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२३४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. सें सकट ले, लोनने उन्नांहि ॥ स्वजनलोके वारतां ते, गयो अटवीमां हि ॥ जो० ॥ ए ॥ काष्ट तिहां मजूर कापे अरहा, परहा को क्याहि ॥ एकाकी तें आप जर, बेगे तरुबांही ॥ जो० ॥ १० ॥ दैवयोगें उष्ट तिहां, आव्यो एक वाघ ॥ देखी सोमदत्तने तिणे, मायो जोइ लाग॥जो ॥ ११॥ विलपतो विलुरी नाख्यो, नखें नस ताणि ॥ एकेंशियादिकमाहे जई, उपनो ते प्राणी ॥ जो० ॥ १२ ॥ वलि तिहां नवनी ते कोडी, न मि काल अनंत ॥ उदये ए ढाल कही, सतावनमी तंत ॥ जो० ॥१३॥
॥ दोहा ॥ ॥समकित मुलन पामिने, इणि परें वार अनंत ॥ बल हीणो ते बापडो, जगमा हास्यो जंत ॥ १ ॥ सर्वगाथा ॥ १०५५ ॥
॥ढाल अहावनमी॥ ॥ सुसाधु गुरुसही मोरे मन माने ॥ एं देशी ॥ किहांएक रागें किहां एक , किहां एक अनंतानुबंधि ॥ क्रोध मान माया लोनयोगें, समकित न शक्यो संधि ॥ जगतमां जो जो मोहनो जोरो ॥१॥ बीजे पण एहवे नव बहले, पामीने नीगमि ॥ समकित सुरतरु सरिखो सहेजे, मुर्गति मुखें तिणें दमि ॥ ज० ॥ २ ॥ किहां एक शंका दोष संयोगें, अने वली अ तिचारें ॥ किहां एक क्रीडा कामविकारें, किहां एक कुटंबने नारें ॥ जप ॥३॥ किहां एक वन्ननतणे वियोगें, धन नाशादिक सोगें ॥ कहां एक परदल नयप्रयोगें, किहां एक रागने योगें ॥ ज० ॥ ॥ किहां एक गंडा दारिश नावें, पुरुष स्त्री नपुंसक वेर्दै ॥ किहां एक संगें व्यसनने रंगें,किहां एक कुशास्त्रने नेदें ॥ ज० ॥ ५॥ इम प्रत्येकें काल अनंते, नरनवल ही लही हास्यो ॥ समकित रतन चिंतामणि करथी, संसार तिवं वधाखो ॥ ज० ॥ ६॥ मोह राजाने जोरें करीने, सम्यक् दर्शन साथें ॥ पूरी जिहां तिहां न प्राति बंधाणी तिणें, दुःख सह्यां तेह अनाथें ॥ ज० ॥ ७ ॥ देत्र पव्योपम असंख्यात नागें, प्रदेश राशि प्रमाणे ॥ समकित फरस्या पली व्यो प्रीबी, नव कीधा ते प्राणि ॥ ज० ॥ ॥ अगवनमी ढाल ए बोली, उ दयरत्न कहे आगे ॥ सबंध ए सावधान थश्ने, श्रोता सुणजो रागें ॥५॥
॥दोहा॥ ॥ विजय खेटपुरें अन्यदा, धर्म श्रेष्टिने गेह ॥ सुंदर नामें सुत थयो, जीव संसारी तेह ॥ १ ॥ सुगुरु समी- श्रुत सुणी, समकित धरी सुजाण