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श्री भुवनजानु केवलीनो रास.
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मूलो बालवा रे, जे दावानलनी काल ॥ श्रुति दूतिका ते पासें प्रेखशे रे, सरुम कुल काल ॥ ३० ॥ १३ ॥ उदय वदे उगणत्रीशमी रे, मारु रागें ढाल ॥ जाषी नवियण नावें सांजलो रे, खागें थइ उजमाल ॥ ३० ॥ १४ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ तव हुंकारो मुख मुकिने, बोल्या सघला तेह ॥ जो एवं बे तो प्रभु, न करो चिंता ह ॥ १ ॥ घमे करीशुं एहनुं, जिम ए चिंता मूल ॥ ते गुरु यावी तिहां नवि शके, कारण नहि प्रतिकूल ॥ २ ॥ मोह राजा मन हर खिने, तव फिरि व्याखे तास ॥ वत्सो वेगें तेह करो, जिम सफल फले मुफ खास ॥ ३ ॥ इम कही ते कतावला, पाषक पहोता त्यांही ॥ अप शुकन थालोचिने, प्रेखा मारगमांहि || ४ || विविध विघन प्रेखा वली, श्रम प्रास शिररोग ॥ वत्र जंग नृप विग्रह, मरकी उपव सोग ॥ ५ ॥ गुरु यागमननो गेलशुं, जीत्यादिकें मनि जंग || कीधो हुकम ते केलवी, शत्रुनो लहि संग ॥ ६ ॥ कुदृष्टि सुता कथनेंकरी, धर्म बलें बहु पाप ॥ एकेंदियादिकमां ऊपनो, वरुण मरी ते आप ॥ ७ ॥
॥ ढाल त्रीशमी ॥
॥ शीरोहीनो शेलो हो दाडिम योधपुरी ॥ ए देशी ॥ वली मानव खेत्रें हो, विमलपुरें धरि ॥ रमण श्रेष्टि घरें हो, कर्म ते दुःख दरि ॥ १ ॥ यौवन पहोतो हो, सुमित्र नामें सोई । एक दिन कर्मे हो, तव तिहां तक जोई ॥ २ ॥ खाया याचारज हो, मोज घरी मनमां ॥ गुण जलधी पूरें हो, वहु शालक वनमां ॥ ३ ॥ संयमश्रीयें शोजित हो, पूरित प्रशमन्तरें ॥ तपे तप तेजें हो, जे सत्य शौच धरे ॥ ४ ॥ जय भ्रमरें नूषित हो, मु ख पंकज जेहनुं ॥ शीलें विलेपित हो, तनु राजे तेहनुं ॥ ५ ॥ सद् गुण शृंगारें हो, उपे अंग सदा ॥ चारित्र सीमायें हो, न चजे जेह कदा ॥ ६॥ सम कितने धरवा हो, थिर जे मेरु परें ॥ मति श्रुत ज्ञानी हो, मंमित मु निप्रकरें ॥ ७ ॥ तव शुद्ध सिद्धांतें हो, श्रोता तिहां रसिया || पुरजन नृ पादें हो, सहु यावे धसिया ॥ ८ ॥ मन क तिहां जावा हो, सुमि त्रे पण जेहवे ॥ ते लही मोहराजा हो, इम बोल्यो तेहवे ॥ ५ ॥ रे रे ग्र ही राखो हो, बाकी गई बाजी | इम सुलिने ससंभ्रम हो, ऊठ्या सहु गाजी ॥ १० ॥ रोके त राखवा हो, पायकने प्रेरी ॥ मोह महीपति हो,
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