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३०२ जैनकथा रत्नकोप नाग पांचमा. ही. जो योगीनुं शरीर शिष्यादिकने अदृष्टं रहे, तो (अरि के) वैररी ते ने अदृष्टं का पडतो नथी, तेमा स्वादृष्टेज निर्वाह मानवो ॥ ७२ ॥
॥ सकति अनंत सहित अज्ञान, कर्म कहो तो वाधे वान ॥ कर्मे होय जनमनी युक्ति, दर्शन ज्ञान चरणथी मुक्ति ॥ ७३॥ अर्थः-एम अवि द्यामायाशब्दवाच्य अनिर्वचनीय अज्ञान वेदांतिसंमत न घटे. जो अनंतश क्तिसहित अज्ञानरूप कर्म कहोतो, वान वधे. ते तेहना उदयद्योपशमा दिकथी अनेक कार्य थाय. कर्मक्ये मोद थाय. तेहज कहे कर्मे जन्मनी संसारनी युक्ति होय. नावें दर्शन, ज्ञान चारित्र थाय तेवारें मुक्ति होय ॥७३॥
॥ प्रतिबिंबे जो नाखें नोग, किम तस रूपी अरूपी योग॥आकाशादि कनुं प्रतिबिंब, जिम नहीं तिम चेतन अविलंब ॥ ४ ॥ अर्थः-चित् प्रतिबिंबे बुझिनो नोग बे, ते साक्षात् आत्माने नथी, जे एम कहे , ते ने रूपीअरूपीनो योग संनवे नही. आकाश अरूपी, जेम आदर्श प्रति बिंब नथी. तेम बुद्धिमांहे चेतन, अवलंब न होय गंजीरं जलं कहेतां
आकाशप्रतिबिंब नथी. गंजीरपणुं ते जलधर्म . प्रतिबिंबस्वरूप देखाडी चित्प्रतिबिंब न होय, एवं कहे जे ॥ ७ ॥
॥ आदर्शादिकमां जे बाय, आवे ते प्रतिबिंब कहाय ॥ स्थूलखंधनुं संग त तेह, नवि पामे प्रतिबिंब अ देह ॥ ७५॥ अर्थः-(थादर्शादिक के०) आर.सा प्रमुख जे स्वज इव्य तेहमा जे बाया आवे ते प्रतिबिंब कहियें ॥ उक्तं च ॥ जे पायरियस्त संतो,देहावयवाह हवंति संकंता ॥ तेसिंतबुव लाह, पन्नत्ते ॥ इति प्रतिबिंब स्थूल पुजलन होय. उक्तं च ॥ सामानदिया बाया, अनामुरगयाणि सिंतु कालाना ॥ सत्तेय नासुरगया, संदेहना मुणेयवा ॥ (अदेह के० ) अशरीर जे आत्मा ते बुद्धिमांहे प्रतिबिंब न वि पामे ॥ ५ ॥
॥ बुझे चेतनता संक्रमे, किम नवि गगनादिक गुण रमे॥ बुद्धि ज्ञान उपल ब्धि अनिन्न, एहनो नेद करे गुं खिन्न ॥७६॥ अर्थः-बुदितत्त्वे ( चेतन ताके०) चैतन्य प्रतिबिंबे,जोसंक्रमें, तो गगनादिकरूपी व्यना गुण बुद्धिमांदे केम नवि रमे ? बुद्धि ते चित्प्रतिबिंबाधिष्ठान ने. इंडियवृत्ति घटादि संग उ पलब्धि ते आदर्श मलिनमाथी प्रतिबिंबतमुखमलिनतास्थानीयनोग ए सांख्यकल्पना जूठी . ए त्रण एकार्थ . अतएव गौतमसूत्र इस्युं वे ॥