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श्रीनुवननानु केवलीनो रास. होशे तुजने त्राता, परनव जाता सुण झाता ॥ २ ॥ इम सांजलि ते न रनाथ, महा कौतुक लही मन साथ ॥ मरकलढुंदर मुखें बोले, रूडां वयए अमीरस तोलें ॥ ३ ॥ त्रिनुवन त्राता प्रनु तुमने, कुण शरण बीजुं कहो अमने ॥ ए अचरज कारी उदंत ॥ नापो विवरी नगवंत ॥ ४ ॥ त व मुनि कहे कथा ए मोटी ॥ नवनी ज्यां कोटा कोटी ॥ राज काज वशे वडिवार ॥मन न रहे तुमारूं तार ॥५॥ अधिकार असंख्य ले एतो॥ ते माटे कहिये केतो ॥ मनने घेरवा लहो मर्म ॥धर्मथी जोरावर कर्म ॥६॥ नापो मां एह, नगवान ॥ सुधापान तजी असमान ॥ जड पण करवा विषपा न ॥ किम चाहे कहे राजान ॥ ७ ॥ मेघने जिम ले मोर, चंदने जिम चाहे चकोर ॥ तिम वाट जोतां मुनिराज, पुण्यें पानधास्या आज ॥ ७ ॥ अवर तज्या आदेप, हवे लागे नहीं अन्य लेप ॥ ते माटे कथा तुमारी, विगतें तमें कहो विस्तारी। ॥॥ तुम वचन सुधारस पान, करवा चाहे मुफ कान ॥ सफली करीने ए प्रजा, पूरो प्रनु तेहनी वा ॥ १० ॥ चोथी ढालें चित चाहें, उदय रत्न वदे माहें ॥ जग जन तारक जिन वाणी, जावें सुजो नवि प्राणी ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ ७ ॥
॥ दोहा ॥ ॥ तव ज्ञानी गुरु बोलिया, सांनन थ सावधान ॥ एक ध्याने एक यासने, रंगें तूं राजान ॥ १ ॥काइक कहुँ तुज पागलें, मुफ वीतक म हानाग ॥ सांजलतां सूधे मनें, वधशे मन वैराग ॥ २ ॥ सर्वगाथा ॥७॥
॥ ढाल पांचमी ॥ ॥ नटियाणीनी देशी ॥ आ लोकोदर इण नामें, नगर विराजे हो वसे लोक अनंत जिहां ॥ नहिं जस आदि न अंत, अपर पर वस्ती हो पुह्ये नहिं खाली किहां ॥ १ ॥ सर्व संपदनुं गेह, पुरुषोत्तमने समुहें हो से वित जे जाणो सदा ॥ अचरजनो आश्रम, कोडा कोडी कल्पांतें हो जेहनो नंग नहिं कदा ॥२॥ नहिं ते योनि ने जाति, गोत्र ने कुल वर्ण हो नहिंसा विद्याने कला ॥ नहिं ते हिरण्यने हाट, नाटकने नहिं नीति हो, नहिं ते
आगम आमला ॥३॥ धर्म कर्म नहिं तेह, वैनव ने विलास हो नहिं ते दर्शनने क्रिया ॥ नहिं वलि ते व्यवहार, रत्नने रंजादिक हो नहिं ते सुर