________________
जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. ऽस्ति रअप्रमाणः ॥ लोकातीतं तदेतङिनपतिरपि वा नोपमातुं प्रगल्नो, नू नृनोगानुनूतिं स्वजनमनुवदन् यदज्ञः पुलिंदः ॥ ४५ ॥ यत्पादांबुज→ गतामविरतं नेजुस्त्रिलोकीजना,यश्चिंतामणिवत्तदीयहृदयानीष्टार्थसंपादकः॥ सोप्यहन्महितोयदर्थमनिशं तत्तत्तपस्तप्तवान्, नानीष्ठं हृदि कस्य कस्य तद हो नैःश्रेयसं मंगलं ॥ ४६ ॥ मुक्तिधारं समाप्तं ॥ ७२ ॥ व्रीहिर्यवोमसूरो, गोधूमोमाषमुजतिलकाः ॥ अणवः प्रियंगुकोश्व, मयुष्ठकाशालिराढक्यः ॥ किं च पलायकुलबी शणसप्तदशेति धान्यानि ॥ ७॥ श्रीवजसेनस्य गुरो स्त्रिषष्ठि, सारप्रबंधस्फुटसजुणस्य ॥ शिष्येण चक्रे हरिणेयमिष्टा, मुक्तावली नेमिचरित्रका ॥४॥ इति श्रीकपूरप्रकरानिधः सुनाषितकोषः समाप्तः ॥ ग्रंथांते वैराग्यदर्शकोऽयं श्लोकः दिप्तोस्ति सयथा ॥
॥येषां वित्तः प्रतिपदमियं पूरिता नूतधात्री, यैरप्येत वनवलयं निर्जितं लीलयैव ॥ तेऽप्येतस्मिन् नवपुंरुहदे बुहृदस्तंबलीनां कृत्वा धृत्वा सपदि विलयं नूनुजः संप्रयाताः ॥ श्रीरस्तु. इति श्रीकपूरप्रकर ग्रंथ मूल तथा बा लावबोध अने कथासहित समाप्त ॥
॥ मतलबविपे प्रस्ताविक दोहा ॥ ॥मतलबके सब यादमी, मतलब विना न कोई॥ जब जाकी मतलब दुवे, तबहि दूर व्है सोश ॥ १ ॥ मतलबसम या जगतमें, कोउ न और पदार्थ ॥ यातें सब व्यवहार है, याबिन है सब व्यर्थ ॥ ॥ मतलब नां ही सुजनकों, जाको अंग स्वनाव ॥ ताकोंही सऊन कहत, जिहिं सब स रखो नाव ॥३॥ मतलब बिना सुनारिद, रहै न पतिके गेह ॥ पतिढू नारी ना रवै, जो सुत चाहन रेह ॥४॥ मतलबके सबही सगे, मतलब जौ लगि जांहि ॥ जो मतलब जगमे नहीं, उत्तम मनुष कहांहि ॥ ५ ॥ मतलब ताको राखिये. जातें कारज होत ॥ शूके तरुवर गये, फल बा या न मिलोत ॥ ६ ॥ मतलब तबलग होतहै, जबलग कर में दाम ॥ पीछे कोइ न आवहीं, ज्यूं शूके सर गाम ॥ ७ ॥ मतलब धनसम और नहि मित्रदु वैरी होय ॥ मतलब पाये होत पुनि, शत्रु मित्रहू सोय ॥ ७ ॥