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कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. त् के० ) निरंतर ( उत्तमानां के० ) उत्तमोने ( न्यायएव के०) न्यायज योग्य वे. ( यत् के०) जे कारण माटे (अमरवरलब्ध्या के० ) प्रधानदेव तानी प्राप्तियें करी (पारदा रिक्यचौर्य के० ) परदारानी चोरीना कार्यने (अनुविषयं के) देशदेश प्रत्ये ( चक्रनृत् ब्रह्मदत्तः के० ) ब्रह्मदत्त नामा चक्रवर्ती (अरौत्सीत् के०) निवारण करतो हवो. त्या दृष्टांत कहे जे. के जेम (सुरसरिति के०) स्वर्गगंगाने विपे (पंकः के०) कचरो (क्क के०) क्यां थी होय, तथा (ईशचं के०) शंकरना शिर उपर रहेला चंझ्ने विपे (कलं कः के०) कलंक ते (क के० ) क्याथी होय. ना नज होय ॥ ७६ ॥
प्रांहिं ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीनी कथा कहे . ब्रह्मदत्तें वनने विपे कोक दे वतानी स्त्रीने कोइ पुरुप साथें रमती जोड्ने ते स्त्री पुरुष वेदुनु ताडन क यु. ते स्त्री त्यांथी जश्ने पोताना स्वामी प्रत्ये कहेवा लागी के हे स्वामिना न! मने प्रावी रीतें ब्रह्मदत्तचक्रीयें मारी,पढ़ी तेना पति नागकुमार देवने सहेज तरतज कोप चड्यो, अने तरत त्यां श्राव्यो. ते वरखतें ते ब्रह्मदत्त चक्री पोतानी स्त्रीने घरमां कहेतो हतो के हे स्त्री : में कोई स्त्रीने कुकर्म करती जोड्ने मार मास्यो ,ते वाक्य सांजलतांज नागकुमार देव प्रसन्न थयो थको प्रगट थने कहेवा लाग्यो के हे राजन् ! वरदान मागो. त्यारें ब्रह्मदत्तें कह्यु के तमें अवधिज्ञानथी सर्व वात जाणो बो, माटे मारा देशमां परस्त्रीनी चोरी जो थाय, तो मने प्रावीने कहे,तेने ढुं शिक्षा आपीश. ए वरदान मागुं . पड़ी ते प्रमाणे ते देवें कयुं अने ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीये पण तेमज कयुं ॥७६॥
विद्याविनतिमहिमव्रतधर्ममोद, संपत्तये विनय एव विनुः किमन्यैः॥ किं किं नमिःसविनमिर्जिनतो
न लेने, पूज्यांघ्रिरेणुरपि पश्य नमस्यएव ॥ ७ ॥ अर्थः-(विद्या के०) विद्या, (विनति के) लक्ष्मी वा संपत्ति, (महिम के) महिमा (व्रत के० ) व्रत, (धर्म के ) धर्म, (मोद के० ) मोद तेनी ( संपत्तये के०) संपत्तिने माटे ( विनयएव विनुः के) विनय तेज समर्थ जे. (अन्यैःकिं के) बीजायें करीने गुं ? ( सविनमिः के०) ते वि नमियें सहित एवो (नमिः के०) नमि ते (जिनतः के० ) श्रीरुपनदेव ती र्थकरथकी (किंकि के) . (न लेने के०) न पामतो हवो. अर्थात्