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शए जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. व्यवहार जे एम प्ररुतिगत गुनागुन किरिया ते आत्मानी करीने व्यवहा री लोक माने जे ॥ ५० ॥
॥प्ररुति करे नवि चेतन कलीव,प्रति बिंबे ते मुंजे जीव ॥ पंचवीशमुं तत्त्व अगम्य, ने कूटस्थ सदा शिव रम्य ॥५१॥ अर्थः-प्रकृति ते स र्व कार्य करे , चेतन आत्मा नथी करती जेकारण माटे ते कलीब , क्रियानुं असमर्थ डे, झस्वनाव ते कर्तृवनाव केम होय, बुद्धि करे , ते प्रतिबिंबे जीव मुंजे डे, बुद्धिनिष्ठप्रतिबिंबवाहित्वमेव चितो नोगः अतएव सारख्यमें शादात् नोक्ता आत्मा नथी. पचवीसमुं तत्व यात्मरूप अगम्य अगोचर डे. (कूटस्थ के०) अनित्यधर्म रहित सर्वकाल सदा (शिव के०) निरुपश्च ( रम्य के०) मनोहर ले ॥ ५१ ॥
॥पविलास प्रकृति दाखवी, विरमे जिम जग नटु नवी ॥ प्रकृति. विकार विलय ते मुक्ति, निर्गुण चेतन थाये युक्ति ॥ ५ ॥ अर्थः-प्रक ति ते आत्म विलास मदादि प्रपंच देखाडी विरमे निवर्ने जेम जग नवी नटर नाटक देखाडी विरमे ॥ नक्तंच ॥ रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी य था नृत्यात् ॥ पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः॥प्रकृतिविका रनो विलय तेहज मुक्ति ते चितिरसंक्रमा इत्यादि सूत्रानुसारें निर्गुण चे तननेज थापे ले ॥ ५ ॥
॥पंथी खूट्या देखी गूढ, कहे पंथ लूंटाणो मूढ॥प्रतिक्रिया देखी जी वने, अविवेकी तिम माने मने ॥ ५३॥ अर्थः-पंथी लोकनें लूंट्या दे खीने तेनो गूढ एटले रहस्य ते मूढबुद्धि एवं कहे . जे पंथ लूंटाणो. ३ हां (पंथ के०) नाग ते अचेतन डे तेनुं खूटq ते वली किश्युं दोय. ए उपचार वचनने अनुपचार करी माने तेने मूढ कहियें तेम प्रतिनी क्रिया देखीने अविवेकी पुरुष, जीवने किया पोताने कृत्या दयो मनस्थो धर्मानेदाग्रहात् पुरुषे नासते ॥ ५३ ॥
॥ मूल प्रकृति नवि विकृति विख्यात, प्रकृति विरुति महदादिक सात ॥ गण पोडशक विकारी कह्यो, प्रकृति न विरुति न चेतन लह्यो ॥ ५४॥
अर्थः-जे मूलप्रकृति ते विकृतिरूप न होय, कोठें कार्य मर्ददादिक सात पदार्थ महन् अहंकार पचतन्मात्र ए प्रकृति कही अने विक्रति कहि ये उत्तरोत्तर-कारण पूर्व पूर्वनुं कार्य में तेजणी पांचचूत अने गीधार इंडि