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जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो.
वाइयो जेइ, वली मोहादिक क्रोध धरे ॥ ३ ॥ एकेंदियादि नरक पर्यंत, तेमांहे रुध्यो जंत ॥ पुल परावर्त अनंत, दुःख तेहनुं जाणे जगवंत ॥४॥ संमुर्बिम मनुष्यमा वलि सोई ॥ कर्मे सरजाव्यो तक जोई ॥ तिहां पण मोहादिकें व अष्ट || रोकीने दीधुं महाकष्ट ॥ ५ ॥ अष्ट अंतर मुहूर्त तिहां राखी ॥ वली तिमज दुर्गति ते दाखी ॥ संमुर्बिम अंते एकें । यादे ॥ जव बहुला कीधा प्रमादें || ६ || अनंत पुदगल परावर्त्तन कीधां ॥ मोहादिकें रोकी दुख दीघां ॥ गतागतें नही बाधा जेह ॥ ज्ञानी विना कुण जाणे तेह ॥ ७ ॥ वली कर्मों कांइक तक साधी ॥ गर्भज मनुज ती गति बाधी ॥ अनारजदेशें लहि यवतायो | तब मोहादिकें एम विचारयो ॥ ८ ॥ हा हा इ हो सहि हलिया ॥ न्यापाने लेखे नवि गणिया । श्रहो हो कर्म परिणाम देरी ॥ घली भूमि यो ए वेरी ॥ ए ॥ तव रसमृद्धि प्रवृत्ति ए नामें ॥ मुख मरडी बोली ते ठामें ॥ श्रम बलानुं जु बल सामी, सबलाने पण नाखुं दामी ॥ १० ॥ तो प्रभु प्रागल कहो ए से जे खे ॥ या तुमारी कुण कवेखे ॥ श्रादेश जो अमने या देव ॥ तो गले काली एहने ततखेव ॥ ११ ॥ तुमचरणे लावुं तहकीक ॥ वचन अमारां ए मा ठीक | द रत्न कहे तेरमी ढालें ॥ धन्य जे न पडे मोहनी जालें ॥१२॥ ॥ दोहा ॥
॥ तव मोह नृप मुखें बोलिन, कलट याणी कर ॥ यहो मारा सै न्यमां, स्त्री पण एहवी शूर १ ॥ इम कहि यापी यागना, वेगें घेरो जइ तेह || हुं पण तुम पूंठें लगो, बुं बुं दल नेह ॥ २ ॥ प्रभु खाणा यें त्यां जई, रस दियें दीन ॥ रसनो ते रागी कस्यो | मदिरामांस तल्ली न ॥ ३ ॥ प्रवृत्तियें जई प्रेरि ॥ जननी जगिनी साथ || अगम्यगमन न लट नरे, कराव्युं दिन रात ॥ ४ ॥ नरक गतें वली नाखीउ, तरत जेइने तेह ॥ म एकें मां फरी, रोक्यो काल बेह ॥ ५ ॥ पुदगल परावय तिहां, यापद नरे अनंत ॥ विपदा वेठी जे वली, ते लहे तेहज जंत ॥६॥ ॥ ढाल चौदमी ॥
॥ नदी यमुनाके तीर नमे दो पंखियां ॥ ए देशी ॥ अनारज देश मजार ते कर्मे ॥ मातंगना कुलमांहि, ते मोहें जा लिउ ॥ १ ॥ घाट्यो नरक मजार, वलि नरजव दीउ ॥ तव महाजड जात्यंध, ते मोह नृपें