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३० . जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. हवे सानलतां कटुक पण हितकारक थाय एवा वचननो बाशमो दृष्टांत.
॥ वीरांते परिवारयुक्तनृपतिं दृष्ट्वा सुरो जल्पति, वीर त्वं मर नूप जीव यदि वा जीवानय त्वं नव ॥मा त्वं कालिक जीव रे नरपतिः श्रुत्वा सकोपस्त दा, वीरोऽहं ह्यमृतेप्यधो दिवि वृषे पापे त्वधो यात्यतः ॥७॥ अर्थःश्रीमाहावीरस्वामीने वांदीने तेमनी पासें परिवार सहित वेठेला श्रेणिक राजा वगेरेने जोक्ने, एक समकित दृष्टि देवता बोल्यो के हे वीर ! तुं मर पनी राजाने कर्वा के हे राजा! तुं चिरंजीव, पनी अजयकुमार ने कह्यु के तुं जीव जावेतो मर, वली पासें बेतेला कालिकसूरिया कसाई ने कह्यु के तुं मरीश मा, अने जीवीश मा. आ वात सांजली श्रेणिक क्रोधायमान थयो, अने कहेवा लाग्यो के अरे, ए कोण मिथात्वी देवता के ? तेने जग वानें कडं के ए समकितदृष्टी देव त्यारें राजा कहे जे के तमने मर एवं वचन केम कहे जे ? त्यारे नगवान कहे जे जे, हे राजा! मुजने कह्यु जे तुं मर, तेनो अनीप्राय ए जे तमो मरशो तो मोद जाशो. वली तुजनें कडं जे चिरंजीव तेनो अनि प्राय एडे जे, तुं मरीश तो नरकें जाइश, मा टे जीवतो रहे. तेटलुंज सुख. वली अजयकुमारनें कडं जे तुं मर नावेतो जीव तेनो अनिप्राय ए जे जे मरशे तो देवलोकें जारों अने जीवशे तो धर्माचरण करशे. अने कालिकसुरिय नें कह्यु के तुं मरीशमां, अने जीवी शमां, तेनो अनिप्राय ए जे जे जो जीवशे तो नित्य पांचशे पांचशे पामा मारशे, अने जो मरशे तो नरकमां जाशे एम समजवं माटे एणे जे क ह्यु डे ते सर्व खलं कर्तुं ने ए सदुनुं हित वांबक . कडं के, श्लोक ॥ श्रीमहीरजिनादीनां, चतुर्णा सदसि मतः॥ देवेनानिष्टमिष्टं वा, शब्दं श्रु त्वा स कोपवान् ॥ १ ॥ नूपस्तदा जिनोक्तस्तं, सत्योक्तं सत्यवाद्यसौ ॥ गुनेबकः सुवक्ताच, मदादीनां विशेषतः ॥ २ ॥ इति दृष्टांत ॥ ७ ॥ हवे स्त्री चरित्र पर राजा नर्तहरीनो सत्याशीमो दृष्टांत कहे .
॥ नींशस्य विशा स्त्रियेऽमरफलं नृत्यस्य दत्तं तव, वेश्यायास्तु पतेश्च ते न हि फलं ज्ञात्वापि दृष्टा वशा॥ तत्काख्याहि तया यथास्ति कथितं श्रुत्वा ह चेद् धिग् नवं, त्यक्त्वा राज्यपदं गतो हि विपिने नर्ता ह्यनूत्तापसः ॥७॥ अर्थः-नर्तहरी नामा राजाने को एक ब्राह्मणे अमरफल आप्यु हतुं, ते फल राजायें पोतानी प्राणवनना पिंगला नामनी राणीने थाप्युं. ते राणी