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श्वत जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. नवि समे.॥ २ ॥ अनादि कालनो जीव निगोदिउ॥ अव्यवहार रासें अति उखें नेदिउ ॥ समकितहीणो तिहांथी नीसरी ॥ व्यवहाररासें वखते अव तरी ॥ अवतरे ते लाख चोराशी, जीवा योनी सर्वदा ॥ परावर्त्ततां अनंत पुदगल, पार नवि पामे कदा॥ समकित वण संसारपारा, वार पार न पा मियें ॥ बकायमां बेदन नेदन, फुःखे जिहां तिहां दामियें ॥ ३ ॥ समकित पाम्यानो महिमा जु ॥ मुहूर्त लगे जे समकेती दु॥ मोहादिक जो त स कोपे घणुं ॥ तो पण तेहने अई पुदगलिकपणुं ॥ घणुं तेहने अई पुदगल, लगें नवनी अर्गला ॥ प. परमानंद पामे, नांजी नवना आम ला॥ हलु कर्मी कोश्क जीव वहेलो, मुगति गामी माहाबली ॥ समकि तनुं ए फल में नारख्युं, सुण तुं राजन मन रली ॥४॥ नृप नमि मुनिने तव कहे पडवडो॥ नाखो जगवन ए अचरज वडो॥ समकिंत देश विर. ति वस्या स्वामी ॥ मोहादिक फुःख एम दीये दामी ॥ दामी दुःख ये उष्ट स घला, सुनट मोह राजातणा ॥ तव केवली कहे अनंत कालें, अरि न उसरे ए घणा ॥ सर्वदा सर्व जीवने ए, संतापे सर्व पापिया ॥ ते माटे सदु ज्ञानीये पण, इमज उत्तर आपिया ॥ ५॥ यतः ॥ समत्त देश वि रया, पलियस्त असंख नाग मित्ता॥ अह नव उवरिते, अणंतकालं च सम एत्ति ॥१॥ पूर्व ढाल॥ समम्यक दर्शन देश विरति सही। क्षेत्र प व्योपम असंख्य नागें सही ॥ केश प्रदेश राशिमाहे जेती॥ तेहना नवनी संख्या कही तेती ॥ तेती संख्या लहो तेहने, चारित्र सामायकवंतने ॥ न व बाठ तस नगवंते नाष्या, पडे पामीनव यंतने ॥ श्रुत सामायक सम्य क् दृष्टि, मिथ्यादृष्टि नावें लहो ॥ त्रसमांहे ते नव अनंता, नमे साधु सदहो ॥ तेणे शीतेरमी एह नाखी, ढाल एम उदय वदे ॥ संसार सागर तेह तरशे, शास्त्र जे धरशे हृदे ॥ ६ ॥
॥ दोहा ॥ ___॥ स्वामी कहियें संसारिते, चारित्र धर्म सहाय ॥ सर्व विरति कहो थाय से, पूढे इम महाराय ॥ १ ॥ तव मुनि कहे तक जोक्ने, रंग नरेंराजान॥ अंतर ए थोडो अजे, सांजल थई सावधान ॥ २ ॥ सूधो हूं सावधान डं, राजा कहे ऋषिराज ॥ महेर करी मुजने कहो, संबंध ए शिरताज ॥३॥