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जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमो. सांजली, प्रणमी मुनिना पाय रे ॥श्रो॥ पूजे अवसर पामिने, कर जोडी वलि राय रे ॥१॥श्रो॥ केवलिये ते नृपर्नु मन हरी ॥ ए आंकणी॥ प्रनुजी ॥ जगवन् में जव हारी, केवल विषयने काज रे॥प्र० ॥ शरणे श्राव्यो हवे तुमतणे, जाणी तारण तरण जिहाज रे ॥ के० ॥ २॥ प्र० ॥ शेष रह्यो जे थाकतो, ए माहरो अवतार रे ॥३०॥ सफल थाये हवे जे हथी, तेहवो कहो प्रकार रे ॥प्र० ॥३॥रा ॥ केवली कहे तव तेहने, एहज तुं नव एक रे ॥०॥ दाखो नथी सुण पूरवें, हास्यो में अनेक रे ॥ के० ॥४॥ राजाजी ॥ कहेतां कहेवाए नहीं, जय उपजावे नूर रे॥ रा॥ अचरज कारी अति घणुं, जिम दरियानुं पूर रे ॥ के ॥ ५ ॥रा ॥ बलि राजा तव बोलि, स्वामी सुणो एक वात रे ॥रा ॥ सांजलवा व अबूं, ते कहो महारो अवदात रे ॥ के ॥६॥रा ॥ केवली कहे सु ए राजिया, कोडी जीने पण कोय रे ॥रा० ॥ कहेतां न पामे पारने, आयु पण पूलं होय रे ॥ के० ॥ ७॥ रा० ॥ अचरज जो तुऊने अजे, तो सांनल थई सावधान रे ॥रा० ॥ कहुँ कांक संदे पिने, अवदात तुज अ समान रे॥
के रा ॥ श्रोताजी ॥ उदयरतन कहे एटले, नेवूमी निर धार रे ॥श्रो॥ ढाल थइ पण धर्मनो, आगे सुणो अधिकार रे ॥॥॥
. ॥ दोहा ॥ ॥ काल अनंते हांथकी, चारित्र धर्म सहाय ॥ करवा करमें काढियो, जीव ताहरो सुण राय ॥ १ ॥ अव्यवहार निगोदथी, व्यवहार निगोदें वा स ॥ दीधो तव मोहने दलें, तुरत घेखो जर तास ॥ ५ ॥ काल अनंतो रोकियो, पछे कर्म परिणाम ॥ कचो तिहाथी थाणियो, सुण मन राखी गम ॥ ३ ॥ पंच थावर विगलेंश्मिां , पंचेंही तिर्यच ॥ नरक अनार्य नर गतें, वसि कर्म प्रपंच ॥ ४ ॥ वलि वलि पाडो वालिने, वेरीएं वार अनं त ॥ निगोदादिकमां नाखिन, कहेतां नावे अंत ॥ ५ ॥ अनार्य देशे अ वतरी, वली अनंती वार ॥ नर नव नाहक निगम्यो, मोहतणे अधिकार ॥ ६ ॥ कुजाति पंगु कुलहीण किहां, अंध बधिर गदपूर ॥ इत्यादिक दो चे वली, राख्यो मोह हजूर ॥ ७ ॥ पुदगल परावर्तन करयां, अनंत अनं ती वार ॥ एकेंशियादिकमां घालिने, मोहें कीधो खोवार ॥॥सर्व॥१६१७