लाज अपारो रे ॥ नाहकसुं एहने निबंडो रे ॥ वेढी लेवा झुं वंडो रे॥४॥ कालें थाशे एहनो वारो रे, मनमां एहवं न विचारो रे ॥ श्राखर ए घर थाशे एहनुं रे, दिल कुःख धरि एं झुं तेहनु रे ॥ ५॥ इत्यादिक इणि परें वारी रे, घरे गयो ते व्यवहारी रे ॥ ते ऊपरे पण सा कोपी रे, अहो लाज माहरी इणे लोपी रे ॥ ६ ॥ केव ल वसुं वढे नवि श रे, बीजाने पण संतापे रे ॥ हली ए कुण ताहरो सणीजो रे, तातो थई जण त्रीजो रे ॥ ७ ॥ शीखवणी ए सद् ताहरी रे, इणे जात विगोई माहरी रे ॥ इम कहेती करें यहि पाली रे, थई वाघणी सी विकराली रे ॥ ७ ॥ धनश्री उपरे तव धाई रे, धरायें पडी ध्रसकाई रे ॥हैया कपर बेसीने रे, हणी बरी दंत पीसीने रे ॥ ए ॥ तव हाहाकार करी धाया रे, सदु सऊन मलिने आया रे ॥ तव तेहने पण सा खीजी रे, हणवा दोडी बरी बीजी रे ॥ १७ ॥ पाटू यष्टिका पहाणे रे, तेहने तव स दुमली आहणे रे ॥ तिहां लगे ज्यां वदु तिणे मारी रे, तेहने पण स्वज में संहारी रे ॥११॥ असमंजस एहवं जोई रे, सकुटंब विमल सेठ सोई रे ॥ संयम पंथे परवरित रे, जिनश्री जीव नरकें संचरीन रे ॥ १२॥ वली मह एकंडिया रे, अवतार लिया विखवादे रे ॥श्म काढयो काल अनंतो रे, क्षेष गजें थयो बलवंतो रे ॥ १३॥ ए अडतालीशमी ढालें रे, उदयरत्न वदे अंतरालें रे॥जे जिनमतमा रहेनीना रे, ते नर नरमांहे नगीना रे॥१४॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥दोहा ॥ ॥ वली ते मानव कपनो, विप्र ज्वलनसिख नाम ॥ श्रावकनी तिहां संगतें, समकित पाम्यो ताम ॥ १॥ श्री जिन धर्मने साधतां, दिन केता एक देह ॥ मोह राजायें मोकली, निर्धनता तसु गेह ॥ २ ॥ तव तेहनी सहचारिणी, दरिश्ता पण दोडि ॥ श्रावी तिहां उतावली, मंदिर तसु म न कोडि ॥ ३ ॥ तव वश्यो न्हाने गामडे, ज्वलनसीख ते जाय ॥ हल खेडे हाली परे, तिहां नहिं अवर उपाय ॥४॥ ॥ढाल गणपचाशमी॥ ॥ चित्रलंकीरो नमर सुजाण जेहडहारो ॥ ए देशी ॥ तव ष गजें ने धाय, वडो पुत्र वीनवे ॥ महाराज ॥ अनंतानुबंधी क्रोध नामें, ते हरर्षे सुं हवे ॥ महाराज ॥ १ ॥ वैश्वानर बीजुं नाम ते, तातप्रतें वदे ॥ म०॥ एक अरज महारी महाराज के, आज धरो हृदे ॥म० ॥ २ ॥ पहेले ए विं प्रनी पासें, हुँ रहेतो कलटे ॥म० ॥ विचें सम्यक् दर्शन आवी, वश्यो ए हने घटें । म ॥३॥ तेणें हूं थयो दूर, हवे अवसर सही । म ॥ जो थापो तुमे आदेश, तो तिहां जानं वही ॥म०॥४॥ तुमे बेठा रहो ते माटे, बापो आगना मुने ॥म ॥ जईने करुं धरि फेर, गले ग्रहुँ विप्रने ॥म०॥५॥ पिताजी तुमारे प्रसादें, दूँ जय कमला वलं ॥ म०॥ उसम न शिर दई दोट, के देसुटे धरूं ॥ म ॥ ६ ॥ श्म तातनी अनुमति ले, अनंतानुबंधि॥ म०॥क्रोध चाल्यो था महासर के अवसर सांधि॥ ॥ म० ॥ ७॥ जई पहोतो विप्रने संग, ज्वलनसिख तव थयो ॥ म० ॥ ज्वलननी सिखा समान, नामार्थ संग्रह्यो ॥म॥॥ अपराध विना पण जोर, क्रोधे रही धमधमी ॥ म० ॥ हृदयांतरथी महारोष, न जाय नपश मी ॥म ॥ ए॥ थोडे गुनहे पण दंत, पीसी निज नारने ॥ म० ॥ बां धी मारे बदु मार, न पामे विचारने ॥ म० ॥ १०॥ उबलि करे उनमाद, अनलपरें परजले ॥ म ॥ पाडोसी करे पोकार, तोहे पण नवि खले ॥ ॥म०॥ ११॥ बालने पण बांधी जोर, ताडे तेहवी परें॥म ॥ बहु लो क मलि जेम गाली, दीए यावी घरें ॥ म०॥१२॥ पिताने तेली पाय, मारे निज मातने ॥म ॥ बहिनने दिए बङ गाल, नंमे निज घ्रातने ॥ म॥१३॥ पूज्यने पजाए अपार के, गुरुने अवगणे ॥म ॥ निष्कारण प Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवनानु केवलीनो रास. २२५ ऐ सहु साधें, कोपे क्रोधें घणे ॥ म० ॥ १४ ॥ उगलपचाशमी ढाले, उदय एम उचरे ॥ ० ॥ शत्रू कोई क्रोध समान, बीजो बल नवि करे ॥ ० ॥ १५ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ निरूप थई याकला, नृकुटि चडावे नूर ॥ त्रांबावरलो तपतपे, को धें दी क्रूर ॥ १ ॥ यांखो ऊंबाडा जिसी, रोषें राती थाय ॥ मातम मं मलनी परें, सामुं कि न जोवाय ॥ २ ॥ शीताकुल परें थरथरी, स्वेद बिंडु करं || मुहमांथी जिम तिम लवे, विकल परे विलखत ॥ ३ ॥ अ निकुंमस्यो उलखी, बोलावे नहिं कोय ॥ अवश्य अंगारापरें, सहेजें बो लाव्यो सोय ॥ ४ ॥ ॥ ढाल पचाशमी ॥ ॥ वूता दल वादल हो नदीयां नीर चव्यां ॥ ए देशी ॥ एकदा ते ब्राह्मण 'हो, हल खेडे खेत्रें ॥ जो वाकुल नूमें हो; नवि जुए नेत्रें ॥ १ ॥ नखेडे बहु ढें पाहो, जिहां जाजां जडियां ॥ हल नवि चाले हो, खडके तरु थडि यां ॥ २ ॥ कुशें पड्यो कुचो हो, वली गोधो गली ॥ ते ताजो तरुणो हो, मांसालो बलियो ॥ ३ ॥ पण जाए ते बेसी हो, नवि चाले दमि ॥ त्या विप्र ते क्रोधें हो, सूधो धमधमि ॥ ४ ॥ पराणें ते मारे हो, तो पण नवि चाले || तव नायें काली हो, बहु खारो घाले ॥ ५ ॥ वासे ने पासे हो, खंधे खरीएं खारें ॥ जंघ ग्रीवा नदरें हो, बहु माखो यारें ॥ ६ ॥ तव जीन काढीने हो, ते भूमिसुं रह्यो लिपि ॥ वैश्वानरें प्रेयो हो, तव थ यो विप्र खप ॥ ७ ॥ तव पूबडुं मरडे हो, वली दंतें करडे | शकट बधीने हो, दंत घणुं घरडे ॥७॥ तव खेत्रने ढलीए हो, मारे दूरे रही || मोटे म हास्थूले हो, पूरी तेणे मही ॥ ए ॥ त्यारे ते थाको हो, जव थयो थलि यो ॥ ढेपां ते तले हो, ते बलद मुगलिने ॥१०॥ तो पण ते जडनो हो, रोष न करी ॥ दाध्यो विशेष हो, जिम लहेरें दरिन ॥ ११ ॥ महाको धने पूरे हो, हृदयांतर रेल्यो । समकितने प्राणें हो, तव ततक्षिण मेव्यो ॥ १२ ॥ तव मिथ्यादर्शन हो, मोहादिकें मली ॥ गजे कालीने हो, ते ना ख्यो नरके वली ॥ १३ ॥ तिमज नमाड्यो हो, जवनी कोडी गमे ॥ ते काल अनंते हो, खावे न उंचो किमे ॥ १४ ॥ पंचाशमी ढालें हो, उदय रतन्न कहे ॥ समकित विना नवनो हो, कोइ न पार लहे ॥ १५ ॥ २९ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनकथा रत्नंकोष नाग पांचमो. ॥दोहा ॥ ॥ सम्यक दृष्टि कुलें अन्यदा, धनंजय नृपने गेह ॥ रुकमिणि नामें रा गिणी, तेहनी कूखें धस्यो तेह ॥ १॥ पूरे मासें प्रसविन, कुबेर नामें कुमा र ॥ श्रावक कुल जन्म्या जणी, समकित लाधुं सार ॥ ५ ॥ शीघ्र कला साधी सवे, पाम्यो यौवनवेष ॥ तेज प्रतापें ते तपे, उसरो जाणे दिनेश ॥ ॥३॥ व्याघ्रनामा एक वाघस्यो, पन्निपति अति प्रौढ ॥ गंजे न को तस गढपति, नपुंसक जेम नवौढ ॥ ४ ॥ धनंजय धरपति तणो, दुर्गे वासि त कुष्ठ ॥ मुलक उजाडे महाबलि, परिकर ले। पुष्ट ॥ ५ ॥ गरढेरे पण ए दुने, आगे अजे अजीत ॥ वली पड्यो ते तिणे समे, नरि पमाडे जीत ॥६॥ कोईक देश दपट्यो तिणे, बूंब सुणी तिणिवार ॥ ते ऊपरें वाहार च ढयो, कुबेर ते राजकुमार ॥ ७ ॥ दैवयोगें महा उष्ट ते, याव्यो एहने हा थ ॥ कोक नावी योगथी,सकुटंबें सदु साथ ॥॥ उँगै निजदल थापिने, वरतावि निज आए ॥ आव्यो घरें उलट नरें,सदु जन करे वखाण ॥९॥ ॥ढाल एकावनमी॥ ॥चित्रोडा राणा रे ॥ ए देशी ॥ गुण गीत गवाते रे, महा महोत्सव थाते रे ॥ बहु बिरुद बोलाते, कुमर ते याविउ रे ॥ सदु बोले श्लाघा रे, श्रावीने बाघा रे ॥ श्मन दूर जागा, जन मन नाविन रे॥१॥ तव थ वसर जाणी रे, पितु आए प्रमाणी रे ॥ अमरष अति आणी, याव्यो ते कने रे ॥ क्षेष गजेंनो जात रे, विश्वानर जात रे ॥ न्हानेरो विख्यात, जग लहे तेहने रे ॥२॥ अनंतानुबंधी मान रे, शैलराज राजान रे ॥ ए बे अनिधान, तेहनां जाणो तमे रे ॥ तेहने अनुसरवे रे, जराणो ते गरवें रे ॥ मुखें श्म बरवे, शूरा शिर अमे रे ॥३॥ नयण गगनने गाहे रे, रोम ऊना थाए रे ॥ सूर गुण न समाए, तेहना शरीरमा रे॥ अहंकार अह रे,त्रिनुवनमा तेह रे॥न माए तिणे देह, थंनी रह्यो धीरमां रे ॥४॥ सदु कोने साखें रे,मुखथी श्म नाखें रे॥महारा पिम पाखें,ए उष्टने कुण हणे रे ॥रांमनी परें टरडे रे,अमारे घरडे रे ॥ राज्य कीधुं जरडे,न जीत्यो ए किऐ रे ॥ ५॥ धनंजय पण एह रे,वणिक वृत्ति गेह रे ॥ बेगे रहे नेह, धरी अन्न प्राबी रे॥जो ढुं न दु बाडो रे,तो जीलें नीलवाडो रे ॥ इहां करी जाडो, क्यारे हुए बाबीउ रे ॥६॥ गायुं जे गाए रे, इंटने ते वाहे रे॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २७ ते नर तिणे, नायें थई वाउला रे ॥ निज गाल फूलावी रे, बहु वात व नावी रे ॥ सदुने समजावी कहे चर रानला रे ॥ ७॥ कुमरें कह्यो शिष्ट रे, पोढो ए पापिष्ट रे॥ देवें पण उष्ट, न जाए गंजी रे॥ देवने ए कुमा र रे, वे विण निरधार रे ॥ एहनो अहो ठार, किणें क्यारें नंजी रे ॥ ७॥ एहवी सुपी टूलो रे, फूली थई चोलो रे ॥ निज बल लही बदुलो, कुकर तणी परें रे ॥ सदुने अण नमतो रे, दान देई मन गमतो रे॥ मृङ गुण ने वमतो, पहोतो निज मंदिरें रे ॥ ए ॥ मात तात ने गुरुने रे, देवने श्रु तधरने रे॥ न नमें कवीश्वरने, मुखें बोलें नहीं रे ॥ नूषण धरी जारी रे, निज तनु शणगारी रे ॥ बेठक समारी, वेसे ते सही रे ॥ १० ॥ तंबोलें ताजे रे, गन्नस्थल गुन साजे रे ॥ पूरी समाजें, बोले बेतमां रे ॥ अधुरां वयणां रे, फेरवतो नयणां रे ॥ देखीने सयां, नही जुए हेतमां रे ॥११ ॥ त्रिभुवन तृण तोलें रे, गणतो इम बोले रे ॥ मुफथी सहि मोले, सुरप ति सारिखो रे ॥ श्म निज परिकरमा रे, बेठो बरवे घरमां रे ॥ नाणे केह ने हरमां, न जूवे पारखो रे ॥१२॥ एह एकावनमी रे, ढालें ते अनम। रे॥ उदय वदे न नमी, श्रापे केहने रे ॥ विद्यावंत ने शूरो रे, दानेश्वरी पूरो रे ॥ विण गर्दै सनूरो, कहे सदु तेहने रे ॥ १३ ॥ ॥दोहा॥ ॥ अवनिपति हवे एकदा, प्रीबवीने परधान ॥ पुत्रनी पासें मोकले, ते जई कहे तसु थान ॥ १॥ तेडे जे तुम तातजी, कुमरजी मिलवा काज ॥ आवो तिणें आसनतजी,वाट जुए महाराज ॥ २ ॥ वासर बहु वही गया, दीनां तुम दीदार ॥ तरसे डे ते कारणे, जिम चातक जलधार ॥ ३ ॥ ॥ ढाल बावनमी॥ हो मतवाले साजना, मुफ कोई न लेडोबे ॥ ए देशी ॥ बोले कुमर ते बेतमां, मुख नाकतणी अणि मरडी रे॥ मूवल देतो थको, वली नजर करीने करडी रे ॥ बो॥१॥ काम किसु ले माहीं, अहो वलि ए हने केणे रे ॥ संकटमां नाख्युं किसुं, तेडे वे मुझने तेणें रे ॥ बो० ॥२॥ जो एहवं होय तो कहो, इंशदिकने पण बांधी रे ॥ पाणी सोपुं एहने, श त्रु जाणी तक सांधी रे ॥ बो० ॥ ३ ॥ पण अमे नावू को कने, अमपासें पण जो कोई रे ॥ नहीं थावे तो झुं थशे, सर्वे मेल्युं ने जोई रे॥ बो०॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श् जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ ४ ॥ काज कि किणें नीपजे, खाखर महारा पिंम पाखें रें ॥ हूं एह वो नथी को देखतो, जे रणथंजीने राखे रे ॥ बो० ॥ ५ ॥ तव मंत्री कहे तेहने, जिहां वाजे तुम यस वाय रे ॥ तिहांलगे महाराजा शिरें, शत्रु कोई कनो न थाय रे ॥ बो० ॥ ६ ॥ जनक जगत व्यति जालमी, जगमांहे इक तूं जायो रे || ताहरी जनितायें तुं सही, शूरां शिरताज कहायो रे ॥ बो० ॥ ७ ॥ पण एन घटे बोल, तुम सरिखाने सुणो स्वामी रे ॥ पितृ काजें पण खावुं नहीं, ए बातें तुम खामी रे ॥ बो० ॥८॥ ॥ श्रार्यावृत्त ॥ शौर्य सौंदर्य वा, विद्या लक्ष्मीर्वच स्विताऽन्योवा ॥ शोनां नावति गुणो, विनयालंकारप रिहीणः ॥ १ ॥ वसंततिलका बंद ॥ त्यागोगुणोगुणशतादधिको मतो मे, विद्या विभूषयति तं यदि कं ब्रवीमि ॥ पर्याप्तमस्ति यदि शौर्यमपीह किंतु, यद्यस्ति ते विनयः सगुणाधिराजः ॥ २ ॥ श्लोक ए वे सचिवें कह्या, कुमरने शी खामण कामेरे ॥ कुमरें पण सूयो ने यागममां कोइक ठामेरें ॥ बो|||| O ॥ यतः ॥ यार्यावृत्तं दुःप्रतीकारौ माता, पितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मि न् ॥ तत्र गुरु रिहामुत्रच, सुडुष्करावरप्रतीकारः ॥ १ ॥ इम आागल वलि कोई रे, तव कुमरने तिहां शैलराजें रे || प्रेयो तव बोल्यो फरी, गर्वै जरी समाजें रे ॥ बो० ॥ १०॥ रे ज्ञानदग्ध गमार तूं, अमने शिक्षाशी यापे रे ॥ त्रिभुवन तत्व हुं में, जीते कोई अमसं जबापें रे ॥ बो० ॥ ११ ॥ ते माटे ताहरा बापने, जई शीखामल नांखे रे || जिम थाए ए पाधरो, मि कांई मति राखे रे ॥ बो० ॥ १२ ॥ इम कहीने गले फालीने, दी मेव्यो तव तेहो रे ॥ जई कहे ते महाराजने संबंध सवे धुर बेहो रे ॥ बो० ॥ १३ ॥ उदय रतन इम कचरे, बावनमी ए में बोली रे ॥ ढाल गु मानी लोकने, गमशे जो जो दिल खोली रे ॥ बो० ॥ १४ ॥ का " ॥ दोहा ॥ ॥ तव चिंते ते नूपती, ग्रहो मुऊ पुत्र अत्यंत ॥ अहंकारें ए खावरखो, जिरती कसि न लहंत ॥ १ ॥ राज तज्युं तिएा कारणें, वसवुं मोहने रा ज ॥ हवे मुकने जुगतुं नथी, साधुं पर जव काज ॥ २ ॥ इम चिंती अंग ज प्रते, रंगे देवा राज ॥ सामग्री सघली सजी, मोहें ते महाराज ॥ ३ ॥ गोप्य राखी ते गेलिसुं, प्रेखे वली प्रधान ॥ तनुजने एक दिन तेडवा, रा ग व राजान ॥ ४ ॥ तिहा जई ते कहे तेहने, कोईक काज विशेष ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलंीनो रास. शश तात तेडे जे तुमने, आवो शीघ्र ण एक ॥ ५ ॥ शैलराजा संकेतथी, अनुक्रमें एकाएक ॥ अपमान देई अवगण्यो, कुमरें मंत्री डेक ॥ ६॥ अ वहेव्यो सामंत गण, मंमलिक मेल्या धूल ॥ जे जे थावे तेडवा, ते तोल लहे अकतल ॥७॥ तव तसु माता मोकली, निपट निजी तास ॥ पण पुत्र स्नेहें न उसरे, अनेक करी अरदास ॥ ७ ॥ पाय पडी जिम तिम करी, माए महिपति पास ॥ अति कष्टं ते आणि,तव नृप थयो उनास॥ए॥ ॥ ढाल त्रेपनमी ॥ ॥ पांच सोपारी ले हाथें ॥ ए देशी ॥ तव नरपति निज पास, बासन एक मंमावीयुं जी॥ ते पर बेगे कुमार, रेष न अंग नमावीयुं जी ॥१॥ नाखे तव नपाल, सूरगुणे संसारमा जी। जस तुफ व्याप्यो जोर, नावे जस कोई हारमा जी॥२॥ देश देशथी दूत, कन्यादान कोजे सही जी ॥राजवीयें मन रंग, मोकल्या ने तुम गुण लही जी॥३॥पूरो मनोरथ तास, ए राज्य तुमाऊं संग्रहो जी॥ अमे थासुं अणगार, प्रजाने तुमे निर्व हो जी ॥ ४ ॥ तव शैलराज श्रवणेह, मंत्र गुमाननो मेलो जी ॥ त्यारे व्रकुटी चडावी नाल, उत्तर तिणें श्म दिन जी ॥ ५ ॥ रजसरखो ए रा ज, झुं आपो तुमे अमने जा ॥ एवां तो राज सतेक, प्रगट करी दिनं तुम ने जी ॥ ६ ॥ श्म कही पगनो प्रहार, आसन ऊपर मारीने जी ॥ कठी नीसस्यो बार, वन जावं मनें धारीने जी ॥ ७ ॥ अयोग्य जागी तत खेव, सम्यक् दर्शने ते तज्यो जी॥ मोह राजाने साथें, तव सहसा आ वी नव्यो जी ॥ ७॥ एकलो अटवीमांहि, पहोतो ते तजि गेहने जी॥ नील नामें लघु जात, राज्य दीधुं नृपें तेहने जी॥ ए ॥ पोतें लेई संयम जार, शिव पद पाम्यो अनुक्रमें जी॥ हवे ते कुबेर कुमार, एकलो अटवी मां नमे जी॥१॥ चित्र नामें एक चम,ते व्याघ्र पन्निपति सुत तदा जी॥ यु६ समय गयो नासि,ते वनमांहे वस्यो मुदा जी ॥११॥ तेणें दीठो ते कुमार, तीरें मास्यो तव ताकिने जी॥ पामी मरण अकाल, नरकें गयो मद बाकिने जी॥ १२॥ महादिकनी गतिमांहि, काल अनंतो घेरियो जी ॥त्रेपनमी ढालें तेह, उदय कहे नदे करियो जी॥१३॥ ॥ दोहा ॥ महापुर नगरे मेलिउ, कर्मे ते वलि काढि ॥ धनाढय श्रे ष्टिने घरे, पूरो तेह धनाढय ॥ १ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ ढाल चोपनमी ॥ ॥ साहिबो रे माहरो जलि रह्यो नागोयें ॥ ए देशी ॥ पदम नामें ति हां थापित रे, याजन्म थकी ते बाल ॥ अनंतानुबंधि मायाबलें रे, मा यावी अति असराल ॥ पोढो रे प्राणी जो जो मायानो पास ॥१॥ राग केसरी जीते सुता रे, बदुली जस बीजुं नाम ॥ तेहने नदये ते थयो रे, एक कपट कलानुं धाम ॥ पो० ॥ २॥ बालपणे पण बहुविधे रे, बोकरा ने तरी तेह ॥ खावू धूती खाये सवे रे,जेहना बलनो नावे बेहे ॥ पो० ॥३॥ साधु स्वजाव जाणे सदरे, सुणि वचन तणा विलास ॥ मोटो थयो तव मायने रे, बापने पण पाडे पास ॥ पो० ॥ ४ ॥ नाईने पण जो लवे रे, जगनिने नमाडे जोर ॥ परिजनने पट ये घणां रे, करी कपट क ला कठोर ॥ पो० ॥ ५ ॥ धृते धर्म दाता प्रतें रे, मित्रसुं मांमे महा कूड ॥ देवनी पण खोटें दिलें रे, महास्तवना करी ते मूढ ॥ पो० ॥ ६॥ निवेद मोदक ले हरी रे,अंगलूहणा घंटा आदि ॥ कहांतर घाली गडे रे,माने नहिं किमे अपराध ॥ पो॥ ७ ॥ साचो किहांए न कतरे रे, कोइ न लहे मन अनिप्राय ॥ वंच्याविण मेले नहीं रे, कुण परजन स्वजनने माय ॥ पो० ॥ ॥ जनकादिक जाणे श्श्यो रे, तेडी तेहने गुरुपास ॥ यावीने इम उचयुं रे, एक अवधारो अरदास ॥ पो० ॥ ए॥ जगवन अमारे कुलें रे, अाजलगें एहवो कोय ॥ नर मायावी न नीपनो रे, सेवक पण एहवा न होय ॥ पो० ॥ १० ॥ महेर करीने ते वती रे, एहवो आपो उपदेश ॥ मा यावीपणुं मूकिने रे, कुलवटें चाले सुविशेष ॥ पो॥११॥ चोपनमीयें चेतजो रे, ढालें सदु धरमी लोक ॥धूर्तपणुं जोतां धरा रे, आखर उपा ये सोक ॥ पो० ॥ १२ ॥ ॥दोहा ॥ ॥ तव गुरु करुणा आणिने, धर्म कथा कही धीर ॥ माया शील मान वतणी, सद् मनें धरे अधीर ॥ १ ॥ अपराध जो न करे किश्यो, तो पण सर्पनी पेर ॥ आशंका मन पजे, सदुने जाणी जहेर ॥२॥ मायावी वलि मानवी, अधम कुलें अवतार ॥ मरि पामे महिलापणुं, उक्करगरुली थपार ॥ ३ ॥श्म ते प्रतिबोध्यो थको, दिन केताश्क तांई ॥ मूके माया Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवनमानु केवलीनो रास. २३१ ali, कांइक कर्म सहाय ॥ ४ ॥ मिथ्या दर्शन बल घट्यो, तब सम कि तनी सेव ॥ करतां दिन केता गया, हरखें सुष्णो सहु देव ॥ ५ ॥ ॥ ढाल पंचावनमी ॥ तव ॥ समवसरण त्रिभुवन पति सोहे ॥ ए देशी | एक दिन तस उपनें विसवासें, पिताएं राख्यो ते पासे हो । पोतें सुंपी एक वासरें, जनक ज मवा निजघरें || पहोतो जिहारे उलटनरें, श्रोता सुणजो ते यवसरें ॥ जो जो पास मायानो ॥ १ ॥ घोडो खेलावतां नृपना करथी, मुझ रत्न पड्युं धरती हो ॥ मूसी लीधुं ते केणें, लेई देखाड्यं तेणें ॥ पदमने हट श्रेणें, देखि उख्युं एणें ॥ जो० ॥ २ ॥ अवसर जाली पूर्व मायाएं, ते प्रेोति गयें हो ॥ जेतुं अलंकार एह, मुऊ बजें सस्नेह ॥ दीये हर्ष धरेह, दीये उत्तर गुगेह ॥ जो० ॥ ३ ॥ कथन धस्युं तेहनुं एणें मनमां, तव मिथ्या दर्शन तेहना तनमां हो || मोह सहित संक्रमित्र, तिहारे स मकित व मि ॥ श्रल्पमूलें तव गमि, भूषण लीधो ण मवि ॥ जो० ॥ ४ ॥ तातने पण कां न कयुं कपोतें, प्रबन्न राख्यो पोतें हो ॥ तव नूपें ढंढेरो, पुरमा फेरो सवेरी ॥ मुझ रत्नए मेरो, जे कोई थापे वहेले रो ॥ जो० ॥ ५ ॥ ते निर्दोष थई साबाशी लेशे, नहिं तो प्राण सहित मु श देशे हो ॥ तव सारुं ते नगर, थयुं चिंतायें विगर, जिम यागमां अगर, या बीने ऊर ॥ जो० ॥ ६ ॥ पाडोशियें ते कांई वात जणावी, दय शेठने प्रावी हो ॥ तव ते एकांतें घरी घरी, पूढे पुत्रने फरी फरी ॥ कांन ढांकी हे हरी हरी, एगुं बोलो बो खरी खरी ॥ जो० ॥ ७ ॥ एहवो कुण थइ साहस नागी, मरण लिये मुखें मार्गी हो ॥ महर्दिक लोकें पिता यें, पुरजन पडोसी मायें ॥ अनेक अनेक उपायें, तेहने बुजव्यो त्यांयें ॥ ॥ जो० ॥ ८ ॥ जुनी वंसनी जडने न्यायें, यनिप्राय तेहनो न जगाये हो ॥ इक दिन राज जंमारी, जवहरीमां शिरदारी ॥ तेहनो मित्र एक नारी, परदेशी विवहारी ॥ जो० ॥ ए ॥ कोईक कामविशेषे त्यांहि, श्राव्यो बे न बाहिं हो ॥ मारीने संकेतें, थई वणजारो देतें ॥ पदम पासें ते प्रीतें, प होतो कपटें तें ॥ जो० ॥ १० ॥ कहे ते तेडी एकांते, सिंहलेश्वर नू कंते हो ॥ मुङ्गारत्न कामे, मुऊने प्रेष्यो ए गामें ॥ जो होए तमारे धामें, देखाडो तो था में || जो० ॥ ११ ॥ मूल मुखें तुमे मांगसो जेतो, अ धना Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मे खाप तो हो ॥ तव ते पदम विचारे, एहने खापे निरधारे ॥ जासे देश उतारे, प्रगट नहीं थाए किहारे ॥ जो० ॥ १२ ॥ इम चिंती ते देखाडे निज हायें, राज पुरुष तिहां तेहवे साधें हो ॥ जंमारीनी ते साने, पकडी या वी ते यानें ॥ व्याना सहित राजाने, जई सोंप्यो पदमाने ॥ जो० ॥ १३॥ प्राणांत लगें दीधो प्रहार, अनेक विधनो मार हो । मरी काल अनंत, न मां जमिन ते जंत ॥ पंचावनमी ए तंत, ढाल उदय कहंत || जो० ॥ १४ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जयपुर नगरें अन्यदा, श्रावक कुल श्रीकार ॥ धनदत्त धामें ते थयो, सुतसोमदत्त उदार ॥ १ ॥ सुकुल संयोगें पामिन, सम्यक् दर्शन संग ॥ पण निर्धन धातो फरे, धन काजें धरी रंग ॥ २ ॥ सर्वगाथा ॥ १०२३ ॥ ॥ ढाल उपनमी ॥ ॥ चांदलीने उग्यो रे हरणी श्राथमी रे ॥ ए देशी ॥ धननें काजें रे' ते धातो फरे रे, संबल हीएए सदीव रे ॥ तैलादिक रे वणिज करे वहीरे, यापद सहे अतीव रे ॥ ध० ॥ १ ॥ इलि परें करतां माया गांठडी रे, गर थनी कांइक गांठ रे ॥ घणे कालें रें बाजी तेहने रे, पाधरी यावी कोई यां ट रे ॥ ६० ॥ २ ॥ व्यापार तिहारे रे कानो करे रे, तव राग केसरी धाय रे ॥ अनंतानुबंधी रे लोन तिहां मोकल्यो रे, जल जेहनो जडवाय रे ॥ ध० ॥ ३ ॥ बहुली केरो रे जे लघु बंधवो रे, सागर बीजुं जस नाम रे ॥ तनुज जागो रे राग केसरी तयो रे, तेहना तनुमां वश्यो ताम रे ॥ ६० ॥४॥ दामनी तिहारे रे ते सोमदत्तने रे, इन्वा वाधी नदाम रे || वणिज वधास्था रे तव बहु जांतिना रे, सहस्रपति थयो ताम रे ॥ ६० ॥ ५ ॥ लघु डु ख सहेतां रे यो लखेश्वरी रे, दिन केता इक बेह रे ॥ कोडि क्लेश वेठी रेवलि केते दिने रे, कोटिध्वज थायो तेह रे ॥ ६० ॥ ६ ॥ जिमजिम वाधे रे वैभव तेहथी रे, बमणो वाधे तिम लोन रे || गनि न धाए रे जिम ज ग इंधों रे, तिम लोचनो दीशे नहि थोन रे ॥ ६० ॥ ७ ॥ अतिशय लोनेंरे दे वने वगणे रे, गुरुसुं राखे ते गाढ रे ॥ सेव्यो पण नापेरे दमडी केहने रे, कोडी काजें करे राढ रे ॥ ६० ॥ ८ ॥ उपदेश देतांरे मनें घांटी नजे रे, धर्मने कामें धरे ढील रे ॥ पापने मेरे पुरुषातन फोरवे रे, दान देतां करे डखील रे ॥ ० ॥ ए ॥ समकित तिहारें रे रह्युं वेगलुं रे, मिष्या Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. ३३३ दर्शनने मोह रे ॥ सपरिवार रे तिहां आवी वस्या रे, तव वाध, तेहनी सोह रे ॥ध ॥ १० ॥ दिल दोडावी रे बदु देशावरें रे, विध विधना व्य वसाय रे ॥ मोटा मोटा रे तिणें तव मांमिया रे, जलवट थलवटें धाय रे ॥ ध० ॥ ११ ॥ क्लेश साथै रे वाधी संपदा रे, केश रत्ननी कोडी रे ॥ तृष्णा पूरे रे तिणे मेली तदा रे, अंगथी बालस बोडी रे ॥ध॥ १२ ॥ उदयर तन इणि परें उचरे रे, ए बपनमी ढाल रे॥ परखी जोतारे मोहना सैन्य मां रे, लोन जुमो चंमाल रे ॥ ध० ॥ १३ ॥ ॥दोहा॥ ॥ तो पण तृष्णा नवि मिटे, अर्थ उपायो जेह ॥ रखोपुं करतां तेहy, निइ नावे नयणेह ॥ १॥ रात दिवस पूरण रहे, ले जूए लखवार ॥ बिलाडीना बच्चा परें, फेरवे अर्थ अपार ॥ २ ॥ बदाम काजें त्यजे बापने, मातने मूके दूर ॥ याचक लागे जहेरसो, जोजन न करे नूर ॥ ३॥ तो लीमापीने गणी, जो आपे तेह ॥ घण कष्टें घर खरच पण, तिल पापड थयो तेह ॥ ४ ॥ खाए खोळं धान ते, नवु न खाए रेष ॥ हाथो हाथें आपतां, प्रतीत न पामे एष ॥ ५ ॥ सर्वगाथा ॥ १७४१ ॥ ॥ढाल सतावनमी॥ ॥ मोरा आदि जिन देव देखी तुजने आनंद नयो ॥ ए देशी ॥ मुलाइ नाइने तिणे, एकदा निज आथ ॥ कोडि गमे सोंपी किमें, लोनने परमा थ ॥ जो जो लोजनां काम ॥ लोन नंमो एह कंमो दरिन लह्यो ॥ १ ॥ नाणानुं ते लेखू करतां, बहु कीया तव पंच॥ पूरा न पडे तेहने काजें,थ ई खिंचा खिंच ॥ जो० ॥ २ ॥ पग बंधीने लेखू करतां, वही गया दिन सात ॥ मुलाई ते मृत्यु पाम्यो, विसूचिका संघात ॥ जो ॥ ३ ॥ तव 3 ष्टमा शिरदार तेहने, लोक कहे एवंम ॥ बल्या हाथनो बिरुद एहवं, वली कहे करचं ॥ जो ॥ ४ ॥ प्रसिह एहवी परवरी रे, बाप्युं तेहy कोय ॥ हाथमां न जाले हाहा, लोनें हुं होय ॥ जो० ॥ नगरमांहे एकदा तिहां, मुंघो थयो काठ ॥ खेरनी महा खोट पडी, नहीं आव्यानो घाट ॥ जो० ॥ ६ ॥ सागरें तव प्रेखो तेहने, कां मेहलियें लान ॥ हिमत दिए राखतां, उमलिमांहे यान ॥ जो० ॥ ७ ॥ तनुजने पण ते न धीरे, का ई नापे काम ॥ रखे जाणे ए माहरो, उष्ट वेरे दाम ॥ जो० ॥ ॥ पांच ३. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सें सकट ले, लोनने उन्नांहि ॥ स्वजनलोके वारतां ते, गयो अटवीमां हि ॥ जो० ॥ ए ॥ काष्ट तिहां मजूर कापे अरहा, परहा को क्याहि ॥ एकाकी तें आप जर, बेगे तरुबांही ॥ जो० ॥ १० ॥ दैवयोगें उष्ट तिहां, आव्यो एक वाघ ॥ देखी सोमदत्तने तिणे, मायो जोइ लाग॥जो ॥ ११॥ विलपतो विलुरी नाख्यो, नखें नस ताणि ॥ एकेंशियादिकमाहे जई, उपनो ते प्राणी ॥ जो० ॥ १२ ॥ वलि तिहां नवनी ते कोडी, न मि काल अनंत ॥ उदये ए ढाल कही, सतावनमी तंत ॥ जो० ॥१३॥ ॥ दोहा ॥ ॥समकित मुलन पामिने, इणि परें वार अनंत ॥ बल हीणो ते बापडो, जगमा हास्यो जंत ॥ १ ॥ सर्वगाथा ॥ १०५५ ॥ ॥ढाल अहावनमी॥ ॥ सुसाधु गुरुसही मोरे मन माने ॥ एं देशी ॥ किहांएक रागें किहां एक , किहां एक अनंतानुबंधि ॥ क्रोध मान माया लोनयोगें, समकित न शक्यो संधि ॥ जगतमां जो जो मोहनो जोरो ॥१॥ बीजे पण एहवे नव बहले, पामीने नीगमि ॥ समकित सुरतरु सरिखो सहेजे, मुर्गति मुखें तिणें दमि ॥ ज० ॥ २ ॥ किहां एक शंका दोष संयोगें, अने वली अ तिचारें ॥ किहां एक क्रीडा कामविकारें, किहां एक कुटंबने नारें ॥ जप ॥३॥ किहां एक वन्ननतणे वियोगें, धन नाशादिक सोगें ॥ कहां एक परदल नयप्रयोगें, किहां एक रागने योगें ॥ ज० ॥ ॥ किहां एक गंडा दारिश नावें, पुरुष स्त्री नपुंसक वेर्दै ॥ किहां एक संगें व्यसनने रंगें,किहां एक कुशास्त्रने नेदें ॥ ज० ॥ ५॥ इम प्रत्येकें काल अनंते, नरनवल ही लही हास्यो ॥ समकित रतन चिंतामणि करथी, संसार तिवं वधाखो ॥ ज० ॥ ६॥ मोह राजाने जोरें करीने, सम्यक् दर्शन साथें ॥ पूरी जिहां तिहां न प्राति बंधाणी तिणें, दुःख सह्यां तेह अनाथें ॥ ज० ॥ ७ ॥ देत्र पव्योपम असंख्यात नागें, प्रदेश राशि प्रमाणे ॥ समकित फरस्या पली व्यो प्रीबी, नव कीधा ते प्राणि ॥ ज० ॥ ॥ अगवनमी ढाल ए बोली, उ दयरत्न कहे आगे ॥ सबंध ए सावधान थश्ने, श्रोता सुणजो रागें ॥५॥ ॥दोहा॥ ॥ विजय खेटपुरें अन्यदा, धर्म श्रेष्टिने गेह ॥ सुंदर नामें सुत थयो, जीव संसारी तेह ॥ १ ॥ सुगुरु समी- श्रुत सुणी, समकित धरी सुजाण Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवनजानु केवलीनो रास. अप्रत्याख्यानाव १३५ ॥ विचरे जिन मारग विधें, धरतो व्रत पचखाए ॥ २ ॥ कर्मे तत्र करुणा करी, घर त अध्यवसाय ॥ तदरूप करवाल तसु करें, याप्युं तेणे वाय || ३ || मोहादिक महा शत्रु जे, शरीरतला तिरों अंश ॥ अधिकतर बेदे तदा, करतो कर्म प्रशंस ॥ ४ ॥ जीनाकुल नागा तदा, रण ॥ कषाय ते करवालथी, जिम सिंह यागे हरण ॥ ५ ॥ सम्यक् दर्श न तव सचिवें, सुगुरु पासें जेह ॥ चारित्र धर्म महा चक्रवर्त्ति, देखाड्यो यह ॥ ६ ॥ गुरें तव गुण तेहना कह्या, चारित्र धर्मने जेह | सुवि सेवि सहजें लहे, सुर नर शिव सुख तेह ॥ ७ ॥ वली विशेष वर्णव्या, गुरुराजें गुण तास ॥ तव सुंदरें सो स्वामी कस्यो, अंगें धरि उल्लास ॥ ८ ॥ ॥ ढाल उगणसाठमी ॥ ॥ ॥ कर जोडी रही ॥ ए देशी ॥ समकित धारी सांजल्यो, चारित्र धर्म नूपालें रे ॥ योग्य जाली तव तेहने, परगावी नजमालें रे ॥ स० ॥ १ ॥ देशविरति लघु कन्यका, तेहने संगें ते धारे रे ॥ नाहक त्रस जीव नवि हां, दुविधि त्रिविधि हुं किहारें रे ॥ स०॥२॥ स्थूल प्राणीने जालवं, वलि वरजुं अतिचार रे ॥ वध बंधन बेदन नवि करूं, न जरुं वधतो जार रे 11 ॥ स० ॥ ३ ॥ जात पाणी रोकूं नही, ए पांचे मन शुद्ध रे || यतिचार ते पाले सदा, व्रत रखवानी बुझें रे ॥ स० ॥ ४ ॥ इम करतां दवे एकदा, पिता तेहनो पीनो रे ॥ तव घरना कारभारमां सुंदर रहे ते जीनो रे ॥ स० ॥ ५ ॥ अवसर त्यारे उलखी, पासें तेहने प्रेखी रे || स० ॥ निस्तुं सता मोहादिकें, जे व्रतने नाखे वेखी रे || स० ॥ ६ ॥ तसु संगें ते आ दरे, निर्दयपणुं तागें रे ॥ लंघावे ते लोकने, धन जे पासे मागे रे ॥ स० ॥ ७ ॥ वध बंधन ताडन करे, कोइ मरे कलाइ रे ॥ इम करतां नि र्धन थयो, तव राज्य कामूं व्ये धाइ रे ॥ स० ॥ ८ ॥ तव हिंसा प्रगटी हे जसुं, प्रत्याख्यानावरण रे ॥ क्रोधादिक पण थया बता, अधम जेहनां आचरण रे ॥ स० ॥ ए ॥ व्रतनी नाग। तव वासना, बंधनें केहने बंधे रे ॥ ताडे तरजे ने हणें, धर्म त्यजि पड्यो धंधे रे ॥ स० ॥ १० ॥ देशविरति · ही तदा, लगी रही तेहथी रे || पण कुलक्रम मूके नही, छूटी न शके जेही रे ॥ ० ॥ ११ ॥ देव वंदे देहरासरें, पक्षपाती थई पूजे रे ॥ जिन दर्शन करे दिन प्रतें, दिल नवि राचे दूजे रे ॥ स० ॥ १२ ॥ नरकें न गयो ते Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वती, पण देशविरति विराधी रे ॥ वलि समकित विराधिलं, तेणें मरी ते अपराधी रे ॥ स० ॥ १३ ॥ नुवनपतिमां ऊफ्नो, दीन जाति थयो देव रे॥जव अनंता वलि नम्यो, ते जाणे जिन देव रे ॥ स०॥१४॥ उदय रतन कहे अहो नवी, गणसातमी ढालें रे ॥ समकितथी चूको रखे,जेणें पडियें नव जालें रे ॥ स० ॥१५॥ ॥दोहा॥ ॥ शालिन विवहारित, समकित दृष्टि तास ॥ अंगज ते थयो एकदा, माणिन नामें तास ॥१॥ समकित तिहां सहेजे लह्यो, देशविरति वरि दार ॥ स्थूल मृषावाद विरमण, व्रत कडे अंगीकार ॥शासर्वगाथा १०ए० . ॥ ढाल साटमी॥ ॥ गुं करियें जो मूलज कूडं ॥ ए देशी ॥ कन्या गो नमि थापण मो सो, कूडी साखने कूडो दोसो ॥ इत्यादिक जे जूनां मोटां, छविध त्रिविध न बोले खोटां ॥ १ ॥ बीजं व्रत साधे इणि नातें ॥ अतिचार पांच त्यजे मन खांतें ॥ सहसातकारें बाल न बोले ॥ स्वदार तणुं वलि गुह्य न खो ले ॥ २ ॥ कूडो उपदेश ने कूडो लेख ॥ अज्ञात कांइ न बोले विशेष ॥ ए पांचे अतिचारने त्यजतो॥ व्रत बीजाने रहे ते नजतो॥ ३ ॥ एक दि न जनक गयो अन्य हाटें ॥ कोश्क वस्तु लेवामाटें ॥ तव मोहादिक प माडवा दोन ॥ अप्रत्याख्यानावरण जे लोन ॥ ४ ॥ मृषावाद आदे न ट सोई ॥ तेह पासे मेल्या तक जोई ॥ तेहतणे बागमनें एह ॥ वणिज काज वदे अलिक यह ॥ ५ ॥ पाडोसीनुं वस्त्रादिक व्यावे ॥ बमणो ला न ते पोतें खावे ॥ पोतानुं आपे परहाथें ॥ बहु मूल खावा पर माथे ॥ ॥ ६ ॥ग्राहक जो पू सुप सेठ ॥ { एहन मूल लेसो नेट ॥ तव तेक हे अमें कह्यो जेतो ॥ सोगन सेंती लेसुं तेतो ॥ ७ ॥ तव ग्राहक कहे बोलोने साचुं ॥ एक मूल कहो तो अमे राचूं ॥ तव कहे कटुंबं निरधार, एतामांहि नहीं फेरफार ॥॥ वारु तमे ए लेसो केते ॥ ग्राहक कहे अमे लेसुं एते ॥ तव सेठ कहे ए मूलें जो आपुं। तो घर अमे गुं ग्रहणे था' ॥ ए ॥ इत्यादिक बोली वंकाई ॥ नोला लोकने मेले वाही, मनसुं मूल ते साचूं मानी ॥ लान आपी ते जाए अज्ञानी ॥१०॥ उदयरत्न कहे साउमी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २३७ ढालें ॥ जिम तिम लोकने नाखे जालें ॥ लोनिन नर जगमां लख वातें ॥ पण जयकारो न लहे दिनरातें ॥ ११ ॥ ॥ दोहा ॥ समय लही सागर तदा, श्म तसु दे उपदेश ॥ जूतुं तूं छं जंपता, शंकायें सुविशेष ॥ १ ॥ सर्वगाथा ॥ ११०२ ॥ ॥ढाल एकसठमी ॥ ॥ गोकुल गामने गोंदरे रे ॥ ए देशी ॥ जूतुं बोलतो जोखमां रे, मलि मलि गुं करे मांग ॥ माहरा वाहला रे, मृपावाद वदे श्स्यु रे, लोनें प्रे खो ते लांग ॥ मा० ॥ जू० ॥१॥ फेरव्यो तुं बोले फडे रे, नथी लहेतो कांश न्याय ॥ मा ॥ घरनु खरच बहु उंहुं रे, प्रचूर जांमां नराय ॥ मा० ॥ ॥ ५ ॥ वाणोतरी वली आपवी रे, करवा लोगोपनोग ॥ मा० ॥ बेसराणि बदु बाजारमा रे ॥ जोडंवा विवाहादिक योग ॥ मा० ॥ जू० ॥ ॥३॥ साचूं बोलतां सोंखिया रे, लहियें'न लान अपार ॥ मा० ॥ अलि क अ अक्ष्य निधि रे, केतक नामें निरधार ॥ मा० ॥ ज० ॥ ४॥ यतः श्लोकः ॥ वाणिज्ये परमो नीवी,वेश्यानां परमो निधिः ॥ लिंगीनां परमा धारो, मृषावाद नमोस्तुते ॥ १ ॥ जूतूं बोले बीजा बदु रे, तेहनी थासे जे पेर ॥ मा० ॥ गति थाशे माहरी पण तेहवी रे, वणिजने साचने वेर ॥ मा० ॥ जू० ॥ ५ ॥ ते पण कानें कांई तूं धरे रे, जे मुखथी बके ए मूंग ॥ मा० ॥ पर घर सूरा पिमिया रे, अखंफ एहनां पारवंम ॥ मा० ॥ जू॥ ॥ ६ ॥ न घर बारा नकरा सदा रे, सुखें आपे ए शीख ॥ मा० ॥ पण क झुं एहनुं जे करे रे, ते आखर मागे नीख ॥ मा० ॥ जू० ॥ ७ ॥ माधुं मुं माव जो होय रे, तो मुंमना मानियें वयण ॥मा॥ सोहेलुं न रहेQ सं सारमा रे, जोने उघाडिने नयण ॥ मा० ॥ ज० ॥ ७ ॥ उपदेश तेहनो ते सांजली रे, अलिक बोले निशंक ॥ मा० ॥ व्रत नागुं वीशे वीसारे, देश विरति नाती लहि वंक ॥ मा ॥ जू० ॥ ए ॥ देव पूजादिक आचरे रे, अनुक्रमें पूरी ते पाय ॥ मा० ॥ हीन व्यंतर ते नपनो रे, समकित व्रष्ट महिमाय ॥ मा० ॥ जू० ॥ १० ॥ किहां मुंगो किहां बोबडो रे, कंठ तालु जीन दंत ॥ मा० ॥ अधर रोग जुर्गधता रे, एहवा मुख रोग लहंत ॥ मा० ॥ जू० ॥ ११ ॥ किहांयें बोल्युं गमे नहिं रे, उःस्वर सदु रहे दूर ॥ मा० ॥ नर नव पामी एहवा बद्ध रे, पीडा दीठी प्रचूर ॥ मा० ॥०॥ १२॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ जैनकथा रनकोष नाग पांचमो. नरक तिर्यंचमां ते नम्यो रे, एणी परें काल अनंत ॥ मा ॥ एकसतमी ढालें उदय वदे रे, जूतें वाह्यो ते जंत ॥ मा० ॥ जू० ॥ १३ ॥ ॥दोहा॥ ॥ एक दिन ते वलि कपनो, वणिक श्रावकनो पुत्र ॥ सोमनामें अति सुंदरूं, समजे सघला सूत्र ॥ १ ॥ धण कण सोवन रजत रस, इंधण वस न तृण आदि ॥ बादर अदत्त न बादरे, ऽविधि त्रिविधि आल्हाद ॥ २॥ त्रीजुं व्रत नजे सर्वथा, स्थूल अदत्तादान ॥ अतिचार पंच वस्जे सदा, तेहमां थई सावधान ॥ ३ ॥ सर्वगाथा ॥ १११७ ॥ . ॥ ढाल बासतमी ॥ ॥ हरि गुण गातां लाज लागे तो लागजो रे॥ ए देशी ॥ चोरनी था णी वस्तु, नल्ये चित्तसुलही रे ॥ न ल्ये चित्तसुलही रे ॥ चोरीने काजें क्यारे साहाय्य, वली पापे नही रे ॥ व ॥१॥ नलंघे न राज्य विरु ६, आपद पद ते कदा रे ॥ आ० ॥ कूडा तोलने कूडां मापके. वरजे ते सही रे ॥ व ॥ ५ ॥ सरसमां निरस न नेले, क्रियाणां केलवी रे ॥ कि० त्री व्रत पाले तेह के, म मन मेलवी रे ॥३०॥३॥ बहुली सागर वेदुते, अप्रत्यारव्यानिया रे ॥०॥ तिणे नेस्यो तेहने, राय संतानिया रे ॥ रा० ॥ ४ ॥ तव व्रतने विराधी तेहके, पूरवनी परें रे॥ पू०॥थयो नही जाति देव, पीड्यो पापने नरें रे॥ पी० ॥ ५ ॥ नवांतर नमिजूर, दरि ईदामि रे ॥ द० ॥ वलि श्रावक कुल अवतार, ते प्राणी पामीन रे॥ ॥ ते ॥ ६ ॥ दत्त नामें तेणे देव, तिर्यच नारीपणुं रे ॥ ति ॥ सुविधे त्रिविधे सीधं नीम, वली आगे नपुं रे ॥व०॥७॥ मनुष महिलासुंसं गके, कायायेंकरी रे ॥ का० ॥ न करूं दुं निर्धार, लही कुःखनी दरी रे ॥ ॥ ल०॥॥ इत्वर परिग्रहताने, अपरिग्रहता तजे रे ॥ अ० ॥ अनंग क्रीडा अघराशि, जाणी नवि जे नजे रे ॥ जाण ॥ ए ॥ जोडे न परविवा हके, महादोष जाणीने रे ॥ म० ॥ विषयनो तीव्रानिलाष, वरजे हित आणीने रे ॥ व०॥१०॥ इणिपरें चोथु व्रत, लई आराधतां रे ॥ ल०॥ केतो गयो तसु काल के, समकित साधतां रे ॥ स ॥ ११ ॥ पुरुष वेदो दय तीव्र, तिणे योगें करी रे ॥ ति ॥ व्रतने विराध्यो तेह के, आयु यंतें मरी रे ॥ या० ॥ १२ ॥ पूर्व परें हीन देव, तणी योनी गो रे ॥ दे० ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २३ए नवमां नमियो नूर ते, क्लीब थई पडे रे ॥ क्ती० ॥ १३ ॥ बोली बासतमी ढाल, ए उदय ते कचरे रे ॥ ए० ॥ धन्य सदा नर तेह, जे धर्म हृदय धरे रे ॥ जे ॥१४॥ ॥दोहा॥ ॥ उपनो पुनरपि अन्यदा, धनबदुल इण अनिधान ॥ समकित धा री श्राइते, पंचम अणुव्रतवान ॥ १ ॥ खेत्र वास्तु रूप्य हेम धन, धा न्य हिचतुष्पद कुप्य ॥ परिमाण तेहy ते करे, चितमांही धरि चूंप ॥ ॥ २॥ योजन दान बंधन वली, कारण नावादिक ॥ अतिचार पांचे ट थक, तेहना लहो तहकीक ॥ ३ ॥ उर्गम कांई लही एहनो, विवरी कहूँ विचार ॥सनाजन सर सुराजो तुमें, नेहेंसुं नर नार॥४॥ सर्वगाथा॥११३६॥ ॥ ढाल त्रेसठमी॥ ॥ गोडी रागें जकडीनी देशीमां ॥ खेत्र वास्तु परिमाणथी, अधिक तणी इबायें जी॥ पासेंनां लेई प्रेमसुं, एक करें नबाहे जी॥ आगल पाउलनां ग्रहे बाहे, एक करे जे योजना ॥ वाडी वरडी टालीने ते, नावेंसुं सुगो नवि जना ॥ अतिचार पहेलो एह प्रीब्यो, पांच में व्रत शुन मती॥ अति चरी जे अधिक लोनें, खेत्र वास्तु प्रमाणथी ॥ १ ॥ तार अने सोना त गो, नियम करे जे नेहथी जी॥.चोमासादिक समय लगें, अधिक न रा खं एहथी जी॥ अधिक न रा एहथी, म त्रेवडी मने अर्गला ॥ पडे नृपादिक मोज योगें, साथ पामी अगेला ॥ स्वजनादिकने सॉपी ते फ री, संग्रहें धरि मोह घणुं ॥ इणि परें थाए नियम मुदुऱ्या, नार अति सो नातणुं ॥ ॥ धन धान्यादिक मान जे, उनंगे अति लोनें जी॥ वृद्धि दे खी मूर्ना लगे, मनमां जाए न थोने जी ॥ मन न थोने लान जाणी, पोतान करी पर घरें ॥ थापे तथा निज जनने आपे, एम बन बंधन क रे॥ मुंमादिक वलि बांधे मोटा, इणि विधे अज्ञान जे ॥ अतिचरी अतिचार त्रीजे, धन धान्यादिक मान जे ॥३॥पद चतुष्पदमां नथी, जे तृमाने जोरें जी ॥ प्रसव लही पशु बालनो,अवधि अपूगे चित चोरी जी ॥ चित चोरी धरे पर घरें इम, कारणे अवसर लही ॥ पडे आणे घरें पोताने, निं दाने अवसर लही ॥ अतिचार चोथो एह प्रीव्यो, सुगुरुवचनें ज्ञानथी ॥ लोनें जे श्म मन न मगावे, पिद चतुष्पद मानथी ॥ ४ ॥ कुप्य शय Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. नासन आदि दे, नाजन शस्त्र कचोलां जी॥ दश पंच ते मेली मोकलां, बाकी नियम बहुलां जी॥ व्रत उपहरे वृद्धि देखी, नंजावी ने घाट ते ॥ स्यूल घडावे तजी थिरता, पण जाणो उवाट ते ॥ जिम तिम करीने सं ख्या पूरी, पण पूराए नव यापदें । म राग वसें जे अधिक राखे, कुप्य शयनासन आदि दे ॥ ५ ॥ ते पण बहु दिन पालिने, सागरने उपदेशे जी ॥ स्थूल परिग्रह परिमाण ते, व्रतते नांगी विशेषे जी॥ व्रतने नांगीन म्यो नवमां, पूरवनी पेरें ते वली ॥ दिगपरिमाण पण तिमज क्यारे, खं मयूं सागरने मली ॥ जोगोपनोग पण तिमज जाग्युं, अनर्थ दंम नलालि ने ॥ नारख्युं धरि तिम सामायक व्रत, ते पण बहु दिन पालिने ॥ ६ ॥ व ली लेई विराधियां, देसावकासिक श्रादे जी ॥ दशमुं अग्यारमुं बारमुं, व्रत विषयादि प्रमादें जी ॥ प्रमादें पोषधोपवास, व्रत विषंकी को नवें ॥ अ तिथिसंविनाग नांगें, अदत्त गुणने अनुनवें ॥ हास्य विकथा रौ भारति, ध्यान योग न सांधियां ॥ विषय कषाय ने राग ३, वली लेई विराधियां ॥ ७ ॥ इणिपरें जमतां तिणे, बेत्रण पांच चार जी ॥ सात पाठ कोश्क नवें, नव दश अग्यार में बार जी ॥ बारे व्रत धरी बदुल ने हैं, वलि वलि मोहने बलें ॥ विराधीने वमी समकित, सुःख दीठां उरगति थलें ॥ अनुनवी महा थापदा मुखें, कही न जाए ते किणें ॥ ढाल त्रे समी ए उदय नाखे, इणिपरें जमतां तिणें ॥ ७ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ कुंमिनी नगरी वसे, सुन सार्थवाह श्राध ॥ ते जीव संसारी अ न्यदा, सुता पणुं तसु लाध ॥ १॥ रोहिणी नामें रागिणी, जिन मतनी जालीम ॥ गुं६ थई ते श्राविका, अथिर लहि आलीम ॥ २ ॥ मेलें नमे गुरु देवने, सांजले सूत्र सदाय ॥ साध्वीनी करे सेवना, सूधे मनें सवाय ॥३॥ विमल वणी ते वरी, स्नेहें वाह्यो सोइ ॥ यावीने वश्यो एक गे, घर जमाई हो ॥४॥ धर्म करे ते धसमसी, सवा लाख सजाय ॥ कर्म ग्रंथादिक ते नणी, तात तणे सुपसाय ॥ ५ ॥ व्रत बारे वलि बाद यां, टाले तसु अतिचार ॥ ज्वाले कर्म कषायने, पाले शुक्षाचार ॥ ६ ॥ ॥ढाल चोसमी ॥ ॥ आदि जिणेसर वीनती ॥ए देशी ॥ तव मोह बेगे निज बासने,एक Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवननानु केवलीनो रास. २४१ दिन इम थालोचे रे ॥ अहो हो ए उंची चढी, चुं करशुं एम शोचे रे ॥ १ ॥ मोह राजा मनें खोजियो, दिशने रखे दिलगीरो रे ॥ तव सचिवा दिक सदुमली, कहे जाखो मनहीरो रे । मो० ॥ २ ॥ तव मोहनृप बोल्यो मुखें, शुं पूढो बो सचिवो रे । रोहिणी दिशि यई रागिणी, अरि थापणासुं तीवो रे ॥ मो० ॥ ३ ॥ ते हवे किम वश आवशे, आपणे एम सुली नेरे ॥ तव दसि बोव्या ते सहू, रियलने अवगणिने रे ॥ मो० ॥ ४ ॥ निवड सहु जग तिहां लगें, प्रभुजी तुम एक पालो रे ॥ जई न पहोचे जि हां लगें, ए गुं बोल्या तमें खालो रे ॥ मो० ॥ ५ ॥ तव मोह कहे तिहां मोकलो, कोइक एहवो जोरालो रे ॥ जे पाठी वाले तेहने देखाडी निज चालो रे || मो० ॥ ६ ॥ तव ते कहेवा करें तेहने, इम सुणिने तव यापें रे । उनी थई इम कच रे ॥ विकंथा निज बल व्यापे रे || मो० ॥ ७ ॥ प्र साद कराने प्रभु, पो मुऊने यादेशो रे ॥ प्रमाण पेखुं हूं तेनुं, ति हां जईने सुविशेषो रे ॥ मो० ॥ ८ ॥ तरतरी देखी तेहने प्रधानादिकें प्रेरे ॥ तव तपासें जई तिणें, ततखिण जीधी घेरी रे || मो० ॥ ए ॥ चार रूपें चतुरा थई | विकथा योगिनी वारू रे, वदनें वसी जइ तेहने, 3 श करी दारू रे || मो० ॥ १०॥ चोसठमी ए ढालमां, उदय वदे ए यांटी रे || मोटी मोह राजातणी, मुगती जातां बे घांटी रे ॥ मो० ॥ ११ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तात घरें रहता तिहां, जलां वसन जोजन्न ॥ पामे परिघल रोहिणी, जीजी करे सन्न ॥ १ ॥ काम काज न करे किश्युं, घरति न एक लगार ॥ मात पिता सुपसायथी, को न कहे तुंकार ॥ २ ॥ सर्व०॥११४५ ॥ ॥ ढाल पांसमी ॥ ॥ वीर वखाली राणी चेला जी ॥ ए देशी || देव भुवन तव गए थ के जी, उलट प्राणी कर ॥ वात प्रीय कोइ प्रेखीने जी, देव वंदन त्यजे दूर ॥ १ ॥ विकथानें रसें वाही रोहिणी जी, पोतें जश्ने तेह पासे ॥ बे साडीने ते बोले इयुं जी, ए मेंहली सुख्यं तु श्रावासे ॥वि०॥ २ ॥ याज ए तुम घरें नीपनुं जी, काज कस्यो मुने केणें ॥ ते कहे अलिक ए उच जी, तुक खागल सहि तेणें ॥ वि० ॥ ३ ॥ तूं वाहरे माही वदे रोहिणी जी, सुजने पण उलवे बे मांम ॥ सा कहे समजण विना सही जी, जिम ३१ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. तिम युं लवे नांग ॥ वि० ॥॥ इम उत्तर पडुत्तर आपता जी, वढवाडे थाव्यो त्यां पार ॥ तव बीजासुं राजकथा करे जी, विकथाएं वाही अपा र ॥ वि० ॥ ५ ते पण घरें गई थाकिने जी, तव त्रीजीसुं तेणे सराग ॥ पु रुष स्त्रीनी प्रारंजी कथा जी, ते सासरियाने नये गई नाग ॥ वि० ॥ ६ ॥ चोथीमुं चाहीने तेकरे जी, नक्त कथा तिहां नूर ॥ इम पांचमीसुं देशक थाकरे जी, आवे तव शिर परें सूर ॥ वि० ॥ ७॥ श्म आचरतां विकथा अनुदिने जी, कोई श्रावक कहे एक दिन ॥ कर जोडीने ते कामनी प्रतें जी, नई आवी देव नुवन्न ॥ वि० ॥ ॥ एक मनें त्यजिने आशातना जी, नमवू घटे नाथने पाय ॥ ते वंदनातो रहि वेगली जी, किम करो बो कर्म कथाय ॥ वि० ॥ ए॥ तव उत्तर आपे ते तेहने जी, बंधव बीजे को गम ॥ किहारे को नवि मिले केहने जी, केहने को न जाये धाम ॥ वि. ॥१०॥ प्रिय मेलो थाये ए थानकें जी, तेणे सुख दुःखनी क्षण एक ॥ पासठमी ए ढालें धर्मने कर्मनी जी, वात थाये विसराल ॥ वि०॥११॥ ॥दोहा॥ ॥ उपाश्रय पण अजा तणे, सहेजे तजि व्याख्यान ॥ जे ते श्रादि सुं करे, विकथा तेह सदाय ॥ १ ॥ साधु श्रावकने श्राविका, साधवीना सु विशेष ॥ अवर्णवाद मुख कचरे, अनुदिन तेह विशेष ॥ २ ॥ तव सीखा मण ये साधवी, नई लणतर सर्व ॥ जाए ले तुफ वीसरी, जिम गुण जा ए गर्व ॥३॥ एह नवे फुःख दायिनी, केवल कष्ट निवास ॥ एहवी कथा करे गुं होय, अनर्थ दंम आवास ॥४॥ सदन जे संपत्ति तणुं, मुक्ति पुरीनुं मूल ॥ सुधासम स्वाध्याय कर, अहनिशि थई अनुकूल ॥ ५ ॥ ॥ ढाल बासठमी ॥ ॥ जोसीयडो जाणे जोस विचार ॥ ए देशी ॥ मुह मरडी तव ते कहे रे, साधवी जी सुणो वात ॥ साधुजने पण सर्वथा रे, विकथा न वरजी जात ॥१॥ गुरुपीजी मलि मलि म करो मांग ॥ अांकणी ॥ न गमे मु ने पांखम ॥ गु० ॥ न तजाए अनर्थ दंग ॥ तो जीन थाए शत खंम् ॥ गु० ॥ ॥ मुहपतिएं मुख बांधिने रे, तुमे बेसो बो जेम ॥ गुण ॥ तिम मुखें मूचो देईने रे, बीजे बेसाए केम ॥ गु० ॥३॥ मुख बांधी मुनिनी प रे रे, पर दोष न वदे प्राहिं ॥ गुण॥ साधु विना संसारमां रे, क्यारे को Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २४३ दीतो क्याहि ॥ गु० ॥ ॥ सरल पणे अमे सही रे, जेवू दे ज्यांहिं ॥ गु० ॥ परने पण मुख ऊपरें रे, तेहवू नाखू त्यांहि ॥ गु० ॥ ५॥ कपट न जाणुं केलवी रे, अवरां परे एक रेष ॥ मुह रखती सगाबापनी रे, वा त न जंपुं विशेष ॥ गु०॥ ६॥ को रुसो तूसो कोई रे, पण अमे अमारी टेव ॥ मरणांते मूकू नहीं रे, जो उहवाए देव ॥ गु० ॥ ७॥ सद उपदे श नवि सहहे रे, अयोग्य बापडी एह ॥ अजाए जाणी तव बजाए रे, उवेखी मेली तेह ॥ गु० ॥ ७ ॥ शंका तजी सा एकदा रे, श्रुत सुणतां गुरु पास ॥ वस्त्रं वदन आबादिने रे, मुसकें मुंकति हास्य ॥ गु०॥ ए॥ ज एजण श्रवणे जूजूया रे, अनेक वदे अवदात ॥लख लख करती ते करे रे, वखाणमांहे व्याघात ॥ गु० ॥१०॥ माती महीषी तलावन रे, जल जिम मोहोले जोर ॥ तिम वखाण मोल्युं तिणे रे, सना जनसुं करी शोर ॥ गु० ११॥ सारथवाहनी सुता लही रे; कोई न वारे कां॥तिम तिम बमणी थाइने रे, लवती लाजे नांहि ॥ गु० ॥१२॥ जो गुरुवादिकवारे कदारे, तो त्राडी कहे तनु नीड ॥ जगवत हूं बगनी परें, बेसी रद्रं मुख बीड ॥ गु० ॥ १३ ॥ पण पडुत्तर पूब्यातणो रे, जो जिम तिम न दे वाय ॥ तो लोक सह मुंगी कहे रे, ते बीके कांड बोलाय ॥ गु० ॥१४॥ अयोग्य जाणीने सर्वथा रे, गुरे पण मेहली नवेख ॥ तेव निशंक मुखें मो कले रे, विकथा करे विशेष ॥ गु० ॥ १५॥ नासतमी ढालें जुट रे, वातें विणसे काज ॥ याखर उदय रतन कहे रे, वातें विगडे लाज गु॥१६॥ ॥दोहा॥ ॥ विकथाने जोरेंकरी, वीसयुं विद्या पूर ॥ अर्थ सदु बागम तणा, दिलथी तव थया दूर ॥१॥ व्रत मेव्यां वीसारिने,बालोए नहिं अतिचार ॥ प्रमादें न नमे देवने, न गमे नियमाचार ॥॥ जणतां मन नेदे नहीं, धर्मे न धाए चित्त ॥ पडिकमणुं अनादरपणे, करे विकथाएं सहित ॥३॥ ॥ ढाल सडसम्मी ॥ ॥ करेलडां घडी देरे ॥ ए देशी ॥ कोइक साथै एकदा, विकथा को कुगम ॥ मगनपणे मांमी तिणे, केवल जाणे क्लेशने काम ॥ १ ॥ थब्तुं बाल न दीजियें रे, बालें थाए उतपात ॥ वरजो विकथा वातडीरे ॥ तजो पियारी तात ॥ अ॥ २ ॥ रखे कोई इहां सांजले, न रह्यो ते उपयोग Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ विकथाने वस परवसे, सहसा वदे सुणे लोग ॥ ॥ ३ ॥ पटराणि ए पुरनाथनी, अति उसीला उष्ट ॥ सम्यग ढुं समजू अर्बु, पापिणी ने ए पुष्ट ॥ १० ॥ ४ ॥ कोइएक जलें माणसें, कह्यो मुझने एह ॥ तेमाटे वी से वसा, साचुं ए नहीं संदेह ॥ १० ॥ ५ ॥ तिणे समे ते थानके, कोई क काम विशेष ॥ ते राणीनी दासीयें तिहां, उदंत सुण्यो ते अशेष ॥ अ० ॥ ६ ॥ राणीने दाख्यो तिणे, राणियें राय हजूर ॥ आदिथकी अवदात ते, कह्यो करी दिल क्रूर ॥ अ० ॥ ७ ॥ तिहां राये तेडावी रोहिणी, तेने तेडी गयो तिहां तात ॥ प्रथवीपति पूजे तदा, एकांते तेडी ते वात ॥थ ॥ ॥ कहे न जे तें सुष्यो, मुज महिला अवदात ॥ ते गं सा चो सुंदरी, विवरी कहो ते वात ॥ अ० ॥ ए ॥ ए तो में सुण्डे नथी, सा कहे सांजली स्वामि ॥ ९ केहढं कांई जाएं नहीं, बेठी रहुं निज धाम ॥ ॥०॥ १० ॥ जिम तिम लवती जाणी तिहां, तव ते दासी तेडि ॥ अहिनाणे सद् अवनीपति, पूराव्या करि केडि ॥ अ॥११॥ मुखा मुखें श्म मेलतां, संशयमां पडी सोय ॥ उत्तर नवि थापे किश्यो, जगति सा हामुं रही जोय ॥१०॥१२॥ तव सारथवाह सुनश्ने, तिहां रोपें तेडी राय ॥ ते दासि दाखाविन, संबंध ते समजाय ॥ अ० ॥ १३ ॥ तव स हसा वज पडे सिरें, तिम थई पूजे तात ॥ अहो अहो पुत्री ए किश्यो, दासी वदे अवदात ॥ अ०॥ १४ ॥ एकांतें पण ए किश्यो, प्रबंतां बढ़ पेर ॥ उत्तर जव आपे नहीं, तव तातें तजि हेर ॥ अ० ॥ १५ ॥ तेडा वी ते तारुणी, जे आगल एणे वात ॥ आगलथी कही दुती, उत्तखी ते दासी संघात ॥ अ॥ १६ ॥ कामनी ते आवी कहे, सारथवाहनी सा ख ॥ हा एणे इम उच्चगुं, न जाणुं श्ये अजिलाष ॥ अ० ॥ १७ ॥ जन क तेहनो जाणे अने, मूल थकी मुख दोष ॥ ते वनिताने वश जाने, त नुजाने तेडी सरोष ॥ १० ॥ १७ ॥ श्रावी अवनीपति कने, नेत्रे धरतो नीर ॥ पर्यपे ते पाए नमी, दिलसुं थई दिलगीर ॥ १०॥ १५ ॥ सडस उमी ढालें बटकी, सदू को रहे सेण ॥ उदय वदे यापद पडे, कोई न माने कहेण ॥ अ० ॥ २० ॥ ॥दोहा॥ ॥ आज लगें प्रनु अमकुलें, दोतो पण कोई दोष ॥ जीव जातां लगें Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ . श्रीनुवननानु केवलीनो रास. नवि वदे,पापनो जाणी पोष ॥१॥ यण दीतो अणसांनव्यो,ए दोष दाखी महाराज ॥ कलंक प्रथम ए मुज कुलें, एवं चढाव्युं आज ॥ ५ ॥ बीज तणां शसिहर थकी, विमल मुज वंश विशेष ॥ कबुरुये ते कालो कस्यो, अलिक वदीने एष ॥३॥ मोकलजीनी लोकमुखें, जाणीने में जेह ॥ वारी नहीं ए ते वती, तकसीर माहरी तेह ॥ ४ ॥ विविध गृह व्यापार वसें, संनारीने शीख ॥ नवि दीधी वलि नवि तजी, लागी तो ए लीक ॥ ॥ ५ ॥ ते माटे प्रनुजी तुमें, जिम जाणो तिम जोर ॥ ए अपराधिक पर करो, निशंक थई निठोर ॥ ६ ॥ सर्वगाथा ॥ ११ ॥ ॥ढाल अडसम्मी॥ ॥धणरारे पंथी ढोला मत वादलियें ।। ए देशी ॥परतात कीएं श्मसा विगो हो, हो सुगुणा रे, सुणजो श्रोता ॥ १० ॥ निगुणा रे, नर तिहां विगोता ॥१०॥ पुरनारे जन मलि जोता ॥ १०॥ ए आंकणी ॥ नृप कहे मारा नगरमां रे, अवल पुरुषy एक ॥ वचन न लो ढूं ताहरूं, मुझने मानवा योग्य तूं लेक हो ॥ सु० ॥१॥ शतखंक करी चोवटे रे, नहिं ना खं ते माट ॥ पण देशोटो देवो घटे, जिम अवर को न वहे ग्वाट हो। ॥सु ॥ २ ॥ अवनिपति तेहने इम कही रे, विसयो तिणे ताय ॥ ते णे पण तेहज गामथी, तनुजा ते कीधी विदाय हो ॥ सु० ॥ ३ ॥ राज नरें वींटीथकी रे, राजमारग सा जाय ॥ देशवटे उखणी घj, उष्ट लोक वदे तव त्यांहि हो॥ सु॥४॥ अहो अहो आते श्राविका रे, अहो देव वंदनाए तेह ॥ पडिकमणो मुखे वस्त्रिका, आते पूबडं फूल्युं यह ॥ सु० ॥ ५॥ अहो ए ते नातर नलु रे, एहवो ए जैननो धर्म ॥ अवगुणय बता कचरे, परना परख्या विण मर्म हो ॥सु०॥६॥ पग पग श्म पामरज ने रे, निंदाती निज धर्म समेत ॥ नगर बाहिर ते नीसरी, संचारती सह ना देत हो ॥ सु० ॥ ७ ॥ जनक वैजव न वीसरे रे, मातनो संजारी मो ह ॥ बंधु जन गौरव बदु परें,मनें समरे पामि विडोह हो ॥सु०॥७॥ परि जनना ते परें परें रे, बादर ध्याती अनाथ ॥ सुगुरु वियोगें शोचती, ग मन करे धूजती गात हो ॥ सु० ॥ ए ॥ मु ति मुखे विलपती रे, गति हीण गामो गाम ॥ नीदाने काजें जमे, किहांयें पामे नहि विश्राम हो ॥ सु० ॥ १० ॥ वनमांहें वींधाए वली रे, कांटे कोमल चरण॥ रुधिर धा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. राये सींचे धरा, ऊघराला थयां आचरण हो ॥ ० ॥ ११ ॥ क्रोध तदा कोप्यो घणुं रे, प्रत्याख्याना वरण ॥ श्रारति सैन्य उदेरीने, तिरो सम कितनुं क हरण हो ॥ सुं० ॥ १२ ॥ आयु पूरी ते ऊपनी रे, अपरिग्रहीता व्यं तरीहीन ॥ एकेडिया दिकमां वली, प्रति दुःख दीगं थई दीन हो ॥ सु० ॥ १३ ॥ किंहां बेहेरी किहां बोबडी रे, किहां थयो जिव्हा रोग ॥ ग्रड समी ढालें सुणो, उदय वदे खास्तिक लोग हो ॥ सु०॥ १४ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ तालि लेइ मोहराय तव, महा मूढता प्रिय साथ ॥ हसी कहे सुग हे प्रिये, विस्मयकारी वात ॥ १ ॥ सूधी निवड जे श्राविका, निश्वल जे हना नीम ॥ विकयायें जुन तेहनी, शीशी नांजी सीम ॥ २ ॥ ए गरीब डीनुं कहो शुं गजुं, सा कहे सांनलो स्वाम ॥ ग्रचंनो श्यो ए वातनो, जो नर सुरपति तुम नाम ॥ ३ ॥ सर्वगाथा || १२०४ ॥ ॥ ढाल जंगपोतेरमी ॥ ॥ सूर्य साहमी पोले ॥ ए देशी ॥ पुरोहित चक्रीने पूज्य हो प्रभु, यम रगणें दोन जे || महारा लाल || जगमां अतुलबल जास ||हो ॥ सदु जीवने येथोन जे ॥ म० ॥ १ ॥ शिव शोधना जे सोपान ॥ हो० ॥ चौद ते मांहे ग्यारमें ॥ म० ॥ पगथीए पहोता जे सूर || हो० ॥ पग मांमवा चाहे बारमे ॥ ० ॥ २ ॥ पुरुष पलकमां तेह || हो० ॥ हुंकार मार्गे तिहांकी ॥ म० ॥ पाडी नमाव्या पाय || हो० ॥ दीन ते जिहां तिहां रुजे दुखी ॥ म० ॥ ३ ॥ ए जीव संसारी अनंत || हो० ॥ आण प्रमाण करी सदु || म० ॥ हाजर बंधा होय ॥ हो० ॥ सुविधें तुम सेंवे बहु ॥ म० ॥ ४ ॥ तव सम कालें त्यांहि ॥ हो० ॥ सामंत मंत्री स कही ॥ ० ॥ अहो देवीने बुद्धि ॥ हो० ॥ वातनी विगतें केहवी नही || ॥ म० ॥ ५ ॥ जुन संसारी ते जीव ॥ हो० ॥ नरजव पामी एकदा ॥ ॥ म० ॥ समकित पाम्यो शुद्ध ॥ हो० ॥ मोहे ते ऋष्ट कस्यो मुदा ॥म० ॥ ६ ॥ देतां कोइकनवें दान || हो० ॥ अनुचरें मोहनी खालथी ॥ म ० ॥ ततखिण जई थंच्यो तेह || हो० ॥ किहां एक चुकाव्यो शीलथी ॥ म० ॥ ॥ ७ ॥ क्रोधें किधो की हां जेर ॥ हो० ॥ तपना देखी तानमां ॥ म० ॥ किहां एक कस्यो जावना जंग || हो० ॥ धरी तेहने पुष्ट ध्यानमां ॥म ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनजानु केवलीनो रास. ॥ ८ ॥ देश विरतिथी दूर || हो० ॥ किहां एक वली तसु वासि मोकली मोहें नृत्य || हो० || परंपरें सुख पीसी || म० ॥ ए ॥ जन कूपने माने ॥ हो० ॥ क्षेत्र पल्योपम लहो खरो ॥ म० ॥ तमो तसु जाग || हो० ॥ सूक्ष्म रोम खंमें नस्यो । म० ॥ १० देस रासि प्रमाण || हो० || देश । वरति सुण में वरी ॥ म० ॥ हने सुनटें तेा ॥ हो० ॥ कषायादिकें लीधो हरी ॥ म० ॥ त्याख्यानावरणचार || हो० ॥ कषाय तो उदयें करी ॥ जाए दूर || हो० ॥ खागमें जाखी इलि परे । म० ॥ इणि जांते ॥ हो० ॥ उगणोतेरमी ए कचरी ॥ म० ॥ ॥ हो० ॥ सुणजो सडु कलट धरी ॥ ० ॥ १३ ॥ ॥ दोहा ॥ म० ॥ चंदमौलि नृप इणि समे, मोदें मुनिंना पाय ॥ प्रणमीने पूढे इश्युं, करी रोमांचित काय ॥ १ ॥ जगवन ए का घं, मोहादिक परिमस्त ॥ पीडे जे सहु प्राणिने, सोंपी दुःख समस्त ॥ २ ॥ सुख सघलां से संहरी, दुःख सघलां ष्ट || शव्य पडो ए मोह शिरें, पापी जे महापुष्ट ॥ ३ ॥ सकल सिद्धांतनुं रहस्य ए, उतम तुम याख्यान ॥ ए विचें अवर जे पू बियें, न घटे ते जगवान ॥ ४ ॥ केवल संदेह कारणे, प्रश्न पूबुं जे कां ॥ अपराध खमजो ते प्रभु, महिर घरी मनमांहि ॥ ५ ॥ २४७ ॥ ० ॥ इम यो संख्या ॥ ते प्र पण मो ११ ॥ ॥ प्र देशविर ति १२ ॥ नदयरतन ढाल ए ढलते रागें ॥ ढाल शीतेंरमी ॥ ॥ नमर गीतानी देशी, धन्याश्री रागें ॥ जगवन पहेलुं तुमे जे नांखि , समकित जेणे बेघडी फासिनं ॥ अर्ध पुजल परावर्तन रह्यो, संसार ते हने उत्कृष्टो को ॥ कह्यो वलि समकित संगम, तेहने असंख्याते नवें ॥ ते वार पछि पण तिमज तेणे, देशविरति लाघी सवें ॥ ते बेडुथकी थई ष्ट नवमां, नूरि नव लगें दुःख लह्यो ॥ ते नूरि जवनों मान नाखों, सांसो मुऊने ए रह्यो ॥ १ ॥ चुवनजानु जाषे तव केवली ॥ किहां एक सं ख्याता संख्याता वली ॥ किहा एक अनंता जव पण ते करे ॥ समकित देश विरति तजी फरे || फरे अनंती उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी ते प्राणि ॥ - पुदगलें केम नंतरें, श्रागम मांही जाणिव || इलि परें विचे विचे काल, अनंता अनंत दें नमे ॥ अंश मात्र तोपलाई पुनल, तणो जोतां Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वत जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. नवि समे.॥ २ ॥ अनादि कालनो जीव निगोदिउ॥ अव्यवहार रासें अति उखें नेदिउ ॥ समकितहीणो तिहांथी नीसरी ॥ व्यवहाररासें वखते अव तरी ॥ अवतरे ते लाख चोराशी, जीवा योनी सर्वदा ॥ परावर्त्ततां अनंत पुदगल, पार नवि पामे कदा॥ समकित वण संसारपारा, वार पार न पा मियें ॥ बकायमां बेदन नेदन, फुःखे जिहां तिहां दामियें ॥ ३ ॥ समकित पाम्यानो महिमा जु ॥ मुहूर्त लगे जे समकेती दु॥ मोहादिक जो त स कोपे घणुं ॥ तो पण तेहने अई पुदगलिकपणुं ॥ घणुं तेहने अई पुदगल, लगें नवनी अर्गला ॥ प. परमानंद पामे, नांजी नवना आम ला॥ हलु कर्मी कोश्क जीव वहेलो, मुगति गामी माहाबली ॥ समकि तनुं ए फल में नारख्युं, सुण तुं राजन मन रली ॥४॥ नृप नमि मुनिने तव कहे पडवडो॥ नाखो जगवन ए अचरज वडो॥ समकिंत देश विर. ति वस्या स्वामी ॥ मोहादिक फुःख एम दीये दामी ॥ दामी दुःख ये उष्ट स घला, सुनट मोह राजातणा ॥ तव केवली कहे अनंत कालें, अरि न उसरे ए घणा ॥ सर्वदा सर्व जीवने ए, संतापे सर्व पापिया ॥ ते माटे सदु ज्ञानीये पण, इमज उत्तर आपिया ॥ ५॥ यतः ॥ समत्त देश वि रया, पलियस्त असंख नाग मित्ता॥ अह नव उवरिते, अणंतकालं च सम एत्ति ॥१॥ पूर्व ढाल॥ समम्यक दर्शन देश विरति सही। क्षेत्र प व्योपम असंख्य नागें सही ॥ केश प्रदेश राशिमाहे जेती॥ तेहना नवनी संख्या कही तेती ॥ तेती संख्या लहो तेहने, चारित्र सामायकवंतने ॥ न व बाठ तस नगवंते नाष्या, पडे पामीनव यंतने ॥ श्रुत सामायक सम्य क् दृष्टि, मिथ्यादृष्टि नावें लहो ॥ त्रसमांहे ते नव अनंता, नमे साधु सदहो ॥ तेणे शीतेरमी एह नाखी, ढाल एम उदय वदे ॥ संसार सागर तेह तरशे, शास्त्र जे धरशे हृदे ॥ ६ ॥ ॥ दोहा ॥ ___॥ स्वामी कहियें संसारिते, चारित्र धर्म सहाय ॥ सर्व विरति कहो थाय से, पूढे इम महाराय ॥ १ ॥ तव मुनि कहे तक जोक्ने, रंग नरेंराजान॥ अंतर ए थोडो अजे, सांजल थई सावधान ॥ २ ॥ सूधो हूं सावधान डं, राजा कहे ऋषिराज ॥ महेर करी मुजने कहो, संबंध ए शिरताज ॥३॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीभुवननानु केवलीनो रास. ॥ ढाल ॥ एकोत्तरमी ॥ ॥ मारुजी हो खवर नदीरे माहरी बेहेनडी हो राज || ए देशी ॥ राजा जी हो त्यारे कहे रे तेह केवली हो राज ॥ मनुष्य देवेंपुर एक ॥ सहाय लहोने राज, संसारीने ॥ स० ॥ अवतारीने ॥०॥ सहुकुं समकित सुखदाय ॥ ० ॥ टेक ॥ रा० ॥ इंड्पुरें रे तेह कपनो हो राज || विश्व थकी व्यतिरेक ॥ स० ॥ १ ॥ रा० ॥ समीरण नामें रे नृप सोहे तिहां हो राज, जयंति नामे तसु नार ॥ स० ॥ रा० ॥ कर्म नृपें लई ते जीवने हो राज ॥ तेहनी कूखें दियो अवतार ॥ स० ॥ २ ॥ रा० ॥ पूरे मासे रे जनम्यो ते यदा हो राज || अरविंद तेहनुं निधान ॥ स० ॥ रा० ॥ थयो रे सहु कलाधरु हो राज ॥ निरुपम सुगुण निधान ॥ स० ॥ ॥ ३ ॥ ० ॥ तव तरुण ते थयों रे तेहने ते समे हो राज ॥ अवसर ल "ही रंग || स० ॥ रा० ॥ उद्यानमांहि आणि मेलिन हो राज ॥ कर्म नृपें गुरु संग ॥ स० ॥ ४ ॥ रा० ॥ मोहें नमी रे ते मुनींइने हो राज | ते कुमर बेठो तिहां पास ॥ स० ॥ रा० ॥ तव कर्म नृपें रे तेहने यापि हो राज || खडग वारु एक खास ॥ स० ॥ ५ ॥ रा० ॥ अध्यवसाय रे अ ति सुंदरु हो राज || तदरूप ते करवाल ॥ स० ॥ रा० ॥ मोह यादि रे शत्रु सातना हो राज || स्थिति रूप तनु ति ताल ॥ स०॥ ६ ॥ ० ॥ सागर संख्याएं रे तव बेद्यां ति हो राज || तेदुनां तनु केटला एक तेह ॥ स० ॥ रा० ॥ तेहने योग्य जाणीने तव ते साधुएं हो राज || निर्मल धरी मननेह ॥ ० ॥ ७ ॥ रा० ॥ सम्यक् दर्शन रे ते मंत्रीसरु हो राज ॥ धरपति जे चारित्र धर्म ॥ स० ॥ रा० ॥ खागल थकी ते बन्हे मेलव्या हो राज || जे सेव्या खापे शिव शर्म ॥ स० ॥ ८ ॥ रा० ॥ सर्व विरति रे नामें सुंदरी हो राज || सालंकारा सुवेश ॥ स० ॥ रा० ॥ दिव्य देखाडी गु ए दाखवी हो राज || ते मुनिएं धरि मोह अशेष ॥ स० ॥ ए ॥ रा० ॥ राज कुमरें रे तव रीजिने हो राज || सर्व विरति वरी वेग || स० ॥ रा० ॥ सुगुरु समीपें व्रत नचयां हो राज ॥ शुद्ध धरी संवेग ॥ स० ॥ १० ॥ रा० ॥ दीक्षा महोत्सव रे कीधो दीपतो हो राज || उदय वदे मनोहार ॥ ॥ स० ॥ श्रोताजी हो एकोतेरमी ढालें तातें सही हो राज || नित मु निने नमो नर नार ॥ स० ॥ ११ ॥ ३२ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥दोहा॥ ॥ धरपति चारित्र धर्मर्नु, सैन्य पाम्युं संतोष ॥ तव तेहने पासें रहे, दूर निवारण दोष ॥ १ ॥ अतिशय बोध यानंदिन, सम्यक् दर्शन थिर ना व ॥ पामी तसु पासें वसे, नांगरीचं जिम नाव ॥ २ ॥ सदागम लीन रहे सदा, आचरि शुम श्राचार ॥ प्रथम आनूषण पहिरणे, मार्दव मंमन सार ॥३॥ नपे ते आर्जव गुणे, संतोषसुं मन मेल ॥ तप तरवारने जे धरे, करे संयमसुं केल ॥ ४ ॥ सेवे सत्य सुमित्रने, शौचसुंधरी सनेह ॥ अकिंचन ब्रह्मचर्य ऊपरें, राखी राग अह ॥ ५॥ चारित्र धर्म नृप अंगना, द शे मिल्या ए दोस्त ॥ ते अरविंद अपगारा, जिम पाणीसुं मले पोस्त ॥६॥ सदबोध सदागम प्रेरिन, मुनिवर ते महा धीर ॥ सबल मोहनां सै न्यसुं, रोज चढे रणवीर ॥ ७ ॥ सर्वगाथा ॥ १२५०॥ ॥ ढाल बहोतेरमी ॥ ॥ कडखानी देशी ॥श्म तेह अरविंद अणगार अरिझुं नडे, रण वढें रोज मन मोज धरतो॥ मोह दल दलन बलवंत नड नंजणो, अखंम रि पुचंमना खेम करतो ॥ ३० ॥१॥ चढी अप्रमाद अदनत गजकपरें, ऐन अदंनते धरि अंबाडी ॥ समाधि सिंदूरसुं जेह शणगारिन, अलोन गुण घंट घणमंत गाढी॥३०॥॥धनुष समवृत्ति गुन सघर धरि करें, नावना रूप सर नूरि वरसे ॥ मारि मोह रायने मर्म स्थानकें लही, शत्रुनी सूरते सीम फरसे ॥३०॥३॥ नलकि ब्रह्मचर्यने काम नट नेदिन, रणमा हृद यांतरें रोष पूरें ॥ घेरी राग केसरी जोर घूमावि,अराग आयुधे ते नसाडद्यु दूरे ॥३०॥४॥ ष गजें अक्रोध बाणे धस्यो, जाए नाठो तदा चीस पाडी ॥ एम सदबोध सदागमे उलखी, सैन्य शत्रुतणी तिणे नसाडी ॥३०॥ ५ ॥ वीर विश्वानर वींध्यो समता सरे, विनय बाणे वली शैल्य राज ॥ सरल बाणे करी बदुली दूरे करी, लोन निर्लोजसरे थाण्यो वाज ॥ ॥ ३० ॥ ६ ॥ हिंसा असत्य अदत्त मैथुन तथा, मूळ आदिमहावेरी बलि या॥ अहनिशे तेहy मूल उन्मूलतां, सर्व सामंतना गर्व गलिया ॥३०॥ ॥ ७॥प्रमाद दंमाधि मोहने अन्यदा, तेह ऋषिराजने जोर घेखो, ताम यथाम अणागार ते उलखी, श्रुति रूप दतियें इम उदेस्यो॥३०॥॥ ॥ यतः ॥ वरं हलाहलंजुत्तं, वरं अग्गिपवेसणं ॥ वरं सप्पोहि सहवासो, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. मा पमायाण संगमो ॥ १ ॥ एहवा आगमतणा अर्थ मन धारिने, शत्रु ना सैनने जोर नूंसे ॥ परिसह बावीस मोह राय पटाइते, एकंदा घेरित श्रावि ढुंसे ॥ ३० ॥ ५ ॥ धरिय निज धीरता वीर ते वेरिने, देहनी अनि त्यता आदि फोजें ॥ दूरकरि उष्टने आप बल दाखवी, मोहसुं श्म चढे तेह मोजें ॥ ३० ॥ १० ॥ त्रिविधि उपसर्ग नट नत्कट मोहना, विकट लेकटक थया निकट वरती॥प्रवचन वयाथी कर्म गति पारखी, ताम करि दूर तस तेह वरती ॥ ३० ॥ ११ ॥ तरुण तपसी १६ बालने गिलान नी, विविध परें सेवना नित्य करते ॥ जोर संज्वलन कषायें जोरो कस्यो, उपशम्यो प्रशम रस ध्यान धरते ॥ ३० ॥ १२ ॥ शब्द रूप गंध रस फरस आदि वली, प्रगट थया पंच ए प्रौढ पापी ॥ सकाम रणांगणे प्रगट थई तव तिणे. तास संतोष बलें शीख आपी॥३०॥ १३॥ मुनि मोह रायसुं एम युझे जडयो, हारे ने जीत करे हाथो हाथें ॥ उदयरतन्न कहे कर्म कर्ता अडे, बहोतेरमी ढालमां आव्युं धातें ॥ ३० ॥१४॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जय पराजय पामतां, इणि परेंते अणगार ॥ जय लक्ष्मी वरि जे समे, ते समे सुणो नर नार ॥ १ ॥ गाढो ते तरज्यो गुरें, कोईक काम विशेष ॥ घेख्यो तव तेहने घj, आपणो अवसर देखि ॥ २॥ प्रत्याख्यानावरण जे, क्रोध मान नट दोय ॥पीड्यो तिणे निर्दयपणे, मर्मस्थाने मुनि सोय ॥३॥ ॥ ढाल तहोतेरमी ॥ ॥ उधव माधवने कहेजो ॥ ए देशी ॥ वेरी कषाये वाहीने, घेरी चोफे रें ॥ बलवंते बेतु जणे, यती कीधो जेरें ॥ वे ॥ १॥ तव थई ते तरतरो, गुरु साहमो गमार ॥ बोलवा लागो ते बेतमां, लोपी लाज अपार ॥ वे० ॥ ५ ॥ अहो आचारज जी अमे, कीधो श्यो अपराध ॥ युगतें विचारीने जुलं, बोलें पामशो बाध ॥ वे ॥३॥ अणगार तो अनेक डे, गुरुजी तुम गठ मांहि ॥ समोवडिया मुफ सारिखा, तेहने न कहो कांही ॥ वे ॥४॥ग रीब लही गुनह विना, केवल मुफ वंक ॥ दाखो बो सदु देखतां, कोण डे निकलंक ॥ वे ॥ ५॥ जो कोई बीजो पण यती, एहवं आचरे नांहि ॥ तो मुफने नवेखवो, श्म घटे यांहि ॥ वे ॥ ६ ॥ थविर वारे जव तेहने, कुलवंत तुज केम ॥ श्म घटे शहां बोलवू, जट्ट बोले जेम ॥ वे० ॥ एतो कु Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ल मुफ नगटे, श्म चिंते ते ताम ॥ अहंकार को ऊफण्यो, गाढो तिणे वाम ॥ वे ॥ ७ ॥ जव गुरु कांक कहे फरी, तव त्राडी कहे तेह ॥ सा द तुमारा सांजली, हीए पडे वेह ॥ वे ॥ ए॥ मलि मलि एह मेहलो फरी, झुं करशो बेडि ॥ आ व्यो तुम उघो मुहपति, मूको माहरी केडि ॥ ॥ वे ॥१०॥ वेष तजावी वेगसुं, इणि परें अवहेलि ॥ सुप्या तिणे मो हना सैन्यना, तेहने तिण वेलि ॥ वे ॥ ११ ॥ उष्टें मली ते दीनने, निंद नीक ग्रहवेष ॥ पहेरावीने परे परे, दीधां दुःख अनेक ॥ वे ॥ १५ ॥ जीख मांगी करे चाकरि, पर घरें नरे पेट ॥ वरष तेहने वोल्यां घणां, करतां लोकनी वेठ ॥ वे ॥१३॥ अहो में भ्रष्ट बुझें नज्यो, धर्म त्यजी अधर्म ॥ अंत समय ते इणि परें, निंदे कत कर्म ॥ वे ॥१४॥ इह लोकें लही यापदा, पर नवें बदु पीड ॥ पामीश एहना प्रनावथी, जवनी पण नीड. ॥ वे ॥ १५॥इम ते आतम निंदतो, मरी ज्योतिषीमांहि ॥ अमरपणे जई रुपनो, सुण नृप उन्हांहि ॥ वे ॥ १६ ॥ तिहांथी चवीने जीवते, जव नमि नूर ॥ बोली ए तिहोतरमी, ढाल उदयें सनर ॥ वे ॥१७॥ ॥ दोहा ॥ ॥ उपनो ते वलि अन्यदा, मंत्री सुत मनुहार ॥ राज्य पुरें रम्य श्राद ते, चित्रमति नामें कुमार ॥१॥ मावित्र परलोके गयां, तव पुत्र वी निज गेह ॥ पोते संयम आदरी, बदुदिन पाले तेह ॥ २॥ पूर्व परें मोह सैन्यने, मुहकम देतां मार ॥ अंते विषय सुख महानटें, हरव्यो ते अण गार ॥ ३ ॥ संयम विराधी सुर थयो, सौधर्मे सुर लोय ॥ पट्योपमने आ नुखें, तिहाथी चवीने सोय ॥४॥ नूरि नवांतर ते जम्यो, देमंकर नृप धाम ॥ कंचनपुरें थयो एकदा, सुत विजयसेन इण नाम ॥ ५॥ तिहां पण सदगुरु संगथी, धर्म सुणी सुखरखाण ॥ मात पितादि मूकिने, सं यम लीये सुजाण ॥ ६ ॥ तिमज हरखे रहे ते कने, सदागमने सदबोध ॥ मोहराजाना सैन्यसुं, यु६ करे ते जोध ॥ ७ ॥ सदागमसुं थयो स्नेह अ ति, सद बोधनो थयो पोष ॥ अप्रमाद नेद्यो अंगमां, स्थिर थयो संतोष ॥ ७ ॥ तव पाम्यो ते महा मुनि, अप्रमत्त गुण स्थान ॥ सिदिसौधनुं सुं दरु, सातमुंजे सोपान ॥ए ॥ सर्व गाथा ॥ १२ए३ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवनानु केवलीनो रास. २५३ ॥ ढाल चमोत्तरमी ॥ ॥ चोपाईनी देशी ॥ कोईक कर्म परिणाम पसाय ॥ उपशमं श्रेणि ना में तिथि ठाय ॥ महावज्र दंम मुनि पाम्यो तेह ॥ उग्रवीर्य तव नलस्युं बेह ॥ १ ॥ अनादिकालना जे महा री ॥ तव शिरें माया तेह दंगें करीरी ॥ क्रोध मान माया ने लोन ॥ अनंतानुबंध जे जव योन ॥ २ ॥ म पायो रहे वह्नि बिपी ॥ तिम ते चारे रह्या तव लिपी ॥ उता थई ते पड्या अचेत ॥ जिम कोईक घायल रण खेत ॥ ३ ॥ विशुद्ध समकि त मोहनी पढे ॥ ६ विशुद्ध जे मिश्र अबे ॥ यविशुद्ध मिष्यात मोहनी जोय ॥ त्रिहुं नेदे दर्शन मोहनी होय ॥ ४ ॥ ए त्रिणे थई तुं सांजल नूप ॥ मिथ्या दर्शन मंत्री रूप ॥ तव तेरी दंमें ह ितेम ॥ अचेत थ ने पनि म ॥ ५ ॥ पूर्व करंण नामें गुणथान || पहोतौ तव या मे सोपान || नव निर्वृत्ति बादर संपराय ॥ तुरत ते थाने चढ्यो ऋषिरा य ॥ ६ ॥ हणी मूर्छा माड्या त्यांही ॥ नपुंसक ने स्त्रीवेद नांहि ॥ हा स्रती अरतीने शोक || जय डुगंबादिक व दोष ॥ ७ ॥ पुरुष वेद कियो गति जंग ॥ क्रोध मान मायानां यंग ॥ त्रिढुं नेदें जाणे तहकीक ॥ प्रत्याख्याना वरणादी ||८|| बिद्धुं प्रकारना लोन समेत ॥ अनुक्रमें रहने का अचेत ॥ संज्वलनाने देतां मार ॥ नासी लोन गयो तिथि वार ॥ ए ॥ दशमे गुण स्थाने ते ष्ट ॥ सूक्ष्म संपराय पापिष्ट ॥ बतो न जलाए तिम ते बिप्यो ॥ सूक्ष्म रूप करीने लिप्यो ॥ १० ॥ ते पण केर्डे यावी ते ॥ मूर्छाग त कीधा ततखेण ॥ एह यठावीस कारण नूत || मोहतणां जाणो यद नूत ॥ ११ ॥ गित माणस पडते सहु | मोह पण मूर्छा पाम्यो बहु || जिम जड थड शाखा कापवे ॥ वृद्ध घणुं विसंस्थल हवे ॥ १२ ॥ उपशम श्रेणि महावज्र दंम ॥ सकुटुंबे हणि मोह प्रचंम ॥ इम निचेष्ट करी गुण गेह ॥ परमानंद पद पावतो तेह ॥ १३ ॥ उपशांत मोह नामें गुण स्था न ॥ एकादशमे पहोतो सोपान ॥ केवलीना सरिखुं चारित्र ॥ धरतो ते ति हां पुण्य पवित्र ॥ १४ ॥ ये सर्वार्थ सिद्धि विमान ॥ सकल सुरासुर पू ज्या स्थान || पद एहवो ते मुनि पामियो । वे घडी लगें तिहां विसामि ॥ १५ ॥ तव लोनें कांईक चेतन नही || निज तनुथी जे जूढ़ी नहीं || दे होपकर मूर्छा नाम || बेति कोप धरी तिथि ठाम ॥ १६ ॥ मोकली ते Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मुनिवरने पास ॥ तिणे जई कस्यो हृदयमा वास ॥ देहादिक मूर्बा घेरियो॥ गले काली पाबो फेरियो ॥ १७॥ ग्यारमा गुण ठाणाथकी ॥ पापणीएं ते पाड्यो ऋषि ॥ अनुक्रमें पडतो ते अडवड्यो । पहिले पावडिएं जई प ड्यो ॥ १७ ॥ मिथ्यादर्शन मंत्रीने हाथ ॥ सुंप्यो ते मूर्नाएं अनाथ ॥ तव तें अरि सघलायें ऊठ॥पड्याते मुनिवरने पूंठ ॥१५॥परिघत पाप करावी तास ॥ एकेंश्यिादिकमां दीधो वास ॥ नरकादिक गतिमां नरपूर ॥ नवमां तेह नमाड्यो नूर ॥ २० ॥ उदय वदे सुणजो नजमाल ॥ चमोलरमी ए जाखी ढाल॥ कर्म तणी गति जे नर कले ॥ त्रिधा ताप तस दूरें टले ॥१॥ ॥ दोहा ॥ ॥ ब्रह्मसूर नामें अने, नगर निरूपम एक ॥ सुनंद नामें श्रावक ति हां, वसे धनवंतो बेक ॥१॥ श्रेष्टिमां तें शिरोमणी, धना नामें तस ना र ॥ तनुज थयो ते तेहनो, पुमरिक नामें कुमार ॥२॥ सर्व गाथा ॥१३१६॥ ॥ ढाल पञ्चोत्तरमी ॥ ॥ मेरो नाह नितुर अनिमानी हो ॥ ए देशी ॥ बालपणाथी ते बुद्धि दरीयो, सकल कलाएं वरी हो ॥ तेने जोर पठन मति जागी हो, थो डा दिनमां ते घणुं जणि ॥ गुणवंतें मुख्य गणित हो ॥ ते ॥१॥ अ धित विद्याएं ते अण धातो, कोई मुनिने पू. वातो हो ॥ ते तो आगम नो अति रागी ॥ सकल कलानो सघलो वेरो ॥ किहां वे कहो अधिके रो हो ॥ ते ॥ ॥ हादशांगिमां ने कहो साधु, चौद पुरवथी वाधु हो ॥ ते ॥ विद्या अनेरे गम न दीसे, जाणो विसवा वीसे हो ॥ ते ॥३॥ तव ते पयंपे केवडां तेह, तुमें पूर्व कहो बो जेह हो ॥ ते ॥ गुरुने पू बो ते कहे कुमरने, तव ते पूछे जई गुरुने हो ॥ ते ॥४॥ गुरु कहे ग ज सम मिसि जो थाय ॥ तो पूरव पहेलुं लखाय हो ॥ ते ॥ गण बम णी श्म मिसि पूंजे, सघलां लिखवा सूजे हो ॥ ते ॥ ५॥ पण पुस्तकें लिख्या नथि केणे, मान कह्यो मिसि एवं हो ॥ ते॥ पूर्व ए मुखपाठे जे जणाए, किणही लिरव्या न जाए हो ॥ ते ॥६॥ कौतक पामी ते कहे एतो, मुमने जणावशो एतो हो ॥ ते ॥ गुरु कहे ग्रहस्थने केम न गावं, तव कहे साधु में थाई हो ॥ ते ॥ ७ ॥ मात पितानी अनुमति मागी, संयम लीये ते सोनागी हो ॥ ते ॥ महा महोत्सवसुंलई दीदा, गु Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनजानु केवलीनो रास. २५५ रु ती सुणि शीक्षा हो ॥ ते० ॥ ८ ॥ चौद पूर्व ते जल्यो चूपें, उदय व दे अनूपें हो ॥ ते० ॥ पञ्चोत्तरमी ढालें चित धरजो, प्रमादने परिहर जो हो ॥ ते ० ॥ ए ॥ ॥ दोहा ॥ || मोह महाचरें तिथि समे, तन्मय देखी तास ॥ सनामां सदुको देखतां मुखें मेल्यो नीसास ॥ १ ॥ सर्व गाथा ॥ १३२६ ॥ ॥ ढाल बहोतेरमी ॥ ॥ रंगी रातो चूडो ॥ ए देशी || सनायें बेठे सहु सेवके, पाणी जोडी रे तव पूढधुं एम ॥ जो जो मोहनो जोरो ॥ नीसासो याज नाथजी, प्रति लांबो ते मुखें मेल्यो केम ॥ जो० ॥ १ ॥ करकपालें थापिने, मुखें बोले रे हवे या मोत || जो० ॥ लवे पंखी नमाडतां, जिम जाए रे गोफ एली गोला सोत | जो० ॥ २ ॥ सदागमं वेरी सदा, मारो रे तुमे जालो अतीव ॥ जो० ॥ नेद बुझें तेहसुं मिल्यो, जय कामें रे ते संसारी जीव ॥ जो० ॥ ३ ॥ सदागम कहेसे सर्वे, अमारा रे ए आागल मर्म ॥ जो० ॥ जग जाने ते जलावरों, गहगहसे रे तिहारे चारित्र धर्म ॥ जो० ॥ ४ ॥ पुत्र पौत्रादिक गोत्रने, तव लणसे रे मली सघला लोक | जो० ॥ वंशो वेद थाशे तदा, मोह बोजे रें इस मेलतो पोक ॥ जो० ॥ ५ ॥ तेहवो कोइ नथी देखतो, जे विघटे रें ए इष्ट संयोग ॥ जो० ॥ सखेद देखी स्वामिने, यया जांखा में परषदना लोक | जो० ॥ ६ ॥ निश नामें नारी तिसे, कंध खालस रे वैकल्य अंग जंग ॥ जो० ॥ स्वप्न जंखन भ्रम शून्य ता, जुंनादिक रे निज परिकर संग ॥ जो० ॥ ७ ॥ मावा पासाथी नवी ने, करजोडीने हे सुण स्वामि ॥ जो० ॥ ए अनाथनो श्यो यारो, तुम दासियें रे एतो सीजे काम ॥ जो० ॥ ८ ॥ चिंताशी ए वातनी, ख वो मूंगर रे हणवो मूषक महामन्त्र || जो० ॥ कीडी नगारा कपरे, शी की रे देवदि ॥ जो० ॥ ए ॥ ताजा तृणनी ऊपरें, कुहाडो रे जिम मारे कोय | जो० ॥ श्रारति ए तिम जाणवी, तुम नामें रे कुण अनमी होय ॥ जो० ॥ १० ॥ काल्हे कितुं दीतुं नहीं, मूर्छायें रे गले काली तेह ॥ जो० ॥ एकादशमा सोपानथी, वाल्यो पाठो रे जिम पवनें खेह ॥ जो० ॥ ११ ॥ हरषें कहे तव हेजमां, महाराजा रे मरकलडो देह Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥जो० ॥ वारु वारु वबी वेगसुं, करो कारज रे तुमें कहो बो जेह ॥ जो ॥१२॥ ताहरी पण मन कामना, सिह था रे इम दीधी बाशीस॥ ॥ जो ॥ बहोत्तेरमी ढालमां,वदे उदय रे धरो हृदयमां हीस ॥जो॥१३॥ ॥दोहा॥ ॥ तव सा पोती ते कने, पापणि परिकर लेह ॥ अवतायो तसु अंगमां, आलस प्रथम अह ॥ १॥ आलसने उदयें करी, संनारी सहि सूत्र ॥ अरथ लेतां आरति वधे, जिम तिम लवे उत्सूत्र ॥ २ ॥ तव बीजे त्रीजे दिने, थविरे थिर करि तास ॥ गुणवा बेसाड्यो जोरसुं, पण न गमे अन्या स॥३॥ सवेगाथा ॥ १३ ॥ ॥ ढाल सीतोतेरमी॥ ॥ होजी फरमर वरसे लो मेह ॥ ए देशी ॥ होजी तव निशएं अशेष, परिकर प्रेष्यो ते कने हो लाल ॥ हो जी सम कालें सर्वांग, व्याप्यो न कहे तां ते बने हो लाल ॥ १ ॥ हो जी जनाएं ते जोर, वांसो घणुं मरडे वनी हो लाल ॥ हो जी हाथपग शिरने सर्वांग, कंपावे घने बलें हो लाल ॥ ॥ ॥ हो जी उंची धरी नुज दोय, कड कड मोडे बांगली हो लाल ॥ दो जी नूतावेशनी नांति, ध्रुजतो धरणी ढली हो लाल ॥३॥ हो जी अंगी पूठे वेदु पास, ढले ढीकलीनी परें हो लाल ॥ हो जी थविर पावे प्राण, पण अदर मात्र न उचरे हो लाल ॥॥ होजी निंद नीसामां आप, पले घj ते घेरियो हो लाल ॥ हो जी पडे पानी परें तेह, जिहां तिहां प्रमिला प्रेरि यो हो लाल ॥ ५॥ हो जी काष्टपरें कुनामें, सूवे संथारा विना हो लाल ॥ हो जी घोराएं घणुं जोर, चित्तमा न रहे चेतना हो लाल ॥ ६ ॥ हो जी पडिकमणे प्रनात, थविर नठाडे महा उखें हो लाल ॥ हो जी जनो करी इक दिन, गुरु सूत्र गुणावे मुखें हो लाल ॥ ७ ॥ हो जी पलकमांदि नूपीत, प्रमिलायें तव पाडियो हो लाल ॥ हो जी कुंहणी ढींचण ने शीश ॥ नांपीने नमाडि हो लाल ॥ ७ ॥ हो जी अदर न नणे एक, मुनि प ण मौन धरी रह्या दो लाल ॥ हो जी अतिव्यापी तव संघ, चिह्न न जाए जेहनां कह्यां हो लाल ॥ ए ॥ हो जी क्रिया करतां अनेक, चकुना चाला करे हो लाल ॥ हो जी केडि मुख कर ने पाय, मोडे पसारे बदु परें दो लाल ॥ १० ॥ हो जी निश नारीयें एम,नव नव ने नचावियो हो लाल Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. ॥ हो जी एहवां जोई आचरण, अचरज सदुने आवियो हो जाल ॥ ॥११॥ हो जी एवडी एसी बंघ, एम सुजाण सदु को वदे हो लाल ॥ हो जी सीत्योतेरमी ए ढाल, उदय वदे धरजो हृदे हो लाल ॥ १२ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥म निायें आचस्यो, आगम विण अन्यास ॥ विश् हस्त जलनी परें, गलवा लागु तास ॥ १॥ गहन अर्थ गया वीसरी, जिम जिम थाये बंश॥ तिम तिम लागे जहेरसो, आगम न गमे अंश॥॥ अमृतसी गणि उघने, अज्ञाने अहोराति ॥ सूई रहे नवि सलसले, वीसरी सूत्रनी वात॥३॥ ॥ ढाल असोतेरमी॥ ॥ वेटी टोमर मनकी ॥ ए देशी ॥ तव गुरु जणे सो साधुळू, केवल .जणवा कांज वे ॥ घर बोरी घणे बायसें, पायो तें आगम राज बे॥ ॥१॥ जाग वे ज्ञानी जागनां, जागना वे श्रुत लागनां वे ॥ जा० ॥ देवे जो ऊर्गतिको हरी, सुर नर शिव सुख खानि बे, सो हाथें आया क्यों ह रियें, गुनसागर श्रुत झानि वे ॥ जा ॥२॥ नरक निशानी नींदको, मूढ देवे कौन मान बे ॥ चौद पूरवरस बोरके, कह्या मेरा सच्चे मान वे ॥जा॥ ॥३॥ तव तातो होयके सो बके, कहो उघाता है कौन वे ॥ तुमकों जूठ 'कहे किने, बूरी ए बात जबून बे ॥ जा० ॥४॥ गुरुजी हम तो गुनेहथे, सूत एते एते कन वे ॥ हम तो मगनहिं पाठमें, दजा न आवे दिन वे ॥ जा ॥ ५ ॥ गुरु तव चिंते चित्त में, अहो अहो एतो नवीन वे ॥थ वगुण एहमां कपनो, महाजूठ बोले मलीन बे ॥ जाण ॥ ६ ॥ विप घा रित परें अन्यदा, मूर्जित घायल समान वे ॥ बोलाव्यो बोले नहीं, उघ्यो सो असमान वे ॥ जा० ॥ ७ ॥ दिवसें सुपना देखिके, ज्यों ज्यों बके जो र बे॥ जगावे जो कोन जायके, तो बहुत करे बकोर बे॥ जा० ॥ ७ ॥ जोरे ताकू जगाय के, गुरु कहे क्यों वत्स आज बे॥ एती वेर लंध्या हता, तव सो तजिने लाज बे ॥ जा ॥ ए ॥ उत्तर गुरुकू यूं दियो, जब दुं अ र्थ चिंतु एकध्यान बे॥ तब तुम सबकू कंघेकी, ब्रांति लगी नगवान बे॥ ॥ जा० ॥ १० ॥ जूठो ताकू जानिके, मुनिजनें मेट्यो नवेख वे ॥ कोन क दर्थना नवि करे, गुरुये पण त्यज्यो बेक वे ॥ जा० ॥ ११ ॥ मोह राजा ने मागसें, आवयुं तेहy अंग बे॥ सदागम तव नागो सही, सदबोधे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՑԱՆ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. त्यज्यो संग वे ॥ जा० ॥ १२ ॥ चारित्र धर्म पण चालियो, सर्व विर ति स्वयमेव वे ॥ पहिलेज पलाये तदा, दुर्गंधें जिम देव बे ॥ जा० ॥ ॥ १३ ॥ मादिक नासीने गया, दशेपटाऊत दूर बे ॥ सम्यक् दर्शनें सी म तेहनी, तजी वाज ते तूर वे ॥ जा० ॥ १ ॥ मिथ्या दर्शन मंत्री सरें, तव तहां पूयो वास वे || मोहादिकें मलि तेहने पीडी निशपास वे ॥ ॥ जा० ॥ १५ ॥ मरण पमाडी मोकल्यो, निगोद एकेंदि मजार बे ॥ जव मां माडि, पढे तेहने निरधार वे ॥ जा०॥ १६ ॥ होतेरमीयें सांनलो, ढालें धर्मनो ढाल वे ॥ धरमीजन धरजो सदा, उदय वढ़ें उजमाल बे जा० ॥ १७ ॥ दोहा ॥ ॥ चित्त वृत्तिवि इये, विवेक गिरीने भुंग ॥ श्रप्रमत्त कूदें यति सुनग, जैनेंइपुरें महारंग ॥ १ ॥ निरानंद उत्साह विण, मजलस मेली सर्व ॥ चारित्र धर्म नृप यादि दे; वेग ने हतगर्व ॥ २ ॥ मांहोमांहे इम क चरे, हो गुं कीजें यांहि ॥ अनव्य दुर्नव्य याप्या जुई, मोहने अनेक सहाय ॥ ३ ॥ स्खलित ते सघले फरे, फेडे यापलो पद ॥ यापणने नीरु एकज दीन, तेपण नहीं सुद ॥ ४ ॥ अनंत कालें यावी मिल्यो, थापाने ते जीव ॥ तेने पक्ष पोषतां आपणो, उपजे व्यथा अतीव ॥ ॥ ५ ॥ आपण जव उंचो करां, तव नीचो घाले तेह || उंचो खावण नवि दिये, रि मोहादिक एह ॥ ६ ॥ आपण एहने सुख इबिएं, ए न लहे न पगार || मोहादिकने जई मिले, चारति नहे अपार ॥ ७ ॥ गुणठाणे ग्या रमें, चौद पूर्व र यदि ॥ पद आपण आरोपिएं, तजावी तास प्रमाद् ॥ ८ ॥ तहां की पण जीव ते, धर्म तजीने धाय ॥ मोहना दलने जई मिले, कोइक कर्म पसाय ॥ ए ॥ शुं करियें कहियें किशुं, किहां जईएं फ रियाद || हो वेरा वाधी गया, किम जीतासे वाद ॥ १०॥ सर्व० ॥ १३८७ ॥ ॥ ढाल उगण्यासीमी ॥ ॥ सवारी नृप शांति जी हो लाल, एदेशी ॥ मुखें मरकलडो देईने रे, सदबोध कहे तव स्वामि ॥ महा राजा ॥ यारति बती एवडी हो जा ल ॥ करो तो श्ये कारणें रे, ए तो कायरनुं काम ॥ म० ॥ १ ॥ हिंमत कहो किम हारियें हो लाल, ए गुं कांई नवुं वे रे, अनादी ए चाल ॥ म० ॥ चाल्यो यावे सदा हो लाल ! लोक स्थिति जगनि वडी रे, तेह Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. पए नो कर्म न लोपे स्वाल ॥म ॥ हिं० ॥ २॥ काल परणति कर्मनी रे, ले पटराणी प्रौढ ॥ म ॥ कही न जाये ते वली हो लाल, नवितव्यता क रे जांजणी रे, गति ने तेहनी गूढ ॥ म ॥ हिं० ॥३॥ जे संसारी जीव कने रे, जव करावे जे नूर ॥ म० ॥ हितकरी तुमे तेहने हो लाल, धारो पो ऊंचे पदें रे, उलट आणी कर ॥ म०॥ हिं० ॥४॥ चौद पूर्वधर जो करो रे, उपशांत मोह आरूढ ॥ म० ॥ तो पण ते जीव तिहां थकी हो लाल, मोहादिकने मलि करी रे, महा अज्ञानी मूढ ॥म॥हिं॥५॥ नव मां नकृष्टो नमे रे, अई पुद्गल परावर्त ॥ म० ॥ विवहार ए अनादिनो हो लाल, चाल्यो आवे सदु जीवनें रे, नमतां नव आवर्त ॥ म ॥ हिंग ॥ ६ ॥ विस्मयश्यो ते वातनो रे, हृदयमा राखवो रेख ॥ म ॥ तटें वे वां जु तुमे हो लाल, मिथ्यानुं अंगज कहो अबो रे, जे कांई अविवेक ॥ म ॥ हिंग ॥ ७॥ अरिनो एकज नीरु ए रे, बेदी मूलनो पद ॥म० ॥ यश पडहो वजडावश्यां हो लाल,सुखी संसारी ए जीवने रे, करस्यां सदु समद ॥म ॥हिं॥ ७ ॥ तो पण सिदिहोसे सही रे, नवितव्यताने जोग ॥म ॥ समवायनां संयोगथी हो लाल, नव स्थिति काल परिणतें रे, सु न कर्मोदय जोग ॥ म ॥ हिं० ॥ ए ॥ जे आपण कहो अबो रे, एक ए पाम्या सहाय॥ म०॥ए पण न घटे आलोचq हो लाल, बद नीरुप ण पामिने रे, मोहादिक मुंजाय ॥ म० ॥ हिं० ॥ १०॥ रोधन करे रूठा थका रे, बाकी बल नवि होय ॥ म० ॥ अरीए आपण परें हो लाल, अंत कीजें तक जोय ॥म ॥ हिं० ॥११॥ एक ए किम आणे जुन रे, शत्रु अंत सहाय ॥ म० ॥ श्याने था सदु आकुला हो लाल ॥ जय पराजयतुं पारखं रे, जाते दीहें जणाय ॥ म॥ हिं॥१२॥कता वलानां पालिया रे, धीराना प्रासाद ॥म०॥ सद्ध जाणे संसारमा हो लाल ॥ उगन्यासीमी ढालमां रे, उदय रत्न थाल्हाद ॥म०॥ हिं॥ १३॥ ॥दोहा॥ ॥ तव ते जेटले सर्व ते, सदबोधनुं व्याख्यान ॥ करे तव कहाव्युति हां, कर्म परिणाम राजान ॥ १ ॥ अहो प्रतिज्ञा आज में, पूरी पाडी ते ह॥ पण पांकीने पूरवें, तुमसुं करी दुती जेह ॥ २॥ पदमस्थल पुर रा जिउ, सिंह विक्रम इणे नाम ॥ कमलिनी नामें बे प्रिया, तस उदरें अ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० - जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. निराम ॥३॥ अंगज में अवतारित, सिंहरथ नामें सोय ॥ जेह सहायें तु मतणो, जीव ते अवसर जोय ॥४॥ हवे करो हर्ष वधामणां, एणे न वें ए जीव ॥ पद तुमारो पोषशे, आशक थई अतीव ॥ ५॥ पडशे नहि मोह पाशमां, पूरण पुण्य सहाय ॥ आप्यो में एहने, जेणे पातक दय जाय ॥ ६ ॥ चलव्यो केहनो नहिं चले, सदबोध सदागम लीन ॥ मुगतें जातां लगि मोहने, दलें न होसे दीन ॥ ७॥सर्व गाथा॥१४०७॥ ॥ ढाल एंशीमी॥ ॥ वागा जांगी ढोल ॥ ए देशी ॥ इम सुणि आणंद पूरे, हे सखि इम सुणियाणंद पूरें॥ठी ते महा यानंद नरें॥समकित आदि सनूर, ॥हे॥ मलिने महोत्सव बहु करे ॥ १ ॥ जिने पुरनो लोक ॥हे॥ वारु करे रं ग वधामणां, शम्यो समूलो शोक ॥ हे ॥ नीरुनां ले जामसां ॥२॥ वांधे तोरण बार ॥ हे०॥ कमलें आबादित करूं। कनक कलश धरि धार ॥हे॥ सोधे सोधे सुंदरूं ॥३॥ शणगारी दट श्रेणि ॥॥ घर घर गुडी उनले ॥ बटकायो हरषेण ॥ हे ॥ राज मारग कुंकम जलें ॥४॥ मृग मदने घनसार ॥ हे० ॥ नेली चंदननें रसें ॥ रायांगण दरबार ॥ हे० ॥ बयल पुरुष गंटे तिसे ॥ ५॥ कनक रत्ननो राशि॥ हे० ॥ मन मोदें ये मांगणां, अजय दान नन्नास ॥ हे०॥ देवरावे राजा घणा ॥ ६ ॥ वागां मंगल तूर ॥ हे.॥ माननें माप वधारियां ॥ शोना वाधीसनूर ॥ हे०॥ जिन मंदिर शणगारिया ॥ ७ ॥ उदयरतन कहे एम ॥ हे० ॥ एंशीमी ए ढालमां ॥ धरमयुं धरजो प्रेम ॥ हे० ॥ मत पडो माया जालमां ॥ ७॥ ॥दोहा ॥ ॥ हवे सिंहस्थ ते राज सुत, शिशुपणे पण सोय ॥ देखी नमी गुरु देवने, हिये हरखित होय ॥१॥ जनकसाथें जिन मंदिरें, जई जोतां जि नरूप ॥ स्नात्रादिक संपेखतां, आनंद लहे अनूप ॥ २॥ साधु संगें सुख ऊपजे, श्रवणे सोहाय वयण ॥ दान देतां दिल कन्नसे, निरखी रीफे न यण ॥ ३ ॥ इम पुण्योदय पोषता, लघु वयमां तिणें लाध ॥ स्वल्प दिने सघली कला, बोलतां न लहे बाध ॥४॥ विषयनी न धरे वासना, केव ल करुणाधाम ॥ साधु कन्हे श्रुत सांजले, नावे नव नाव विराम ॥५॥ रूपें रतिपति दारव्यो, यौवन पाम्यो जाम ॥ सुललित सुरपति सारिखो, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. पण न गमे नारीनुं नाम ॥ ६॥ विरमे दण दण विश्वथी, वांडे शिव सुख वास ॥ गुण निधि नामें गुरु तिणे, एक दिन नेट्या खास ॥ ७ ॥च उ नाणी ते गुरुकने, सांजलि श्रुत सुविशेष ॥ विधिसुं ते संयम वरे, या रंन त्यजी अशेष ॥ ७ ॥ सर्व गाथा ॥ १४२३ ॥ ॥ ढाल एक्यासीमी॥ ॥ बेडले जार घणो ले राज, वातां केम करो बो ॥ए देशी ॥ चारित्र धर्म राजा चितमांहे, तव पाम्यो महा तोप ॥ सहित परिकर रहे ते पासें, पुण्यनो करवा पोष ॥१॥ इम ते जोर न. अणगार, मोह नृपना नड साथें ॥ ए आंकणी ॥ अति अनुरक्त थई ते मुनिसुं, त्रिनुवननी जे त्राता ॥ सर्व विरति नामे सा श्यामा, योगिनी जै जय दाता ॥३०॥ २ ॥ सद बोध योध सदा पासेथी, अध दंग न रहे अलगो ॥ सम्यक् प्रैकारें सम्य क् दर्शन, वपु साथें रहे वलगो ॥ ३० ॥३॥ अप्रमाद महासिंधुर कपरें, नजि जावन अंबाडी॥ प्रशम कवच पहेरी नली जाते, विवेक निसान वजाडी॥३० ॥४॥ ते गजें बेसी सिर सोहावे, संतोष टोप सनूरें ॥ अ ढार सहस सीलांग सामंते, परवरित दल पूरें ॥ ३० ॥ ५ ॥ धर्म धनें दि न दिन वाधंतो, पुण्योदय इणे नामें ॥ दंम नायक ते आगल दोडे, अरि उसारण कामें ॥ ३० ॥ ६ ॥ समय समयप्रत्ये गुन मनना, प्रगटे जे परि णाम ॥ पायक ते चाले खल घायक, बागल जिहां अमिराम ॥३०॥७॥ अणियें अणि यावीने अडिन, मोह राजा मुनि सामो ॥ वदस्थल वीं ध्युं तव तेहy, तत्व कुंती धरि तामो ।। ६० ॥ ७॥ ज्ञान दर्शन चारित्ररू पी ए, त्रिद्वंसने करि त्राडे । हृदयमा रागने हेपने रोपे, कामने कूटी पा डे ॥३०॥ ए॥ जीव दया परिणाम निवाणे, हणे हिंसा सामंत ॥ मृ षा वादने सत नावारूप, मुजरें मारे संत ॥ ३० ॥१०॥ अदत्तादान सुन टन मस्तक, शौच जलकें करीनेदे ॥ ब्रह्मचर्य जाला. महा नट, मैथुनने उल्लेदे ॥ ३० ॥११॥ मान सुनटनुं मान मुनि सो, मार्दव दंमें मोडे ॥ रिजु जालडियें माया मुसी, दोषी न दीठो बोडे ॥ ३० ॥ १२ ॥ संतोष यष्टिका ये ते जट, लोन, मस्तक मोडे ॥ यूरो देखीने कोई शत्रु,साहामां सिंग न जोडे ॥३०॥ १३ ॥ देह असार चिंतन धर्म साधन, साहस सत्व ने धीर ॥ इत्यादिक बायुधे जीते, परिसहने ते वीर ॥३०॥ १४॥ तनुनी थि Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. • रता लेई तोमर, उन्मूली उपसर्ग ॥ इम मारीने कीधो अचेतन, वेरीनो ते णे वर्ग ॥ ३० ॥ १५ ॥ जा रोधगवाने मारे, परिग्रह नटने त्रोडे ॥ द मा रूपी खड्ग धरीने, कोधनी सिंधि विडोडे ॥ ३० ॥ १६ ॥ उदयरतन कहे एक्यासीमी, ढाले धरमी लोक ॥ सदा करजो सेवा साधुनी,जे साधन परलोक ॥ ३० ॥ १७ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ शत्रुने इम समावतां, जरतां पुण्य नंमार ॥ बहु प्राणीने बोधतां, स फल करे अवतार ॥ १ ॥ प्रबल करी निज पदने, खल पमाडी दीप ॥ अंत समे लहि इकडो, तनू जाणी बल हीण ॥ ५ ॥ सर्वगाथा॥१॥४२॥ ॥ ढाल व्याशीमी ॥ ॥ कुंतारे माता श्म नणे ॥ए देशी ॥ नमो रे नमो निग्रंथने, एहवा जे आचारी रे ॥ घणा काल लगें आदर घणे, तास्यां बदु नर नारी रे ॥ ॥ न ॥ १ ॥ संलेषणा सो साधुयें, बिलु नेदें कीधी रे ॥ इव्य अने जावें थकी, अडे जेह प्रसिदिरे ॥न॥२॥ तव गीतारथ तपोधने, पुरथी ते प रवरित रे॥ पर्वतनी कमणे जई, संथारो तिणे करितु रे ॥न॥३॥ प्रथम शिला तल पूंजिने, माननो संथारो रे ॥ पाथरीने ते ऊपरें, मन करि एक तारो रे ॥न०॥४॥ बेसी पर्यकासने, कर संपुट धरी सीसे रे ॥ अमाडीने कचरे, शकस्तव सुजगीसे रे ॥ न ॥ ५ ॥ नमी सदु जिनराजने, शास नपतिने सोइ रे ॥ प्रणमीने पूढे नमी, गुरुने गुणवंत जो रे ॥ न० ॥ ॥६॥ पचख्या बे तो पण पड़े, पापस्थान अढार रे ॥ प्रेमेंसुं पचखे फरी, नियमें चार बाहार रे ॥ न० ॥ ७ ॥ प्रतिबंध तनुनो परिहरि, अतिचार आलो रे ॥ आहार सवि पचखे वलि, दिए हरपित हो रे ॥न०॥ ॥ पादोपगमन अणसण, खेश्ने गह गहितो रे ॥ देव मनुष्य तियेचना, उप सर्ग ते सहितो रे ॥ न ॥ ए ॥ एक मास तां इणि परे, अणसण राधी रे ॥ हेला उसासा लगें, शुभ संयम साधी रे ॥ न० ॥ १० ॥स माधि कालें करि थयो, सातमें सुर लोगे रे ॥ दिव्य ते महर्षिक देवता, संयम फल योगें रे ॥ न० ॥ ११ ॥ उत्कृष्टो तिहां आखो, सागरोपम सोल रे ॥ जोगवे एके आगझुं, करतो रंगरोल रे ॥ न० ॥ १२ ॥ उदय Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २६३ व इम ब्यासीमी, ढाल ए में बोली रे ॥ संसारमा धर्म सार ; जु अंतर खोली रे ॥ न ॥ १३ ॥ ॥ दोहा॥ ॥ तीर्थ तीर्थकरनी तिहां, जगति करी तिणे नाव ॥ पुण्योदय पोढो कीयो, मुनिने सीस नमावि ॥१॥ सुरपदनां सुख जोगवी, तिहाथी चवि ने तेह ॥ कमल पुर नामें पुरी, वारू पूर्व विदेह ॥ २ ॥ श्रीचं नामें नृप तिहां, कामिनी कमलातास ॥ अंगज तेहनो कपनो, नानु नामें ते खास ॥३॥ पूर्व परें बाल कालथी, धरतो तिमहिज धर्म ॥ पुण्योदयने पेखतो, करे सदा गुन कर्म ॥ ४ ॥ अनुक्रमें नोगवी राज सुख, पुत्रने आपी पाट ॥ दीक्षा ग्रही तिणें मोह दल, दूर कयुं दंह वाट ॥ ५ ॥ संयम सूधुं पा लिने, अंते अणसण धारि॥ नवमें ग्रैवेकें सुर थयो, ते नानु अणगार ॥ ६॥ त्रीस सागरोपम आउखो, पाली पूर्व विदेह ॥ पदम पुरें तें सुत थ यो, सीमंतक नृप गेह ॥ ७ ॥ राजवियां सिरसेहरो, इंइदत्त अनिधान ॥ राज्य तजी संयम नजे, तेमहिज ते तिणि थान ॥ ७॥ दीण पमाडीमो ह दल, पुण्योदय करि पुष्ट ॥ अंते अणसण कचरि, दूर कस्या अरि उष्ट ॥ ए॥ मरण समाधे ते मरी, सर्वार्थ सिद्धि विमान ॥ अहमिंद सुरपणे ऊपनो, महार्दिक महा रिहिवान ॥ १०॥ सर्व गाथा ॥ १४६५ ॥ ॥ ढाल व्यासीमी॥ ॥धण समर्थ पीन नान्हडो॥ ए देशी ॥ सकल मंगल जय दायिनी, चारित्र धर्म राजानी सेव ॥ नुवन नानु कहे केवली, फले तेहना नृप सु ए तुं हेव ॥ स० ॥१॥ एहज गंधिलावती विजयमां, इंइपुरीथी अधिक अ नूप ॥ चपुरी नामें पुरी, अकलंक नामें राजा तिहां नूप ॥ स० ॥२॥ सकल नूपाल मौलि श्रेणे, पूजित छे जस पदभरविंद ॥ सुजग समृद्धि सक्ने करी, अवनि तल उपे जिम इंइ ॥ स० ॥३॥ जे श्रीजिनपदपंकजें, मधुकरनी परें रहे मगन्न ॥ देवी ने तेहने सुदर्शना, शीला जेहने लागी लगन्न ॥ स ॥॥ धवल समकितने धारिणी, सुपनमांहि ते देखी सिंह ॥ उज्वल शसिसो एकदा, वदन प्रवेश करतो अबीह ॥ स० ॥ ५॥ ते इं इदत्त अणगारनो, तिहाथी जीव चवी ते तास ॥ उदरें आवी कपनो, पु त्र पणे पहोती मन आस ॥ स० ॥ ६ ॥ तव सा हरखी सुपन ते, जगत Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. " पतिने नावे जाय ॥ सुपन पाठक तेडी तदा, परमारथ तस पूढे राय ॥ स० ॥ ७ ॥ तनुज होसे तुम ते कहे प्रभु, ए उत्तम सुपन पसाय ॥ कु लदीवो कुल केसरी, खखं भूमंमल जोगी राय ॥ स० ॥ ८ ॥ तव तूगे ये नृप तेहने पारितोषिक दान प्रचूर | विदाय करुया संतोषने, ग्रम हीपी आनंद कर ॥ स० ॥ ए ॥ सुखें गर्न ते निर्वहे, देवपूजा दानादि नेक || मोहोला जे जे कपजे, पूरे नृप ते एके एक ॥ स० ॥ १० ॥ प्रस वेसा पूरे दिनें, पुत्र रतन पुंज समान ॥ यावासने उद्योततो, तरणि परें तपे तेजवान ॥ ० ॥ ११ ॥ हरखें हीए दुलरावती, महोटो मुक्ताफलनो हार ॥ उल्लसते नरें दोडीने, चंडू धारा दासीयें ते वार ॥ स० ॥ १२ ॥ वसुधापतिने वधामणी, तनु जन्म्यानी दीधी तिरों जाय ॥ पहोचे सात पेढी लगें, दान तेहवं तस दीधुं राय ॥ ० ॥ १३ ॥ नगरमांहि ते नव नवा, मादलना थाए धोंकार ॥ श्राणंद रंग वधामणां, उत्सव तिहां थाए अपार ॥ स० ॥ १४ ॥ कनकादिक बहु दान घे, बंदीवानना बोडे बंध ॥ महापू जा जिन मंदिरें, नेहसुं रचावे नरिंद || स० ॥ १५ ॥ खान पानने दानसुं, गीत गान प्रति तान मान ॥ राजाने पुरजन सर्वे, मुदित कस्यो देई बहु मान ॥ स० ॥ १६ ॥ मानने माप वधारियां, राज कर मेव्या महाराज ॥ उदयरतन कहि ढाल ए, व्यासीमी बोली गुन साज ॥ स० ॥ १७ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सिद्धार्थ नामें सुनग, गणक तेडी निज गेह ॥ जनम समय निज जानो, नृप पूढे धरि नेह ॥ १ ॥ केहेवी वेला बे कहो, तव तिहां बोल्यो तेह ॥ महा राजा मन देईने, सांजलो घरी सनेह ॥ २ ॥ संवत्सर सानं द ए, शरद रितु सुखकार ॥ कार्तिक मास कल्याण कर, तिथि बे बीज न दार ॥ ३ ॥ सुरगुरुवार सोहामणो, कुछ ऋतीका वृष रास ॥ धृतियोग कौलव करण, गुन ग्रह निरीक्षत खास ॥ ४ ॥ लगन बे लख लान कर, ग्रह सर्व उच्चस्थान ॥ श्राव्या वे दोरा लहो, नई मुखी राजान ॥ ५॥ पाप ग्रह इग्यार में, जावि बे सुणो नृप । एहवी वेलाए जनमिर्च, कुमर होसे कुल रूप ॥ ६ ॥ शूर वीरने धीर व्यति, तेजस्वी जसवंत ॥ धर्मी प्रता पी महाधनी, राजें होसे तंत ॥ ७ ॥ वृष रासि ए जनमित्र, फल हवे सांजल तास ॥ जोसी कहे जोई जुगतिसुं, अवनिपति सुण उल्लास ॥ ८ ॥ . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १६५ यतः ॥ नोगी दाता शुचिर्दवः, स्थूलगंमोमहाबलः ॥ अर्थवानल्पनापीच, स्थिरचित्तोजनप्रियः ॥ १॥ परोपकारी कांतश्च, बदुपुत्रः शौर्यसंयुतः॥ ए वं गुणगणोपेतो,रषेजातो नवेन्नरः॥॥ समानां च शतंजीवेत्,पंचविंशति कं यदि ॥ नृमृतश्चतुष्पदातस्य, मरणं रोहिणीबुधे ॥३॥सर्व गाथा॥१४ए३॥ ॥ ढाल चोरासीमी ॥ ॥ कोई पत्र लावे दीनानाथर्नु ॥ ए देशी ॥ जू पुण्यतणां फल प्राणि यां, जव फंद जे फेडे ॥ पुण्ये ग्रह होय पाधरा, वली वैरी न विहडे ॥ जू०॥ १ ॥ बारें राशिनां फल बदु, जाण्यां नलि नांतें ॥ अवनिपतिने ३ गि परें, गगकें गुणवंतें॥ ज०॥२॥ महाविदेह देत्रमा, कपनो ते मा टे॥ कोडि पूरवनो आनखो, लहो तेहy सुघाटे ॥ जू ॥३॥ वलि ते जोसी नृपने वदे, वारे राशिनां बंदुलां॥ फल जाख्यां आगमें, समझो ए सघलां ॥ जूण् ॥ ४॥ शीखव्यां ते सुशिष्यने, सर्व जे गुन टाणे, व्याप्या तिहांथी विश्वमां, तेह काल प्रमाणें ॥ ज० ॥ ५॥ यतः ॥ ज्योतिष नि निमित्तं च, यच्चान्यदपि तादृशः॥ अतीडियार्थ तबास्त्र, सर्व सर्वज्ञपूर्व कं ॥ १॥ ततोत्रयोव्यनिचारःस्यात्केवलं नरदोषतः॥ विजागं हि न जानी ते, शास्त्रस्याल्पश्रुतोनरः ॥२॥ पूर्व ढाल ॥ जन्म समय जोतां सही, बाल क ए बली ॥ होसे जाचा हीरा जिस्यो, अनमी अति कली ॥जू० ॥ ६ ॥ जाण घणुं जोसी तुमे, सदा रहो ताजा ॥ सत्य 'कहो संशय वि ना, रीजी कहे राजा ॥ जू० ॥ ७ ॥ सर्वज्ञ विण संदेह विना, साचूं कुण नाखे ॥ अज्ञानीनु नच्चयुं, कोई कबूल न राखे ॥ जू० ॥ ७ ॥ ज्ञानी वि नाए झाननो, निर्वाह किम थाय ॥ सर्वज्ञ विण संसारमां, किणे सत्य क हेवाय ॥ जू०॥ ए॥ प्रेमें श्म प्रशंसिने, दान जोसीने दी● ॥ राजाएं महा रीमर्नु, लक्ष्मीफल लीधुं ॥ जू० ॥ १० ॥ दानमाने सनमानिने, वी सयो तेह ॥ उदय वदे कही ढाल में, चोरासीमी एह ॥ जू० ॥११॥ ॥दोहा॥ ॥ बली कुमर ते बालन, निरुपम दीधुं नाम ॥ सदु साथै गुन मुहूर तें, सानंदें पुरस्वाम ॥ १ ॥ पांच धावे पाली जतो, वाधे दिन दिन वीर ॥ पुण्योदयना पूरथी, शिशु ते महा सुधीर ॥ ५ ॥ बालपणाथी बहु थयो, सदबोधगुं तसु संग ॥ समकित तो साथेज , पूरण पुण्य प्रसंग ॥ ३ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. सकल कला साधी सबल, दमा गुण न लहे दोन ॥ गुरुता अने गंजीरता, थिरता थई थिर थोन ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ १५१० ॥ ॥ ढाल पंच्याशीमी ॥ ॥ आसाढो धुर उनह्यो॥ ए देशी॥ योवन वय ते पाम्यो यदा, वाध्यो तव तनु वानो रे ॥ सुजाण सूधा जन संगनो, तेहने लागो तानो रे ॥ ॥ यो ॥ १ ॥ स्नात्र महोत्सव नित करे, विधिसुं सुणे गुरुवाणी रे॥ दे हरे देव पूजे सदा, अंगें ऊलट आणी रे ॥ यो ॥ २ ॥ शासननी उन्न ति करे, रथ यात्रा गीत गानो रे ॥ नृत्य करावे नित नवां, दीनने दीए दा नो रे ॥ यो ॥३॥ चारित्र धर्मना सैन्यसुं, अति परिचय थयो तासो रे ॥ बीहीकें निज बल लेईने, मोहें लीधो वनवासो रे ॥ यो० ॥ ४ ॥ राग क्षेप दूरे रहे, मबकी मारी क्रोधे रे ॥ शैलराज न जुए साहमुं, शठता कूप ने शोधे रे॥ यो० ॥ ५ ॥ सागर खारे सागरें, गयो जो गति माती रे ॥ विषय पंचेनी वासना, निपट जाये ते नाठी रे॥ यो० ॥ ६॥ कृपणता कोपी घj, जय पामी जाए नागी रे ॥ अविनयें कचालो नखो, लालचने बीहिक लागी रे ॥ यो० ॥ ७ ॥ विनय प्रशम मृडने रुजु, संतोप थादि सुरंगें रे ॥ गांनीर्य स्थैर्य शौर्यादिक, गुण ए वस्या तसु अंगें रे ॥ यो ॥ ॥ ॥ कीरति प्रसरी दशो दिशे, मात पिताने मोहो रे ॥ यतिशय ते क पर ऊपनो, दण न खमाये विबोहो रे ॥ यो० ॥ ॥ घर घर गुण गीत तेहनां, कुलवधु गाये केई रे ॥ केई सुरी केई किन्नरी, हीए हर्ष धरेई रे ॥ यो० ॥ १० ॥ नाट चारण केई नणे, गुण जेहना गह गाटो रे ॥ सुधी जनने सुरपण केई, बोले तस गुण पाठो रे ॥ यो० ॥ ११॥ पंचाशी मी ढालमां, फेरा लाख चोरासी रे ॥ उदय वदे ते नवि फरे, मति जेणे जिनमतें वासी रे ॥ यो० ॥१२॥ ॥ दोहा ॥ ॥ जसु सघले यश विस्तस्यो, ते यश खुबधी जोर ॥ रूपें रंन हराव ती, राजसुता तिण तोर ॥ १ ॥ मानमेटी गुण पेटी ते, साथै लई शुन साज ॥ अनेक एवी एके समे, कुमरने वरवा काज ॥२॥ पूरव उपचि त पुण्यफल, कुमरनुं कोई बलवान ॥ आवी आकर्षी तेहनी, स्वयंवरा ति Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. २६७ णि स्थान ॥ ३॥ सकल कलायें शोनती, सुमुखी सकल सुरम्य ॥ ऊतारा नृपें आपिया, रहेवा तेहने रम्य ॥ ४ ॥ - ॥ ढाल ब्यासीमी॥ ॥ अवधे आवियें महाराज ॥ ए देशी ॥ व्रतविपे मन वासना, बली कुमरनी बलवंत ॥ वसी तिणें विवाहनी, कांई चाह न धरे चिंत ॥ तव इम कहे मातने तात ॥ १ ॥ सुदर्शना तसु मावडी, अकलंक राजा था प॥ अनिप्राय कुमरनो उत्लखी, जई कहे एम जवाप ॥ त०॥ २ ॥ खां तें ते खोला पाथरी, खरे उखें पडदो खोल ॥ एकांतें अंजलि बांधिने, बो ले ते एहवा बोल ॥ त ॥ ३ ॥ मावीत्र धर्मनुं मूलतो, जेहना उसींगल न थवाय ॥ पुत्रनुं प्री यजे, इम जंपे श्रीजिनराय ॥ त ॥ ४ ॥मावित्र जो करी लेखवे तो, कह्यु अमारुं एक ॥मान तुंमन कोमल करी, हतीला न थाएं बेक ॥ त ॥ ५॥ तुज गुणें आकर्षीथकी, बदु राजसुता गुणरास॥मात पितानी मोकली. यावीले प्रापणे वास ॥ त० ॥६॥ स्वयंवरा ए सुंदरी, नाजुक नवले वेश॥ इहां आवी जो पानी फरे, तो जड थाये देश ॥ त ॥ ७ ॥ अबला निराशे ए वली, तो अमने आरति होय ॥ आंटी तजी तूं तेवती, एक वार ते उंचो जोय ॥ त ॥ ७ ॥ कयुं अमारूं जो करो,तोह रिणादायें हाथ ॥ ग्रहीने मन मेलसुं, सुख जोगवो सदु साथ ॥ताए॥ ए बापडी इहां चालिने, आवी धरी ऊमेद ॥ इजा पूरो एदुनी, जोगवी सुख बहु नेद ॥ त॥१०॥ अमने पण सुख ऊपजे, जो जोइएं ताहरूं राज ॥ पनी पाट आपी पुत्रने, साधजे परनव काज ॥ त० ॥ ११॥ मा बापर्नु मन राखतां, अवगुण तुफने रेख ॥ इहां ऊपजतो नथी, दिलमा वि चारी देख ॥ त० ॥ १२ ॥ व्यासीमी ए ढालमां,उदयरत्न नांपे एम ॥3 सिंगल माय बापना, कहो न थवाएं केम ॥ न० ॥ १३ ॥ ॥दोहा ॥ ॥ वली कुमर तव चिंतवे, अहो ए मोटो बंध ॥ ए महारा मा बापनो, ए कज हूं धूं नंद ॥ १ ॥ जो उलंबूं आए तो, आरति लहे अत्यंत ॥ तिणें मुफ मननी कामना, हवणां न होवे तंत ॥ २॥पूलं तिणे प्रेमेंकरी, हवणां ए ढुंती ढुंस ॥ लूटाये नहि जे विना, सो खांचं जो सुंस ॥३॥ जोग करम विण जोगवे, योगनो न मिले योग ॥ सरोगने सरस अहारनो, जिम न Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनकथा रत्नंकोष नाग पांचमो. घटे संयोग ॥ ४ ॥ इम मनमां बालोचिने, मात पितानो मोद ॥ पूरो ते पाड्यो तिणें, वधू वरी सविनोद ॥ ५ ॥ वारु विवाह नत्सव कयो, पुर जन वाधी प्रीत ॥ आनंद सदुने ऊपनो, रूडी देखी रीत ॥ ६ ॥ ॥ ढाल सत्यासीमी॥ ॥ नवो पडेवडो रे ॥ ए देशी ॥ तव अकलंक ते राजिए रे, सुंदर जोई गुननारी रे ॥ जो जो पुण्यथी रे ॥ कुमरने काजें करावियारे, मोहल घणा मनोहार रे ॥जो॥१॥ पुण्यथी परिघल नोग, पुण्यथी सुखसंयोग, पामी जोग, रसि नोगवे रे॥एक पासें वहे आपगारे, एक पासें आराम रे ॥जो॥ क्रीडा गिरि सर वापियें रे, उपे ते थल अनिराम रे ॥ जो ॥२॥ वारु वृदनी आवली रे, दीसे गुहिर गंनीर रे ॥ जो ॥ आगल कारंज कब ले रे, नीकरणें करे नीर रे । जो० ॥ ३॥ सुंदरीना सोहामसा रे, बिटुं पासा प्रासाद रे ॥ जो० ॥ विचे बेठकनो बंगलो रे, विमानसुं मांमे वाद रे ॥ जो ॥ ४ ॥ पोपट बोले पांजरे रे, हेठे हीमोलावाट रे ॥ जो ॥ ऊपर मोतीनां जूंबखां रे, चंदुएं गुन थाट रे ॥ जो० ॥ ५ ॥ बत्रीस बह तिहां बेसीने रे, निरखी नाटारंन रे ॥ जो ॥ नित नवलां सुख जोगवे रे, नित नवला अचंन रे ॥ जो ॥ ६ ॥ सुरना जहेवी साहेबी रे, जोगवे जे जरपूर रे ॥ जो ॥ पूर्व नवना पुण्यथी रे, नित नित चढते नूर रे ॥ ॥ जो० ॥ ७ ॥ कुवलयचं केवली कने रे, तात देई तेहने राज रे ॥जो॥ महाव्रत लेई मुगतें गयो रे, सायां आतम काज रे॥ जो० ॥ ॥ माता पण महाव्रत आदरी रे, पाली पहोती सुरलोक रे ॥ जो० ॥ बलि राजा राज जोगवे रे, पुण्यनो करे बदु पोष रे ॥ जो० ॥ ए॥ अनमी बाण म नाविया रे, सीमाडा सामंत रे ॥ जो ॥ चालीस लाख पूरव लगें रे, राज करे ते तंत रे ॥ जो० ॥ १० ॥ वीश लाख पूरव वोलियां रे, कुमर पणे निरधार रे ॥ साउलाख पूरव सदु मली रे, श्म बोल्या उदार रे ॥ ॥ जो ॥ ११॥ दया धर्म दीपाविन रे, जैन शासन तिणे जोर रे॥ जूना देवल जिन राजनां रे, समराव्यां तोर तोर रे ॥ जो० ॥ १२ ॥ नवा पण निज देशमां रे, पोढा बहु प्रासाद ॥ रे ॥ जो० ॥ गाम नगर सीम डूंगरें रे, कराव्या मन आल्हाद रे॥ जो० ॥ १३ ॥ संघपति तिलकध राविने रे, रथयात्रा करी रंग रे ॥ जो० ॥ देशे देशे दीपावियो रे, श्री जिनधर्म थ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. शहए नंग रे ॥ जो ॥ १४ ॥ जोग तिणे एवा जोगव्या रे, देवने जे उर्लन रे ॥ जो ॥ राज करतां पण राजिये रे, दिलमां न धस्यो दंन रे ॥ जो० ॥ ॥ १५ ॥ उदय रतन श्म कचरे रे, सत्यासीमी ढालें बयन रे ॥जो ॥बू जावतां बूजे सदा रे, पण सुं बूजे बयल रे ॥ जो ॥ १६ ॥ ॥दोहा॥ ॥ चौदशने दिन एकदा, उपवासें ते तेण ॥ सांज समे जिन पूजिने, सकाय करी हरखेण ॥१॥ सामायक पोसह तवी, नावन नावतां नरि ॥ रजनी विरामें राय ते, सदबोधादि पूरि ॥ २ ॥ चित्तमांहि श्म चिंतवे, इतर परें संसार ॥ केवल विषयने कारणें, में हास्यो अवतार ॥ ३ ॥ ॥ ढाल अग्यासीमी ॥ ॥घणो प्यारो घणो प्यारोप्राणथी तुं प्रनुजी ॥ ए देशी ॥ र नोगें सुरे नोगे जे उनगी नहीं जी, तुब नरने तुब नरने जोगें ते किम एह हो ॥पू राये पूराये विषयनी वासना जी, अहो एतो अहो एतो कहेवाये अह हो ॥१॥ जम वारो जम वारो अहो अहेलें गयो जी, संसार संसारें नहीं कांई सार हो ॥ ब्रांते जे ब्रांतें जे रम्य नासे अ जी, देहादि दे हादि स्वजन परिवार हो ॥ ज० ॥२॥ पण ते तो पण ते तो थारखर अ नित्य ने जी, वाघणने वाघणने मुखें जिम कोई हो ॥ पेसीने पेसीने वां ले जीव, जी, पण केतो पण केतो जीवे सोई हो ॥ ज० ॥३॥ मूढ म नसुं मूढ मनसुं माने मोहेंकरी जी, यौवनने यौवनने रूप अनूप हो॥ पण उष्ट पण उष्ट रोगतणे वसें जी, मांहि मांहि थाय ते कुरूप हो ॥ ज० ॥ ४ ॥ सुरवधुनां सुरवधुनां जे मन रीजवे जी, तेहने न करे तेहने न करे चंमाली कबूल हो ॥ जराने जराने रोगना योगथी जी, ते हवं तनु तेह, तनु थाए सूल हो ॥ ज०॥५॥ बाह्यदृष्टें बाह्यदृष्टें जे प्यारी लागे बहू जी, कमलारो कमलारो कोडी उपाय हो ॥ तां वं तां श्रावी नवि मिले जी, जो मले तो जो मले तो जोतांमां जाय हो ॥६॥ बते तो बते तो सुख नहीं तेहवू जी, वित्त जाते वित्त जाते जेहबुं फुःख थाय हो ॥ जो रहे तो जो रहे तो बाखर पण बांझq जी, तेह धनने तेह धनने काजे कुण धाय हो ॥ ज० ॥ ७ ॥ राज्य पदनो राज्य पदनो पण मद जे करे जी, अविवेकें अविवेकनुं विलसित तेह हो ॥ नूप केई नू Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. प केई जीख मागे घणा जी, जिहारे जिहारे आवे पुण्यनो नेह हो ॥ज० ॥ ॥ जोरालो जोरालो होय जे जेहथी जी, ते तेहने ते तेहने गंजे त तकाल हो ॥ जगें मन जगें मन गला गलनी परें जी, एक एकनो एक एकनो जाणो काल हो ॥ ज० ॥ ॥ जावजीव जावजीव जो कोई पु एयथी जी, राज कुंति राज ढुंति भ्रष्ट न थाय हो ॥ उत्कृष्टो उत्कृष्टो तो आरंन करी जी, सातमी ते सातमी ते नरके जाय हो ॥ ज० ॥ १० ॥राज काजे राज काजे केई रणमा मरे जी, रंगीला रंगीला जे राजान हो। राज तेहने राज तेहने कांई काजें आवे नहीं जी, तो तेहy तो तेहखें की जे गुं मान हो ॥ ज० ॥ ११ ॥ सुत बंधु सुत बंधु वधू आदे सहू जी, प रिकर ने परि परिकर ने माहरी 'पून हो॥आगमानी आगमानी सदा चा ले अ जी; पण नली पण नली ए बांधी मूठ हो ॥ ज० ॥१॥ आपगर जें आपगरजें सदु आवी मिले जी, परगरजे परगरजें न ममें को पाय हो। कुण माता कुण माता पिता नाई जारजा जी, वेकारें वेकारें ए सवि बद लाय हो ॥ज॥१३॥ जन्म जरा जन्म जरा अने यम चोटथी जी, कांई राखी कांई राखी न सके कुटंब हो ॥ तेहने काजें तेहने काजें विविध विटं बनाजी, कुण सहे कुण सहे करे कुए दंन हो ॥ ज॥१४॥ कवि उदय कविनदय रतन कहे एटले जी, अग्यासीअन्यासीमी थई ढाल हो॥ केवली ते केवली ते जुवननानुनणेजी, चंमौलि चंमौली सुण नूपाल हो ॥१५॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सरस गीत श्रवणे सुटुं, रमणिक जो रूप ॥ जला गंध नित नो गएँ, रस आस्वाउं अनूप ॥ १ ॥ फरस सुकोमल फरसियें, ए पंच विषय सुख देखि, मान करे को मढ नर, ते पण मोहविशेष ॥ २॥स॥१५७०॥ ॥ ढाल नेव्यासीमी॥ ॥ रे मन पंखीधा म पडीस पिंजरे,संसार माया जाल रे॥ ए देशी॥ रे मन मूढ तूं म पडीश मोहमां, ए विषयनां सुख देखि रे ॥ एत्रांकणी॥ जोगवतांग जलां नासे, विषय ए विषरूप रे ॥समयांतर ते विरस लागे, सीत समे जिम धूप रे ॥रे॥ १ ॥ लीला विषयनी सदा लागे, अज्ञानी ने अनूप रे॥ ज्ञानी नर ते इम गणे ए, केवल दुःख रूप रे ॥रे० .॥ २ ॥ सुख तो सरसव जेटलुं ने, फुःख तो डूंगर मान रे॥ धिग पडो Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. ते विषयसुखने, निखर जे निदान रे ॥ २० ॥३॥ विषयने वश वेर परथी, कपजे अनेक रे॥ रे ॥ लोक पण लख गमे नंमे, नूप दंमे क रे॥ रे ॥४॥ यण मलते चाट थाय, अरति उपजे अंग रे ॥ मरणांत पण लहे यापदा, बद पडया विषयने संग रे ॥रे॥५॥ मृग मीन मधु कर अने मयगल, परवशे पतंग रे ॥ एक एक इंडि रसें आतुर, अंगनो क रे नंग रे ॥रे ॥ ६॥ वंबित कोश्क लहे विरलो, पामीने पण प्राहि रे॥ रोग वियोग ने जरा योगें, जोगवी सके नाहिं रे ॥ रे ॥ ७ ॥ पुण्यबलें जो विषय सुखनो, पूरो पामी साज रे ॥ अवतार आखो अनुनवे, कोई चकी के महाराज रे ॥ रे ॥ ७ ॥ तो मरी ते तेहने विपाकें, पामे नरक निवास रे ॥ ते माटे ले नेट निखरां, विषयना विलास रे ॥ रे ॥ ए॥ इम बीजी पण अनेक वस्तु, रम्य नासे तेह रे॥ यावर ते घनित्य संघ ली, बटकि दाखे बेह रे ॥ रे ॥ १०॥प्रेम दंमने प्रहारे मूर्बित, राजमदें उन्मत्त रे॥ विषयविपे गहिरे थके, वैनवरसें मयमत्त रे ॥ रे ॥११॥ याज लगे में एवडी कांई, लही न कालनी लात रे ॥ अवतार अहिले नी गम्यो, बाउल दीधी वाथ रे ॥रे॥१॥ उदय रत्न कहे ए नेव्यासीमी, सुणो श्रोता ढाल रे॥धर्मनो दृढ राख जो, जिम नाजे नव जंजालरे ॥रे॥१३॥ ॥दोहा॥ ॥ कुवलय चं ते केवली, जिणे तास्यो मुझ तात ॥ हवे जो नेटु तेह ने, तो साधुं परमार्थ ॥ १ ॥ आतम चिंता इणि परें, करतां थयो प्रजात ॥ पोसहादि व्रत पारी तव, नारी ने नरनाथ ॥ २॥ देव पूजा दिल री जीने, सिंहासने ते राय ॥ आस्थान सना मंझप जई, बेगो जडी सनाय ॥३॥ कुवलयचं पण केवली, बलि नृपनो अनिप्राय ॥ उनवीने या व्या वही, तिणि अवसर तिणि वाय ॥४॥ कनकमय पंकज कपरें, मृग रमण उद्यान ॥ परखदें वीटया केवली, बेठा ज्ञान निधान॥ ५॥ सुर नर तिहां याव्या बदु, केवली कहे उपदेश ॥ बलि राजा पण तिणे समे, प होतो तेणे प्रदेश ॥ ६ ॥ अनिगम पांचे सांचवी, त्रण प्रदक्षिणा देह ॥ वं दीने बेठो तिहां, सुगवा धर्म सनेह ॥ ७ ॥ सर्व गाथा ॥ १६०० ॥ ॥ ढाल नेवूमी॥ ॥ दे वली इगलाधी चूडो वापरी॥ए देशी ॥ श्रोताजी ॥धर्मनी देशना Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. सांजली, प्रणमी मुनिना पाय रे ॥श्रो॥ पूजे अवसर पामिने, कर जोडी वलि राय रे ॥१॥श्रो॥ केवलिये ते नृपर्नु मन हरी ॥ ए आंकणी॥ प्रनुजी ॥ जगवन् में जव हारी, केवल विषयने काज रे॥प्र० ॥ शरणे श्राव्यो हवे तुमतणे, जाणी तारण तरण जिहाज रे ॥ के० ॥ २॥ प्र० ॥ शेष रह्यो जे थाकतो, ए माहरो अवतार रे ॥३०॥ सफल थाये हवे जे हथी, तेहवो कहो प्रकार रे ॥प्र० ॥३॥रा ॥ केवली कहे तव तेहने, एहज तुं नव एक रे ॥०॥ दाखो नथी सुण पूरवें, हास्यो में अनेक रे ॥ के० ॥४॥ राजाजी ॥ कहेतां कहेवाए नहीं, जय उपजावे नूर रे॥ रा॥ अचरज कारी अति घणुं, जिम दरियानुं पूर रे ॥ के ॥ ५ ॥रा ॥ बलि राजा तव बोलि, स्वामी सुणो एक वात रे ॥रा ॥ सांजलवा व अबूं, ते कहो महारो अवदात रे ॥ के ॥६॥रा ॥ केवली कहे सु ए राजिया, कोडी जीने पण कोय रे ॥रा० ॥ कहेतां न पामे पारने, आयु पण पूलं होय रे ॥ के० ॥ ७॥ रा० ॥ अचरज जो तुऊने अजे, तो सांनल थई सावधान रे ॥रा० ॥ कहुँ कांक संदे पिने, अवदात तुज अ समान रे॥ के रा ॥ श्रोताजी ॥ उदयरतन कहे एटले, नेवूमी निर धार रे ॥श्रो॥ ढाल थइ पण धर्मनो, आगे सुणो अधिकार रे ॥॥॥ . ॥ दोहा ॥ ॥ काल अनंते हांथकी, चारित्र धर्म सहाय ॥ करवा करमें काढियो, जीव ताहरो सुण राय ॥ १ ॥ अव्यवहार निगोदथी, व्यवहार निगोदें वा स ॥ दीधो तव मोहने दलें, तुरत घेखो जर तास ॥ ५ ॥ काल अनंतो रोकियो, पछे कर्म परिणाम ॥ कचो तिहाथी थाणियो, सुण मन राखी गम ॥ ३ ॥ पंच थावर विगलेंश्मिां , पंचेंही तिर्यच ॥ नरक अनार्य नर गतें, वसि कर्म प्रपंच ॥ ४ ॥ वलि वलि पाडो वालिने, वेरीएं वार अनं त ॥ निगोदादिकमां नाखिन, कहेतां नावे अंत ॥ ५ ॥ अनार्य देशे अ वतरी, वली अनंती वार ॥ नर नव नाहक निगम्यो, मोहतणे अधिकार ॥ ६ ॥ कुजाति पंगु कुलहीण किहां, अंध बधिर गदपूर ॥ इत्यादिक दो चे वली, राख्यो मोह हजूर ॥ ७ ॥ पुदगल परावर्तन करयां, अनंत अनं ती वार ॥ एकेंशियादिकमां घालिने, मोहें कीधो खोवार ॥॥सर्व॥१६१७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १७३ ॥ ढाल एकांणुमी॥ ॥ हो रे वणजारीडा ॥ ए देशी ॥ इणि परें कीधी रे नवनी बावली, कुलनी नमतां बहु कोडि हो ॥ दो रे सुण राजीया ॥ चोरासी लख जी वा योनिमां, पग पग पाम्यो तूं खोड हो ॥ १ ॥ हो ॥ श्री निलयनगरें तूं थयो एकदा, वैश्रमण नामें वणीक हो ॥ हो० ॥ धर्मनी नपनी तिहां धीपणा, श्लोक सुणी एक रमणीक हो ॥ ५ ॥ हो० ॥ यतः ॥ स्वजनध ननुवनयौवन, वनिता तत्वाद्यमनित्यमिदमखिलं ॥ ज्ञात्वापत्राणसहं, ध मं शरणं नजत लोकाः ॥ १ ॥ कुधर्मनी बुद्धि तव आमी फरी, त्रिदंमिन तापस कीध हो ॥ हो० ॥ एकेडियादिकमां वली अवतारीने, दुःख बदुलां मोहें दीध हो ॥ ३ ॥ हो ॥ पुदगल अनंता परावर्त्या वली, नरनव लही अंतरालें हो ॥ हो ॥ कुधर्म बुद्धिने उपदेशेकरी, जिहां तिहां पड्यो जंजालें हो ॥ ४ ॥ दो० ॥ आलस उघादिक सुनटें मली, अल गो नाख्यो नथेडि हो ॥ हो ॥ तिमज अनंता पुदगल परावा , कुदृष्टि लागी तिहां केडि हो ॥ ५ ॥ हो ॥ विजय वर्षनपुरें नंदनने नवें, आयु टालिने सात हो ॥ दो ॥ कर्म ते द्यां यथाप्रवृत्तकरणे, खडगें तिहां करी ख्यात हो ॥ ६ ॥ हो० ॥ एक कोडाकोडि सागरनी स्थिति, सा ते रह्या ते शेष दो ॥ हो० ॥ ग्रंथी नेद लगें पहोतो जई, पण मोहें मेला वी अशेष हो॥ ७॥ दो० ॥ अश्रधानने राग शेषादिकें, पाडो वाली तिणें ताल हो ॥हो॥ निगोदादिकमां तिमहिज फेरव्यो, कह्यो न जाये ते काल हो ॥ ७ ॥ हो ॥ते वली मलयपुरे विश्वसेनने, नवें करी ग्रंथी नेद हो ॥ हो ॥ अपुरव करण खडगतेणे बलें, आगे वली धरी उमेद हो ॥ ॥ ए ॥ हो ॥ अनिवृत्तिकरण दंम उसारीने, मोहादिक वेरी महा मन हो ॥ हो० ॥ सम्यग् दर्शन मंत्री नेटीन, अवसर पामी अवन्न हो ॥ १० ॥ दो० ॥ कुदृष्टि रागें तव दीधो दगो, सुनगनवें वली सोय हो ॥ दो० ॥ स्नेह रागें वली समकित दारित, जुगतें विचारी तुं जोय हो ॥११॥हो॥ विषयरागें वली सिंहतवं नवें, जिनश्रीएं शेष विशेष हो ॥ हो ॥ ज्व सनसिख को कुबेरें मानथी, पदमें माया बलेण हो ॥ १२ हो० ॥ सोमदत्त लोनें एम अनेक नवें, ताहरे जीवें राजन्न हो ॥ हो ॥ मोह रा जाना सुनट तणे बलें, हायुं समकित रतन्न हो ॥ १३ ॥ दो० ॥ देशविर Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ति दारि हिंसाएं सुंदरें, मणिन मृषावाद दो॥ दो० ॥ सोमदत्ते अदत्ता दानथी, दत्तें मैथुन उनमाद हों ॥ १४ ॥ हो० ॥ धन बदुल सेठे परिग्रह ने पूरे, रोहिणियें विकथायें हो ॥ हो० ॥ देश विरति सही असंख्य नवें, हारी तें मोह महीमायें दो ॥ १५॥ दो० ॥ अरविंदने नवें सर्वविरति हारी, क्रोधने मान पसायें हो ॥ दो० ॥ चित्रमतियें विषयसुख लालचें, पाम्यो विजय सेन मूर्बायें हो ॥१६॥होण॥ संयम ने वली चौद पूरवयकी, पुंमरीकने नवे गंधे हो ॥ हो ॥ पाडी अनंता पुदगल परातन, न माज्यो नवसंगें दो ॥ १७ ॥ हो ॥ मोहादिके मलीने एणि परें, तुमने वार अनंत हो ॥ दो० ॥ नवमांहे नमाड्यो फरी फरी, कहेतां न यावे तसु अंत हो ॥ १७ ॥ हो ॥ वली सिंहरथने नवें संयमवरी, अस्खलि त तेह आराधी हो ॥ हो० ॥ सुरलोकें महागुके सुर थयो, पुण्यदिशा ति हां वाधी हो ॥ १७ ॥ हो ॥ नानुनवें संयम शुद्ध साधिने, अणसणे म रिने समाधि हो ॥ हो० ॥ नवमे ग्रैवेयकें वली सुर थयो, तिहां पण पु एयोदय वाधी हो ॥ २० ॥ हो० ॥ वली इंश्दत्त महाराजा नवें, संयम साधि सुविधाने हो॥ एकावतारी सुर पद पामिन, सर्वार्थ सिदि विमाने हो ॥१॥ हो ॥ तिहाथी चवीने यहां तुं ऊपनो, बली राजा बलवान हो ॥हो॥ उदय वदे एका|मी ढालमां, सुजो थासावधान हो ॥२॥होण - ॥ दोहा ॥ ॥ संबंध ए निज सांगली, हिए ससंन्रम होय॥ मोदें मुनि पाएं नमी, नेहें वदे नृप सोय ॥ १ ॥ जगवन् ए जुमा घj,मोहादिक महाउष्ट ॥ जि म ते न बले आनवें, कहो उपाय ते पुष्ट ॥ २ ॥ केवली कहे करी एक म न, विधे धरी अम वेष ॥ चारित्र धर्मनी चाकरी, सदा करो सुविवेक ॥ ॥३॥ सर्वविरति जे सुंदरी, मोह कुलनी मथनारि ॥ उसमन जेहने देखिने, हेला पामें हारि॥ ४ ॥ बाला बीजीने तजी, सदा नजो तसु संग ॥ दिल मां दश विध धर्मा, राखो अविहल रंग ॥ ५ ॥ सदबोध सदागम उपदि श्यो, सत्व धरी थई सूर ॥ वढो मोहादिक वेरीगं, उष्ट जाए जिम दूर ॥ धर्म सुनटने जीरुयें, इम करता संग्राम ॥ मोहादिकने मारीने, पामीस सं पद गम ॥ ७ ॥ सर्वगाथा ॥ १६५१ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. ७५ ॥ ढाल बाणुंमी॥ ॥ गोरीके नयन बडे बडे रे लाला ॥ ए देशी ॥ कथन ए केवलीनां सु णी रे लाला, हृदयमां नपनो राग ॥ हो रे लाला ॥ अवसर ए वली दो हिलो रे लाला ॥ इम चिंते महानाग ॥ हो० ॥१॥ मोदे महाबल रा जा, मन रीजी मोहने रे, मोम देवा संयम पंथे धस्यो ॥ टेक ॥ इम चिंति ने उतावला रे लाला, जेष्ट सुत नयसार ॥ हो ॥ रति सुंदरी राणी तो रेलाला, जण्यो तेडी तिणिवार ॥ हो० ॥ मो०॥ २ ॥ राज जलाव्युं तेह ने रे लाला, सहु मंत्रीनी साख ॥ हो ॥ पोते महापूजा रची रे लाला, पूरिया याचक अनिलाष ॥ हो॥ मो० ॥ ३ ॥अमारि पडहो वजडाविने रेलाला, महामहोत्सव मंमाग ॥ हो० ॥ व्रत लेवाने संचयो रे लाला, .रंगनरें महाराण ॥ हो ॥ मो० ॥ ४ ॥ सामंत पुरजन मंत्रवी रे लाला, पांचशे लेई साथ ॥ हो ॥ अंतेतरी पणं केटली रे लाला, संगें धरी नर नाथ ॥ हो० ॥ मो० ॥ ५ ॥ पंच महाव्रत कचरे रे लाला, आवी ते के वली पास ॥ हो ॥ नृप ते केतिक नारियुं रे लाला, पांचसे नरगुं नलास ॥हो० ॥ मो० ॥ ६॥ कल्प किया तनी कला रेलाला, गीतार्थ गुण जेह ॥ हो ॥ पुण्योदयना प्रजावथी रे लाला, शिखी दिन थोडे तेह ॥ ॥ हो ॥ मो० ॥ ७ ॥ चौद पूर्वधर ते थयो रे लाला, अतिशयवंत अपार ॥ हो ॥ कुवलयचं केवली तदा रे लाला, आपी एहने गबनार ॥हो॥ ॥ मो० ॥ ७ ॥ पोतें शैलेसी करी रे लाला, कर्म खपावी शेष ॥ हो॥ परमपद पाम्या सही रे लाला,अमर थयो अलेख ॥ हो० ॥ मो० ॥ए॥ राजऋषि रूडी परें रे लाला, बली आचारय तेह॥ हो० ॥ सदबोध सदा गमयोगथी रे लाला, अरिनो लेतो लेह ॥ दो० ॥ मो० ॥ १०॥ गाम नग र पुर घागरें रे लाला, विचरे देश विदेश ॥ दो० ॥ मोहना बंधने मोड तो रे लाला, नर नारीना अशेष ॥ हो० ॥ मो० ॥ ११ ॥ उदय वदे ढाल ए कही रे लाला, में बाणुंमी अनूप ॥ हो ॥ अवसर लहीने चेतजो रे लाला, जिम चेत्यो बलि नूप ॥ हो० ॥ मो० ॥ १२ ॥ ॥दोहा॥ ॥पाम्यो ते मुनि अन्यदा, अप्रमत्त गुणस्थान ॥ अकस्मात तव कप मुं, अति विशुम गुज ध्यान ॥१॥ सर्वगाथा ॥ १६६४ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ ढाल ज्या[मी ॥ ॥ हव्या सुगरे सुण महाकाल ॥ ए देशी ॥ मनना कोई शुभ परिणा म ॥ तदरूप लहो अनिराम ॥ पक श्रेणि ताम खडग यष्टी॥ पामी तिहां ते नत्कृष्टी ॥१॥ अनंतानुबंधी जे चार कपाय ॥ तिणे ते ठोरें दण्या तिणी गाय ॥ अशुभ मिश्र विगुरू त्रिदं नेदे ॥ मिथ्या तस मूल उल्लेदे ॥२॥ फरसी अपूरव करण गुण गणुं ॥ वलि आगल कीधुं प्रयाएं॥अनिवृत्ति बादर गुरागणे ॥ पहोतो गुन ध्यान प्रमाणे ॥ ३ ॥ अप्रत्याख्यान प्रत्या ख्यानावरण ॥ कषाय अष्ट पमाड्या मरण ॥ माया पण तामें न मुत्रा॥ आवे अध सुसता दुया ॥ ४ ॥ नरक तिर्यचगति आनुपूर्वी ॥ एकेंडी लहो यादी कर्वी ॥ बेंडी तेंडीचौरेंडी जाति ॥ प्रातप नद्योत स्थावर ख्यात ॥ ५ ॥ सूक्ष्म साधारण नहीं फेर ॥ नामकर्मना नेद ए तेर । निज्ञ नि . श प्रचला प्रचला ॥ थिणदि आदि त्रण्य प्रमिला ॥ ६ ॥ प्रकृति एकही जेती॥क्ष्य पमाडी तिहां तेती॥पले अईहण्या कषाय॥याते ते माया गय ॥ ७॥ नपुंसकने स्त्री वेद ॥ हास्यादिक रिपु षट नेद ॥ पुरुष वेद सं ज्वलन कषाय ॥ क्रोध मान माया दणि त्यांय ॥ ॥ संज्वलना लोनने जेहवे ॥ मारे तव नासिने तेहवे ॥ सूक्ष्मरूप करीने पी॥ दशमें गुण ठाणे ते खपिन ॥ए ॥ अंगु माणस अहावीस ॥ एह पडते पड्यो मोह ईस ॥ अस्खलित गते तव ते ऊबली ॥ बारमें सोपाने बलि ॥ १० ॥ वीणमोह गुण ठाणे पहोतो ॥ मनमांहि घणुं गहग हितो ॥ उदय वदे दिल खोली ॥ ज्यागुंमी ढाल ए बोली ॥ ११ ॥ ॥दोहा॥ ॥ मति यावरणादिक तिहां, पांचे जे आवरण ॥ ते पंच रूपें ज्ञानावर ण, पटाउत पमाज्यो मरण ॥ १ ॥ दान लान लोगोपनोग, पांचमो वीर्या तराय ॥ ए पांचे रूपें पाडिन, सामंत जे अंतराय ॥ २ ॥ निक्ष प्रचला निए बे, चछु अचङ अवधि ॥ केवल दर्शनावरण जे, दर्शनावरण षट विधि ॥ ३ ॥ दर्शनावरण नामें तिहां, सामंत ते महाशूर ॥ पाड्यो तव प्रगट्यो सही, अनिनव आनंद पूर ॥ ४ ॥ घाति कर्म महा नायकें, चारे थते चकचूर ॥ सैन्य सकल रिपुर्नु थ\, निर्मायक गतनूर ॥ ५ ॥ श्रावर ऐ अलगे थते, निर्मल केवल ज्ञान ॥ केवल दर्शन ए बन्हे, प्रगट थयां Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनुवननानु केवलीनो रास. १७ तिणियान ॥ ६ ॥ आंखें पमल जिम ऊघडे, फलके ज्योति अनूप ॥ तिम मुनि निरखे ते तदा, लोकालोक सरूप ॥७॥ सिदि सौधनुं तेरमुं, पगथीनं पाम्युं ताम ॥ संयोगि केवलि गुण स्थानकें, पहोतो सो गुणधाम ॥७॥ तव नृप चारित्र धर्मर्नु, सैन्य सकल सम काल ॥ पाम्युं परमानंदने, वैरी थते विसराल ॥ए ॥ सर्वगाथा ॥ १६७५ ॥ ॥ ढाल चोराणुंमी॥ ॥ कमल रस फूंबखडां ॥ ए देशी ॥ तिवार पबी वली केवली, मोहा दिकना सुविशेष ॥ सकलजनसुखकरू, मर्म प्रकाशी लोकने, बोडवे देई उपदेश ॥ स०॥ १ ॥ विचरतां वसुधातलें, बदु जननां मोह बंध ॥ स०॥ गामो गामें डोडावतां, फेडतां नवना फंद ॥ स ॥२॥ विहार करंतां या विधा, अनुक्रमें आणे देश ॥ स ॥ सांप्रत तुम सदु लोकने, देवाने उप देश ॥ स० ॥३॥ बूमविया बहू लोकजे, तिणे गुण निप्पन्न ॥स०॥ नुव नजानु नाम तेहy, धरियुं सही ज्ञाननुवन्न ॥ स०॥४॥ समजो ते ढूं केवली, श्म सांजली अवनीस ॥ स ॥ चंडमौलि चित्त चमकियो, तव क ती सुजगीस ॥ स ॥ ५ ॥ पाय लागी प्रणमी कहे, साधु साधु तुमे स्वामि ॥स ॥ नगवन पाउधास्या नले, अम तारवा हित काम ॥ स० ॥ ६ ॥ सकल सिहांतनुं रहस्य ए, वारु तुमारं चरित्र ॥ स० ॥ कही थमने पा वन कस्या, प्रनु तुमे पुण्य पवित्र ॥स॥७॥ तव केवली कहे तेहने, राजन निजयाख्यान ॥स०॥ निजमुखें कहेवू नविघटे,थाए निजव्याख्यान ॥सन ॥ ७॥ निज गुण कहेवा निज मुखें, निषेधे नीति ग्रंथ ॥ स ॥ कीर ति ते जे बीजो कहे, पौराणिक ए पंथ ॥ ॥ स० ॥ ए ॥ पण तुमने हित कारणे, खरो कह्यो एह संबंध ॥ स ॥ संदेपे में माहरूं, नाजे जे नवबं ध ॥ स० ॥ १०॥ उदयरतन कहे आगमें, बोल्या जे जे बोल ॥ स ॥ चोराणुंमी ढालें ते सहहो, चित्त धरी रंग चोल ॥ स० ॥ ११ ॥ ॥ दोहा ॥ विस्तारें जो वर्णवू, चंमौलि सुण राय ॥ तो कोडि पूरवने आउखे, पूलं एह न थाय ॥ १ ॥ केवल ए जे कारणे, महाराथीज निहा ल ॥ प्राहें संसारी जीवनी, सदुनी एहज चाल ॥ २ ॥ सर्वगाथा १६ए ॥ ढाल पंचा[मी॥ ॥ बिंदली मन लागो॥ ए देशी ॥ चौद लोक च्यारे गति, जगमांहि स Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. दु जीव ॥ महाराज ॥ मोह राजाना राज्यमां, भ्रमण करे अवतीव ॥ म० ॥१॥ नवमां इम सदुए नमे, नथी कोइ ते स्थान ॥ म० ॥ एकेंदि नी जातिमां, नाखे श्रीजगवान ॥म ॥ ॥ ॥ नहीं विगलेंडी रू प ते, नहीं ते तिर्यंच जाति ॥ म ॥ नरकावासो ते नथी, नरक सोध तां सात ॥म ॥३॥॥ गाम नगर पुर पेखतां, नर लोकें नहि तेह ॥ म०॥ जिहां सद जीवन कपना, अनंती वार अह ॥ म० ॥४॥ न० ॥ नुवनपति व्यंतर ज्योतिषी, सौधर्म ईशान सुर लोय ॥ देवनी दे वी ते नहीं, जिहां उपना नहिं सद कोय ॥म ॥५॥०॥ दश देव लोक ागलें, नव ग्रैवेयक पर्यत ॥ म० ॥ प्राहे नथी कोई स्थान ते, जि हां उपना नहीं सर्व जंत ॥ म ॥ ६ ॥ ॥ जे सदु जीवे न जोगव्यु, ते सुख दुःख नहिं संसार ॥ म०॥ इव्यथी नहीं जिन लिंगते, जे न ल युं अनंती वार ॥ म०॥ ७॥ ज० ॥ जाति योनि कुल ते नहीं, नहीं को ई तेहवो वेष ॥ म ॥ सद्ध संसारी जीवडे, जे वेग्यो न वार अनेक ॥ म॥७॥॥ सामान्यथी कह्यो जे सवे, एमाहरो विरतंत ॥म०॥ नव अनंता जेनम्या. वि. वि. वार अनंत ॥म ॥ ॥॥ ते संख्याते धानखे, कहो केम कह्यो जाय ॥ म ॥ कमें कमें मुखें कहेतां थकां, केता एक कहेवाय ॥ म ॥ १०॥ न ॥ नारी दुःख में नोगव्यां, यसरण पणे अनंत ॥ म० ॥ सरणे पण कुधर्मने, रेष न आव्यो अंत ॥ म० ॥ ११॥ ॥ सरण कयुं जिन धर्मनु, सम्यक् जो श्रीकार ॥ म० ॥सुर नरनां सुख जोगव्यां, पाम्यो तो नवपार ॥ म० ॥१२॥ ज० ॥ शाश्वत शिव सुख पामगुं, श्री जिन धर्म पसाय ॥म० ॥ तुमने पण तेह ज हसे, सरण सदा सुखदाय ॥ म० ॥ १३ ॥ ज० ॥ सदु संसारी जीव ने, सरण नहीं को अन्य ॥ म०॥ जिन वयणे जे रत्तडा, धरणितलें ते धन्य ॥ म० ॥१४॥॥ पंचागुंमी चाहीने, उदयरत्न कहे एह ॥म० ॥ ढाल कही ढलते स्वरें, पण जे अनुनव गेह ॥ म० ॥ १५॥ न०॥ ॥दोहा॥ ॥ पूर्ण संवेगे पूरिख, नेत्रे धरतो नीर ॥ मौलि नृप तव कहे, मुनि ने मन धरी धीर ॥१॥ प्रलु तुमे प्रसन्न थई, केवल महारे काम ॥ क Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जए श्रीनुवननानु केवलीनो रास. था विस्तारी ए कही, उपकार लही अनिराम ॥ ॥ सखूजी संसारथी, पहोता पेले पार ॥ तो पण परने कारणे, उद्यम करो अपार ॥३॥ ॥ ढाल बनुमी ॥ ॥थ मलती चाकरी रे ॥ ए देशी ॥ कहो नगवन करुणा करी, केता नीसरे एके काल ॥ प्रनु प्रकासीएं रे॥ अविवहार निगोदथी, प्राणी पूडे श्म नूपाल ॥प्र० ॥ १ ॥ विवहार रासें थकी रे, जेता मुगतें जाए जीव ॥प्रण॥ कहे इम केवली रे॥सूक्ष्मनिगोदथी नीसरी रे, आवे तेटला सदीव ॥क ॥२॥ यतः॥ सिङत्ति जित्तियां खलु, हय ववहार रासिजीवा ॥ इति अणावणस्सइ, मजा न तत्तिया चेव ॥१॥ करवा नाल तणी परें रे, जाईने आवे म तेह ॥ क० ॥ मुगति न नराए कदा रे, नावे निगोद त जो पण नेह ॥क०॥३॥ यतः॥ जश्यावि होइ पुजा, जियाण म ग्गंमि उत्तरं तश्या ॥ ईकस्स निगोयस्त, अणंत नागोत्र सिदिग॥१॥ ॥ प्रवेढाल ॥ तव राजा कहे कहो प्रनु रे, निगोदथी निसरिया जीव जेह ॥कण॥ एटलेज चाले ते सवे रे, पामे मुगति सदा सुख गेह ॥क० ॥४॥ बदु जीव तो माहरी परें रे, सीफे ते जाणो तहकीक ॥क० ॥ थोडे का लें पण केटला रे, केताएक तेहथी नजीक ॥क ॥ ५॥ मरुदेवा मातानी परें रे, केता एक सीफे ततखेव ॥ क० ॥ अनव्य ते सीफे नहि कदा रे, न चाले मोन सामां जिम नेव ॥क०॥ ६॥ चंझमौलिनृप चाहिने रे, बो से त्यारे बे कर जोडी ॥ प्रनु मया करी रे॥ तारो नवसागर थकी रे, मुझने मोह तणो मद मोडि ॥ प्र० ॥ ७ ॥ संयम लेवो में सही रे, तुम पासें तजीने राज ॥ नणे इम नूपति रे ॥ मुनी कहे विलंब न कीजियें रे, साधतां पर नवनां काज ॥ न ॥ ॥ प्रेमें निज पाटें ठवी रे, नंदन चं श्वदन इणि नाम ॥ नमो ते साधुने रे ॥ सुविधगुं सयंम वरे रे, साथें लई केतिक वाम ॥ न ॥ ए॥ पुरजन ले संग केटला रे, केटलाएक ले मंत्री सामंत ॥ न० ॥ पंच महाव्रत उच्चरे रे, चंमौलि राजा गुणवंत ॥ न० ॥ १०॥ थोडे दिन सीखी घणी रे, विद्या चौद पूरव विस्तार ॥ न० ॥ यो ग्य लही वली केवली रे, यापे तव तेहने गन्न नार ॥न ॥ ११॥ चा लीस लाख पूर्व लगें रे, पाल्युं संयम कांईक न्यून ॥ न ॥ कोडि पूर्वनो याउखो रे, संघखं जाणो ते देसोन ॥ न० ॥ १२॥ उदयरतन कहे एट Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ले रे, पूरी नमी थई ढाल ॥न ॥ साचो श्री जिन धर्म में रे, बीचं जाणो थाल पंपाल ॥ न० ॥१३॥ ॥दोहा॥ ॥ यंते सैलेसकरण जे, करमांही करवाल ॥ मोह रिपु दलशेष लें, फोडे देई फाल ॥१॥ वेदनीने वली पाकरखो, नाम गोत निरधार ॥ नवो पनाही कर्म नट, चूरीने ए चार ॥२॥ चढी सोपाने चौदमे, अयोगि के वलि गुणगाण ॥ थन क ल कहितां लगें, तिहां की, रहिवाण ॥३॥ सं यम धर्मने नोगवि, उन्नति करी अतीव ॥ त्रिगुण रहित थईने तदा, बलि ऋषि केवति जीव ॥॥ पाम्यो परमानंद पद,शाश्वत मुक्ति सुठोर ॥ अजर अमर अविचल थयो, जिहां नहि यमर्नु जोर ॥ ५॥ स्नेह न को माता समो, घृत सम नहि रसघूट ॥ सुख न को शिवपदसमो, झुं कीजे वैकुंठ. ॥ ६॥ साकर समो न स्वाद को, मुक्ति समीन मोज ॥ संयम समो न सखाइन, चित्तमां धरजो चोज ॥ ७॥ सर्व गाथा ॥ १७॥५॥ ॥ढाल सत्ता'मी ॥ ॥ राग धन्याश्री॥ हवे कुमर ड्युं मन चिंतवे ॥ ए देशी ॥ धन्य धन्य श्री जिनधर्मने रे, पापीने रे जे करे पुनीत ॥ वढतां मोह दल वेरिशुं रे,जगमांहि रे जिणे लहियें जीत ॥ध० ॥१॥ जगमांहि जे जे जीवडा, तजी कर्मने रे ते नवने तीर ॥ पहोता पहोचे पहोचशे, ते तो जाणो रे जिन धर्म सुधीर ॥ध० ॥२॥ कनक जिम लोहने करे, सिह रसने रे अडतां तत खेव ॥ तिम दुःखीने सुखिया करे, फरसतां रे समकित स्वयमेव ॥ध ॥३॥ जिम बलि कुमर बहु नवतणा, नवमांहे रे जमतां बहु फेर ॥ स मकित सर| आदरी, मोहने शिर रे वाही समशेर ॥ध ॥ ४॥ तिम नवि जन जावें तमे, जिन धर्मने रे लई अवसर जोय ॥ एकमने बाराध जो, जिम जामण रे वली मरण न होय ॥ध० ॥ ५॥ मलधारी गल में मणो, श्री हेमचं रे सूरिना इंद ॥ ए चरित्रनी रचना तिणें, रची डे रे रम णिक सुख कंद ॥ध० ॥ ६॥ ते चरित्रनी लेई चातुरी, जल जला रे लेई तेहना नाव ॥रास रच्यो में अनिनवो, ए तो नवजल रे जाणे तारण नाव ॥५०॥ ॥ अधिकुं बुलु कयुं हूवे, मूल चरित्रथी रे जे एहमा तेह ॥ मिडा उक्कड मुज हजो, सहु संघनी रे साखें करी तेह ॥ध० ॥॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवननानुकेवलीनो रास. २८१ - कांई इहां, में कह्यो जे होय जबाप ॥ सुधा जन ते शोधजो, मुफ गुनहो रे वली करजो माफ ॥ ध० ॥ ए ॥ तपगड मंमण तिलकसो, श्रीराज विजय सूरिराज ॥ तरणि जिस्यो तस पाटवी, रत्नविजय रे सूरी शिर ताज ॥ ६० ॥ १०॥ गुरुराज राजसमाजनो, दीवो सेव्यो सदीव ॥ हीररतन सूरी जनुं, पूरे याश्या रे प्रतापे अतीव ॥ ६० ॥ ११ ॥ जयरत्न सूरी ज करु, संप्रती तेहने पाटें । नावरतन सूरी नेटतां, दुःख मेटे रे नमीयें ते माटें ॥ ० ॥ १२ ॥ श्री हीररत्न सूरिंदनो, सोहे वडेरो सीस ॥ लब्धिरत्न पंमित तेहनो, नमुं वाचक रे जेनी जंगमां जगीश ॥६०॥ १३ ॥ श्री मेघरत्न मुलिंनो, अमररत्न अनुचर तास ॥ शिवरत्न गुरु सुपसाउलें, में गायो रे बनिकष गुण खास ॥ ६० ॥ १४ ॥ सतरंसें नगण्योत्तर समे, वदि तेरस मंगलवार || पोष मास पूर्वापादने, हर्षण योगे रे थयो हर्ष पार ॥ ध० ॥ १५ ॥ गुणनिधि उनाडवा गाममां, जीडनंजन श्रीजिन पास ॥ तास प्र सादें पूरो थयो, रसलहरी रे नामें ए रास ॥ ध० ॥ १६ ॥ जे सांनले सुधे मनें, वली जे जो मनने नाव ॥ ते मुक्ति पामे मानवी, समता रसें रे सदु कर्म खपाव ॥ ६० ॥ १७ ॥ गगने ग्रह मंदर गिरी, धरा सिंधु जिहां लगें धर्म ॥ अविचल रहो ए त्यां लगें, एह संबंध रे दायक शिव शर्म ॥ ध० ॥ १८ ॥ याज सखी महारे खांगणे, सुरतरु फलिने सार ॥ कामगवी प्र गटी नवी, आज अभिनव रे थयो जय जय कार ॥६०॥१८॥ सुख श्रेणी मंगल मालिका, दीपालिका दिन जेम ॥ जुवन जानु केवलीतणा, गुल गातां रे लीला लहिएं तेम ॥ ६०॥ २० ॥ इम उन्नुमी ढालमां, उदयरत्न खाशीष ॥ सुख संपद वाधो सदा, सहु संघनी रे पहोचो सुजगीश ॥ ध० ॥ ११ ॥ इति श्री उदयरत्नजीमहाराजकृत जुवननानु केवलीनो रास संपूर्ण ॥ ग्रंथा ग्रंथ श्लोक संख्या २४१४ ॥ Parmes ३६ ७७ ॥ इति श्रीदयरत्नजीमहाराजकृत वनजानु केवलीनो रास संपूर्ण ॥ C Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८‍ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. अथ श्रीमंद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत समकितना पट्स्थान स्वरूपनी चोपाई अर्थसहित प्रारंभ ॥ प्रथम ग्रंथकर्त्तानुं मंगलाचरण ॥ नितं नत्वा वीरतत्त्वार्थदेशिनम् ॥ " सम्यक्त्वस्थानपट्कस्य, नाषेयं टिप्यते मया ॥ १२ ॥ ॥ मूलगाथा 11 ॥ वीतराग प्रणमी करी, समरी सरसति मात ॥ कहिनुं नविहित का रणे, समकितना व्यवदात ॥ १ ॥ अर्थ :- श्रीवीतराग देवने प्रणमी क री प्रजुनी वाणी जे श्रीसरस्वती माता तेने समरीने नव्यजीवना हितने कारणे समकितना अवदात एटले चरित्र कहीशुं ॥ १ ॥ ॥ दर्शन मोह विनाशयी, जे निरमल गुणगण ॥ ते समकित तस जायें, संखेपे खटाए ॥ २ ॥ अर्थः- दर्शनमोहनीयकर्मनो विनाश जे हय, उपराम ने हायोपशमरूप तेथी जे मलरहित एवं गुणनुं स्था क कप ते निश्वयथी समकित जाणियें. उक्तंच ॥ सेयसमत्तपसबे, सम्मत्त मोहलिकममा || वेयलोवसमखय, समुबेसु प्राय परिणामे || ॥ इति ॥ ते समकेतना संक्षेपेंकरी जे कहेशे ते षट्स्थानक जाणवां, जे स्वसमय श्रद्धान प्रकार ते स्थानक कहियें ॥ २ ॥ ॥ हवे ते षट्स्थानकनां नामनी गाथा कहे बे. विजिन तह णिच्चो, कत्ता जुत्ता य पुस्पावा | बिधुव निवा णं, तस्सोवा बहाणा ॥ ३ ॥ अर्थः- एक जीव बे, बीजो ते जीव नित्य बे, त्रीजो तथा चोथो ते जीव स्वयं पुष्यनो कर्त्ता, जोक्ता बे, खने पा पनो कर्त्ता, जोक्ता पण बे, पांचमो ते जीवने निर्वाण एटले मोक्ष पण (ध्रुव के० ) निश्चें ( के० ) बे, बो ते मोह थवानो उपाय पण निश्चय मां संदेह नथी. ए व स्थानक समकेतनां जावां ॥ ३ ॥ ॥ समकित थानकथी विपरीत, मिथ्यावादी यति यविनीत व सवे जूजूवा ॥ जिहां जोइयें तिहां जंमा कूवा ॥ ४ ॥ ॥ तेहना जा अर्थः- ए स Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदस्थान स्वरूपनी चोपाई. २०३ मकेतनां षट्स्थानकथी जे विपरीत बोल ते मिथ्यात्वनां न स्थानक जा वा॥ नक्तं च ॥संमती॥णबिणाणेपिच्चो, ग कुणकयंवेएईगलि ॥ णि वाणं गलिय मोरको वा मित्तणाई ॥१॥ ए थानकें वर्त्ततो मिथ्यावा दी होय. ते गाढ मिथ्यात्व परिणामी घणो अविनीत होय, ते मिथ्यात्वी नां वचन ते मांदोमांहे आपाप हो जोश्य तो कोश्नां मले नही. ते सर्व उंमा कूवा सरखा ॥ ४॥ ॥ पहेलो नास्तिक नाखें शून्य, जीव शरीरथकी नहि निन्न ॥ मद्य अंग थी मदिरा जेम, पंचनूतथी चेतन तेम.॥ ५ ॥ अर्थः-हवे प्रथम स्था नवादी पहेलो नास्तिक चार्वाक ते (शून्य के०) तत्वज्ञाने करी शून्य कोण मुक्तिनो कहेनार (जाखे के०) बोले . ते नास्तिक कहे जे के जीव जे डे ते शरीर थकी निन्न एटले जूदो नथी, अने चेतनपणुं जे होय ते पंच नूतना संयोगथीज थाय . जेम मद्यनों अंग जे गुड, शद, इदुरस, धा वडीपुष्प प्रमुख ने तेथी मदिरा नीपजे , तेम जाणवू ॥ ५ ॥ ॥माखणथी घृत तिलको तेल, अगनि अरणिथी तरुथी वेल ॥ जिम प डियारथकी तरवार, अलगो तो दाखो इणिवार ॥ ६॥ अर्थः-जो जीव शरीरथकी निन्न होय तो माखणथी जेम घृत, तिलथी जेम तेल, अरणी थी जेम अमि, वृक्थी जेम वेल, तथा पडियारथकी जेम तरवार अलगी करी देखाडीये तेम जीवने शरीरथकी निन्न करीने या बेलायें देखाडवो जोयें. ते शरीरथकी निन्न करीने को देखाडतो नथी. तेमाटे जीव जे डे ते शरीरथकी निन्न नथी ॥ ६ ॥ ॥ जिम जलथी पंपोटा थाय, कफणतां तेहमांहे समाय ॥ थूनादिक जिम दिति परिणाम, तिम चेतन तनुगुणविश्राम ॥ ७ ॥ अर्थः-जे म पाणीथी पंपोटा थाय ने, अने ते पंपोटा नफणीने वली पाणीमांहेज समाय . तथा शून प्रमुख ते जेम (दिति के०) पृथ्वी तेहनो परिणा म एटले पृथ्वीमाहेथी उपजीने पृथ्वीमांहेज लीन थाय , तेम चेत ना जे ने ते (तनु के० ) जे शरीर तेना गुणनो विश्राम , एटले शरीर थकी उपजीने वली शरीरमांहेज लय पामे जे. ए उत्पत्तिपद अने बीजो अभिव्यक्तिपदले.तेमतें कायाकार परिणामें चेतनानी अभिव्यक्ति होय ७ ॥ नहिं परलोक न पुष्य न पाप,पाम्युं ते सुख विलसो आप ॥ सकपदनी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. परें नय दाखवे, कपटी तप जपनी मति नवे ॥ ॥ अर्थः-ए चार्वा कने मते परलोक नथी, पुण्य नथी, पाप नथी, ते एम कहे , के जे पा म्युं सुख ले ते पोतें विलसो. जे माटें वर्तमान सुखने मूकीने अनागत सु खनी वांडा करवी ते खोटी , सुखनोगमा जे तकपदनी पेरें नरका दिकनो जय देखाडे जे, तेतो माता जेम पोताना बालकने हाक देखाडे , तेम लोकने नोलवीने ते कपटी पोतें जोगथी चूका, अने बीजाने चूकावे बे,अने तप जप कहेता राख्यानी मति एटले बुद्धि तवे एटले थाफे जे ॥७॥ ॥एहवा पापी नाखे बाल, बांधे करमतयां बद्ध जाल ॥ आतमसत्ता तेहने हवे, जुगति करी सशुरु दाखवे ॥॥॥ अर्थः-चार्वाक एहवी जु ती युक्ति बोले तेथी ते कर्मनी घणां जाल बांधे डे, माटे सशुरु तेने यु क्तियें करीने यात्मसत्ता ने एवं देखाडे २ ॥ ए॥ ॥ज्ञानादिक गुण अनुनवसिर,तेहनो आश्रय जीव प्रसिद॥पंचनूत गुण तेहने कहो, यि ग्राह्य न किम सहहो ॥ १०॥ अर्थ:-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य प्रमुख गुण जे अनुजवसिम अनुमानप्रत्यदें प्रसिद , ते गुणनो जे वाधार ते जीवश्व्य बे, ते अनुमानप्रमाणे आवे. ते अनु मानप्रमाण जे न माने ते परना मननो संदेह केम जाणे? अने तेवारें ते परने उपदेश पण केम द शके? अने जो तेहने झानादिक गुणने पंच नूतनो संयोगज गुण कहो, तो इंख्यि ग्राह्य केम न मानो? नूतगुण जे काठिन्य शीतत्वादिक ते इंडियग्राह्य ने चेतना इंशियग्राह्य नथी. तेमाटे ते श्रात्मानो गुण जाणवो ॥ १० ॥ ॥तनु बेदे नवि ते वेदाय, तनुस नवि वधता थाय ॥ उपादान झाना दिकतणो, तेहथी जीव अलाधो घणो ॥ ११॥ अर्थः-शरीर बेदे , अ ने चेतनना गुण बेदाता नथी. तथा ते शरीरनी वृदिये वधता पण थाता नथी. तेमाटें ज्ञानादिक गुणर्नु उपादान ते यात्मा दे, तेने शरीरथकी थ लाधो मानो. जेमाटें उपादाननी हानि वृद्धियेंज उपादेयनी हानि वृद्धि थाय. जेम माटीनी हानी वृदिये घटनी हानि वृद्धि थाय . तेम इहां जा एवं. यद्यपि प्रदेशथी हानिधि यात्माने नथी तथा पर्यायनी हानिधि ज्ञानप्रत्ये एकेडियाद्यात्मपणे उपादानता सामान्यथी चैतन्यगुणप्रत्ये या त्मपणे उपादानता मानवी जोयें, नही तो लोकव्यवहार न मले॥११॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ॥प्रज्ञादिक थिति सरिखी नहीं,युगलजाति नरने पण सही ॥ तो किम ते कायापरिणाम, जुन तेहमां पातमराम ॥ १२॥ अर्थ:-प्रशादिक स्थिति एक वीर्योत्पन्न युगल मनुष्यनी पण नथी. कोश्क अंतर तेहमां पण . तो ते उतनी कायानो परिणाम केम कहेवाय? एक माता पितायें नी पाया ले तेमां यात्माराम जूदो. तेणेंकरीज प्रशादिकनोजेद संनवे ॥१२॥ ॥रूपीपण नवि दीसे वात,लदाणथी लहियें अवदात ॥ तो किम दीशे जीव थरूप, तेतो केवल ज्ञान सरूप ॥ १३ ॥ अर्थः-हवे जे पूर्व कर्दा डे के जीव जो शरीरथी निन्न होय तो आत्मा अलाधो करी देखाडो? तेनो उत्तर कहे . ( वात के० ) वायरो जे जे ते पुजल डे माटें रूपी बे; तोपण दीसतो नथी. पण तेना अवदात एटलें प्रकटलक्षण कंप, ति, श ब्दादिक लिगें करी लहियें बैयें. तिहां लतादिकनो कंप, अर्कतूलादिकने श्राकारों धृति, ऊंछादिकनो शब्द जेहने अनिघातें तथा संयोगें होय ते वायुव्य डे, एम अनुमान प्रमाणे जाणिये बैयें. तो अरूपी जीव तेतो केवलज्ञानस्वरूप दे, ज्ञान मने प्रत्यक्ष , ते लिंगे जाणवू. तेनो धाश्रय जे आत्मा तेनुं अनुमान करियें. यद्यपि झानगुण प्रत्यद डे माटे या त्मा पण तदंशे प्रत्यद डे " गुणपञ्चरकतणन, गुणिवी जीवो घडोच्च पञ्च रको” इत्यादि विशेषावश्यकवचनात् ॥वायुपनीति सुरनिव्यपणेज गंधारों ए प्रत्यदज जे. तथापि वादि विप्रतिपत्ति अनुमान करिये. नक्तंच॥ शतशःप्रत्य परिकलितमप्यर्थमनुमिमीषन्त्यनुमानरसिकाः॥अथवा झानाश्रय प्रत्यदज डे तेहने, तत्त्वनिन्नता, अनुमान करिये बैयें ॥१३॥ बालकने स्तनपान प्रवृत्ति, पूरवनव वासना निमित्ति ॥ ए जाणो पर लोक प्रमाण, कुणजाणे अणदीतुं गण ॥ १४ ॥ अर्थः-हवे बालकने दृष्टांतें परलोकनुं प्रमाण कहे डे, वालकने जे स्तनपानप्रवृत्ति बे, ते श्ट साधनतास्मरणहेतुक डे. ते स्मरण अनुनवथी थाय ते स्मरण या न वें नथी, तो परजवनुंज स्मरण यावे, तजनित वासनायें या नवें स्मरण थाय. ए परलोकनु प्रमाण जाणो. नहीं कां अणदीतुं स्थानक कोना जा वामां थावे ? माटे जो पूर्वं दीतुं , तोज ते स्मरणमां थावे जे. एमज मरण त्रासें पण पूर्वनवना मरणानुनवने अनुनवे नहींकां अणदीमाथी Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. त्रास कम होय ? जातमात्रे तो मरण दीतुं नथी, अने त्रास तो पामे डे. तेथी जाणिये जे परलोक डे ॥ १४ ॥ ॥एक सुखिया एक उखिया होय, पुण्य पाप विलसित ते जोय ॥ कर म चेतनानो ए नाव, उपलादिकपा ए न स्वनाव ॥ १५॥ अर्थः-स रखेज बाह्य कारणे एक सुखिया अने एक मुखिया जे होय जे ते पुण्य थने पापनो विलास जोजो. नक्तंच ॥ जोतु च साहणाणं, फले विसेसो ए सोविणा हेक ॥ जऊत्तणन गोयम, घडोवंहेक य से कम्मं ॥ १ ॥ इहां कोइ एम कहेशे के एक पाषाण तो. पूजाय ,अने एक पाषाण रफले , तेम ए पण स्वनावें दशे तेने उत्तर कहेवू के, पाषाणादिकने पूजा अने निंदाथी सुख दुःख वेदन नथी, अने जीवने ते सुख सुख वेदन दे, तो ए नोग चेतनानो करेलो नाव . दृष्टान्वयव्यतिरेक स्वनावें निराकरियें तो दमादिकने घटादिक प्रत्ये पण कारणता केम कहिये ? ॥ १५ ॥ ॥ निःफल नहीं महाजन यत्न, कोडीकाज कुण वेचे रत्न ॥ कष्टसहे ते धरमारथी, मानो मुनिजन परमारथी ॥१६॥ अर्थः-महाजन जे पुण्या थै तप जप क्रियारूप प्रयत्न करे जे ते निःफल नथी. निःफलकार्ये बुद्धिवंत प्रवर्ते नहीं जो एम कहेशो के लोकरंजननेअर्थे ते प्रवर्ते , तो कोडीने काजें रत्न कोण वेंचे? शहां लोकरंजन ते कोडी दे तो तेने अर्थे महाप्र याससाध्यक्रिया तप रत्न वेंचर्बु एवं फोकट फुःख जोगवq तो, कोई वांडे नही. अने सर्वजन नूले पण नहीं तेमाटे महाजन प्रवृत्ति जे जे ते पुण्य पाप नथी. आत्मा अर्थे . ए सर्व मानवं. उक्तंच॥ विफला वित्प्रवृत्तिों, नबैकफलापि च ॥ दृष्टलानफला नापि, विप्रलंनोपि नेदृशः॥१॥इति॥१६॥ ॥आतमसत्ता श्म सदहो, नास्तिकवादें मन मत दहो ॥ नित्य पातमा हवे वर्णवू, खंमी बौछतणुं मत नवु ॥ १७ ॥ इति नास्तिकवादी गतः ॥ अर्थः-एम ए प्रकारें आत्मानी सत्ता सदहो; पण नास्तिकवादें पोताना मनने दहन करशो नही. एटले नास्तिकवादि चार्वाक मत निरास थयो. हवे जुसूत्रनयमांहेथी बौछमत निकल्यु,माटे नवु एबुंजे बोचनुं मत तेनुं खंकन करीने नित्य आत्मा एवं समकेतनुं बीजुं स्थानक वर्णवं बु॥ १७॥ ॥ तेह कहे ण संततिरूप,ज्ञान यातमा अतिही अनूप ॥ नित्य होय तो वाधे नेह, बंधन कर्मतणो नहीं बेह ॥ १७ ॥ अर्थः-ते बौछ एम Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्रस्थान स्वरूपनी चोपाई. कहे जे के, जे अतिही अनुपम मनोहर क्षण संततिरूप जे ज्ञान तेहज था स्मा डे. तथाच तन्मतम् ॥ प्रवृत्तिविज्ञानोपादानमालयविज्ञानमेवात्मा ॥ प्रवृत्तिविज्ञान जे नीलाद्याकार ते उपादेय अने तेनो थहमाकार उपादान ते बालय विज्ञानरूप ने उपादान उपादेय नाव , पण परमार्थे ज्ञान कणे . परं एक नित्य आत्मा को नहीं. माटे जे एक नित्य था स्मा माने , तेने मोद वेगलो . जे कारणमाटे जेवारें नित्य आत्मा माने तेचारें आत्मा कपर स्नेह होय. ते स्नेहथकी सुखनो राग अने ः खनो ष थाय, तेथी तेना साधननों राग शेष थाय, एम करतां राग शेष वासनाद्वारा निरंतर वधे तेवारें कर्मबंधनो अंत आवे नही. तेमाटे या त्मा दणिकज मानवो ॥१७॥ ॥सर्वनाव णनाशी सर्ग, आदिवंत जो एक निसर्ग॥दणिकवास ना दिये वैराग, सुगतान नाषे वडनागं ॥ १॥ अर्थः-तथा सर्व जे (नाव के०) पदार्थ ते णनाशी जे. तो आत्मानुं हुं कहेवू ? तिहां ए प्रमाण आपे डे के, जे अनादि अने अंत जो एक (निसर्ग के०) स्वनाव मानियें तो दानाशिपणुंज थावे, स्थिति नाश स्वनाव मानियें तो आदि दणे पण तेहज स्वभाव मानवो तेवार हितीय दणे नाश थयो अंत ना श स्वनाव न मानीयें तो क्यारे नाश न थाय. तावत्काल स्थायी स्वनाव मानीयें तो फरी तेटला कालपर्यंत रेहवो जोश्य एम तावत्काल स्थायीना स्वनावनी अनुवृत्ते कल्पांतस्थायिता होय क्षणिकथात्मज्ञानीयें वासना ते वैराग्य आपे. एम जेवारे यात्माज दणिक जाण्यो. तेवारें कोनी ऊपर राग होय ? सर्व क्षणिक अनित्य वस्तु जाणिये, तेवारें गमे अल्पें नाग्य फुटयुं ऐक नावे ॥ अनित्यतारुतमतिर्लानमालोनोंति नित्यताकत बु विशुनसामपि शोचतीतिवचनात् ॥ एम महानाग्यवंत (सुगत के० ) बौछ ते ज्ञान नाखे ॥ १५ ॥ ॥रागादिक वासना अपार, वासित चित्त कह्यो संसार ॥ चित्तधारा रा गादिक दीन, मोद कहे ज्ञानी परवीन ॥ २०॥ अर्थः-चित्तमेव दिसं सारो, रागादिक्केशवासितः ॥ तदेव तैर्विनिर्मुक्तं, नवांतरेति कथ्यते ॥ १ ॥ धर्मकीर्तिनिरूपपप्लवाचित्तसंततिः परमार्थ इति मोदलक्षणम् ॥ २० ॥ ॥एह बौनु मत विपरीत,बंध मोदन घटे कण चित्त ॥मानो अनु Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ QGG जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. गत जो वासना, इव्यनित्य तेहज गुनमना ॥ २१ ॥ अर्थः- एहं बौनुं मतं विपरीत एटले मिथ्याज्ञान रूप बे. जेमाटे ( कुलचित्त के० ) कुणज्ञानरूप आत्मा मानीयें तो बंधमोह न घटे. जे बंध कह्यो ते मोण जे बंध नहीं बने जो एम कदेशो के वासना एक बे, तो मन न करी विचारो पूर्वापर ज्ञानऋण अनुगत जे एक वासना कहो बो, तेहज स्वभाव नियत यात्मव्य बे, घने जो कहेशो के वासना बुद्धिमात्र कल्पित बे, पण परमार्थे नथी, तो परमार्थ पर्यायनो एक प्राधार ते कोण ? ज्ञानने नानाकार योगें तत्त्वनो विरोध नथी, तो इव्यने नानादणयो गित्वनो श्यो विरोध ? पर्याय बता अनुनवियें ढैयें तेम इव्यपण तुं अनुनवियें बैयें. निर्विकल्पबुद्धि तो विकल्पथी प्रमाण बे ॥ यत्रैवयनेये देशं तत्रैवास्यांप्रमाणते तिवचनात् ॥ श्रने निर्विकल्पबु ६ धुत्तर विकल्पबुद्धि तो इव्य . पर्याय बे नासे बे, माटे वे ज्ञानांदि पर्याय सत्य बे, तो तदाधार यात्म, व्य पहेलां सत्य करी मानतुं ॥ २१ ॥ ॥ सरखा दणनो जे खारंन, तेह वासना महोटो दंन ॥ बंधमोक्षण सरखा नहीं, शकति एक नवि जाये कही ॥ २२ ॥ अर्थः- सदृशक्षण नो जे खरंच तेहज वासना बे, एम कहेतुं ए महोटुं कपट बे, जेमाटे बंध मो ना ऋण सरखा नथी. तो जे बंधाय ते मूकाय एम कयुं जाय नही. तेवारें मोहने यर्थे कोण प्रवर्त्ते ? वली कदेशो के, बंधजने तो शक्तिवंत जूदा बे, घने मोजने नशक्तिवंत कल जूदा बे. बंध जे ते एकत्वाधिवासित मोहजनक दलसंपादनार्थ य विसाइज प्रवर्त्ते बे. मोक्षप्रवर्त्तक व्यविद्याविवर्त्त संसारमूला विद्यानाशक बे ॥ हर ति कंटक एव हि कंटक मिति न्यायात् ॥ नो देव दत्त यज्ञदत्ताप्तमोक्षणजननार्थे केम न प्रवर्त्ते ? बंधमोदजनक एक शक्तिनो ते न कही जाय, एमतो आत्मव्य सिद्ध थाय. . कुर्वडूपप्रपंचजाति Hai सांकर्य था. कारणने कार्यव्याप्यता बे. तेमाटे एकदा उजयऋण थया जोइयें. एकेक क्षणनें निन्नशक्तिमांहे घाततां निर्धारण थाय. तेमाटें ए सर्वशर्के कल्पना जूती जाणवी ॥ २२ ॥ ॥ उपादान अनुपादानता, जो नवि निन्नकरे का बता | पूर्व अपर प र्यायें नेद, तो नवि इव्य लहे त्यजी खेद ॥ २३ ॥ अर्थः- बीजुं एक कालें पण अनेक कारखाना दण बे. तिहां उपादान निमित्तपण जो कुण Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. नए नो नेद नथी तो पूर्व अपर पर्यायने नेदें इव्य भेद न पामे. माटे मताय हनो खेद जमीने इव्य एक बादरो ॥ २३ ॥ ॥जो एनाशतणो तुम धंध, तो हिंसाथी कुणने बंध॥विसदृश कृष्णन जेह निमित्त, हिंसक तो तुज मन अपवित्त ॥ २४ ॥ अर्थः-वली क्षण नाशी वस्तु माने जे तिहां दोष कहे जे. जो दानाशनो धंध तुजने लागो बे,तो हिंसाथी बंध कोने थाय,जेमाटे जीव तो होंदणे नाश पामे , तो हिंसापण कोनी केहथी थाय ? तेवारें हिंसाथी जे पापबंध कहो बो ते पण कहो केम मले ? हिंसाविना अहिंसा पण क्याथी होय? ते अहिंसाने विनाशे तहारे व्रतपण क्याथी होय ? जेमाटे व्रतपण अहिंसानी वाडिरू प कह्यांबे. एम सर्व वातोनो लोप थाय. जो एम कहेशो के, मृगने माखो तेवारें मृगनो सदृशक्षणारंन टल्यो, विसदृशक्षणारंन थयो, तेहेनुं निमित्त कारण आहेडीप्रमुख ते हिंसक कहियें. एवीरीतें बोलनारा ते बौने क हेवू के, एमतो तहारुं मनपण हिंसायें अपवित्र थयु. जेमाटे व्याधिरणनी परें ताहारो पण अनंतरहण मृगविसदृश हणनो हेतु थयो । तऽदितः स हि यो यदनंतरः इति न्यायात् ॥ दणना अन्वयव्यतिरेक तो सरखा . तजाति अन्वयव्यतिरेकनुं ग्राहक प्रमाण नथी ॥ २४ ॥ ॥ समलचित्त कण हिंसा यदा, काययोगकारय नहिं तदा ॥ अनुमंता ने हंता एक, तुमविण कुण नाखे सविवेक ॥ २५॥ अर्थः-जो कहेशो के, अमे असचित्तकृत कर्मवैकल्प वानी खूटे तेमाटे मृगमारणाध्यवसायवंत व्याध चित्तसमल बे, ते क्षणने हिंसा कहियें बैयें. तो एक काययोगें ह णे बने एक तेने प्रशंसे, ए बेदुमां फेर नथीज. तो मोद कहेतां योगनेदें प्रायश्चित्तनेद कह्यो २ ते न घटे. जेमाटे निमित्तनेद विना नमस्कार नेद होय तो सर्वावस्था लोप थाय ॥ २५ ॥ ॥खलपिमीने माणस जाणि, पंचे तेहने गुगनी हाणि ॥ नर ने खल जाणे नवि दोष, कहियो बुधने तेहथी पोष ॥२६॥ अर्थः-मनःपरिणाम पणे झायोगेंज प्रमाण . तमें एम कहो नगे जो खलपिमीने माणस जाणीने पंचे तेने घणी हाणी होय,जेमाटे नरने खलपिंमी जाणवाथी तेने मनुष्य हणवानो नाव थयो. जो कहेशो के नरने खलपिमी जाणे थके कोई दोष नथी. कारण के तिहां मनुष्यने हणवानो अध्यवसाय नथी पिं Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मपरिणाम शुरु ने तेणेंकरी बुझ्ने पार' करावीयें, पोषीयें, तो सूजे ॥ उ तंच ॥ पुरिसं च विडूणकुमारगं वा, सूलंमि केई पम जाय तेए ॥ पिन्नाग पिंमस इमारुहिता, बुदाण ते कप्पर मारणाए ॥ २६ ॥ ॥ संघनगति अजमांसें करो, दोष नहीं तिहां इम उच्चरो॥ ए महोटुं बे तुम अज्ञान, जोजो बीजुं अंग प्रधान ॥ १७ ॥ अर्थः-तथा बोक डाने मांसें संघनक्ति करो डो, अने तेमां कांइ दोष नथी एम मुखें उच्चारो बो, ए महोटुं तमारं अज्ञान . ते विचारी जोजो ॥ नक्तंच श्रीसूयगडांगसू त्रे, यतः ॥ चूव्हरप्रश्हमारियाणं, दिनत्तं च पकप्परता॥ तलोणतने ण नवरकमित्ता, सविप्पजा पहर्ति मंसंतं नुंजमाणा मिसिथं पनूयणं, नवलिप्पा मुवयंरएण॥श्वेवमासुथराजधम्मा, अणायरिया याव रसे सु गिमा ॥ इत्यादि ॥ एम तमारे मतेंतो माताने स्त्री करी सेवतां पण दोषन लागो जोश्य. मंमलतंत्रवादी तो अगम्यागमनें पण दोष नथी केहेता. ए सर्व ज्ञान व्यवहारलोपक मिथ्यात्व ॥ ॥ ॥ हणिये जे परयाय अशेष, फुःख कपाश्बु ने संक्वेश ॥ एह त्रिविध हिं सा जिन कथी, परशासने न घटे मूलथी ॥ २॥ अर्थः-जिन श्रीवी तराग देवें कहेली हिंसा त्रए प्रकारें बे, तेमां एक तो जे मृगादि पर्याय ध्वंस करिये ते, तथा बीजी ते जीवोने कुःख नपजावq ते, त्रीजी पोता ना मनमांहे संक्वेश एटले मारवानो नाव धारण करवो, एत्रण प्रकारनी जे हिंसा ते जे एकांत नित्य अने एकांत अनित्य आत्माने माने बे, एवा जे परशासनी तेने मूलथी न घटे. जेमाटे मृग मरीने मृगज थयो. तिहां वि सदृश णनो पारंन क्या ? संतानैक्यनी अपेक्षायें व्यक्तिवैसदृश्य कहे तां तो इव्यैक्यज यावे. इत्यादि विचार ॥ २ ॥ ॥ निश्चयथी साधे हणनंग, तो न रहे व्यवहारें रंग ॥ नव सांधे ने बेटे तेर, ऐसी बौछतणी नव मेर ॥ श्ए ॥ अर्थः-निश्चय जे जुसूत्रनयने लश्ने कृष्ण साधे बते व्यवहार जे बंधमोक्षप्रत्यनिदानप्रमुख तेणें रंग रहे नही. एम बौछनी मर्यादामांहे 'नव सांधे ने तेर त्रूटे' ए उखाणो साचवे . अने निश्चय व्यवहार उजय सत्य ते स्याहादीज साधी शके ॥२॥ ॥ नित्यपणाथी नहिं ध्रुव राग, समनावें तेहनो नवि लाग॥ नित्यपणे फलहेतु संबंध, नहिं तो चाले अंधो अंध ॥ ३० ॥ अर्थः- बारमाने Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. शप नित्य मानीये तेमाटे ध्रुव निश्चय राग नथी. जेमाटे रागशेष ते मनःसं कल्परूप बे. आत्मा झानी निर्विकल्पस्वनाव समतानावमांहे आवे तेवारें राग वासनानो लाग नथी. साम्य संस्कार ते राग संस्कार विरोधी .आ त्माने नित्यपणुं माने तो, फल मोद अने हेय आत्मज्ञान चारित्रप्रमुख ते नो एक इव्यसंबंध संनवे नही. तो बंध मोद क्षणना संबंधविना सर्व प्र वृत्ति अंधपरंपरा थाय ॥३०॥ ॥रयणतणीपरें थाये विगुरू, नित्य यातमा केवल बुझ॥रागविना न वि प्रथम प्रवृत्ति, तो किम उत्तर होय निवृत्ति ॥३१॥ अर्थः-नित्य आत्मा मानिये तेवारेंज प्रथम अगुम हतो ते केवलज्ञानें विशुदि थइने गुरु था य. जेम रत्न पहेला अशुभ होय. ते उपायथी आत्मा नित्य ले तेकपर रा ग होय तोज धनार्थीने उःखदयंनेयर्थे पहेला प्रवृत्ति होय, अने ते न हो य तो निवृत्ति पण पनी क्याथी होय ? ॥ ३१ ॥ ॥बांमीजें नवबीज अनंत, झान अनंत लहीजें तंत ॥ पण नविडो यधिको नाव, नित्य पातमा मुक्तस्वनाव ॥३२॥ अर्थः-नित्य आत्मा मानियें तोज आविर्भाव तिरोनाव रूपें सर्व पर्याय मले; ते कहे . नव जे संसार तेनां बीज रागशेषादिक अनंत बे. तेने गंमिये बैयें. ततः परमार्थ झान पर्याय अनंत लहियें बैयें. पण यात्मानो जाव एकशे नबो अधि को नथी. अनंतधर्मात्मकस्वरूप आविर्भावमात्रज नित्य सत्य मुक्तात्मक ले. ॥ उक्तं च सिइसेनाचार्यैः॥ नवबीजमनंतमुज्जितं, विमलझानमनंतमर्जितं ॥ नचहीन कलोसि नाधिकःसमतांचाप्यतिवृत्य वर्तसे ॥३॥ए दृष्टांतें कहेडे. ॥ घनविगमें जिम सूरज चंद, दोष टले मुनिहोय अमंद ॥ मुगतिदशा थिरदर्शन घटे, ते मेली कुण नावें अटे ॥ ३३ ॥ अनित्यवादी गतः ॥ ___ अर्थः-ए दृष्टांतें कहे (घन के० ) मेघ तेने ( विगमें के०) नारों जेम सूर्य चंद (अमंद के०) गुरु थाय, तेम दोष जे रागषादिक ते टले थके मुनि पण अमंद एटले शुक्रबुद्धि मुक्त स्वनाव थाय. एणीपरें थिरवा दीने दर्शनें मुक्तिदशा घटे ते मले अनित्यवादी बौछन मत थादरीने कोण संसारमांहे (अटे के०) नमे, अर्थात् कोश्पण बुद्धिवंत जमे नहीं ॥३२॥ ॥ नित्य पातमा मानो एम, योगमार्गमां पामो खेम ॥ करता नोक्ता जा हवे, ते न रुचे जे जूतुं लवे ॥ ३४ ॥ अर्थः-एवीरीते आत्मा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IUI जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. नित्य बे एम मानो, ने योगमार्गमां देम पामो ए नित्य श्रात्मा नामें बीजुं स्थानक पुरुं ययुं ॥ २ ॥ हवे आत्मा कर्त्ता ने आत्मा नोक्तानां स्थानक नांखुं बुं. जे मतवादियो जूटुं लवे बे, बोले बे, ते मुजने रुचता नथी. ॥ एक वेदांती बीजो सांख्य, कहे कर्ता जोक्ता नहिं मुख्य ॥ प्रथम कहे दृग् मात्र प्रमाण, नास उपाधिभेद मंमाण ॥ ३५ ॥ अर्थः- हवे एक वे दांती ने बीजो सांख्य ए बे वादी कहे वे के, आत्मा कर्त्ता जोक्ता न थी. तेमांहे प्रथम वादी वेदांती कहे बे, जे दृगुमात्र ज्ञानमात्र प्रमाण बे, सर्व वादी ज्ञान माने बे, जल पृथ्वी ते एक ले, अनादि अनंत बे, नेदा दि प्रतिनास चित्तोपाधि विषयक बे, ते ज्ञाननी उपाधि विश्वनेदनु मंमा बे, श्रात्माध्यासरूप सर्व प्रपंच बे ॥ ३५ ॥ ॥ मायादिक मिश्रित उपचार, ज्ञान अज्ञान ग्रंथी संसार ॥ दृश्यपणें मि य्या परपंच, सघलो जिम सुहगानो संच ॥ ३६ ॥ अर्थः- ( माया के० ) ज्ञान 'अहं मां नजानामि' इत्यादि प्रसिद्ध सर्व प्रपंच मूलकारण अ नादाव ते प्रमुख री मिश्रित जे उपचार ते ज्ञान यज्ञाननी गांठरूप संसार बे, अज्ञानाध्यस्तने विषे शरीराध्यस्तने विषे, इंडियाध्यस्त इत्यादि न पचार ग्रंथी जाणवी, सर्व प्रपंच दृश्यपणा माटे मिथ्या बे, जेम सुहणा नो संच स्वप्नमोदकादिक कहेवाय तेम बे ॥ ३६ ॥ || जिम कटकादिविकारें हेम, सत्य ब्रह्म जगजालें तेम || जे परिणामी तेह संत, परिणाम मत कहे वेदंत ॥ ३७ ॥ अर्थः- जेम कटक के यूर प्रमुख सुवर्णना विकार बे, ते जुग ते कार्य पणे बे जेहना एवं हेम बे, ते जगजालरूप विकार जूठा बे, ते मध्ये य विकारी ब्रह्म सत्य बे. जे परिणामी ते सत्, जे अपरिणामी ते सत्, एम वेदांत कहे बे ॥ कालव त्यनावप्रतियोगित्वमसत्यत्वं तन्नित्वं सत्यत्वं ॥ नक्तंच ॥ श्रादावंतेचयन्ना स्ति मध्ये पिचितत्तथा ॥ वितयैः सदृशाः संतो वितथा श्व लक्षिताः ॥ ३७ ॥ ॥ जिम तातादिकता कह्या, श्रुतिसुषुयतें बुद्ध सह्या ॥ तिमज्ञा तुं ब्रह्म, यहिज्ञानें नासे हिर्दम ॥ ३८ ॥ यर्थः-जेम तात प्रमुख बता कह्या, त्र ' पिता अपिता भवति, माता माता भवति, ब्राह्मणो ब्राह्मणो नवति, चूणहा खचूणहा नवति' इत्यादि श्रुतें वेदां त पंमितें सह्या. तेम यात्मज्ञानं ब्रह्मां यतुं थाय. जेम यहिज्ञानें Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ए३ अहिदंम नाशे, तेमज आत्मझानें यात्मज्ञानजनित प्रपंच नाशे, गुक्तिज्ञा ननाश्य लाघवथी शक्ति रजत ॥पण ते ज्ञान नहीं. तेम यात्मज्ञानना नाशे पण प्रपंच जाणवो ॥ ३ ॥ ॥अधिष्ठान जे नवन्रमत', तेहज ब्रह्म हुँ साचुं गणुं॥ तेहने नहीं करमनो लेप,होय तो न टले करतां खेप ॥ ३५॥ अर्थः-प्रपंचत्रांति ते हनुं अनुष्ठान जे ब्रह्म तेहज ढुं साचुं गणुं बु. जेम रजतनमाधिष्ठान शुक्ति अहिनमाधिष्ठान रकुप्रतें ब्रह्मप्रपंचने सादृश्य नथी तो चम केम होय ? एवी शंका न करवी जेमाटे कोइ तमंसादृश्य नीरपण होय . ननोनील मितिवत्. ते ब्रह्मपरमार्थसत्यनें कर्मनो लेप नथी. जो चेतनने कर्मनो ले प होय तो घणुये नद्यम करतां टले नहीं ॥ ३ ॥ ॥जे अनादि अज्ञान संयोग, तेहनो कहियें न होय वियोग'॥ नाव अ नादि अनंतज दिछ, चेतन परें विपरीत थनिह॥ ४० ॥ अर्थः-जेमा टे (अझान के०) ज्ञानावरणकर्म तेहनो अनादि संयोग जीवने मानो तो कहियें क्यारें वियोग नथी तथा नाव अनादि होय ते अनंतज होय जेम चेतननाव विपरीत अनिष्ट ले. अनादिसांत नाव प्रमाणसिहज न थी. तेमाटे कर्मसंयोग जीवने अनादि नथी, सदा कर्ममुक्तज ब्रह्म . नित्य मुक्तने अविद्यायेंज बंध जणाय बे.ते पागली गाथायें दृष्टांतें दृढावे ॥३०॥ ॥ काच घरें जेम नूंके श्वान, पडे सिंह जलबिंब निदान ॥ जिम कोलि क जालें गुंथाय, अज्ञाने निजबंध न थाय ॥४१॥ अर्थः-जेम काचना घरमा प्रतिबिंबने अपर बीजो श्वान न जाणीने श्वान नसे जे, जेम सिंह जलमांहे पोतानुं प्रतिबिंब देखी तेना निमित्तें अपरसिंह जाणी कोधे करी तेमांहे पडे जे, जेम तंतुवाय पोतें जाल करे तेमांहे पोतेंज गुंथाय डे, तेम ब्रह्मज्ञानविना नेदप्रतिनासें जूठें जूटुंज बंधन थाय ॥४१॥ ॥इम अज्ञाने बांधी मही, चेतन करता तेहनो नहीं ॥ गल चामीकरने दृष्टांत, धरमप्रवृत्ति जिहां लगे भ्रांत ॥ ४२ ॥ अर्थः-एम अज्ञाने (मही के०) पृथ्वी ते बंधाणी, ते बंधनो कर्ता चेतन नथी. जो परमार्थथी बंध नथी, तो बंधवियोगने अर्थ योगी केम प्रवर्ने ? ते आशंकायें कहे . (गलचामीकर के० ) कंठगत हेममाला तेहने दृष्टांतें ब्रांति ले. तिहांसुधी धर्मनेविषे प्रवृत्ति ते जेम बतीज कंठसुवर्णमाला गले जाणी, कोक घणा स्था Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शप जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. नके शोधे, तेम अबदु ब्रह्मनेज बंध जाणी बंध वियोगने अर्थ तपस्वी प्रवर्ते ने. ॥ध्रांतिमिटये चिन्मात्र अगाध, करता नहिं पण साखी साध ॥ व्यव हारें करता ते होन, परमारथें नवि बांध्यो कोन ॥ ५३॥ अर्थः-ते ब्रां ति मटे. अगाध निस्तरंग चेतना विलासमात्र , ते दिसायें साधु कर ता नथी. पण शादी के व्यवहारें लोक प्रत्ये ते कर्ता नासे ने परमार्थ कोई बांध्यो नथी ॥ ३ ॥ ॥अनिधानयोजन कैवल्य, गुण पामे श्रुति कहे निसल्य ॥ परमारथ व्य वहार अन्यास, नासनशक्ति टले सवि तास ॥४४॥ अर्थः- अनिमुख ध्यान ते अनिध्यान वेदांत श्रवणयोगें मुक्तिने ते योजन तत्त्वज्ञान (कै वल्य के) विदेह केवलनाव एंत्रण गुण पामीयें, ते जीवने अनुक्रमे प्र पंचनी पारमार्थिक व्यावहारिक आनासिकता प्रतिनासननी शक्ति बे, ते मटे. तिहां नैयायिकादि वासनायें प्रपंचने परमार्थिकपणुं जणातुं ते वेदांत श्रवण पडी मटे तेवार पनी प्रपंचने योगी व्यावहारिक करी जाणे, पण पारमार्थिक करी न जाणे वलतुं तत्त्वज्ञान उपजे तेवारें प्रपंचने व्यावहारि कपणे न जणाय, बाधितानुवृत्त्यायंतिकःख निवृत्तौ विदेहकैवल्यप्रपंचर्नु ज्ञानमात्रज टले. निःप्रपंच चिन्मात्र हो रहे. तस्यानिध्यानाद्योजनात्त त्वनावायश्चांते विश्वमायानिवृत्तिरिति श्रुतिः ॥ ४४ ॥ ॥जीवन मुक्त लह्यो निज धाम, तेहने करणीनुं नहिं काम ॥ जिहां थ विद्या करणी तिहां, वीसामो ने विद्या जिहां ॥ ४५ ॥ अर्थः-तत्त्व झाने संचित कमै करी प्रारब्ध मात्र जोगीनी प्रतीक्षा करतो, जीवन्मुक्त थयो ते पोतानुं तेज पाम्युं. तेने करणी, काम नथी. ज्यांसुधी अविद्या जे, त्यांसुधी क्रिया , ज्यां विद्यातत्त्वसाक्षात्काररूप श्रावी, तिहां वीसा मो . यतः आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं, क्रिया कारणमुच्यते ॥ योगारूढस्य तस्यैव, शमः कारणमुच्यते ॥ १ ॥ ४५ ॥ ॥विधिनिषेध ज्ञानीने कही, प्रारब्धे तस किरिया कही ॥ अवर कहिये नहि तास अदृष्ट, जीवनकारण अन्य अदृष्ट ॥ ४६॥ अर्थः-तत्त्व झानीने विधिनिषेधरूप वैदिकक्रिया कोइ नथी. जेमाटे विधिनिषेध सर्व सविद्यावत्पुरुष विषय , थाहारविहारादि क्रिया शरीरसाधन , तेपण प्रारब्धादृष्ट , एम सांप्रदायिक वेदांति कहे जे. उर्जाखल कहे जे ॥दीयंते Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. चास्य कर्माणि, तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ज्ञानानिः सर्वकर्माणि, जस्मसात् कु रुतेऽईन ॥ इत्यादिवाक्ये कर्म सर्वपद संकोचनी अन्यायतायें ज्ञानीने अष्टमात्रनो नाश माने ,अने तेने शरीराश्रित कारण ते इश्वर शरीरनी परें अन्यादृष्ट डे ॥४६॥ ॥करे न मुंजे इम आतमा, वेदंति बोले महातमा॥सांख्य कहे प्रकृति सवि करे, चेतनरूप बुद्धिमांहे धरे ॥४७॥ अर्थः- एरीतें आत्मा न कर्ता न नोक्ता एम वेदांति बोले ,ए वेदांतिनो मत कह्यो. हवे सांख्यनो मत कहे . ते सांख्य मतवाला कहे के सत्व, रज अने तमोगुणनी साम्यावस्था अनादि मूलकारण प्रति बे, तेहज सर्व प्रपंच करे , स्वप रिणाम महत्तत्त्वापर नामक स्व बुद्धि में तेहमां चिन्मात्र आत्मरूप प्र तिबिंब धरे ले ॥ ४६॥ ॥ जिम दरपण मुख लालिम तास, बिंब चलननो होइ नलास ॥ विषय पुरुष उपराग निवेश, तिम बुद्धि व्यापारावेश ॥४॥ अर्थः-तेवारें त्रण प्रकार थाय ने ते दृष्टांते देखाडे :-जेम दर्पण एटले वारिसाथी मुख नीलो तेम रक्त जो देखाय अने ते दर्पणनी चलनायें बिंबनी चलनानो नन्नास होय, तेम ते बुद्धि चित्प्रतिबिंबें घटादि विषयोपराग 'अहं' ए पुरुषो पराग क्रियारूप व्यापारावेश होय ॥ ४ ॥ ॥ढं जाणुं ए करणी करूं, ए त्रिढुं अंशे माने खलं ॥ पण ते सरव न रमनी जाति, जाणे शुभ विवेकह ख्याति ॥४॥ अर्थः-हुँ एटले आत्मा, जाणुं घटादिक, करण गमनादिरूपकार्य करूं, एत्रण अंशें जीव खलं करीमा ने, पण ते सर्व प्रतिबिंब चमनी जाति ने. (विवेकहरख्याति के०)प्रकृतिपुरु षान्यनाव जेहने होय ते गुह केवलात्मस्वरूप जाणे ॥ ४ ॥ ॥ प्रकृतिधर्म हित अहित आचार, चेतनना कहे ते उपचार ॥ विजय प राजय जिम नटतणा, नरपतिने कहियें अतिघणा ॥ ५॥ अर्थः-अ परोक्नम ते अपरोक्ष साक्षात्कारेंज निवर्ने ते गुदात्मक ज्ञान , (हित अहित के० ) विधिनिषेध प्राचार क्रियारूप ले ते सर्व प्रकति नानाध म ने, आत्मातो अक्रिय जे तेहने जे चेतना कहे २ ते उपचार करी जाणवो. जेम सुनटना विजय पराजय अतिघणा ते सर्व राजाना क हियें एटले सुनट जीते राजा जीत्यो, अने गुजट हास्ये राजा हास्यो, एवो Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. व्यवहार जे एम प्ररुतिगत गुनागुन किरिया ते आत्मानी करीने व्यवहा री लोक माने जे ॥ ५० ॥ ॥प्ररुति करे नवि चेतन कलीव,प्रति बिंबे ते मुंजे जीव ॥ पंचवीशमुं तत्त्व अगम्य, ने कूटस्थ सदा शिव रम्य ॥५१॥ अर्थः-प्रकृति ते स र्व कार्य करे , चेतन आत्मा नथी करती जेकारण माटे ते कलीब , क्रियानुं असमर्थ डे, झस्वनाव ते कर्तृवनाव केम होय, बुद्धि करे , ते प्रतिबिंबे जीव मुंजे डे, बुद्धिनिष्ठप्रतिबिंबवाहित्वमेव चितो नोगः अतएव सारख्यमें शादात् नोक्ता आत्मा नथी. पचवीसमुं तत्व यात्मरूप अगम्य अगोचर डे. (कूटस्थ के०) अनित्यधर्म रहित सर्वकाल सदा (शिव के०) निरुपश्च ( रम्य के०) मनोहर ले ॥ ५१ ॥ ॥पविलास प्रकृति दाखवी, विरमे जिम जग नटु नवी ॥ प्रकृति. विकार विलय ते मुक्ति, निर्गुण चेतन थाये युक्ति ॥ ५ ॥ अर्थः-प्रक ति ते आत्म विलास मदादि प्रपंच देखाडी विरमे निवर्ने जेम जग नवी नटर नाटक देखाडी विरमे ॥ नक्तंच ॥ रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी य था नृत्यात् ॥ पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः॥प्रकृतिविका रनो विलय तेहज मुक्ति ते चितिरसंक्रमा इत्यादि सूत्रानुसारें निर्गुण चे तननेज थापे ले ॥ ५ ॥ ॥पंथी खूट्या देखी गूढ, कहे पंथ लूंटाणो मूढ॥प्रतिक्रिया देखी जी वने, अविवेकी तिम माने मने ॥ ५३॥ अर्थः-पंथी लोकनें लूंट्या दे खीने तेनो गूढ एटले रहस्य ते मूढबुद्धि एवं कहे . जे पंथ लूंटाणो. ३ हां (पंथ के०) नाग ते अचेतन डे तेनुं खूटq ते वली किश्युं दोय. ए उपचार वचनने अनुपचार करी माने तेने मूढ कहियें तेम प्रतिनी क्रिया देखीने अविवेकी पुरुष, जीवने किया पोताने कृत्या दयो मनस्थो धर्मानेदाग्रहात् पुरुषे नासते ॥ ५३ ॥ ॥ मूल प्रकृति नवि विकृति विख्यात, प्रकृति विरुति महदादिक सात ॥ गण पोडशक विकारी कह्यो, प्रकृति न विरुति न चेतन लह्यो ॥ ५४॥ अर्थः-जे मूलप्रकृति ते विकृतिरूप न होय, कोठें कार्य मर्ददादिक सात पदार्थ महन् अहंकार पचतन्मात्र ए प्रकृति कही अने विक्रति कहि ये उत्तरोत्तर-कारण पूर्व पूर्वनुं कार्य में तेजणी पांचचूत अने गीधार इंडि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श षट्स्थान स्वरूपनीचोपाई. य एषोडशगण विकारी कह्यो. ए कार्य ,पण कारण नथी. चेतन ने प्रकते नहीं कारण वकार्य नहीं तो कूटस्थ चैतन्यरूप कह्यो । तऽक्तं सारंव्यसप्तति कायाम् ॥ मूलप्ररूतिर विकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविरुतयः सप्त ॥ षोडश कस्तु विकारीन प्रतिनिविरुतिः पुरुषः॥गंधतन्मात्र १ रसतन्मात्र २ रूपत न्मात्र३ स्पर्शतन्मात्र ४ शब्दतन्मात्र ५ ए पांच तन्मात्र नाम. श्रोत्र घ्रा ण जिव्हा नयन स्पर्शन ए पांच बुद्धीडिय. वाक् पाणि पाद पायु उपस्थ ए पांच कर्मेश्यि अने श्यारमुं मन इंडिय ॥ ५ ॥ ॥ ए बिदुंने साधारण दोष, न करें तो किम बंधनमोख । मनबंधाये लूटे जीव, एतो जुगतुं नहीं अतीव ॥ ५५॥ अर्थः-एम जीव अकर्ता अनोक्ता सांख्य वेदांती ए बे मतवाला कहे . हवे ते बेदने दृषण दी ये . ए बेहुने साधारण एटले सरखो दोष . जो जीव करे नही, तो ते ने बंध पण न घटे.तथा मोक्षपण घटे नहीं. जो एम कहेशो के, क्रियावती प्रकृति .तेमाटे प्रति बंधाय. सात्विक राजस तामस नावे प्रकृतिनेज सं बंध . तहिकार महत्तत्वना ए नाव ले. जीवमां तो अध्यास मात्रे सवि लास प्रकृति निवृत्तिरूप मोद ते जीवने .ए तो घटे नहीं.जे कारणमाटे जे बंधाय बे. ते बूटे. परंतु अन्यने बंध अने अन्यने मोद ए कहेज के म होय? ॥ ५५॥ ॥परमारथे नवि बंधन मोख,उपचारें जो करसो तोष ॥ मोक्षशास्त्र तो तुम सवि वृथा, जेहमां नहीं परमारथकथा ॥ ५६ ॥ अर्थः-हवे को ६ कहेशे के, बंध मोद तो जीवने व्यवहारें कहियें बैयें. परं परमार्थे तो अबंधमुक्तिमत् स्वरूप जे ॥ नमुमुकुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थतेति वचनात् ॥ तेहने कहियें के, जो परमार्थे बंध मोद नथी तो मोद उपचारें होय ३. ए वातेंज तमे संतोष करशो तेवारें तो सर्व तमारे वृथा . मोदशास्त्र रूप परमार्थनी कथा जेमां नथी तेवारें ॥पंचविंशतितत्त्वज्ञो,नरोझा त्रिंशके रतः ॥ तटी दरी शिखी चापि, मुच्यते नात्रसंशयः ॥ १ ॥ ब्रह्मविद् ब्रह्म नूयमाप्नोति इति आदिशास्त्र सर्व प्रवर्तक न थाय ॥५६॥ ॥प्ररुति अविद्या नाशें करी, पहेली यात्मदशा जो फिरी॥तो कूटस्थ पणुं तुम्ह गयुं, नहिंतो कहो अ॒ अधिकुं थयुं ॥ ५७॥ अर्थः-हवे एबे दुमत आत्माने कूटस्थपणुं माने ,ते दूषे . प्रकृतिनो सांरख्यमतें अने अ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. विद्यानो वेदांतमतें जेवारें नाश होय, तेवारे जे पहेली आत्माने संसारी दशा हती ते जो फरी गई तो तमारे मतें कूटस्थपणुं पण गपुं. परिणाम पणु थयु. नहीं तो कहो के मुक्तिदशायें अधिकुं हुं थयु. जे सर्वदा शुभ था स्मा ले तेने प्रकृति अविद्या नाशने अर्थस्यो साधन प्रयास करावो बो? ॥५॥ माया नाशन अधिको नाव, गुरु रूपतो प्रथम विनाव ॥ रत्नादिक मां शुदि अशुदि, जो कहो तो शी इहां कुबुदि ॥ ५७ ॥ अर्थः-जो कहेशो, के माया नाशयधिको नाव नथी. अधिकरण स्वरूपज . तोष्ट थिवि नावरूप यात्मा ते गुरूपयजाय. जेमाटे ते यात्मामांहे मायि कनावनो अत्यंतानाव . गुफरूपझानेज जो शुरू थाय तो समलनाज नादिक पण निर्मलता ज्ञानेज निर्मल थर्बु जोश्यें. रत्नादिकने जेम गुम अगुचनपधेि कहो बो. तेम यात्माने परिणाम विशेषे जाणो. ए शी कुबुदि? जे पुजलश्व्यने परिणामें गुड़ कहो बो,अने यात्माने तेम नथीकहेता?॥५॥ ॥रतनशोध जिम शतपुट खार,तिम बातमशोधक व्यवहार ॥ गुणधा रायें अखिल प्रमाण, जिम नाखे दासूर सुजाण ॥ ५ ॥ अर्थ:-जेम रत्नशोध करे तेने दोषनो टालणहार शतपुट खार एटले शोखार पुट बे.ते मात्माना दोषनो शोधक क्रियाव्यवहार . चरम क्रियासाधन माटे प्रथमादि क्रिया पण लेखे .प्रथमादिविना चरमखारपुट न होय ते विना रत्नशुदिन होय: ए क्रियादृष्टांत जाणवो. गुणधारा वृद्धि सर्व प्रमाण . ए हज अनिप्रायें योगवाशिष्ठ ग्रंथमध्ये दासूर रुषी रामचं प्रत्ये बोल्या॥५॥ ॥ सतुषपणुं जिम तंउल तणुं,श्यामपणुं त्रांबानुं घj॥ क्रियाविना नवि नाशे पुत्र, जाणि पुरुषमल तेम अपवित्र ॥ ६० ॥ अर्थः- सतुषपणुं फोतरासहितपणुं जेम तंउत्सतणुं व्रीहीत' जेम! त्रांबानाजन४ घणेलं श्यामपणुं मलिनपणुं ते कुट्टन मांजनादिकें जाय. तेम क्रियाविना हे पुत्र रामचंद,अपवित्र जे अनादिकालीन पुरुषमल कर्मरूप ,ते क्रियाविना झा नमात्रे नाशे नही. वचनमात्रे आत्मसंतोषं झुं थाय? ॥ उक्तंच ॥ नणंतो अकरंतो य,बंधमुरकपनिणो॥वाया विरयमित्तेणं, समासंतिय अप्पयं॥६॥ ॥ एतो गुभाशुभ स्वनाव,कहियें तो सवि फावे दाव ॥ कालनेदथी न ही विरोध, सघट विघट जिम नूतल बोध ॥ ६१॥ अर्थः-एतो आत्मा नो स्वजाव जो संसारी दिशायें अगु६ एम शुभाशु स्याहाद प्रमाणे क Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ए री माने तो सर्व दाव मुक्तिशास्त्रनो पामे. पण एकांतवादें तो कांश मली शके नहीं. विरोध परिहार ने कालनेदथी विरोध नहीं जेमाटे एकज घट काले घटवत् स्वनाव , अन्यकालें अघटस्वनाव जे. एम शुभाशुधोजयस्व नावकालें नेद माने तो विरोध नथी. अन्यने जे नावानावसंबंधघटक ते जन्म हारे स्वबलस्वनाव में ॥ १ ॥ ॥ केवल शुद्ध कही श्रुति जेह,निश्चयथी नहिं तिहां संदेह ॥ ते निमित्त कारण मवि सहे, चेतन निजगुण करता कहे ॥६॥ अर्थः-श्रुतियें कू टस्थपणुं कमु डे ते मेले श्रुतियें जे केवल शुक्ष्यात्मा कह्यो ते निश्चय नथी. तेहथी तेमां संदेह नहीं. जेहनो थावि व सिममांहे , ते निश्चय नय निमित्त कारण न माने, शुरूपर्याय नपादानें व्यतिरिक्तनावेंज शुरू कहे. ॥चेतन कर्म निमित्तें जेह,लांगे तेलें जिम रज देह ॥ करम तास करता सदहे, नयव्यवहार परंपर ग्रहे ॥ ६३ ॥ अर्थः-तेहने ज्ञानावरणादि व्य कर्म कहियें तेनो कर्ता जीव ले. एम व्यवहार नय सहहे. ते नाव कर्मघटित परंपरा संबंध माने . निश्चयनयने मतें पुजलनिमित्तें जीवस्व परिणामका अध्यवसाय निमित्त पुजल स्वपरिणामकर्ता एम माने ॥६॥ ॥बीज अंकूर न्यायें एम धार, अनादि पण वे पार ॥ मुगति सा दि ने जेम अनंत, तिम नव्यत्व अनादि स अंत ॥ ६ ॥ अर्थः-एम जावकर्मे इव्यकर्म अने व्यकम नावकर्म कहेवाथी अन्योन्याश्रय दोष थाय, ते टाले :-ए व्यकर्म नावकर्म अन्योन्यापेक्नी धारा बीज अंक रपणे अनादि . स्थायिकत्वान्न दोषः॥ए धारा अनादि , पण शुक्लध्याने दाह थाय, तेवारें पार थावे जेम बीजांकूर संताननो एकने नाशे अनादि नावनो केम अंत होय ? त्यां कहे . जेम सादि होय ते सांतज व्याप्ति नथी. मोक्षपदार्थेजव्यनिचार होय तेमाटे तेम जे अनादि होय ते अनं तज एम निश्चय न कहेवो. नव्यत्वें विघटे तेमाटे ॥ ६ ॥ ॥मुगतिप्रागनावह ते ठगम, जातियोगता जिय परिणाम ॥ जूती मा या कारण थाय, वंध्या माता किम न कहाय ॥६५॥ अर्थः-ते जा ति जव्यत्वनामें जीव कार्य परिणाम विशेष प्रगटे तदानिमत मुक्ति प्राग नावने गमे , तुब अनावरूप जो माने तो जातिकार्य न करे मुक्त्यधि कार ते नव्यत्व . शमदमवत्वे अधिकार ना होय तो तदझाने प्रवृत्ति तत्त Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. र शमादि संपत्ति एम अन्योन्याश्रय थाय इत्यादि घणी युक्ति न्यायालोकें कही ले ते नव्यत्ववंत जीव तथा जव्यत्व परिणामे तत्तकार्यनो कर्त्ता जे. जो जूठी मायाज कारण कहीयें तो, वंध्या माता ए साधु थाय ॥ उक्तंच हेमसूरिनिः॥माया सतीचेट्टयतत्त्वसिरियासतीचेच कुतःप्रपंचः॥ मायैव चेदर्थसहा चतत्किं माता च वंध्या च नवेत्परेषामिति ॥ १ ॥ ६५ ॥ ॥जग मिथ्या तो ए शी वाच,याशामोदक मोदक साच ॥जो अज्ञान कहे बहु रूप, साच नावनो श्यो अंधकूप ॥ ६६ ॥ अर्थः-जो सविला साझान जग केम मिथ्या कहो बो, तो ए शी वाच जे एक याशाना मोदक अने एक साच मोदक ए बे अज्ञानजन्य . जो अज्ञान जाग्रत्स्वप्नप्र पंचारंनक निन्न निन्न मानो, तो साच नाव घटपटादिक दृष्टवैचित्र्यवंत मानो, तो तुमने ए स्यो अंधकूप ने. अत्र श्लोकः ॥ पाशामोदकता. ये, ये चास्वादितमोदकाः॥रसवीर्य विपाकादि, तुल्यं तेषां प्रसज्यते ॥ ६६॥ ॥साधक डे सविकल्प प्रमाण,तेणे सामान्य विशेष मंमाण ॥ निरविक रूप तो निजरुचि मात्र, अंशे श्रुति निर्वाहे यात्र ॥ ६७ ॥ अर्थः-साध कले सविकल्पं प्रमाण ज्ञान अवश्य उपस्थित ने तेहने विषय स्वबंध प्रा गनावादिकजने गौरव ने तेमाटे बाह्यसंबंधरहित अनाद्यंत ब्रह्मज . स त्य अन्य वस्तु प्रमाण नावेज असिम बे. तेने कहियें जे तमे साधकता न अवलंबो बो ते सविकल्पज प्रमाण . निर्विकल्प स्वयं असिम ते पर साधक केम होय. ते सविकल्पनो सामान्य विशेषरूप अर्थ निग्रहे . स्वयं उपयोगरूपे तथा अवग्रहादिरूपें सामान्य विशेषरूप ले. तेवारें सर्वत्र त्रि लक्षणपणुंज सत्य ले. निर्विकल्प मानवं तेतो निजरुचिमात्र, बोध स्वलक्षण विषय ते माने वेदांती ब्रह्मविषय ए सर्व रुचिमात्र थयु. श्रुति जे निर्विकल्पब्रह्मप्रतिपादक डे ते (अंशे के ) नयें (यात्र के०) व्यव हार ते निर्वाह ले ॥ ६ ॥ ॥ब्रह्म परापर वचने कह्यो, एक ब्रह्म उपनिषदें रह्यो ॥ मायोपम पण जग श्रुति सुण्यु, जेहनी जिम रुचि तिम तिणे मुण्यं ॥ ६॥ अर्थःब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं च ए वचने वेदमाहे ब्रह्मपरात्पर हिनेदें कह्यु. नपनिषदें एकज ब्रह्म लघु. एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेहनानास्तिकिंचनेत्यादिव चनात् तथा मायोपमं सकलं जगत् ए वचने सर्व जगत गुन्यरूप पणें कहे. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३०१ तिहां वैतवादी अतिवादी शून्यवादीयें जेने जेम रुचे तेणें तेम पुरुं करी ने जाण्यु. वलतुं ते वादी युक्ति पण तेहवीज कल्पे ॥ ६ ॥ ॥स्यादवाद विण पण सवि मृषा,खारे जल नवि नागे तृषा॥माया मिटे रहे जो अंग, तो किम नहीं परमाथ रंग ॥ ६॥ अर्थः-पण ते निज निज नय रुचे जे ते स्याहादविना सर्व जूता. जेविना स्वमत निर्वाह न था य. जेम खारा जलथी तृपा न नांजे तेम स्याहादविना कांदा न टले. जो वेदांतमे मतें सर्व माया गवेषे जे, ते मटे तो तत्कार्य अंग केम रहे ? जो रहे अंगें पारमार्थिक थाय,तो व्यावहारिक केम कहियें? ॥ ६ ॥ ॥ बाधित अनुवृत्ते ते रही, ज्ञानीने प्रारब्धं कही ॥ कर्मविलास थयो तो साच, झानें न मट्यो जेहनो नाच ॥ ७० ॥ अर्थः-हवे जो एम क देशो के झानीने पण माया बाधितानुवृत्तें रही . दग्धरङ आकार ते प्रारब्धे करीने ॥ ज्ञानानिः सर्वकर्माणिं, नस्मसात्कुरुतेर्जुन ॥ इहां कर्मप द प्रारब्धातिरिक्त कर्मपर कहेवु. पर कहेवू तो कर्मविलास साचो थयो. प ए कल्पित थयो जेनुं (नाच के०) नाटक ते झाने पण न मटयुं. सिद त पण एहनोज डे, केवलज्ञान उपने पण नवोपयाही कर्म टलतां तथा सर्वकर्मदय ते युक्तिदिशायें परनी समाधिज सत्य होय ॥ ७० ॥ ॥व्यवहारिक आनासिक गणे, योगी ते ने चमबंगणे ॥ योगी अयोगी शरीर अशेष, श्यो व्यवहार आनास विशेष ॥ ७१.॥ अर्थः-जे यो गी व्यावहारिक प्रपंचने थानासिक गणे , ते चम गृहने अंगणे रमे बे. जे अन्यने अन्य करी जाणवू तेज ब्रमयोगीनुं शरीर, ते आनासिक जाण वू, अने अयोगीनुं शरीर ते व्यवहारें कथनमात्र सदृश परिणामज दीसे बे; तेणेंकरी जेहवू ले तेहबुं कहे . ज्ञानीने रागादिक नाव , ते आना सिक गुंजापुंजवन्हिसमान ते सर्व निरस्त कह्यु एम जाणवू, कर्मजनित नाव ते सत्यज . तो तुधातृषादि नाव पण सर्व जूता थाय. ते तो प्र त्यक्षविरोध ॥ १ ॥ ॥अन्य अदृष्टं योगिशरीर,रहे कहे ते नहिं श्रुतिधीर ॥ जो शिष्यादि अदृष्टं रहे, अरिअदृष्ट तेहने किम सहे ॥ ७॥ अर्थः-कोइ उन्मत्तप्राय क हे . ज्ञानीने सर्वअदृष्ट गयां शरीर रहे ले. अन्य शिष्यादिकने जेम लो कादृष्टं ईश्वरशरीर रहे हैं. ते श्रुतधीर नही. एटले सिमांतमाहे धैर्यवंत न Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमा. ही. जो योगीनुं शरीर शिष्यादिकने अदृष्टं रहे, तो (अरि के) वैररी ते ने अदृष्टं का पडतो नथी, तेमा स्वादृष्टेज निर्वाह मानवो ॥ ७२ ॥ ॥ सकति अनंत सहित अज्ञान, कर्म कहो तो वाधे वान ॥ कर्मे होय जनमनी युक्ति, दर्शन ज्ञान चरणथी मुक्ति ॥ ७३॥ अर्थः-एम अवि द्यामायाशब्दवाच्य अनिर्वचनीय अज्ञान वेदांतिसंमत न घटे. जो अनंतश क्तिसहित अज्ञानरूप कर्म कहोतो, वान वधे. ते तेहना उदयद्योपशमा दिकथी अनेक कार्य थाय. कर्मक्ये मोद थाय. तेहज कहे कर्मे जन्मनी संसारनी युक्ति होय. नावें दर्शन, ज्ञान चारित्र थाय तेवारें मुक्ति होय ॥७३॥ ॥ प्रतिबिंबे जो नाखें नोग, किम तस रूपी अरूपी योग॥आकाशादि कनुं प्रतिबिंब, जिम नहीं तिम चेतन अविलंब ॥ ४ ॥ अर्थः-चित् प्रतिबिंबे बुझिनो नोग बे, ते साक्षात् आत्माने नथी, जे एम कहे , ते ने रूपीअरूपीनो योग संनवे नही. आकाश अरूपी, जेम आदर्श प्रति बिंब नथी. तेम बुद्धिमांहे चेतन, अवलंब न होय गंजीरं जलं कहेतां आकाशप्रतिबिंब नथी. गंजीरपणुं ते जलधर्म . प्रतिबिंबस्वरूप देखाडी चित्प्रतिबिंब न होय, एवं कहे जे ॥ ७ ॥ ॥ आदर्शादिकमां जे बाय, आवे ते प्रतिबिंब कहाय ॥ स्थूलखंधनुं संग त तेह, नवि पामे प्रतिबिंब अ देह ॥ ७५॥ अर्थः-(थादर्शादिक के०) आर.सा प्रमुख जे स्वज इव्य तेहमा जे बाया आवे ते प्रतिबिंब कहियें ॥ उक्तं च ॥ जे पायरियस्त संतो,देहावयवाह हवंति संकंता ॥ तेसिंतबुव लाह, पन्नत्ते ॥ इति प्रतिबिंब स्थूल पुजलन होय. उक्तं च ॥ सामानदिया बाया, अनामुरगयाणि सिंतु कालाना ॥ सत्तेय नासुरगया, संदेहना मुणेयवा ॥ (अदेह के० ) अशरीर जे आत्मा ते बुद्धिमांहे प्रतिबिंब न वि पामे ॥ ५ ॥ ॥ बुझे चेतनता संक्रमे, किम नवि गगनादिक गुण रमे॥ बुद्धि ज्ञान उपल ब्धि अनिन्न, एहनो नेद करे गुं खिन्न ॥७६॥ अर्थः-बुदितत्त्वे ( चेतन ताके०) चैतन्य प्रतिबिंबे,जोसंक्रमें, तो गगनादिकरूपी व्यना गुण बुद्धिमांदे केम नवि रमे ? बुद्धि ते चित्प्रतिबिंबाधिष्ठान ने. इंडियवृत्ति घटादि संग उ पलब्धि ते आदर्श मलिनमाथी प्रतिबिंबतमुखमलिनतास्थानीयनोग ए सांख्यकल्पना जूठी . ए त्रण एकार्थ . अतएव गौतमसूत्र इस्युं वे ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३०३ बुधिरूपलब्धिनिमित्यनर्थान्तरमिति ॥एहनो नेद खिन्न थको तुं शुं करे ? समो अर्थ ज्ञान मान्य ॥ ७६ ॥ ॥बुदि नित्य तो पुरुषज तेह, झानप्रवृत्ति वा सम गेह ॥ जो अनि त्य तो किहां वासना, प्रकृति तो शी बुद्धिसाधना ॥ ७॥ अर्थः-बुद्धि तत्त्व जे सांख्य माने ले ते नित्य विकल्पं दूपे ले. जो ज्ञानादिक धर्माश्रयबु दि नित्य मानीयें तो तेहज पुरुष , जे माटें ज्ञान, वा, प्रवृत्ति (सम गेह के ) समानाश्रय . ज्ञानप्रवृत्तिनुं व्यधिकरणपणुं कल्पवं अनुचित डे. तथा बुद्धि नित्यपुरुषोपाधिरूप नटले, तो मुक्ति पण केम होय ? जो अनित्य मानो तो बुद्धिविनाशें वासना किहां रही ? अने जो न रही तो पु नः प्रपंचोत्पत्ति केम होय ? जो एम कहेंशो के, बुद्धि विनाशे प्रकतें लीन वासना रही तो बुदि साधनानुं हुं काम ? प्रत्याश्रितज्ञानादिगुणावि वें ज कार्य थाशे ॥ ७ ॥ ॥अहंकार पण तस परिणाम, तत्त्व चवीसतणुं किहां ठाम ॥ सक ति विगति प्ररूतें सवि कहो, बीजा तत्त्व विमासी रहो ॥ ७॥ अर्थःबुदितत्त्व मिथ्या तेवारें तत्परिणाम अहंकारादिक पण मिथ्या. चोवीश त त्त्वनुं ठाम किहां होय? चोवीश तत्त्वना धर्मशक्ति विगतें करी प्रकृतिथीज सर्व कहो, बीजा तत्त्वबुध्यादिक , ते विमासीने रहो. एटले प्रकृतिविला स ते अजीवतत्त्व विलासज दुन. जीवतत्त्वतो मुख्य बीजा उजयपरिणाम रूप ले. एम नवतत्त्वप्रक्रिया तेहज गुरू थ जाणवी ॥ ७० ॥ ॥विरमे रमे यथा नर्तकी, अवसर देखी अनुनवथकी॥प्रकृति अचेत न किम तिम रमे, विरमे जो करता नवि गमे ॥ ७ए ॥ अर्थः- नाटक णी पोताना अनुनवथी कार्य नाशादिकने विषे रमे, तथा अवसर देखी दानादिक पामी विरमे, तेम प्रकृति अचेतन , ते केम रमे ? अने विरमे ? जो करता पुरुष तुऊने न गमे ॥ एवं च॥रंगस्य दर्शयित्वा निवर्त्तते नर्तकी यथात्मानं ॥ पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्त्तते प्रकृतिः॥इत्यादि शिष्य कहे ,ते शिष्य धंधमात्र कहे. पुरुषने आत्मदर्शन प्रकृति करे, ते अ चेतनने न संजवे. नवा तिहां प्रयोजन तहान ॥ ७ ॥ ॥प्रकतिदिदायें जिम सर्ग, शांति वाहितायें मुक्तिनिसर्ग ॥ कर्ताविण ए कालविशेष, तिहां वलगे नय अन्य अशेष ॥०॥ अर्थः- प्रकृति Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. दिक्षायें (सर्ग के० ) सृष्टि जेम सांख्य कहे , तेम (निसर्गमुक्ति के०) स्वनावमुक्ति शांतिवाहितायें होय, ए बे लक्षण करताना ले. ते विना जो प्रतिपरिणामनां लक्षण कहीयें, तो कालनां लक्षण थाय. तिहां अन्य अशेष नय वले, ते सर्वना अर्थनो अनुग्रह करवा पांच कारणसमवाय मानवो. तेवारें का मुख्यपणे यावे ॥ नक्तं च ॥ कालो सहाव णिय, पुत्र कयं पुरिसकारणोवगतं ॥ समवाए समत्तं, एगंतं होइ मिहत्तं ॥१॥७॥ ॥प्ररुतिकर्म ते माटे गणो, ज्ञानक्रियाथी तस क्ष्य नको ॥ अशुभ नाव करता संसार, शुभ नाव करता नवपार ॥७॥अकर्तृअनोतृवादिनौगतौ॥ अर्थः- तेमाटे प्ररूतिने कर्मनुंज नाम गणो, प्रधान कर्म संस्कार वासना विद्या सहजमल ए सर्व एकार्थज शब्द के दर्शनने ते कर्मनो क्ष्य ज्ञा न गुरू नाव ले. ते नवपारनो कर्त्ता में ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य,सुहाण य उहाण य ॥ इत्यादि शास्त्र वचनो पण ले ॥१॥धकर्ता अनोक्ता आत्मा माने ले ते वादि गया. इहां समकेतनां चार स्थानक पूर्ण थया ॥ ॥ एक कहे नवि निरवाण, इश्यि विणस्यां सुख मंमाण ॥ःख अना व मूर्जा अनुसरे, तिहां प्रवृत्ति पंमित कुण करे ॥ ७२ ॥ अर्थः- हवे समकितनुं पांचभु मोक्षस्थानक कहे :- एकवादी कहे ने के, (निरवा ण के) मोद नथी. इंख्यि विलास विना मुक्ति मुख्य ले. तेना मंमाण . ते कोण सहहे.तोके अशेष विशेषगुणोलेदरूप वैशेषिकानिमत मुक्ति मानो. दुःखानवने अर्थेज मुमुदुप्रवृत्ति हो. ते ऊपर कहे - फुःखाजावने पुरु पार्थ नथी. जेमाटे मूर्भावस्थायें पण अविद्या दुःखानाव , तिहां कुप्रव ने पंमित करे, ॥ नक्तंच ॥ उखानावोपि नावेद्य; पुरुषार्थतयेष्यते॥ नहि मूर्बाद्यवस्थार्थ, प्रवृत्तो दृश्यते सुधारिति ॥ १ ॥ २ ॥ ॥ काल अनंते मुकतें जतां, हो संसार विलय आजतां ॥ व्यापकने कहो केहो गम, जिहां एक सुखसंपतिधाम ॥ ३ ॥ अर्थः- जो मोदपदार्थ रात्रिदिवस जीवे करीनरातां अनंतो काल थयो तोाजतां ए जीवोने मुक्तिमां जतां संसारनो विलय थाय.एक एक युगमा एक एक मो दें जाय तो अनंता युग गया एटले कालें संसार खाली कां न थाय ॥ स त्या अनंता एव ह्यपवृक्तास्तथापि संसारस्य प्रत्यक्षसिदत्वादित्यादि करणा वतीकारें कडं ते तो घटे के, जो कालानंत्यथी जीवपरिणामानंत्य अधिक Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३०५ होय तेमाटे ए कल्पनामात्र ले. बीजं आत्मा सर्वव्यापक कहे जे, तेहने ए क सुखसंपतिनुं घर एवो किहां ठाम ? के ज्यां ए जाय. क्रियावत्त्वाना वान्नात्मनः सिदिदेवगमनश्त्यर्थः ॥ ७३ ॥ ॥ किम अनंत इक नामें मिले, पहिलो नहिं तो कुंग मुनले ॥पहिला नव के पहेला मुक्ति, ए तो जोतां न मिले युक्ति ॥ ॥ अर्थः- वली मोदमां अनंता सि६ मानो तो ते एकस्थानकें अनंता केम मले? जो प हेलो अनादिसि न मानो तो बीजा सिह थाय ते कोणमांहे नले ? प हेलो सिम नहीं तो कोण सिक्ने सर्व साधक नमे ? तेवारें पहेला संसार के पहेला मुक्ति ? प्रथमपदें मुक्ति सादि थर, एटले धादिसहित थइ? बी जे पदें बंधव्याघाते बंधविना मुक्ति केम होय? ए युक्ति जोतां मलतीनथी॥७४ ॥ जिहां न गीत न नाव विलास, नहिं शृंगार कुतूहल हांस ॥ तेह मु गतिथी कहे कपाल, वनमां जन्म्यो नली शृंगाल ॥ ५॥ अर्थ:-जि हां गीतगान नहीं, नावविलास नहीं, शृंगाररस नहीं, ( कुतूहल के ) ख्याल नहीं, ते मुक्तिमाहे गुं सुख हशे ? ते मुक्तीथी तो ऋषी कहे डे के, कपाल वनमाहे सीयाल जन्म्यो होय तो नलो ॥ वरं वृंदावने रम्ये, शृगालत्वं सदैव हि ॥ न तु वैशेषिकी मुक्तिं, मे मतिर्गतुमिन्नति ॥ ५ ॥ ॥नव अनिनिदि एहवा बोल, बोले ते गुणरहित निटोल ॥ जेहनें नहीं मुगतिकामना, बदु संसारी तेह उरमना ॥ ७६ ॥ अर्थः- नवयनिनंदि लक्षणवंत जे कह्या , ते मुक्ति उबापवाने एवा बोल बोले , तेने गु परहित कहियें, अने निटोल, निःश्रूक कहिये, जेहने मोदनी कामना ए टले वांडा नथी, ते उर्मना एटले माता मनवाला बदुल संसारी एटले अ जव्य अथवा कुर्नव्य कहियें. एतो जे चरमपुजलावर्त्तवर्ती होय, तेनेज मुक्तिकामना होय ॥ उक्तंच ॥ मुरकासनवि न तस्स, हो गुरुनाव मलप्प हावेणं ॥ जह गुरुवाहिविगारन, जा पहा ससम्मं ॥ ६ ॥ ॥ इंडियसुख ते उखनुं मूल, व्याधि पिंमिगण अतिप्रतिकूल ॥ इंडियन त्तिरहित सुख सार, उपसम अनुनवसिम नदार ॥ ७७ ॥ अर्थः-पहे लां मोद सुखरूप साधे , इंडियसुख जे जे ते उखनुं मूल , ते व्याधि प्रतिकार , कुधायें पीडित होय तेवारें जोजन करवं जनुं लागे, तृषायें होठ सूकायें, तेवारे पाणी पी नलु लागे, हृदयमांहे कामामी दीपे ते Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वारें मैथुननी इडा ऊपजे, ए व्याधिना औषध बे. तेने सुख जाणे बे ॥ मि य्या यत् सूक्ष्म कुधार्त्तः सन् साक्षी कवलयति मांस्या कवलितान. तृषा यु व्यत्यास्ये पिबति च सुधास्वा इसलिलं ॥ प्रदीतेकामानो निजहृदि वृषस्यत्यथ वधूं, प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥ १ ॥ इंडियवृत्तिरहित ध्यानसमाधिजनित उपराम सुख े. तेहज ( सार के० ) निरुपचरित बे. ते एक रागद्वेषरहित थइ यात्मामांहे जोइयें ते अनुभव सिद्ध बे ॥ उक्तं च प्रशमरतौ ॥ स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यंतपरो दमेव मोक्षसुखं प्रशमसु खं प्रत्यचं न परवशं नचाप्राप्तं तथा यत् सर्वविषयकांकोद्रवं सुखं प्राप्यते थारोगेण तदनंतकोटि गुणितं मुधैव जनते वीतरागः ॥ इत्यादि ॥ ८७ ॥ ॥ तिहां न्यास मनोरथ प्रथो, पहिलां खागें नवि परकथा || चंद्रचंडिका शीतल धाम, जिम सहजें तिम ए सुखधाम ॥ ८८ ॥ अर्थः- ते उपश मसुख मांलां न्यास ने मनोरथ तेनी ( प्रथा के० ) विस्तार होय ॥ दृष्टंचा मासिकं मानोरथिकं च सुखं लोकेऽपि ॥ पढी निर्विकल्पकसमाधें प व्यनी कथाज न होय ॥ उक्तंच ज्ञानसारे ॥ परब्रह्मणि मनस्य, श्लाघा पौलिक कथा ॥ कामीचामीकरोन्मादाः, स्फारा दारादराः क्वच ॥ १ ॥ अन्यासमाश्रित्याप्युक्तं प्रशमरतौ ॥ यावत्परगुणदोषपरिकीर्त्तने व्यावृत्तं म नो वति ॥ तावद्वरं विशुस्यैव व्ययं शक्तो मनः कर्त्तुं ॥ १ ॥ चंदनी चंडिका जेम सहेजे शीतल होय तेम आत्मस्वनावस्वरूप उपशम जे बे ते सहे सुखनुं गम ने ॥ ८८ ॥ ॥ तरतमता एहनी देखियें, यति प्रकर्ष ते शिव लेखिये || दोषावरण तणी पण हाण, इम निःशेष परमपद जाए ॥ ८‍ ॥ अर्थः- ए शम सुखनी तरतमता उत्कर्षापकर्ष देखे, जे प्रतिप्रकर्ष ते ( शिव के० ) मोह लेख वियें. दोषावरणतली हाणे पण तरतम नाव बे. जे निःशेष ते परम पद जाण ॥ उक्तंच ॥ दोषावरणयोहनिः, शेषारूपतिशायनात् ॥ क्वचिद्यथा स्वहेतुच्यो, बहिरंत लक्ष्यः ॥ १ ॥ इति प्रष्टसाहरुयाम् ॥ दुःखीनावथी प सिने सुख कहेतुं ॥ ८ ॥ ॥ दुखहोवे मानस शारीर, जिहां लगें मन तनु वृत्ति समीर ॥ तेह टले खनासे सुख, नहिं उपचार विशेष मुख्य ॥ ५० ॥ अर्थः- ज्यांगें म न तनु वृत्ति रूप (समीर के० ) वायु ते विस्तारवंत होय त्यांलगें मननुं Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्थान स्वरूपनी चोपाई. ३०७ अने शरीरनुं फुःख होय, तेह टले. तेवारें निस्तरंगसमुसमान आत्मदशा होय ते फुःख नहीं. नपचार विशेषे ते (सुरक के०) सुख । नक्तंच ॥ प्रशमरतौ ॥ देहमनोवृत्तिन्यां नवतः शारीरमानसे उःखे तदनावात दजावे सि सिदिसुखं ॥ ए॥ ॥ सर्व शत्रुदय सर्वज रोग, अपगम सर्वारथ संयोग ॥ सर्वकामनापू रित सुरक, अनंतगुण तेहथी सुखमुरक ॥ १ ॥ अर्थः-कोइने घणा श त्रु तेमांथी एक शत्रुनो क्ष्य थयो सांजले तो तेने कहे, सुख थाय ? ते वारे सर्व शत्रुनो क्य यवाथी महासुख होय तेमां गूं कहेवू ? तेम सर्व रागादि शत्रुदयजनित अतिशय सुख मोमांहे . तथा शोल रोग समय रूपना होय ते मांहेलो एक रोग टले तेवारें घणुं सुख ऊपजे, अने शोले रोग टले तैवारें पूरुंज सुख पजे. तेम सर्व कर्मव्याधिविलयजनित सि ने सुख , जेमाटे एक अर्थयोगे जे सुख नपजे तेथी सर्व अर्थयोगें अ नंतगुण सुख उपजे. तेम सर्व अर्थ सहेजगुण सिदिजनित सुख मोदमा हे जे, जेम एक इजा पूर्ण थातां जे सुख उपजे, तो सर्व श्वा पूर्ण थातां तो तेथी अनंतगुणुंज सुख होय. एम सर्व अनिबारूप वैराग्येबा पूर्ण थतां अनंत सुख सिने ने. ॥ नक्तं च ॥ विंशिकायांतें॥सवं तु सञ्चवाहि, सबक सञ्चसिद्धांऊं खय विगमजोगपत्तीहि ? होश्तत्तोअणंतगुणं ॥१॥इत्यादि ।' हवे अनंतमोदसंख्या केम ले ? एवं पूछे , तेहनो उत्तर कहे . ॥ घटे न राशि अनंतानंत, अदतनवनें सि६ अनंत ॥ परिमित जीव नयें नवरिक्त,थाये जन्म लहे कश मुक्त ॥ ए॥ अर्थः-सिघना जीवो नी संख्याराशि अनंत जे ते घटती नथी. एवा प्रश्ननो उत्तर कहे जे के, अनंतानंतराशि (नव के० ) संसारी जीवोनी , ते ( अदत के० ) आ खो अनें सिपण अनंत बेत्रण कालना समयनी अनंत संरख्या डे,तेथी जीवोनी अनंतसंख्या घणी महोटी , माटे एमां कशो बाध नथी. जे म ते ते परिमित जीवसंख्या कहे , तेना मतें तो संसार खाली थवो जो श्यें. नहींकां मोदमाहेथी जीव इहां पाना आववा जोयें ॥नक्तं च ॥ मु तोपि वाज्येतु नवं नवे वा, नवश्व शून्योस्तु मितात्मवादे ॥ षड्जीवकार्य तुअनंतसंख्यं, नाष्यं तथा नाथ यथा न दोषः॥१॥ इति स्याहादमंजी॥ ज्यारे ज्यारे नगवंतने पूबीये त्यारे त्यारें एवं कहे के एक निगोदनो अनंत Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. मो नाग मोदें गयो एहवे अनंत जीववादीय किगुं बाधक नथी॥ ए२ ॥ ॥ थया अने थासे जे सिम, अंशनिगोद अनंत प्रसि ॥ तो जिन शा सन शी नवहाणी, बिंड गये शी जलधे काणी ॥ ए३ ॥ अर्थः-पूर्व कहेली वातनेज स्पष्ट करे . जे अतीतमायें सिम थया अने अनागत अक्षायें जे सिह थाशे ते सर्व मली एक निगोदना अनंतमा नाग प्रमा ण सि६ थाशे. तो जिनशासनमांहे शी हाणी ? संसारसमुश्माहेथी एक बिंड गयाथी शी काणी ? ए संख्या उत्कर्षापकर्ष निमित्त नथी: अती तामाथी अनागतामा अनंतगुण ले सो पण सर्व मली एक निगोद जीवने अ नंतमें नागे जे. ए परमार्थ जाणवो ॥५३॥ ॥ व्यापकने नवि नवनी सिदि, बांधे बोडे क्रियविवृद्धि ॥ पण तनु मित आतमं अमें कहूं, तिहां तो सघलुं घटतुं लहूं ॥ ए४ ॥ अर्थःसर्व व्यापक जे आत्मा माने , तेने परनवें जावु नथी. तेवारें न संसार अने न मोद एम घटे, पण अमे तो आत्मा (तनुमित के०) तनु एटले शरीर ते प्रमाण मानीयें बैयें. तिहां तो सघद्धं ए घटतुंज लहिये जैयें. जेहवं गति जात्यादिकने घटतुं धान बांधे तेहने ते उदय यावे तेवारें ते क्षेत्रे जीव जाय. वक्रगति होय, तो आनुपूर्वी तिहां खपावी आणे. मोदें तो पूर्वप्रयोगादि कारणे समयांतरें प्रदेशांतर अणफरसतो नियतस्था ने उपजे. तिहां शाश्वतानंदघन थ रहे सही ॥ ए४ ॥ ॥ योग निरोध करी जगवंत, हीन त्रिनागवगाह लहंत ॥ सिक्षिशिला कपर जश् वसे, धर्मविना न अलोकें धसें ॥ ५ ॥ अर्थः-केवलझानी जगवंत यावर्जीकरण करी, योगरुंधी चरमनवें जेटलुं शरीर तेनी त्रिनाग हीनावगाहना पामतो सिमशिला ऊपरें जश्ने वशे. इहां कोई पूजे के, ते थी आगल केम जातो नथी? ते ऊपर कहे बे, के (धर्मविना के०) धर्मा स्तिकाय विना अलोकाकाशमांहे धसे नहीं ॥५॥ ॥ जिहां एक तिहां सिम अनंत, पय साकरपरें नले एकंत ॥ रूपीने जलतां सांकडं, रूपरहितने नवि वांकडं ॥ ए६ ॥ अर्थः-जिहां एक सि ६, तिहां अनंता सिह , दूध साकरनी पेठे एकता जले जे. एकांत ए पण एकदेशिदृष्टांत रूपीने माहोमांहे जलतां सांकडं होय, पण रूपर हितने जलतां किगुंयें वांकडुं नथी ॥ धर्माधर्माकाशादिवत् ॥ अत्रगाथा॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३०० जब एगो सिद्धो, तब यता जवरकयविमुक्का ॥ यन्नुन्नमाहाबाहं, चि हंति मुहीमुहेपत्ता ॥ १ ॥ ए६ ॥ ॥ काल नादें सिद्ध नाद, पूर्व अपर तिहां होय विवाद ॥ जव निर्वाण तो क्रम योग, शाश्वत नाव यपर्यनुयोग ॥ ७ ॥ अर्थःसंसारी टलीने सिद्ध थाय बे, तेवती सिद्ध जे बे, ते यद्यपि सिद्ध नावें प्र थम बे, पण कालनी अनादिता बे, तेमाटे प्रवाहें अनादिसिद्ध कह्या. ति हां पहेला कोण ने पढी कोण ए विचार न होय. निर्वाणनो अनुक्रम योग कहेवाय नहीं. शाश्वता जावनो पाटो उत्तर नथी. एमज पहेलां कू की के पहेला सुं ? रात्रि पहेलां के दिवस पहेलां ? इत्यादि नाव श्रीनग वतीसूत्रमध्ये ह्या बे, जे ऋण वर्त्तमानत्वं पाम्यो ते प्रतीत थयो. पण मां पहेली प्रतीत समय कह्यों, एम कहेवाय नहीं. तेम संसारी टल्यो ते सिद्धथयो, पण तेमां पहेलो कोण प्रवाहें एम न कहेवाय. अनादिसि-६ अनादिसिद्ध तो कहियें. व्यक्त न कहियें. ॥ नक्तं च विंशिकायां ॥ एसो श्राणामचिय, सुधोयत श्रालाइ सुमुत्ति ॥ जुत्तोथ पवाहेण, ए यन्नहासु समं ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ ७ ॥ ॥ मोहतत्त्व इम जे सदहे, धर्मेमन थिर तेहनुं रहे || मुक्ति वा ते मोटो योग, मृत क्रियानो ए संयोग ॥ए८ ॥ अनिर्वाणवादी गतः ॥ अर्थ - एमजे परीक्षा करीने मोहतत्त्व सहहे, तेनुं धर्मने विषे मन थिर रहे. जे मुक्तिनी वा ले ते मृत क्रियाना रसने संयोगें महोटो योग बे चरमपुज पराधकादिकने नारें जे कर्ममल होय ते तेहने न होय ॥ नक्तंच विंशिकायां ॥ मुरकासवि एब, होइ गुरुनाव मलयपनावेणं ॥ जहगुरु वाहिविग्गरे, जार्जव सास नस्सासं ॥९८॥ अनिर्वाणवादी निरस्त थयो ॥ ॥ नास्तिक सरिखा जाषे अन्य, बे निर्वाण उपायें शून्य | सरज्युं होसे लहेनुं तदा, करो उपाय फिरो नर सदा ॥ एए ॥ अर्थः- दवे अन्यवा दी नास्तिक सरखा जाखे बे के, निर्वाण वे पण तेनो उपाय शून्य बे. यह बायें होय, जेवायें सरज्युं हशे तेवारें लहें. ते कहे बे के, जे माटे ( नर के० मनुष्य तमे उपाय करो, सदाइ फरो पण मोह तो सरज्युं हशे तेवारें मलशे ॥ नक्तंच ॥ प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयोर्थः सोवश्यं नवति नृणां शुनोऽशुनोवा ॥ नूतानां महति कृतेपि हि प्रयत्ने, नानाव्यं जवति न नाविनोऽस्ति नाशः ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ दर्शन झान चरण शिव हेत, कहो तो श्यो पहिलो संकेत ॥ गुण विण गुण जो पहिला लह्या, तो गुणमां जा वह्या ॥ १० ॥ अर्थः- मोदना उपाय रूप दर्शन झान चारित्र जो मोद हेतु कहो बो तो श्यो संकेत ? गुण जो गुणविना लह्या तो गुणमाहे वह्यां झुं फ रोबो ? जेम गुणविना नवितव्यतायें गुण पाम्या तेम मोद पण पामशो. जो एम कहेशो के पहेला गुण शक्तियें हता ते काल परिपाकें व्यक्त थया, तो नव्यनी शक्ति मोक्षजावनी . ते कालपरिपाकें व्यक्तं प्रगट थाशे. कार एनो तंत किहां रह्यो. इत्यादि घणी युक्ति ॥ १० ॥ ॥ मरुदेवा विण चारित्र सिम, जरह नाण दरपण घर लि६ ॥ थोडे कष्टे सीधा केश, बदुकष्टें बीजा शिव ले ॥ ११॥ अर्थः- वली एह ज वात कहे जेः- मरुदेव्याजी अत्यंतवनस्पति मांहेथी निकली क्यारें ध म न पाम्या. क्रियारूप चारित्र पाम्या विना जगवदर्शन जनित योगस्थैर्य ज अंतरूत सिम थयां. जरतचक्रवर्ति दीदा ग्रह्याविनाज नावना बलें द पण घरें ज्ञान पाम्या. माटे जो क्रियाकप्टेंज मोद पामे तो तउत्कर्ष होय ते तो नथी. तेमाटे केटला एक नरतादिक थोडे कष्टें सिम थया. केटलाए क गजसुकुमालादिक बटुकष्टं मोद पाम्या ॥ १०१ ॥ ॥ जेहनी जेहवी नवितव्यता, तिम तेहने होइ निःसंगता ॥ कष्टसहे ते कर्म निमित्त. नियति विना नवि साध्य विचित्त ॥ १०२ ॥ अर्थःमाटे जेहने जेहवी नवितव्यता ले, तेहने तेम ते प्रकारे (निसंगता के०) मोद लान होय , जेटलुं कष्ट सहेवू ले तेटलुं वेदनीयादि कर्म निमित्त बे, नहीतो श्रीमहावीरने घणा उपसर्ग थया अने श्रीमन्निनाथ प्रमुखने कोइ उपसर्ग न थयो, ते केम मले ? नियतिविना विचित्र साध्य न होय. थतएव प्रत्येकबुद्धसिक्षादिनेदस्तथानवितव्यतेति ललितविस्तरायां ॥१०॥ ॥ ज्ञानीयें दीढं तिम जाणि, दीठा नवमां वृद्धि न हाणी ॥ काया क ष्ट करो गुं फोक, क्रिया देखाडी रंजो लोक ॥१०३ ॥ अर्थः-जेम झा नीयें दीढं ने तेम थाय एम निश्चय करी न जाणे, दीवा नवमांहे वृद्धि हानी थाती नथी उडो अधिको न थाय,तो झुं फोकट काया कष्ट करो बो, क्रिया देखाडीने लोकनें रंजो बो, जे कष्ट करशे तेहने अने जे कष्ट नहीं करशे तेहने पण ज्ञानीय जेटला नव दीठा ले तेटलाज था. उक्तंच ॥ नि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३११ यतिक्षात्रिंशिकायां ॥ ज्ञानमव्यनिचारं चेहिनत्वे मा श्रमं कृथाः ॥ अथ तत्राप्यनेकांते जिनतां स्मतु को नवान् ॥ १०३ ॥ ॥ काम जोग लंपट इम नणे, कारण मोद तणा अवगणे ॥ कारज बे ने कारण नहीं, तेहने ए दति मोटी सही ॥ १०४ ॥ अर्थः-एम जे वादी कामनोगना लंपट , ते पूर्वोक्त रीते जणे . ते वादी मोद तणा जे कारण डे, तेने अवगणे, उवेखी नाखे बे, तेहने ए क्षिति म होटी . एटले महोटुं दूषण , के जे कार्यरूप मोद तो बे, अने तेना कारण नथी. एम तो स्वप्नवृत्तिज व्याघात होय.ए दंमथी कार्य कारण ना व साचुं मानवो ॥ १०४ ॥ ॥ वायसताली न्याय न एह, सरजे ती सघले संदेह ॥ जो सरज्युं जं पे निसदीस, अव्यभिचारी\ सी रीस ॥ १०५॥ अर्थः-ए (वायसता ली के ) काकतालीय न्याय कहीयें. जेम कागडो उमनार अने ताल फ ल पडनार, एम नहीं समजबु. जेमाटे नियतान्वयव्यतिरेक . जो सर ज्युं थाय एम कहियें तो सघले संदेह थाय. केम सरज्युं हशे, प्रवृत्ति तो इष्टसाधनतानिश्चयथी थाय. जो सरज्युं रात्रदिवस कहियें बैये, तो घटा दिकनो अव्यनिचारि कारण दंमादिक डे, तेनी साथें शीरीश करशो! ते म मोदना कारण ज्ञानादिक पण सदहवा ॥ १०५॥ ॥सरज्युं दातुं सघले कहे,तो दंमादिक किम सहहे ॥ कारण नेली सरजि त दीत, कहितां विघटे नवि निज इह ॥ १०६ ॥ अर्थः-जो सर्वत्र स रज्युं दीहूं कहे , तो दंमादिक घटादिकना कारण केम सहहे. सरज्युं ते तत्प्रकारक सिमृदायेज. तेणें तो बाह्य कारण सर्व अन्यथा सिम थाय.ए में करी ॥ जं जहा तं जगवया दिलं, तं तहावि परिणम ॥ ए सूत्रव्या ख्यान थपं. जेमाटे केवलझान ते व्यापक बे, कारण नथी. तेहज कहे बेः-कारणनेली सरजित दीतुं एम कहेतां तो निज इष्ट विघटे नही जे माटे दमादि कारण सहितज घटादिक सरज्या . एम कहेतां ज्ञानादि कारण सहितज मोद सरज्यो ॥ १०६ ॥ ॥ तृप्ति हशे जो सरजी हशे, नोजन करवा गुं धसमसे ॥ पापें उद्यम आगल करे, धरमें शुं सरज्युं उच्चरे ॥ १०७ ॥ अर्थः- अथवा अव्यनि चारी चोरपारदारिकनी साथे पण युं रीश करें बे. तेतो सरज्यु ले तेज Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. करे ले. वली जो सरज्युंज लश्श तेवारें तो सरज्युं हशे तेवारें पोतानी मे ले तृप्ति थशे. जोजन करवाने शामाटे धसमसे ले ? ए प्रमाणे जोतां तो पा पना जेटलां कार्य , ते ते कार्यनां जे जे कारण ने. तेने सेववाना उद्य मने पागल करे बे. कृष्यादिक धारंज करतां तो पाबो जोतो नथी. पण धर्मनी वेलायें गलीया बलदनी पेरें थइ रहे बे, अने सरज्युं हशे ते थाशे एम मुखमांथी गुं उच्चरे ले ॥ १० ॥ ॥ पहेला गुणजे गुणविण थया, पाकी नवथितिनी ते दया ॥ थया जेह गुण ते किम जाय, गुणविण किम गुण कारज थाय ॥ १० ॥ अर्थः-पहेला गुणविना गुण थयो पनी गुणगें काम ते पर कहे :पहेला जे गुणविना गुण थया ते पाकी नव स्थितिनी दया . एटले ते नवस्थिति परिपाक कार्य जाणवू. हवे ते थया जे गुण ते गुंजाय ? केम रहे तेवारें अनन्यथा सिनियतावस्थिति पणे कारण केम होय? गुणविना गुणकार्य ते केम थाय ? ॥ स्वाव्यविहितोत्तरोत्पत्तिकत्व सामान्याधिकरण्यो जयसंबंधेन गुण विशिष्टगुणत्वाव चिन्नं प्रति गुणः कारणं तदन्यगुणप्रतिकाल विशेष इति तत्वम् ॥ १० ॥ ॥ एक उपायथकी फल पाक, बीजो सहजें मालविपाक ॥ करमतणो इम जाणी नेद,कारणमां गुं आणो खेद ॥ १०॥ अर्थः-नवस्थिति परिपाक तेपण आत्मनिष्ठ तथा नव्यता पर्याय ते गुणविना केम थाय? ते ऊपर कहे -एक उपायथी फलनो पाक थाय ने पलाल प्रमुखमां घाली ने अकालें आंबा पचवीये. बीजा सहेजें मालथकीज पाका होय डे, एम कर्मविपाकें एक पाय होय जे, अने एक सहेजे जे. ए कारणना नेद जा पीयें बैयें. माटे कारणमा प्रायें शो कारण खेद आगोबो? केटला एक सहेजें थया तो हवे उद्यम शो करिये, एम मु मुंजा डो? ॥ १० ॥ ॥ अथवा गुणविण पूरव सेव, मृङतर माटे होइ ततखेव ॥ तिम नवि गुणविण सिदि गरिष्ठ, तेहमां बदलां कह्या अरिष्ट ॥ ११॥ अर्थःअथवा अपुनर्बधकादिक्रिया ते पूर्व सेवा ले ते मृतर कार्य थाय तेमाटे गुणविना पण होय (तेम के० ) तेणीपरें ( ततखेव के०) तत्काल गरिष्ठ सिम गुणविना केम? जेम महाविद्यानी सिदिमां वेतालादिक ते तेम त्कृष्टगुण सिदिमां बदुलां अरिष्ट होय ते गुणविना केम टले ? अतएव श Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्रस्थान स्वरूपनी चोपाई. ३१३ मदमादिमंतने अधिकारिता ते जाणी मार्गप्रवृत्तें शमदमादि संपत्ति अन्यो न्याश्रय शास्त्रकारें टाल्या . अतुलशमदमादिमंतने अधिकारिता प्रवृत्ति विशिष्ट शमादि सिदिए अनिप्राय ॥ ११० ॥ ॥ जरहादिकनें बांकी पंथ, राजपंथ किरिया निग्रंथ ॥ उवटे जातां को इ गयो, तोपण सेर न तजीयें नयो ॥ १११॥ अर्थः-जरतादिक कि या कया विना नावनायेंज मुक्ति पाम्या, ते पंथने मीने पंथ एटले रा जपंथ ते निग्रंथक्रियाज कहियें. जे माटे कोक उवाटे जातां गयो खूटा णो नहीं. तोपण नस्यो सहेर (नगरं.) न त्यजीयें, ए शुक्ष व्यवहार जे. अतएव नरताद्यवलंबन ले जे क्रिया न दे दे, तेने शास्त्रमा महापातकी कह्या जे. रोग घणा, औषधपण घणा, एम मार्ग निन्न निन्न बे, पण राज मागे व्यवहारज सदहियें ॥११॥ ॥ तीरथसिदादिकनो नेद, नियित तिहां नवि क्रिया नछेद ॥ जाणीक प्ट सहे तप होइ, करम निमित्त न कहियें सोई॥११॥ अर्थः-ती र्थसिद अतीर्थसियादि नेद नियति प्रमाणे डे, पण क्रिया नछेद न होय तत्कालें तत्सामग्री जनक होय. हवे जे एम कडं के, कष्ट करवू ते कर्म निमित्त , ते ऊपर कहे जे-जाणी कष्ट खमे ते तप होय पण कर्मवेदना मात्र नही. अतएव ॥ देहउरकमहाफलेंहोझात्वेति शेष कह्यु.यान्युपगमिक औपक्रमिक कुरवसहन गुण तेहज तप. तेहथी गुणवृद्धि अने गुणाप्रतिपात होय, क्रियानुं पण एहज फल ॥अवदामच ॥गुणवष्यै ततः कुर्यात् क्रियांस कलनामयीम् ॥एकं तु संयमस्थानं,जनानामवतिष्ठते॥अतएव मार्गाच्यवन निर्जरार्थ परितोष्टव्याः दरी जहा इति तत्वार्थे प्रोक्तं पुःखस्यानादित्वात्तध्ययोऽ नादेयश्चेत्कर्मणोऽनादित्वात्तन्मोदोपि तथा स्यात् स्वनावेसमवस्थानेन दुःख तत्सहनसंकल्पश्चेत् मोदे नवेच सर्वत्र निःस्टहो मुनिसत्तम इतिवचनात्तदा मोसंकल्पोऽपि नेति तुल्यमदः॥ ११॥ ॥ बहु इंधए बहु कालें बले, थोडे कालें थोडं जलें ॥ अमितणी जिम शक्ति अनंग, तिम जाणो शिवकारण रंग ॥ ११३ ॥ अर्थः-कोई घणे कालें मोदें जाय , कोई थोडे कालें मोदें जाय . ते केम? ते ऊपर कहे जे-जेम घणा इंधन होय ते घणे कालें बले, अने थोडं इंधन होय ते थोडे कालें जले, पण अग्नीनी शक्ति अनंगज ले. तेम शिवकारण ते Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. झानादिकनो संग जाणो. क्रमे बहुकाल दपणीयने साधन बटुकालें खपा वे.स्तोककाल दपणीयने साधन स्तोककालें खपावे.तथा स्वनाव ते उनयता तथा नियत . जो जोगवेज कर्म खपता होय तो केवारे को मोदें जाय ज नहीं. चरमशरीरने पण शास्वादनादिक अपूर्वकरणांतने अंतःकोटाकोटि प्रति समये सात कर्मनो बंध . माटे कमें यथोचित कर्मसाधने जीव मोदें जाय इम सहहीयें ॥ ११३ ॥ ॥ दंमादिक विण घट नवि होश, तस विशेष मृउनेदें जो ॥ तिम दल नेदें फलमा निदा, रत्न त्रय विण शिवं नवि कदा ॥ ११॥ अर्थः-दंमा दिक विना घटादिक केवारें नीपजे नही. पण (तस विशेष के ) घटादि विशेष ते उपादान कारण जे मृत्तिका विशेष तेथी होय. तेम रत्नत्रयविना मोद कदापि न होय पण फल जे तीर्थकरातीर्थकरादि सिहावस्थारूप तभेद ते (दलनेदें के०) जीवदल ने होय. ॥ नक्तं च विंशिकायां ॥णय सञ्च हेन तुन, नवत्तं हंदि य सबजीवाणं ॥जंति ऐवय रिकत्ता, णो तुना दंसणा श्या॥१॥ विचित्रदर्शनादिसाधनोपनायकविचित्रानंतरपरसिक्षाद्यवस्थापर्या योपनायक तथा नव्यत्वेतरकारणादेपक मुख्य कारण धारदुं ॥ ११४॥ ॥ सिदि न होय कोइ निजव्रत थकी, तोपण मत विरचो तेह थकी॥ फलसंदेहें पण कृषिकार, वपे बीज लहि अवसर सार ॥११५॥ अर्थःकोई निजव्रतयकी चारित्रादिक क्रियाथकी कर्मवैगुण्यादिकें, सिम न होय तोपण ए मोदसाधनथकी विरचसो मां, जेमाटे फल संदेहें पण (कषिकार के० ) करसणी जे जे ते सार अवसर वर्षाकालादि लश्ने बीज वपे ने, एटले वावे . अग्रिमकालनावि पवननैर्गुण्यादिसामग्री विघटक जाणी विरचता नथी. नहि फलावश्यं नाव निश्चयः प्रवृत्तौ कारणं किंतु प्रकते इष्टोपायत्वनिश्चय एव ॥ ११५॥ ॥ हेतुपणानो संशय नथी, ज्ञानादिक गुणमा मूलथी ॥ तेमाटे शिवत यो उपाय; सद्दहजो जिम शिवसुख थाय ॥११६॥ इति अनुपायवादीग तः ॥ अर्थः-एहज कहे ः-ज्ञानादिक गुण जे मोद साधन , तेमां हेतुपणानो संशय नथी. सामान्य व्यनिचार अनुगता गुरुधर्मारोपस्थिति विना अन्वयव्यतिरेकें ज्ञानत्वादिके कारणता निश्चय . जे मोदे गया , तथा जे मोदें जाशे, ते ज्ञानादि त्रय साम्राज्ये, अतएव प्रकाशशोधराप्ति Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चोपाई. ३१५ छारें ज्ञान तप संयमने मोदहेतुता अवश्यकें कही ॥ नाणं पयासयंसो, हर तवोसंजमो अ गुत्तिकरो ॥ तिएह पि समागे, मुरको जिणसासणे नगि ॥ १ ॥ ए गाथायें कारगना प्रकाशादि व्यापार अर्जवा मोदार्थी प्रवर्ते, ए मोदनो उपाय सहहजो. जेम सत्प्रवृत्ते शिवसुख थाय ॥ ११६ ॥ ए अनुपायवादी गयो. एम मिथ्यामतिना ब स्थानक थया. ॥ ढाल ॥ चाल ॥ हवे नेदगुणना नांखीजे॥ए देशीमां॥ मिथ्यामतिनां ए षट थानक, जेह त्यजे गुणवंतो जी ॥ सूधुं समकित तेहज पामे, इम जाखें जगवंतो जी ॥ नयप्रमाणथी तैहनें सूजे, सघलो मारग साचो जी ॥ लहे अंश जिम मिथ्या इष्टी, तेहमां को मत राचो जी ॥ ११७ ॥ अर्थः- ए मिथ्यामतिना स्थानक थयां तेमां एक नास्तिकवाद, बी जो अनित्यावाद, त्रीजो अकर्तृवाद, चोथो अनोक्तवाद, पांचमो मोक्षा नाववाद अने हो अनुपायवाद, ए , वादने जे गुणवंत त्यजे, ते सूधुं समकित पामे. तत्त्व परीक्षाजन्य अपाय रूप ज्ञान तेहज समकित . उ कंच ॥ संमतौ ॥जं जंतत्त परिस्सा,सदहमाणस्स नाव नावे ॥ पुरिसस्ता नणिबोहे, दंसण सदो हव जुत्तो ॥ १ ॥ षटस्थानविषय तत्तत्प्रकारक झानें सम्यक्त्ववंत जगवंत न थाय. सम्यदृष्टी ते अंशधशथी केवली , तेने नयप्रमाणे करी सघलो मार्ग साचो सूजे, अने मिथ्यादृष्टी ते एक अंशने तत्त्व करीने ग्रहे. बीजारांहेष करे,माटे तेमांहे कोइराचशो मां॥११७ ॥ ग्रही एकेक अंश जिम अंधत,कहे कुंजर ए पूरो जी ॥ तिम मिथ्या त्वी वस्तु न जाणे, जाणे अंश अधूरो जी ॥ लोचन जेहनां बिहुँ विकस्व र, ते पूरो गज देखे जी॥ समकितदृष्टी तिमज सकल नय, सम्मत वस्तु विशेषे जी ॥ ११॥ अर्थः- जेम कोश्क अंधो पुरुष ते हाथीनो को इएक अंश ग्रहीने ए कुंजर , एम सदहे. जे गजना दंत ग्रहण करे, ते हाथीने मूलकप्रमाण कहे, जे झूम ग्रहे ते दंप्रमाण कहे, जे कर्ण ग्रहे ते सूपडा प्रमाण कहे, तेम मिथ्यात्वीपण वस्तुनो यावत्कर्म माने , ताव कर्ममान पूर्ण जाणे नही, अधूरो एक अंशनेदादिक जाणे, परंतु जेहना बेदु लोचन विकस्वर बे, अनुपहत , तेतो गजने करचरणदंताद्यवयवें, संस्थानरूपादिकें विशिष्ट पूर्ण देखे. सकलनयसम्मत वस्तु , ते विशेष जेम सम्यग्दृष्टी नयवादमां उदासीन थ रहे, न निंदे, न स्तवे, कारण Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. विना नयनाषा एम बोले ॥ उहारिणिं अप्पियकारिणिंच, नासं न नासि ज सया सजुको ॥ इति वचनात् ॥ ११७ ॥ ॥ अंशयही नय कुंजर कल्या, वस्तु तत्व तरु नांजे जी ॥ स्यादवाद अंकुशथी तेहनें, आणे धीर मुलाजे जी ॥ तेहनिरंकुश होये मतवाला, चालाकरे अनेको जी ॥ अंकुशथी दरबारें गजे, गाजे धरिय विवेको जी ॥ ११॥ अर्थः- नयरूप कुंजर , ते एकेक अंशग्रही उन्मत्त थका कल्या जे, ते वस्तुतत्त्वरूप (तरु के०) तदने नांजे . अने जे धीर पु रुष , ते अंशयाही नयरूप कुंजरने स्यादवाद अंकुशे मुलाजे आणे, वश करे. अने निरंकुश थश्ने निरपेक्दथको चालतो मतवालो होइने वेदांतादि वादमाहे प्रवेश करीने, अनेक चाला करे, जेम हाथीपण निरकुंश होय, तो हाट घर प्रमुख नांजी नाखे, स्वतंत्रथको वनमांहे फरे, अने जो तेने अं कुश होय तो ते अंकुशथी दरबारें बाजे, विवेक धरी पट्टहस्ती थइ गाजे, तेम इहांपण जे स्याहाद अंकुशे शीखव्या, ते श्रीजिनशासनरूप राजधार जे तिहां आप बलें गाजे ॥ ११ ॥ ॥ नैयायिक वैशेषिक विचस्या, नैगमनय अनुसारें जी ॥ वेदांती संग्र हनय रंगी, कपिल शिष्य व्यवहारें जी ॥ जुसूत्रादिक नयथी सौगत, मी मांसक नय नेलें जी ॥ पूर्ण वस्तु ते जैनप्रमाणे, षट्दर्शन एक मेलें जी ॥ १२ ॥ अर्थः- नैयायिक अने वैशेषिक ए बे दर्शन नैगमनयने अ नुसारें विचस्या. ते पृथग् नित्यानित्यादि इव्य माने, प्रथिवी परमाणुरूपा नित्या कार्यरूपात्वनित्या ए प्रक्रिया नैगमनय ते नयध्यात्मक जे.एकत्र प्रा धान्येनोपक्रमात् मिथ्यात्वम् ॥ उक्तंच॥दोहिंवि एएहिं सन, मुलूपयतहवि मिबत्तं ॥ जं सवि सम्मप्पहाणं, नरोण अहमण निरवेरकं ॥१॥ तेम वेदांती संग्रहनयनें रंगें चाव्या, जेमाटे ते शुक्षात्मव्य माने जे ॥ नक्तंच ॥ दतिय नयपडिसुझा, नयएण संगह परूवणाविस तथा कपिलशिष्य पच्चीश तत्त्व प्रक्रिया मानता व्यवहारनये चाल्या. नक्तंच ॥ जं काविलेय दरिसण, एयंद चयिस्स वेत्तवं ॥ व्यवहार ते इव्यार्थिक नेद ले. तथा सौगत ते चोथा जुसूत्रादिक नयथी थया. सौत्रांत्रिक, वैनाषिक, योगाचार, माध्यमिक, ए अनुक्रमे जुसूत्र, शब्द, समनिरूढ अने एवंनूत नयथी थया. तथा मी Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदस्थान स्वरूपनी चोपाई. ३१७ मांसक उपलदणे वैयाकरणादिक नयनेलें नयसांकर्ये थया, अने पूर्ण एट ले पूरण नय नंग प्रमाणे वस्तु पदर्शन नये एक मेलवी जैनप्रमाणे . जमिन ईसण, समूहम अस्स इत्यादि वचनात् ॥ १२० ॥ ॥ नित्यपदमां दूषण दाखे, नय अनित्य पक्षपाती जी ॥ नित्यवाद मांहें जे राता, ते अनित्य नयघाती जी ॥ मांहो मांहे लडे बे कुंजर, नां जे निज कर दंतो जी ॥ स्यादवाद साधक ते देखे, पडे न तिहां नगवंतो जी ॥ ११॥ अर्थः- अनित्यनयना पक्षपाती दणिकवादी बौदादिक डे ते नित्यपदमाहे दूषण दाखे . अंकूरादिजनकाजनकत्वादिविरोधे ६ गिक बीजादि थापे . सदृशदणदोषे अनेदग्रहादि उपपादे दे तथा जे नित्यवादमाहे राता बे. ते अनित्यनयना'घाती बे. ते एकांतें नित्य था त्मादिक माने जे ते माहोमांहे बे हाथी लडे , अने लडतां थकां पोता ना कर जे सुंम तथा दांत तेने जाजे . अने जे स्याहादसाधक डे, ते ते मनी लडाइ देखे बे. पण जगवंत तिहां पडे नही. उदासीन रहे. उक्तंच॥ अन्योन्यपदप्रतिपदनावाद्, यथा परे मत्सरिणः प्रवादे ॥ नयानशेषान विशेषमिबन्नपक्षपाती समयस्तथा ते ॥१॥ इति द्वात्रिंशिकायाम् ॥११॥ ॥ छूटा रत्न न माला कहियें, माला तेह परोयां जी॥ तिम एकेक दर्शन नवि साचा, आपहि थाप विगोयां जी ॥ स्यादवाद सूत्रं ते गूंथ्या, समकित दर्शन कहियें जी॥ समुश् अंशनी समुह तणी. परे, प्रगट नेद हां लहियें जी॥१२॥ अर्थः-लूटा रत्नने माला पर्याय न कहिये, जे वारें परोयां होय तेवारें माला पर्याय कहियें. तेम एकेक दर्शन लूटा , ते एकांतानिनिवेशे साचा न कहियें. याज आप विगोयां , ते स्या हादसूत्रे गुंथ्या होय, तेवारें सम्यग्दर्शन कहीयें. स्यात्कारें एकांतानिनि वेश टले. जेम मालाकारने पुष्पादिक सिम, तेहनी योजन रूप व्यापा र मात्र मालाकार अधीन ले. तेम सम्यग्रदृष्टीने सिहदर्शनने विषे स्या झाद योजनमात्र व्यापार . तावताजितं जगत्. समुश्वेशने समुश्मां जेटलो नेद तेटलो इहां नयप्रमाणमां प्रगट नेद जाणवो. उक्तंच ॥ ना स मुझे समुशेवा, समुशंशो यथोच्यते॥नाप्रमाणं प्रमाणं वा, प्रमाणांशस्तथा नय ॥१॥इति ॥ गीतार्थे सत्य कहेलुं चित्तमा नावियें ॥ १२ ॥ ॥ वचन मात्र श्रुत ज्ञाने होवे, निज निज मतावेशो जी ॥ चिंता Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. झाने नय विचारथी, तेह टले संक्वेशो जी ॥ चारामाहें अजाणी जिम कोर, सिममूलिका चारे जी ॥ नावनझानें तिम मुनिजनने, मारगमां अ वतारे जी ॥ १२३ ॥ अर्थः-वचनमात्र जे श्रुतज्ञान तेहथी निजनिज मतनो (आवेश के०) हठ होय जे पुरुष जे नयशास्त्र सांगलें, ते चिंता मान, बीजुं विचाररूप तेहथी हत टले, संक्वेशरूप विचार जन्य सकलन य समावेशज्ञाने पक्षपात टले, तेणे स्वानुग्रह होय, नावनाझान ते देश कालाद्यौचित्ये परानुग्रह शक्त जे, तेवी रीतें देशनादीये जेम परानुग्रह थाय, उत्सर्गापवादसार तादृश प्रवृत्ति होय" केयं पुरिसे कंचण ए इत्या यागमानुसारात्” पुरुष पशुरूप थयो तेहने स्त्रीयें जेम बायानो चारो व्यंत रवचनें चराव्यो.जेवारें संजीवनी औषधी मुखमांहे आवी तेवारें स्वरूप प्रगट थयु. तेम नावनाज्ञानवंत सजुरु ते नव्यप्राणिने अपुनर्बधकादिक क्रिया मां तेरीतें प्रवावे. जेरीतें तेने सम्यग्दर्शनरूप संजीवनी औषधी आवे, के जेथी तेनुं निश्चयरूप प्रगट थाय. मिथ्यात्वमय पशुरूप टली जाय. उक्तंच षोडशके ॥ श्राद्य इह मनाक् पुंस, स्तदारा दर्शनग्रहो नवति ॥ न नवत्यसौ हितीये चिंतायोगाद् यद्यपि चारिचरकचारणा विधानं ततश्चर मे सर्वत्र हि तादृशीस्तिगांनीर्यात् समरसापत्यापश्रोसत्यतमनावि ॥ उदक अमृत सरखां कह्यां . उक्तंच ॥ उदकपयोमृतकल्पं, पुसां मऽझान एव मारय । तविधिमत्त्व चतुर्गुरुर्विषयतृरूपहारिनियमेन ॥ १२३ ॥ ॥ चरण करण माहे जे अति राता, नवि स्व समय संनाले जी ॥ नि ज पर समय विवेक करी नवि, आतमतत्व निहाले जी॥ सम्मति मांहे कडं तिण न लयुं, चरण करणनो सारो जी॥ तेमाटे ए झान अन्यासो, एहज चित्त दृढ धारो जी॥ १२ ॥ अर्थः-जे साधु चरणसित्तरी क रणसित्तरी मांहेज अत्यंत राताडे, स्वसमयव्यवहारथी स्व सिद्धांतार्थपरि झाननिश्चयथी जडश्रुति विचारजन्य आत्मविवेक न संजारी, निजपर विवे क अण पामी, शुक्षात्मस्वरूप न निहाले, तेणें संमुग्धजीवाजीवादिज्ञा ने क्रिया कीधी. पण चरणकरणनो सार न पाम्यो. जेमाटे गुइत्मझाननो सार चरणकरणादिसाधन बे, ते तत्कारणीभूत नव्यत्वगुझिछारें उपकारी बे. मिथ्याझानोन्मूलननुं कारण तत्वज्ञान , साधनमांहे पण ज्ञान अंतरं ग बे, क्रिया बहिरंग , ए सर्व संमतिग्रंथ मध्ये कयुं बे. तथा गाथा ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थान स्वरूपनी चौपाई. ३१० चरणकरण पहाणा, ससमय परसमय मुक्कवावारा ॥ चरणकरणस्स सारं, याति ॥ १ ॥ श्रीदशवैकालिक मध्येपण "पढमं नाणं त दया ” ए उपदेश बे. तिहां ज्ञान ते चारित्रोपयोगें षड्जीवनिकायानें संमु धपरिज्ञान एम जाली मनःसंतोष करवो. जेमाटे तेहनी हेतु स्वरूप प नुबंध्यादि शुद्ध करवी. ते परीक्षारूप निश्वयज्ञान विना न होय. नि श्वयज्ञाननेंज निश्चय चारित्र यावे. नक्तंच याचारांगे ॥ जं सम्मति पास हा, तं मोति पासदा ॥ जं मोति पासहा, तं सम्मति पासहा ॥ इत्या दि एम कहेतां गीतार्थ साधु क्रियादंत बे, तेने चारित्र नावे. कोइ कहे शे के, एम को कहो हो ? तेने कहियें के, जो गीतार्थ निश्चय न होय, तो नहींज यावे. जो गीतार्थनो निश्चय होय तो उपचारें चारित्र होयज. न तं ॥ गो य विहारो, बीउ गीयबनिस्स हो नलिउ ॥ इतो त विहारो, नाणुन्नाहो जिएलवरेहिं ॥ १२४ ॥ ॥ जिनशासन रत्नाकरमाथी, लघुकपर्दिका माने जी ॥ उदरि एह नाव यथारथ, आप सकति अनुमाने जी ॥ पण एहने चिंतामणि सरिखा, रतन न खावे तोलें जी ॥ श्रीनय विजय विबुध पय सेवक, वाचक जस इम बोले जी ॥ इति श्री सम्यक्त्व चतुष्पदी समाप्ता ॥ लोकगिरासमर्थित नय प्रस्थानपट्स्थानकव्याख्या संघमुद्दे यशोविजय श्रीवाचकानां कृतिः ॥ अर्थः- ( जिनशासन के० ) प्रकरण परिसमासें एटले जिनशासन रूप रत्नाकर ते मांहेथी ए पद्स्थानक नाव न इरिवं. ए उद्धार ग्रंथ यथार्थ a. जिनशासनरत्नाकरने लेखे ए ग्रंथ लघुकपर्दिका मान बे. अने रत्नाकरतो अनेक रत्नें खो . ए उपमा गर्व परिहारने खर्थे करीबे. पण शुनाव एवा विचारियें तो चिंतामणी सरखा रत्नपण एने तोले नावे. ग्रंथकर्त्ता गुरुनामांकित यश एवं पोतानुं नाम कहे छे, एटले श्रीनय विजय विबुधना पदनो सेवक वाचक श्रीयशोविजय उपाध्याय एणीपरें बोले बे ॥ १२४॥ इतिश्री सम्यक्त्व चोपई समाप्ता ॥ श्रीराजनगर एटले अहमदाबाद नगरने विषे तिहां प्रसिद्ध जे हेमश्रेष्ठित श्रीताराचंदनाना तेनी प्रार्थना थकी लोक जाषायें करी नयप्रस्थान एटले नयमार्ग तेणे करी षट्स्थानकनी व्याख्या श्रीसंघने हर्षने काजें श्रीयशोविजयजीनी कृति जाणवी ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. संतोष विषे सोरता. ॥ हियंडा कर संतोष, होणहार ते होयसी ॥ दैव न दीजें दोष, बेहा लान न मियें ॥१॥ दोहा ॥ नांहि सुख संतोषबिन,कोटी करो उपाय ॥ चक्रवर्ति हू उःखीन्है, देव सु अधिक दिखाय ॥२॥ मानि न तामें दुःख सु ख, नांहि वस्तुमें रंच ॥ पदार्थको नहिं अंत कबु, कर संतोष प्रपंच ॥ ३ ॥ नूप असंतोषी उखी, सुखि विरक्त संतोष ॥ कहौ सौख्य कामें र हत, सब मनहीको तोष ॥ ४ ॥ ज़बलौं नहि संतोषहिय, तबलों कुःखी सोई॥ जब संतोष नयो उदय, तासम सुखि नहि को ॥ ५ ॥ विरक्तता में सुख रहत, तस कारण संतोष ॥ जो यति व्है आशा करै, तौ तस खको दोष ॥ ६ ॥ जब दमडीकी चाह नइ, तब दमडीको होय ॥ जब दमडीकी चाह गइ,तब सम दीपत सोय ॥ ७ ॥ प्रापतिमें कडं हर्ष नहिं, शोक हानिमें नांहि ॥ सो संतोषी जानियें, लेश दुःख नहिं तांहि ॥ ७ ॥ देव विषे सोरता. ॥जाता तणां जुहार, वलतातणा वधामणा ॥ दैवतणो व्यवहार, मे लिये के मिलियें नहीं ॥१॥ दोहा ॥ सरवर केरे दीहडे,कंठो कंठे नीर ॥ दैव संयोगे विधि वसें, कग्यामांहि करीर ॥ २ ॥ दैवह रूठो झुं करे, नाडं उथले कूध ॥ के वेस्या घर पातवे, के रमडावे जूध ॥ ३ ॥ दैव न काढू तें टरत, लिख्यो करै सो सत्य ॥ विधिने दैव कियो प्रगट, तांहि न त्यागत नित्य ॥४॥ दैव कर्म वश है जगत, दोमें आदी कौन ॥ याको करौ बिचार जन,सुख पावदुगे जौन ॥५॥ दैव नांहि इतही अधिक, दैव देवमें श्रेष्ट ॥ देव दैववश पुनि गिरत, नोग न पुनी अनिष्ट ॥६॥ देव न होवै अन्यथा, कथा सुनो जगमांहि ॥ राम दैव वश वन फिरे, रावण नाश करांहि ॥७॥ प्रीति विष दोहा. ॥प्रीति रीति कलु औरहै, जाणे जाणणहार ॥ गुंगे गुड खाया तेणो, स्वाद कहे झुं बार ॥ १ ॥ प्रीत मेह अरु मोरडी, आवत दे यति मान ॥ पुकारि के जगमें कहत, थावत मेह महान ॥ ५ ॥ मेह पिडानत मो र नहि, मोर करी तस प्रीत ॥ पुर्व जन्मके कर्मथें, होत प्रीत अस रीत ॥३॥प्रीत प्रीत सब जन कहै, जुदी प्रीतकी रीति ॥ लोह चमक जड दोन पें, देखत चलत सुनीति ॥४॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. अथ ॥ गुर्जरभाषासहित दृष्टांतशतकस्य प्रारंनोऽयम् ॥ ३२१ ॥ शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ॥ नत्वा श्रीकृषनं सदा वृषधरं सौख्याकरं सुंदरं, देवेंादिनुतं मुनींम हितं पौरस्त्यतीर्थंकरम् ॥ श्रोतॄणां प्रतिबोधकं सुखकरं दृष्टांतकानामहं, कुर्वे काव्यशतं निजापरनृणां व्याख्यानस देतवे ॥ १ ॥ अर्थः- ग्रंथकर्त्ता मंगलाचरणने खर्थे श्रीतीर्थंकरने नमस्कार करे बे. जे निरंतर वृष जे धर्म तेने धारण करनार, सुखना नंमार, तथा सुंदर मनोहर रूपवंत, वली दे वैदिकें जेमने नमस्कार करेलो बे, घने पुंमरीकादिक महामुनियें जेम नुं पूजन करेलुं बे, एवा जे प्रथम तीर्थकर श्रीकृषनदेव भगवान तेमने ग्रंथकर्त्ता कहे ने के, हुं नमस्कार करीने, सांभलनारने बोधनुं करनार, त या नव्यजीवने मांगलिकनुं करनार एवं धने पोताने तथा अन्यजनोने व्याख्यान करवानां रूडा कारणमाटे दृष्टांतना सो काव्यनी अर्थात् दृष्टां तशतक नामा ग्रंथनी हुं रचना करूं बुं ॥ १ ॥ तिहां संसारसुखने मधाबंडुनी उपमा दईने पहेलो दृष्टांत कहे ते. ॥ कश्चित्काननकुंजरस्य जयतो नष्टः कुबेरालयः, शाखासु ग्रहणं चकार फणिनं कूपे त्वधो दृष्टवान् ॥ वृक्षो वारणकंपितोऽथ मधुनो, बिंदू नितो जेटि स, लुब्धश्वामरशब्दितोऽपि न ययौ संसारसक्तो यथा ॥ २ ॥ अर्थः- कोइक पुरुष, वनमां जतां कोइक हाथीने देखी तेना जयश्री नागे. ते जेवारें हा थी तेनी नजीक श्राव्यो, तेवारें ते पुरुष कुबेरालय एटले कुबेरस्य यालयः कुबेरालयः अर्थात् वडनी पासेना कूवामां लटकती एवी एक वडवृनी जे माल, तेने ग्रहण करतो हवो. एटले नयथी याकुल थयेलो थको कूवा मां लटकती वडवाइने पकड़ी अधवचाले लटकी रह्यो. तेवार पछी ते पु रुष हेतुं जुवे बे, तो कूत्राने विषे चार महोटा सर्प ( अजगर ने ) देखतो ह वो खने ऊपर जोयुं तो, जे वडवाइने ते पोतें पकडी रहेलो बे. ते वड वाइने एक कालो बंदर ने बीजो धोलो नंदर एवा बे नंदर कापे बे. ली तेनी उपर एक वडनी मालें महोटो मधुपूडो वलगेलो बे. एवा सम यमां हाथीयें खावीने ते वडवृने कंपायुं. एटजे धंधोल्युं. तेथी मधुपू व ४१ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. डानी माखी नडीने ते पुरुषने करडवा लागी. वली मदयाल पण फूटी पज्यो. तेमाथी रहीरहीने मधुनो बिंद्र ते पुरुषना ललाट पर पडवा लाग्यो. ते रेलो मतरतो तरतो ते पुरुषना होत पर आव्यो. तेने तेणें जीने करी चाव्यो. तेवारें मीठाश आवी, पनी ते वारंवार पडता एवा मधुना बिंदू-मां आसक्त थयेला पुरुषने विमानमां बेसी जनारा को दे वतायें विद्याधरें बोलाव्यो. अने कह्यु के, हे पुरुष ! तुंआ विमानमां बे श, अने महारी साथै चाल, ढुं तुमने था कष्टमांथी बोडावं. तोपण ते पुरुष मधुबिंदूना वादनी लालचें, लोनाणो थको, ते देवतानी साथें न जातो हवो. तेम जीवपण संसारमाहे मधुबिंदूसरखा अल्पसुखनी क पर आसक्त थयो थको, देव विमानप्राप्तिसमान धर्मनो अंगीकार करतो नथी. ए कथा इहां संदेपथी कही . विस्तारें बीजा ग्रंथोथी कहेवी. ॥ दोहा ॥ जंबूस्वामी प्रतिबूजवे, मंकरो हर मुमनार ॥ नर लुब्धो मधुबिं दुए, तिम ढुं न रहुँ संसार ॥ १ ॥ मधुबिंदू संसारसुख, जाणी बांच्या आज ॥ साधुपणुं विमानसम, लीजें अविचल राज ॥२॥ इति कथा॥ हवे अनेकांतवादि एवा एक श्रीजिनधर्मविना बीजापांचे दर्शनवाला ए कांत वादी,ते ऊपर हाथीने जोनारा पांच बांधलानो बीजो दृष्टांत कहे जे. ॥ पंचांधा गजदर्शनार्थमगमन् कर्णाघ्रिगुमाधिज, पुबान वीदय गजं व दंत्यथ मिथो दृष्टो मया कीदृशः ॥ शूर्पस्तंनकदव्ययोधवलवच्चकुर्विवादं जडा, स्तछत्सर्वमतानुगा मदयुता सर्वांगवादी जिनः ॥३॥ अर्थः-को एक पांच बांधला पुरुषो हता ते हाथी जोवाने अर्थे हाथीनी पासें याव्या,ते वारें एक बांधलायें हाथीना कान ऊपर हाथ फेरव्यो,बीजायें पग ऊपर हाथ फेरव्यो,त्रीजायें झूम ऊपर, चोथे दंतोसल पर, पांच में पुन कपर एम हाथ फेरवी पाना यावी माहोमांहे हाथीनुं स्वरूप कहेवा लाग्या. तिहां जेना हाथमां हाथीनो कान वाव्यो हतो तेणें कयुं के, हाथी तो सूपडा सरखो , जेना हाथमां हाथीनो पग याव्यो हतो तेणें कह्यु के, हाथी देरासरना स्तन जेवो ने, जेना हाथमा संम प्रावी हती, तेणें कह्यं जे हाथी केलना स्तंन जेवो , जेना हाथमां दांत थाव्यो हतो, तेणें कह्यु के, हाथ। मुसल जेवो बे, अने पांचमाना हाथमां पूंबडं याव्युं हतुं, तेणें कह्यु के, हाथी वांसडा जेवो ने. एम ते जड मूर्ख मांहोमांहे विवाद करता Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टातशतक. ३३३ एके कयुं तुं खोटो हो, तो बीजायें कडं तुं खोटो बो, अने हुँ साचो बुं. एम परस्पर कहेवा लाग्या,तेम पांच मतवाला वादियो सर्व मदयुता एटले अहंकारें युक्त थका अकबक बोल्या करे ने माटे ते अंधसमान जाणवा, अने एक सर्वांगवादी अनेकांत पदनो धरनार ते तो जैनमत ३ ॥ ३ ॥ ॥ दोहा ॥ षटमत है संसारमें, पंच ते अंधसमान ॥ कश्क वस्तूने ग्रहे, जिनमत सबे प्रधान ॥ १ ॥ कालो सहाव नियर, पुवकयं पुरिसकारयं चेव ॥ समवाए सम्मत्तं, एगंतं होश मित्तं ॥ २ ॥ ३ ॥ हवे जे जे करे ते तेवू पामे तेंनी ऊपर दीवानो दृष्टांत कहे डे, ॥ श्लोकः ॥ संप्टष्टा विनुनैकदा निकटगाः कृष्णं कथं कळालं, नो व ादिषु कालिमा किल ततः प्राहैकधीमान्नृपम् ॥ ध्वान्तं जदति दीपकस्तु नृपते तेनैव कृष्णाञ्जन-माहारी मुवि यादृशो नवति वा नीहारकस्तादृशः ॥ ४ ॥ अर्थः- एकदिवसने विषे को राजाए पोताना सनामां बेठेला सनासदोने पूब्युं, के चराक दीवो बले ने तेनीकपर दीवानी सिंगे वाट मांथी जे कालुं काजल पडे बे. ते केम पडे थे? कारण के दीवा मांहे कपा सनी वाट ले तेतो धोली . तेमां कालापणुं नथी. अने वाली अनि , ते रातो, पीलो जणाय जे. अने, तेलपण रातुं पीयूँ बे. एमां कालाशतो देखातुं नथी. त्यारें एमां का काजल उत्पन्न भयुं, तेनुं गुं कारण? ते सां जली, एक विज्ञान सनामांहे बेठो हतो, तेणें राजाने क्रमु के, हे राजन, दीपक जे करायचे ते अंधकारनो नाश करवा माटे कराय डे. माटें ते दी वो अंधकारनुं नदण करे . तेथी कालुं काजल उत्पन्न थाय . जे कारण माटेलोकमांपण प्रसिदि के, जे जेवा रंगनो आहार करे,ते तेवाज रंगनो निहार पण करे, ए एनो उत्तर दे. तेम जे जन, जेतुं कर्म करे , तेने तेQ फल प्राप्त थायले. उक्तंच ॥ वर्तिस्तु धवला ज्ञेया, तैलं पीतं च दृश्यते ॥ दी पो रक्तस्तथा नाति, कऊले श्यामता कथम् ॥१॥ यादृशं नुज्यते चान्नं, पच्यते जठराग्निना ॥ दीपेन तमसं नुक्तं, नीहारोऽपि च तादृशः॥ २ ॥ इति ॥ ४ ॥ हवे जे पोतानी मेले पोतानां वखाण करे, पण गुण विना जगत व खाणे नहिं. तेनीकपर सूवर अने सिंहनो चतुर्थ दृष्टांत कहे . ॥ सत्रे कोडमृगाधिपौ च मिलितो ब्रूते हरिं शूकरो, वादं त्वं वद रे मया सह हरे नो चेन्मया हारितम् ॥ श्रुत्वा तचनं दरिर्गदितवांस्त्वं Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. याहि रे सूकर, लोकान्ब्रूहि मया जितो मृगपतिर्जानन्ति मे ज्ञा बलम् ॥५॥ अर्थः-एक वनने विषे सूवर तथा सिंह ए बन्ने नेला थया. त्यारे सिं हप्रत्ये सूवर कहे जे के, हे सिंह तुं घणा दिवसे मने मल्यो, माटे हवे मा री साथे वाद कर, अने जो वाद न करे तो एम कहे के, ढुं हास्यो, बने तुं जीत्यो, एटलुं कहीने पढ़ी जा. एवं वचन सांजली सिंहें विचायुं, जे था नीचनी साथै वाद करवो योग्य नथी. एम चिंतवी सूवरने कयुं के, अरे सूवर! तुं जा ने लोकोने कहे जे के में सिंहने जीत्यो अने सिंह हास्यो; परंतु हे सूवर जे विधान हशे ते मांहरी बुधिना बलने रूडी रीतें जाणे . कर्वा डे के,-'गह शूकर नई ते, वद सिंहो जितो मया ॥ पंमिता एव जानंति' सिंहशूकरयोर्बलम् ॥ १ ॥५॥ हवे नीचनो संग करवा कपर कागडांनो पांचमो दृष्टांत कहे जे. ॥नूपो वृक्तले स्थितस्तऽपरिस्थौ हंसकाको तदा, विटाकेन कृता नृपो परि शरं क्रोधान्नृपो मुंचतिलिम पदिपतेर्गतश्च बलिनुक् हंसोऽपतचूतले, तं दृष्ट्वाह नृपो मयोज्ज्वलतरो दृष्टोऽनुतो वायसः॥१॥ अर्थः-एकदिवसें कोइएक राजायें जाडनी हेठे पोतानो घोडो उनो राख्यो, अने पोते पण उनो रह्यो. एवामां तेज फाडनी ऊपर एक राजहंस तथा एक कागडो ए बन्ने पनि बेठां हतां तेमां कागडायें राजानां नज्वल वस्त्र देखीने तेनी ऊपर विष्ठा नांखी, तेनाथी वस्त्र खराब थयां, ते जो राजाने रीस चडी तेवारे कबाण जश्ने वाण फेंक्युं, ते वखतें कागडो उडी गयो अने ते बाण हं सने वाग्युं, तेथी ते हंस नीचे राजानी आगल आवी पडयो. तेनी सामे जोड्ने राजा बोल्यो के भावो उज्ज्वल कागडो में कोई दिवस जोयो नथी. ए अपूर्व वात देखाय . त्यारे हंस कहे जे के, हुँ कागडो नथी, हुं तो ज्वल हंस बुं; पण नीचना संगथी महारुं मृत्यु थयो . कह्यु बे के,-'नाहं काको महाराज, हंसोऽहं विमले जले ॥ नीचसंगप्रसंगेन, मृत्युरेव न सं शयः ॥ १ ॥ हंस तरंतो देखि के, तुं किम तरियो कग्ग ॥ तोरि पियारी जे करे, तले मुंडि पर पग्ग ॥ १ ॥ इति पंचम दृष्टांत ॥ ६ ॥ हवे जे जेतुं करे ते ते फल पामें ते उपर बहो चोरनो दृष्टांत कहे . ॥ उर्नेदाढयगृहेऽकरोनिशि हरः खातं च पद्मारुति, तन्मध्ये पितौ कमौ धनतृषा ज्ञातस्तदा स्वाधिपैः॥ यंतस्थैर्ग्रहणं पदोबहितरं मित्रैः कृतं Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३२५ हस्तयोः, खातान्तै निशितैः प्रपीडिततनुः संघृष्यमाणो मृतः ॥ ७ ॥ अर्थः-को न जेदाय एवा धनवंतना घरने विषे चोरो चोरी करवा थाव्या; पण ते घरने पाटीयां जडेलां हतां, तेमां एक चोरे खातर देतां पाटीयांमांहे कमलना जे आकार दीधुं. तेमां इव्यना लोनें जे चोरे खा त्र दीधुं हतुं, तेज चोरें पोताना बेदु पग नांख्या. ते वखते घरधणीयो जागी गया, अने तेमां रहेला मनुष्ये चोरना बन्ने पगने पकडी लीधा. त्यारे ते चोरे बाहार रहेला चोरोने कह्यु के, मने काल्यो , माटे बाहेर काहाडो. ते सांजली बहार रहेला चोरो ते चोरंने हाथें जालीने खेंचवा लाग्या. ते मज माहे रहेला पुरुषो तेने मांदेली कोरें ताणवा लाग्या.अने बाहेर रहे ला बाहेर तागवा लाग्या. एम बेतु तरफथी ताणाताण थवाथी कमला कार खात्रना तीक्ष्ण कांगराथी ते चोर पीडित थयो. तथा घर्षण पाम्यो बतो, तत्काल मरण पाम्यो.माटेजे जन जेवं कर्म करे, तेने तेवं फल मले.कर्दा डे के ॥ यादृशं क्रियते कर्म, तादृशं प्राप्यते फलम् ॥ यथा प्राप्तं तु चौरे ग, हस्तखातरुतेन वै ॥१॥ तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सक्कम्मुणा किन्नर पावकारी॥ एवं पया पिञ्च इहं च लोए, कमाण कम्माण न मुरक अधि ॥ ॥ इतिषष्ठी कथा ॥ ७ ॥ हवे तत्काल बुदि उत्पन्न थवाथी गई वस्तु पण लब्ध थाय डे ते ऊपर रीडनो अने मनुष्यनो पाठमो दृष्टांत कहे डे ॥ कस्याप्याध्वनिकस्य सत्रमिलितो जालुस्तदा तवृती गृह्णाति तदं बरं दितमतस्तस्याऽपि तन्नायकम् ॥ तत्रागत्य जडः किमस्त्ययमिति प्राह स्म वादिदंस प्राहास्य मुखात् प्रदेहि सुमते तेनाशु दत्तः करे ॥ ७ ॥ अर्थः-कोई एक वटेमाने वनने विषे मार्गे जतां एक रीब मल्यो. ते धावीने तेने वलग्यो. त्यारे ते पुरुषे रींबना बेहु कान पकड्या. तेथी ते रीजनुं कां जोर चान्युं नहीं. बेदु मांहोमांहे अफलावा लाग्या. आथ डते आथडते ते पुरुषतुं वस्त्र फाट'. तेवारे तेनी कटीयें सोनानी वास णी बांधेली हती तेमां जे सुवर्ण हतुं, ते बूटी हेग्ल पडद्यु. तेटलामां को ३ जड पुरुष त्यांआव्यो. तेणें पूज्यु के, या झुं पडयुं ले ? त्यारे तेने बुद्धि कपनी, तेथी जवाब आप्यो के, में रीउना कान फालीने अफलाव्या तेथी Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. एना मुखमांथी सोनैया निकल्या ते पज्या बे. तेवारे ते मूर्ख ते वात सा ची मानीने कडं के, हे रुडीबुद्धिवाला तुंथारीबना कानथोडीवार मने पण अफलावा दे. त्यारे तेणे तेज वखतें ते जडने रीबना कान पकडवा थाप्या, बने पोतानुं सुवर्ण बचाव्यु. कह्यु के, शीघ्रमुत्पद्यते बुदिः, साबुदि फलदा यथा ॥ नालुकौँ करे दत्वा,पांथेन रहितं च स्वम्॥१॥ इति सप्तमी कथा॥ हवे सीघ्रोत्तर बापवानी बुद्धिविषेत्रण पुरुषोनो आठमो दृष्टांत कहे . ___॥ केचिशजोपकएवं ययुस्त्रिपुरुषा नूपेन ते तत्कलाः, ष्टष्टा कचुरथो त्व रोत्तरकराः पश्चात्सनायां पृथक्॥कूच ते ह्यसितं कथं तव सितं सोऽवग्जरा पाण्डुरं, ऽन्यं ह्यस्मादितरं प्रधावनसितं कूर्च न मात्रंगकात् ॥ ए॥ य र्थः-कोइएक राजानीपासे चाकरी मेलववाने अर्थ त्रण पुरुषो गया तेम ने राजायें पूज्युं के,तमे कांश कला जाणो बो! त्यारे ते त्रणे जणें कह्यु के, हे स्वामी! अमे कोश्य करेला प्रश्नंनो तत्काल उत्तर प्रापवानी कला जा गीय बैयें. ते सांजली राजायें तेउने चाकरीमा राख्या. एक दिवस सना माहे परीक्षा लेवाने त्रणे जणोने राजायें जूदी जूदी रीतें प्रश्न पूब्युं. ते मां पहेलांने पूब्युं के, ताहरी माढीना वाल काला डे,अने माथाना वाल धोला ले तेनुं गुं कारण? त्यारे तेणें शीघ्र उत्तर याप्यो के, माढीना वा लथी माथाना वाल वीश वर्ष महोटा डे, कारण के दाढी तो वीश वर्षना माणसने थाय ने तेथी दाढीना वाल काला ,अने माथाना वाल धोला बे. पडी बीजाने राजायें पूब्यु के ताहरी दाढीना केश धोला , अने मा थाना केश काला डे तेनुं गुं कारण ? त्यारे तेणे पण तरत जवाब था प्यो के, साहेब दाढी वधारे धोवाय तेथी नज्वली रहे . पनी त्रीजाने पूब्युं के, ताहरे दाढी तथा मूब ए बन्ने नथी तेनुं युं कारण ? त्यारे तेणें पण तत्काल उत्तर आप्यो के में मातानो पद अंगीकार कस्यो , जेमाटे बोरं होय ते पोतानी माता सरखो अथवा पितासरखो होय तेथी हुँ म हारी माता सरखो रह्यो बु.॥५॥ कयु डे के न दृष्टं न श्रुतं येन, प्रश्नेट टे तउत्तरम् ॥ दीयते समहाप्राज्ञ, स्त्रिनिर्दत्तं नरैर्यथा ॥१॥ अष्टमो दृष्टांतः॥ हवे नाग्यहीनने आगल आवेलो पदार्थ पण मलतो नथी, ते ऊपर ब्राह्मण ने ब्राह्मणीनो नवमो दृष्टांत कहे . ॥ काष्ठार्थ ह्यधनौ च गलत तो गौर्या तु दृष्टौ तदा, प्राहेशं च सुखी कुरु Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३२७ त्वमबले नायं तु नैवैतयोः ॥ ययूयं कुरुथाश्च मुंचति तयोरये तदा कुम सं,नूमावंधगतिं तदग्रवगतावंधाविवापश्यताम् ॥ १०॥ अर्थ:-काइ एक निर्धन स्त्रीपुरुष काष्ट लेवाने माटे जाय ले ते समय एबेदु जणने पार्वती ये जोयां तेने जोई पार्वतीने करुणायावी तेथी शिवने कहेवां लाग्यां के हे स्वामी नाथ ! आ बेदु निर्धन स्त्रीपुरुषने तमो सुखी करो. त्यारें शिवजीयें कडं के हे अबला ! ए बेहुनुं रुडुं नाग्य ज नहीं,तो तेने आपणे शीरीतें सुखीया करी शकीयें ? त्यारे पार्वतीये कह्यु के जो आप तेने धनवान करो तो थाय. शंकरें ते वात स्वीकारीने ते बेहुनी आगल पोताना काननुं कुंम ल हतुं ते रस्तामा नांरव्यु. तेवारे ते नाग्यहीन स्त्रीपुरुष विचारवा लाग्यां के,अांधला मनुष्य रस्तामां केम चालतां हशे ? आपणे तेनो अनुनव करी जोयें. एम विचारी बेदु जण आंखो मीची चाव्या. तेथी रस्तांमां पडेलुं कुंमल तेमनी नजरें न पडयुं,अने कांक दूर जश्ने चनु उघाडी जोय. अ र्थात् ते जाग्यरहित स्त्रीपुरुषने जे स्थलें कुंमल पड्युं हतुं, ते स्थलें अंध मनुष्यने चालवाना अनुजवनी बुद्धि उत्पन्न थइ. कयुं के, नाग्यहीना न पश्यन्ति, नयनाग्रेऽपि मानवाः ॥ दंपतीन्यां यथा मार्गे, न दृष्टं कर्णनूषणम् ॥१॥ एम नाग्यहीन लोको नेत्र आगल पडेली चीजने पण जोता नथी. हवे पोताना स्वामीन चित्तेलित काम करनार मंत्रीनो दशमो दृष्टांत कहे जे. ॥ सत्रे राड्डरिणा कृतं च नृजलं गत्वा गतस्तत्स्थितं, दृष्ट्वा चिन्तितवान् सरो नुवि नवेत्तनदितं मंत्रिणा ॥ तेनागत्य सुकारितं यदि नृपः प्रोचे त दा मंत्रिणं, केनाऽत्रेदमतो मया स नृपते चित्तेप्सितं यत्त्वया ॥ ११ ॥ अर्थः-कोश्क राजा वनमा गयो. तिहां राजानो घोडो मूतस्यो. ते मू तथी खाबोचीयुं जराणुं. ते थंनाइ रह्यं, पण नूमीमांहे सूकाणुं नहीं. त दनंतर राजा वनमां सेहेल करी ज्यारे पाडो तेज स्थलें आव्यो. तो त्यां नहीं सूकाएलुं एवं मूत्रनुं खाबोचीयुं नजरे जोइने चिंतन करवा लाग्यो के, जो आ पृथ्वीनेविषे सरोवर होय तो जल सूकाय नहीं. ते राजानुं विचारेलु कार्य तेना मंत्रिय जाणी लीधुं, अने घरे आव्या पनी केटलाए क दिवसें मंत्रिय ते काणे सरोवर बनाव्यु. वली पण केटला एक दिव स पडी राजा ते स्थानकें आव्यो. त्यां सरोवर देखीने मंत्रीने केहेवाला ग्यो, के आ सरोवर कोणे खोदाव्युं ? त्यारे मंत्रियें कयुं के, हे राजन् ! ए Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सरोवर में खोदाव्यु. या वात सांजलीने राजायें मंत्रीने कर्यु के, हे मंत्री! तें मारा मननुं शखित जाण्युं, माटें तुं महाबुद्धिमान बो. कयुं के,-'थ न्येन चिंतितं कार्य, जानाति स विचक्षणः ॥ महामंत्री नवेशझो, यथानू स्स सरस्करः ॥ इति दशमदृष्टांतः ॥ ११ ॥ हवे मूर्खनी जणेली गाथा सांजलीने पडरने पण क्रोध चढे ते कपर पंकि तना हाटमांहेला परना तोलानोथगीयारमो दृष्टांत कहे . ॥ स्थित्वैकः कृतिहट्टके जडमतिः प्राहानृतार्थी कति, हट्टस्था सम शैलकाः सुचलिताः श्रुत्वा जडस्योंदितम् ॥ क्रोधानेऽकथयन्नरे जडमते त्वं याहि वकायतो, हस्ते कोऽपि बलं ददाति हि करिष्यामो रदोत्पाटनम् ॥ १५ ॥ अर्थः- को एक पंमितना हाटमां बेसीने कोइ एक जडमति खोटी गाथा नगतो हतो. तेवारे ते पंमित हाटमां हतो नहीं. पण ते जड नीकहेली गाथा सांजलीने हाटमां पांचसेरी अधशेरी प्रमुख पजरना तोलां पडेला हता, तेने रीश चढी. तेवारे ते क्रोधथी कहेवा लाग्यां के हे जड मति? अमारा मुख बागलथी उठीने तुं दूर जा. अमे पंमितनां तोलां जैयें. माटे अमारा बागल खोटी गाथा नवाथीथमने उलटीयावे , उबको आवे , एवामां जो कदाचित् ब्रह्मा अमारा हाथमा बलापशे, तो थ में ताहरा बत्रीशे दांत पाडी नांखयुं ॥ १२ ॥ कयुं के॥गाहा नाइंग मारो, पडरा थरहरंति दट्टममि ॥ पाडेमि दंतपकिं, चउक्त जे को हब बलं दे ॥ १ ॥ इति एकादश दृष्टांत ॥ १२ ॥ हवे मूर्खजन जो पोतानी मूर्खाइ बाहेर पडवाथी मुंजाइने अन्यदेशे जाय. तोपण तेनुं मूर्खत्व मटतुं नथी, ते ऊपर एक पुरुष, बारमो दृष्टांत कहे जे. ॥ कश्चित् स्वेष्टजना वदंति जड रे त्वं गब तिष्ठाथ वा, श्रुत्वा नागरि कास्तथादुर खिला रोषात् विदेशं गतः ॥ दृत्वाकस्ये स करं जलं पिबति तत् पूर्णोदरो मस्तकं, नार्या कंपयति प्रवीक्ष्य हि जडोसि प्राह कैलक्ष्णैः ॥१३॥ ॥ अर्थः- को एक मूर्ख मनुष्यने पोतानां मातापितादि सगा वहालां बोलावे त्यारे एम बोलावे के, हे जड! तुं बेस. अथवा हे जड ! तुं उनक जोरहे, अथवा हे मूर्ख परहो जा.एम नगरना लोको सांजलीने सर्व ते जड ने तेमज बोलाववा लाग्या. पण कोइ नाम ल बोलावे नहीं. तेथी ते मूर्ख ने रीश चडवाथी परदेश गयो,मार्गमां को एक नगरने पादर तरष्यो थयो. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० दृष्टांतशतक. त्यां रेहेट फरतो हतो ते देखी मोढे खोबो मांझी पाणी पीवा लाग्यो. नदर जराणुं त्यां सुधी जल पी . परंतु मोढेथी हाथ खसेज्या नहीं,अने मायूं हलावा लाग्युं. ते जोइ त्यां पाणी नरनारी स्त्रीय कर्यु के, तुं मूर्ख देखा य ले. तेने मूर्खे पूड ,जे तमोयें मारा कया लक्षणें मने मूर्ख जाण्यो? त्यारे स्त्री बोली के, जल पीवानो खोबो बाघो नहीं लेतां माथु धूणावे ,तेथी जाण्यो. कयुं के ॥ स्वदेशे परदेशे वा,यत्र गति मूर्खकः ॥ तत्रापि प्रक टं नाघि, यथा मस्तककंपकः ॥ १ ॥ इति बारमो दृष्टांत ॥ १३॥ हवें मूर्ख शिष्य करवो नहीं. तेकपर एक गोरजीना चेलानो तेरमो दृष्टांत. ॥ःस्थौ शिष्यगुरू विनेयक इतो जतायलब्धा वटा,झात्रिंशत् प्रमिताश्च चिंतयति मेऽः पंचक्रत्वो गुरोः॥ सोनित्ति तदाध्वनीह वटकस्तस्येदितोऽ न्याः क हे जग्धाः पूज्य मया कथं निजमुखे निक्षिप्य शेषोऽदितः ॥ १४ ॥ अर्थः- कोइएक नगरमां गोरजी अने तेनो चेलो बे रहेता हता. एक दिवसें ते शिष्य वोहोरवा गयो. त्यां कोश्य नक्तं बत्रीश वडां वोहो राव्यां. पडी रस्तामां ते शिष्य चिंतन करवा लाग्यो, के मारा गुरुनां अर्वा नागनां सोल वडां थाय.माटे हुँ अडधां नदण करी जान.एम मा नी अर्ध खा गयो, वली जरा रस्तामां बाघो चाल्यो, ने विचारवाला ग्यो, के गुरुने कांश खबर नथी. माटे गुरुनां नागनां आठ राखी पाठ खाइ जावं. एम चिंतवी तेमाथी आउ खा गयो. वली लगारेक आघो ज ६ चार वडां राखी, चार खाधां. वली चोथी वार पण बे खाधां ने बे रा रख्यां. वली पांचमी वार पण एक खाएँ, अने एक राख्यु. पड़ी उपाशरें श्राव्यो. त्यारें गुरुयें अन्नपात्र जोश ब्युं, के हे शिष्य ! एकज वडं कोणें वोहोराव्यु ? ने बीजां वडां क्यां गयां ? ते कहे. त्यारे शिष्य कहेवा लाग्यो के, मारा नागनो अडधो अडधो हिस्सो जाणीने एकत्रीश वडां खाधां डे, तेने गुरुयें पूर्षु के, ते वडां केम खाधां? त्यारे तेणें मोढुं फाडी एक वर्ल्ड मोढामां मूक्यु. ने गुरुने कह्यु,के महाराज जुआ, आम खाधां. कमु डे के॥ मूर्खशिष्यो न कर्त्तव्यो, गुरुणा सुख मिलता ॥ विडंबयति सोऽत्यंत, यथा हि वटनदकः ॥१॥ माटे मूर्ख शिष्य न करवो इतित्रयोदश दृष्टांत ॥१४॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हवे शमन होय, ते पण जो दयायुक्त होय, तो ते सारो;परंतु नि र्दय मित्र पण सारो नहीं. ते ऊपर चौदमो दृष्टांत कहे . ॥ चौरो निःस्वगृहे गतो हिम निशि प्राह प्रियं स्वाबला,त्वत्पाधैम्बरखेमकं जटिति वा तदेहि लाह्यर्नकम् ॥ नो गृह्णाति शिशुं ददाति न तदा इंच जातं तयोस्तत्त्वांबरकं शिशूपरि हरः दिप्त्वा गतेऽन्यालये ॥१५॥ अर्थःको एक चोर निर्धनना घरमां शियालाना दिवसमांरात्रिने विषे चोरी करवा पेठो. ते वखतें घरमां स्त्री पुरुष बेदु सूतां हतां. पनी टाढथी पीडाती स्त्रीय पोताना स्वामीने कयुं, के तमारी पासें लुगडांनो कटको बे, ते मने बापो, अथवा बोकराने व्यो, बालक टाहाडथी पीडाय ले. त्यारे तेणें बा लकने पण तेड्यो नहीं, ने लुगडानो कटको पण आप्यो नहीं. पनी ते बेदु जणने लडाइ थ. ते लडाइ जोश्ने चोरना मनमां दया आवी, तेथी तेणे पोतानुं वस्त्र बालक ऊपर नाव्यु. ने बीजाना घरमां चोरी करवा ग यो. कर्वा डे के॥ दयायुक्तो दरिशेऽपि, शत्रुर्हि सुखकारकः॥प्रविष्टे हि यथा गेहे, चौरेण ह्यर्पितं पटम् ॥१॥ इति चतुर्दश दृष्टांतः ॥ १५ ॥ हवे कार्य न थयानी पहेला लडवा ऊपर स्त्रीपुरुषनो पंदरमो दृष्टांत कहे . ॥ कोप्याह स्ववशां च सामि महिषीं त्वं साशु नाथानय, मातुर्डग्धतरी ददामि हि तदान्योऽन्यं विधत्तः कलिम् ॥ श्रुत्वागत्य विशारदेन हि घटा नमा महिष्याद ते, देत्रं मे यदि नदित न ललने यूयं कथं युध्यथ ॥ १६ ॥ ॥ अर्थः-कोशएक पुरुष पोतानी वशवर्ती स्त्रीने कहे ,के हे स्त्रि,हुँ श लावू ? त्यारें स्त्री बोली के हे स्वामिनाथ ! जलदी लावो, वली स्त्री क हे . मारी नेंशना दूधनी तर दुं माहरी माताने आपीश, त्यारें स्वामी कहे जे के, ते तर ढुं खाश्श. एवी रीतें बेहुने क्वेश थयो. ते क्वेश सांजली ने को बुद्धिमान पुरुष यावी तेना घरमां पडेलां माटीना नाम सर्वे नां ग्यां. त्यारे स्त्रीएं पूब्युं के, या वासण केम नांग्यां ? त्यारे ते बोल्यो, के मारुं खेतर तारी खाधुं. त्यारे ते स्त्रीपुरुष क्लेश पडतो मूकी कहेवा लाग्यां के हजी नेश क्या आणी ने ? त्यारे बुद्धिमान पुरुषे कयुं, जे नेश आव्या विना दूधनी तरनी लडाइ शामाटे करो बो ? ते सांजलीने ते बे दु समज्या. कह्यु ले के ॥ दोहा ॥ घरें नेश आणी नहीं, नांग्यां मोबर सात ॥ जगडो तो दंपति करे, दूध तरीनी वात ॥ १॥ एनो तो जगडो Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३३१ सुणी, बुद्धिवंत थाव्यो दोडी ॥ जगडो तेणें नांजीयो,मोबर सघला फोडी॥ हवे कौतुकार्थी पासे विधानोनी विद्या निष्फल थाय बे,ते कपर सोलमो दृष्टांत. ॥ नूपान्ते इविणेचया कृतिगमे दत्तं न किंचित्कदा, वीक्ष्येशो नरनाटकं बदु धनं तस्याशु सोवग्गतः ॥ गेहे तान् स्वजनान् न तत्र पठने यत्नस्तु कार्यो विदा, कर्त्तव्यं नटनाटकं च नवतां इव्यं नृपो दास्यति ॥ १७ ॥ थ र्थः-कोइएक पंमित व्यनी इलायें राजा पासें सेवा करवा आव्यो; परंतु घणा दहाडा सेवा करी तो पण राजायें कांश इव्य आप्युं नहीं. एवामां एक दिवसें राजायें नवायानी नवानोश्ने तेनुं नाटक देखी प्रसन्न थ घj इव्य ते नवाई करनारने आप्यु. एवं राजानुं चरित्र जो पंमित नी ची दृष्टि करी विचारवा लाग्यो के,आपणुं नए सर्वे निष्फल थयुं. त्यारे एकाएक पोताने घेर थावी पोतानां स्वजनने तथा शिष्योने कहेवा लाग्यो के, व्याकरण तर्क काव्य बंद अलंकारादि ग्रंथोना जणवामां यत्न न करो, एथी कां राजा रीके नहीं ने नवाया वगेरे नाटकनो अन्यास करो तो तमोने राजा रीजीने ऽव्य आपशे अर्थात् राजा विहान् नथी पण कौतु कार्थी ने कह्यु के ॥ विद्वांसः सावधानाः शृणुत मम वचो इव्यलोनार्थि नश्चे,गंतव्यं सादरेण दितिपतिनुवने नूपसेवां विधातुम् ॥ मीमांसान्यायतर्का गमविधिबहवो दूरतो वर्जनीयाः, शिदेतव्यास्तु शिष्या धिगधिगधिक्तातथल्या ति प्रशब्दाः ॥ १ ॥ इति षोडश दृष्टांत ॥ १७ ॥ जालमा लरव्यु मिथ्या न थाय ते कपर माथानी तुंबलीनो सत्तरमो दृष्टांत. ॥ केन श्रेष्ठिबहिःस्थितेन शवके दृष्ट्वार्यकावाच्यत, लात्वासद्मनि तुंबिकां प्रतिदिनं वै पश्यति स्रयेकदा॥तं पिष्ट्वा वटिका कता निजपतेर्मुक्तात्ति सोवन गुना, सेष्टा या अनवद् वरांगि लिखिते दोषो न ते मे वशे ॥१॥ अर्थःकोइएक शेठ बहार बेठेथके स्मशानमां पडेला शबनी तुंबली दीती. तेमां लखेली गाथाने जो वांचवा लाग्यो, ते वांचीने पनी ते तुंबलीने सुंमला मां नांखी, पोताने घेर लावी मूकी. ते तुंबलीने दिन दिनप्रत्ये जई जो वा लाग्यो. एकदा तेनी स्त्रीयें विचारां के, आ मारो स्वामी नित्य कोनी सामुं जुए ले ? तो त्यारें जुवे तो त्यां शबनी तुंबली नजरे पडी. पड़ी ते स्त्री ने रीश चढी, तेवारे तेणे ते तुंबलीने सइ खामी पीसी वाटीने तेमां बीजी चीजो मसालादिक नांखीने, तेनी वडी बनावी. अने पोताना स्वामीने ते Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनकथा रत्नकोष भाग पांचमो. वडीनुं शाक पीरस्युं. तेने ते वडी खातां तेनो स्वाद लाग्यो तेवारें तेनो स्वामी कहे या वडी बहुज सारी यइ बे. माटे शानी बनावी बे ? तेने ते स्त्री कवा लागी के, जे आपने वहाली वस्तु हती, खने जेनी सामुं निरंतर याप जोता हता तेनी या वडी बे. त्यारे शेठ बोल्या, के हे वरांगना, जे लख्युं हतुं ते युं. एमां मारो तथा तारो दोष नथी. पढी ते स्त्रीने सर्व वात प्र मी मामीने कही. हवे ते तुंबलीमां गुं लख्युं हतुं ते कहे बे ॥ गाथा ॥ जम्मो कलिंगदेसे, पाणिग्गदां मरुयदेसमऊंमि ॥ मरणं समुद्दतीरे, किं जाणे किं नविस्स ॥ इति सप्तदशदृष्टांत ॥ १८ ॥ वे कवि पूतां वार उत्तर खापे ते ऊपर घढारमो दृष्टांत कहे बे. ॥ पृष्टः केन गुरुर्हि विद्यति 'मनो नेत्रं कथं रोदिति, प्रोचे तं च गुरुर्म नोनयनयोर्नो व्यंजनावग्रहः ॥ वेदाप्रकरष्टथग्नवति त मनोनेत्रयोः, वेगृहे स्थितौ समसुखं लग्नाति तुल्यं तयोः ॥ १९ ॥ श्रर्थः - कोई श्रावकें गुरु पूधुंके, महाराज, जेवारें मनमां दिलगीरी पेदा थाय बे, तेवारे नेत्र रुदन करे बे. ते सांजली गुरु बोल्या, श्रोत्र, घाण, रसना घने स्पर्श ए चार इंडियाने पुद्गल ना स्पर्श थकी विषय जगाय, माटे ते व्यंज नावग्रह कहीयें, ने मन तथा नेत्रनो विषय पुद्गल स्पर्श्या विनाज ज era ते अर्थावग्रह जावो. ते माटे मननो तथा नेत्रनो अधिको स्नेह संबंध बे तेथी ज्यारें मन दीलगीर थाय, त्यारे यांख रुवे जेम एक घ रमां बेजल रहेतां होय त्यारे एकने डुखें बीजाने दुःख लागे. तथा एकने सुखे बीजाने पण सुख लागे. तेम मन तथा यांखनुं एकज घर बे. कयुं a || सिद्धांत शास्त्रष्वस्ति, नास्ति वाहि तथा परे ॥ सम्यक्प्रने कृते शीघ्रं प्रददात्युत्तरं कविः ॥ १ ॥ इति खढारमो दृष्टांत ॥ १९ ॥ हवे जाण्याने पोतानुं स्थानक देखाडवुं नही ते ऊपर जु ने मांकणनो उगणीसमो दृष्टांत कहे बे. ॥ सुप्तो राए निशि मत्कुणो गत इतोऽनूद्यूकया वारितः, प्राघूर्णेपि तवा स्ति मातृनगिनी प्रोचे तया मानितः ॥ तेने शो दर्शितस्तदा नृपतिना शय्या हि चालोकिता, लब्धा षट्पदिका हि मत्कुण इतस्तेनाशु सा मारिता ॥ २० ॥ अर्थः- एक राजा रात्रे सुतो हतो. तेनी शय्यामां मंद विसर्पिणी. नामे जुं रहेती हती. तेलामां एक डुंडक नामे मांकड त्यां खाव्यो. ते जोइ जुंये Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ दृष्टांतशतक. मांकडने कह्यु जे तु आवीस नहीं. माहरो स्वामी निशमां सूतो . त्यारे मांकड बोल्यो,के हुँ तमारे घर परोणो आवेल बुं. अने वली कह्यु,के तमे मारी मासी थाउ बो, माटे आव्यो . त्यारे जुंयें नोलवाने तेने आववा दीधो. माकणे यावी तुरतज राजाने करड्यो, त्यारे राजाये सय्या जोव रावी तो मांकड जतो रह्यो अने जुं हाथमांावी तेने तरत राजाना अनु चरें मारी नांखी तेमाटे अगलखीतो जो मीठा वचन बोले तो पण तेने पासें राखवो नहिं. पोतानी जगामां आववा देवो नहि,जो तेनो विसवास करीयें, तो ते मांकडनी पेरें बीजानी ऊपर नाखीने पोतें नासी जाय. का बे, के॥ श्लोक ॥अज्ञातकुलशीलस्य,न दातव्यं प्रतिष्ठया ॥ उंडुकस्या पि दोषेण, हता मंदविसर्पिणी॥१॥ ए गणीसमो दृष्टांत ॥ २० ॥ हवे बले करी जोला लोक गाय ते कपर वीशमो दृष्टांत. ॥ गुर्विण्यां निजयोषिति दितिपतिर्विप्रं तदा टन्नति, पुत्रं किं च सुता न विष्यति हि मे पुत्रो न हीत्यंगजा ॥ संलेख्य बदने ददौ नरपते. पुत्रो नवि ष्यत्यथ, पुत्री चेद्यदि वाशु दीर्घलघुकान वर्णास्तु वदये तदा ॥ २१ ॥ अर्थः-कोइएक राजाने पुत्र न हतो एकदा तेनी स्त्री गर्नवती हती, त्यारे ते राजायें कोइ एक ब्राह्मणने पूयुं, के हे महाराज, माहारी स्त्रीने पुत्र थशे, के पुत्री थशे ? त्यारें ब्राह्मणे बल करीने कयुं के, हे महाराज, ढुं तमोने कागलमां लखी थापीश. तेवात राजायें कबुल करी बने खुशी थयो. पडी ब्राह्मणे चिंतव्युं जे पुत्र अथवा पुत्री बेमांथी एक तो अवश्य थाशे. एम विचारीने कागलमा लरव्यु, जे “पुत्र नही पुत्री” एवं लखीने राजाने चीठी आपी. हवे ते लखवामां ब्राह्मणें कपट कयुं. जे पुत्र यावे तो पुत्र आव्यो. नहि पुत्री, एम वांचे अने जो पुत्री आवे, तो पुत्र, नहि. पुत्री एम वांचे. एवी युक्ति करी. कह्यु, के॥ ज्ञानहीना बहुमा , दृश्यते बलकारकाः॥कृत्वा बलं यथा राज्ञो,दत्तं लेख्यं धिजेन वै॥ ए वीशमो ॥१॥ थदाता पासे याचना करवी निष्फल थाय ते ऊपर एकवीशमो दृष्टांत. ॥हारस्थं गजचित्रकं ह्यलिरिहां दानस्य दृष्ट्वा गतस्तमे स्थितवान् तदा ह करिराट् चिंत्याशु तं षट्पदं ॥ यत्रालेदि कथं स्थितोऽसि जड रे दान प्रदा वारणा, स्ते सर्वेपि वने वसंति च गिरौ त्वं तत्र याहि पुतम् ॥२२॥ अर्थः- दरवाजाने विष चित्रेलुं हाथीनुं चित्र जोड्ने कोइ एक भ्रम Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैनकथा रत्नकोष भाग पांचमो. र मदगंधने जेवामाटे थाव्यो, अने ते हस्तीना गंमस्थलने विषे बेगे थ को, गुंजारव करवा लाग्यो. ते वखत एक कवि मनमां चिंतवन करीने ते चम रने देवा लाग्यो, के है मूर्ख चमरातुं हा केम वेठो बो? यांही तारो श्रर्थ सरशे नहीं. जेमाटे मदने यापे ते ए हाथी नथी. मद यापनारा सर्वे हा यो वनने विषे तथा पर्वतने विषे वसे बे. माटे मदगंधनी इवा होय, तो तुं उतावलो त्यां जा. कयुं बे, के ॥ श्लोक ॥ रे चंचरीक मदलोलकपोलवा सी, नित्तिस्थनागवदनेऽत्र कथं स्थितोऽसि ॥ ये दानदा घनघनाघनघोर शब्दा, स्ते वारणा वरतरा विपिने वसति ॥ २२॥ इति एकवीशमो दृष्टांत ॥ हवे मूर्ख साधें पंमितें वाद न करवा खश्रयी बावीसमो दृष्टांत कहे बे. ॥ मूर्खौ पथि गवतः कुसुंमितं ताच्यां पलाशडुमं दृष्ट्वा वक्ति हि पा टलंडमति मूर्ख नो पाटलः ॥ वादं तौ कुरुतो जडेन सुकविर्यष्टयादि निस्ताडितो, यष्ट्यामुष्टिवशाद्विमुंचं जड रे जो पाटलः पाटलः ॥ २३ ॥ अर्थः- कोई एक समयें मूर्ख ने पंमित ए वे जल मार्गने विषे चा व्या. तेटलामां रस्ताने मिषे एक पुष्पयुक्त खाखरानो वृक्ष जोयो. त्यारे मूर्ख मनुष्य कहेवा लाग्यो, के या पाडलनुं फाड के फल्यो फुल्यो बे. ते सांजली पंकित बोल्यो के, हे मूर्ख ! ए पाऊल टक् नथी पण पालाशवृद बे. तुं गुंजाणे ? तेवारें मूर्खायें कयुं के तुं गुंजाणे. ए पामल बे. एम वा द करवा लाग्या. तेवारें मूर्खने रीश चडी तेथी लाकडी लइने पंमितने मा रवा लागो. तेवारें पंमित बोल्यो, के मारीश मां मारना जयथी पंमित कहे वा लाग्यो के हाहा ए पामलवृक्क बे. जेम मुर्खायें कयुं तेम कबुल कयुं. माटे मूर्खानी साथे वाद न करवो. कयुं, बे के ॥ श्लोक ॥ पलाशं पुष्पितं दृष्ट्वा, मूर्खो वदति पाटलं ॥ यष्टिमुष्टिप्रसादेन, जो जो पाटलपाटलः ॥ जे स्त्री पोताना स्वामीपासे पोतानुं चलण करवानी इवा करे तेनी केवी दशा याय ते ऊपर स्त्रीपुरुषनो प्रेवीशमो दृष्टांत कहे बे. ॥ लात्वा स्त्रीं पथिको गृहात्प्रचलितो ह्यये सनीरां नंदीं, दृष्ट्वा साह धवं ममांत्रियुगले रंगोस्ति संगृह्य सः ॥ तस्याः पादयुगं हि कर्षति सरि तीरे गतः सा मृता, न्यस्ता मूढ कृतं किमाह तनुनृन्नष्टापि रंग स्थितिः ॥ २४ ॥ प्रार्थ:- कोई एक पथिकजन पोतानी स्त्रीने सासरेथी तेडीने पोताने गाम जतो हतो. चालतां थकां मार्गमां एक नदीने पूरें श्रावेली जोइने Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३३५ ', स्त्रीयें पोताना स्वामीने कयुं के, हे स्वामीनाथ या माहरा वे पगमां मेंदी गाडी ते जेम धोवाय नही अने मारा पगनो रंग न जाय तेम मुने ते डी जा. त्या ते पुरुष स्त्रीना वे पग हाथमां लइने उंचा राख्या, अने हाथ महोडुं यने नाकने पाणीमां राख्युं एवी रीतें तेने लइने जलमां चाव्यो. ते जेवारें नदीने कांठे उतस्यो तेटलामां स्त्रीना मोढामां तथा नाक कानमां जल नरवाथी स्त्री मरणशरण थइ. तेवारें जेवी रीते मुवेला ढोरने घसर डे, तेवी रीतें घसरडीने तेने बाहेर काढी, ते वखतें नदीने कांठे को मनु ष्य को रहेलो हतो ते कल्युं के, हे मूर्ख तें या गुं क ? जे माटे या स्त्री तो मरण पामी. तेवीरीतें तुं बंधे माथे घसडीने जलमांथी केम लाग्यो ? एक कार्य को ? त्यारे ते पुरुष बोल्यो के, में जे कयुं बे, ते जा एजयुं बेम के स्त्रीतो मरण पामी तेनो जीव गयो, परंतु तेना पगना दीनो रंगतो लालज रह्यो छे. कयुं ने के, ॥ दोहा ॥ मूढमति मारी प्रिया, यो नदीने तीर || देखी अन्य नर मांनीयो, कां कीयो जड पीर ॥ १ ॥ तेह प्रतें मूढ बोलीयो, कीधो एह प्रकार ॥ जीव गयो पण रंग रह्यो, मु ऊ मन एह विचार ॥ २ ॥ इति त्रेवीशमो दृष्टांत ॥ २४ ॥ जाय हीनने सर्वत्र दुःख थाय तेनो ऊपर चोवीसमो दृष्टांत कहे बे. ॥ ग्रीष्मे बरथो वने विवसनः प्राप्तोऽर्चिषा पीडित, वायां वीक्ष्य ग तोऽपि बिल्कतले, तत्के फलं याववत् ॥ तनुत्वा पततीति चिंतति तदा यामि क नग्नं शिरो, दुःस्थो गच्छति यत्र याति तदनु बायेव शीघ्रं विपत् ॥ २५ ॥ अर्थः- कोई एक दरी ने वली माथामां टाली पडेली एवो टाली यो पुरुष नमकालने विषे वस्त्ररहित सूर्यना तापथी मस्तकमां याकुल येलो नूख तृमायें पीडा पामतो बतो एक बीलीना जाडनी नीचें उनो रह्यो, त्यां ते बीलीनां फल पहराना जेवां माथाऊपर पड्यां ते फल पड वा विचार करवा लाग्यो के, हवे हुं क्यां जाउं माधुं तपवाना दुःखथी ज्यारे हुं बीलीना वृक्ष तले गयो तो त्यां पण मस्तक ऊपर बीलीफल पड्यां, माटे नाग्यरहित जन जे ठेकाणे जाय तेनी पढवाडे बायानी पेठे आपत्ति शीघ्रतायेंज खावे बे. कयुं वे के, ॥ श्लोक ॥ खल्वाटो दिवसेश्वर स्य किरणैः संतापितो मस्तके, वांढन् देशमनातपं विधिवशात् बिल्वस्य मूलं Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. गतः ॥ तस्योच्चैः पतता फलेन महता ननं सशब्दं शिरः, प्रायो गति यत्र नाग्यरहितस्तत्रापदां राशयः ॥ १॥ इतिचोवीशमो दृष्टांत ॥ २५॥ नाग्यमां न होय तो उद्योगथी पण लान थतो नथी तेक पर गंदरनो अने सर्पनो पचीसमो दृष्टांत कहे बे. ॥दिप्तः केन करंमकेऽपि नुजगःकुत्पीडितोऽनाशको,रात्रौ खादिमकांदया शु विवरं कृत्वोंदरुस्तन्मुखे ॥ नाग्यादेव तदा स्वयं निपतितस्तन्मांसतृप्तोऽन वत्, यातस्तेन पथा नृणां स्थिरतरं नोगीव जाग्यं नवेत् ॥ २६ ॥ अर्थःकोइएक गारुडीयें एक सर्प पकडीमें कमीयाने विषे नांख्यो. त्यां नूख अ ने तर0 पीडा पामतो, ते साप निरास थ बेठो हतो, तेटलामा एक नं दरे जाण्यु जे आ करंडीयामां खावानो पदार्थ , पक्कान नस्या देखाय बे. एम चिंतवि ते करमीयाने करडी बिए पाडी, रात्रिने विषे ते दर तत्का ल अंदर पेठो. ते समय ते सर्पना जाग्य करीनेज ते सुंदर पोतानी मेलें सापना मुखमां पज्यो. ते लंदरना मांसेंकरी साप तृप्त थयो, अने तेज लंदरना करेला बीइना मार्गे करी साप बाहेर नीकली गयो. माटे सर्पनी पेठे जे मनुष्योनुं प्रारब्ध स्थिर होय , तेने फुःखमां नाखवा बतां पण सुख थायले. तेथी नाग्यस्थिरता मानीने धैर्य राखQ.कर्वा डे के, श्लोक ॥ चिंता न कार्या पुरूषै, निगडे पतितैरपि ॥ यन्नाले लिखितं धात्रा, नवेनो जीव नापरम् ॥ १.॥ इति पञ्चीशमो दृष्टांत ॥ २६ ॥ हवे समजण विना स्वेलित उत्तर आपवो नहिं ते ऊपर बीसमो दृष्टांत. ॥ नत्वा टन्नति कार्षिको निजगुरुं वर्षा न वा वर्षति क्षेत्रे ते निशि वक्ति सोपि न परे लात्वा सशिष्यो घटान कूपान्सिंचति कं पराहि मनुजाः श्रुत्वेति वार्ती गुरोस्ते एबंति तथा ब्रवीपि वहसि ह्यादुर्वीनेयास्तदा ॥ २७ ॥ अर्थः-कोइएक करषणी पोताना गोरने नमस्कार करी पूजे जे के हे माहा राज! वरषाद वरसशे के नहिं वरसे जे माटे माहारा वावेला धान्य सर्व सूका जायजे त्यारे गोरें कयुं के, आज रात्रिये ताहारा खेतरमा वरषाद वरसशे पण बीजाना खेतरतुं हुं जाणुं नहिं. पड़ी ते गुरु रात्रिय शिष्य ने साथे लइ कणबीना खेत्रमा जश् कुवामांथी पाणीना घडा जरी नरीने या खी रात्र पर्यंत खेतरमां पाणी सींच्यु.तेथी सवारमा खेतरनो धणी पोता ना खेतरने देखी खुशी थयो.ए वात बीजा मनुष्योयें सांजली तेवारें तेप Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ण ते गुरु पासे आव्या अने तेमज पूर्वती रीतें गुरुने पूजवा लाग्या तेवा रें गुरुये पण तेमज पूर्वनी पेठें तेमने कह्यु. ते सांजली शिष्ये जाण्युं जे रखेंने पूर्वली रात्रिनी पेठे आ रात्रिये पण गुरु आपणने घडा वहेवरावे एम जाणी गुरुने कहेवा लाग्या; के हे गुरु ! जे कहेशे ते वहेशे, अमा रे कांश नहि. कयुं ले के, (श्लोक) कार्यार्थि नोहि बहवो,गुरूं टहंति स्वा र्थगाः ॥ ज्ञानहीनैर्न दातव्य, मुत्तरं कोविदैर्यथा ॥१॥दोहा॥ एकवार कहणे वह्या, हवे ते न वहसी ॥ गुरुप्रतें शिष्यज बोलीया,जे कहती ते वहसी॥ हवे जे संपत्तिवान् बतां कोश्ने नपकार करतो नथी.तेनुं इव्य गयुं जाणवू. ते विषे नोजराजा बने माघ कवीनो, सत्तावीसमो दृष्टांत कहे . ॥ जोजो वक्ति कृती मृदंगकरवस्यार्थ वदाष्टाह्नि सः, ज्ञातं नान्यजनः क रिष्यसि यदीनारोहणं वच्मि तम्॥कत्वेशांतगताः किमस्त्ययमतोऽर्थ वक्ष्यति वावदत्त्वं गृह्या उपदेशमीश तव नो नो दीयते तद् गतम्॥२॥ अर्थः-एक दिवस नोजराजानी पासें नृत्य थतुं हतुं. ते वखते मृदंगनो शब्द सांजली राजा माघ पंमितने कहे जे, के मृदंग बोले ने तेनो झुं अर्थ ? ते कहो. त्यारे पंमिते कडं जे महाराज आठ दिवसमां दुं एनो उत्तर कहीश. पनी पंमितें शास्त्र जोयां. पण तेमांथी ते अर्थ जाण्यो नहीं. तेवारें दिलगीर थ यो, एवामां एक ब्राह्मण माघ पंमितने घेर याव्यो. तेणे पंमितने दिलगी र थयेलो देखीने पूब्युं के चिंतातुर केम देखाउ बो. तेने माघे कह्यु के महा राज मृदंगना शब्दनो अर्थ गुं? त्यारे ते पंमितने कहे के जो मुझने हाथी ऊपर बेसारी राजा पासें लइ जाउ, तो हूं एनो अर्थ राजाने कहूं. पड़ी ते पंमितने हाथी ऊपर बेसारीने राजापासें ले गयो. तेने हाथीयें बेठो देखी ने राजायें पूजयु, के श्रा गुंठे? त्यारें माघ पंमिते कमु जे था पुरुष तमने मृदंगना शब्दनो अर्थ कहेशे. राजायें ते कबुल कयु. पडी पंमितें कह्यु के,हे राजन् ! आ मृदंग शब्द धम धम एवे शब्दें करी तमने उपदेश आपे . के जे को राज्यसमृद्धि पामी कोइने न थापे, तो तेनी समृद्धि गइ एम स मजबु. जु ढुं पण फाटल उपानहनुं दान देवाथ। गजारूढ थयो बुं. ते वि षे श्लोकः- उपानही मया दत्ते, जीर्णे कर्णविवर्जिते॥ तत्पुण्येन गजारूढ, स्ततं यन्न दीयते ॥१॥ ए सत्तावीसमो दृष्टांत ॥ २० ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हवे कपटी पासें कपट पण करवो ते ऊपर अनावीशमो दृष्टांत. ॥ पर्षद्यन्यकविः करोत्यनिनवं, नोजस्य काव्यं तदा, श्रुत्वादुश्च पुरातनं कविजना नूपोऽपि किं तेऽपठन् ॥राज्ञा ते हि तिरस्कृताः प्रतिदिनं वादोऽन वच्चैकदा, कृत्वा वेधयुतं स्थिताःसितमुखा लदं च लात्वा गतः॥२॥अर्थःएकदा जोजराजानी सनामां कोइएक नवो पंमित याव्यो, ते कवि नोजरा जानां वर्णननुं नवं काव्य करीने नित्य आशीर्वाद दीये . पण तेना करेला काव्योने षथी नोजराजाना सनामां बेसनारा कालिदास वगेरे बीजा पं मितो नित्य नित्य प्रत्ये खंमन करी मांखे. अने राजाने कहे के, हे महाराज! आ जे काव्य करे , ते प्राचीन . ए काव्य तो अमने पण आवडे . त्यारें राजा कहे के ए काव्य तमे बोलो. तेवारे ते कालिदास वगेरे पंमितो एवा हता के कोइ पण श्लोक एक वखत सांजले तो तेने मुखस्थं थजाय. तेथी ते पंमितना करेला श्लोक पोते जणी आपे. त्यारे राजा ते नवीन कविनो तिरस्कार करी दूर करे. एम नित्यवाद थयां करे तेवारे ते नवीन पं मितें तिरस्कार पामवाथी एक दिवस वेधयुक्त काव्य कयं, ते काव्य कालिदास वगेरे पंमितीने नएतां न याव्यु, तेथी तेमने निस्तेज करी राजा पासेथी लद शव्य लीधुं. ते काव्य लखे .॥जोजत्वं राजराजः दितिपतितिलको धार्मिकः सत्यवादी,पित्रा ते या गृहीता नवनवतियुता हेमकोटयोमदीयाः॥ त्वं ता देहि त्वदीयैः सकलबुधजनैयिते सत्यमेतत्, नो जाति त्वदीयाः सकलबुधजना देहि लदं तथापि ॥१॥ अर्थः-हे नोजराजा! तुं पृथ्वी पतिने विषे तिलकसमान, धर्मिष्ठ, सत्यवादी, अने नोज कुलने शोनावनार एवो बो. परंतु तारे बापें मारी जे नवाणुं करोड सोना महोर लीधीने, ते तुं आप. ते वात तारा पंमित जनो सत्य जाणे जे. जो तारा पंमितजनो ए वात न जाणता होय, तो पण एक लद इव्य आप. अर्थात् गुं कह्यु जे था मारो प्राचीन श्लोक होय, तो मने नवाणुं करोड सोना महोर था प, ने आधुनिक होय, तो लद इव्य आप. ॥श्णा एअमवीशमो दृष्टांत॥ हवे था जनमथी रहेखें रण बीजा जनममां पण आप्याविना बूटको थतो नथी ते ऊपर एक वैश्य अने बलदनो गणत्रीशमो दृष्टांत कहे जे. __ श्लोक ॥ नोजार्ण हि विधाय पारनविकं तैव्यालये च स्थितो, वृत्तांत प्रतिकर्ण्य स ह्यनमुहोर्दष्ट्वा प्रजातेऽखिलंगवा नोजगृहं समर्प्य सकलं नंमा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३३ए रिकानां धनं, तान्प्रोचे तहणं दमोऽन्यनविकं दातुं न गेहे गतः ॥ ३० ॥ अर्थः-कोइएक वाणीयायें एवं विचायुं जे प्रा नवमां लीधेनुं दीधेलु हो य ते पाचुं परनवमां मेवातुं देवातुं नथी. एवं मानी तेणे जोजराजानी पासे जश्ने कर्दा के हुँ आवते जनमें तमोने लक्ष रुपैया व्याजसहित था पीश. जो कहो तो खत करी यापुं. एम कही खत लखी यापीने राजा ना नंमारमाथी लद इव्य लश्ने घांचीने घेर जई रात्रिये सूतो. तेवामां अरात्रियें घांचीना बन्ने बलदो परस्पर वातो करवा लाग्या. तेमां प्रथम एक बलद बोल्यो के, मारे तो पूर्व जन्मना देणामांथी घांचीने मात्र एक जत्रांबियो हवे देवो रह्यो बे. ते ढुं चार फेरा दश्मरीने छूटीश, अने परनवें सुखी थश्श. त्यारे बीजो बोल्यो के, तुजने धन्य ने. मारे तो घांचीनु पूर्व जन्मनुं एक लद इव्य हजी यांपव॑ रयुं . अने हुँ पूर्वजन्मना नोजराजा पासें एक लाख रुपैया मागुं माटे या सूतेलो वाणियो जो सवारमा नोजराजानी पासे जनें कहे के, तमारा पट्टहस्ती साथे या घांचीना ब सदने लडावो. अने जो बलद जीते, तो घांचीने लक्ष रुपैया तमारे आप वा एम करे तो ढुंनोजराजाना पट्टहस्ती साथें लडीने तेने जीतीघांचीनाल ६ रुपैयाना कपथकी बुटुं. अने महारुं राजानी ऊपर लेगुं . ते आवीजा य, तो मरीने सुख पामुं.या वात ते वाणीयायें सांजली. पडी सवारना पहोरमां ठी एक त्रांबीयाना कणवाला बलदें जेम वात कही हती ते सर्व मलती दी ती. तेवारें विचार करे ने के, आवता जन्ममा देणुं देवू पडे . ए वात नकी बे एम सत्यमानीने पोतें नोजराजानी पासें जश्ने रात्रिनेविषे बनेगुं वृत्तांत सर्वे कयु. वली कह्यु के, महाराथीपण परनवें ज्ञ' देवाय नहीं. माटे त मारुं धन पा लेन. ढुं मजुर। करी पेट नरीश. एम समजावी लीधेनुं ध न पाडं नंमारीने यापी दीधुं. अने राजाय पण पट्टहस्ती साथै बलदने लडाव घांचीना गथी बोडाव्यो कह्यु बे के॥ दोहा ॥ इह नव देणुं दो हिनु, परनव वली विशेष ॥ दृष्टांत सांजली बलदनो, त्यजीयें कणो य शेष ॥१॥ गाथा ॥ दासित्तंदेहि कणं, अचिरामरणं वणोवि संपन्ने ॥ सब स्स दाह मग्गी, दिति कसाया नवमतं ॥ ५ ॥ ३० ॥ हवे कुलटा स्त्रीने उपकार करियें तो पण ते पोताना स्वामीनी याय नहीं ते कपर एक स्त्री पुरुषनो त्रीशमो दृष्टांत कहे . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥प्रीत्या तेपि सहत्वयाद्य निधने धक्ष्यामि संकेतकत्, तत्सर्व रचि तं सुरैर्यदि तंदायुिश्च दत्तं स्त्रियै ॥ मुक्ता सापितमन्यपत्तनगता तस्मिन् पुरेऽसौ गतः, तनार्या मिलिता तदा च कुलटा स्वार्थ विनानर्थकत् ॥ ३१॥ अर्थः-कोइएक पुरुष प्रेमें करीने पोतानी स्त्री साथें मांदोमांहे वात करतां संकेत कस्यो, के जो ताहारुं मरण मारी पहेला थशे तो ढुं तारी पनवाडे सत्तो यश्श. अने स्त्रीयें कह्यु के जो तमो पेहेलां मरशो, तो हूं तमारी पाउल सतीथश्श. ए प्रमाणे निश्चय करखो. ते सर्व वृत्तांत कोश्क देवतायें श्रवण कयुं. तेथी ते देवतायें ते स्त्रीने मृतकरूप करी नाखी, त्या रे ते पुरुष सत्तो थवाने काष्ठनी चयमां बेठो, अने अनिलगाड्यो. पण देवतायें मेघ अंधारी वरषाद करीने अग्नि लवी नांख्यो. तेवारे ते पुरुष ब दार आवी बेतो. पडी देवतायें ते पुरुष, अई घायुष्य तेनी स्त्रीने आप्यु. त्यारे ते स्त्री त्यांथी पोताना स्वामीने बोडी समुपार बीजा नगरमा गइ. अने ते पुरुष पण फरतो फरतो तेज नगरमां जश् तेने मल्यो. तेवारे ते स्त्री पोताना धणीने जोश्ने लाजी. कारण के पुरुषने बोडी ने नागी गइ हती. तेथी त्यां स्त्रीचरित्र करी पोतानुं लुगडं फाडी बूम पाडी ने कह्यु, जे या पुरुषे मारी लाज लीधी. ते सांजली त्यांना राजायें ते पुरुषने पकडीने सुली ऊपर चडाव्यो. एम कुलटास्त्रीय स्वारथ विना अनर्थ कस्यो. कडं, बे के ॥ दोहो ॥ उपकार करियें अधिक तर, अयोग न माने एह ॥ अरधुं दीg प्रान, तेहनी न थ तेह ॥१॥इति त्रीशमो दृष्टांत ॥३१॥ जाग्यमां लरव्युं होय तेज मले बे. ते ऊपर दरिडीनो एकत्रीशमो दृष्टांत. ॥ दारिश्चपलान् सदात्ति नगिनी सोचिंतयन्मेऽस्तिही,मिष्टान्ने हिकया स्व सुहगतो चातुश्च दर्षान्विता ॥ जत्यर्थं पतिता गृहेपिः चपला स्थाव्यां तदा मुंचति, दत्वा स हलके करं वदति तां रात्रौ गता मेऽग्रतः ॥ ३२ ॥ ___ अर्थः-कोइएक दरिडी प्रति दिवस चोला खातो हतो. एकदा चोला खा तां उनग्यो चोला नावे नहिं तेवारे विचारवा लाग्यो के हुँ फुःखी बु पनी मिष्टान्ननी इलाये पोतानी बेनने घेर घणे दिवसें परोणो थइने गयो. ति हां नाश्ने जोस्ने बेन हर्षित थर, अने नावें करी घरमां चोला हता ते पोताना नाइने जमाडवा माटे तेणे राध्यां.अने जमवाना वखत नानी या लीमां पीरस्या. ते जोक्ने तेना नायें दिलगीर था कपालें हाथ दबेनने Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३४२ कह्यु के रात्रिने विषेज था चोला माहरी पहेलांज तमारे घेर आवेला ज णाय ॥ दोहा ॥ में लीधो प्रहसमो, चोले सीधी रात ॥ एहथी ना गो आवियो, बेन थोडेरा घाल ॥ १ ॥ देस तजी परदेस नमे, धरे घणी मन आस ॥ सरज्यो ते नर पामीयें, ज्युं चवले लीधी रात ॥ २ ॥३२॥ हवे जे पाप करीने पण वली पश्चाताप करे तो ते सुखी थाय,नही तो कुखी थाय, तेकपर राजाने मेहेलें जनार बे ग्रामीणनो बत्राशमो दृष्टांत कहे . ॥हारोहणवारितं नृपतिना नृत्यः कथं कार्यतां, वामं गन्नति मुच्य तामिह गतौ ग्राम्यौ तदा क्रोशितौ ॥'बत्येकः किमु मारितोऽपरनरो नीत्या शु मां रहतां, गत्वार्य दि गम्यतां त्वरगते मुक्तः सुखी सोऽनवत् ॥ ३३ ॥ ___ अर्थः-एक राजायें वाडीमां मोहोल कराव्यो. अने पोताना चाकरोने कमु जे, आ मोहोलमा कोइने पेसवा देशो नहीं. तेवारें दरवाने पूज्युं के, कदापि कोइ नूलथी प्रवेश करे, तो तेने केम करQ ? तेने राजायें कर्यु के तेने पण मारी नाखजो. पण मूकशो नहीं.ते सांगली पोलीयायें फरी थी अरज करी के, हे महाराज ए घणो आकरो दंडे. तेने राजायें कह्यु के, ते प्रवेश करनारो जो पाडे पगे उतरे तो तेने बोडी मुकजो. एकदा प्र स्तावे को बे ग्रामीण पुरुषो जूलथी ऊपर चडी गया. त्यारे ते बेदु जण ने राजाना मनुष्योयें पकड्या. तेमां एक पुरुष बहु बोल्यो, तेथी तेने मा खो. अने बीजो पुरुष बीकथी कहेवा लाग्यो के मारु रक्षण करो. त्यारे राजसुनटें कह्यु जे तुं पाने पगे उतरीश तो बचीश ते पुरुष तेमज कयुं. त्यारे तेने मुक्यो तेथी ते जर पोताना कुटुंबने मल्यो, अने सुखीयो थयो. कडं ने के, श्लोक ॥ पापं कृत्वा पुनः पश्चात् , यो निन्दति नरोत्तमः॥ स सुखी जायते लोके, यथैको हर्म्यपश्यकः ॥ १ ॥ इति बत्रीशमो दृष्टांत ॥ विचास्या विना मुर्ख जनने वचन आप नहीं ते विषे तेत्रीशमो दृष्टांत. ॥जूपानीरसुते सदानिरमतोरोदित्यनीरांगजा, वक्त्योरोदिषि किं नवह रहतः सत्यं धवैको हि नौ ॥ याम्यागसि विट्सनं निशि सखे मार्गे मिलित्वा गतः, श्रुत्वार्याचलहेतुकां वरमतो ज्ञात्वा गता स्वालये ॥३४॥ यर्थःएक राजानी दीकरी बीजीबाहिरनी दीकरी ए बन्ने साहेली हती. ते सा थे मली रमत करे. एकदा आहिरनी बेटी रोवा लागी तेने राजानी पुत्रीयें पूब्युं जे तुं केम रडे के ? त्यारे ते कहेवा लागी के तुं राजाने त्यां परणी Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ने जाइश तिहां तहाराथी बाहेर फराशे नहीं तेवारे मारे ताहरो मेलाप थशे नहीं. तेथी मुजने ताहरो विरह थशे ते सुखथी हुँ रडुं . त्यारें राज कन्या कहेवा लागी के, जे ताहरो स्वामी तेहज मारो स्वामी ढुं करीश बी जाने परj नहीं.एवो बोल दीधो.हवे एकदा ते बाहिरकन्या को नीच वि टल पुरुषनी साथें निकली जवा लागी ते वरखतें राजकन्याने कयुं जे तुं यानी साथें चालीश ? त्यारे तेरों पण पूर्वे बोल आपवाथी हा पाडी; पड़ी त्रणे जण मली रात्रि नती चाव्यां आगल जतां एक रेंट फेरवनार पुरुषे यांबाना दृष्टांत वाली एक गाथा कही ते सांजली राजकुमारी मनमां सम जीने पाबी वली. ते गाथा कहे २ ॥ दोहा ॥कालुं वांकुं मुह करी, रत्तडा थयो अशास ॥ ते फल दीधे कवण गुण, जो फल दिये पलाश ॥१॥ सु रतरु जाणी से विज, रे निगुणा पलाश ॥ जब तें मुह कालो कीयो, तब में बोडी आश ॥१॥ ज फुना कणियारया, चयग अझ मासयम्मि धुमि॥ तुह न खमं फुल्ने, जइ पचंता करम्मि ममरा ॥ ए तेत्रीशमो दृष्टांत ॥ नीच जन उंचनी समानता करे तो कुःखी थाय तेनो चोत्रीसमो दृष्टांत. ॥कारण्येऽमिनयाहे पतति वै सिंहादिजन्तुव्रज, शांते वह्निनये हरि वंदति तं पुढं गृहाणाशु मे ॥ ते गृहंति तदा हताः स्थलचरास्ता रितं फेरुणा, पश्चात्तेन कृतं तथापि न हताः पुढं तदा त्रोटितम् ॥ ३५ ॥ अर्थः-कोइएक अटवीने विपे अमिनो नय उपनो ते नयथी वनमा र हेनार सिंहादिक जंतु एक उंमा जलनाधरामां पड्या. पनी ज्यारें अमिनो जय निवृत्ति पाम्यो त्यार सिंहे ते जंतुसमुदायने कह्यु के, मारु पूबडु पकडो, ढुं सर्वने बहार काढुं. ते सांजली बधायें तेनुं पूबडं पकडयुं अने सिंहें फाल मारी ते सर्वेने बाहेर काढयां ते थाम्नाय एक शीया लीए धारी राखी तदनंतर वली पण केटलेएक दिवसे दावानलना जयथी सर्वे जंतु तेहिज जलनां धरामां आवी पड्या पण ते वखत सिंह आव्यो नहीं त्यारे शियाले कयुं मारे पुडडे वलगो ढुं सौने बहार काटुं पड़ी सिंह नी पेठे शियाले बल करी सौने काढवा मांमयां तेथी ते शियालीयानुं पूब ९ तुटी गयुं अने सर्व जीव पाला पाणीमांहे पज्या माटे नीच पुरुष उंच नी समानता करवा जाय तो कुखी थाय कयुं ले के श्लोक ॥आत्मवीर्य Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ दृष्टांतशतक. न जानाति, दृष्ट्वा दृष्ट्वा करोति यः ॥ स फुःखी स्याद्यथाफेरु, स्युट्यत्पुलो ह्यधोऽपतत् ॥ ॥ १ ॥ ३५ ॥ हवे मोहोटानी बाया पण फल दायक ने तो महोटानी संगती फलदायक होय तेमां तो गुंज कहेQ ! ते ऊपर एक नरवाडनो पांत्रीशमो दृष्टांत. ॥ व्युत्वाधो न्यपतन्फलानि स ततो दृष्ट्वा तदाचितयद, गोपो मुनि हि खेंगमस्य पतिता बाया वरा बुद्धिदा ॥ श्लोकस्तस्य कृतश्च पादरहितः बाया गता मो पदं, तादृक् तेनहि पूरितं निजधिया मक्केति कुंमालिकं ॥ ३६ ॥ अर्थः-एक कूवामां जांबुवदनां फल टूटी पडतां हतां. ते कोई गोवा लीये दीवां, तेवारें गोवालीयें चितव्यु, जे या फल खावा लायक . एम विचारे में, एटलामां तिहां गोवालना माथा ऊपर सरस्वतीना विमा ननी बाया पडी तेवारे ते गोवालने बुद्धि उपजी तेथी तेणे एक श्लोक नां त्रण पद जोड्यां. एटलामां विमाननी बाया चालीगइ, अने चोथु पद तो थयुं नहीं. तेवारे तेहज गोवालिये पोतानी बुद्धिथी तेहबुज चोथु पद रच्यु. ते पद कहे जे डबक बने कुंडालुं. हवे जे श्लोक तेणे रच्यो ते कहे ॥जंबूफलानि पक्कानि,पतंति विमले जले॥पतितान्ये वदृश्यं ते, मबक अने कुंमालुं ॥१॥ गयैव फलदा पुंसां, महतां तु विशेषतः॥ विमानबायया वाण्या, गोपो हि पटूतां गतः॥१॥३६॥ सहिद्याथी सहु चमत्कार पामे ले ते ऊपर बत्रीशमो दृष्टांत कहे . ॥ कोप्यागत्य विशारदो वदति में विद्यां नृपं पश्य नो, स्त्री मुक्त्वे शगृहे गतो हि गगने मृत्वापतत् तत्समम् ॥ सा दग्धा पुनरागतो मम वशे त्वं देहि वार्तापि सः, कूटं नोवद चानयामि हि वरं लात्वा गतो विस्मितः ॥३७॥ अर्थः-को एक पुरुष पोतानी स्त्रीने लश्ने कोइ राजाना दर बारमा श्राव्यो, अने राजाने का के माहारी विद्या जुवो. तेने राजायें क ह्यु के जले देखाडो. त्यारे ते पोतानी स्त्रीने अंतःपुरमा मूकीने गयो अने कर्वा के आकाशमां इंश्नी अने दैत्यनी मांहोमांहे लडाइ थाय . माटे त्यां दुं जा बुं एम कहीने गयो पडी थाकाश विषे जश् मरण पामीने तेना हाथ पग शरीर प्रमुख नीचे पड्यां ते जोक्ने ते पुरुषनी स्त्री पण पोतानो स्वामी पज्यो हतो तेनी साथें चयमां सती थ ने बली गश्के तरतज ते पुरुष पाडो राजानी पासें याव्यो अने कह्यु के माहरी स्त्री या Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. पो तेवारें राजायें तेने पाउल बनेली वात सर्व कही, पण तेणे न मानी अने बोल्यो के हे राजन् ! तुं जुतूं म बोल महारी स्त्री ताहरा घरमांजने. तेने राजायें कडं जो घरमां होय तो ला याव. तेवार ते घरमां जय स्त्रीने लइ आव्यो. ते जो राजा तथा सनाना लोक सर्व विस्मय पाम्या. एम विद्यानो चमत्कार देखाड्यो पनी राजायें पण घjक इव्य आप्यु. क युं वे के॥ विप्रेण दर्शितां विद्या, विक्रमः सदसितदा ॥ निरीक्ष्य सुनटाः स वे, तदा तस्मै धनं ददौ ॥ १ ॥ इति त्रीशमो दृष्टांत ॥ ३७॥ .. कपटथीज जारस्त्री परानव पामें तेनो साडत्रीशमो दृष्टांत कहे जे. ॥ श्लोक ॥ नो पुमाति पतिं तमाह कुलटा मेंऽधं करु त्वं सुर, श्रुत्वे तोहविषात तं हि हविषा पीनस्तदंधोऽनवत् ॥ पश्चात्तोषितुमारने वदति स पश्यामि नो निर्नया, मुंक्तेऽन्यैःसह जोगमस्ति बलवन युग्मं गृहीत्वा द तम् ॥ ३० ॥ अर्थः-कोइएक विटस जार स्त्री पोताना धणीनुं पोषण करे नहीं. पोतें कुलटा , तेथी करी तेने पोताना जरतार ऊपर राग न थी. बीजा पुरुष साथे राग नाव राखे बे. एकदा ते जारस्त्रीयें एक यद नी पूजा करवा मांमी. अने प्रतिदिन पूजा करीने एवं कहेवा लागी के, हे यद ! मारा स्वामिने अांधलो कर. एम नित्य कहे एम करतां एक दि वस तेना जरतारें ते वात सांजली, तेवारें बल करीने पोतें यदनी प्रति मानी पळवाडे जर बुपाश्ने बेसी रह्यो. अने ते जार स्त्री यावीने ज्यारे यदनें कह्यु के, हे यद, तुं मारा स्वामीने बांधलो कर. ते वखतें पाबल बेठेलो पुरुष बोल्यो के, हे स्त्री! ताहारा धणीने तुं मिष्टान्न खवरावे तो आंधलो थाय. ते सांजली ते स्त्रीय पोताना स्वामीने घणो घृत खाम अने चरमो प्रमुख मिष्टान्न खवराववा मांमयं. तेवारे तेनो जरतार कपटथी यां पलानी माफक कहे के, हे स्त्री,हुँ कांई चीज देखी सकतो नथी. तेवारे ते स्त्री निर्नय थ थकी ते विटल पुरुषनी साथें नोगनोगववा लागी. लगार मात्र ते स्त्रीने शंका रही नहीं. एकदा जेवारे तेनो जरतार खाइ पाइने सारी पेठे बलवान थयो, तेवारे ते जार स्त्री तथा जार पुरुष बे जगने पक डीने मास्या. काठा कूट्या कह्यु, डे के श्लोक ॥ कथं हससि जो हंस, नाई दर्डरवाहनः ॥ कालशेवो हि कर्तव्यो, घृतांधो ब्राह्मणो यथा ॥१॥३॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांत शतक. ३४८ गुरु शिष्यनी परीक्षा करी पोताना पढ़ें स्थापवो तेनो थाडत्रीशमो दृष्टांत. || शिष्यान् वक्ति गुरुस्तदाम्रफलमिवाम्यानय त्वं पृथक्, पारीक्षाय निवे दितः प्रथमकोवर वृद्धता ते गुरो ॥ अन्यो गति शब्दितश्व लघुना गत्वा वि धिं पृति, त्रैविध्यं ज्ञ विनीतकं हि गुरुणा ज्ञात्वा स्वदत्तं पदम् ॥ ३९ ॥ अर्थः- एक गुरु पोताने पर्दे स्थापन करवा सारु शिष्योनी परीक्षा कर वाने श्रर्थे प्रथम मोटा शिष्य प्रत्यें बोल्या के, तं महारे माटे खांबाना फ ल लावी याप त्यारे ते वडो शिष्य बोल्यो के हे गुरु! तमारी अक्कल क्यां गइ देखाय ने जेमाटे तमोने वृद्धपणांमां यात्र खावानुं मन थयुं बे ? प बीजा शिष्यनेकयुं के तुं याम्रफल लाव्य त्यारे ते शिष्य यांबा सेवा माटे चाल्यो ते जोइने तेने गुरुयें पाठो तेडी लीधो पढी त्रीजा न्हाना शि य इाववाकयुं तेवारें तें शिष्य वंदना करीने गुरुने पूढवा लाग्यो के स्वामी यांचा प्रकारना बे एवं तेनुं बोलवु सांजलीने गुरुयें जा एयं जे या शिष्य विनीत ज्ञानवंत क्रियावंत ले माटे यापणा पदने योग्य बे. एम चिंती ते शिष्यने पोतानुं पद दीधुं. कह्युं बे के श्लोक | परीक्षा सर्वसा धूनां शिष्याणां च विशेषतः॥ कर्त्तव्या गणिना नित्यं त्रयाणां हि कृता यथा १ गुणहीन स्त्रीयो घरने हलकुं पाडे तेनो जंगलचालीसमो दृष्टांत कहे बे. ॥ लोलामात्य व शाश्वतुर्मुखसमाः श्रुत्वा नृपस्तगृहे, गत्वा पश्यति ताः पतिर्वदति नो मौनं विधेयं तदा ॥ तङ्गोज्ये नृप वर्णिता सुवटिका तिस्रो गि रोचुः स्वसः, दृग्न्यां क्रोशति तूर्यका हि हसितः प्रोचे न किं कां पयः ॥ ४० ॥ ॥ अर्थ :- कोइएक प्रधानने चार स्त्री हती ते चारे स्त्रीयो बोबडीयो हती ए वात राजायें सांजली ने विचार करखो के प्रापणा प्रधाननी चारे स्त्रीयो बोबडी ए वात खरी बे के खोटी बे माटे तेनी तपास करूं. एम निरधारीने प्रधानने घेर जोवा गयो त्यारे मंत्रियें पोतानी चारे स्त्रीउने वा री राख्युं के तमे बोलशो मां मौनपणुं करजोए वात प्रधाननीं स्त्रीजयें क बूज राखी पढी राजाने जमाडवा वडीनुं शाक कस्युं हतुं. ते ज्यारें राजा जमवा बेठो तेवारे स्त्रीने हसावीने राजायें कयुं के बडी बहुज सारी थइ dai वखा सांजलीने एक स्त्री बोल्याविना रही शकी नहीं. तेथी ते तरत बोली के " ए ववियां तो में तवियां ” त्यांतो बीजी बोली के " एववियां तो तें तवीयां जो मांयाइयां तेलाइ पश्यां” त्यारे त्रीजी बोली के "या ४४ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हियांमींगडयां” बाबु सानली राजा हस्यो त्यारे प्रधाने आंख करडी करीने चोयी स्त्रीनी सामुं जोयुं. त्यारे ते बोली के “मश्माए बोयां नहीं, चायां नहीं, मोयां गुं काढीयावो” कयुं के श्लोक ॥ गुणहीनाः सुरूपा श्च, जति गेहनंमनाः॥ स्त्रियोपि गृहवासिनां, वटिका पाविका यथा॥१॥ नकजीव होय ते सर्वत्र जपणुं पामे ते कपर चालीसमो दृष्टांत. ॥ यज्ञे जग्धिकरी निरीक्ष्य करिकेश्यन्नं तदा याचते, तस्मै ते न दः सरुषिधरं दृष्ट्वा हतं तैनरैः ॥ हास्थांते हि तथा वदंत्वविषकैषातोपि नो मार्यतां, झात्वा स्वावगुणं ललौ प्रतवरं प्रोक्ता नु तेनार्यिका ॥१॥ अर्थः-कोई एक यइनेविषे घणाएक ब्राह्मणो जमवा बेता त्यां हरिके शी नामा चंमाल आव्यो तेणे अन्न माग्यु. परंतु ब्राह्मणोयें आप्युं नहीं अने उलटा रीश करवा लाग्या, क्रोधायमान थया एटलामां एक सर्प नि कल्या तेने देखीने ब्राह्मणे मास्यो ते हरिकेशी चांमाले जोयो. तेटलामां एक गोह नीकली. तेने जोइने हरिकेशी मारवा दोड्यो त्यां ब्राह्मणो बो व्या के, एना मुखमां विष नथी माटे मारशो नहीं तेवारें हरिकेशीयें पो तानो वांक जाण्यो. जातिस्मरण झान कपन्यु तेथी चारित्र व्रत प्रत्ये तो हवो अने एक गाथा कहीने तेणें उपदेश दीधो ते गाथा॥जदेण होइ सवं, नई पावे सब नई ॥ हणि कन्हो सप्पो, नेरमो तब मुंच दीठो ॥१॥ केटलाएक प्राणीको पदार्थने जोश्वैराग्य पामे ते विषे एकतालीशमो दृष्टांत. ॥ दृष्ट्वेशोप्यतिसुंदरं च वृषनं सोटाट्यते चैकदा, मार्गे सत्करकंकुराह निजकान कस्यायमुदो तदा ॥ प्रोचुस्ते तव जो कमिष्टषनं श्रुत्वेति दी नोऽपि सन, वैराग्यं हि विधाय राज्यमखिलं त्यक्त्वा मुनीशोऽनवत् ॥४॥ अर्थः-करकं राजायें अति सुंदर वृषन पोताने त्यां जोइने तेनुं संर कण कराव्युं. घणा दिवस वीत्यापली एक दिवस ते बेलने मार्गमां आर डतो जोइने मनुष्यने कहेवा लाग्यो के, आ कोनो बलद ले ? आनी को संजाल पण लेतुं नथी त्यारे मनुष्य बोल्या के हे राजन! श्रापने जे अत्यंत प्रिय हतो ते बलद आने, माटे आप पोतें संजाल न व्यो तो बीजुं कोण ले? या वात सांजली राजानां मनमां वैराग्य उत्पन्न थयो, तेथी पोतानी राज्यादिक समृद्धि बोडी दीक्षा लीधी. रुषीश्वर थयो जाण्यु के या बलदनी अवस्था ते महारी अवस्था जाणवी या संसारमा सुख दे ते अस्थिर बे. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३४७ माटे मोह न राखवो ॥ सेयंसुजार्य सुविनत सिंगं, जो पासई वसहं घुरू मजे ॥ रिहिं अरिविं समुपेईयाणं कलिंगराया विसमिरक धम्मं ॥ ४२ ॥ एकला रहेवाथीज सुख ते विषेनमिराजानो बेहेतालीशमोदृष्टांत कहे जे. ॥ नान्यंगानुदति ज्वरोऽपि ललना धक्ष्यंति ताश्चन्दनं, शब्दं नो वलया बले सहति स त्यक्त्वा समं रक्षितं ॥ दृष्टस्तेन कथं रवो नवति नो ताः प्रोचुरे कैककं, चिंतत्याबद्तो सुखं मम तदैकाक्यस्ति जातोमुनि : ॥ ४३ ॥ अर्थः-नमिराजाना अंगने विषे दाह ज्वर उत्पन्न थयो त्यारे सर्व स्त्रीयो चंदन घसी घसी चोपडे पण साता पामे नहीं. वली ते चंदन घसतां थ कां कंकण चूडीना खलखलाट थाय ते सोहाय नहीं, तेवारे ते स्त्रीयोयें मांगलिकार्थ एक एक चूडी राखी बाकी सर्व काढी नांखी तेथी शब्द थातो बंध पज्यो. ते जोराजायें पूज्यु के शब्द केम थातो नथी ? स्त्रीयोयें कह्यु के मांगलिककार्ये एक एक चूडी राखी तेथी शब्द थातो बंध थयो. या वात सां नली नमिराजायें विचायुं के एकाकी रहेवे जेवं सुख दे तेवू काका मनु ष्योथी सुख नथी. माटे जो आ ज्वर मटे तो माहरे दीक्षा ग्रहण करी ए कलुं विचर, एम धर्मध्यान ध्यावतां ज्वर शांत थयो के तुरत ते रुषीश्वर एकाकी विचरी मोदने पाम्यो. कह्यु के के गाथा ॥ वलयाण सहं सुणति राया, पहा असहं तह जाईया ॥ रिहिं अरिविं समुपेश्याण,विदेहराया विसमिरकधम्मं ॥ १ ॥ दोहा ॥ चंदन घसतां चूडीनो,श्रवण शब्द न सुहा य ॥ एक रखावी चिंतव्यु, बदु मलियां दुःख थाय ॥२॥ राज शदि सब परिहरि, लीधो संयम जार ॥ पारिखुं तव इंडे कयुं, न चट्यो नमि लगार ॥ बीजानी देखा देखीयें पोतानु गमाववा ऊपर त्रेतालीसमो दृष्टांत. ॥ जिंदनिःस्वनरस्तरं यदि वने देवेन तारितो,ऽन्नार्थी मार्गयतीह देह्यु डदजान दत्तं वरं गहनो ॥ गेहे दंतिजना विलोक्य धनिना पृष्टः कुतस्तान थो, प्रोचे तत्र गतः सिताग्रहघृतं तस्यास्तु मुक्तःस तं ॥४४॥ अर्थः-को इ एक दारीही उर्बल पुरुष वनमा लाकडांनी जारी लेवा गयो तिहां जई एक सारुं वृद देखी तेने दवा लागो. तेने ते तदनो कोइ अधिष्टायिक देव त्यां अदृष्ट रहेलो हतो तेणे कडं के था जाडने कापीश नहीं. त्यारे ते दारिडी पुरुषे कह्यु के हुँ नूरव्यो बुं माटे मने खावानुं बाप. देवें कह्यु के तुं माग जे जोश्ये ते दुं आ. तेणे अडदनांढोकलां माग्यां त्यारे देवें Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ढोकलांनु वरदान आप्युं पड़ी ते कतीधारे घेर थावीने ढोकलां खावा मांमया तेनुं सर्व कुटंब नित्य ढोकलां खाय ते जोइने तेना पडोसी व्यव हारियायें, पूयुं के तुं प्रतिदिवस अडदनां ढोकलां क्याथी लावी खाय ले तेवारे ते गरीब पुरुष बोल्यो के वनमां काष्ट कापतां माहरी ऊपर देव ता प्रसन्न थयो तेणे वरदान आप्यु डे तेथी नित्य प्रत्ये ढोकलां खायें बैये ते सांजली ते पडोसी पण तिहां गयो कुहाडो लश् हाथ चंचो कीधो के तरत तेने देवतायें थंनी राख्यो ते कोई रीते बुटी शके नहीं पड़ी जे वारें घरनुं घृत पडोसीने आपवा कबुल कयुं तेवारें देवतायें ते व्यवहा रियो मूक्यो ते पुरुष पालो घेर याव्यो. अने घरनुं घी पण खावाथी चुको स्त्रीये पूब्युं तेवारे तेना घणीये कह्यु के घरना घृतमां साकर घालीने खा. ॥ दोहा ॥ ढोकल खातां देखीने, होंस दुश्मनमाय ॥ ले कुहाडो वन गयो, सुर थंनी तसकाय ॥१॥ वनिता सुरसु वीनवे, घणीतें कचपच की य ॥ ढोकल तो पाम्यां नहीं, घरना चूका घीय ॥२॥इति त्रेतालीसमो दृष्टांत ॥ जे सुधर्मी होय ते खोटी वस्तु आगल न करे ते विपे चुम्मालीशमो दृष्टांत. ॥ दृष्ट्वानीकममात्यमाह नृपतिः कस्यास्तिशौर्य बले, झात्वेनस्य तदा मृगा पिपदे त्वारोपिताः स्वामिना॥बा कृत्रिमका सटा वलमुखैः संस्थापितस्तं गुन, स्तत्रागात् नषतीति पृष्ठचरणान्यां सोपि नष्टोऽधमः ॥४५॥ अर्थःकोई एक राजाना देसमां तेनो उशमन राजा कटक लश्ने देश नांजवा आव्यो तेने जोइने राजायें मंत्रीने पुडयुं के हे मंत्री सैन्यमां वधारे बल कोर्नु होय ? त्यारे मत्रीयें कडं के सैन्यमां हस्तीनुं बल वधारे होय. रा जा कहे एक सिंह कारिमो करघु एवं विचारीने सिंहने स्थानके एक कू तराने थाप्यो पनी तेने कारिमो केसरा टोप बांधीने सैन्यने मुखें कस्यो अने पालथी राजा कटक ला चड्यो ते जे वारे वयरीराजाना कटकनी साहामो आव्यो तिहां ते वयरिना कटकमां बागले मुखमां गजघटा दीठी ते जोइ कूतरो नसीने पाबले पगे नासवा लाग्यो पढ़ी जेम जेम सैन्य सा मुंआवे तेम तेम पाने पगे कूतरो चालतो जाय अने जसतो जाय डे मा टे सुधर्मी पुरुष खोटी वस्तुने धागल नकरे कह्यु के श्लोक ॥ श्राव कृत्रिमबटाविकटाणुजक्ति, रारोप्यते मृगपतेः पदवीं यदि स्यात् ॥ मत्तेजकुं जतटपाटनलंपटस्य, नादं करिष्यति कथं हरिणाधिपस्य ॥ १॥ ४५ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३४० बांमी गडीनी हरियालीना अर्थनो पीस्तालीशमो दृष्टांत कहे बे. ॥ नूपः प्राह ददामि यो मम सुताप्रश्नोत्तरं दास्यति, राज्यार्ध तनयां च तस्य यदी नो शूलिं च दत्तावुनौ ॥ दष्ट्वैकेन कृता प्रहेलिकवरा मेथे प्रदत्तं प्रिये, गत्वा बंडखरी विवाह्य नृपजां राज्यं च लात्वा गतः ॥ ४६ ॥ अर्थःकोई एक राजा सर्वेने एवं कहे के मारी दीकरी जे प्रश्न करे ते प्रश्नोनो जे उत्तर खापे तेनें मारुं अर्धु राज्य खापुं खने वली मारी दीकरी पण प रणाकुं यने वादकरतां जो उत्तर न थापे तो तेने शूलीयें चडावुं. एवी प्र तिज्ञा करी ने ते प्रतिज्ञाथी कोई वै पुरुषने तो शूलीयें पण चडाव्या. ए वामां को एक रजपूत पोतानी स्त्रीने खाणु करवा जाय बे तेणे ते बे पुरु पने शूलीयें चडाव्या जोइने एक हरियाली जोडी पोतें कुंवरीनी गल गयो जश्ने ते हरियाली कही ने विचारीने कुंवरीने कहेवा लाग्यो के हे कुं वरी ! ताहरी हरियालीनो अर्थ तो बांमी गधेडी. पण माहरी हरियाली नो अर्थ तुं कहे तेवारें राजायें जाएयो जे महारो अर्थ तो एसे कह्यो एम समजीने राजायें तेने कन्या तथा खडधुं राज्य खाप्युं ते पुरुष राजने तथा बेस्त्रीने ला चाल्यो हवे राजपुत्रियें पूबेली हरियाली कहे वे ॥ तोतेवारे खाजे नहीं, न द्रुतो तेवारें खाजे ॥ ए हरियालीनो अर्थ क हे, तेहने राजपुत्री बाजे ॥ ॥ करी करम तो एक तेम बीजी, करी क रमतो बे तेम त्रीजी ॥ राणी कंकण शीतल थाशे, कक रंक ऊपर काग डा वासे ॥ २ ॥ खमांही पांख वीया, गुली दीधुं पाणी ॥ ताहरी हरि प्रालीनो घरथ बांडी गधेहडी, माहरो अरथ कहे राणी ॥ ३ ॥ हवे बुद्धी शशलायें सिंहने माखो एवो बेतालीशमो दृष्टांत कहे बे ॥ जीवान् हंति हरिस्तदा वनचराः प्रोचुः किमर्थ हरे, प्रत्येकोप्यपरे वरं हि शशको वस्त्रे विलंब्यागतः ॥ कृष्टो वक्ति सुरे वने तव रिपुर्ना दर्शये हन्मि तं, कूपे स्वं प्रतिबिंबमीक्ष्य पतितस्तेनाशु बुच्या हतः ॥ ४७ ॥ अर्थः- एक वनमां एक सिंह हतो ते घणा जीवोने मारे बे ते जोइ बधा वनचर मेला थर सिंहने कहेवा लाग्या के हे वनचर! तुं जो नित्य जीव हिंसा करे नहीं तो में तुजने प्रत्येक दिवसें एक जीव थापचं त्यारे सिं हे हा पाडी पी बधाये वारो काढयो ने जेनो वारो खावे ते नित्य तेनी पाशे जाय एम करतां एकदा कोइ शशलानो वारो याव्यो. ते शशलो घ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. णो असूरों विलंबें गयो. त्यारे क्रोधायमान थ सिंहे शशलाने कयुं के तुं केम वेहेलो याव्यो नहीं ? त्यारे शशलें कडं के हे वनराज! ताहरो शत्रु बीजो सिंह वनमां आव्यो . तेणे मने पाववा दीधो नही तेथी ढुं रोकायो, तेने सिंहे कयुं जे मारो कुश्मन बताव्य. तेवारें सिंहने पोता नी साथे लइ वनमा एक जल नरेल कूवो देखाडधु के जो तारो शत्रु या मां बेटो ने, पनी सिंहे कूवामां जोयुं त्यां प्रतिबिंब रूप बीजो सिंह जो वामां आव्यो, तेने जोश सिंह कूवामां पज्यो ने मरण पाम्यो. एम बुद्धि यें करी शशलायें सिंहने मास्यो कहुं ले के, श्लोक ॥ बुर्यिस्य बलं तस्य, निर्बुदेश्व कुतो बलं ॥ वने सिंहो मदोन्मत्तो, शशकेन निपातितः ॥ १ ॥ हवे कविनी चतुराइनो सुडतालीशमो दृष्टांत कहे . ॥ व्युष्टे याति कविः करेण पतिना कूर्यो यदा कर्ण्यते, केशोपि स्वकरे विलोक्य कथितो निर्नाग्य लायैककै ॥ सोवक्किं हि करे ददासि तव मे ना ग्यं तदा ज्ञायते, तुष्टः सन्कलयन् ददाति कवये कृत्वेशकाव्यं गतः ॥४॥ अर्थः-एक दिवस प्रजातने विषे एक पंमित राजानी सनामां याचना माटे आव्यो. राजाने एवी प्रतिज्ञा हती के कोड याचक आवे तेवारे पो तानो जमणो हाथ दाढी ऊपर फेरवे अने जेटला केश हाथमां थावे ते टली शोनामोहोर तेहने आपे. आ पंमितनी वखत राजाने दाढीनो ए कज केश हाथमा याव्यो त्यारे राजायें कवीने कह्यं के हे निर्नागीना शे खर तुं एक सोनयो ले. पंमितें कह्यु के श्यामाटे ? तेवारें राजायें कह्यु के महारा हाथमा एकज वाल याव्यो माटे एक शोनामोहोर ले जो घणा केश यावत तो घणा शोनैया बापत. ते सनिली कवियें कह्यं के तमारी दाढी मारा हाथमां आपो तो मारु नाग्य जणाय या प्रमाणे प्रसंगोपात अवसरनुं वचन सांजली तेने पंमित जाणीने राजा खुशी थयो पनी सं कल्प करवा ब्राह्मणे हाथमां जल सीधुं ते जलमा जोतां जोतां राजाना वर्णननां सो काव्य कस्या. अने राजा पासेथी घणुं इव्य त गयो ते का व्यमांथी बेत्रण श्लोक उदाहरण माटे इहां लखीयें बैयें ॥ मालिनी तम् ॥ निवसतु तव गेहे निश्चला सिंधुपुत्री, प्रविशतु मुजदं चमका वैरिहंत्री॥ तव वदनसरोजे नारती नातु नित्ये, न चलतु तव चित्तात् पादपद्मं मुरारेः ॥ १ ॥ अनुष्टुपवृत्तम् ॥ त्वदीया दंष्ट्रिका राजन्, मदीये च करे जवेत् ॥ त Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३५१ दा नाग्यमनाग्यं वा, ज्ञायते स्फुटमेव च ॥॥ यो गंगामत्तरत्तथैव यमुनां यो नर्मदा शर्मदां,का वार्ता, सरिदंबुलंघन विधेर्पश्चार्णवांत्तीर्णवाम् ॥ सो ज न्माकं चरमाश्रितोऽपिसहसा दारिए नामा सखस्त्वदानांबुसरित्य वादलह री मनश्च संजाव्यते ॥ ३ ॥ इति सडतालीशमो दृष्टांत ॥४७॥ हवे असंतोषी ऊपर अडतालीशमो दृष्टांत कहे जे ॥ इंगे कुत्र जटी स्थितः प्रतिगृहस्यात्त्याशु निदा दिने, टन्नत्यत्र गुनं जना मम गृहादायाति नो वा तदा ॥ सोऽवतुष्टजना वदंति सकलाः किं. मे गृहान्नागतं, तेषां तैश्च महोदरं नरिसपि ज्ञात्वेति निष्कासितः॥ ४ ॥ अर्थः-को एक नगरने विषे एक सन्यासी मढीमा रहे . ते प्रतिदिन घर घरथी निदा मागी लावीने खायडे एकदा सर्वजणे मली तेने पूयुं के म हाराज कोइने त्यांथी निदा यावे डे के नथी आवती ? सदुलौक तमारी खबर लीये डे के नथी लेता ? त्यारें महाराज कह्यु के लोक उष्ट थया ने. निदा कोण आपे ? त्यारे ते सर्वलोकमांथी एकेक पूबवा लाग्यो के मा हाराज अमारे त्यांथी निदा नथी यावती ? त्यारे सन्यासी बोल्या के हा बाबु तेरे घरकी निदा तो आती है. तेमज बीजायें पूब्युं त्यारे तेने पण एमज कह्यु एम जेणे जेणे पूब्युं ते सर्वेने एमज कयुं त्यारें लोकोये जाण्यु के आ निर्गुणो पेटनरो देखाय . खातां पीतां पण कोइनुं सारूं बोलतो नथी माटे ए असंतोषी जे. तेथी एने बाहेर काढवो जोश्य एम चिंतवी ते ने गाम बाहेर काढ्यो. कयुं के ॥श्लोक ॥ दुःखिताःसंति संसारे,जीवाः संतोषवर्जिताः ॥ संतोषरहितो मत्र्यो, इंगानिष्कासितो जटी॥ ४ ॥ हवे नाववंदननी ऊपर साम्बकुमारनो उगापचासमो दृष्टांत. ॥ कृष्णो वक्ति सुतौ ददामि जवमादौ ये जिनं वंदते, तत् श्रुत्वा सुतपा लको जिनतटे गत्वालयं शंबकः ॥ अद्याहाश्वमिमं प्रदेहि मम नो पृष्ठे जिने नेमिना, इव्यात नावफलं मतं तु हरिणा शंबस्य दत्तोऽश्वकः ॥५॥ अर्थः-एक दिवस श्रीकन पोताना पालक तथा सांब नामना पुत्रने कहे ले के, जे श्रीनेमिनाथने प्रथम जश्ने वांदे तेने पाट घोडो आपुं, ते सांजली पालक नामना पुत्रं रात्रि लश्ने तरत जश् श्रीनेमिनाथ नगवान ने वांद्या अने सांबकुमारे तो पोताना घेर सुतां थकांज नाव वंदना करी. पबी पालकें श्रीकृष्णने आवी कह्यु के मने अश्व आपो तेने श्रीकृष्णें कह्यु Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. के हुँ नेमिनाथने पूबीने थापीश त्यारकेडें तेणे नेमिनाथ जगवान्ने जश्ने पूज्युं के महाराज प्रथम कोणे बापने वांद्या ? नगवानें कह्यु के इव्य वं दन पूगेडो के नाववंदन पूबोडो ? त्यारे श्रीकृष्णे कडं के जेमां लान होय ते पू बु त्यारे श्रीनेमिनाथे कह्यु के नाववंदन उत्तम ने माटे नावथकी प्रथम मुने सांबकुमरें वंदन कयुं . ए वात सांजली श्रीकृष्णे सांबने प टाश्व आप्यो, कह्यु बे के श्लोक ॥ नाव एव मनुष्याणां, कारणं सुखःख योः॥ दृष्ट्वा नेमिं च कृष्णेन, कृतं यत्स्वपुत्रयोः ॥१॥ इति दृष्टांत ॥५०॥ हवे लोकोना बोलवानुं प्रमाण नथी ते ऊपर पचासमो दृष्टांत कहे . ॥ अश्वस्थं जनकं सुतं विचरतं प्रोचु विशोऽधोव्रजा, श्वारूढं कुरु पुत्र कृतमतो दृष्ट्वाच पुत्रं तथा ॥आरूढौपथि गबतौ जडधियो ताक्ष्य हिकिंमार्य तां, पञ्यांकाय मितस्तदास्यनयतो मध्ये हि किं वास्यतां ॥५१॥ अर्थःकोई एक पिता पुत्र बेहुजण अश्व लश्ने जाय , रस्तामां बाप घोडा ऊपर बे गे, अने पुत्र आगल चाले डे त्यारे सामा मलनार लोकोयें कयुं के आ पोते घरडो थश्ने घोडे चड्यो जाय डे अने बालक चालतो जाय बे त्या रे पितायें बालकने कयुं के तुं घोडे बेस. पनी ते बालकने घोडे बेठेलो जोइने सामा मलनार लोको कहेवा लाग्या के पुत्र घोडे बेठो ले ने घरडो बाप चालतो जाय डे ते सांजली बेदु जण घोडा उपर बेठा त्यारें लोको यें कह्यु के बा बाप दीकरो बे जण घोडा उपर चढी बेठा ले ने बिचारा घोडाने मारे जे. ते सांगली घोडाथी नीचें कतरी बेदु जणे पगें चालवा मांमयुं त्यारे लोकोयें कर्वा के तमे मोहोटा मूर्खा देखाबो. जे माटे शा थे घोडो थयो बे अने पोते पाला कां चाव्यां जाबो घोडो फोकट चा व्यो आवे ने ते झुं तमने उध देशे ? ा उपरथी जणाय बे के लोक ते बोक ने जेम गमे तेम बोले ए लोकोनो स्वनावज ने जगतनो बोलवानो नियम नथी कयुं वे के श्लोक ॥ सर्वथा स्वहितमाचरणीयं, किं करोति हि नरो बदुजल्पः॥ विद्यते च नहि कश्चिउपायः, सर्वलोक परितोषकरोयः ॥१॥ हवे असत्य बोलवाथी नरकें जवाय ते ऊपर एकावनमो दृष्टांत कहे जे. ॥ तान् संपाग्य परीक्षणं गणिवरः कृत्वा त्रयाणां मृतो, वादं पर्वतना रदौ च वदतो राज्ञः सनायां गतौ ॥ ज्ञात्वा सत्यदृढंवसुं नरपति मात्राय दात्वक्ति तौ, मिष्टं वाक्यमतो गतःस नरके मृत्या नृपः सप्तमे ॥५॥ अर्थः Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ दृष्टांतशतक. खीर कदंबक नामना उपाध्याय एक पोतानो पुत्र पर्वत, बीजो नारद अ ने बीजो वसुराजा ए त्रण शिष्योने नणावीने पोते मरण पाम्या पली वसु राजा पोताना बापर्नु राज्य पाम्यो भने नारद विद्याधर थयो तथा पर्वत पोताना बापनी गादीयें बेठगे. एकदा पर्वत अने नारदने अज शब्दनो वाद थयो, ते बे जण पोतानो वाद मटाडवा पोतानी साथें जानारो वसु रा जा हतो तेनी सनामां गया ने कह्यु के, अज शब्दनो झुं अर्थ ? त्यारे पोता ना नपाध्यायना पुत्रनी माताना यहथी वसुराजा मिश्रवचन बोल्यो के अज शब्दना बे अर्थ , तेमां एक तो त्रण वर्षनी जुनी शालने पण थ ज कहे जे अने बीजो अर्थ बोकडो पण.थाय . या मिश्र वचन बोल वाथी ते राजाने देवतायें सिंहासनथी बंधो पाड्यो ते मरीने सातमी न रकें गयो. कह्यु बे के ॥ परोपरोधादिति निंदितं वचो, ब्रुवन्नरो गति नारकी पुरीं ॥ अनिंदवृत्तोपि गुणी नरेश्वरो, वसुर्यथाऽगादति लोकविश्रुतः॥ १ ॥ पंमितनां उर्लदाण पण ढंकाय जे तेनो बावनमो दृष्टांत कहे जे. ॥जातो माघगृहे सुतो हि हरने पित्रा सुतः पातितो, नोजश्रीसदने गतो निशिहरो गृह्णन् धनं जागृतः ॥ शय्याऽधो नृपतेः स्थितश्च स तथा काव्यं नृपोऽवक्तदा, झात्वा गर्वयुतं हि तेन पदतुर्येणेश्वरो बोधितः॥५३॥ अर्थःमाघपंमितने घेर चोर नत्रमा पुत्रनो जन्म थयो, पढी ते पुत्रने पितायें निदान शास्त्र एटले चोरी कीधे महापाप ने एवा निदान शास्त्र जणाव्यां तो पण ते पुत्रनो चोर नदत्रमा जन्म होवाथी ते पंमित पुत्र नोजराजाने घेर जश् धनना नंमारमा पेठो, ने धन लेवा लाग्यो, तेमां एक लीये अने एक मूके तेटलामां नंमारनो रदक जाग्यो तेने जोड्ने राजाना ढोलीया नी चें पंमित पुत्र रक्कना जयथी संताणो, सवारनो वखत थवाथी राजा जा ग्यो अने बंदीजन बिरुदावली बोलवा. लाग्या त्यारे राजायें एक काव्य क रवा मांमधु तेनां त्रण पद कस्यां ते त्रण पद सांजलीने पंमित पुढे जाण्यु जे राजा अहंकारें चढ्यो ले तेथी ते चोथु पद बोल्यो, ते पद सांजली रा जा प्रतिबोध पाम्यो. हवे जे काव्य पंमित पुत्रं कर्तुं ते लखे जे ॥ चेतो हराः युवतयः स्वजनोऽनुकूलः, सद्धांधवाः प्रणयगर्नगिरश्च नृत्याः ॥ वल्गंति दंतिनिवहास्तरलास्तुरंगाः, सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति ॥ १ ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हवे स्त्रीवशपज्यो गुं झुं न करे ? ते ऊपर त्रेपनमो दृष्टांत कहे जे. ॥प्राज्ञेशप्रमदे मिथोऽपि वदतोवश्योस्ति मे वननो, नान्यं दर्शयति ब लेन च पति शंसा निये चेत्कथं ॥ जीवेऽश्वीयपिरोहणं यदि तथेशोक्तं च कुर्या कृतं, तदृष्ट्वा परया पतेःसमकचा मुंमापितास्तेतदा ॥५४॥ अर्थः-नोजरा जानी स्त्री अने कालिदास पंमितनी स्त्री ए बेहुनें मांहो मांहे बेनपणुं . एक दिवस ते बेदु जणी परस्पर कहेवा लागी के मारो धणी मारे वश बे, त्यारे पंमितनी स्त्रीयें कह्यु के तारो पति केवी रीतेतहारे वश ? ते मु जने देखाड. राणीयें कह्यु जे जेम तुं कहे तेम देखाडं तेवारें पंमितनी स्त्री बोली जे ताहरो स्वामी अश्व थाय ने तुं तेनी ऊपर चडे तो तुजने धपी वश करवामां कुशल मानु, तेवारें राणी मिश करी नांगा त्रुटा खाटला उ पर पड़ी अने कहेती हवी के कालजें अवेटाय डे मरूं बुं. एवामां राजा तेनी पासे आव्यो अने पूब्युं के हे राणी! आम केम सूती बो ? तेवारेंरा एगी कहे के वात कहेवा जेवी नथी, पण राजायें हठलीधो जे तेवात म ने कहे त्यारें राणीयें कडं जे तमो घोडानी पेठे वांसानपर पलाण बांधो तेनी ऊपर दुं स्वार थानं अने तमने सात चाबुक मारुतो हुँ साजी थावं, राजायें ते सर्व कीg राणी स्वार थइ पुंठ ऊपर सात चाबका मास्या ते सर्व चरित्र पंमितनी स्त्रीयें दीहुँ, पबी राणीयें कह्यु के ताहराधणीनी मुख दाढी अने मायूं मुंमावीने सजामां मोकल तो तुजने खरीमानुं त्यारे ते स्त्रीये पण पंमितने तेमज करी सनामां राजा पासें मोकल्यो ते राणीयें दीठो पड़ी राजायें पुब्युं जे कये तीरथे मुंमन कराव्युं ? त्यारे कालीदास पंमितें तेनो उत्तर प्राप्यो ते श्लोक ॥ कालिदास कविश्रेष्ठ, कुत्र पर्वणि मुंमनं ॥ अनश्वा यत्र नेष्यंति,तत्र पर्वणि मुंमनम् ॥ १ ॥ किं करोति नरःप्राझो, स्त्रीवाचाप्रे रितो नरः ॥ अश्वरूपी नवेाजा, मंत्री मस्तकमुंमितः ॥ ॥ जेनुं वचन गयुं ते मुथा सरखो जाणवो ते ऊपर चोपनमो दृष्टांत. ॥ दृष्ट्वाकाकमसिं हि मार्गति नृपो बाणं बलेनानितं, पुखित्वा सुबलेन मुंचति यदा काकस्य लग्नं दृढं ॥ प्राप्तोऽधो बलिनुक् तदाह नृपतिं नाहं मृत स्त्वं मृतो, वाक्यं ते नरनूषणं गतमतो धिग जीवितं तस्य तु ॥ ५५ ॥ अर्थः-कोई एक राजा वृक्नीचे बेगे हतो, तेवामां एक कागडो वृद ऊपर बेसीने बोलवा लाग्यो त्यारें राजायें पोताना चाकरने का के खड्ग Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३५५ लाव काकने हुँ मारूं एम कही बानी रीते समस्यायें एक बांण धनुषमा संयोजित करी राख्यो ते वात कागडायें सांजली अने विचार कस्यो के ए राजा खड्ग लश्ने मने मारवा जाड कपर चढशे तेवामां दुं उडी जाइस एम विसवासें रह्यो तेवामां राजायें तेनी ऊपर जोरथी बाण फेंक्युं, ते कागडाने सूधो लाग्यो तेथी तरफडतो थको तरत नीचें पड्यो अने मरण थवानी तैयारीमां आव्यो तिहां मरतां मरतां कहेवा लाग्यो के हे राजा हुँ मरतो नथी पण तुं मरे ने कारणके मनुष्यनो नूषण रूप जे वच न ते वचनथी तुं चूकोडो माटे जे पुरुष पोतानुं वचन गमावीने जीवतो रह्यो तेना जीवितव्यने धिक्कार हे जेनुं वाक्य गयुं तेनो जीव रयुं तो पण मुवा सरखोज जाणवो कह्यु डे के श्लोक ॥ असारः सर्वसंसारो; वाचा सारस्तु देहिनां ॥ वाचा चंचलिता यस्य, सुकृतं तेन हारितम् ॥ १ ॥ मग्गियं खग्ग फलयं, काउदेसेण संधि बाणो ॥ सुंदमून ए कान, मूथा ते वयण चूका ॥ २ ॥ ए चोपनमो दृष्टांत ॥ ५५॥ हवे पांमवोनी तृषानो पचावनमो दृष्टांत कहे . ॥ सत्रे पांडुसुताः सरोपि तृषिता दृष्ट्वाब्धिसंख्यागताः, तत्राहार्पय मे स रः पिब मरिष्यस्युत्तरं नो जलं ॥ पीत्वादुश्च पृथक् तदर्थमवदन्निश्चेष्टितास्ते ऽनवन, दत्वार्थ हि युधिष्ठिरःप्रतिसुरंजीवापयत्यागुतान् ॥५६॥ अर्थःवनमांहे पांचें पांमवोने तृषा लागी तिहां पाणी जोतां घणुंज वेगळु एक सरोवर जलें पूरित दी. तेवारें पांच नामांथी एक ना पाणी पीवा त था बीजा नाच सारु पाणी लेवा माटे गयो.ते तिहां सरने विषे जश् पा पीपीवा लाग्यो. तेवारे ते सरोवरनो अधिष्ठायक एक देवता बोल्यो के, जो महारा प्रश्ननो उत्तर थापे तो पाणी पी. तेने नाश्ये कयुं के एकवार म ने पाणी पीवा दे, पनी हुँ तुमने उत्तर आपीश. तेवारें देवता बोल्यो जो उत्तर नहीं आपीश तो मरण पामीश.पाणी पीधा पनी उतर देवाणो नहीं. तेवारे तेने देवतायें मृतक करी नाख्यो हवे तेने पा श्रावतां घणो वख तलाग्यो तेवारें बीजो नाइआव्यो. एम एकेक केडे चार नाइन याव्या ते चारेने पूर्वनी पेरें मृतक करी नांख्या. तेवारें राजा युधिष्ठिरें जाण्यु के, जे जाय ले ते पानाथावता नथी. माटे ए शी बला ? तेथी युधिष्ठिर पोतें त्यां याव्यो त्यां जूवे तो चारे नाइने मृतप्राय दीना. धने पोतें जल पी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५.६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वा बेठो तेने देवतायें प्रश्ननो अर्थ पूयो ने कयुं के एनो अर्थ कहे तो ताहरा चार जाइ पण जीवता थाय ने तुं पण पाणी पीये. ते सांगली राजा युधिष्ठिरेंक के बोल तहारे गुं पुबवुं बे ? तेवारें देवतायें प्रश्न कस्यो तेनो अर्थ धर्मराजायें कह्यो. तेना श्लोक कहे बे ॥ को मोदते किमाश्चर्य, का वार्त्ता कः पयः स्मृतः ॥ एतन्मे ब्रूहि राजेंद, मृता जीवंति पांमवाः ॥ १ ॥ हवे चारे प्रश्ननो उत्तर कहे बे ॥ पंचमेऽहनि षष्ठे वा, शाकं पच ति स्वगृहे ॥ नृणी चाप्रवासी च, स वारिचर मोदते ॥ २ ॥ श्रहन्यहनि नूतानि गत्येव यमालये ॥ शेषा हि स्थातुमिचंति, किमाश्चर्यमतः परं ॥ ३ ॥ यस्मिन्महामोहमहाकटाहे, सूर्याग्निना रात्रिदिधनेन ॥ मासा विपरिघट्टनेन नूतानि कालः पचतीति वार्त्ता ॥ ४ ॥ तर्कप्रनष्टश्रुतयोपि निन्ना, नासामृषिर्यस्य वचः प्रमाणम् ॥ धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महा जनो येन गतः स पंथाः ॥ ५ ॥ देवतायें खुशी थइ चारे नाइने जीवता करया. हवे स्त्री चरित्र ऊपर उप्पनमो दृष्टांत कहे बे. " ॥ विप्रस्त्री च बहिर्विनेमि दिवसे काकात्तदा प्रेषति, साई छात्रकमेकदा निशि गृहात्सा निर्गता ष्टष्ठगः ॥ मार्गे पश्यति नर्मदोत्तरगतां दत्वा हरस्या ari, सुप्तागत्य गृहे तथा ह्यवगतं सोऽवक्चरित्रं तव ॥ ५७ ॥ अर्थःको एक ब्राह्मणनी पासें घणाएक विद्यार्थी जणता हता, परंतु ते विप्र नत्र दिवस विषे जेवारें बाहेर जातीहती तेवारे पोताना धणीनें नि त्य कती हती के, हुं बार जानंबुं त्यारे रस्तामां कालाकाला पछी एट ले कागडा नामना पीथी बीढुं बुं, माटे ज्यारे हुं बाहेर जावं त्यारे महा साये तमारा एकेक छात्रने ( विद्यार्थी ) ने मोकलो; तेवात खरीमानीने ब्राह्मण तेमज करवा लाग्यो. एक दिवस एक माह्यो छात्र हतो तेथे जा एयुं के या स्त्री, स्त्री चरित्र करे बे. दिवसें ज्यारे कागडाथी जय पामे बे त्या रेरा कम करती हशे ? एमविचारी कांइक मिस करी त्यां गुरुने घेरज बानो छुपी रह्यो. तेटलामां ते स्त्री रात्रें घरमांहेथी एकली बाहेर नीकली ते नर्मदा नदीना सामाकांता परगइ त्यांविट्पुरुष साथे दुष्टाचरण करी पा बी जलतरीने या कांठे यावी तेनी पढवाडे विपुरुष पण तरतो चाल्यो खावे बे, तेटलामां जनमांथी कोइक मगरे ते जार पुरुषनो पग पकज्यो. त्यारे ते स्त्रीयें कयुं के ते मगरमत्स्यनी आंखो पर पाटु मारतो तरत बो Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३५७ डी देशे, तेणे तेम करवाथी तरत ते मगरमत्स्यना मुखथकी लूटो पज्यो. अने बेदु जण पाला आवी सुइ रह्यां. आ सर्व वृतांत ते गये बानीरीते ते स्त्रीनी पनवाडे जश्ने जोयुं अने जाएयुं जे एणे खरेखलं स्त्री चरित्र क युं. पडी वलते दिवसें वली ते स्त्रीयें कह्यु के माहरी साईं बात्र मोकलो ते वखतें जे बायें गरात्रि ते स्त्रीनें चरित्र जोयुं हतं. ते सर्व वृत्तांत गुरु समद कही आप्युं त्यारे, स्त्री जाण्यु जे आ विद्यार्थी खरो बुद्धिमान डे अने ब्राह्मणे ते स्त्रीनो त्याग कयो, ए स्त्रीचरित्रने कोश्कज जाणे. कह्यु बे के श्लोक ॥ दिवा बिनेति काकेन्यो, रात्रौ तरति नर्मदां ॥ कुतीर्थान्य पि जानाति, जलजंत्वविरोधनं ॥ १ ॥ ५७ ॥ इति बप्पनमो दृष्टांत ॥ ___ हवे जेवी संगत तेवागुण ते कपर सत्तावनमो दृष्टांत कहे बे. ॥ इष्टदैवं नृपति वने निगदिताः कोरेण निन्नास्तदा, संकाशु गतोयके हि मुनयोऽन्येनापि नात्यर्हकं ॥ तेऽन्यागत्य वदंति तिष्ठ नृपते वाक्यांतरादि स्मितः सोऽवग संगगुणा हि तस्य पितरावेको समस्तस्तथा ॥५०॥ अर्थःएक दिवस कोइएक राजा वनमा गयो. तेवामां एक निनोनी पत्नी प्रावी त्यां एक पोपट हतो, ते पण चोरकर्ममां कुशल हतो तेथी ते राजाने जो पोपट बोल्यो, के दोडो दोडो था राजा आव्यो . तेने लूंटो ते सांन ली घोडो दोडावी राजा पलायमान थ गयो. त्यांथी दर जतां एक ता पसनुं याश्रम आयुं. त्यां पण एक पोपट बांध्यो हतो, ते बोव्यो के था पणे त्यां महोटो राजा अतिथि आव्यो डे, तेनो सत्कार करो. ए वात सां नली राजा खुशी थयो, ने कनो रह्यो. तेवामां ते सर्व तापसोयें थावी राजानु थातिथ्य कयुं. राजायें कह्यु के एक पोपट निलनी पत्नीमा हतो तेरो कह्यु के खूटो लूंटो? अने या पोपट केवां मनोहर वाक्य बोले ? आवात सांजली पोपट कहे ले के हे राजन् ! ते संगतीना गुण ने अमारा बेहुना माता पिता एकज ने पण तेने चोरनी संगती . अने मारे रुषी उनी संगति ले. माटे संगतिना गुण एवाज होय . कह्यु, के श्लोक ॥ माताप्येका पिताप्येको, मम तस्य च परिणः ॥ अहं मुनिनिरानीत, स च नीतो गवाशनैः ॥ ॥ गवाशनानां स गिरः शृणोतिः, अहं च राजन मुनिपुंगवानां ॥ प्रत्यमेतत् नवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा नवंति ॥२॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हवे नणवानो उद्यम करवा कपर अधावनमो दृष्टांत कहे जे. ॥ नूपो पत्र हि गईनो जवमुनिं दृष्ट्वाह तं धीसख, शत्रुस्तेस्ति तदा व धाय निशिगः श्रुत्वार्यकां तन्मुखात् ॥ बुद्धोंतःकरणे विचारयति राड् मे दीर्घटष्ठोऽनृतो,, ज्ञानी साधुरयं न ही मम रिपुत्विा गतः स्वालये ॥५॥ अर्थः-को एक नगरमा गईनसेन नामा राजा राज्य करतो हतो. ते ना पितायें दीदा लीधी ले. ते साधु विनयवंत अप्रमादी हतो. पण कांश जण्यो नहीं मात्र मार्गमां चालतां गोवालीयादिकनी मुखथी त्रण गाथा धारी राखी . हवे एक दिवसें ते साधु पोताना पुत्रने वंदाववा माटे त्यां आवी कुंजारने घेर उतस्यो . त्यारे ते राजानो दीर्घटष्टनामा प्रधान ने ते प्रधाने राजानी दीकरीने स्वरूपवान जाणीने पोताना घरमां नोंयरामांसं ताडी राखी हती. ते जेवारें साधु थाव्या तेंवारें प्रधान मनमां बीहीनो ने जाण्यु के राजा ए साधुने वांदवा जशे. अने ते ज्ञानी हशे तो माहारी वात प्रगट करी देशे माटे कोइक युक्ति करी राजानुं मन फेरवी मुनिने म रावीनांखू एम विचारी ते प्रधान राजाने कहेवा लाग्यो के तारा पितानुं मनधर्मथी चल्युं जे अने राज्य पाबु सेवा इबा राखे . या वात सांजली राजा कोपायमान थयो अने रात्रं ते कृषीश्वरने मारवा माटे कुंनारने त्यां गयो त्यारे कृषीश्वर तो बेग बेठा मार्गमा सांजलेली त्रण गाथा नणे . ते गाथानो परमार्थ जाणी ने राजा प्रतिबोध पाम्यो ने जाण्युं जे महारो पितातो ज्ञानी ने मारा मननी वात साचे साची कहे . माटे ए प्रधान निश्चय खोटो ने. अने या गाथा प्रमाणे माहारी पुत्री पण एणेज संताडे ली . तेथीज बुद्धि केलवीने मने माहारा पिता साधुनी पासे जवानो एणे निषेध कयो , परंतु ए साधु कांश महारा वैरी नथी. अने महार राज्य लेवाने पण खता नथी. एवं चिंतवी पोताने घेर आव्यो अने बी जे दिवसें प्रधाननुं घर शोध्युं तेमांथी पोतानी पुत्री निकली श्रावी. तेवा रे प्रधानने काढी मुक्यो, फुःखी कीधो, हवे जे गाथा नणतां अर्थ सखोते गाथा त्रण नीचें लखीयें .यें ॥ उहावसीपोहावसी, ममं चेव निररकसि ॥ जाणि सि अनिप्पा, जवं नरकई गद्दहा ॥१॥ गयातो गया चेव, जोति न दीसई॥ थमे न दीना तुमें नदीगा, अगोडे बूटा अणुलिया ॥२॥सुकमाल कोमल महलया, तमे राति हिंमण सीलण्या ॥ अम्म Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३पाए दृष्टांतशतक. पसा ननि नयं, दीह पिहातुम्ह जयं ॥३॥ सिस्किअवं मनुस्सेणं,अपि जारिस तारिसं ॥ कीस मूढसिलोगेण, जीवियं परिरस्कियं ॥ ४ ॥ हवे कुबुढ़िया मत्स्यनो उंगणसाठमो दृष्टांत कहे जे. ॥ तीरे चाम्रफलं सदा वनचरो मीनाय दत्ते तदा, लात्वा स स्वगृहे स्त्रिये वदति सा तनक्कं ह्यानय ॥कत्वारोहणमेत्य तं जलनिधौ मेत्त्यंगना ते हृदं, बरं मूढ नगे मया किमु कृतं बुझ्यागतो जीवति ॥६०॥ अर्थःसमुझ्ने कांठे एक आम्र वृक्ष ले. ते वृद ऊपर एक वांदरो श्रावी ते आं बानां फल खाय . एकदा ते वांदराने एक महनी साथे मित्रता हती, ते थी तेने पण यांबाना ढोतरां श्रापे, तथा फल पण आपे एम करतां ए क दहाडे ते माउलो केरीनां बोतरां तथा फल पोतानी स्त्री वास्ते सई गयो. ते स्त्रीने जश् आप्यां. ते खावाथी तेने मीठ लाग्यां त्यारें माउली यें कडं जे ए फल जे खातो हो तेनु कालखं पण अत्यंत मीतुं हशे, माटे हे स्वामी, तेने तुं थाही तेडी श्राव तो तेनुं कालखं खालं, के जे थीमहारो मनोरथ पूर्ण थाय. ते सांजलीमाबलो वांदरा पासें आवीने क हेवा लाग्यो, जे हे मित्र, मारे स्थानकें श्राव्य अने समुनो विनोद त था मापणाने जो महारी स्त्रीपण ताहारा दर्शननो अभिलाष धरे . मित्रपण तेनेज कहियें, के जे परस्पर एक बीजाने घेर थावे ने जाय अ ने एक बीजाने खवरावे पीवरावे, एक बीजाने आपे लीए. इत्यादि व चन सांजली वांदरे हा पामी तेवारें वांदराने पोतानी पुंठे बेसारी मा बलो समुश्मा चाल्यो. मार्गमां ते मालो वांदरा प्रत्ये बोल्यो, जे हे मि त्र, तुं कहे तो हुँ साचुं बोलु, वांदरे कमु. सुखेथी बोल तेवारे माबले क ह्यु जे महारी स्त्री ताहरूं कालजें खाशे. या वात सांजली वांदरो हस्यो, अने बुद्धि करी बोल्यो के हे नाइ, एमां सी महोटी वात ले पण तुं मूर्ख देखाय ले. जे माटे तें पहेलां मने त्यांज केम न कडं तो कालखं यां बे बांधी थाव्यो j! माटे तुं कहेतो लइ आवं, त्यारे मो कयुं के जा ला थाव पडी वांदरो त्यांथी फलंग मारी समुइ कांते यावी यांबा कप र चडी बेगे. अने जीवतो रह्यो कडं ले के ॥दोहा॥ मित्तफुडाफुडि बोली ए, न जंपीह अलीएण ॥ मुफ महीला तोजीवशे, खाधे तुऊहीएण ॥१॥ रे जलचर सुलरकणा, एको काज न कीध ॥ घट निंतर जे कालजु, सो Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. में आंबे बह ॥ २॥ वानर गया महीमंमलें, जलचर जानिज घरे ॥ तुज महिला जीवे नहीं, तो तुं साथे मरे ॥ ३ ॥ जलचर जीव कुबुद्धि श्रा, एको काज न सि ॥घट नींतर जे कालखं, सो क्युं आंबें बह ॥४॥ ॥६॥ हवे धर्म करवामां शंसय न करवा आश्रयी साठमो दृष्टांत कहे जे. ॥ वक्तीशः सचिवं हि दीर्घलघुनिनों जाति हंगं गृहैः, साहदा धनमंदिरे मम पुरे ते रदणीया जनाः॥विद्यते यदि पंचषा वदति जो शून्यं पुरं स्या त्तदा, तत्त्वं मा कुरु तं तथास्तु नृपते तजणे साधवः ॥६१॥ अर्थःकोइएक राजा पोताना प्रधानने कहें , जे माहरा नगरमां केटलाएक निर्धन वसे , अने केटलाएक धनवान मोटा लोको वसे . तेमज केट लाएक न्हाना न्हाना घर , अने केटलाएक महोटां महोटां घरो बे. तेथी नगर शोनतुं नथी, माटे सघला लखेसरी धनवान पैसादार अने चार चार पांच पांच मजलाना सरखा घरवालाने राखीयें. अने सामान्य निईन लोकोने काढी मूकीये. तो नगर शोने. या राजानुं कहेलु सांन लीने सुबिधिमान एवो प्रधान बोल्यो जे, हे राजन् ! एम करवाथी तमा रा नगरमा मात्र पांच सात घर रहेरो. नगर आद्म शून्य थ जाशे. माटे एम न करो. आ वातथी राजा समज्यो. अने प्रधानने कयु के, जेम डे तेमज रहेवा आपो. आ दृष्टांते करी पोताना गबने विषे सर्व साधु कांड झान क्रियामां सरखा न होय तो काढ घाल न करतां धर्मनेविषे मनस्थिर राखी धर्माचरण करवु. कयुं , के॥नगरे सदृशाः सर्वे, नवंति धनिनो न हि ॥ गोपि साधवो ज्ञान, क्रियान्यां न हिसदृशाः ॥१॥ इति साठमो दृष्टांत कुलटा सासु बे जमाश्मां राखेला अंतरनो एकसठमो दृष्टांत कहे . ॥ इष्टानिष्टसमागतौ स्वसदने जामातृकावेकदा, जग्ध्यर्थ निकटे स्थितौ कुटलया स्थाव्यां तदादेवरं ॥ मुक्तं पायसकं परस्य सितिका स्थूली विलो क्यास्य किं, सोवग्मे यदि वां किमस्ति तिलकं श्वश्रूः करोम्यास्यकं ॥ ६ ॥ अर्थः-कोश्कने घेर बे जमाइ परोणा आव्या. तेमां एक जण सासुने घणो वाहालो हतो, अने बीजो ज्वालो हतो. पली बेहु जण जमवा माटे पासें पासें बेठा त्यारे ते कुलटा सासुयें पोताना वाहाला जमाश्ने थालमां सेव सुंहाली दूधपाक खाजां खुरमा आदिक पीरश्यां. अने बीजा जमाइ ना थालमां धोला यवनी थुली रांधी पीरशी बेतु जमवा बेग. तेवारे थु Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३६१ ली वालो जमाइ बीजा जमाइनु उत्तम जोजन जोइने कहेवा लाग्यो जे, हे सासु ! तमें पीरसतां जुटयां बो. किंवा महारा कर्मने योगें खीर सेव प्रमुखनी थुली थ गइ. त्यारे सासु बोली के हुँ नयी नूली, अने खीर सेवनी थुली पण थइ नथी. में मोढुं जोश ने टीटुं कां ते माटे थुली यें पेट जरी ऊतो. ॥ दोहा ॥ एक ने पिरसी सेव सुंहाली, एक ने पिरसी थूली ॥ के मुज दाहाडा वांकडा, के पिरसण हारी जूली ॥ १ ॥ नां तु ज दीहा वंकडा, ना पिरसण हारी नली ॥ मों देखीने टीयूँ काढयु, मारि गलगल थूली ॥ २ ॥ ए एकसतमो दृष्टांत ॥ ६ ॥ कोश्पण नियम लेवो ते लान करे तेनो बासठमो दृष्टांत. ॥ टाल्यां वीक्ष्य ततोनि सगुरुमुखा देतगृहीतं व्रतं चक्री त्वेकदिने ग तः स मृतिकारखन्यां वणिकप्टष्ठंगः ॥ इव्यं तत्र हि निर्गतं यदि वणिक् दृष्ट्वेत्यवर दूरत, स्त्वं मायाहि अवेहि मेपि सकलं लात्वालये तमतः॥६३॥ ॥ अर्थः-कोइएक नगरमां गुरु आव्या. त्यारें घणां लोकें पञ्चरकाण लीधां तेमां एक वाणीयें एवं नियम लीधुं, जे दुं आ गामना रहेवासी कुं जारना माथानी टालि जोइ, पञ्चरकाण पालं. पडी ते नित्य कुंजारनी टा ली जोइ पञ्चरकाण पारे एम करतां एक दिवस कुंजार माटी लेवा सारं धूलनी खाणे गयो हतो पाउल वाणीयो कुंजारने घेर आव्यो तेने घेरथी समाचार मव्या के कुंजार धूलनी खाणे गयो ने तेवारें वाणीयो पण त्यां खाणे गयो ते समय त्यां कुंजारने माटी खोदतां सोनैयानों चरु मल्यो ए अवसरें वाणीये पण कुंजारनी टाल दीती. त्यारे वाणीयो कहेवा लाग्यो के “दीतीरे दीठी” एम बोलतो पाडो वट्यो ते सांजली कुंनारे जाण्यं. जे व्यनी कडा ए वाणीयायें दीती. तेथी कुंजार मनो थाने वापीयाने सा द करवा लाग्यो. के “ मजा रे मजा" एम कहेतो वाणीयानी के. दो ज्यो. अने कहेवा लाग्यो जे, अर्धनाणुं मारूं ने अर्धनाणुं तारूं ए वात जाणी वाणीयो पाडो वली अर्धनाएं ला घेर आव्यो. माटे कोइ पण नियम लेवो ते लानकारक ने कह्यु , के ॥ योपि सोपि ध्रुवं ग्राह्यो, नियमः पुण्यकांक्षिणा ॥ स्वल्पोप्यनल्पलानाय, यथा खल्वाटपश्यकः॥१॥ हवे अनंता-बंधी क्रोध पर त्रेसठमो दृष्टांत कहे . ॥ लब्ध्वा सर्षपशाकमाशु गुरुणा जग्धं तदा कोपतः, शिष्यश्चिंतति पा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. तयामि दशनानास्ये गुरोश्चैकदा ॥ कृत्वा तेऽनशनं दिवं शवमुखाईतांश्च सो पातयन् ,मृत्वा क्रोधवशेन चापि नरकं प्राप्तो विनीतो जडः ॥ ६४ ॥ अ र्थः-कोइएक नगरमां गुरुने शिष्य बेद विहार करता याव्या. एक दिवस शिष्य नगरमां वहोरवा गयो, त्यां सरशवनी नाजी वहोरी आव्यो. ते गुरुये एकलायें खाधी, पण शिष्यने दीधी नहीं. तेथी ते शिष्य कोपायमा न थ विचारवा लाग्यो के, एणे मुजने शाक न बाप्यु. माटे आ गुरु ना दांत निथें पाईं. पण ते गुरु जीवतां तो दांत कोरीतें पाडी शकाय नहीं, तेवारे रात दिवस एज चिंतन करतो हतो. एक दिवस गुरु अ नशन व्रत करीने परलोकें पहोंच्या. वलता ते शिष्ये पबरवती गुरुना श बना दांत पाड्या. ते पुर्नव्य क्रोधना आवेशथी मरीने नरके गयो. अ विनीत जिन शासननो उबापक थयो ए अनंतानुबंधी कोध जाणवो माटे क्रोधपरिहरवो कह्यु ,के॥यो नवेद् जगति गवर्जितो, दीर्घरोषसहितश्च मान वान् ॥सोत्रःखमधिकं लनेद्यथा, दंतपातमुनिनात्पमत्रवै॥ इतित्रेशठमोह हवे धनने मान मले ते ऊपर चोशठमो दृष्टांत कहे जे. ॥ निःस्वं सोदरकं निरीक्ष्य नगिनी चाता न मे सूपकत्, श्रुत्वा सद्यग लं धनं जनपदे लात्वा गतस्तगृहे ॥ स्थाव्यां मुंचति खादिमं वदति स स्वा नूषणान्यत्थ जो कि ब्रांतो वदसीति येषु सुरुतस्तेषामहं पूर्वगः॥ ६५ ॥ अर्थः-कोइएक निर्धन मनुष्य आश्या धरिने पोतानी बहेनने त्यां गयो तेने जोश ने बेंन लाजी ने सदुने कहेवा लागी के, या महारो नाइ न थी, पण या महारा पितानें घेर चूलो फुकनार रसोयो ३ वा बहेन ना वचन सांजली ते उतावलो धन कमाववा माटे परदेशे गयो. त्यां जा घjक धन कमाणो वली ते धन लइ फरीने पोतानी बहेनने घेर आव्यो. तेवारें बहेने पण धनवान ना जाणीने वागता स्वागता करी, जोजन व खत थालमां सरस पकवान प्रमुख पीरश्यां त्यारें नाइने पूर्वलो दिवस सां जरी आव्यो. तेथी पोतें जे थांगली प्रमुखमां घरेणां पहेयां हतां ते सर्व थालीमांहे मूक्यां. अने बेहेन सानले तेम कहेवा लाग्यो के, हे आनूष यो, तमो या सर्व पदारथ जमो. त्यारें बहिने कर्वा के जाइ एमु कहो बो? कां गांमा तो नथी थया? त्यारे ना कहे के हे बेन हुँ गांमो थ यो नथी पण जेने ते पीरश्युं ले तेने दुं जमवानुं कढुंबं जोने पहेला हुँ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ दृष्टांतशतक. निर्धनपणामां ताहारे घेर आव्यो हतो त्यारें मनें तें बापानो रसोयो कह्यो हतो माटे ए धननें मान ले. मने नथी. दोहरो ॥ गरथें आदर दीजीयें, हकारीजें दाम ॥ पेहेले फेरे यापीचं, चुना फूंकण नाम ॥ १ ॥ हवे जेह नाम होय तेवा गुण न होय तेनो पांशठमो दृष्टांत. ॥ नाना वितणपालकोऽस्ति धनवान तस्यांगना चिंतति, नो तिष्ठामि गृहेऽस्य यामि धनपालस्य स्वगेहाजता ॥ दृष्ट्वाऽध्वन्यमरं मृतं च धनपं ह्यन्या लये निदितं, लमी काष्ठकविक्रयां गृहगता ज्ञात्वा गुनं ठिठणम् ॥ ६६ ॥ अर्थः-कोइएक नगरमा एक धनधान वसे ले. तेनुं नाम विठणपाल हतुं. तेथी तेनी स्त्री ज्यारे बाहार जाय त्यारे सङ तेने किंठणपालनी स्त्री कहिने बोलावे. तेथी ते स्त्रीयें जाण्युं जे महारे हवे विंग्णपाल ना घरमां रहेवू नहीं कोई पण धनपाल के जगपाल एवा उत्तम नाम धारकने त्यां जा ने स्त्री थ रहे. एमधारी घरथी बाहेर निकली आगल जतां मार्ग मां कोइएक अमरपाल नामें माणस हतो, तेने मरी गयेलो दीगो. वली आगल चाली, तेवारें को धनपाल नामा पुरुपने जीख मागतो दीतो. वली जरा बागल चाली त्यां लक्ष्मी नामनी स्त्रीने काष्ठ वेचती अने बाणा वीणती नजरें जो ते सर्व जोइने विचायुं, जे कांड नामनुं कारण नथी. माटे मारो तीठणपाल ,तेज नलो ले. दोहरो ॥ अमर मरंतो में सुण्यो, नीखंतो धनपाल ॥ लबी वेचंती लाकडां, जलो मारो लिंग्णपाल ॥ १ ॥ हवे गुणग्राहक कपर कृमावासुदेवनो बाराहमो दृष्टांत. ॥ इंः पर्षदि वाक्यमाह नृनवे कृमो गुणग्राहको, नूत्वा श्वानमृतं सु रो निपतितो मार्गे तमालोक्य सः॥ दंतश्रेणिगुनां गुनोपि सकलं त्यत्त्कागु नं दोषकं, नूत्वा नूत्प्रकटं हरिर्दिवि यदा धन्योऽस्ति नत्वा गतः ॥ ६ ॥ ॥ अर्थः-एक दिवस पोतानी सनाने विषे शकें एवं वचन बोल्यो के, वर्तमान समये मनुष्य लोकने विषे एक कम वासुदेव जेवो गुणग्राहक बे, तेवो बीजो कोज नथी. था वात सांजली एक देवता श्रीकृष्लने च लाववाने काजे, मरेल कूतरांनु रूप विकूर्वि नगरमा मार्गनेविषे आवी प ज्यो. तेमांथी दुर्गध चालवा मांमी. तेने जोड्ने कमवासुदेवें ते कूतराना मुर्गध प्रमुख अवगुण सर्वे पडता मूकीने कयुं के, आ मृतक श्वाननी दे तपंक्ति केवी मनोहर ले ? एम मृतक श्वानमांजे गुण हतो ते लीधो.अने Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ३६४ दुर्गादिक गुणो सर्वे पडता मूक्या. बीजा सर्व लोकोयें कयुं के, था दुर्गंध वासे बे. या गुणग्रहीपणुं श्रीरुम्मनुं जोइ देवता पोतानुं मूल रू प धारण करी, प्रगट थइ, श्रीकृमने पगे लागी, प्रशंसा करी वरदान था पीने, पोताने स्थानकें गयो, माटे उत्तम पुरुष सहु कोइनो गुण जेवो, पण कोइनो अवगुण न जेवो. कयुं बे के ॥ श्लोक ॥ संसारे सुखिनो जीवा, न ति गुणग्राहकाः ॥ उत्तमास्ते च विज्ञेया, दंतपश्यरुष्णवत् ॥ १ ॥ मलत्वे रसझाया, मिश्रयोः कीरनीरयोः ॥ विविच्य पिबति कीरं, नीरं हंसोपि मुंचति ॥ २ ॥ श्रसंख्याः परदोषज्ञाः गुणज्ञाश्वापि केचन ॥ स्वयमेव स्वदोष ज्ञा, विद्यते यदि पंचपाः ॥ ३ ॥ खीरमिव जहाहंसाः, जे घुति गुरुगुण समिक्षा || दोसेवि वतयंतो, तं जाए सुजालयं पुरिसं ॥ ४ ॥ ६७ ॥ वे समकेतन उपर सडसम्म दृष्टांत कहे बे. ॥ सम्यक्त्वं यदि वर्णितं च हरिणा श्री श्रेणिकस्यामरो, नूत्वा साधुनिन स्तदा जलचरान् गृह्णाति श्रागत्य सः ॥ दृष्ट्वा वक्ति किमाकरोषि हि मुने वं सहयाहेतवे, पुर्नव्यस्त्वमसीति नो जिनमते कृत्वा स्वरूपं स्तुतः ॥ ६८ ॥ अर्थ:- एक दिवस इंनी सनामांहे समकेतनी बात चाली त्यारें श में श्रेणिक राजानं समकेत वखाएयुं ने कयुं के, ए राजा दृढ समके तनो धणी बे. ते सांगली एक मिथ्यादृष्टी देवतायें राजानी परीक्षा कर वा माटे, साधुसरिखं रूप करी उधो, मुहपत्ति, दांगो, कांबली लइ हाथ मां कोली घालीनें एक तलावां पेतो. त्यां जइ माबलांवनें ग्रहण करवा मंड्यो, तेने राजायें कह्युं के, हे साधु ! या विपरीत कर्म केम करो बो ? मु निवेषने विटंबना शुं करो हो ? त्यारें कपटी साधु बोल्यो के, हेराजा ! तुं सा धु धर्ममां समजे नहीं हुं या मालां काढी तेने वेचीने कांबली लइश. ते श्री वर्षाकालें जीवदया पलशे. जे माटे पाणीना एक बिमां श्रसंख्याता जीव जगवंते कह्या बे, ते नगरशे. या वात सांजली राजा बोल्यो के, तु दुर्नव्य अनंत संसारी देखाय बे. जे माटे साधुना वेषमांहे या कर्म करे बे ? जैन शाशनमांहे ए वात कही नथी. जैन शास्त्रथी उलटुं बे, ए म राजायें तेने कयुं. पण बीजा साधु उपर द्वेष न कस्यो तेवारें ते देवता यें ज्ञानेंकरी जाएयुं. जे खातुं महारुं विपरीत याचरण देखतां पण रा जाने बीजा साधुनी उपर अनाव न थयो. तेवारें देवता पोतानुं रूप प्र Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३६५ कट करी श्रेणिक राजानी स्तुति करी स्वस्थानकें गयो. कयुं के, श्लो क ॥ क्रियाहीनं कुसाधु च, दृष्ट्वा चित्तं न चाव्यते ॥ तत्सम्यक्त्वं दृढं क्षेयं, धर्मे श्रेणिकनूपवत् ॥ १ ॥ इति सडसतमो दृष्टांतः ॥ ६॥ हवे जीवदया नपर अडशमो दृष्टांत कहेले. ॥ नूपः पर्षदि वर्णितो हि हरिणा देहीति देवो गतो, ऽवक् श्रुत्वा नृबलि न चेत्पुरजनान् हन्मीति मंत्रोऽनवत् ॥ सोपायं च तदा जनैशिशुके लात्वा वधस्थो हसन, तत्स्थाने नृपतिः स्थितो यदि सुरस्तुष्टो नृपं श्लाघते ॥ ६॥ . अर्थः-एकराजा दयावंत हतो, तेने शकेंनी सनामांहे इंई वखाण्यो. ते जोइ एक देवता तेमनुं पारखं करवा माटे ते राजाने कहेवा लाग्यो जे, हे राजा ! एक पुरुषनो बलि थापो. अने जो नहीं आपो तो, सर्व नगरवासी लोकोने ढुं मारीश. त्यारें राजा कहे जे. जे बलिनी' वात कां मुफथी थाय नहीं, ए वात बनेज नहीं. त्यारे ते देवतायें नगरनी ऊपर नगर प्रमाणे एक मोटी शिला विकुर्वी, अने कहेवा लाग्यो जे, दमणां या शिलायें करी तारूं या सर्व नगर चकचूर करीश. पनी जेवारें 'शिला पडी पडी' एम बूमो पाडवी सरु थर,तेवारें नगरजनो एकता थश्ने राजाने कहेवा लाग्यां जे हे राजन! एक पुरुष वास्ते घणानी हत्या लागशे. तेने राजायें कह्यु के, ए वात कां मुझने कहेशो नहीं,जे सरज्युं दशे ते थाशे. एवो कोण जे जे खुशी थइ मरवा वांछे ? के जेनुं बली ए देवने आपीयें ? तेवारे सर्व नगरजनोयें विचार कयुं जे एक सोनानुं पुतलु कोटिरूपैयानुं बनावी,तथा कोटी सोनैयानी रकम को निर्धनने यापीयें,अने ते पोतानो पुत्र खुशी थइने थापणने थापे,तो देवताने बली यापी उपकार करियें. ए वात सर्वकोयें कबूल कीधी. पडी ते पुतलुं लश्ने कोइ निर्धन पुरुषे खुशीथी पोतानो पुत्र प्राप्यो, तेने राजानी पाशे लाव्या, अने बलि देवाने स्थान के ते बालकनें बेसास्यो. राजाने देखी बालक हसतो हसतो कहेवा लाग्यो जे माहरे आज मोटो उत्सव ले. मरवू एकदिवस सदु कोश्ने , परंतु मारा एक जीवने माटे पाखुं शहेर गरे .या वात सांजली राजा पोतें ते बालकने स्थानकें वेतो. त्यारे देवता तुष्टमान थयो अने राजानी स्तु ती करी कहेवा लाग्यो के, हे दयावंत! तुजने जेवो इंई सनामां वखाण्यो तेवो तुं यथायोग्य बो. एम कही देवता पोताने स्थानकें गयो. कयुं के, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ॥ दोहो ॥ सोनुं शरीर समुं देश्ने, उपर शोनश्श्रा कोडि ॥ आणी बाल बेसारीयो, बलि देवाने ठोडि ॥ १ ॥ स्वामी सामुं देखी हस्यो, बालक ह दय उल्लास ॥ देखी दयापति मनधरी, यावी वेठा बालक पास ॥ ५ ॥ बालक मुकी मुझने नखो, जो होय बलीनुं काज ॥ देव संतोपें इम कहे, करो तुमे अविचल राज ॥ ३ ॥ ६॥ ॥ इति अडशठमो दृष्टांत ॥ जीवदया उपर मेघरथराजानो उगणोतेरमो दृष्टांत कहे . ॥ वजी पर्षदि वक्ति मेघरथको नूपः कृपातत्परो,नूत्वा नूविहगौ सदापि नृपतेरुत्संगके साध्वसात् ॥ रक्ताऽदोऽपतदीश रद शरणे तं तनयं मा कुरु,श्ये : नायात्मपलं ददौ यदि सुरो नत्वाशु नाकं ययौ ॥ ७० ॥ अर्थः-एक दि वस इशानेंनी सनामां इं प्रशंसा करी के, मेघरथराजा दयावंत अने कोश्थी चलायमान करी शकाय नहीं एवो . या वात सांजली कोश्क देवतायें पारेवानुं रूप तथा सिचाणानुं रूप विकूव्र्यु. तिहां आगल पारे, अने पळवाडे सिचाणो चाल्यो. तेमांथी प्रथम पारेवु आवीने मेघरथराजा ना नत्संगमां पडयं,अने धूजतुं धूजतुं कहेवा लाग्यु के, हे राजन् ! मारी पाउल मने मारवा माटे सिचाणो आवे , तेनाथी मारूं रक्षण करो.या वात सांजली राजायें ते पारेवानें पोतानी पासे राख्यु. तेवामां सिचाणो याव्यो. ते राजाने कहेवा लाग्यो के, हे राजन् ! तुं ते पारेवाने बोड, म ने अत्यंत दुधा लागी जे. जो तेने न आपो तो तमारुं मांस पारेवा जे टखें तोलीने मने पो. त्यारें राजायें तेने पोतानुं मांस कापी कापी आपवा मांझ्युं, परंतु देव मायाथी ते मांस पारेवानां बराबर थयुं नहीं. त्यारे राजा पोतेंज आखो त्राजवामां बेटो. अने सिचाणाने कह्यु के, म हारूं नहाण कर. ते जो देवता प्रसन्न थयो, अने कह्यु जे,हे राजा! तारूं सत्य घणुं प्रशंसनीय जे. एम कही नमस्कार करीने गयो. कडुं के ॥ दयावंत देव सांजली, कस्यां पंखी बे रूप ॥ एक राजा खोले पज्यो, एक दीये तस टूप ॥ १ ॥ मेघरथ सुरशुं कहे, मूक पारे एह ॥ हा लाग्यो मूके नहीं, राजा दीयो तस देह ॥ २ ॥ अतुल पुण्य नपराजीयो, पाम्या पदयुग जोड ॥ दयाप्रनावें देवता, सेव करे बदु कोड ॥ ३ ॥ ७० ॥ हवे हिंसानिषेधोपदेशनो शित्तेरमो दृष्टांत कहे . ॥ श्रुत्वाजावचनं हि नोजनृपतिर्यज्ञे कविं एन्नति, प्रोचुस्ते किममीनु त Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टातशतक. ३६७ वदति नो विज्ञप्तिकामीश सः ॥ कीदृदां यदि काव्यमेव कविना प्रोक्तं प्रबु इस्तदा, मुक्त्वा सर्वपशून् कतो हि नियमो यज्ञस्य धर्मे रतः ॥७१॥ अर्थःजोजराजायें यइनेविषे बकरां होमवा अणाव्यां. ते बकरां बूम पाडवा लाग्यां, त्यारें नोजराजायें धनपाल पंमितने पूज, जे बकरां शामाटे बो से ले ? पंमितें कह्यु के, हे राजन् ! ए अरज करे ने के, सर्वलोक मलीने सांनलो. तेने राजायें कयुं के,शी विनंती करे ? ते तमे जाणता हो तो कहो. तेवारे पंमितें एक काव्य कह्यु. जे हे महाराज ! जो यज्ञमां होम्या थी पशु स्वर्गमां जाय , तो पण अमारे स्वर्गमां जवानो खप नथी. अ ने होमवाथी जीव स्वर्ग जता होय.तो अमने शामाटे स्वर्गमां मोकलो डो? तमारा मातापितादिकने यज्ञमा होमी स्वर्गमां केम नथी मोकलता? का रण के सारो पदार्थ पोताना अति वाहाला निकट सगांने अपाय. माटे ते ने मोकलवा योग्य वे. अमो तमारा माता पितादिक नथी. या प्रमाणे बकरां कहे , तेनुं काव्य धनपाल पंमितें कह्यु. ते लखे ने ॥ नाहं स्वर्गफ लोपनोगतृषितो नान्यर्थिनस्त्वं मया, संतुष्टस्तृणनदणेन सततं साधो न युक्तं तव ॥ स्वर्गे यांति यदि त्वया विनिहता यझे ध्रुवं प्राणिनो,यज्ञ किंन क रोषि मातृ जनकैः पुत्रैस्तथा बांधवैः ॥१॥ ए वात सांजली राजा प्रतिबोध पाम्यो. पंमितनी वात खरी जाणीने बोकडा सर्व मुक्या. अने यज्ञ करवानो पञ्चरकाण कस्यो, हिंसा न करवानो नियम लीधो, अने धर्मनेविषे दृढ थयो। जिहां संप होय त्यां लक्ष्मीनो वास रहे तेनो एकोत्तेरमो दृष्टांत. ॥ सुप्तेन्यः कमलाह यामि सदनात्त्वं याचयेन्मां तदा,याचिष्ये हि वरं प्रनातसमये पृष्ठं कुटुंबं च किं ॥ याचे वक्ति पृथग्धनं लघुवधूःस्नेहं कुटुंबे ऽर्पय, तहाक्यं कथितंहि तेन यदि सा नोयामि ते यंत्रिता ॥ ७ ॥ अर्थः-कोइएक धनवान् शादुकार रात्रं सुतो , तेवामां लक्ष्मी आवीने शादुकारने कयुं के, हुँ हवे तारा घरमांथी जाइश. माटे तारे वरदान जे जोश्य ते माग. ते ढुं देती जालं, त्यारे ते बोल्यो जे आजें तो हुँ मागीश नहीं, पण सवारमा माहारा कुटंबीने पूबीने मागीश. तेवारें लक्ष्मी बोली जे जलुं. पनी प्रनाते शेठे सदु कुटुंबीयोने पूबवा मांमयुं, त्यारे कोयें जु दा जुदा धन लेवा कह्या. कोश्यें कां बीजें वरदान मागवा कह्यु. एम कर तां नानेरा बोकरानी वहुनें पूज्युं त्यारे तेणें कयुं के, हे ससराजी, था Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. पणा कुटुंबमां स्नेह सुसंप रहे ते मागो ने ते वात ससराना चित्तमां पण बरोबर उतरी. पडी बीजे दिवसें रात्रं लक्ष्मी यावी अने शेठने कह्यु के, वर माग्य. तेवारें शेनें कह्यु के, महारा कुटुंबमा सुसंप रहे ते वर आप. त्यारे लक्ष्मी कह्यु के, हवे माराथी जवाय नहीं, कारण के तमोयें संप माग्यो, तो ज्यां संप , त्यां मारे रहेQज जोश्ये. माटे ज्यां संप त्यां ल क्ष्मी रहे . कह्यु , के ॥ दोहो ॥ शेठे कुटुंब संप मागीयो, लक्ष्मी कहे कर जोड ॥ जाऊं तो जाइ शकुं नहीं,राखी मारी मरोड ॥१॥ श्लोक ॥ गुर वो यत्र पूज्यंते,यत्र वित्तं नयार्जितं॥अदंतकलहो यत्रतत्र शक वसाम्यहं॥२॥ उष्टर्नु नाम लेवाथी पण विघ्न थाय ते ऊपर बहोतेरमो दृष्टांत. ॥ कश्चित्पबति मिंगरं वद दयः कस्येति यस्यास्म्यहं, कस्य त्वं तदहं तथापि च तवेशारख्या न किं कथ्यते ॥ सोऽवच दूधितोस्मि खादिम मिदंसा हीश गोत्रं जुतं, प्रोक्तं तेन तदा हयेन निहतस्तन्नामतस्तत्फलम् ॥ ७३ ॥ _अर्थः-कोइएक पुरुषे सारो घोडो जोयो, त्यारे तेणें ते घोडाना चाक रने पूब्युं के, ना आ घोडो कोनो बे ? ठाणीयें कह्यु के, जेनो ढुं चाक र बुं, तेनो था घोडो . त्यारें फरी ठाणीयाने पूब्युं के तुं केहनो चाकर ले? तेणें कह्यु के, जेनो या घोडो ने तेनो ढुंचाकर बूं. वली ते पुरुषेक युं के तुं अवलुं बोलतां ताहरा स्वामीनुं नाम केम नथी लेतो ? त्यारे ते में कडं के हजी दातण का नथी, तथा जम्यो पण नथी, नख्यो @ मा. टे प्रनातें तेनुं नाम लेवा योग्य नथी. ते सांगली पुरुष बोल्यो, जे तुं जुलै बोले . जो तुं तारा स्वामीनु नाम लीये, तो तरत तुऊने या सुखडीयें नरेली तबक आपुं. तेवारे तेणें सुखडीनी लालचे पोताना स्वामीन नाम लीधुं. एटले तेज समये घोडो नडक्यो, अने मुखनपरें पाटु मारी, तेथी सुखडी दसे दिशायें परजा परजा थगइ, तबक पण क्यांय जश्पडी.एम केटलाएक अधर्मीनां नाम लेवाथी आप्रकारें विघ्न थायडे. माटे एवा पुरुष नुं नाम खावानी अगाक नलेवं. कर्वा डे के, श्लोक ॥ पापिष्ठनाम न या ह्यं प्रत्यूषेऽपि कदाचन ॥ यक्तं हि तदा तस्य, हतो घोटकलत्तया ॥ ७३ ॥ हवे परजीवनुं मांस सोंधु ते ऊपर तहोंतेरमो दृष्टांत कहे जे. ॥ नूपः एहति मांसमौट्यमनुगान, प्रोचुश्च तेऽल्पं सुतोऽनल्पं वक्त्यनयो निवारयति नो तं दर्शयामि प्रनो ॥ गत्वा सर्वगृहे नृपाय हृदिजं तदेहि ना Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३६ संपलं, ग्राह्यं लाहि धनं न तेन तदितो लात्वार्पितं नूपतेः ॥ ७ ॥ - अर्थः-एक दिवस श्रेणिकराजा पोताना उमरावो प्रमुखनें कहेवा ला ग्यो हमणा कयी वस्तु सोंधी , अने सारी ? तेवारे उमराव प्रमुखें क युं के,हे महाराज मांस घणुं सोंधू बे. ते वखत श्रेणिक राजानो पुत्र अ जयकुमार बोल्यो के माहाराज, मांस मोंघु बे. तेने राजायें कह्यु के, तुंराज बालक सोंघा महोंघामां गुं समजे? ते वखत बनयकुमारे कह्यु के, ए वातनो निश्चय हुं यापनें थोडा दिवसमां करी देवाडीश. पनी राजाने अनयकुमार कह्यु के, तमारे जूठी रीतें घरमां मंदवाड जणावी पांच दिवस सनामां आवq नहीं. तेथी ते वात राजायें कबूल करी ने सनामां न आव्या. त्यारे गाममा खबर पडी के श्रेणिकराजा मांदा ,एवी प्रसिदि थ. ते वखत थ जयकुमार युक्ति करीने सर्व उमरावो अने दरबारी मनुष्यो पासें तेमने घेर रा त्रियें जश्ने कह्यु के हे उमरावो, वैदें कह्यु ,के उमरावोना कालजानुं मांस राजा खाय तो राजाने करार थाशे. माटे तमे सदु मली पल पल प्रमाण पोतपोतार्नु कालखं काढी आपो. त्यारे कोश्ये मांस थाप्युं नही. अने सदुयें कह्यु के, अमारे पासे जेटलुं जोश्ये तेटलुं धन लीयो, पण का लजुं तो अपाय नहीं. पली सदु पासेंथी धन त राजाने बताव्यु,ने राजा सनामां आव्यो. ते वखतें अनयकुमार कह्यु के,हे महाराज जुन बधायें धन घणुं आप्युं, पण मांस कोणें न आप्यु माटे मांस के, मोंधू, पार का जीवोनुं मांस सोंघु . तेपण जोरावरी जोता तो मोपुंज ने. सांन ली उमराव सर्व चुपकी करी रह्या या वात राजायें खरी जाणीकमुळे के,स्व मांसंर्लनं लोके,लदेणापिन लन्यते॥अल्पमूल्येन लन्येत,पलं परशरीरजम्॥ हवे अनव्यजीव श्रीतीर्थकरना उपदेशथी पण दाय नहीं ते कपर चम्मोतेरमो दृष्टांत कहे . ॥ मेघं वक्ति च नारदस्तव रिपुर्मुजाख्यशैलो नुवि, श्रुत्वा कुप्यति सो णुकस्त्वमसि तं रे याहि मुजागतः ॥ कोऽयं मम वर्षति प्रबलकं नेत्तुं न मां शक्यते,वके हास्यमतो दृषद्यदि यथा जव्यो जिनैर्नाषितः ॥७॥ अर्थःएक दिवस नारद मुनि मेघनी पासें आवी कहेवा लाग्यो के, मृत्युलोकने विषे तारो शत्रु मगसेलीयो पाषण ले. ते घणो अहंकार करे ,अने कहे ने के, मुमने कोई नेदी न शके. ते वात सांजलीने मेघ पण गर्दै चढी क Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हेवा लाग्यो के, तेने दुं हमणाज पलाली नावं. एम कही मगसेलीया उ पर कोपायमान थयो. पी वली ते नारद मगसेलीया पाषाणनी पासें आवीने कहेवा लाग्यो के, हे बापडा तुं आंहीथी दूर जतो रहे,केमके, हा ल ताहारी ऊपर मेघ कोपायमान थयो , माटे तुजने गाली नाखशे. त्यारे मगसेलीयो कहे डे के, महारी पागल बापडो मेघ कोण गणत्रीमा ने. दुं महाप्रबल बुं माटे मुझने गाली नाखवाने कोण समर्थ डे ? एम कहे बे. तेवामां पुष्करावर्त मेघ तुरत वरषाद वरसाववा लाग्यो ते सात दिवस वरस्यो. परंतु ते पाषाण जरा पण नेदाणो नहीं. नेदवाने बदले उलटो धोवाश्ने ऊपरनी धूलि सर्व निकाली गई, तेथी साफ थई गयो. तेवारे ने सदु मेघनी हांसी करवा लाग्या.एम जे अनव्यजीव डे ते तीर्थकरने उप देशे पण समजे नहीं. एवो नाव श्रीजिनें कह्यो . कह्यु के, मुजशैलो मुजमानः,पुष्करावर्तको घनः॥जंबुद्दीपप्रमाणोऽसौ,नारदः कलिकत्तयोः॥७५ हवे आर्यदेशे जन्मीने जे धर्म नथी करतो तेनो पंचोतेरमो दृष्टांत. ॥ केन श्रेष्ठिजडेन हाटकमयी स्थाली गृहे कारिता, धृत्वा रूपकपीठ के प्रतिदिनं तस्यां रजो मुच्यते ॥ तच्चार्यकदेशवंशनृवपुर्धर्म च लब्ध्या जडा, मानुष्या यदि नाचरंति सुखदं मोदस्य कामे रताः॥७६॥ अर्थःको एक जड शेठ हतो, तेणें सोनानी थाली करावी, तथा वली एक रूपानो बाजोट घडाव्यो ते बाजोतनी ऊपर नित्य सोनानी थाली मूकी ने तेमां खोबो नरी धुड नांखे. ए दृष्टांते आ आर्य देशमां अवतार ल ३ मनुष्य जन्म पामीने, जे मोदसुख देवावालो एवो श्री जैनधर्म धारा धन करतो नथी, ते तेहवोज मूर्ख जाणवो. जे माटे मनुष्यजन्म ते सो नानी थाली सरखो . ते पामीने जेणें धर्म न कस्यो, तेणे सोनानी था लीमा रज नाख्यानी परें अवतार गुमाव्यो, अलेखे कीधो, जे कामनोग ना आशक्त जीवो ,ते धर्म करी शकता नथी. कह्यु के, दोहा ॥ सुव ऐ स्थाली मनुष्य नव, पाप धूली कण जोय ॥न कस्यो ते नर जाणजो, मूर्ख शेठ सम होय ॥ १ ॥ ७६ ॥ इति पंचोतेरमो दृष्टांत ॥ हवे मुखें वैद्य ऊपरे बोतेरमो दृष्टांत कहे जे. ॥ मृत्वा रोगहरो गतो यदि दिवि ज्ञात्वा स्वपुत्रं जडं, दत्ता तेन सुधा तदा जनरूते गति रोगाः समाः॥ पीयूषैर्विशदं कृतं निजवपूराझी गदैः Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३७१ पीडिता, राजा वक्ति निरामयं कुरु निषनो चेत्स निष्कासितः ॥ ७७ ॥ र्थः - कोई एक वैद्य गुनध्यानथी मरण पामीने व्यंतर देवता थयो. तेनी पाउल तेहनो पुत्र मुरख हतो. तेनें पुत्रना स्नेहें करी ते देवतायें अमृतनो कुन याप्यो. ते अमृतनुं अंजन कयाथी सकल रोग नाश पामे. माटे ते पुत्र मृत जगतमां सर्वत्र अत्यंत प्रसिद्ध थयो, अने घणुं ड् व्य मेलव्युं. एक दिवस ते अमृतनो घडो दासीपासें मंगावीने पोतेंज पो ताना शरीरने निर्मल कस्युं. एटले अमृते करी स्नान कीधुं. तदनंतर ते गामना राजानी राणीने कांइक रोग उत्पन्न थवाथी राजायें ते वैद्य पुत्र पू, के तमारी पाशे निरोगी थवाय तेवुं उपध ले ते यापो, अने मा हारी राणीने निरोगी करो. त्यारे ते वैद्यपुत्रं यमृत ढोली नाखेनुं होवा श्री निरोगी करवाने ना कही. त्याऐं राजाए कोपायमान थइ तेने गाम ब हार काढी मूक्यो. दोहा ॥ अमृतघडो ते नरवपु, नाखे कारज काम ॥ यालें जन्म तिणें हारीचं, मूर्खवैद्यसम जाण ॥ १ ॥ स्वर्णस्थाने दिप ति स रजः पादशौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वायत्येधनारं, चिंतार नं विकिरति कराद्वायसोड्डायनार्थ, यो दुःप्राप्यं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः॥१॥ कथायुगलकपरें ए काव्य जाणवुं ॥ इति बहोतेरमो दृष्टांत ७७ हवे मुर्ख शिष्यनो सतोतेरमो दृष्टांत कहे बे. || शिष्यान्व क्तिविलंबिताः कुह गुरुः प्रोचुश्च वीक्ष्यामहे, तन्नाट्यं हि नट स्य जो जनमते नापेक्षणीयं कदा ॥ सत्यं तेऽपि तथेति समुरुतरं प्राप्तास्त दा कालके, नव्या सोपि कृतं न्यषेधि तमतो नाये त्वया दृश्यताम् ॥ ७८ ॥ अर्थ :- एक दिवस गुरु पोताना शिष्यने कहे बे तुं एटली वार क्यां रो कायो हतो ? असुरो केम याव्यो शिष्ये कयुं जे रस्तामां नाटकीया रम ता हता ते जोवा माटे कनो रह्यो हतो त्यारें गुरुयें कयुं जे आपणा जैन शाशनमां वादी नवाश्याना नाटक प्रमुख जोवा निषेध्या बे. त्यारें शिष्यें ते वात कबुल कर गुरु समीपे खालोच्युं ने नाटक न जोवानुं गर्दा करी पडिवज्युं वली केटला एक दिवस गयानंतर पाठो वोहोरवा गयो. त्यां वार जागी त्या गुरुयें पूढयं के केम याज पण विलंब थयो ? त्यारे शि ष्य बोल्यो के हे गुरुजी ? खाज नाटकिणी नो नाटक जोवा कनो रह्यो हतो. त्या गुरु कड़े के तें मारी पाशें नाटकीया न जोवानुं पडिवज्यो हतो Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ने वली केम जोवा रोकायो; त्यारे शिष्य बोल्यो के माहाराज ! में तो ना टकीया जोवा पडिवज्या हता परंतु नाटकणी जोवी पडिवजी नथी. त्या रें गुरुये कह्यु के नाटकीया न जोवा पडिवज्या तो तेमा नाटकीपण आ वीगइ. कह्यु डे के श्लोक ॥ मुर्खा वरा निःकपटा, ये साधवो नवंति ते॥ आलोचयंति गुर्वते, यथा नाटकपश्यकः ॥ १ ॥ ७ ॥ इतिदृष्टांत ॥ हवे मूर्ख पुत्रनो अहोत्तरमो दृष्टांत कहे . ॥ दातव्यं पितरौ न वत्स कथितः प्रत्युत्तरं नो कदा, गेहावौ विगतौ तदा जडमतिहरे जटित्वा स्थितः॥तीवागत्य सुतं ब्रवीति बदुशो नोद्वाट पो द्वाटति गेहे ह्युत्तरतोः कृतं त इह किं सोऽवग युवान्यां मतमः ॥७॥ अर्थःकोइएक माता पितायें पोताना अविनीत पुत्रने शीखामण आपीजे हे पुत्र को दिवस माता पिता शामुं बोलवू नहीं, अने पाडो उत्तरं पण दें वो नहीं. ते पुत्रं कबुल कयुं परंतु ते पुत्र जडमति हतो. तेवं ते वचन म नमा राख्यु. पनी एक दिवस माता पिता कांक काम. माटे बाहेर ग या, त्यारे पवाडेथी ते जडमति वालो पुत्र घरनां कमाड बंध करी माहेबे सी रह्यो. ते जेवारें मातापिता पाग घेराव्या त्यारे पुत्रने कयुं के हे पुत्र! कमाड उघाड ? कमाड उघाड ? एम घणा शाद कस्या परंतु ते मूढमती वालो पुत्र बोल्यो पण न बने कमाड पण उघाडयुं नहीं. त्यारें मातापि ता बापरेथी चड़ी नलीयां उतारी घरमां आवीने जुए तो त्यां मूर्ख पुत्र हसतो हतो. त्यारें मातापितायें कडं के हे मूर्ख ? जाणतो हतो तो पण कां घर उघाड्युं नही ? त्यारें पुत्रं कह्यु के तमेज मने शीखामण पापी जे, जे मा बाप सामुं बोलवू नहीं. माटे ढुं बोल्यो नहीं. ए अविनीत पुत्रनी कथा जाणवी. कडुं ने के, श्लोक ॥ जडोपि वक्रगश्चैव, यो नवेद् नुवि मानवः ॥ स श्लाघ्यते नैव लोके, यथाभूत श्रेष्ठिनंदनः॥१॥७॥ हवे पुण्य कस्यानुं फल अवश्य थाय ते ऊपर उंगण्याएंसीमो दृष्टांत कहे जे. ॥ श्वानर्ये पथि गहता सुमुनये कृत्वाऽष्टमं पारणं, दत्वा स्वेष्टगृहे ग तो हि गृहपो मेने वृषं देह्यवक् ॥ लाहि त्वं प्रचुरं न गेहचलितो लात्वोपला नैरान, रत्नान्याशु कृतानि वीक्ष्य गृहिणी पित्रा तु रम्यं कृतम् ॥ ७० ॥ अर्थः-कोइएक निईन जमाइ पोताना ससराने घेर याचना करवा मा टे पोताना गामथी निकलीने पोताना सासराने गामे जाय , तेने मार्गे Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३७३ चालता एक आमनो पारणाती मुनिश्वर मव्यो, ते मुनिनें तेणें पारएं कराव्यु. पनी ससराना घेर तरफ चालवा मांझयो, एवामां तेना ससरानी कुलदेवीयें जई ससराने कयुं के, तहारो जमा कुःखीथको तहारी पासेंथी इव्य मागवा आवे . परंतु एणे मार्गमा जे धर्म कयुं , ते धर्म जो तु जने थापे तो तुं ताहरा जमाइने धन आपजे. एवामां ते जमाइ पण सा सराने घेर आव्यो. तेवारें ससरायें कह्यु के, मार्गमा तमे जे पुण्य कयुं डे ते अमोने आपो, अने धन लीयो. पण जमाइये ते धर्मनुं पुण्य आप्यु न ही अने एमज पाडो वव्यो. मार्गमा नदी आवी. तेमाथी रूडा रूडा ते जदार कांकरा वीणीला तेनो कोथलो जरी मस्तकें चढावीने पोताना गा म तरफ आवे , ते वखत मुनिना अधिष्टित देवें ते सर्व कांकराना रत्न करी नारख्या. पनी जेवारें घेराव्यो तेवारें स्त्री ते कोथलो' नखेली जो यो, तोमांहे रत्न दीठां. तेवारें कहेवा लागी जे माहारा बा घणुंज रूडं कां देखाय जे. जेमाटे आटलां रत्नो आपणने आपी दीधां ने. तेवारें ते जमाश्ये जाण्यु जे मार्गे धर्म कयं साधुने आहार दीधो तेना पुण्योदयथी या फल प्राप्त थयुं जणायले. पडी ते सर्व वात पोतानी स्त्रीने कही. मा टे धर्म कस्यो होय तो ते को कालें पण फल आप्याविना रहेज नही. कडं जे के ॥ धर्मथकी धन संपजे, धर्मे शिवसुख थाय ॥ कांकर रत्न जड्या कीयां, देवें धर्मपसाय ॥ १ ॥ धम्मेण कुलप्पसूई, धम्मेण दिवरूवसंपत्ती ॥ धम्मेण धणसमिहि, धम्मेण सुविबडा कित्ति ॥ २ ॥ ७ ॥ हवे जे न करवा योग्य होय ते नज थाय तेनो एंशीमो दृष्टांत. ॥ श्रेष्ठयंघो यदि कंटकं हि निशितं नग्नं तदा सेवकान्, गृह्णीताह पति श्च चर्म बहुलं ह्येकः किमर्थ तदा ॥ म्याबादनहेतवे परपदत्राणाय तं ना ऽधुना, नूतं नैव नविष्यतीति किमु नो ते पादरदां कुरु ॥१॥ अर्थःकोई एक मूर्ख शेठना पगमां तीखो कांटो नांग्यो, तेनुं दुःख थयुं. त्यारे शेवें पोताना सेवकोने कह्यु के, तामामथी जेटलां चामडां वेचातां मल तां होय तेटला लावो. सोंघां होय के मोघां होय. तेनी परवा नहीं पण चामडांसद आवो, ढील म करो. ते वात एक बुद्धिमान माणसें सांजली अने शेठने कह्यु के हे शेत ! एटलां बड़ां चामडां लश्ने गुंकरशो ? एनी च व्यापार जे. ते कोण करे ? तेने शेते कयुं के मारा पगमां कांटो नांगो Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ने माटे उपकार निमित्तें सघली धरती चामडाथी मढावी काढीयें एटले कोश्ना पगे कांटो नांगे नही. माटे चामडां लीन. या वात सांजली ते बु दिमान माणसें कह्यु के एम को दिवस बन्यु नथी, तेम बने पण नही, अने बनशे पण नही. माटे आपना यावा गांमा विचार मूकी घो. अने बधा जननी वात पडती मुकीने आप चामडे करी आपना पगर्नु रहाण करो एज योग्य छे. ते वात शेतने गले तरी ने तेमज कयुं. कर्वा डे के, श्लोक ॥ चरणे कंटकाभग्ने, श्रेष्ठिना चिंतितं तदा ॥ जंतुत्राणाय सञ्चमैं, रूर्वीमाबादयाम्यहम् ॥ १ ॥ दोहा । अणदुंती कीजें नहीं, कीजें होय सु जाण ॥ सेवकें साहेबनें कह्यो, तब समज्यो ते जाण ॥ १ ॥ १ ॥ हवे नव्यने तरत उपदेश लांगे तेनो एक्याशीमो दृष्टांत कहे . ॥ राज्यं धर्मरुचेर्ददौ न च ललौ गहामि पित्रा समं, नूत्वा तापसको गतौ यदि वनेऽमावास्यकायामवक् ।। उत्तव्यं नहि पत्रकादिकमृर्षि दृष्ट्वा सु धर्मेबको,रदयं त्वेकदिनं च सोऽनिशमहं श्रुत्वा प्रबुद्धस्तदा ॥७॥ अर्थःजितशत्रु नामा राजायें पोताना धर्मरुची नामना पुत्रने राज्य आपवा मांमयुं, परंतु तेणें राज्य लीधुं नहीं. अने कह्यु जे हे पिता, दुं पण तमा री साथें आवीश, अने तापस थइस. पनी ते पिता अने पुत्र बेदुजण मु नि थया. वनने विषे रहे . एकदा अमावास्या यावी. त्यारे मोहोटा मु नियें कह्यु के, आज अमावास्या दे. माटे वनमां जई फूल पत्र चुंटशो न ही एटले अनाकुटी करजो. ते वात धर्मरुची सांजले ने, अने वनमां न मण करे जे. त्यां वनमां नमतां नमतां धर्मरुचीयें एक साधुनें दीता. सा धुने जोइने जला धर्मनो वांडक एवो धर्मरुची कहे , जे महाराज ! या में अमावास्यानो दिवस ने, माटे तमो पुष्प फल पत्र चुंटशो नहीं हो ? एवं सानली साधु बोल्यो जे हे धर्मरुचि ! अमारे सदा अनाकुटी . अमो कोइ वारें पण पुष्पादिकने चंटता नथी. एनपदेश सांजली धर्मरुचि अ त्यंत प्रतिबोध पाम्यो. कडं ठे के, श्लोक ॥ गुरूपदेशतो धर्म, केचितानंति मानवाः ॥ धर्मरुचेरिवान्येच, जातिस्मरणज्ञानतः ॥ १ ॥ २ ॥ मनना परिणाम ऊपर प्रसन्नचं राजानो व्यासीमो दृष्टांत कहेले. ॥ नत्वा प्रभाषिर्गमिष्यति नृपो वीरं कुहा टन्नति, सोवक्तं ह्यधुनैव सप्त मनुवि हेतोः कुतो हृणात् ॥ पश्चादाशु पुनर्दिवाद्यचरमे देवाः क यांत्युत्सवे, Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ दृष्टातशतक. लब्धं तेन सुकेवलं जिनवचः श्रुत्वैति शं श्रेणिकः ॥७३॥ अर्थः-एकदा श्रेणिक राजा श्री माहावीर प्रजुनें पूजे जे के हे माहाराज ? हमणां प्रस नचं राजा दीदा ले वनमां काउसग्ग ध्यानमा सुर्य सामी दृष्टी राखी ने एक पगें नना , माटे जो हमणां आनखो बांधेतो क्यां जाय ? जग वाने कह्यु जे प्रथम नरकें जाय पनी बीजी त्रीजी चोथी पांचमी बहीथ ने यावत सातमी नरकें जाय. एम क्रमे क्रमे पूबतां कर्तुं त्यारें श्रेणिकरा जा फरी पूजे के हे माहाराज, एहवा तपस्वी ज्यारे नरकें जाय त्यारे धर्माचरण कोण करशे ? ए वात सांगली श्री वीरनगवान कहे के ताहा रा सुमुख अने उर्मुख नामना जे दूत तेना मुखनां वचन सांजलीने, मन नुं संग्राम करे ने तेथी नरकें जाय. वली पाचुं पूब्युं के हे माहाराज! हमणां आयु बांधे तो ते क्यां जाय तेने जगवानें कडं के प्रथम देवलोकें जाय. एम बीजे, त्रीजे, यावत पांचमा अनुत्तर विमान पर्यंत कयुं. एवामां जगवानना समवसरणथी देवता जवा लाग्या. तेवारे श्रेणीकें पुब्यु के देवता किहां जाय ? तेने जगवानें कडं के प्रसन्नचंद राजषीने केवलज्ञान उपन्यु डे. तेनो उत्सव करवाने अर्थे जायचे त्यारे राजाये मनमां चिंतव्यु जे जगवं तनां वचन तो अन्यथा थाय नहीं फरतापण नहोय, निरधार वचन हो य पण पहेलो तो नरकमां जवा कह्यो. अने पनी देवलोकमां जवा कह्यो वली हमणां केवलज्ञान उपर्नु ते संदेह टालवा नगवानने पूब्युं तेवारे न गवान कहे के प्रथम जे में कह्यु के नरकमां जशे ते ताहरा उर्मुख अने सुमुख दूतनां वचन सांजली मनोयु६ करतो हतो तेणेकरी नरकनो ज नार थात पण ते मननो संग्राम करते थके हथियार सर्व नांखी रह्यो त्यारे विचारां के जे अवसरें जे अाव्युं तेज हथियार माटे हवे मारा माथानो टोप के तेज नां. एम धारी माथे हाथ घाव्यो तेवारे माथोतो मुंमित केश लुचित माथे टोप तो देखाएं नही. तेवारे विचास्यं जे अरे आगुं में तो दीदा लीधी ने अने आ संग्राम ते वलीशो ममियो ले. एम चिंतवी म नःसंग्रामथी उसरवा मांमधु. त्यारे देवलोकें जाय एवा परिणाम थया ए म करतां अनित्य नावनायें चढयो जे आ कोना पुत्र, कोना नाम, कोना गाम, केना कोट, कोहोर्नु राज्य, एमां माहारूं कांइनथी ढुंए सर्व वोसरा बुंटुं अने वीर नगवान पासें जश्ने ए कर्म लाग्युं ते आलोचू एम जावना Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ये मनना पर्याय पलटाणा के तुरत केवलज्ञान उपन. ए वात सांजली श्रे णिकराजा प्रसन्न थया कह्यु के के ॥ सप्तमायुदलं कृत्वा, प्रश्नचंश्नृपो यथा॥ संक्षिवा मनसा सद्यः, केवलं लब्धितो वरं ॥१॥ मन एव मनुष्याणां, का रणं बंधमोक्ष्योः ॥ यथा आलिंगिता कांता, तथा नालिंगिता सुता॥ सप्तमे नरके याति, जीवस्तउलमत्स्यवत् ॥ २ ॥ इति ब्यासीमो दृष्टांत ॥ ७३ ॥ हवे जे मुर्ख होये ते पोताना अवगुण न देखे तेनो व्यासीमो दृष्टांत. ॥लिप्त्वोर्वी रविमर्चयत्यविरतं स्वे गोमयेनाबला, विदयुक्तेन किलैकदा ह कुरुते नत्वार्चनं वा रवेः ॥ नासाये करयुग्ममेत्य दिवसे उन्धमायाति सा, हायं गूथमयः खगोदय इतोऽनूत्स्वागुणोऽज्ञायि नो॥॥ अर्थः-को एक स्त्री नित्य प्रतें गायनांबरों करी घर लीपीने पनी नित्य सूर्य देवने पूजे सामा हाथ जोडीने दंमवत प्रणाम करे. एम प्रति दिवस करतां एक दिवसें उतावलें पाउली रात्रे बाणने बदले हाथमां विष्ठा आवी तेणें करी घर लीपी सूर्यने दंभवत करतां हाथ जोडतां हाथ नासिका पासें श्राव्या: तेमांथी मुर्गध यावी, त्यारे कहेवा लागी के हा इतिखेदे बाज जे सूर्य न दय पाम्यो , ते विष्ठामय नग्यो डे, एवी गाल दीधी. वली कहेवा लागी के, दहाडे दहाडे सेवा करतां पण पापीनो जण्यो साहामो दुर्गध गंधवा लाग्यो एवी रीतें खोटो सूर्यने दोष प्राप्यो. परंतु पोतानो प्रत्यद दोष हतो तेनो विचार न कस्यो. तेम जे मूर्ख होय तेपण पारका अवगुण देखे, पण पोतानी नूल कांड देखे नहीं ! कह्यु के श्लोक ॥ कर्मणां दीयते दोषो, न दोषो दीयते शिवे ॥ यथैकया पुरा दत्तः, सूर्यस्य सूर्यनक्तया॥१॥ हवे नरसा साथे निरसुं थाई नहीं तेना ऊपर चोख्याशीमो दृष्टांत. ॥कत्वोत्सर्गमलं शिलोपरि मुनिस्तस्थौ हि निजको, वक्त्यागत्य वि मुंचतां पटशुचिं कुर्वे ततो नाषणम् ॥ दूरे तेन रुतस्तदार्षिरजको जनौ गले नेदको, निर्यथस्य च तस्य नो यदि तयोर्मा रह जाने न तं ॥५॥ अर्थःएक नदि कांते शिला ऊपर को एक मुनि कासग्ग ध्याने उनो रह्यो द तो, तेवामां एक राजानो धोबी आव्यो, तेणे ते साधु ने कह्यु के आशि लाथी उठ, माहारे आंही वस्त्र धोंवां जे. तो पण ते मुनि कांश बोल्यो न ही. त्यारे ते धोबियें रीशथी ते मुनिने धक्को मारी नीचें नांखी दीधो ते थी ते मुनिने पण रीस चडी, अने वेहुजण माहोमांहे बाथोबाथें थाव्या. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टातशतक. ३७७ तेमां धोबियें मुनिने मायो, अने नीचो पाडी तेनी बाती ऊपर चडी बे गे. त्यारे ते मुनियें शासन देवतार्नु स्मरण कयुं,के हे देव! तुं मारी रदा करः त्यारें देवें भावी कयुं ले,आमा हुँ कोनी रक्षा करूं? जेमाटे बेदुमा • साधु ते कोण, अने धोबि ते कोण , ते कांश जणातुं नथी. कह्यु डे के श्लोक ॥ कुत्र गतोसि नो देव, वदेदेवस्तदा मुनि ॥ मुनिरजकयोंर्नेदो, झाय ते न मयाधुना ॥ १ ॥ कोयती रजको वा कः, संतोपःपोषवांचकः, ॥ कः पूज्यो वाह्यपूज्योस्ती, त्येवं नेदो न दृश्यते ॥ २॥ ५ ॥ हवे चार वस्तु डे ने नथी ते अपर पंञ्चाशीमो दृष्टांत कहे जे. ॥ नूपोमात्यमवोचदानय पुरात्त्वं त्वनिसंख्यानि कि, मस्त्यस्त्यादिमम स्ति नास्त्यवरकं नास्त्यस्ति नास्तीतरः ॥ नास्ति श्रेष्ठिपणांगने मुनिवरो व्याधो नृपं दर्शिताः, तान्वीदयाह किमत्र चापरनवे इष्टव्यमेतत्खलु ॥ ६ ॥ __ अर्थः-एक राजा प्रधानने कहे जे जे, नगरमाथी चार वस्तु लाव. त्यारे प्रधानें कह्यु जे ते वस्तुनां नाम मुजने कहो. ते वखतें राजायें समस्या कही, ते जेम के प्रथम एक वस्तु तो बे ने बे, बीजी वस्तु ले ने नथी, त्रीजी वस्तु नथी ने बे, अने चोथी वस्तु नथी ने नथी, ए चार वस्तु ल आव्य. तेवारें प्रधाने एक शेठ, बीजी वेश्या, त्रीजो साधु, अने चोयो वाघरी, ए चारेने तेडी राजा प्रत्ये चारे वस्तु देखाडी, ते वस्तु जोड्ने रा जायें प्रधानने पूब्युं के, ए शुं पाण्यु. त्यारे प्रधान कहे जे के, या कहे ली चारे वस्तु आणी . तेमां आपना चारे प्रश्ननी अनुक्रमें चारे वस्तु जाणवी. जेम के प्रथम शेठने डे ने , बीजी वेश्याने ने नथी, त्रीजा साधुने नथी ने बे, चोथा वाघरीने नथी ने नथी, एम शहनव परनवर्नु कह्यु. तेवारें राजा समज्यो जे ए प्रधान बुद्धिवंत ॥ शेठ हमणां पण सुखी , अने दान थापे , माटे परनवें पण सुख पामशे. तथा वेश्या ने हमणां ले परंतु परनवें नथी. त्रीजा साधु ने हमणां नथी, ने परनवें पामशे. अने वाघरीने हमणां पण नथी, ने परनवें पण मल नहीं. क युं के, श्लोक ॥ सेवकस्य परीक्षायै, राज्ञा कथितमानवः ॥ समस्यया स्य चत्वारि. शीघ्र वस्तूनि मे पुरात् ॥ १॥ दोहा॥ सेवकसुबुदि समजीने, आणी वस्तु ज चार ॥ इह नव पर नव कारणे, सुखःख तणो विचार ॥ २ ॥ ४८ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० . जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हवे सानलतां कटुक पण हितकारक थाय एवा वचननो बाशमो दृष्टांत. ॥ वीरांते परिवारयुक्तनृपतिं दृष्ट्वा सुरो जल्पति, वीर त्वं मर नूप जीव यदि वा जीवानय त्वं नव ॥मा त्वं कालिक जीव रे नरपतिः श्रुत्वा सकोपस्त दा, वीरोऽहं ह्यमृतेप्यधो दिवि वृषे पापे त्वधो यात्यतः ॥७॥ अर्थःश्रीमाहावीरस्वामीने वांदीने तेमनी पासें परिवार सहित वेठेला श्रेणिक राजा वगेरेने जोक्ने, एक समकित दृष्टि देवता बोल्यो के हे वीर ! तुं मर पनी राजाने कर्वा के हे राजा! तुं चिरंजीव, पनी अजयकुमार ने कह्यु के तुं जीव जावेतो मर, वली पासें बेतेला कालिकसूरिया कसाई ने कह्यु के तुं मरीश मा, अने जीवीश मा. आ वात सांजली श्रेणिक क्रोधायमान थयो, अने कहेवा लाग्यो के अरे, ए कोण मिथात्वी देवता के ? तेने जग वानें कडं के ए समकितदृष्टी देव त्यारें राजा कहे जे के तमने मर एवं वचन केम कहे जे ? त्यारे नगवान कहे जे जे, हे राजा! मुजने कह्यु जे तुं मर, तेनो अनीप्राय ए जे तमो मरशो तो मोद जाशो. वली तुजनें कडं जे चिरंजीव तेनो अनि प्राय एडे जे, तुं मरीश तो नरकें जाइश, मा टे जीवतो रहे. तेटलुंज सुख. वली अजयकुमारनें कडं जे तुं मर नावेतो जीव तेनो अनिप्राय ए जे जे मरशे तो देवलोकें जारों अने जीवशे तो धर्माचरण करशे. अने कालिकसुरिय नें कह्यु के तुं मरीशमां, अने जीवी शमां, तेनो अनिप्राय ए जे जे जो जीवशे तो नित्य पांचशे पांचशे पामा मारशे, अने जो मरशे तो नरकमां जाशे एम समजवं माटे एणे जे क ह्यु डे ते सर्व खलं कर्तुं ने ए सदुनुं हित वांबक . कडं के, श्लोक ॥ श्रीमहीरजिनादीनां, चतुर्णा सदसि मतः॥ देवेनानिष्टमिष्टं वा, शब्दं श्रु त्वा स कोपवान् ॥ १ ॥ नूपस्तदा जिनोक्तस्तं, सत्योक्तं सत्यवाद्यसौ ॥ गुनेबकः सुवक्ताच, मदादीनां विशेषतः ॥ २ ॥ इति दृष्टांत ॥ ७ ॥ हवे स्त्री चरित्र पर राजा नर्तहरीनो सत्याशीमो दृष्टांत कहे . ॥ नींशस्य विशा स्त्रियेऽमरफलं नृत्यस्य दत्तं तव, वेश्यायास्तु पतेश्च ते न हि फलं ज्ञात्वापि दृष्टा वशा॥ तत्काख्याहि तया यथास्ति कथितं श्रुत्वा ह चेद् धिग् नवं, त्यक्त्वा राज्यपदं गतो हि विपिने नर्ता ह्यनूत्तापसः ॥७॥ अर्थः-नर्तहरी नामा राजाने को एक ब्राह्मणे अमरफल आप्यु हतुं, ते फल राजायें पोतानी प्राणवनना पिंगला नामनी राणीने थाप्युं. ते राणी Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३७ वो अश्वपालक सायें व्यनिचार करती हती, माटे ते तेने प्राणप्रिय हो वाथी ते फल तेने याप्युं यने अश्वपालें वली बीजी पोतानी राखेली वे श्या हती, तेने खाप्युं, खने ते वेश्यायें उत्तमफल मानीने वली पाहुं न तहरी राजाने खाप्युं. ते जोइने राजा विस्मय पाम्यो, अने वेश्याने धम की दइने पूढ के या फल तुं क्यांथी लावी ? तेवारें वेश्यायें खरेखरुं य श्वानुं नाम कही दीधुं पढी अश्वपालनें राजायें पूवार्थी तेणे कयुं के मने खबर नथी. पण ज्यारें तेनें मारवानी तैयारी करी त्यारे भ्रूजतो भ्रू तो कहेवा लाग्यो के, तमारी राणि पिंगलायें या फल मने खावाने या प्यं हतुं पण ते फल में मारी राखेली नायकानें व्याप्युं छे. खने नायकायें तमने आयुं. यावी वात सांजलीने राजा विचारवा लाग्यो के संसार स्वार्थ नो बे, एम मानी वैराग्य यथाथी जोग ग्रहण करी, राज्य हांमी, दमा यादरी यात्मसाधन करवा वनमां तापस थ ने घणी तपस्या करवा ला ग्यो. कयुं बे के श्लोक ॥ यां चिंतयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्य न्यमिति जनं स जनोन्यसक्तः ॥ अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च मां च मां च ॥ १ ॥ ८८ ॥ धर्माचरण थोडं थइ शके तो ते पण करवुं तेनो व्याशीमो दृष्टांत. ॥ मिष्टान्नं परमंदिरे जडमतिर्भुक्त्वा गतः स्खालये, श्रागत्यालयजं वशा शु वद किं सोऽवक्तदन्नं मुखे || नाइयन्याहनि खादिमादि रुचिरं नुक्तं तु यस्मि न्मया, नर्त्तर्जीवसि सा तदा हववशात्सोस्तं गतस्तद्वृषे ॥ ८९ ॥ अर्थ:कोई एक मूर्ख कोइ पारके घेर खाजा. लाऊ, जलेबी, प्रमुख मिष्टान्न ज मी याव्या. पी बीजे दिवसें पोताने घेर जमवानी वेला थर, त्यारें ते नी स्त्रीयें खावीने कयुं के हे स्वामी ! रसोइ तैयार यइ माटे जमवा नो. त्यारे ते कयुं के मिष्टान्न होय तो जमवा नतुं. स्त्रीयें कछु के ए तो को इक दिवसें पारके घेर मिष्टान्न जमवानुं मजे परंतु आपणे घेर तो सामा न्य अन्नपान मले, तो पण तेथे कयुं के मने तो मिष्ठान्न मलशे तोज ज मीश. जे मुखें खाजा, लाडु, घेवर खाधां ते मुखें जुखं अन्न न खानं. प Mal ते सर्व कुटुंबनां लोकोयें कत्युं के तमो घेर जमीने जीवता रहेशो, तो वी कोइक दिवस मिष्टान्न पण पालुं मनशे. पण जीवता न रहेशो तो मिष्टान्न पण क्यांथी खाशो. एम घणोए समजाव्युं परंतु दुराग्रही मूर्खे ते Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. वात स्वीकारी नहीं, अने जम्यों पण नही, हाथी उपवास करी बेवटें म रण पाम्यो. माटे धर्म जे कां थाय ते कर. पण एम थाग्रह राखवो न ही जे बाटलुंज धर्माचरण था शके तो करवू कडुं ने के, श्लोक ॥ येना ननेन मिष्टान्नं, नदितं मयि काबले ॥ तस्मिंस्तु वदने नोज्यं, कथमनि रसोन्फितं ॥ १ ॥ एवं सोपि जव्यमुक्तः, कदाग्रहयसितो नरः॥ अंते संवर संजातो, दुःखनाजननाजकः ॥ २ ॥ इति आग्यासीमो दृष्टांत ॥ Gए ॥ हवे हंस काक अने बगलां सरिखा साधुनो नेव्याशीमो दृष्टांत. ॥ गोचों व गृहे गतेन मुनिना नान्नं गृहीतं ततो न्येनानि धित आ दिमोऽपरमुनिः पप्रन किं वो वृषं । गेहेशा सरला त्रिधा वदति तां हंसैकग्ब कवत्, हंसानः प्रथमो परो किसमो, बाले बकानोऽप्यहम् ॥ए०॥ अर्थःको एक साधु गोचरीयें कोश्कने घेर वोहोरवा गयो, त्यां ते ग्रहस्थनी स्त्री ये वोहोराववा मांमधु, त्यारे ते साधुयें असुजतानी शंका आणी वहोयं नही, एमज चाल्यो गयो. पनी बीजो साधु वोहोरवा आव्यो तेणे कांश विचार न करतां ते अन्न लीधुं तेने वोहोरावनारी स्त्रीयें का जे पेहेलो साधु आव्यो हतो तेणे तो वोहोर्यु नही, त्यारे ते बोल्यो जे ते साधु ग हशे, एम करी तेनी निंदा कीधी. पडी वली त्रीजो साधु वोहोरवा याव्यो. तेने पण ते स्त्रीय अन्न वोहोरावीने पली पूब्यु जे हे साधु, तमारो शो धर्म बे ? जे कारण माटे पहेलो साधु आव्यो तेणें तो वोहोयं नहीं एमज चाल्यो गयो. अने बीजो आव्यो हतो, तेणे वाहोयं. अने आगलासाधुनी निंदा करी. तेनुं कारण झुं ? ते कहो. त्यारे ते त्रीजो साधु कहेतो हवो के हे बाइ? सरल स्वनावनी धणियाणी, श्रीजिनशा सनमांत्रण प्रकारना साधु ने. तेमां एकतो हंशसरिखा, बीजा काकसरि खा, अने त्रीजा बगलां सरिखा, तेमां प्रथम जे याव्यो ते साधु हंससरि खो जाणवो. बीजो साधु आव्यो ते काक सरिखो जाणवो, अने हे बाइ? त्रीजो हुँ आव्यो ते पोता, पेट नरनारो बगला सरिखो . श्लोक ॥ चक्रांगकाकबकरूपधरा विचित्राः, संत्यत्र शासनबले मुनयो बलेन ॥ अंत बहिर्विशदनावयुता मलीना, ह्यंतर्बहिर्न विशदोन सितोममाक् ॥ १ ॥ए॥ जे मनुष्य नवपामी धर्ममां बालस करे ते पश्चात्ताप पामेतेनो नेवुमो दृष्टांत. ॥ निःस्वः स्वित्सदसीश्वरस्य हिगतो राज्ञा तुतस्मै वरो, दत्तो लाहि गृहा Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ दृष्टांतशतक. यदीबसि धनं गेहे गतोऽवक् स्त्रियं ॥ तं साप्यानय खादयामि पुरतो चुक्त्वा प्रसुप्तस्तदो, बाप्याप्रेष्यत नाट्यमैदत तु नो तन्नाप्तमस्ते रवौ ॥ ए१ ॥ अर्थः-को एक पुरुष जन्मदरिडी हतो ते एक दिवस राजानी सनामां मागवा गयो, तेने राजायें पूयुं के तुं कोण जे ? तेणे कडं जे हुँ जन्म दरिडी . त्यारें राजायें तेने वर आप्यु जे आज सांजे सूर्य अस्त पामे, त्यां सुधीमां मारा नंमारमाथी जेटलुं धन तहाराथी लाशकाय तेटलुंध न तुलझ जा. एवां राजानां वचन सांजली ते सर्व दरीही पोतानी स्त्रीने पूबवा माटे पाडो घेर याव्यो, अने स्त्रीनी आगल राजायें कहेली वात कही. त्यारें स्त्री बोलीजे तमें ते धन तरत जावो. त्यारें दरिड़ी बोल्यो जे पेहेलां जमीने पबी जाइश. त्यारें स्त्रीये तरत रसोइ तैयार करीने तेने ज माज्यो. जमी लीधा परी कह्यु के मारुं पेट जराणुं तेथ। एक निज्ञ करीने पबी जाइश, एम कही सुतो घणीवार थइ जाग्यो नही. त्यारे तेनी स्त्रीयें जगाडीने मोकल्यो. पण रस्तामा जतां कोइक नाटक यतुं दतुं ते जोवा उनो रह्यो. तेने जोतां जोतां सूर्य अस्त पाम्यो, तेथी धन पाम्यो नहीं पाखो जमवारो सोच करतो दरिडीनो दरिडीज रह्यो. तेम जे पुरुष मुलन एवी मनुष्य जन्मनी योगवा पामीने धर्म आचरतो नथी, ते मूढ ने ते नाग्यहीन पुरुषनी पे नवांते पश्चाताप थाय .कमु डे के॥ नृजन्म उर्लनं प्राप्य, ये धर्म नाचरंत्यथ ॥ ते नाग्यहीनवत् मूढा, शोचयंति नवांत के ॥१॥राज्ञोक्तं मूढ लाहित्वं, श्रीगृहात्स्वं तवेया॥ नादपत्प्रमादतो मूढः, धर्मोऽप्येवं सदा विधिः ॥२॥ राजा जिनेश्वरो पत्र, नृनवः कमलागृहम् ॥ इव्यं दानादिकं ज्ञेयं, मार्त्तमश्चायुरेव च ॥ ३ ॥ विषयादिषु ये सक्ता, स्तथैव कौतुकादिषु ॥ ते हारयति सर्वस्वं, मानवा मानमोहिताः ॥॥ ए१ ॥ . हवे नव्यजीवें कोश्पण नियम लेवो ते विषे एकाए॒मो दृष्टांत. ॥ क्रोधः स्याद्यदि सप्तप्टष्ठकपदं देयं गृहीतं व्रतं, गेहे नूरिदिनात्समाग तवरः शय्यां स्वपुत्र स्त्रियौ।सुप्तौ वीक्ष्य वधाय पृष्ठचलितःपुत्रस्तदा बोधितः, मातर्वक्ति हि सोपि हंति वचनं श्रुत्वा प्रशांतोऽनवत् ॥ ए२ ॥ अर्थःवंकचूलें गुरुने मुखें एवं व्रत लीधुं के जेवारें कोनी ऊपर क्रोध ऊपजे, तेवारे ब सात पगला पाबा नरीने पनी साहामां माणसने प्रहार करवो. एवं नियम जश्ने परदेश गयो पनी घणे दिवसें घेर आव्यो. ते वखत पो Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन् जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. तानी स्त्री अने पुत्र ए बेतु एक शय्यामां सुतां हतां तेने जो कोध चज्यो तेवारे खज काढीने मारवा चाल्यो. तेटलामां पच्चरकाण लीधेनुं सांजऱ्या. पली तुरत सात मगला पाडो वव्यो तेटलामा बोकरो मा मा एम कहेतो जाग्यो अने कहेवा लाग्यो, के हे माताजी, मुजने कोई एक पुरुष मारवा थाव्यो ने. ते सांजली वंकचलने कोध नपशांत थ गयो, अने कहेवाला ग्यो, जे अरें में स्त्री अने पुत्रने मास्यां हत तो केटलु पाप लागत ? अने पश्चात्ताप करवू पडत परंतु में लीधेनुं पञ्चरकाण आडं आव्युं, तो क्रोध फल न लाग्युं, अने कोइनो घात परी थयो नहीं. ते माटे नव्य जीवें कां पण नियम अवश्य लेवो. कयुं ने के ॥ येन यश्चापि हि स्तोकः, कालस्य नियमः कृतः ॥ तस्यापि निष्फलो न स्यात, सप्तप्टष्ठकचोरवत् ॥१॥५॥ बकायनी हिंसा न माय तो एक त्रसकायनी गंमवी तेनो बापुमो दृष्टांत. ॥ नूपो वक्ति जनान् न याति पुरुषस्तं दन्मि योप्युत्सवे, श्रेष्ठेः पट् न गताः सुता हि पितरौ हंत्याशु तानो तदा ॥ मुंचालाहि धनं तमाहतुरमूं स्त्वं नाथ पंचाब्धिकं, त्रिध्येकं हि सुतं विमुंचति तथा धर्मानुयोगे मुनिः ॥ ए३ ॥ अर्थः-कोई एक राजा नगरलोकनें कहे डे के हुँ उत्सव मांडं बुं. माटे गामना लोकमांहेलो जे कोइ ते उत्सव जोवा नहीं थावशे, तेने दं मारीश. एवं सांजली सर्व लोक नत्सव जोवाने गया. पण एक शेठना ब पुत्र गया नहीं, ते वात राजायें जाणी. तेवारें बए पुत्रने बांधी मगाव्या. वलतां तेना मात पिता याव्यां अने तेणे राजाने बाजीजी करी पुत्रोने बोडाववानुं कडं, पण राजायें मान्युं नही. तेवारें धन आपवानुं आमंत्र ण कयुं, तोपण राजायें मान्यु नहीं. त्यारें पांच पुत्रोनें मूकवानुं कह्यु, ते पण राजायें न मान्यु. तेवारें चारने मूकवानुं कह्यु. पलीत्रणने, पडी वे ने एम विनंती करतां वट एक पुत्रने बोडवानुं कर्तुं. त्यारे एक पुत्र रा जायें जीवतो मूक्यो. तेम साधु पण धर्मनो उपदेश करी कहे के काय जी व मारवानुं बहुज पाप , माटे ब काय जीवनी रक्षा करवी. तेम बतां जो न काय जीव नगरी शके नहीं,तो वट एक त्रस जीव तो अवश्य उगा रवाज जोश्यें. कह्यु डे के, श्लोक ॥ संयतिः पितृसहदः, षटूजीवाः पुत्रस निनाः ॥ श्राक्षाः नृपतयो ज्ञेयाः, कुटुंबं मुत्सवानिधम्ः ॥ १ ॥ नंति पटुका यजीवान, कुटुंबाश्च श्रधालवः॥ एषां साधो सदोद्यो,रदैकं रदमानतः॥२॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३८३ मांस सहाय करे पण अनमां न करे तेनुं त्र्याणुमो दृष्टांत. ॥ मुष्ट्या मंत्रति निकुमी यदि कणं नो जाति किं मानव तं मे देहि तहाह चेन्यसचिवेशाये गृहशोदितं । प्रोचुस्ते म्रियतां परान्हि कथितं व्या जेन नाशं गतो, दंमं तेस्ति तदार्पिता स्वमहिला कार्य न मे वाक्यतः ॥ ५४ ॥ अर्थः- कोई एक शेवने घेर एक नीखारी भीख मागवा याव्यो. शेठें ते ने मुवी जरी अन्न देवा मांमधुं यामंत्र्यो पण तेणे लीधुं नहीं. तेवारें शे ठेंने कह्युं के गुंतुं घरना माणसोने लइ जवाने विचारतो होय तो कहे ? जीखारी बोल्यो के जो हठें पड्यो तो हुं मनुष्य पण लइ जावं, एम कही शेवना घेर खागल सुतो. तेवारें गामना अधिकारी जे शेठ, कोटवाल, मेता, प्रधान, व्यवहारिया तथा राजा प्रमुख सर्वेनी खागल जइने शेठें कह्युं के, ए नीखारी घरनां माणस मागे बे, नहीं तो घर बागल मरवाने तैयार थयो . तेने सघलायें कह्युं के मरे तो मरवा यो. एम ते शेठें सर्वना मनना जाव लइ लीधा. फरी कोकने यांतरें सर्वनी खागल जइ बल करीने कयुंके, एतो मरण पाम्यो. ते सांजली सर्व कोइ बोल्यो के तहारे माथे मनुष्य माखानुं खून बेतुं माटे दंग थापतां पण उगरशो नहीं. ते शेठ पाटो घेर यावी पोतानी स्त्री ते नीखारीने देवा लाग्यो. तेणे कयुं के माहरे स्त्रीनो खप नथी. महारे तो ए मा बेहेन समान बे. एम सहु शु जना सहायक बे. पण अननो कोइ सहायक नथी ॥ शुने कार्ये हि सर्वस्य, सर्वे संत सहायकाः ॥ शुने न युतः कश्चित् धनदश्रेष्ठिनी यथा ॥ १ ॥ हवे वसरें प्रश्न पूवो ते ऊपर चोराणुमो दृष्टांत कहे बे. ॥ स्वरति वनं तदा वनपतिः पुत्रं गृहीत्वा गतो, ऽन्येद्युः स स्वगृहे च प्रोचुरिहतं कात्याह जो मोदकान् ॥ स्वर्यामो हि समं त्वया वरमतस्तत्ष्टष्ठल ग्राय, स्तन्मानं किमुदर्शितं पथि करौ विस्तार्य सर्वेऽपतन् ॥ ९५ ॥ अर्थः- एक वाडीमांहे स्वर्गथी धेनु यावी, नित्यप्रत्यें चरी जाय, पण वा डीना धणीनें खबर पडे नही. एक दिवस वाडीनो रक्षक वाडीमां रह्यो हतो, तेवामां स्वर्गथी गाय खावीने चरवा मांमी. ते ज्यारे चरीने पाठी स्व गें जवा लागी, त्यारें ते रक्षक गायने पुबडे वलगी तेनी साधें स्वर्गे पों होच्यो. वली बीजी रात्रीयें ज्यारें ते गाय पाली यावी त्यारें तेनी सायें ते तरी पायो ने घेर गयो. तेने सह कुटंबे प्रयं जे नम Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैनकथा रत्नकोष जाग पांचमो. हतो ? तेणे कयुं के दुं स्वर्गे गयो हतो तेने सर्वे पूब्धुं के त्यां तुं गुं खातो हतो तेणें कयुं के हुं महोटा मोदक खातो हतो ने सुखी हतो. तेने कु टंबी सर्वे कवा लाग्यां जे मोने पण तिहां लइजा. पढी बीजे दिवसें सर्वे कुटंबी यावी वाडीमां बेठां. पटी गाय खावी अने चरवा मांमी. ते ज्या रें चरी रही त्यारे ते गायने पुंबडे पहेलो पोते वलग्यो. तेना पगे बीजो वलगो, वली बीजाना पगें त्रीजो वलगो, एम सर्वे जरा वलग्या घने गाय याकारों चाली, तेनी पढवाडे सहु खेंचाता चाव्या. ते जेवारें अई मार्गे याव्या. तेवारें जेणे सर्वथी उपरें गायनुं पुडुं जाल्युं बे, तेने एकजणें पू धुं के तमें स्वर्गमां लाडु खाधा ने केवडा महोटा हता? ते वारें ते लाडुनो प्रमाण देखाडवा माटे पोताना हाथ पोहोला करतांज सर्वजण नीचे धर तीयें पडी मरण सरण थइ गया. माटें वगर समये प्रश्न पूछ नहीं. कयुं बे के श्लोक ॥ विचार्य वेलां वक्तव्यः, संदेहो न यथा तथा ॥ दृष्टांतोऽत्र स्व धेनुः, पुष्वलनोज टिव्रजः ॥ १ ॥ सर्वेऽपि लोनिनो यत्र, मंदबुद्धिं गुरुं श्रि ताः ॥ तत्र तैर्नानुगैर्नाव्यं, तां श्रुत्वा मोदकां कथां ॥ २ ॥ ९५ ॥ " हवे धननो गर्व न करवा ऊपर पंचाणुमो दृष्टांत कहे बे. ॥ कश्चिच्चाढघनरो दरिपुरुषं हास्यं च मार्गेऽकरोत् दत्वा तालपुटं नि रीक्ष्य निकटे धीरस्तदा वक्ति तं ॥ किं रे इव्यमदं करोषि हि गुरोर्वाक्यं श्रुर्त नोत्वया, पश्य त्वं जलयंत्रके जलघटी तद्भवें स्यादनम् ॥९६॥ अर्थःकोइएक धनवान् पुरुष हतो. ते कोइ दरिड़ी पुरुषने मार्गमां जो मनमां अहंकार खाणी ताली दइ हसवा लाग्यो. ते वखत कोइक पंमित पुरुष तेनी पासेथी चाल्यो जतो हतो, तेणें ते धनवानने कयुं के तुं मूर्ख दे खाय बे. जे माटें इव्य नो अहंकार करे बे. पण तें सुगुरुनां वचन सांन व्यां देखतां नथी. तेम कोइ नला माणसनी तें संगत करेली होय एम पण देखातुं नथी. जोके नाइ खरहट्टनी घडी अरहट्ट फरवाथी पाणीयें राय ने वली खाली थाय बे तेम धन पण अस्थिर बे, ते निरंतर रहेनार नथी. माठें ताहारे अहंकार करवो नहीं. कह्युं बे के, श्लोक ॥ यापजतान इस सि किं विणांध मूढ, लक्ष्मीः स्थिरा न नवतीति किमत्र चित्र म ॥ किं तत्र पश्यसि घटी जलयंत्रचक्रे, रिक्ता नरंति नरिताः पुनरेव रिक्ताः॥१२". Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. ३५ हवे सर्व शास्त्र सांजलवानुं सार परोपकार डे ते कपर एक पंमित - अने राजानो मली बन्नुमो दृष्टांत कहे .. ॥ नृत्वा कोपि कविस्तदा वृषशतेष्वीशांतिके पंचसु, संप्राप्तो यदि एहती ति किमिदं तं प्राह सत्पुस्तकम् ॥ श्रोतव्यं नवता दमो न सकलं श्रोतुं हयारोहणं, कृत्वा यामि नृपं हि वृत्तशकले यत्कोटिशास्त्रैर्मतम् ॥७॥ अर्थः-कोई एक पंमित पाचशे पोठ पुस्तकनी जरी साथें ला एक राजा नीपांसें याव्यो. ते वखत ते राजा.घोडाने पेगडे पग दइ स्वार थबाहार जवा तैयार थयो. त्यारे ते पंमित प्रावी पाशीर्वाद द उनो रह्यो. तेने राजायें पूज्युं जे था पांचशे पोतीमां हुं जयुं ? पंमितें कमु के, एमां पु स्तको नयां . ते तमने संजलाववा माटे लाव्यो बु. माटे हे राजन् ! त मे सांनलो. राजा बोल्यो जे एटला घणां शास्त्र सांनलवानी मारी शक्ति न थी. त्यारें पंमितें कडं जे सर्व शास्त्र नही सांजलो तो एनो चोथो नाग सांनलो. राजायें कडं जे हमणां तो ढुं असवार थइ बाहेर जावं बुं, माटे ताहरे जे कहेवु होय ते थाटलाज वखतमां कही दे. पंमितें कह्यु के,पांचशे पोठी पुस्तकोमा जे परमार्थ वे ते बे पदमां दुं तमने कहीश, ते तमे ध्यान द सांनलो. श्लोक ॥ श्लोकाः च प्रवक्ष्यामि, यमुक्तं ग्रंथकोटिनिः ॥ परोप कारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ १ ॥ एटले परोपकार करवो ते पुण्य बे. अने परने पीडा नपजाववी ते पाप जे. ए कोटिग्रंथोनो सार बे. एवं पंमितें कर्तुं ते सांनती राजा खुशी थयो. इति बन्नुमो दृष्टांत समाप्त ॥ए॥ हवे सामायिकमां समनाव राखवा ऊपर सताणुमो दृष्टांत कहे . ॥ युदं पांमुसुतैर्विधाय दमदंतः साईमत्रव्रतं, तस्थौ तहिपिने समी क्ष्य मुनिपं तत्रागता: पांमवाः ॥ पश्चात्कौरवकास्तमश्मनिकरैर्हत्वा गतास्त पु, स्तनावः सदृशोऽनवत्तऊपरीत्येवं तु सामायिके ॥ एG॥ अर्थः-पां मुराजाना पुत्र पांच पांमवोनी साथें दमदंत राजायें युछ कह्यू, तेमां पां मवो हास्या,नाशी ने कोटमा पेठा. केटलाएक दिवस पनी दमदंत राजायें वैराग्य पामी दीक्षा लीधी. एकदा दमदंतमुनि पांसुराजाना नगरना उपव नमा जश् कानस्सग्गै रह्यो. ते वनने विषे पांझवो क्रीडा करवा पाव्या,तिहां मुनिने जोड्ने तेना गुणग्राम कस्या. पालथी सो नाइ कौरवो याव्या, दो..मनिने देखी क्रोध करीने सर्व जणें पारा,माख्या. तेथी मनिनं शरीर Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 जैनकथा रत्नकोष नाग पाचमो. था दटाइ गयुं, तो पण ते समतावंत मुनिनो नाव पांमवो भने कौर वो बेहुनी पर सरखो रह्यो. ए दृष्टांतें सामायिकने विषे पण सम परि णाम राखवा. कडुं ने के, श्लोक // नक्तेषु पांमुपुत्रेषु, धार्तराष्ट्रेषु दंतृषु // समो जावो नवेद्यस्य, राजर्षिः समुदाहृतः // 1 // ए७ // इति सामा यिकमां समता राखवा आश्रयी सत्तापुमो दृष्टांत समाप्त // हवे विद्या नवा उपर यापुमो दृष्टांत कहे . // स्नानार्थ जलमाहरन्निजसुतं दृष्ट्वावदत्तं प्रसूः, मूढस्त्वं कथमाह शास्त्रसकलं ज्ञात्वागतः सा पुनः // नाधीतं यदि दृष्टिवादमखिलं श्रुत्वा क तत्तोशलौ, गत्वा पाग्य तं मुनिं मम समो नूत्वानवज्झो वरम् // एए॥ अर्थः-कोई एक ब्राह्मण जणीने घेर श्राव्यो, तेवारें स्नानने अर्थ पा गी मगाव्यु. तेणें एक घडो नरेलो.आण्यो ते जो पंमितें कह्यु के मारूं स्नान एम न थाय. घडा जरी नरीने माहरे मस्तके नाखो तो स्नान थाय. त्यारे तेनी मातायें कह्यु के तुंमूढ रह्यो देखाय ,नण्यो जणातो नथी. ते वारें पुत्र कहेवा लाग्यो के, ढुं संघलां शास्त्रो जणी गणी विचारी चर्ची धारीने आव्यो बुं. तो ढुं मूर्ख केम ? त्यारे मा बोली के, तुं ज्यांसुधी दृष्टिवाद नथी नण्यो, त्यां सुधी कांई लण्यो कहेवाय नहीं. ते सांजलीने ते विचारवा लाग्यो जे ए ग्रंथ कोण नणावशे ? मातायें कडं जे तुं, तो सली आचार्य पासे-जाते जणावशे त्यारे तेणे तेमनी पासें जश्ने कयुं,जे मने दृष्टिवाद नणावो ? गुरुये कह्यु जे तुं अमजेवो थाय तो तने नणावी ये. त्यारे ते साधु सरखो थश्ने लण्यो अने जणीने श्रेष्ठ पंमित थयो, पनी समजीने फरीने दीदा लीधी. अर्थ सस्यो. कर्वा डे के // किं ताए पढियाए, पयकोडीए परालनूयाए // इत्तियं न नायं, परस्त पीडा न कायवा // 1 // // एए // ए विद्या जणवा ऊपर अहाणुमो दृष्टांत समाप्त // हवे सर्व दानमां महोटुं अजयदान 3 ते ऊपर एक राजानी चार राणीयोनो नवामो दृष्टांत कहे जे. // स्त्रीणामिष्टवरं कदा नृपतिना तुष्टेन दत्तं च तं, प्रोचुस्ता हि वरं हरं न वधतां ज्येष्ठकघस्रोऽर्पितः॥ तस्य स्वे महिमा तया कृत इतोहान्यां च तह त्परे, सत्रातश्वरमा तदा कलिरनूत्स्तेनेन ता वारिताः॥ 10 // अर्थःएक दिवसे कोई एक राजा पोतानी चार राणीयो कपर तपमान से Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टांतशतक. 37 अने बोल दीयो जे वरदान मागो ते आपुं. राणीयोयें कह्यु,जे ज्यारें जोशे त्यारे मागलं. एक दिवस कोई चोरें चोरी करी. तेने राजानां दुकमथी शू लीयें देवा लइ जातो जोश्ने त्रणे राणीयें राजानी पासेथी पूर्वखं वरदा न मागीलीधुं के // चोरने अमे एक एक दिवस जीवाडा, राजायें ते क बुल कयुं. ते पनी प्रथम महोटी राणीये ते चोरने एक दिवस राख्यो, थ ने घऍव्य खरची सारीरीतें खवरावी पीवरावी वस्त्रानूषणादिक पहेरावी सुखी कस्यो. तेमज बीजी बे राणी पण एकेक दिवस राखी एकबाजाथी विशेष विशेष सुखी कस्यो, पण मरणना नयेंकरी चोरें कांश ते सुख जा एयुं नही, हवे चोथी राणीयें वरदान तेने जीवितदान देवराव्यु पनी चारे राणीयोने मांहोमांहे विवाद थयो. एक कहे में वधारे उपकार की धो, अने बीजी कहे में वधारे उपगार कीधो, एम चारे जणीयो वाद कर ती राजानी पासें प्रावी अने राजायें चोरने पुनर्वा, जे तुं था चारे स्त्रीयो मांथी कोनो उपगार मोटो माने जे ? चोरें कह्यु के, चारेनो नपकार ,पण तेमां खरो उपगार चोथी राणीनो बे, के जेणे मुजने जीवितदान आप्यु माटे सर्वदान मांहे मोटुं अनयदान .कमु के के॥न ज्ञातं मरणयात्, सुजग्धमहिमा मया // कदनं नदितं चाद्य, अनयादमृताधिकम् // 1 // // 10 // इति अजयदाने नवाणुमो दृष्टांत समाप्त // हवे जे काम करवू ते उतावल न करतां विचारीने करवू ते ऊपर एक राजा अने चकोर पदीनो सोमो दृष्टांत कहे जे. // तस्थौ हस्तचकोरनृच्च तृषितो वृद्धाश्रयेऽहेर्मुखा, तत्रोर्वादपतजरं नृ पतिना नीरेलयात्तं तदा // तदरीकतमनगेन हि पुनः क्रोधेन वै मारितो, नूपस्तत्तदनूरगश्च पतितः खेदं तु दृष्ट्वाकरोत् // 11 // अर्थः-कोई एक राजा हाथमां चकोर पदीने सश्ने एक वृदनी तलें उनो रह्यो. हवे ते वखतें ते राजाने तृषा लागी अने ते तदनी उपर एक अजगर ले तेना मुखमांथी गरल पडे , पण राजायें जाण्युं जे उपरथी पाणी पडे . तेमा टे पीवा सारु ते राजायें पोताना हाथमां पानना मुमामांहे धस्यो, थने तृषित थको पीवा लाग्यो. तेवारें चकोर पदीये जाण्यु जे जो था जल रा जा पीशे तो तरत मरण पामशे. एम जाणी पाखनो पाटो मारी पाणी दोली नांरव्यं. ते पनी बीजी वार पानं राजायें तेन जलें करीनारो - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. खो, एटले ते पण चकोर पदीयें ढोली नांख्यो. ते जोश राजायें अत्यंत क्रोधायमान थने ते पदीने मारी नांरव्यु. तदनंतर थोडी वारमा उपरथी अजगर पड्यो, तेने जोड्ने राजाने पश्चात्ताप थयो, जे अरे ? में बहु काम कां. जे निरपराधी पदीने मारी नांख्यु. मने तो ते पदीयें बचा व्यो,नहीं तो था अजगरना मुखमांथी नीकलेढुंजे फेर तेने ढुं जल मानी पान करत तो तरत मरण पामत. परंतु या पदी घणोज मारो नपकारी तथा दयालु थयो, पण में कां तेनो नपकार न जाणतां उलटा तेनां प्राण लीधा ? हा हा धिक्कार होजो सुजने जे में एवं अविचायुं काम कडे? था प्रमाणे राजाने खेद थयो. कयुं ले के,श्लोक // क्रोधप्राप्तौ हि क्रोधस्य, फलं समाति मूढधीः // शोचत्येवाविवेकितं चकोरघातकेशवत् // 1 // ए दृष्टांते कोइ पण काम उतावलें करवाथी या पदीघातक राजानी पेठे पश्चात्ताप करवो पडे // 11 // हवे दृष्टांतशतक ग्रंथनो कर्त्ता पोतानुं नाम कहे . // श्रीलंकारख्यगणे गणीश्वरगुरुः श्रीकेशवाख्यः सुतः,शिष्येणाशु कृतं वरं निजधिया दृष्टांतकानां शतम् // बंदोलकतिशब्दशास्त्ररहितं काव्यं यदा नि मितं, तत्सर्व मुनितेजसिंहकषिणा धार्विशोध्यं वरैः॥ 10 // इति दृष्टांत शतक नामक ग्रंथ बालावबोध अने कथा सहित समाप्त // इति श्रीजैनकथा रत्नकोष पुस्त कस्य पंचम नागः समाप्तः॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- _