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श्रीभुवनजानु केवलीनो रास.
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ह् नजी री ॥ ७ ॥ गुण वखाएया गेलि, सम्यक् दर्शन तनयाना ॥ मोहने मेलो ठेलि, अर्थी या दयाना ॥ ८ ॥ मोहनुं दल महा दुष्ट, पग पग स हुने पीडे ॥ कोडी पाडे कष्ट, जव संकटमां जीडे ॥ ए ॥ चारित्र धर्म प साय, वली तस सैन्य बलें री ॥ लहियें लील सवाय, दुर्गति दूर टले री ॥ १० ॥ इम दीधो उपदेश, सिंधुदत्तने तेह सूरें ॥ पण थयो फल यशे ष, प्रबल महा शून्यता पूरें ॥ ११ ॥ पूबे तसु परषद लोक, मारगमां घरे जातां ॥ तें कां सांजल्यो श्लोक, ते कहे हुं नहिं ज्ञाता ॥ १२ ॥ मित्रा दिकने उपरोध, गुरुकने तेह गयोरी ॥ बीजे दिन पण प्रतिबोध, शून्यता एं न जह्यो री ॥ १३ ॥ चालली नीरने न्याय, तेहने गुरुनुं कह्युं री ॥ मन मां न रह्युं कांई, चित्त शून्यताएं ग्रयुं री ॥ १४ ॥ तव गुरु गया अन्य देश, कुदृष्टि कुधर्मबुधेंरी ॥ सिंधुदत्त वाइयो विशेष, कुमत कदाग्रह वधेरी ॥ ॥ १५ ॥ जव रही शून्यता क्रूर, तव ते रंग नरें री ॥ कयुं कुमतिनुं नूर, समी चित्तधरे री ॥ १६ ॥ एम करी पाप उपाय, एकेंदियादिकमांहि ॥ उपजी वेठे पाय, काल अनंतो त्यांहि ॥ १७ ॥ ए एकत्रीशमी ढाल, न दय रतन कही खाखी ॥ बलिराजानुं रसाल, चरित्र इहां बे साखी ॥ १८॥ ॥ दोहा ॥
॥ हृदयांतर हवे अन्यदा, चिंते कर्म परिणाम ॥ अहो ए किसे बापडो, न हे धर्म सुता ॥ १ ॥ सर्वगाथा ॥ ५६८ ॥
॥ ढाल बत्रीशमी ॥
॥ ऊरमर वरशे मेह जरूखे वीजली हो लाल ॥ ज० ॥ ए देशी ॥ बंधव मुऊ बलवान, जोरावर जालमी हो जाल ॥ जोरावर जालमी ॥ उद्धत ए नो साथ, प्रबल महापराक्रमी हो लाल ॥ प्रबल महा० ॥ १ ॥ चारि त्र धर्म नरेंइनुं, जई जूए बज्युं हो जाल ॥ ज० ॥ ए संसारी जीवनुं, एह बुं नहीं गजुं हो लाल ॥ ए० ॥ २ ॥ तुङ थाए बल तास, कला करूं तेह वी हो लाल ॥ क० ॥ पण पोतानी पांख, पडे बे बेडवी हो लाल ॥ प० ॥ ३ ॥ विषम ए दोइ न्याय, हुए गुंजूरतां हो लाल ॥ दु० ॥ जे थाए ते था, प्रतिज्ञा पूरतां हो लाल ॥ प्र० ॥ ४ ॥ वडवानल वारिधि जेम, डुखें पण निर्वहे हो लाल || डु० ॥ शशक काजे शशि जेम, कलंक पोतें सहे हो लाल ॥ क० ॥ ५ ॥ उपकार करतां खाप, गुणी दय नवि गणे हो