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जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. दु जीव ॥ महाराज ॥ मोह राजाना राज्यमां, भ्रमण करे अवतीव ॥ म० ॥१॥ नवमां इम सदुए नमे, नथी कोइ ते स्थान ॥ म० ॥ एकेंदि नी जातिमां, नाखे श्रीजगवान ॥म ॥ ॥ ॥ नहीं विगलेंडी रू प ते, नहीं ते तिर्यंच जाति ॥ म ॥ नरकावासो ते नथी, नरक सोध तां सात ॥म ॥३॥॥ गाम नगर पुर पेखतां, नर लोकें नहि तेह ॥ म०॥ जिहां सद जीवन कपना, अनंती वार अह ॥ म० ॥४॥ न० ॥ नुवनपति व्यंतर ज्योतिषी, सौधर्म ईशान सुर लोय ॥ देवनी दे वी ते नहीं, जिहां उपना नहिं सद कोय ॥म ॥५॥०॥ दश देव लोक ागलें, नव ग्रैवेयक पर्यत ॥ म० ॥ प्राहे नथी कोई स्थान ते, जि हां उपना नहीं सर्व जंत ॥ म ॥ ६ ॥ ॥ जे सदु जीवे न जोगव्यु, ते सुख दुःख नहिं संसार ॥ म०॥ इव्यथी नहीं जिन लिंगते, जे न ल युं अनंती वार ॥ म०॥ ७॥ ज० ॥ जाति योनि कुल ते नहीं, नहीं को ई तेहवो वेष ॥ म ॥ सद्ध संसारी जीवडे, जे वेग्यो न वार अनेक ॥ म॥७॥॥ सामान्यथी कह्यो जे सवे, एमाहरो विरतंत ॥म०॥ नव अनंता जेनम्या. वि. वि. वार अनंत ॥म ॥ ॥॥ ते संख्याते धानखे, कहो केम कह्यो जाय ॥ म ॥ कमें कमें मुखें कहेतां थकां, केता एक कहेवाय ॥ म ॥ १०॥ न ॥ नारी दुःख में नोगव्यां, यसरण पणे अनंत ॥ म० ॥ सरणे पण कुधर्मने, रेष न आव्यो अंत ॥ म० ॥ ११॥ ॥ सरण कयुं जिन धर्मनु, सम्यक् जो श्रीकार ॥ म० ॥सुर नरनां सुख जोगव्यां, पाम्यो तो नवपार ॥ म० ॥१२॥ ज० ॥ शाश्वत शिव सुख पामगुं, श्री जिन धर्म पसाय ॥म० ॥ तुमने पण तेह ज हसे, सरण सदा सुखदाय ॥ म० ॥ १३ ॥ ज० ॥ सदु संसारी जीव ने, सरण नहीं को अन्य ॥ म०॥ जिन वयणे जे रत्तडा, धरणितलें ते धन्य ॥ म० ॥१४॥॥ पंचागुंमी चाहीने, उदयरत्न कहे एह ॥म० ॥ ढाल कही ढलते स्वरें, पण जे अनुनव गेह ॥ म० ॥ १५॥ न०॥
॥दोहा॥ ॥ पूर्ण संवेगे पूरिख, नेत्रे धरतो नीर ॥ मौलि नृप तव कहे, मुनि ने मन धरी धीर ॥१॥ प्रलु तुमे प्रसन्न थई, केवल महारे काम ॥ क