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श्रीभुवनमानु केवनीनो रास.
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॥ ढाल एकतालीशमी ॥
|| लाल वेसरदे ॥ ए देशी ॥ इम अंगजनी चेष्टा लीनो, नावतें जरमां रही जीनो || लाल सुत नेहें, मनसुं मुंजाणो ॥ सु० ॥ पापें पथराणो ॥ सु० ॥ ० ॥ १ ॥ सुत स्नेहें ते जो जो सुनगो, दुर्गति लहेसे महा 5 नगो ॥ जा० ॥ २ ॥ दिलमांहे न संनारे देवा, वली वीसारी गुरुसेवा ॥ ला॥ ३ ॥ सुत विसायां पड्यो सांसे, मुखथी न कहे सामी वरांसे ॥ ला० ॥ ४ ॥ अलगा रह्या गुरुना उपदेश, वेरणि थइ धर्मकथा विशेष ॥ जा० ॥ ५ ॥ सम्यग्दर्शन नामें पण तेह, यारति मने नही बेह || ला० ॥ ६ ॥ स्नेहरूपें राग केसरी बलिउ, लहि ने तिहांथी कचलि ॥ ला० ॥ ७ ॥ सम्यक्दर्शन नामें पण तेह, खारति मनें लही खबेह ॥ ला० ॥ ८ ॥ मिथ्यादर्शन मंत्रीसर धायों, लेइ परिकर ने तिहां आयो || ला० ॥ ए ॥ सुनगता घटमां सकुटंबे, यावी वश्यो अवलंबे ॥ ला० ॥ १०॥ जात वधूनो जव थयो जोरो, तव संचास्यो तिरो दोरो ॥ जा० ॥ ११ ॥ तिणे दोरे सुतनो दिल फरिनु, तव तातनो गुण विसरिज || ला खाठे पहोर उद्वेग उपाय, ए दीवो अम न सुहाय ॥ ला० ॥ १३ ॥ स घला अनर्थनुं ए मूल, खमने सुखमांहे जगावे शूल ॥ ना० ॥ १४ ॥ सु खें बेसी रहेवा न दीयें, अवगुण केता मुख वदीयें || ला० ॥ १५ ॥ इम चिंति घरमाथी नेटे, बापने काढ्यो ते वेटे || ला० ॥ १६ ॥ सुधर्म बुद्धि तजी ते सुनगो, अंगज वधूथी घणुं उनगो || ला० ॥ ७ ॥ घर घर जी ख मागीने खाय, किहां रे पेट पूरुं न नराय ॥ जा० ॥ १८ ॥ मन वचन ने काया केरां, करी पातक तेह घोरां ॥ जा० ॥ १९ ॥ तिमज एकेंदि यादिकमां जमिन डुःखें मोहादिकें दमि ॥ ना० ॥ २० ॥ एकतालीश मी ढालें कहे उदय, श्रावक विण कूल हूए सदय ॥ जा० ॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥
॥१२॥
॥ नरनव वलि कर्मै दियो, सिंह नाम नर सोय ॥ अनुक्रमि समकि त पामिन, यौवने प्राव्यो जोय ॥ १ ॥ विषय राग त्रीजुं वली, रोषें ध रिने रूप ॥ वश्यो तेमां राग कैसरी, मन हरख्यो मोह नूप ॥ २ ॥ शब्द रूप रस गंध फरस, तेहना त्रेवीश नेद ॥ तीव्र राग तेहनो घरे, प्रहनि शि तेह उमेद ॥ ३ ॥ रमणीरागें इंजिन, मांजी सौनो मोह || खापें ज