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कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. ए३ के (सुधीः के०) रूडी , बुद्धिजेनी एवो (कः के०) कयो पुरुष,(प्रतिकर्मनि मैलरुची के०) प्रतिकर्मैकरीने के निर्मल कांति जेनी एवा (कुप्यपात्रे के०) ताम्रपात्रनेविषे ( रज्येहा के०) राजी थाय वारु ? नज थाय. तेम वैराग्य थवा पली कूप्यादि सदृश देहादिकने विपे कोण राजी थाय ? ॥ ए ॥
बांही सनत्कुमारनी कथा कहे . अयोध्यानगरीनेविपे सनत्कुमार नामा चकी राज्य करे बे. एकदिवस सनत्कुमार, रूप इंई पोतानी सना मां वखाण्युं, तेनुरूप जोवाने तत्काल वे देवता याव्या, ते वखत चक्रवर्ती स्नान करवा वेग हता, तेनुं रूप जोइने ते वेदुजण विस्मय पामी गया. च क्रवर्तीयें कह्यु के हे देवतान! ढुंजेवारें सिंहासन पर बेसुं, तेवारें तमो माहरा स्वरूपने जो जो. पनी जेवारें सन्ममां सिंहासन पर बेग, तेवारें सनत्कुमारनुं रूप जोता वेदु देवोनां मुख विबाय थयां. ओइने ते वेदुने च 'क्रवर्ती कहेवा लाग्यो के केम तमारुंमुख विहाय देखाय बे ? देवतायें कह्यु के तमारा शरीरमां कुष्टादिक रोग थवाथी अमोयें स्नानवखतें जेवू तमाळं रूप जोयुं हतुं, तेथी हमणां अत्यंत हीन थइ गयुं. या वात देवताना मुख - थी सांजली चक्रीने तुरत वैराग्य उत्पन्न थयो, तेथी राज्य बोडीने दीदा ग्र हण करी. पड़ी तेने कुष्टादिक आठ रोग उत्पन्न थया. सातशो वर्षरोगर्नु मुःख सहन कयु. परंतु पोतामां लब्धि बते पण तेना निवारणनो कोइ उपाय कस्यो नहिं. वली ते उसड करे ले के नहिं एवी तेनी परीक्षा करवा माटे वे देवता वैद्य थइ अाव्या परंतु सनत्कुमार मुनियें वैये कहेलो उपाय कां 'पण कस्यो नहिं. माटे वैराग्य के तेज झानसाधन ने ॥ ७ ॥
आजन्मांतमनंतर्मुदि नवे वैराग्यमस्त्येव त,ध्यक्तं देतु पु सत्सु किंतु नवति प्रत्येकबुक्षेप्विव ॥ सूर्याइमन्यनलं प यः शशिमणौ स्वर्ण सुवर्णावनौ, कोऽशाहीत् पुनरर्कचं दुतनुग्रयोगात् कुतोप्येति वा ॥ ७० ॥ वैराग्यप्रक्रमः॥ अर्थः-(आजन्मांतं के० ) जन्मथी आरंजीने मरण पर्यंत (अनंत मुदि के ) अनंत चे सुःखाकुलमुद् जेमां एवा (जवे के०) संसारने विपे (वैराग्यं के० ) वैराग्य ( अस्त्येव के) होय ज. ( तध्यक्तं के०) ते स्पष्ट देखाय के (किंतु के० ) केम ? तो के (सत्सु के०) प्रसिह एवा