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१४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ति दारि हिंसाएं सुंदरें, मणिन मृषावाद दो॥ दो० ॥ सोमदत्ते अदत्ता दानथी, दत्तें मैथुन उनमाद हों ॥ १४ ॥ हो० ॥ धन बदुल सेठे परिग्रह ने पूरे, रोहिणियें विकथायें हो ॥ हो० ॥ देश विरति सही असंख्य नवें, हारी तें मोह महीमायें दो ॥ १५॥ दो० ॥ अरविंदने नवें सर्वविरति हारी, क्रोधने मान पसायें हो ॥ दो० ॥ चित्रमतियें विषयसुख लालचें, पाम्यो विजय सेन मूर्बायें हो ॥१६॥होण॥ संयम ने वली चौद पूरवयकी, पुंमरीकने नवे गंधे हो ॥ हो ॥ पाडी अनंता पुदगल परातन, न माज्यो नवसंगें दो ॥ १७ ॥ हो ॥ मोहादिके मलीने एणि परें, तुमने वार अनंत हो ॥ दो० ॥ नवमांहे नमाड्यो फरी फरी, कहेतां न यावे तसु अंत हो ॥ १७ ॥ हो ॥ वली सिंहरथने नवें संयमवरी, अस्खलि त तेह आराधी हो ॥ हो० ॥ सुरलोकें महागुके सुर थयो, पुण्यदिशा ति हां वाधी हो ॥ १७ ॥ हो ॥ नानुनवें संयम शुद्ध साधिने, अणसणे म रिने समाधि हो ॥ हो० ॥ नवमे ग्रैवेयकें वली सुर थयो, तिहां पण पु एयोदय वाधी हो ॥ २० ॥ हो० ॥ वली इंश्दत्त महाराजा नवें, संयम साधि सुविधाने हो॥ एकावतारी सुर पद पामिन, सर्वार्थ सिदि विमाने हो ॥१॥ हो ॥ तिहाथी चवीने यहां तुं ऊपनो, बली राजा बलवान हो ॥हो॥ उदय वदे एका|मी ढालमां, सुजो थासावधान हो ॥२॥होण
- ॥ दोहा ॥ ॥ संबंध ए निज सांगली, हिए ससंन्रम होय॥ मोदें मुनि पाएं नमी, नेहें वदे नृप सोय ॥ १ ॥ जगवन् ए जुमा घj,मोहादिक महाउष्ट ॥ जि म ते न बले आनवें, कहो उपाय ते पुष्ट ॥ २ ॥ केवली कहे करी एक म न, विधे धरी अम वेष ॥ चारित्र धर्मनी चाकरी, सदा करो सुविवेक ॥ ॥३॥ सर्वविरति जे सुंदरी, मोह कुलनी मथनारि ॥ उसमन जेहने देखिने, हेला पामें हारि॥ ४ ॥ बाला बीजीने तजी, सदा नजो तसु संग ॥ दिल मां दश विध धर्मा, राखो अविहल रंग ॥ ५ ॥ सदबोध सदागम उपदि श्यो, सत्व धरी थई सूर ॥ वढो मोहादिक वेरीगं, उष्ट जाए जिम दूर ॥ धर्म सुनटने जीरुयें, इम करता संग्राम ॥ मोहादिकने मारीने, पामीस सं पद गम ॥ ७ ॥ सर्वगाथा ॥ १६५१ ॥