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जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो.
संतोष विषे सोरता. ॥ हियंडा कर संतोष, होणहार ते होयसी ॥ दैव न दीजें दोष, बेहा लान न मियें ॥१॥ दोहा ॥ नांहि सुख संतोषबिन,कोटी करो उपाय ॥ चक्रवर्ति हू उःखीन्है, देव सु अधिक दिखाय ॥२॥ मानि न तामें दुःख सु ख, नांहि वस्तुमें रंच ॥ पदार्थको नहिं अंत कबु, कर संतोष प्रपंच ॥ ३ ॥ नूप असंतोषी उखी, सुखि विरक्त संतोष ॥ कहौ सौख्य कामें र हत, सब मनहीको तोष ॥ ४ ॥ ज़बलौं नहि संतोषहिय, तबलों कुःखी सोई॥ जब संतोष नयो उदय, तासम सुखि नहि को ॥ ५ ॥ विरक्तता में सुख रहत, तस कारण संतोष ॥ जो यति व्है आशा करै, तौ तस खको दोष ॥ ६ ॥ जब दमडीकी चाह नइ, तब दमडीको होय ॥ जब दमडीकी चाह गइ,तब सम दीपत सोय ॥ ७ ॥ प्रापतिमें कडं हर्ष नहिं, शोक हानिमें नांहि ॥ सो संतोषी जानियें, लेश दुःख नहिं तांहि ॥ ७ ॥
देव विषे सोरता. ॥जाता तणां जुहार, वलतातणा वधामणा ॥ दैवतणो व्यवहार, मे लिये के मिलियें नहीं ॥१॥ दोहा ॥ सरवर केरे दीहडे,कंठो कंठे नीर ॥ दैव संयोगे विधि वसें, कग्यामांहि करीर ॥ २ ॥ दैवह रूठो झुं करे, नाडं उथले कूध ॥ के वेस्या घर पातवे, के रमडावे जूध ॥ ३ ॥ दैव न काढू तें टरत, लिख्यो करै सो सत्य ॥ विधिने दैव कियो प्रगट, तांहि न त्यागत नित्य ॥४॥ दैव कर्म वश है जगत, दोमें आदी कौन ॥ याको करौ बिचार जन,सुख पावदुगे जौन ॥५॥ दैव नांहि इतही अधिक, दैव देवमें श्रेष्ट ॥ देव दैववश पुनि गिरत, नोग न पुनी अनिष्ट ॥६॥ देव न होवै अन्यथा, कथा सुनो जगमांहि ॥ राम दैव वश वन फिरे, रावण नाश करांहि ॥७॥
प्रीति विष दोहा. ॥प्रीति रीति कलु औरहै, जाणे जाणणहार ॥ गुंगे गुड खाया तेणो, स्वाद कहे झुं बार ॥ १ ॥ प्रीत मेह अरु मोरडी, आवत दे यति मान ॥ पुकारि के जगमें कहत, थावत मेह महान ॥ ५ ॥ मेह पिडानत मो र नहि, मोर करी तस प्रीत ॥ पुर्व जन्मके कर्मथें, होत प्रीत अस रीत ॥३॥प्रीत प्रीत सब जन कहै, जुदी प्रीतकी रीति ॥ लोह चमक जड दोन पें, देखत चलत सुनीति ॥४॥